Tuesday 12 July 2022

दादा नगर खेड़ों / दादा भैयों / बाबा भूमियों को खत्म करवाने हेतु दुष्प्रचार (महिलाओं-बच्चों में खास टारगेट) करती फिरती एक तथाकथित "निर्मात्री सभा"!



यह अपने आगे हमारी मूर्तिपूजा नहीं करने की पहचान के शब्दों का दुरूपयोग भी कर रही है, जबकि असलियत में यह वर्णवादी फंडियों का ऑउटफिट है| इनका उद्देश्य है कि या तो दादा खेड़े खत्म हों, या इन पर इनके मुताबिक इनके अड्डे बनें, इसलिए वक्त रहते इनसे सम्भलें व् अपनी नस्ल व् असल की इनसे बाड़ करें| 


अब जानिए, यह क्या दुष्प्रचार कर रहे हैं| बात मेरे और गाम में दूसरे पान्ने से मेरे भतीजे के मध्य फोन पर हुई थी, ज्यों-की-त्यों रख रहा हूँ| इस भतीजे से मैं पहली बार बात कर रहा था, क्योंकि इसके मन में जो सवाल कोंध रहे थे, उनके उत्तरों बारे इसको मुझे ही उचित सोर्स के तौर पर बताया गया| तो आपस में परिचय और प्रणाम की औपचारिकता पूरी होने के बाद गाम की सभ्यता और हरयाणत (संस्कृति) की वर्तमान हालत बतलाने से होते हुए बात इस मुद्दे पर कुछ यूँ पहुंची:


भतीजा: काका, आपको असली बात बता दी ना तो अपने गाम के "दादा खेड़ा" को उखाड़ के फेंकने का मन करेगा आपका|


काका: क्या बात करता है? ऐसा क्या सुना जो ऐसा कह रहा है? जबकि हमारी हरयाणत की मूल पहचान हैं हमारे गामों में पाए जाने वाले "दादा नगर खेड़े / दादा भैये / बाबा भूमिए / बड़े बीर" तो?


भतीजा: काका "दादा खेड़ा" हिन्दुओं की नहीं अपितु मुस्लिमों की देन है|


काका: वो कैसे?


भतीजा: मेरे को एक निर्मात्री सभा के आचार्य ने बताया|


काका: जरा खुल के बता पूरी बात?


भतीजा: हाँ क्यों नहीं, वो अपने गाम के एक प्राइवेट स्कूल ने पिछले हफ्ते 2 दिन का इस निर्मात्री सभा का केम्प लगाया था, जिसमें आये एक आचार्य ने बताया कि "जब हमारे देश में मुगलों का शासन था तो वो हमारी नई दुल्हनों को लूट लिया करते थे और अपनी पूजा करवाते थे, जिसके लिए उन्होंने हर गाँव में उनकी पूजा हेतु ये दादा खेड़ा बनवाये थे" और तभी से दादा खेड़ा पर हमारी औरतें और बच्चे पूजा करती हैं|


काका: और क्या बताया उस आचार्य ने?


भतीजा: और तो कुछ नहीं पर अब मैं दादा खेड़ा को अच्छी चीज नहीं मानता|


काका को खूब हंसी आती है|


भतीजा (विस्मयित होते हुए): आप हंस रहें हैं?


काका: हँसते हुए...अब मुझे समझ आया कि खापलैंड पर मूर्तिपूजा नहीं करने के सिद्धांत वालों की पकड़ दिन-भर-दिन ढीली क्यों होती जा रही है|


भतीजा: वो क्यों?


काका: क्योंकि इसमें पाखंडी घुस आये हैं|


भतीजा: आप एक आचार्य को पाखंडी कहते हैं?


काका: तो और क्या कहूँ? तूने तुम्हारी माँ-दादी या दादा को ये बात बताई?


भतीजा: नहीं?


काका: क्यों नहीं?


भतीजा: मुझे आचार्य की बात सच्ची लगी?


काका: आचार्य की बात सच्ची नहीं थी बल्कि उसका प्रस्तुतिकरण भ्रामक था और उसके भ्रम में तुम आ गए| और आचार्य होना, कौनसी सत्यता या आपके अपने हो जाने का परिचायक है?


भतीजा: वो कैसे?


