Saturday, 12 July 2025

सांगवानों के बारे में दुष्प्रचार!

ये बात मुझ से बार बार पुछी जाती है कि क्या सांगवान राजपूतों से बने हैं? ये सवाल कोई तीन चार साल पहले मुझ से एक गैर जाट राज्य सभा सांसद ने भी पूछा था। उन्होंने तो न सिर्फ पूछा बल्कि स्वयं कह भी दिया था कि सांगवान राजपूतों से बने हैं। पहली बात तो यह कि मैं स्पष्ट कर दूँ कि कुछ सांगवान अपने को सांगा भी लिखते हैं, जिस कारण कुछ लोगों द्वारा एक भ्रम कि स्थिति पैदा करने की कोशिश की जाती है कि सांगवान का राणा सांगा से संबंध है। लेकिन यह कोरी गप है, सांगवान का राजपूत राजा राणा सांगा से निकट का भी संबंध नहीं था। सांगवान गोत की उत्पत्ति 14 वीं शताब्दी में चौधरी संग्राम सिंह से हुई है। जिनकी मृत्यु लगभग सन 1340 में हुई थी। चौधरी संग्राम सिंह के पिता राव नैन सिंह और उनके बुजुर्ग राजस्थान के सारसू जांगल क्षेत्र से उठकर, घूमते फिरते यहाँ वर्तमान स्थान चरखी, पैंतावास और मानकावास के बीच में नैनसर तालाब के स्थान पर आए थे (पाठकों की जानकारी के लिए बता दूँ कि राव उपाधि थी, जोकि आगे चलकर जाटों का गोत भी बना। इस गोत के गाँव भिवानी में मालवास , हिसार में, राजस्थान के जिला झुञ्झुणु का गाँव घरड़ाना तथा उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में इस गोत के कई गाँव हैं। सबकी जानकारी के लिए बता दूँ कि सीडीएस विपिन रावत का जो हेलिकॉप्टर क्रैश हुआ था, उसके को-पायलट कुलदीप राव इसी घरड़ाना गाँव से थे।)। इस तालाब को वर्तमान में नरसन कहा जाता है। नैनसर (नरसन) तालाब का नाम चौधरी संग्राम सिंह के पिता राव नैन सिंह के नाम पर पड़ा था। क्योंकि राव नैन सिंह की मृत्यु इसी स्थान पर हुई थी। यहाँ बाढ़ आने के कारण यह पूरा परिवार यहाँ से उठकर असावरी की पहाड़ी पर चला गया था। वहाँ से बाद में खेड़ी बूरा नामक स्थान पर आकर बस गया। इसी स्थान पर चौधरी संग्राम सिंह उर्फ दादा सांगू की यादगार बनाई हुई है, जिसे सांगू धाम के नाम से जाना जाता है। सांगवानों का संक्षेप इतिहास झोझु गाँव के सेवानृवित जेई श्री राजकुमार सांगवान ने भी लिखा है। इस इतिहास को मैं लिखने वाला था, नौकरी के दौरान में मैंने काफी जानकारियाँ जुटा भी ली थी, परंतु पैंतावास खुर्द के कैप्टन रतिराम ने कहा कि इस इतिहास को वह लिखेंगे, तो फिर मैंने मेरा इरादा टाल दिया। हालांकि, वह सभी जानकारियाँ जी मैंने जुटाई थी वह अभी भी मेरे पास रजिस्टर में हैं। 


