Monday 10 October 2016

1761 में पूना पेशवाओं को हराने वाला अहमदशाह अब्दाली, 1757 में एक जाट की कूटनीति के आगे हुआ था धराशायी!

यह किस्सा प्रोफेसर गण्डासिंह ने अहमदशाह अब्दाली पर लिखी अपनी पुस्तक में क़दरतुल्लाह के ग्रंथ ‘जाम-ए-जहानुमा’ के पेज 181 से लिया है|

आक्रांता अहमदशाह अब्दाली ने भारत में लाखो लोगो का कत्लेआम किया| जब दिल्ली पर कब्ज़ा करने के बाद, अब्दाली मथुरा की तरफ बढ़ा तो चौमुहा गाँव में 5000 जाटों की सेना ने अब्दाली से युद्ध किया| अब्दाली यहां से वृंदावन गया और हज़ारो लोगो का क़त्ल किया| नई निज़ामी के अनुसार 7 दिन तक यमुना का पानी खून से लाल रहा| अब्दाली ने महावन में कैम्प लगाया, उसने देखा की भरतपुर का राजा उससे डरा नहीं|

27 मार्च 1757 को अहमदशाह अब्दाली ने लोहागढ़ (भरतपुर) को धमकी देने के लिए एक अफगान अधिकारी को एक धमकी भरे पत्र के साथ सूरज-सुजान (महाराजा सूरजमल) के पास भेजा कि अगर उसने एक करोड़ रुपया नजराना पेश करने में और टालमटोल की तो डीग, कुम्हेर, वैर और भरतपुर के उसके चारों दुर्ग भूमिसात करके धूल में मिला दिए जायेंगे| और उसके प्रदेश की जो दुर्गति होगी, उसकी पूरी जिम्मेदारी उसी की होगी। किन्तु जाट राजा भयभीत नहीं हुआ। उसने कूटनीतिक शब्दों में उत्तर भेजकर अपने साहस एवं सूझबूझ का परिचय दिया।

अपने विशाल कोष, सुदृढ़ दुर्गों; असंख्य सेना और भारी मात्रा में युद्ध सामग्री के कारण महाराजा सूरजमल ने अपना स्थान नहीं छोड़ा और अपने को युद्ध के लिए तैयार किया।

सूरज-सुजान ने अब्दाली के दूतों को कहा - “अभी तक आप लोग भारत को नहीं जीत पाये हैं। यदि आपने अनुभवहीन बच्चे (इमाद-उल-मुल्क गाजीउद्दीन, जिसका दिल्ली पर अधिकार था) को अपने अधीन कर लिया है तो इसमें घमंड की क्या बात है? अगर आप में सचमुच कुछ दम है, तो मुझ पर चढ़ाई करने में इतनी देर किसलिए?”

शाह जितना समझौते की कौशिश करता गया, उतना ही जाट का अभिमान और दृढ़ता (अक्खड़पन) बढ़ती गयी। उसने कहा, “मैंने इन किलों पर बड़ा धन लगाया है। यदि शाह मुझसे युद्ध करे, तो यह उसकी मुझ पर कृपा होगी| क्योंकि तब भविष्य में दुनिया यह याद रख सकेगी कि एक बादशाह बाहर से आया था और उसने दिल्ली जीत ली थी, पर एक साधारण जाट-जमींदार के विरुद्ध वह लाचार हो गया था।”

जाटों के किलों की मजबूती से डरकर शाह वापस चला गया। और दिल्ली जाकर मुहम्मदशाह की पुत्री के साथ स्वयं का तथा आलमगीर द्वितीय की पुत्री के साथ अपने पुत्र का विवाह करके और नजीब खान को भारत में अपना सर्वोच्च प्रतिनिधि नियुक्त करके वह कन्धार लौट गया।”

कुछ दिग्भर्मित इतिहासकार महाराजा सूरजमल और अब्दाली के मध्य 5 लाख रुपए का समझौता हुआ बताते हैं, पर सूरजमल ने 1 पैसा भी अब्दाली को नहीं दिया| पेशवा दफ्तर, xxi, पत्र iii; भाऊ बख़र के अनुसार सूरजमल ने अब्दाली को एक पैसा भी नहीं दिया बल्कि पानीपत के युद्ध में अब्दाली से हारे मराठो को भी अब्दाली के खिलाफ सहायता दी| ऐसे अफलातून जाट को दुनिया नमन करती हैं। सभी प्राप्त वृत्तान्तों के अनुसार अब महाराजा सूरजमल हिन्दुस्तान में सबसे धनी, सबसे बुद्धिमान राजा था और वही एक ऐसा था, जिसने पेशवाओं को ‘चौथ’ और ‘सरदेशमुखी’ न देते हुए भी उनसे अच्छे सम्बन्ध बनाये रखे। अब्दाली को उसने चकमा दे दिया था।

प्रेरणा: जाट पुरखों के ऐसे देदीप्यमान किस्से, उत्साह और ऊर्जा देते हैं कि जब इतने बड़े-बड़े सुरमा जाटों को नहीं झुका सके तो इन "जाट बनाम नॉन-जाट" फैलाने वालों से क्या डरना| रो-पीट के बैठ जायेंगे अपनेआप| बस वो "कुल्हड़ी में दाने, कूद-कूद के खाने" वाला किस्सा है इनका; इनकी कुल्हड़ी के दाने खत्म करवाने में इनका सहयोग करो और आगे के लिए सीख ले लो कि इनकी कुल्हड़ी में उतने ही दाने डालो, जिससे यह फुदकें नहीं|

सोर्स: मानवेन्द्र सिंह तोमर

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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