काका: दादा खेड़ा की जो कहानी आचार्य ने तुम्हे सुनाई वो सच्ची नहीं है, और क्योंकि तुम पहले आचार्य से ये बातें सुनके आये तो सर्वप्रथम तो मुझे तुम्हारा भ्रम दूर करने हेतु आचार्य के तर्क के सम्मुख कुछ तर्क रखने होंगे और फिर दादा खेड़ा की सच्ची कहानी तुम्हें बतानी होगी| अत: मैं पहले तर्क रख रहा हूँ, जो कि इस प्रकार हैं: दादा खेड़ा एक मुस्लिम कृति या मान्यता नहीं है क्योंकि अगर ऐसा होता तो आज के दिन किसी भी गाम/शहर में दादा खेड़ा नहीं होते|


भतीजा: वो कैसे?


काका: उसके लिए तुम्हें "सर्वखाप " का इतिहास जानना होगा, "खाप" जानते हो ना क्या होती है?


भतीजा: ज्यादा नहीं सुना?


काका: हमारी खाप का नाम है "गठ्वाला खाप"|


भतीजा: हाँ, हम गठ्वाले हैं ना?


काका: हाँ, तो अगर दादा खेड़ा मुस्लिम देन होती तो यह उसी वक्त खत्म हो गई होती, "जब गठ्वाला खाप के बुलावे पे आदरणीय सर्वजातीय सर्वखाप ने मुस्लिम रांघड़ नवाबों की कलानौर रियासत तोड़ी थी" (और फिर मैंने उसको कलानौर रियासत के तोड़ने का पूरा किस्सा विस्तार से बताया) और पूछा कि जो वजह आचार्य ने दादा खेड़ा के बनने की बताई उसी वजह की वजह से तो कलानौर रियासत तोड़ी गई थी| सो अगर ऐसी ही वजह दादा खेड़ा के बनने की होती तो आप बताओ खापें उनके गांव में दादा खेड़ा को क्यों रहने देती? और इसको "कोळा पूजन" कहते थे, "कोळा यानि थाम्ब यानि खम्ब"; तो क्या समानता हुई दोनों में? 


भतीजा: ये बात तो है काका!


काका: अब दूसरा तर्क सुन, दादा खेड़ा की पूजा अमूमन रविवार को होती है, वह भी च्यांदण वाला रविवार; जबकि मुस्लिमों का साप्ताहिक पवित्र दिन होता है शुक्रवार (उनकी भाषा में जुम्मा)?


भतीजा: हाँ


काका: तो अगर उनको खेड़ा पूजवाना होता तो वो शुक्रवार को क्यों ना पुजवाते?


भतीजा: आचार्य कह रहे थे कि देखो थारे गाम के दादा खेड़ा का मुंह भी पश्चिम की तरफ है यानि कि मक्का-मदीना की तरफ|  


काका (अचरज करते हुए, यह फंडी इतनी खोजबीन समाज जोड़ने पे कर लें, तो इंडिया वाकई विश्वगुरु बन जाए): जिंद (जींद) के रानी तालाब मंदिर का मुंह किधर है? 


भतीजा: पश्चिम की तरफ| 


काका: तो क्या वह भी मुस्लिमों का कहना शुरू कर दें आज से, इनकी मान के? और हर तीसरे-चौथे मंदिर का मुंह पश्चिम की तरफ मिलेगा, तो आचार्य की मान के ढहा दें सबको? 


भतीजा: समझ गया काका| अगली बात काका, आचार्य कह रहे थे कि दादा खेड़ा पर नीला चादरा चढ़ता है, जो कि मुसलमानों की दरगाहों पर चढ़ाया जाता है?


काका: दरगाह का तो हरा होता है| नीला तो सिख धर्म का रंग है| और मान्यता के हिसाब से दादा खेड़ा का सफ़ेद चादरा बल्कि चादरा भी नहीं धजा होती है और अगर कोई नीला चढ़ा जाता है तो वह ऐसा अज्ञानवश करता है या इन फंडियों के प्रोपगैंडा में पड़ के इनके भ्रम फैलाने को करता है| हरे के साथ कहीं-कहीं नीला चादरा/फटका सैय्यद बाबा की मढी पर भी चढ़ता है| हाँ अगर यह आचार्य सैय्यद और दादा खेड़ा में कोई समानता ढून्ढ रहा हो तो कृप्या उसको बता देना कि दोनों अलग मान्यताएं हैं|


भतीजा: हम्म.....और जब भी गाम में नई बहु आती है तो उसको दादा खेड़ा पे धोक लगवाने क्यों ले जाया जाता है, क्या यह बात आचार्य की बताई बात से मेल नहीं खाती?


काका: पहली तो बात नई बहु को तो बेरी आळी, भनभोरी आळी, खरक आळी यानि अपनी-अपनी स्थानीयता के अनुसार कहीं-ना-कहीं सब ही ले जाने लगे हैं| जो कि पहले सिर्फ खेड़ों पर ही ले जाई जाती थी (हालाँकि आज भी जाती हैं)| तो क्या इस आचार्य ने इन बेरी-भनभोरी-खरक आदि पे ले जाने पे भी ऑब्जेक्शन जताई? 