सांगवानों की राजपूत जाति से निकास की बात तो छोड़िए, मैं दावे से लिख रहा हूँ कि आजतक इस देश में कोई भी एक जाट, अहीर या गुर्जर इस राजपूत जाति से नहीं बना है। राजपूत भी जाति नहीं थी, यह पहले एक संघ था, जोकि कई जातियों से बना था। जिसके इतिहास में प्रमाण हैं। इस पूरी कहानी का मर्म माउंट आबू पर्वत पर अग्निकुंड से जुड़ा है। फिर भी आप इस इतिहास के बारे में और जानना चाहते हैं तो आप पाकिस्तान के विख्यात इतिहासकार राजा अलीहसन चौहान द्वारा लिखी पुस्तक “A Short History Of Gujjars” पढ़ सकते हैं। जिसका यमुनानगर के गुर्जरों ने “गुर्जरों का संक्षिप्त इतिहास” नाम से हिन्दी में अनुवाद करवाया है। जिसका पता इस प्रकार है – गुर्जर एकता परिषद, देवधर, यमुनानगर, हरियाणा (135021)। जहां तक सांगवान की या अन्य किसी भी जाट गोत की राजपूत से निकासी की बात है तो उसको हम आंकड़ों से भी समझ सकते हैं। सन 1881 की जनगणना अनुसार राजस्थान में जाटों की जनसंख्या लगभग दस लाख थी, जबकि राजपूत जाति की जनसंख्या लगभग छह लाख थी। संयुक्त पंजाब (पाकिस्तान का पंजाब, भारत का पंजाब , हरियाणा और हिमाचल), जिसे जाटों का गढ़ माना जाता था, यहाँ जाटों (मुस्लिम+सिक्ख+हिन्दू) की जनसंख्या लगभग पैंसठ लाख थी, तो राजपूतों (मुस्लिम+हिन्दू+सिक्ख) की जनसंख्या लगभग तेईस लाख थी। दोनों ही प्रान्तों में राजपूत या तो जाटों की जनसख्या के आधे थे या आधे से कम! अब सोचने वाली बात यह है कि हिन्दू धर्म या जिसे आजकल सनातन धर्म भी कहने लगे हैं, उसकी वर्ण व्यवस्था अनुसार राजपूत को इस व्यवस्था में ब्राह्मण में बाद ऊंचा दर्जा प्राप्त था, क्षत्रिय कहलाते थे, राजपूत अर्थात राज करने वाले; तो व्यवस्था में प्राप्त ऊंचे दर्जे को कौन छोड़ना चाहेगा और वह भी इतने बड़े पैमाने पर? हर कोई ज़िंदगी में प्रमोशन चाहता है, न कि डिमोशन! जाटों के विरुद्ध यह दुष्प्रचार हजार सालों से किया जा रहा है और इसका कारण है कि जाटों ने ब्राह्मण धर्म की बनाई हुई व्यवस्था को कभी स्वीकार नहीं किया, और आज भी इसे पूर्णतया स्वीकार नहीं किया हुआ है। यही कारण है कि आज भी जब भी मौका मिलता है तो इनकी मीडिया जाटों के विरुद्ध षड्यंत्र शुरू कर देती है, समाज में जहर घोलने के लिए जाट-गैर जाट जैसी घृणित नीति अपनाई जाती है। 


भारतीय इतिहास बड़ी ही पक्षपात की दृष्टि से लिखा गया है। अंग्रेजों ने इस इतिहास के साथ न्याय किया है। भारतीय इतिहास में दो बहुत बड़ी दुर्घटनाएँ हैं, जिनको आमतौर पर भारतीय इतिहासकारों ने छूना भी नहीं चाहा। जानते हुए भी इन दोनों दुर्घटनाओं को बड़ी चालाकी से नजरंदाज कर दिया गया। जबकि ये दोनों ही दुर्घटनाएँ भारतीय इतिहास का बहुत बड़ा “टर्निंग पॉइंट” हैं। पहली दुर्घटना है, सम्राट अशोक के पौत्र महाराजा बृहदृथ कि एक बहुत बड़े षड्यंत्र के तहत उनके ही साले और सेनापति पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण द्वारा धोखे से हत्या। दूसरी दुर्घटना है, सिंघ के आलौर साम्राज्य के महाराजा सिहासी राय (मोर) कि उनके ही एक मंत्री और सलाहकार चच नाम के ब्राह्मण द्वारा धोखे से हत्या। महाराजा बृहद्र्थ की हत्या दुनियाभर में सबसे बड़ा धार्मिक षड्यंत्र था। जिसमें बौद्ध धर्म को खत्म करके ब्राह्मण धर्म को स्थापित करवाया गया था। याद रहे उस समय कोई भी हिन्दू धर्म नाम का कोई धर्म नहीं था। इन दोनों षडयंत्रों तथा ऐसे दुष्प्रचारों के बारे में, कि ये क्यों किए गए, मेरी आने वाली पुस्तक “जाटों को मलेच्छ और दलित क्यों कहा गया?” में विस्तार से लिखुंगा। 


इसके ईलावा मैं एक भ्रम और दूर कर दूँ। सांगवान और श्योराण गोत को लेकर मैं कई लोगों से सुन चुका हूँ कि सांगू और श्योरा दोनों भाई थे। पता नहीं लोग छोटी से बात पर भी अपना दिमाग इस्तेमाल क्यों नहीं करते हैं? एक बड़ा ही छोटा सा तर्क है कि चौधरी संगाम सिंह (दादा सांगू) की तीन शादियाँ हुई थी। पहली शादी श्योरण गोत के प्रधान गाँव सिद्धनवा में हुई थी। अन्य दो शादियाँ अहलावत गोत के डिघल गाँव मे हुई थी। अब एक छोटी सी सोचने वाली बात है कि जब सांगू की पहली शादी श्योराण के सिद्धनवा में हुई थी, तो क्या सांगू ने अपनी बहन से शादी की थी? यह कतई संभव नहीं है। तो ऐसे बेतुके भ्रम ना फैलाया करें।  


 ~सरदार हवासिंह सांगवान (पूर्व कमांडैंट, सीआरपीएफ़)

No comments: