Sunday, 9 August 2015

अमेरिका में जज न्याय नहीं करते, अपितु पंचायती करते हैं; जज सिर्फ प्रेक्षक का काम करते हैं!

वीकेंड पे भारत के समकक्ष विभिन्न देशों में न्यायपालिका कैसे कार्य करती है इस बारे इंटरनेट सर्फिंग कर रहा था और संयोग हुआ कि साथ ही अमेरिका से मेरे एक अजीज मित्र भरत ठाकरान से भी वॉइस चैट हो रही थी। इस पोस्ट के टाइटल के हिसाब से जो कुछ इंटरनेट पे सर्च करके पढ़ा तो उसका प्रैक्टिकल रिफरेन्स पाने हेतु उनसे बात की। उनकी और इंटरनेट की सर्च का निष्कर्ष अमेरिका और भारत की न्याय-प्रणाली में क्या समरूप है और क्या भिन्न, उसके इस प्रकार तथ्य सामने आये:

1) अमेरिका के किसी भी गांव या शहर में जब भी कोई विवाद या अपराधिक मामला सामने आता है तो उसको जिला कोर्ट में पेश किया जाता है जहाँ दोनों पक्षों के वकीलों को एक जज की निगरानी में मामले की प्रकार के अनुसार आमजन में से 11 लोगों का ट्रिब्यूनल यानी जुडिशियल बॉडी चुननी होती है। इन चुने हुए 11 लोगों को दोनों वकील एकांत में इंटरव्यू करते हैं और जो सही नहीं लगता उसको निकाल के उसकी जगह उसी शहर-गांव का कोई दूसरा सदस्य लिया जाता है। दोनों वकीलों के पास इन 11 में से किसी को निकालने या रखने के 3 तक चांस होते हैं।

इसके समरूप भारत में क्या है: भड़कना और बोहें मत चढ़ाना परन्तु इससे मिलती-जुलती या इसके नजदीक लगती प्रक्रिया है खाप पंचायतों की। फर्क सिर्फ इतना है कि भारत में खाप की प्रक्रिया को वकील और जज से नहीं जोड़ा गया है। अमेरिका में जहां वकील और जज केस की स्थानीय लोकेशन के 11 सामाजिक लोगों का ट्रिब्यूनल चुनते हैं, वहीँ खाप में यह काम उस विशेष खाप पंचायत का प्रेजिडेंट करता है और वो 11 की जगह 5 सामाजिक लोगों को पंचायत में ही पब्लिक की उपस्थिति में चुनता है। अमेरिका में इस बॉडी में से किसी सदस्य को बदलने के जहां 3 चांस होते हैं, वहीं खाप में पब्लिक उपस्थिति में पूछा जाता है कि इनमें से किसी नाम पे किसी पक्ष को आपत्ति है तो कहें। कोई आपत्ति आती है तो उस सदस्य को बदल के उसपे फिर पब्लिक राय ले के आगे की कार्यवाही शुरू की जाती है। ध्यान रहे यहां मैं खाप के आदर्श विधान की बात बता रहा हूँ, उनकी नहीं जो खापों की आड़ या उनको बदनाम करने हेतु उनके नाम से पंचायतें बुला लेते हैं या मीडिया में दिखा देते हैं। ऐसे लोगों पर खापों को निगरानी रखनी चाहिए। और एक बात यह प्रोसेस पूरे भारत में और कहीं की भी गांव-नगर-सोसाइटी पंचायतों में नहीं है, सिर्फ खाप पंचायतों में है।

2) पूरे मामले को यह 11 लोग सुनते हैं, जज और वकील सिर्फ यह सुनिश्चित करते हैं कि सारी कार्यवाही अमेरिकन कानूनी धाराओं के अनुसार हुई है। दोनों पक्षों को सुनने के बाद यह 11 सदस्यीय टीम ही न्याय करती है, जिसको फिर जज दोनों पक्षों को पढ़ के सुनाता है। अगर किसी भी पक्ष को निर्णय पसंद नहीं आया तो उसपे अपील लगती है| जज को लगे कि और सबूत व् तथ्य चाहियें तो जज उसी 11 सदस्यीय पैनल को पुलिस की सहायता से सब जरूरी सबूत उपलब्ध करवाता है और फिर से पंचायत बैठती है और नए या छूट गए तथ्यों की उपस्थिति व् रौशनी में फिर से केस सुना जाता है। इसमें कोई तारीख-पे-तारीख सिस्टम नहीं होता क्योंकि जज और वकीलों पर प्रेशर रहता है कि 11 सदस्यीय ट्रिब्यूनल के वक्त बरबादी के साथ-साथ न्याय में देरी ना हो।

खाप-पंचायतों में इसके जैसा क्या है: 5 सदस्यीय पंचायती मंडल दोनों पक्षों और उनके गवाहों को सुनने के बाद, पंचायत के प्रेजिडेंट को अपना फैसला सौंपता है, जिसको प्रेजिडेंट पंचायत में बैठी पब्लिक व् दोनों पक्षों को सुनाता है। अगर दोनों पक्ष फैसले से संतुष्ट हुए तो 'ग्राम-खेड़ा' की जय बोल के पंचायत उठ जाती है अन्यथा दूसरी सुनवाई हेतु खाप-पंचायत उसी गाँव/शहर/लोकेशन पे ठहरी रहती है और अपनी निगरानी में छूटे हुए या अभी तक सामने नहीं आये तथ्यों को खोजवाती है अथवा ढुँढवाती है। और फिर नए पर्याप्त तथ्य जुटाने पर पहले वाली प्रक्रिया दोहराई जाती है और यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक दोनों पक्ष संतुष्ट ना हों। अमेरिकन लॉ और कोर्ट की तरह खाप पंचायत के यहां भी कोई तारीख-पे-तारीख नहीं होती। एक बार किसी मुद्दे पर खाप पंचायत बैठ गई तो खाप का आदर्श विधान कहता है कि वो फैसला करके ही वहां से उठेगी, फिर फैसला करने में कितनी ही सिट्टिंग्स क्यों ना लग जावें।

