Saturday 30 September 2023

सांझी, ‘उदारवादी जमींदारी कल्चर’ की किशोवस्था पीढ़ी को 'ब्याह के जीवन’ की शुरुवात के 'रीत-रिवाज-लत्ता-चाळ-टूम-ठेकरी' बारे ‘मानसिक रूप से ट्रैन करने’ की एक 'सुनियोजित किनशिप ट्रांसफर रिले’ की ‘रंगोली वर्कशॉप' है!

सांझी एक रंगोली है: सांझी एक रंगोली है कोई अवतार या माया नहीं! प्राचीन काल से उदारवादी जमींदारी सभ्यता में 'सांझी की रंगोली बनाना' नई पीढ़ी को ब्याह के शुरुवाती 10 दिनों व् तमाम गहनों-परिधानों की जानकारी स्थानान्तरित करने की एक कल्चरल विरासत यानि पुरख-किनशिप की प्रैक्टिकल वर्कशॉप होती है। इसके जरिए किनशिप का यह अध्याय अगली पीढ़ियों को पास किया जाता है। खापलैंड के परिपेक्ष्य में यह तथ्य "सांझी" बारे तमाम उन अन्य अवधारणों के बीच सबसे उपयुक्त उभरता है जो कि सांझी के साथ गाहे-बगाहे जुड़ी हुई हैं। और यह अवधारणा कहें या मान्यता सबसे सशक्त व् उपयुक्त क्यों है, उसके वाजिब कारण आगे पढ़ें।


सांझी नाम का उद्गम: इसका उद्गम हरयाणवी कहावत "गाम की बेटी, 36 बिरादरी की सांझी / साझली बेटी हो सै" से है। यानि यह शब्द हरयाणवी व् पंजाबी सभ्यता में हर बेटी का प्रतीक है।

आसुज के महीने में क्यों मनती है?: क्योंकि लोग खेती-बाड़ी की खरीफ की फसलों से लगभग निबट चुके होते हैं, फसल की आवक शुरू होने से (अधिकतर इस वक्त तक आवक पूरी हो लेती है) खुशियां छाई होती हैं और मौसम में बदलाव भी आ रहा होता है जो कि मंद-मंद सर्दी में बदल रहा होता है, व् मनुष्य चेतन आध्यात्मिक होने लगता है। इसलिए इस वक्त सांझी मनाने का सबसे उपयुक्त समय पुरखों ने माना। हरयाणवी कल्चर के प्रख्यात विद्वान् डॉक्टर रामफळ चहल जी के अनुसार खाप-खेड़ा दर्शन में सामण व् आधा बाधवा 'विरह' के चेतन का होता है व् दूसरा आधा बाधवा व् कात्यक 'आध्यात्म' के चेतन का होता है।

इसको मनाने के तरीके वास्तविक खाप-खेड़ा रीति-रिवाजों से हूबहू मेळ खाते हैं: जैसे ज्यादा पुरानी बात नहीं बहुतेरी जगह आज भी व् एक-दो दशक पहले तो खापलैंड पर हर जगह ही, ब्याह के बाद पहली बार ससुराल से बहन-बुआ को लाने भाई-भतीजे आठवें दिन जाते हैं/थे व् वहां दो दिन रुक कर बहन की ससुराल व् ससुरालजनों में बहन-बुआ की क्या कितनी स्वीकार्यता, स्थान, घुलना-मिलना व् आदर-मान हुआ यह सब देख-परखते थे व् दसवें दिन बहन-बुआ को साथ ले कर घर आते थे व् माँ-बाप, दादा-दादी को इस बारे सारी रिपोर्ट देते थे।

