Monday 13 March 2017

टीवी में वृन्दावन में सफ़ेद साड़ी में विधवाओं को होली खेलते हुए दिखाया गया है!

काहे के एक दिन के रंग? किसको बहलाने या बहकाने के लिए? साल के सारे दिन इनको अपनी पसन्द के रंग के कपड़े पहनने की इजाजत क्यों नहीं दी जाती?

कमाल की बात तो यह है कि यह पाप का गढ़ उस हरयाणवी सभ्यता के लोगों की धरती पर गाड़ रखा है जो विधवा को अन्य सामान्य औरत की भांति जीने के अधिकार और चॉइस देते हैं|

यह 100% विधवाएं गैर-हरयाणवी सभ्यता की हैं| बेचारियों को सबको इनके पतियों की प्रोपर्टी से बेदखल कर यहां नारकीय जीवन जीने को विवश किया गया है| इनमें 100% ढोंगी-पाखंडियों की वासना का शिकार बनती हैं और उसपे एक दिन का स्वांग करते हैं इनको होली खिलाने का|

और ख़ास बात तो यह है कि यह बेचारी उन राज्यों से आती हैं जिनके यहाँ से राष्ट्रीय मीडिया के एंकर-पत्रकार हैं और जिनके यहां कि गोल बिंदी गैंग वाली महिला अधिकारों की एनजीओ चलाती हैं|

हर वक्त हरयाणवी सभ्यता की खापों को डंडा दिए रहने वाले एंकरो और गोल बिंदी गैंग वालियों, हो औकात और हिम्मत तो आज़ाद करा के दिखाओ इन तुम्हारे ही राज्यों से आई पड़ी और यहां सड़ रही विधवाओं को, तब मानूँ तुम कितने औरत के अधिकारों और सुख-चैन की पैरवी करने वाले हो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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