3) भारत भी अमेरिका की तर्ज पर खाप पंचायतों के फार्मूला को जज व् वकील से जोड़ ले तो हम भी 'फेडरल स्टेट' बन जावें: इसकी जरूरत व् महत्वता को समझने के लिए हमें अमेरिकी प्रोसेस के फायदे देखने होंगे:

3.1) "न्याय में देरी, न्याय को ना" क्योंकि अमेरिका की कानून व्यवस्था ने सामाजिक पंचायत और कानूनी पंचायत को ऊपर बताये तरीके से जोड़ रखा है, इसलिए वहाँ इसकी नौबत नहीं आती। जबकि भारत में एक-एक मुकदमा 20-20 साल चलता रहता है।

3.2) "कोई-तारीख-पे-तारीख" नहीं, हर फैसले को खाप-पंचायतों की तरह निबटाता है अमेरिका| यानी एक बार ट्रिब्यूनल बैठ गया तो बैठ गया, फिर लगातार उस मुकदमे की सुनवाई चलेगी, देरी हुई तो ट्रिब्यूनल के सदस्य प्रेशर देंगे। एक अध्यन के अनुसार आज भारत में 3 करोड़ से अधिक मामले सिर्फ इस 'तारीख-पे-तारीख' की बला की वजह से लटके पड़े हैं।

3.3) सामाजिक लोगों की भागीदारी होने से रिश्वतखोरी और गवाहों के तोड़ने-मरोड़ने की गुंजाइस कम रहती है क्योंकि ट्रिब्यूनल के सारे सदस्य स्थानीय होते हैं और वो अधिकतर मामलों में दोनों पक्षों के लोगों को निजी स्तर तक जानते होते हैं।

3.4) वकील-जज नियंत्रण में रह के और अपनी जिम्मेदारी समझ के कार्य करते हैं।

3.5) जनता-जनार्धन का राज चलता है, यानी वकील और जज न्याय नहीं करते वो न्याय करवाने वाले होते हैं, न्याय करती है सामाजिक जनता की पंचायत।

लेकिन जब हमारा देश आज़ाद हुआ तो किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया कि न्याय प्रक्रिया में जनता की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाए। अधिकतर मामलों में जज ना ही तो दोनों पक्षों को जानता होता है, और ना ही उनकी भाषा बोलता-समझता होता है। सामाजिक ट्रिब्यूनल की अनुपस्थिति में फिर रिश्वतखोरी और गवाह तोड़ने-मरोड़ने का जो खेल चलता है वो तो हर भारतीय जानता ही है।

और भारतीय परिवेश में मैं इसका सबसे बड़ा दोषी मानता हूँ हमारे यहां की जातीय-व्यवस्था को। खापों में तो फिर भी प्राचीनकाल से सब जातियों की भागीदारी रही है (हालाँकि आज मीडिया और एंटी-खाप लोग इसको जाति विशेष की बता, जाति और वर्ण व्यस्था बनाने वाले लोगों से ध्यान हटाना चाहते हैं, ताकि समाज में लिखित तौर पर जाति-पाति फ़ैलाने का उनका घुन्नापन ढंका रहे और खाप उनके फैलाये इस जहर को हजम करने हेतु सॉफ्ट-टारगेट बानी रहें) परन्तु जाति-पाति को लिखित तौर पर बनाने वाले समुदायों से आने वाले न्यायपालिका में भी इसको कायम रखना चाहते हैं और इस मार्ग में वो खाप जैसी संस्थाओं को सबसे बड़ा रोड़ा पाते हैं इसीलिए एकमुश्त इन पर जहर उगलते और उगलवाते हैं। परन्तु यह उनसे ज्यादा खापों की नाकामी है जो ऐसे सॉफ्ट-टार्गेटों से बचने हेतु कोई भी शील्ड व कवच नहीं रखते या बनाते।

इसलिए अगर हमको हमारे लोकतंत्र की परिभाषा के अनुसार लोकतान्त्रिक न्याय चाहिए जो यह गुलामों वाली न्यायप्रणाली को बदल खाप पंचायतों जैसी व्यवस्था में जरूरी सुधार डाल इसको अमेरिका के पैटर्न पे जज-वकील व्यवस्था के साथ जोड़ना होगा। न्यायपालिका को न्याय करने वाली नहीं अपितु करवाने वाली बनना होगा।

As per Mrs. Urmy Malik, resident of Canada, "Similar jury trials procedures prevails in Canadian judicial system also." She further adds, "In serious criminal cases, accused has the choice to be tried by single judge or jury. 12 members are selected from the community from different backgrounds. They find the facts and give their verdict separately. .The trail judge cannot ignore verdict made in majority. And you are right less or more they work like panchâyat.

As per Mrs. Krishna Chaudhary, resident of Australia "यहँ भी ऐसा ही है आम नागरिक की भी जूरी duty लगती है एक बार मेरी भी आई थी|"

Source: http://www.uscourts.gov/services-forms/jury-service/types-juries

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जींद शहर के 'श्री दादा नगर खेड़ा' से परिचय!