भतीजा: नहीं, काका; सिर्फ दादा खेड़ों बारे बुरा बता रहा था| 


काका: तो समझ लो इसी से| और नई बहु तो क्या, नया दूल्हा जब मेळमांडे वाले दिन केसुह्डा (घुड़चढ़ी) फिरता है तो वह भी दादा खेड़ा पर धोक लगाता है और इस धोक का उद्देश्य होता है अपनी नई शादीशुदा जिंदगी की अच्छी और शुभ शुरुआत के लिए अपने पुरखों का आशीर्वाद लेना और इसी उद्देश्य से नई बहु शादी के अगले ही दिन गाम के दादा खेड़े पर धोक मारने आती है| नई बहु को दादा खेड़ा पर लाने का एक उद्देश्य बहु को गाम के प्रथम पुरखों की मान-मर्यादाओं-मूल्यों से परिचित करवाना भी होता है|


भतीजा: दादा खेड़ों पर क्यों?


काका: यही तो गाम के वह माइलस्टोन होते हैं, जहाँ प्रथमव्या आए पुरखों ने डेरा डाला होता है व् इस जगह को केंद्रबिंदु मान के इसके इर्दगिर्द ही हमारे गाम-खेड़े बसते आए हैं|  


भतीजा: अच्छा काका, अब समझा| यह और बताओ कि सैय्यद बाबा की क्या कहानी है?


काका: सैय्यद मुस्लिमों के सिद्ध पीर हुए हैं, और मुख्यत: अपने गाम में बसने वाली मुस्लिम जातियाँ उनकी अरदास करती हैं|


भतीजा: काका वो कह रहे थे कि हमारा गाम पहले मुस्लिम रांघड़ों की रियासत था और हम बाद में आकर बसे|


काका: तो फिर इस हिसाब से तो उस निर्मात्री सभा वाले आचार्य, आर.एस.एस. और तमाम हिन्दू संगठनों को हमें पुरस्कृत करना चाहिए कि हमने मुस्लिम रांघड़ों की रियासत पर अपना खेड़ा बसा रखा है, या नहीं?  


भतीजा: बात तो सही है काका आपकी| अब समझा| और शायद इसीलिए अपने गाम के खेड़े को "बड़ा बीर" भी बोला जाता है? 


काका: हाँ, गठवालों में चार बड़े बीर हैं; एक निडाणा में, एक आहूलाणा में, एक कासण्डा में व् एक का मुझे नाम ध्यान नहीं|  


भतीजा: काका आपने तो मेरी आँख खोल दी, वो आचार्य तो वाकई में हमें भ्रमित कर पथभ्रष्ट करने वाला ज्ञान बांटता फिर रहा है|


काका: जब कभी तुझे वो दोबारा मिले तो ये तर्क रखना उसके आगे और फिर देखना वो क्या जवाब देता है|


भतीजा: काका असल में हमारे बुजुर्ग हमें कुछ बताते ही नहीं...


काका: सारा दोष बुजुर्गों पर मत डालो, तुम जैसे हैं ही कितने जो अपने बुज्रुगों से ऐसी बातें पूछते-परखते हैं? यह बच्चे घर आकर अपनी दादी-दादा, माँ-पिता को यह बातें बताएं तो वो जरूर इन बातों की सत्यता से अवगत करवाएं या किसी जानकार को तुम्हें रेफर करें; जैसे तुम्हें मेरे से पूछने को कहा गया| 


भतीजा: थैंक्यू काका| 


काका: अपने साथियों को भी इस सच्चाई से अवगत करवाना| और उनको यह भी कहना की गए डेढ़ दशक पहले तक हमारे आदरणीय आर्यसमाजी हमारे गाम में जो भी कार्यक्रम करते थे उसमें, 'जय दादा नगर खेड़ा' और 'जय निडाणा नगरी' का उद्घोष लगा के ही तो प्रचार का कार्यक्रम प्रारम्भ किया करते थे और यही नारे लगा के कार्यक्रम सम्पन्न होते थे| तो इनसें पूछें कि मात्र डेढ़ दशक के काल में ऐसा क्या हो गया कि उसी दादा खेड़ा को यह बहरूपिए गिराने की बात करने लगे|


भतीजा: जी बिलकुल करवाऊंगा और आगे से पुछवाऊँगा भी!


वार्तालाप खत्म!


जय यौधेय! - फूल मलिक

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