अजीब सी बात है, जो रस्में एकांत में हुआ करती थी, समाज में दबा-छिपा कर किया जाता था, वही खुल्लम खुल्ला हो रहीं हैं। मैं इसे आधुनिक समाज की संकीर्ण मानसिकता ही कहूंगी। आजादी का मतलब यह तो नहीं कि सांस्कृतिक कार्यक्रमों में निजता और संस्कारों का ध्यान ही न रहे। परंपरा और विरासत के नाम पर नंगा होना तो उचित नहीं।
पिछले साल से खोड़िये का नया ट्रेंड चला है। खोड़िया हरियाणा की लड़के के विवाह में बारात चढ़ने के बाद केवल महिलाओं द्वारा किया जाने वाला एक निजी
खेल-तमाशा, गीत संगीत का प्रोग्राम है। जिसे अब सोशल मिडिया पर सिर्फ तमाशे की तरह परोसा जा रहा है।
अगर खोड़िया ही दिखाना है तो कुछ खूबसूरत गीतों मे साथ भी दिखाया जा सकता है। सब कुछ परोसना ठीक नहीं।
इसमें कुछ रस्में होती हैं, जिन्हें दिखाया जा सकता है।
शुरुआत में दुल्हे की भाभी, बहनें दुल्हा दुल्हन बनती हैं और विवाह की सभी रस्मों को हंसी मजाक में दोहराया जाता है। चूंकि सब स्त्रियाँ होती हैं तो लोक लाज को ध्यान में न रखते हुए दुल्हा-दुल्हन के प्रथम मिलन पर, पति पत्नी के संबंधों खुल कर चुहल की जाती है।
फिर आती है घर की ब्याही बेटी मनिहार बन कर जिसका साथ भाभी देती है। एक हाथ में लाठी और दूसरे में खजूर की बनी टोकरी जिसमें गेहूं के दाने होते हैं।
महिलाएं गीत गाती हैं-
किसियां की कोळी बोल्या हे मनियार लाला मनियार....
ये तो फलाणे की कोळी बोल्या हे मनियार लाला मनियार...
ऐसे ही चमोलों के साथ जिस घर से बाराती गया, उनका नाम ले, उनकी बहु को झूठी मूठी चूड़ी चुढ़ाई जाती हैं। वे टोकरी में पैसे रखती हैं।
फिर बोकड़ा गाया जाता है। दो स्त्रियाँ कोरे घड़े लेकर बैठती हैं। एक मटके की तरफ मुंह कर बोलती है- किसियां का सै बोकड़ा बोल्लै भो भो भो....
दूसरी तरफ से बोलती है- किसियां का सै मेमनी बोलै मयां मयां मयां....
पहली- फलाणे का सै बोकड़ा, बोलै भो भो भो....
दूसरी फलाणे की सै मेमनी, बोलै म्यां म्यां म्यां....
दूसरा गीत घड़े में ही मुंह देकर गाया जाता है, जिसमें एक बोलती है- ऐ री मां
दूसरी- हाँ रे बेट्टा
पहली- कै तो मेरा ब्याह करदे, ना इस मोटळी न ले कैं भाज ज्यांगा...
सारी मिल कर गाती हैं- वा तो नखरो घणी रै मेरे लाल
धाई मारै बावरिया
जोड़ी नहीं जची रै मेरे लाल
धाई मारै बावरिया...
अब इन गीतों का सौंदर्य देखिए कि पशुओं की आड़ में मनुष्यों के शारीरिक आकर्षण का प्रतीक बनाया गया है। सुंदर शब्दों में सब कहा गया। लेकिन फूहड़ता नहीं है।
एक गीत और है-
कोरी कोरी चाँदी की हाँसली घड़ाई उपर घड़ाई परांत
आज मेरे बेटे की फेरां आळी रात
आज मेरे बेटे की फेरां आळी रात।
कोरी कोरी चाँदी की हांसली घड़ाई, उपर जड़ाए हीरे
आज मेरे बीरे की फेरां आळी रात।
एक ओर गीत है-
आज म्हारा फलाना बारात चढ़ा
कज़ळोटी हे
इस मोटळी न किससै भरोसै छोड़ गया
कज़ळोटी हे।
इस नान्हीं( कोई भी नाम लिया जा सकता है) की चौकी बिठा ए गया
कज़ळोटी हे
नान्हीं तो पड़ कैं सो हे गई कज़ळोटी हे
वैं तो आए बांदर पाड़ गए
कज़ळोटी हे
पाड़ गए, बिगाड़ गए, कज़ळोटी हे।
इसी तरह उल्हाने और हास-परिहास से भरे खूब सुंदर गीत हैं और बहुत सारे खेल-तमाशे जिनमें स्त्रियां अलग- अलग रूप धर खूब हंसती बोलती थी।
एक दादी थी जो चोटी खोल दो मुखड़े का गीत गाती और शरीर को अलग-अलग ढंग से मोड़, अजीब से मुंह बना बावली बनती थी।
नाक में बोलकर कहती-
सास मेरी न दळिया रांध्या
सास मेरी न दळिया रांध्या
एक दाणा काच्चा रहग्या
एक दाणा काच्चा रहग्या
आक्कड़ कैं मरजाणा, दळिया नी खाणा
आक्कड़ कैं मरजाणा, दळिया नी खाणा....
एक लाइन बोलती रहती, मुड़ती रहती... और मुड़ती ... और मुड़ती
स्त्रियाँ हंसती जाती.... हँसती जाती....
हाय! वे बिन मोबाइल के ढके छिपे दिन... खुलापन था पर निजता थी।
सुनीता करोथवाल
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