शहर के मशहूर 'सफीदों गेट' (जहाँ से जींद-सफीदों रोड का उद्भव होता है) से नई सब्जी मंडी की तरफ करीब 100 मीटर चलने पर बाईं और स्थित हैं जींद शहर के 'श्री दादा नगर खेड़ा'। ठीक यहीं पर सड़क के बीचों-बीच एक छोटा-सा डिवाइडिंग पार्क है, जहाँ से मुख्य सड़क नरवाना की ओर 90 डिग्री पर बाएं मुड़ जाती है और एक सीधी नई सब्जी मंडी को जाती है; इसी लैंडस्केप के सफीदों-गेट की तरफ वाले छोर के बिलकुल बाईं ओर इसी सड़क के मुहाने पर है यह धाम। धाम पे ऊपर लिखा भी हुआ है 'दादा खेड़ा'।

बिल्कुल अपने ट्रेडिशनल प्रारूप में सफेद रंग का वर्गाकार कमरे के ऊपर गोल-गुंबद वाला (जैसा कि खापलैंड के हर गाँव में पाया जाता है) धाम 'श्री दादा नगर खेड़ा' उपस्थित है जींद शहर के केंद्र में।

बहुत लेख पढ़े, किसी में मिलता है कि जींद जयंती नगरी है, किसी जयंती देवी का बसाया हुआ है। कोई लेखक इसको पांडवों से जोड़ता है तो कोई किसी से। परन्तु खापलैंड के शहर में खापलैंड की परम्परा से बसाये जाने वाले नगर-ग्राम की इतनी बड़ी निशानी होते हुए भी कोई यह कहते नहीं दिखा कि जींद भी पहले ऐसे ही तो बसाया गया था जैसे एक आम हरयाणवी गांव या नगर बसता है। और शहर के ऐतिहासिक और सबसे पुराने हिस्से में 'दादा खेड़ा' का होना इस बात को प्रमाणित करता है कि जींद को बसाने वाले सबसे पहले यहाँ बसे और हरयाणवी परम्परा के अनुसार बसासत की नींव हेतु सबसे पहले यहाँ 'दादा खेड़ा' स्थापित किये गए और फिर इनके इर्दगिर्द जींद बसा।

मैं नेटिव हरयाणवी दोस्तों से अनुरोध करूँगा कि अगर आप शहर आ गए हैं और यहां बस गए हैं तो अपने गाँव ना जा सकने की परिस्थिति में किसी और जगह पूजा-पाठ करने की बजाये अपनी शुद्ध परम्परा के अनुसार इस धाम पर पूजा करें। ताकि हमारी संस्कृति शहर में रहते हुए भी यूँ की यूँ फलीभूत होती रहे। होती रहे क्या, हमारे पुरखों ने बिना किसी झिझक फलीभूत रखी हुई थी; यह तो हम ही पता नहीं ऐसे क्या छद्म-मानव हुए हैं कि इसको अपना कहने और इसको प्रमोट करने में झिझकते देखे जाते हैं।

साथ ही खापलैंड के अन्य शहरों में रहने वाले नेटिव हरयाणवियों से अनुरोध करूँगा कि आप भी अपने-अपने शहरों में इस धाम को ढूंढ कर जनता को जरूर चिन्हित करवावें। मुझे दृढ विश्वास है कि जींद की ही तरह खापलैंड के बाकी शहर भी 'दादा खेड़ा' परम्परा पर ही बसे हैं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 8 August 2015

चौपाल, यूरोप और खाप!


हरयाणा के जाने-माने पुरातात्विक वैज्ञानिक सर रणबीर सिंह फोगाट की भारत की 3 लाख किलोमीटर से ज्यादा की यात्रा और 35 साल से ज्यादा की खोज के तथ्यों व् अनुभव के अनुसार खापलैंड पर जो सार्वनजिक सामाजिक चौपाल-परस {इंग्लिश में कम्युनिटी हॉल (Community Hall), फ्रेंच में होटल-दु-विल (Hotel-de-Ville} का कांसेप्ट है यह सिवाय खापलैंड के पूरे भारत में कहीं नहीं मिलता। क्योंकि यह कांसेप्ट खापों का कांसेप्ट है इसलिए यह खापलैंड पर ही मिलता है, बाकी भारत में कहीं भी ऐसी कांसेप्ट या ऐसे चौपालें नहीं मिलती हैं। सर के अनुसार यह कांसेप्ट भारत में और कहीं नहीं है सिवाय खापलैंड के।

जब मैं यही France के मामले में देखता हूँ तो ठीक खापलैंड के हर गाँव में जैसे चौपाल होती हैं, वैसे ही यहाँ होटल-दु-विल (Hotel-de-Ville) होते हैं यानि सोशल कम्युनिटी सेंटर होते हैं। ऐसे ही कम्युनिटी हॉल इंग्लैंड, बेल्जियम, जर्मनी वगैरह में भी सुनने को मिले हैं। हालाँकि मुझे फ्रांस में रहते हुए और काम करते हुए काफी अच्छा अरसा हो चुका है परन्तु आज ऐसे ही वीकेंड पे लिल्ल शहर की गलियों में घूमते-घूमते दिमाग में बात टकराई और ऐसी टकराई की इतनी बड़ी अनालॉजी (समानता) निकली कि यूरोपियन कल्चर के साथ खाप कल्चर की यह समानता देख मन गद-गद हो उठा।

इस अनालॉजी में खाप और यूरोप की तुलना बैठती देख खापलैंड पर रहने वाली गैर-खाप जातियाँ यह जरूर कहना चाहेंगी कि खापों के यहां क्या अलग से हैं, हमारे यहाँ भी बनी हुई हैं। तो इस पर यही कहूँगा कि हैं जरूर हैं परन्तु अगर यह कांसेप्ट आपका है तो आपकी जाति के जो लोग खापलैंड से बाहर के भारत में रहते हैं वहाँ यह चौपालें क्यों नहीं है?

यहां जोड़ता हुआ चलूँ कि खापलैंड के क्षेत्र में इसी हेरिटेज के आधार पर सरकारी योजनाओं से विशेष पैकेज दे दलितों के यहां 1980-90 के दशक में ताऊ देवीलाल ने हर गाँव में हरिजन चौपाल बनवाई।

मेरे नेटिव समाज की सोशल इंजीनियरिंग व्यवस्था से एक और लोकतान्त्रिक कांसेप्ट का उद्भव और यूरोप से उसकी समानता मिलना गर्व की बात है।

Jai Yauddheya! - Phool Malik

लाख गुनाह किये हों राधे माँ ने, परन्तु यह sting या तो pre-planned है या फिर fake है!