सांझी को बनाने की विधि:
पर्यावरण की स्वच्छता व् सुरक्षा हमारे पुरखों के सबसे बड़े सिद्धांत "प्रकृति-परमात्मा-पुरख" से निर्धारित है; इसलिए इसको बनाने में सारा सामान ऐसा होना चाहिए, जो कि पानी-मिटटी में मिलते ही न्यूनतम समय में गल जाए।
यह 10 दिन की वर्कशॉप होती है, जिसमें रोजाना सांझी के अलग-अलग भाग डाले जाते हैं। जैसा कि ऊपर भी बताया 8वें दिन सांझी का भाई उसको ठीक वैसे ही लेने आता है जैसे वास्तविक हरयाणवी विधानों के अनुसार नवविवाहिता को उसकी ससुराल से प्रथमव्या लिवाने वह 8वें दिन जाता होता है। व् 2 दिन रुक कर 10वें दिन बहन के साथ अपने घर आता है। 2 दिन रुक कर वह ससुराल में उसकी बहन के साथ ससुरालियों का व्यवहार-घुलना-मिलना देखता है ताकि वापिस आ कर माँ-बाप को रिपोर्ट करे कि बहन की ससुराल में बहन की क्या जगह बनी है व् कैसे उसको रखा जा रहा है।
गाम के जोहड़ में फिरनी के भीतर क्यों बहाई जाती है, किसी नहर या रजवाहे में क्यों नहीं?: क्योंकि जब सांझी को उसका भाई ले के चलता है तो औरतें उसको अधिकतम फिरनी तक ही छोड़ने आती हैं। दूसरा फिरनी के भीतर ही सांझी को रोकने की रश्म पूरी की जाती है; जो करने को गाम के जोहड़ सबसे उपयुक्त होते हैं। जोहड़ में बहाने के पीछे दूसरी वजह यह भी है कि वह ठहरे हुए पानी में गिर के जल्द-से-जल्द गल जाए ताकि पर्यावरण पर उसका अन्यथा असर ना पड़े। इस रोकने को उसके प्रति ससुरालियों के स्नेह के रूप में भी देखा जाता है। इसका अगला कारण, गाम-खेड़ों की अपनी नैतिकता का यह सिद्धांत है कि "तुम्हारा कचरा, संगवाना तुम्हारी जिम्मेदारी है; इसको चलते पानी में बहा के आप अगले गाम-खेड़ों को दूषित नहीं करेंगे"; इसीलिए इसको हमेशा ठहरे पानी में व् गाम की फिरनी के भीतर ही बहाया जाता है; और उसके लिए उपयुक्त रहे हैं गाम की फिरनी के भीतर के जोहड़; ताकि कोई सामग्री नहीं भी गले व् पानी में तैरती दिखे तो गाम के युवक को जोहड़ में जा के किनारे ले आएं व् जोहड़ से निकाल उपयुक्त कचरे की जगह पर डाल दें।

सांझी क्या नहीं है?:
यह किसी भी प्रकार का कोई अवतार या माया नहीं है।
जैसा कि ऊपर बताया, यह एक वास्तविक रिवाजों के आधार पर बनी रंगोली वर्कशॉप है; यह कोई मिथक आधारित कथा आदि नहीं है।
इसका नाम सांझी, हरयाणवी कल्चर की कहावत से निकला है (जैसा कि ऊपर बताया), अत: इसके साथ कोई अन्य नाम या प्रारूप जोड़ता है तो वह इसके वास्तविक स्वरूप से खिलवाड़ मात्र है, भरमाना मात्र है।
हम इसके वास्तविक रूप को मनाने से सरोकार रखते हैं; इसके जरिए किसी भी अन्य मान-मान्यता को कमतर बताना-आंकना या उससे अलग चलना कुछ भी नहीं है।
आप जैसे औरों के ऐसे मौकों-त्योहारों पर खुले दिल से जाते हैं, शामिल होते हैं; ऐसे ही उनको भी इसमें शामिल करें।

लड़कों का रोल: इसमें लड़के खुलिया-लाठी के साथ कल्लर-गोरों पर चांदनी शाम में गींड खेलते हैं। अपनी बहन-बुआओं के लिए सांझी बनाने का सामान जुटाते/जुटवाते हैं। जो कि सांझी के ही इस लोकगीत से झलकता भी है कि, सांझी री मांगै दामण-चूंदड़ी, कित तैं ल्याऊं री दामण-चूंदड़ी! म्हारे रे दर्जी के तैं, ल्याइए रे बीरा दामण-चूंदड़ी। हरयाणवी-पंजाबी कल्चर में वीर, बीर व् बीरा, भाई को कहते हैं। और भाई की इस कद्र इस वर्कशॉप में मौजूदगी, इसके समकक्ष किसी भी अन्य त्यौहार में नहीं है। लड़के, सांझी को बहाने वाले दिन, जोहड़ों पर उसको जोहड़ में रोकने हेतु आगे तैयार मिलते हैं। यह भी एक ऐसा पहलु है जो इसको माया या अवतार या मिथक कहने के विपरीत है।

चाँद-सूरज-सितारे व् पशु-पखेरू उकेरने का कारण: बेलरखां गाम, जिला जिंद (जींद) की दादी-ताइयां बताती हैं कि आसुज महीने के चढ़ते दिनों में चाँद भी जल्दी निकल आता है व् सूरज-चाँद-सितारे एक साथ आस्मां में होते हैं, गोधूलि का वक्त होता है, धीरे-धीरे दिन छिप रहा होता है। पशु-पखेरू घरों को लौट रहे होते हैं। इस कृषि व् प्रकृति आधारित विहंगम दृश्य के मध्य सांझी को दर्शाना, हरयाणत की सम्पूर्णता को दर्शाना होता है। जो कि हमारे बच्चों की चित्रकला व् कल्पना शक्ति की क्रिएटिविटी को भी उभारना कहा जाता है।

इस बार की सांझी, 15 से ले 24 अक्टूबर तक मनाई जाएगी! आप सभी को एडवांस में सांझी की मुकारकबाद!

जय यौधेय! - फूल कुमार मलिक



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