वो कैसे, वो ऐसे:

16.25 से 16.30 मिनट्स की रिकॉर्डिंग में सुरेन्द्र मित्तल बोलता है कि "तेरी आशाराम से बुरी हालत होगी|"

और यहीं conflict आ गया क्योंकि यह रिकॉर्डिंग 13 साल पहले यानी 2002 की बताई जा रही है, जबकि उस वक्त तो आशाराम बापू बड़े मजे में थे| ना कोई केस था ना कोई लफड़ा|

हाँ अगस्त 2013 में आके जरूर आशाराम जेल गए हैं|

तो अब सुरेन्द्र मित्तल आशाराम जैसी हालत की जो दुहाई दे रहे हैं वो तो अगस्त 2013 के बाद हुई है, और इसका साफ़ संकेत है कि यह रिकॉर्डिंग 2002 की नहीं अपितु 2013 में आशाराम के जेल जाने के बाद की है|

और जिस गाने का इस रिकॉर्डिंग में जिक्र है वो 2014 में आया था|

2002 में खुद राधे माँ कहाँ थी, इसकी भी खबर है किसी को? और अब 2014 के बाद तो वो इतनी establish हो चुकी है कि क्या जरूरत उसको किसी की इतनी मान-मनुहार करने की?

निचोड़ यही है कि राधे माँ ने चाहे लाख गुनाह कर रखे हों, परन्तु उनको फंसाने वालों को उन्हें फँसाना है तो डेढ़-स्याणा बनके नहीं बल्कि सिर्फ स्याणा रह के फँसाएं|

इसमें जरूर जाति-पाति का कोई लोचा मिलेगा, find out करो!

और ऐसे ही ये टीवी वाले, जो जनता को इतना उल्लू समझते हैं कि यह जो दिखा रहे हैं जनता उसपे अपना दिमाग नहीं लगाएगी, इसलिए तो इन जैसे एंकर्स की वजह से मीडिया को भांड और प्रेस्टीच्यूट कहा जाने लगा है|

बाकी इन ढोंगी-पाखंडियों का तो बस एक ही इलाज है कि इनके सेक्टर को बिज़नेस सेक्टर की तरह रेगुलराइज कर दिया जाए| जिसको यह दान कह के लेते हैं उसको इनका service charge घोषित किया जाए और इनकी हर service failure पर compensation और reimbursement का प्रावधान डलवाया जाए| हर एक को बाकायदा गवर्नमेंट लाइसेंस इशू हो और जो नियम तोड़े उसको सीधी जेल|

विशेष: ना मैं राधे माँ का भगत हूँ और ना इंसान को भगवान बना के पूजने का समर्थक, परन्तु जो गलत है वो गलत है।

वीडियो सोर्स: http://abpnews.abplive.in/video/2015/08/06/article676380.ece/Bribing-torturing--seducing-Watch-Radhe-Maa-in-all-these-%E2%80%98Avtars%E2%80%99

Jai Yauddhey! - Phool Kumar Malik

Friday, 7 August 2015

भारत में 4-5 तरह की अघोषित पोर्न और भी चलती हैं!


समाज को प्राइवेट पोर्न की अपेक्षा सार्वजनिक पोर्न ज्यादा झिकझोरता और शर्मशार करता है। और दुर्भाग्य व् दंश तो यह है कि यह पोर्न हमारी संस्कृति व् धार्मिक विरासत हमें दिखाती है अथवा परोसती है। इसके कुछ प्रकार इस प्रकार हैं!

1) देवदासी पोर्न: दक्षिण से ले मध्य भारत के मंदिरों में इसकी झलक देखने को मिलती है। इनकी दृष्टता और उददण्डता का आलम इतना है कि इसके विरुद्ध कानून बनने पर भी यह विद्यमान है। 'देवदासी' कीवर्ड से गूगल करने पे दर्जनों ऐसे किस्से उभर के आते हैं, जो बताते हैं कैसे आज भी प्राचीन काल की तरह दलित की बेटियों को देवदासी बना मंदिरों में रखने का दस्तूर बदस्तूर जारी है। बॉलीवुड ने इसपे 'चिंगारी' जैसी फिल्म बनाई है।

कितना बड़ा विरोधाभाष है कि दलित-शूद्र को अछूत-नीच-तुच्छ कहके, उनसे दूर रहने और घृणा करने वाले ही, दलितों की बेटियों को मंदिरों में देवदासी बना के भोगते आये हैं| मुझे नहीं लगता कि विश्व में धूर्तता और पाखंडता का इससे घिनौना रूप कोई और हो सकता है|

2) लड़की के पहली बार कपड़े आने पे मंदिर में सामूहिक दावत पोर्न: 2001 में आई 'माया' फिल्म में इस सामूहिक पोर्न की भयावहता को बड़ी बारीकी से उकेरा गया है। उड़ीसा-तेलंगाना-छत्तीसगढ़ की तरफ यह आज भी अंदरखाते जारी है, जिसकी कि 'माया' जैसी फिल्म पुष्टि करती हैं। इसके तहत जब लड़की के प्रथम बार कपड़े आते हैं तो मंदिर के पुजारी मंदिर के उसी गृभगृह में जहाँ ऐसी अवस्था में औरत का जाना वर्जित बोला जाता है, वहीँ पर सामूहिक बलात्कार करते हैं और उसी वक्त मंदिर के प्रांगण में लड़की के घरवाले समाज को भोज छका रहे होते हैं।

3) विधवा पोर्न: भारत में आज भी कुछ ऐसे समाज हैं जो विधवा औरत को दूसरे विवाह की चॉइस या उसके दिवंगत पति की सम्पत्ति पर उसको उसकी इच्छापूर्वक बसने देने की अपेक्षा उसको इन सबसे बेदखल कर विधवा आश्रमों में भेजते हैं। इन आश्रमों में धार्मिक और राजनैतिक लोग इन विधवाओं को वेश्याओं की तरह भोगते हैं। बॉलीवुड की 'वाटर' फिल्म इस तथ्य पर गहनता से प्रकाश डालती है। धन्य हो मेरे पुरखों का और समाज का कि मैं ऐसे समाज से आता हूँ, जहाँ विधवा भी कालांतर से अपनी इच्छ्पूर्वक जीवनयापन कर सकती हैं।

4) नागा-पोर्न: जैसा कि सब जानते हैं कि हमारे देश ही नहीं अपितु पूरे विश्व में 18 साल से कम के वयस्कों को पोर्न दिखाना, देखने देना व् उनके आगे अश्लील प्रदर्शन करना कानूनी अपराध है। और इसीलिए गए ज़माने तक नागा साधु और इनके अनुयायिओं को सामाजिक प्रदर्शन और प्रवेश की अनुमति नहीं रही है। परन्तु पिछले एक-दो दशक से देखने में आ रहा है कि ना तो टीवी वाले और ना खुद बाबा लोग इस कानून का पालन कर रहे हैं। टीवी वाले इनको मीडिया कवरेज दे घरों में माँ-बापों के लिए अपने बच्चों को इनसे दूर रखने में मुशिकलें पैदा कर रहे हैं तो खुद साधु लोग अपनी इस मर्यादा को तार-तार कर, भारतीय कानून को भी खुल्लेआम ठेंगा दिखा रहे हैं।

5) माता-राणी के जगरातों में भक्ति के नाम पर अशक्ति पोर्न: अभी जुलाई 2015 में आई 'गुड्डू-रंगीला' फिल्म में देखने को मिलता है कि खुद जगराता गाने वाला प्रसाद देने के नाम पर कैसे होस्ट के घर में घुस घर की महिला से अश्लील हरकत करता है। तो ऐसे में धर्म के नाम पर कामुकता और पोर्न फैलाने वालों को सिर्फ सरकार को ही नहीं वरन ऐसे लोगों को बुलाने और बढ़ावा देने वालों को भी सोचना होगा कि आप यह कौनसी संस्कृति और धर्म समाज में फैला या फैलवा रहे हैं।

और यही वजह है कि भारत में जहां भी साधु-साध्वियों के ऐसी गतिविधियों में विलीन होने के किस्से आ रहे हैं, उनके पीछे यह ऊपर बताये तत्व कारक की भांति कार्य करते हैं। उनको साहस और कई बार तो प्रेरणा तक देते हैं।

शुक्र है कि उत्तरी-पश्चिमी (मुख्यत: पंजाब-दिल्ली-हरयाणा-पश्चिमी उत्तरप्रदेश) भारत में यह प्रथाएं नगण्य हैं, परन्तु कब तक? जिस वेग और निष्ठा से लोग अंधभक्त और विवेकहीन बनते जा रहे हैं अथवा बनाये जा रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि वो दिन दूर नहीं जब उत्तरी-पश्चिमी भारत भी इस नागपाश से नहीं बचा होगा।
समाज को याद रखना होगा कि समाज धर्म की दिशा से नहीं चलते, वो सामाजिक दिशा से चलते हैं। धर्म जहाँ व्यक्तगित मसला होता है, वहीँ समाज सार्वजनिक मसला।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

सरकार की बजाये खापें पोर्न-बैन मामले में होती तो, क्या सीन बनता?

अगर सरकार की बजाय खापों द्वारा पोर्न बैन करने या यहां तक कि सिर्फ ना देखने या देखने से परहेज करने का भी फरमान आता तो क्या-क्या देखने को मिलता?

ओहो मत पूछो, मत पूछो अगर ऐसी स्थिति हो जाती तो मीडिया, एन.जी.ओ., गोल बिंदी गैंग बैठे-बिठाए बाहुबली फिल्म से भी बढ़कर मनोरंजन का नजारा दे देते, वो भी फ्री ऑफ़ कॉस्ट डायरेक्ट घर की सिल्वर स्क्रीन पे| अब वैसे भी मीडिया असली बाहुबली तो खापों को दिखाता और बताता है तो ऐसे में जब बाहुबली ही सीन से गायब हो तो पिक्चर हिट होती भी तो कैसे?

दो-चार दिन टिमटिमा के हो गई फ्लॉप और सुना है सरकार ने आधा-पद्दा निर्णय तो वापिस भी ले लिया। पर उनके होने से मीडिया घर बैठे बिठाये मेरा जो मनोरंजन करता उसका क्या, वो तो नहीं मिला ना?

क्योंकि ऐसे मामलों में मीडिया, एनजीओ, गोल बिंदी गैंग की ओर से जब तक तालिबान, तुगलकी फरमान, ठहरे पानी सा बेतुका निर्णय, यह खापलैंड नहीं मर्डरर्स लैंड है, औरतों के दुश्मन, सेक्सिस्ट, संकीर्ण और सिकुड़ी हुई मानसिकता जैसे मिर्चीदार, मसालेदार, झन्नाटेदार, सनसनीखेज, हैरतअंगेज प्रलाप कानों में नहीं पड़ते तब तक लगता ही नहीं कि भारत में मोरल पोलिसिंग के नाम पर कुछ हुआ है। भाई क्या करूँ, मीडिया ने इसका मापक ही जो इतना हाइपोक्रॅटिक घड़ दिया हुआ है।

ओहो अबकी बार तो किसी खाप वाले का सरकार के पक्ष या विरोधाभाष में भी तो कोई बयान नहीं आया ना।

हम्म, शायद खाप वालों को पता चल चुका है कि वास्तविक तालिबानी मानसिकता का जहाँ से उद्भव होता है जब वो लोग तुम्हारे कन्धों पे बंदूक रख के ऐसे मानसिकता को तुम पर मंढने का काम छोड़, खुद ही फ्रंट पे आ के अपनी तालिबानी मानसिकता का परिचय खुद ही देने लगे हैं तो तुम्हें अपने डिफेंस या किसी के विरोध में बोलने की क्या जरूरत। smart decision of Khaps by the way!

पर कुछ भी हो भाई मीडिया, एनजीओ, गोल बिंदी गैंग वालो, अबकी बार आपका शो फ्लॉप ही रहा। वो म्हारे हरयाणे में क्या कहते हैं, 'किमें सुवाद सा ना आया!'

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 5 August 2015

दोशालों पाट्यो भलो, साबुत भलो ना टाट, राजा भयो तो का भयो, रह्यो जाट गो जाट!


हमारे कुछ जाट भाई पता नहीं कैसे इन पेशवा ब्राह्मणों के संगठन आरएसएस पर मोहित हो रखे है | जबकि इतिहास गवाह है कि इन पेशवा ब्राह्मणों ने कभी जाट को सम्मान नहीं दिया और ना ही कभी सम्मान की नजर से देखा | इसके इतिहास में प्रमाण हैं | औरंगजेब की मृत्यु के बाद अहमदशाह अब्दाली ने मराठों पर हमला कर दिया था | वर्ष 1707 में पुना में पेशवा सदाशिवराव भाऊ शासक था | पेशवा ने अब्दाली का मुक़ाबला करने के लिए सभी का आह्वान किया | महाराजा सुरजमल ने युद्ध कैसे लड़ा जाए इस पर अपने सुझाव रखे | तब पेशवा भाऊ ने कहा कि ' दोशालों पाट्यो भलो , साबुत भलो ना टाट , राजा भयो तो का भयो , रह्यो जाट गो जाट ' |

और उसके खुद के राजा होने का उसका घुमान तब टूटा जब महाराजा सूरजमल की सलाह ना मान, जा चढ़ा अब्दाली के आगे पानीपत में, हार के बाद खुद रोया था कि उस जाट राजा की मान ली होती तो इतनी मुंह की ना खानी पड़ती।

इन लोगों कि नजर शुरू से ही सर छोटूराम के पंजाब पर रही है , पंजाब के बँटवारे की ज़िम्मेवार जितनी मुस्लिम लीग थी उतनी ही आरएसएस थी और यहीं कारण था कि 24 जनवरी 1947 को पंजाब की यूनियनिस्ट सरकार ने इन दोनों संगठनों पर बैन लगा दिया था | ये दोनों ही संगठन पंजाब में धर्म के नाम से दुकान चलाना चाहते थे जोकि सर छोटूराम के जिंदा रहते इन्हे सफलता नहीं मिल पा रही थी | जिन्नाह सर छोटूराम के रहते पंजाब में कामयाब नहीं हो पा रहा था तो इसके लिए इन पेशवा ब्राह्मणों ने एक खेल और खेला था , इन लोगों ने अपने एजेंट मास्टर तारा सिंह जोकि खत्री जाति से थे को पंजाब में अकाली नेता के रूप में उतारा , मास्टर तारा सिंह ने सिक्ख धर्म के नाम पर अलग देश की मांग की | मास्टर तारा सिंह इनके एजेंट कैसे थे उसका प्रमाण हैं जब गांधी जी की हत्या हुई तो आरएसएस के कई नेता गिरफ्तार किए गए , इनमें वीर सावरकर भी शामिल था | सावरकर के लिए मास्टर तारा सिंह ने सिर्फ वकील ही नहीं किया बल्कि उसकी फीस तक अपनी जेब से भरी और उसकी हर तारीख पर खुद भी कोर्ट में हाजिर रहता था | इसका जिक्र विस्तार में दूसरे किसी लेख में करूंगा |
मतलब साफ है कि इनकी नजर में जाट राजा नहीं हो सकता , इनकी नजर में हमारे लिए ना कभी कोई सम्मान था और ना ही होगा इसका प्रमाण हरियाणा के ताजा हालात हैं |

इनके संगठन में भी यह बात साफ देखने को मिलती हैं , कुछ जाट ऐसे हैं जो इनके संगठन से 25-30 साल से जुड़े हुए हैं पर संगठन में उनका ओहदा क्या हैं सबको पता है | 25-30 साल हो गए इनकी दरी बिछाते पर आज भी वहीं के वहीं हैं , हरियाणा में ठोकर लग ली पर अक्ल इनके अब भी नहीं आ रही | संगठन में ऊपर के स्तर पर सिर्फ उंच वर्ण के ही मिलेंगे , क्योंकि जाट तो रह्यो जाट को जाट | इन लोगों का खेल आम जाट की समझ से परे है , हरियाणा के बाद अब इनका खेल पंजाब में शुरू हो गया है | छोटे होते टीवी पर पंजाब के उग्रवाद पर एक सिरियल आता था जिसका थीम सॉन्ग कुछ इस प्रकार था ' एनु मैली ना करना एह मेरे पंजाब दी मिट्टी है .... ' | इन लोगों की चाल को समझों और अपने रहबर सर छोटूराम की मिट्टी को मैली होने से बचाओ !

 Author: Rakesh Sangwan

इस फोटो के जैसी पब्लिक पोर्न पर रोक लगनी चाहिए!

18 साल की आयु से कम के किशोर-किशोरियों को पोर्न देखना या दिखाना कानूनी अपराध है| क्या इस पर पीआईएल डाली जा सकती है कि नदियों-घाटों जहाँ 18 साल से कम आयु के बच्चे-बच्चियां भी आते हैं, होते हैं, वहाँ ऐसे प्रदर्शन करने वाले इन खुले और छुट्टे सांडों पर रोक लगे? वहाँ या जहाँ भी सामाजिक परिवेश में ऐसे खुले में पोर्न का प्रदर्शन करने वाले, देश के इस कानून की ऐसे तमाचेदार धज्जियां उड़ातें हों, इनको उठा के या तो जेलों में ठोका जाये या इनको जंगलों में छुड़वा दिया जाए?

मेरे विचार से अगर इसपे पीआईएल लगे तो सुप्रीम कोर्ट तक इसको सुनने हेतु सिर्फ स्वीकार ही नहीं करेगा, वरन सम्भव है कि इस पब्लिक पोर्न पे रोक भी लगा दे|


Jai Yauddheya! - Phool Malik

 

Monday, 3 August 2015

That is why I love and hail my culture!


Some 2 years ago, a similar case came into light in my village also. But in that case mama's family got their bhanji married as the bhanji was deprived by her parents.

Hail Yauddheya! Hail Haryana! Hail Dada Kheda! - Phool Malik


 

Why I chose the name 'Nidana Heights' for website dedicated to pan-Haryana culture and heritage?

Today's article published in 'The Tribune' entitled "No threat of whiteflies in Jind, courtesy pesticide-free farming" (see from the link below) drowned me in nostalgic briefing around the title of this article.

Nidana is of course the name of my native village dwelled in green vicinity of Jind Riyasat since 1600 AD.

Despite carrying all kind of loop wholes a general Haryanvi Village may have, Nidana by God grace excels in gripping or catching or stepping ahead in many human development and technical advancements. A steep journey of such advancements can be seen through proverbs associated with its name, in time to time happened various human development related revolutions and from the kind of autonomy in ideological social engineering used by her dwellers, all together distinct it in quite a countable areas.

1) Village bears four major historical proverbs and titles on its name. First thou dwellers were and are known as 'gaibh', second 'Chhuta hua saand' title and third 'Nidani me bhav nahin, Khema-Khedi (Gonsai Kheda) mein raah nahin aur Nidana me nyay nahin' (both conferred by Sadhu-Sant lobby for not getting their desired alms or charity on name of tantra-mantras), and fourth 'bada gaon' as her diaspora established from completely new village like Lalit Kheda to forming major chunk of Nidani, Gatauli and Sindhwi Kheda population. So it gives the highest sense of being autonomous in its social and religious philosophy (though have concerns about continuation in these regards).

2) Village got its first irrigation canal in 1888 AD, called as number three at that time and became the major reason behind village's enrichment in cereals thus earned statewide recognition in high volume agri production. Due to this got an early and high mileage in nation's first Green revolution.

3) Villagers were among the earliest techno savvy thus lovers as got village's first tractor in 1968. If they boast of developing technology then villages like mine boast of recognizing and endorsing it warmly.

4) Village got its first High School in 1936 AD, which was epicenter of education not only to Nidana but surrounding villages for decades until late 90's and still in continuation. If village is appreciated for having highest number of graduates in its neighbourhood credit goes to this school only.

5) Saw two historical revolutions in parallel to each other, one for girl's education enhancement in separate building in village and second against alcohol consumption in village in last two decades of 20th century. Heights of these revolutions can be seen first as a building now known as 'Girls High School of village' and a 100% ban on entry or consumption of alcohol in village during era of that movement, which still thrills my memories.

6) And now since 2008 AD with pursuance of high visionary agri scientist Dr. Surender Dalal and Khaps, village has become prime most testimony to internationally acclaimed movement against use of pesticides in crops and stepping marvellously to enhance awareness in providing pest free food and crops to nation's public thus nation's health.

7) Though it has been since ages that village saw intercaste marriage but in last decade village shown its acceptability to inter religious marriage too and that too in an era of stern so called 'rashtra and dhramvad'.

Beside immense love, passion and zeal for Haryanvinism, I think I have plenty of reasons to say why I named it 'Nidana Heights'. It represents the smallest single unit of an entity blended with all around saturated characteristics of Haryana, Haryanvi and Haryanat.

Jai Yauddheya! - Phool Malik

e-link to Nidana Heights: www.nidanaheights.net

Source of reason behind this article: http://www.tribuneindia.com/news/haryana/community/no-threat-of-whiteflies-in-jind-courtesy-pesticide-free-farming/114684.html

विश्व में कानूनी कत्ल अथवा फांसी की परम्परा खत्म होनी चाहिए!


जो कानूनी अथवा सवैंधानिक व्यवस्था आतंकवाद के पनपने की वजहों जैसे कि अशिक्षा, बेरोजगारी, भाषावाद, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार, आर्थिक व् कानूनी अनियमितता, धार्मिक व् जाति आधारित द्वेष, सामाजिक ऊँच-नीचता, छूत-अछूत को खत्म नहीं कर सकती उसको किसी को फांसी पे लटकाने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। फिर इसमें फांसी पे लटकाये जाने वाला हिन्दू हो, मुस्लिम हो, सिख हो, ईसाई हो अथवा किसी भी धर्म-जाति का क्यों ना हो।

विशेष: किसी धर्म-विशेष के व्यक्ति को कानून द्वारा फांसी दिए जाने से जोड़ अपने लिए ललित निबंध बाचने का अवसर देख, इस पोस्ट के विरुद्ध अपनी प्रतिक्रिया रखने से पहले, इस पोस्ट का सही परिपेक्ष्य बना लेवें, क्योंकि प्रतिउत्तर आपकी अपेक्षानुसार ही होगा।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 1 August 2015

Truth of caste secularism in India!


Before elections or any religious riot, 'All Hindus are equal and must stand for their unity, as if it didn't happen there won't be any tomorrow for Hindus' (as if they don't have the guts to fight their opposition at their own), and afterward Jat vs. Non-Jat, OBC vs. Jat, SC/ST vs. Jat, Jats are anti-brahmins, Khatri Hindus vs. Jats perhaps the most anti-jat community!

And persons propagating and instigating all this drama remains same and yes a handful only! And major chunk of these propagators and instigators are neither OBC nor SC/ST but a handful classified only.

Jai Yauddheya! - Phool Malik

अपने आगे-पीछे अड़ाने के अलावा अगर आरएसएस जाटों की ज्यात भी पूछती हो तो!

हरयाणवी में 'ज्यात पूछने' का मतलब होता है किसी की इज्जत-मान-सम्मान और अस्तित्व को महत्व देना, तवज्जो देना|

'आगे-पीछे अड़ाने' का मतलब है कि हरयाणा में एक बनिए और दो जाटों वाला बहुत ही मसहूर चुटकुला वाली बनना|

वो हुआ क्या कि एक बार एक बनिया और दो जाटों को घनी-अँधेरी-काली-तूफानी बादल और बारिश भरी रात में पड़ोस के गाँव से अपने गाँव जाना पड़ गया| पुराने जमाने थे ना मोटर थी ना गाड़ी, ना पक्की सड़क थी ना कोई पक्की पगडंडी| रात काफी हो चुकी थी इसलिए कोई तांगा या बैलगाड़ी भी नहीं थी| चांस ऐसा बैठा कि तीनों में ना कोई कुछ व्यक्तिगत सवारी जैसे कि घोडा-बैल आदि लिए हुए था| मतलब पूरे रास्ते-भर ना मानस और ना मानस का बीज| जाट तो लम्बे-तगड़े थे सो लम्बे-लम्बे कदम रखते हुए गदड़-गदड़ ये जां और वो जां, उड़े जा रहे| परन्तु लाला जी को ऐसी मौसम से ले रस्ते की विषम-परिस्थितियों में चलने का कोई अभ्यास ही नहीं था तो ना तो उनसे चला जा रहा और ना जाटों से कदमताल मिल पा रही| एक तरफ कच्चे-पानी भरे व् दूसरी तरफ घास-जंगल के बीचों-बीच संकीर्ण सी चिकनी-थिसलन वाली कच्ची पगडंडी पे कदम रखते हुए लाला जी का कालजा बाहर आने को होवे| कहीं कोई सांप-बिच्छू पैरों में लपेटा ना डाल दे इसका ख्याल आते ही लाला जी थर्र-थर्र काँप जावें|

ऐसे सम्भल-सम्भल के डरते-कांपते चलते-चलते जब दस-बीस फ़ीट से होता-होता फासला पचास-सौ फ़ीट में बदलने लगा तो लाला जी की भड़क और बढ़ गई| सोची जो इनको सच कहा कि तुझे डर लग रहा तो तेरी हंसी होवैगी और जो ना कहा तो आज तेरा राम-नाम सत्य पकक्म-पक्का होवैगा| फिर बड़ी चतुराई से साहस सा करते हुए लाला जी ने रुक्का मारा, 'अड़ दिखे रै जाटो! दिखै है थम डड-डे क्याहें तैं, हड़ न्यूं कड़ो जुणसे नैं डड लागता हो, वो एक मेरै आगै हो ल्यो हड़ एक मेरै पाछै हो ल्यो|'

यह सुनते ही दोनों जाट खूब हँसे और बोले कि आ जा भाई आ जा तू म्हारे बिचाळै आ जा, पता लग गया हमको कि डर हमें नहीं तुझको लग रा|

सेम-टू-सेम डिट्टो कहानी आज आरएसएस और इससे जुड़े जाटों की है सिर्फ बनिया शब्द की जगह आरएसएस शब्द ने ले ली है| मुसलमान रुपी मींह-बादल-तूफ़ान-कच्चे पानी भरे रास्ते से डर लागे है इनको और उस डर को राष्ट्रवादिता का चोगा पहना के मुसलमान से बचने के लिए अपने आगे पीछे कर रखा कुछ जाटों को| मुज़फ्फरनगर यही तो था| लेकिन बावजूद इसके हरयाणा में देख लो इसी सोच के लोगों ने जाट से तमाम नॉन-जाट भिड़ा रखा|

इसके साथ आज वाले और पहले वाले किस्से में इतना सा फर्क और है कि पहले जाट सहायता करते वक़्त बनिए को कह देता था कि देख लाला जी तुझे डर लग रहा इसलिए तुझे दोनों के बीच ले रहे, परन्तु आरएसएस से जुड़ने वाले आज वाले जाटों के तो ऐसे मुंह सिल हुए हैं कि उनको खुद उनका डर बता के उनकी मदद करनी तो दूर, बल्कि जो मेरे जैसा इनको यह हकीकत बतावे, उसके पीछे और पहाड़ी बुच्छी की भांति पड़ जाते हैं|

अरे इनसे जुड़ने वाले मेरे बीर जाटो, और नहीं तो इनको यह सुरक्षा प्रदान करवाने के ऐवज में इनसे सर्विस चार्ज ही लेना शुरू कर लो, यह यूँ ही मुफ्त में क्यों हाड तुड़वा रे इनके पीछे! कम से कम थम जो इनसे जुड़ रे तुम्हें तो रोजगार मिल जागा|

और पापी के मन में डूम का ढांढा वाली की भांति, खुद के डर को राष्ट्रवाद का चोगा पहना के तुमसे फ्री में काम लेने वाले, इन लोगों की फ्री में मदद करने के चक्कर में अपने रोजगार का वक्त तो खोटी करते ही करते हो, साथ ही मुस्लिमों के रूप में आपके खेतों में कामगार-मददगार से ले किसानों की राजनैतिक ताकत को और अपने हाथों तोड़ के कमजोर करते हो|

तू लांडा लगा जा फूल यहां से, नहीं तो तेरे साथ वो बैये वाली बन जागी, जो बारिश में भीगते बंदर को अपने घोंसले में बैठा दया-दृष्टिवश उसको अपना घर बनाने की सलाह दे बैठा और उस बंदर ने नेक सलाह के बदले एक झटके में बैये का ही घोंसला तोड़ बगाया|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक