Friday, 23 October 2015

म्हारा सीएम खट्टर साहब, घणा स्याणा:!

हरयाणवी में "घणा स्याणा" का मतलब होता है "डेड स्याणा", यानी काइयां किस्म का आदमी| इसके साथ ही यह भी बता दूँ कि चतुर-समझदार-अक्लवान आदमी को हरयाणा में सिर्फ "स्याणा" कहते हैं| स्याणा के साथ घणा शब्द लगा और अर्थ उल्टा|

अब यह "घणा स्याणा" सीएम साहब को कहा किसने है जरा यह भी देख लीजिये| हमारे प्यारे अक्ल के पिटारे हरयाणवी मीडिया के लगभग हर इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया ने, बीजेपी सरकार के एक साल पूरे होने पे "म्हारा सीएम खट्टर साहब, घणा स्याणा" टाइटल के सांग से खट्टर साहब का स्तुति वंदन के द्वारा|

वाह खट्टर साहब हरयाणा के लोग कंधे से नीचे मजबूत और ऊपर कमजोर तक का ज्ञान रखने वाले, सारा दिन मीडिया चिल्ला-चिल्ला के आपको काइयां कहता रहा और आपकी कंधे से ऊपर की अक्ल में यह बात तक नहीं आई कि आपकी खड़ी बैंड बजाई जा रही है| ओह, लगता है जनाब के कंधे से ऊपर कुछ ज्यादा ही अक्ल शरीर पे वसे की तरह परत-दर-परत चढ़ गई है कि इनकी चेतना तक यह शब्द कोंधा ही नहीं|

बड़े शर्म की बात है सीएम साहब, हरयाणा का मुखिया और हरयाणवी का इतना बात-बात पे प्रयोग होने वाले शब्द का अर्थ तक पता नहीं|

सीएम तो सीएम दिन-रात जो यह मीडिया खुद को स्याणों का भी बटेऊ बताता रहता है साबित करता रहता है उन तक को यह भान नहीं कि तुम चला क्या रहे हो?

वाकई में हरयाणा "अंधेर नगरी चौपट राजा" हुआ पड़ा है|

सीएम साहब सच कहूँ, आपके समाज की समझदारी और होशियारी की जो छाप मेरे दिमाग में थी, आप तो उसके बिलकुल विपरीत ही उतर रहे हो| या शायद कंधे से ऊपर मजबूती की ग्लोबल ब्रांड होती ही ऐसी हो|

मैं तो सीएम साहब के उस ओएसडी या राजनैतिक सलाहकार को मिलकर उसकी पीठ थपथपाना चाहूंगा, जिसने इस टाइटल का सांग सीएम साहब के लिए अप्रूव किया|

इसने कह्या करें हरयाणवी में अक "जिह्से हम सयाणे, इह्सी-ए म्हारी ऐल-गैल|"

फूल मलिक

मैं इन तर्कों के आधार पर "सनपेड़ दलित अग्निकांड" को खुद दलित की की हुई साजिश नहीं मानता!

1) दलित के घर के दरवाजे बाहर से क्या खुद दलित ने बंद किये? जबकि मौका-ए-वारदात पहुंची पुलिस ने बताया कि घर के दरवाजे बाहर से बंद थे?

2) उसको षड्यंत्र करना था तो वो खुद को जला लेता, बीवी को जला लेता, भला अपने ही हाथों इतने मासूम वो भी एक 8 महीने का और एक अढ़ाई साल के बच्चों को आग क्यों लगाएगा?

3) उसको षड्यंत्र करना होता तो वो रात को तीन बजे ही क्यों करता? दिन में या शाम में ना करता? जबकि रात में करने के वक्त उसको भी पता था कि उसको कोई बचा नहीं पायेगा| दिन में करता जलने का नाटक, ताकि लोग झट से बचा लेते| साफ़ है कि घर को आग लगाने वालों ने रात का वक्त और वो भी जगराते की रात के शोर का वक्त इसलिए चुना ताकि पकड़े ना जाएँ, किसी को दिखें ना, पुलिस तो फिर खुद दुर्गा-जगराता देखने में लगी ही हुई थी| जगराते के शोर में पुलिस को ना वो आते सुने ना जाते, वरना शांत वातावरण में पुलिस को उनमें से किसी की तो पदचाप सुनती? इसलिए बड़ा सोच-समझ के वक्त और मौका चुना गया|

4) अगर शराब पी के आग लगाई होती तो जब उसकी डॉक्टरी व् मरहम-पट्टी हुई तो उन डॉक्टर्स ने भी तो उसको चेक किया होगा? तो शराब पिए हुए होता तो क्या डॉक्टर नहीं रिपोर्ट में बता देते? वैसे भी ऐसे मामलों में डॉक्टर फर्स्ट-ऐड करते वक्त मरीज की यथास्थिति पे रिपोर्ट जरूर बनाता है| जलने के बीच और अस्पताल पहुँचाने के बीच इतनी देर तो नहीं लगी थी कि उसकी दारू उत्तर चुकी होगी, उसके चेहरे से ही दिख जाती कि वो पिए हुए था या नार्मल? नार्मल रहा होगा तभी डॉक्टर्स ने उसकी रिपोर्ट में शराब नहीं बताई| और बताई होती तो सबसे पहले मीडिया ने ही गा दिया होता|

5) शराब पी के पेट्रोल छिड़कता तो क्या उसके सिर्फ हाथों पर ही पड़ता| शराब पिया हुआ आदमी काँपता है, हिलता-डुलता है, असंतुलित होता है तो ऐसे में उसके बाकी हिस्सों पे भी तो पेट्रोल गिरता? उसके सिर्फ हाथ जले, शायद बच्चों को बचाने की कोशिश में और उसपे पेट्रोल नहीं गिर पाया होगा, बच्चों और बीवी पे गिर गया होगा| इसलिए वो ज्यादा जल गए, उसके सिर्फ हाथ और आग की आंच से मुंह जले|
 

6) कह रहे हैं कि दोषियों को पुलिस ने सोते हुए गिरफ्तार किया, वो अपराधी होते तो भाग जाते| अब जैसा कि बिंदु 3 में सीन को देखा जाए तो उनको यह विश्वास रहा होगा कि तुमको जगराते के शोर में किसी ने नहीं देखा है, इसलिए किसी को क्या पता लगेगा, चुपचाप जा के सोने का नाटक करो, सब नार्मल दिखेगा| परन्तु इस परिस्थिति में पुरानी रंजिश के संदेह से कैसे बचोगे, इस पर वो लोग होमवर्क करना भूल गए|

यह सब अभी तक इस केस में जो दिखा और सुना उसके आधार पर लिखा, बाकी अब रिपोर्ट आती है तो तब देखते हैं, दलित और राजपूत कैसे अपना-अपना पक्ष साबित करते हैं|

फूल मलिक

जो आज मुग़लों को दुश्मन बता रहे, वो खुद दिल्ली मुग़लों को देने की बात किया करते थे!

इस वीडियो में पानीपत के तीसरे युद्ध से पहले "जाट-पेशवा ब्राह्मण-सिंधिया-होल्कर" अलायन्स में होती चर्चा सुनिए।

पेशवा सदाशिव राव भाऊ: "दिल्ली को मुगलों को देंगे!"
 

महाराजा सूरजमल: "दिल्ली जाटों की है।"

मतलब आज जो मुस्लिमों से नफरत करते नहीं थकते, उन्हीं नागपुरी पेशवाओं को दिल्ली मुग़लों तक को देनी मुहाल थी, परन्तु जाटों को नहीं।

अचरज है कि जब दिल्ली देनी ही मुग़लों को थी तो अब्दाली से लड़ने ही किसलिए जा रहे थे? आखिर वो भी तो अफगानी मुग़ल ही था? मुग़ल-मुग़ल लड़ लेते आपस में दिल्ली के लिए, नहीं?

और ऐसे दम्भ में भरे पेशवा जाटों को कूच करने का संदेशा मिलने का इंतज़ार करते छोड़ जा चढ़े बिन जाटों के ही पानीपत में अब्दाली के आगे और वहाँ पे मुंह की खाई, तत्पश्चात जाटों ने ही इनकी फर्स्ट-ऐड करी।

फिर 1764 में महाराजा सूरजमल के सुपुत्र महाराजा जवाहर सिंह ने अकेले जाट दम पे मुग़लों से दिल्ली जीत के भी दिखाई, वरन अहमदशाह अब्दाली की हिम्मत तक ना हुई आ के दिल्ली को महाराजा जवाहर सिंह से छुड़वाने की।

और यही रूख इन नागपुरी पेशवाओं का जाटों के प्रति आज है। कुछ नहीं बदला, इन्होनें इतिहास से कोई सीख नहीं ली। वही ढाक के तीन पात, चौथा होने को ना जाने को।

फूल मलिक

 

इतिहास के आईने में राजपूत-जाट भाईचारा।

 
"6 जून, 1775 ई. को रेवाड़ी के पास माण्डण नामक स्थान पर शेखावतों तथा शाही सेनाधिकारी के बीच हए प्रसिद्ध युद्ध में जाटों ने शेखावतों की सैन्य सहायता की और युद्ध में अपने प्राणों का उत्सर्ग किया. इस युद्ध में राजपूत-जाट गठबंधन ने शाही सेना को हरा कर भगा दिया था यद्यपि इसमें शेखावतों के प्रायः सभी प्रमुख संस्थापनों तथा शाखा-उपशाखाओं के वीर व बहुत सारे जाट वीर काम आए।
यह था उस काल का “राजपूत-जाट भाईचारा”-
“शेखावतों के सहायक जाटों ने आगे बढ़कर शत्रु सेना पर प्रथम आक्रमण किया
झूलना
पहली तोपखाना सारां दाग दिया, गई होय दिन सूं रात जी
गोळी तीर नेजां की तो मार पड़े, रोकी जाय रेवाड़ी की की बाट जी
केते मारे मरे जो अहीर ही के, चली जाय दिल्ली कुं जो खाट जी
दोनुं फोज मचकी संभुराम सैंकड़ायत', मांय आया काम घणां जाट जी ॥ 51 ।।
चलत
पैली राड़ लई जाट, रोकी रेवाड़ी की बाट, चली खाट ऊपर खाट* मांची किलकारी है* ।
लडै बैंदराबन' नहिं ओलै राखै तन, संभुराम जी को मन महाराज को उमीर है ।
लडै काळेखान जहाँ चलै जंगी बान, लडै रामदत्त* जो धरत नहिं धीर है ।
लडै मित्रसेण जॅह जोगनी चखेहै श्रोण, पडै गोळन की मार-लडै साथ के अहीर है। 52 ।।
झूलना
सूरसिंघ" कहै संभुरामजी’ सू, मचकी जाट की फौज उसील जी ।
खड़ा मत देखो अब जंग कानी, जाट काम आया घणां डील" जी ।
येती वात सुणी रजपूत बांका, लागा नहिं पलक की ढील जी ।
बाजै जोर जूझाऊ नगारखाना, पेला जद नीसाण का फील" जी ॥ 53 ।

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शब्दों के अर्थ : र्दैई दार=सम वयस्क ।, अति साज=सन्नद्ध होकर ।, कोर=रक्षा की सुदृढ़ पंक्ति । तुरकी=तुरक देश का घोड़ा।, ताजी=अरबी घोड़ा।, कुमेत-घोड़े का एक रंग । , लीला=सब्जा, घोड़े का एक रंग । , खोल तणी=बंद या बंधन ढीले कर दिये, खोल दिये । , रामचंगी=लम्बी तोड़ादार बंदूकें । , रहकळा=ऊँटों पर या गाड़ियों पर लादकर चलाई जाने वाली छोटी नाल की तोपें ।, जम्बूर=जुजरवा, एक प्रकार की छोटी-छोटी तोपें ।, सैंकड़ायत=संकीर्ण स्थान, बीच में आ जाना, दबजाना। , खाट ऊपर खाट=लाशों पर लाश गिरने लगी । , माँची किलकारी है=कोलाहल मच गया । , बैंदराबन=जयपुर नरेश की सेना का एक योद्धा जो संभुराम कानूंगो का कोई सम्बन्धी था , रामदत=मित्रसेण की सेना का अहीर योद्धा । , सूरसिंघ=चिराणा के ठाकुर भारमल के पुत्र और जयपुर की सेना के सेनापति । संभुरामजी=सेनाओं को वेतन चुकाने वाला-जयपुर राज्य का एक अधिकारी। , घणां डील=बहुत योद्धा ।, फील=हाथी।“

स्रोत : मांडण युद्ध, लेखक : ठाकुर सुरजन सिंह शेखावत, झाझड़
 

Wednesday, 21 October 2015

एक मित्र ने चैट पे पूछा, फूल तू जातिवादी कब से बन गया?

मैंने बड़ी विनम्रता से जवाब दिया कि भाई मैं जातिवादी नहीं बना अपितु मेरी जाति की ओर थोड़ा जागरूक और चिंतित हुआ हूँ| मैं आज भी ना सिर्फ धार्मिक सेक्युलर हूँ वरन जातीय सेक्युलर भी हूँ|

उसने कहा तो फिर आमतौर पर शांत रहने वाला और अपनी लाइफ में बिजी रहने वाला फूल यकायक राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक मामलों में इतना सक्रिय कैसे हो गया? पिछले कई दिनों से तेरी पोस्टों से देखने में आ रहा है कि तू खट्टर, बीजेपी और आरएसएस के तो जैसे बिलकुल हाथ धो के पीछे पड़ गया है? ऐसा क्यों?

मैं इसपे अपना पक्ष रखते हुए बोला कि हालाँकि इस जागरण की परतें तो काफी वक्त से बनती आ रही थी, परन्तु ऐसा चुप्पी तोड़ने वाला परिवर्तन तब से आया है जब से खट्टर साहब ने "हर्याणवियों को कंधे से नीचे मजबूत और ऊपर कमजोर" का तंज मारा है| अब तक मैं तो यही सोचता था कि 3-4 पीढ़ी हो गई खट्टर साहब के समाज को हरयाणा में बसते हुए सो अब तो हरयाणवी सभ्यता को समझने लगे होंगे, मानने नहीं लगे होंगे तो इसका सम्मान तो जरूर करते होंगे| क्योंकि जो खुद को सभ्य कहने पे गर्व करना जनता हो, वो अन्य सभ्यता को मान देना तो जरूर जनता होगा, ऐसा मेरा मानना था| जब सीएम बने तो हर हरयाणवी समाज ने इनका स्वागत किया, परन्तु इनके इस कंधे के ऊपर-नीचे वाले बयान ने मुझे अंदर तक झकझोर के रख दिया| तो मुझे सोचने पर विवश होना पड़ा कि क्या मेरी जाति और सभ्यता के साथ सब कुछ ठीक चल रहा है?

दोस्त ने फिर कहा कि किसी एक व्यक्ति के कहने से पूरी सोसाइटी का विचार थोड़े ही झलकता है?

मैंने कहा, “बेशक वो कहने वाले का विचार होता है परन्तु जिसके बारे कहा उसने वो तो पूरी सभ्यता के बारे था ना?" और वैसे भी जब बंदा सीएम जैसी पोस्ट पे होते हुए ऐसा बोले तो फिर उसका मायना समाज में यही जाता है| ताऊ देवीलाल, चौटाला जी, हुड्डा जी, बंसीलाल जी सबके सीएम होते हुए भी उनकी बातों को, कार्यों को हर कदम पे जब समाजों ने जाटपन कहा तो खट्टर साहब अतिश्योक्ति कैसे छोड़े जा सकते हैं?

और आरएसएस, उन्होंने क्या बिगाड़ा है आपका?

खट्टर के हरयाणवी रिमार्क के बाद जब यह देखा कि यह किस ब्रांड का प्रोडक्ट है तो आरएसएस फोकस में आई| और पाया कि आरएसएस मेरे समाज का भावुक दोहन करने पर आमादा है| यूँ तो आरएसएस के हिन्दुवाद को मुस्लिमों से बचाने के लिए इनको जाट चाहियें, परन्तु जब एक जातिवाद से विहीन संगठन होने के दावे के विपरीत जा के आरएसएस विभिन्न जातियों के महापुरुषों व् इतिहास पर पुस्तकें निकालती है तो उसको जाट समाज का ना इतिहास नजर आता और ना ही इस समाज के महापुरुष याद आते|

जबकि आरएसएस और बीजेपी में जो यह इतना आत्मविश्वास भरा है वो मुज़फ्फरनगर के बाद जाटों के इनसे जुड़ने की वजह से भरा, वर्ना आज आरएसएस और बीजेपी को यह पता लग जाए कि जाट उसे छोड़ रहे हैं तो दावे से कहता हूँ इनके माइनॉरिटी का दमन करने के हौंसले आधे से कम हो जायेंगे| जाट ताकत और ब्रांड का मिसयूज कर रहे हैं यह लोग|

जरूरत पड़े तो जाट समाज की महत्ता दर्शाते और बघारते वक्त तोगड़िया यह तक कह दे कि, "जब जाट की ही बेटी सुरक्षित नहीं तो किसी भी हिन्दू की नहीं|" परन्तु जब जाट समाज को सम्मान देने, उसपे पुस्तक लिखने की बात आये तो सब कुछ नदारद| पीएम मोदी की आगरा रैली तो आपको याद ही होगी, जिसमें मुज़फ्फरनगर के नायकों को सम्मानित किया गया था? ऐसे मौकों पर इनको ना कोई जाट याद आता और ना ही कोई खाप चौधरी, बजाये ऐसे लोगों का सम्मान करते दीखते हैं जो असली रण छिड़ने पर दस-दस दिन तक अंडरग्राउंड हो गए थे|

यानी वीरता और शौर्यता की शेखी बघारने वाले यह लोग जब चरम शौर्यता हासिल करने की बात आती है तो जाट को याद करते हैं, अन्यथा इनसे जाट इनके अनुसार चार वर्णों में से कौनसे वर्ण में आते हैं पूछो तो पक्के से और अश्वस्तता से बता भी नहीं पाते कि इस वर्ण में आते हैं|

इसलिए मैं आरएसएस द्वारा फ्री-फंड में हो रहे जाट के भावुक दोहन को लेकर व्यथित हूँ|

दोस्त ने फिर पूछा और बीजेपी, उसने क्या बिगाड़ा है?

मैंने कहा बीजेपी और जाट का रिश्ता जानना चाहते हो तो याद करो 2014 के हरयाणा इलेक्शन में पीएम मोदी तक ने, हरयाणा में हरयाणा को एक जाति विशेष (जाट) के राज से मुक्ति के नाम पर कैसे खुल्लेआम वोट मांगे थे| तो एक समझदार जाट के लिए तो बीजेपी से दूर रहने के लिए इतना कारण ही बहुत बड़ा है| उस दिन से पहले कहीं-कहीं थोड़ी बहुत जो इनके लिए अटैचमेंट उभरती थी वो भी मोदी की उस बात से सौ प्रतिशत जाती रही| क्योंकि जब यह लोग इतना खुल के जाट को साइड लगाने की बात सीधे पीएम के मुंह से कहलवाते हैं या पीएम खुद कहता है तो इसके बाद इनसे जुड़ा रहने का कोई मोरल रीज़न भी नहीं बचता|

और ऐसा कहते वक्त बीजेपी और मोदी सबको यह भूल भी पड़ जाती है कि जाट भी उसी हिन्दू समाज का हिस्सा हैं जिसकी एकता और बराबरी तुम्हारी टैग लाइन है।

इन सब वजहों की वजह से ही इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि यह लोग जाट का भावनात्मक दोहन करने के अलावा उसके लिए कुछ सकारात्मक नहीं कर रहे| जाट के इतिहास, महापुरुषों पर पुस्तकें लिखवाने की तो छोड़ो, हरयाणा में जा के देखो जाटों से चिड़ की वजह से फसलों के दाम तक इतने गिरा दिए कि जाट तो जाट, नॉन-जाट किसान तक की भी फसल उत्पादन की लागत पूरी नहीं हो रही|

वो बेचारे भी अब ऐसे फंसे हुए हैं कि जाट का नुकसान हो रहा है बस इसी ख़ुशी में इस सरकार को झेले जा रहे हैं| परन्तु इस चक्कर में उनको भी फसलों के दाम ना मिलने की वजह से उनके घर की इकॉनमी जो खस्ता हुई जा रही है उसपे उनका ध्यान ही नहीं| इसलिए इस प्रकार बीजेपी द्वारा जाट से नफरत के वेग में चढ़ाये उन नॉन-जाट किसानों का भी नुकसान हो रहा है, वर्ना वो अपने घर की इकॉनमी की तरफ देख के सोचेंगे तो जाट से पहले उनका मन करेगा बीजेपी को वापिस भेजने का|

फूल मलिक

हैप्पी सांझी विसर्जन!

सांझी सिर्फ एक त्यौहार ही नहीं अपितु "जाटू सोशल इकनोमिक साइकिल" का एक नायाब सिंबल भी रहा है|
मूल हरयाणवी परम्पराओं और समाज में हर त्यौहार को मनाने के आर्थिक इकॉनमी को चालू रखने के कारण प्रमुखता से होते आये हैं| किसानी सभ्यता से बाहुल्य इस समाज में हर त्यौहार या तो आर्थिक लाभ-हानि, लेन-देन से जुड़ा होता आया है या फसल चक्र से या फिर सामाजिक व् वास्तविक मान-मान्यता से जुड़ा होता आया है| काल्पनिक कहानियों के आधार पर घड़े हुए त्योहारों से हरयाणा मुक्त रहा|

अभी शरणार्थियों और विस्थापितों के हमारे यहां पलायन के चलते और खुद हम कट्टर प्रवृति के ना होते हुए इन त्योहारों को मनाने लगे| परन्तु हमें अपने मूल त्यौहार कभी नहीं भूलने चाहियें|

जैसे कि हमारे यहां आज के दिन सांझी विसर्जन के साथ-साथ आज की रात तमाम पुराने मिटटी के बने पानी रखने के लिए प्रयोग होने वाले बर्तन गलियों में फेंक के फोड़े जाया करते थे, जैसे मटका, माट आदि| और इसका कुम्हार की इकॉनमी से जुड़ा कारण हुआ करता| साल में एक बार यह पुराने हो चुके बर्तन फोड़ते आये हैं हम| क्योंकि इसी वक्त कुम्हार के चाक से बने नए बर्तन पक के तैयार हो जाया करते और उसकी बिक्री हो इसलिए हर घर पुराने बर्तन तोड़ दिया करता था|

हालाँकि सारे बर्तन नहीं तोड़े जाया करते, परन्तु कुम्हार को उसकी इकॉनमी चलाने हेतु सिंबॉलिक परम्परा बनी रहे, इसलिए हर घर कुछ बर्तन या जो वाकई में जर्जर हो चुके होते, उनको जरूर फोड़ा करता| और कुम्हार को उसके बिज़नेस की आस्वस्तता जरूर झलकाया करता|

खुद मैंने बचपन में मेरी बुआओं के साथ घर के पुराने मटके गलियों में फोड़ते देखा भी है और फोड़े भी हैं| इसको "जाटू सोशल इकनोमिक साइकिल" भी कहा करते हैं| मुझे विश्वास है कि जो चालीस-पचास की उम्र के हरयाणवी फ्रेंड मेरी लिस्ट में हैं वो मेरी इस बात से सहमत भी करेंगे|

ठीक इसी प्रकार हमारे यहां खेतों में गन्ना पकने के वक्त पहला गन्ना तोड़ के लाने पे दिए जलाये जाते थे, परन्तु इसको अवध-अयोध्या से इम्पोर्टेड दिवाली के साथ रिप्लेस करवा दिया गया|

बसंत-पंचमी तो सब जानते हैं कि सरसों पे पीले फूल आने की ख़ुशी में मनता आया है|

बैशाखी गेहूं की फसल पकने की ख़ुशी में मनती आई है|

आप सभी को शुद्ध हरयाणवी त्यौहार सांझी विसर्जन की बधाई और अवध-अयोध्या से इम्पोर्टेड त्यौहार दशहरे की भी शुभकामनायें!

जय योद्धेय! - फूल मलिक

गैर-हरयाणवी पत्रकारों तुम अपने लीचड़पने से कब और कैसे बाज आओगे?

यह वीडियो देखिये, इसमें रिपोर्टिंग कर रहे मुकेश सिंह सिंगर के लिए सनपेड़ दलित अग्निकांड में जो हिन्दू स्वर्ण जाति थी उसका नाम ले के बात करने की बजाय यह बताना ज्यादा जरूरी था कि इस वीडियो में चल रहा धरना वहाँ के स्थानीय "जाट-चौक" पर हो रहा है। ताकि अभी तक जिन्होनें इस मामले के बारे नहीं सुना, उनके दिमाग में यही जाए कि इस दंगे में जो स्वर्ण पक्ष है वो जाट है।

दस मिनट लम्बी इस वीडियो में एक नहीं अपितु तीन बार इसने "जाट-चौक" का जिक्र किया। एक 4.40 से 4.45 के बीच, दूसरी बार 7.00 से 7.05  के बीच और तीसरी बार 7.30 से 7.35 मिनट के बीच।

मरोगे तुम गैर-हरयाणवी मीडिया वालो एक दिन "जाटोफोबिया" और "खापोफोबिया" हो के। जाट तो न्यू ही गूँज के बसते रहेंगे और थारे ऐसे ही भट्टे से सुलगते रहेंगे।

फूल मलिक

Concerned Video Link: http://khabar.ndtv.com/video/show/news/rahul-gandhi-met-dalit-family-in-ballabgarh-sunped-village-387698

Tuesday, 20 October 2015

कंधे से ऊपर की मजबूती के दूसरे (पहले खट्टर साहब हैं) ग्लोबल ब्रांड "श्रीमान अनिल विज जी" -

गाय यदि राष्ट्रीय पशु बना तो क्या होगा जरा गौर फरमाइए:

1) किसान गाय का दूध नहीं निकला सकता।
2) न गाय को पाल सकता। क्योंकि पालेगा तो उसे डंडा भी मारेगा। लेकिन राष्ट्रीय पशु को डंडा मारना तो दंडनीय जुर्म होगा|
3) किसान बैल को हल या बुग्गी में जोड़ नहीं सकता।
4) गाय को इंजेक्शन नहीं लगा सकता।
5) वैज्ञानिक भी गाय पर रिसर्च नहीं कर सकते।

और फिर जब यह सब कुछ होगा तो देखते ही देखते एक दिन हिन्दू किसान ही स्वत: गाय-बैल को पालना छोड़ देगा।

6) और इन सबसे बड़ी दुविधा अगर आपने गाय को पशु घोषित करवा दिया तो फिर भगत माँ किसको कहेंगे?
वैसे मेरे ख्याल से गाय को पशु कहने की हिमाकत करने पे भगतों द्वारा सबसे पहला बक्कल उधेड़ना तो आपका ही बनता है|

धन्य हो अंधभक्तों के सरदार तुम्हारी, गाय को मारने के लिए किसी गौ-हत्थे या किसी कसाई की जरूरत ही मिटा दी|

यार भेजा-फ्राई फिल्म बनाने वालो, Bheja Fry Part 1 और Part 2 के बाद Part -3 बनाते हुए यह तो बता देते कि Part 3 दो या तीन घंटे का नहीं बल्कि पूरे 43800 घंटे यानी पांच साल का होगा?

फूल मलिक

जाटों को उनका इतिहास पता है, तुम मचा लो बेगैरतों की भांति उछल-कूद जी भर के!

इससे पहले कि मिर्चपुर कांड की फाइल खोल के नजदीक आते जाट-दलित की नजदीकियों को फिर से बढ़ाने हेतु जाटों पे अपने दमनचक्र का अगला चक्का खट्टर, बीजेपी और आरएसएस मिलके फेंकते कि उधर सनपेड़ दलित अग्निकांड ने इनकी पीपनी बजा के रख दी| पहले से ही कालिख लिबड़े हुए इनके चेहरों को सनपेड़ के दलित के घर से उठती लपटों ने और स्याह कर दिया| म्हारे हरयाणे में इसको कहते हैं "कुत्ते का अपनी मौत मरना|"

देखो हरयाणा वालो इन मेहरबानों का दोहरा रवैया, भारत देखे, दुनिया देखे| जाट पर इस सरकार के जुल्म और दमनचक्र की इंतहा देख के तो शायद ऊपर वाला भी अब जाट के साथ आन खड़ा हुआ है, इनकी असलियतें समाज के सामने खोल-खोल के रख रहा है|

दो दिन पहले खट्टर जनाब की सरकार ने अखबारों में निकलवाया कि हरयाणा सरकार मिर्चपुर कांड की फाइल्स फिर से खोलेगी| बड़े चले थे ना जनाब जाटों को दबाने और मिर्चपुर कांड को फिर से खोल के दलित-जाट को भिड़ाने? ले मेरे प्यारे, आपको अपने शौक पूरे करने के लिए ढके-ढकाए ढोल उघाड़ने की जरूरत नहीं, "ऊपरवाले" ने बिल्कुल नया-ताजा पूरा केस ही खोल के दे दिया है| दिखाओ अब करीब आते जा रहे जाट और दलित को फाड़ने की अपनी कंधे से ऊपर मजबूती और कितनी दिखाओगे|

हालाँकि मैं उन दोनों दलित मासूम बच्चों की नृशंस हत्या से पीड़ित हूँ, और इस सरकार को पुरजोर कोस भी रहा हूँ| परन्तु सरकार की चाल पे जब ऊपर वाले की लाठी पड़ती है तो कैसे उसे पंगु बना के छोड़ती है, इस वाकये से सरकार को समझ लेना चाहिए|

खट्टर साहब, अब जाटों को दोष मत देना कि मेरा तो जाट-दमन से अभी मन ही नहीं भरा था परन्तु इससे पहले जाटों ने ही मुझे नहीं टिकने दिया, क्योंकि अब तो ऊपरवाला ही आपके मंसूबों को नहीं चलने दे रहा है और आपकी चालों को आपके ही मुंह पे मारे दे रहा है, इसमें जाटों का कोई दोष नहीं|

लगे रहो, अपने जी भर-भर के अरमान पूरे करने पे, परन्तु इतना याद रखना यह जाटलैंड है, यहां तो तुम्हारी आइडिओलॉजी के नागपुरी पेशवा 1761 में जाट सम्मान को नकारने की पहले ही गलती कर चुके हैं एक बार| उन पर होनी का ऐसा कुचक्र चला था कि उन्हीं जाटों के द्वारे से उन पेशवाओं को फर्स्ट-ऐड मिली थी|

बुद्ध धर्मी बने जाटों और बाकी समाज (ध्यान दीजियेगा यह बाकी समाज वही हिन्दू था, जिसके कैप्सूल गिटकते और गिटकाते आप थकते नहीं) को कुचलने के कुचक्र में जब आपकी ही विचारधारा के लोगों ने मुग़लों के आने से भी पहले वाले उस ज़माने में आपकी ही आइडियोलॉजी की 1 लाख की सेना जाटों पे चढ़ाई थी तो कैसे मात्र 9000 जाटों ने मात्र 1500 जाट योद्धेय खोते हुए आप 1 लाख की गोभी खोदी के रख दी थी| यदि याद ना हो तो इतिहास में झांक के देख लें| वैसे भी बड़ा शौक है आपकी विचारधारा को नए-नए शिरों से इतिहास लिखने का, तो मुझे विश्वास है कि वो आपको यह अध्याय खोल के जरूर आपका ज्ञानवर्धन कर सकेंगे|

बुद्ध बने जाटों और बाकी समाज पे आपकी आइडियोलॉजी के जुल्म की इतनी इंतहा हुई थी कि हरयाणा में उसपे उसी ज़माने में बनी "मार दिया मठ", "हो गया मठ", "कर दिया मठ" की कहावतें आज भी जनमानस में चलती हैं| परन्तु फिर भी वो जुल्म का पहिया जाटों ने तोड़ के रख दिया था|

हम अपनी ताकत जानते हैं, इसलिए शांत हैं| हम यह भी जानते हैं कि हमारा गुस्सा घर में लड़ती दो लुगाइयों की भांति सिर्फ एक दुसरे के बालों को खींचने वाली नुक्ताचीनी तक सिमित नहीं रहता, जब फटता है तो फिर मुज़फ्फरनगर, सारागढ़ी, बागरु, आगरा, गोहद, मेरठ, हाँसी-हिसार, रोहतक, दिल्ली, लोहागढ़ के ऐतिहासिक अध्यायों से होते हुए तैमूरलंग-गौरी-गज़नी से होते हुए वहाँ तक जाता है जब जाटों ने आपकी आइडियोलॉजी वालों के मुंह सुजाये थे और तब जा के बुद्ध बने जाटों और बाकी समाज पे इसी तरह के जुल्मों का अंत हुआ था जो आपने आज शुरू कर रखे हैं| हम आपसे नहीं अपितु हमारे क्रोध से डरते हैं| और हमारे क्रोध की इंतहा समाज, इतिहास और आपकी आइडियोलॉजी के पुरखों ने भली-भांति चखी और देखी है, और क्रोध की लपटों में जब उनको भोले के तांडव रुपी क्रोध के भभके झलके थे तभी से जाट को भोले का अवतार कहा जाने लगा| हालाँकि भोला एक म्य्थोलॉजिकल चरित्र है, परन्तु आपको यह मिशाल ही बेहतरी से समझ आएगी|

खैर अब हमें ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ेगी, भगवान ने इशारा दे दिया है कि अब वो खुद आपकी चालों पे नजर रखेगा| वैसे भी कहा गया है कि "शोर खाली भांडे ही किया करते हैं|" इसलिए भगवान ने भी अब आपको खाली भांडे साबित करने की ठान ली है|

हालाँकि अत्यंत दुखी कर देने वाला एपिसोड है, परन्तु जाट को इस एपिसोड से इतना समझ लेना चाहिए कि अब भगवान ने आपके सम्मान को संभल लिया है और आपके लिए उस दिन के लिए चुपचाप तैयारी करने का वक्त आ गया गया है जिस दिन फिर से इतिहास खुद को दोहराएगा| मिर्चपुर कांड की फाइल्स फिर से खोलने की घोषणा करना और उसके मात्र दो दिन बाद ही सनपेड़ दलित अग्निकांड हो जाने का संकेत भगवान ने साफ़ दे दिया है कि यह लोग जितना जाट का अपमान और दमन कर सकते थे कर चुके, अब हमारे मान-अपमान को उसने संभाल लिया है| अब हमें मात्र इनको इनकी ही चालों में थका-थका के ऐसा बना देना है कि यह फिर से हमसे ही फर्स्ट ऐड मांगे|

हमें ना हथियार उठाने ना बोलों के तीर चलाने, अब हमें एक सर छोटूराम की भांति, एक सरदार भगत सिंह की भांति, एक महाराजा सूरजमल की भांति, एक राजा नाहर सिंह की भांति, एक चौधरी चरण सिंह की भांति, एक बाबा महेंद्र सिंह टिकैत की भांति, एक गॉड गोकुला की भांति, एक महाराजा हर्षवर्धन की भांति, एक महाराजा पोरस की भांति, एक ही नाम के दो महाराजाओं पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह और लोहागढ़ में 1804 में विश्व में कभी ना डूबने वाले अंग्रेजों के राज के सूरज को डुबाने वाले महाराजा रणजीत सिंह, इनके हाथों से हेमामालिनी छीन लाने वाले हिमेन धर्मेन्द्र की भांति सिर्फ अपने स्वरूप में ढल के चलना होगा| भान रहे जाट को वरदान है कि जब वो अपने रंग में रम के धरती पर चलता है तो तमाम ताकतें पछाड़ खा के अपने आप गिरती हैं और यह ऊपर गिनवाई तमाम हस्तियां उसकी टेस्टिमनी हैं| इन्होनें कभी दुश्मन पर दाड़ नहीं पीसे, कभी उसको ललकारा नहीं, इनके आगे दुश्मन खुद चल के आये और धराशायी होते गए| नियति जाट का दुश्मन तय करती है, जाट खुद नहीं तय किया करता; जाट तो सिर्फ उस जाट का बुरा चाहने वाले को अंजाम तक पहुँचाने का जरिया मात्र बना करता है और यह ऊपर गिनवाई तमाम हस्तियां उसकी टेस्टिमनी हैं|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

हर की धरती हरयाणा में दलित दमन का दौर द्वार पर!

ये हैं वो दो हिन्दू दलित बच्चे (नीचे सलंगित चित्र में देखें) जो "हिन्दू एकता और बराबरी" के ढोल पीटने वाली हिंदूवादी सरकार की छत्रछाया तले हिन्दू सवर्णों ने आज तड़के फरीदाबाद के सनपेड़ गाँव में आग के हवाले कर दिए|

राजनीति तो सुनी थी गंदी होती है परन्तु जब उसके साथ धर्म भी मिलके उसमें एकता और बराबरी का नारा उठाये तो उस नारे को फलीभूत करवाने की जिम्मेदारी भी तो ले? धर्म वादा करके या नारा उठा के भूलने की चीज नहीं होती, आगे बढ़के उसके पालन और पालन की सुनिश्चितता करने का नाम होता है| जहां दावे से उठाई हुई बातें-वादे भुला दिए जाएँ वो राजनीति होती है धर्म नहीं|

जैसा कि इसका एक पहलु मीडिया और सरकार बता रही है कि यह सब आपसी रंजिश के चलते हुआ है| तो ऐसा भी क्या तरीका रंजिश निकालने का कि राजपूतों ने ना रात देखी, ना दिन, ना 10 महीने और अढ़ाई साल के बच्चे देखे| निसंदेह एक सच्चा राजपूत तो ऐसा कदापि नहीं कर सकता। यहां तो यह भी नहीं कह सकते कि दिन के वक्त किया इसलिए पता नहीं रहा होगा कि घर के अंदर कौन था और कौन नहीं| रात का वक्त था साफ़ पता था कि मियां-बीवी अपने बच्चों के साथ सो रहे होंगे|

इसपे भी अचरज की बात यह है कि सनपेड़ कांड पर क्यों नहीं एक भी हिन्दू-हिन्दू और इसमें एकता और बराबरी चिल्लाने वाले साक्षी महाराज से ले साध्वी प्राची, योगी आदित्यनाथ से ले मोहन भागवत एक शब्द भी नहीं बोले| ना कोई शंकराचार्य बोला, ना कोई महामंडलेश्वर, ना कोई पुजारी चुस्का और ना ही कोई संत| जिनकी जुबान गौ-गाय-मूत्र-गोबर पर जान लेने और देने के लिए बोलते-बोलते नहीं थकती, उन हिन्दू धर्म वालों के यहां और उन्हीं की सरकार के राज में एक हिन्दू दलित के छोटे-छोटे मासूम बच्चों की बस इतनी सी कीमत कि इन महानुभावों के मुख से अभी तक एक शब्द नहीं आया।

सभ्य-सुशील इंसान कोई भी कमेंट करे इस पोस्ट पर परन्तु, अपने यहां के गोबर से दूसरे के वहाँ के गोबर को ज्यादा गन्दा बताने वाले, इस पर तभी कमेंट करें, जब अपने गोबर को साफ़ करने का माद्दा रखते हों| ओह हाँ मैंने गोबर शब्द का जिक्र किया है तो भगतलोग अब इसको गाय वाले गोबर से जोड़ के मेरे कान मत खाने लग जाना, कि कहीं कहते चढ़े आओ मेरे सर पे कि तुमने गौमाता के गोबर को गन्दा कैसे कह दिया| मेरी ओर से तुम जिस चाहे उस जानवर के गोबर को खाओ या शरीर पे लबेड़े घूमो|

फूल मलिक

 

हरयाणा में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर मुख्यमंत्री ही बैठा है या किसी व्यापार मंडल का अध्यक्ष!

आज हरयाणा के मुख्यमंत्री उनकी सरकार की एक साल की उपलब्धियां गिनाते हुए ऐसे लग रहे थे जैसे हरयाणा व्यापार मंडल के अध्यक्ष बोल रहे हों। जनता का नुमाइंदा यानि मुख्यमंत्री वाली तो कोई फील ही नहीं आ रही थी, पूरी कांफ्रेंस के दौरान|

ना किसान का जिक्र, ना जमीन पे आ चुके फसलों के भावों का जिक्र, ना आसमान तक जा चुके दालों-सब्जियों के भावों का जिक्र, ना दलित उत्पीड़न का जिक्र, ना मुस्लिम उत्पीड़न का जिक्र। ना नौकरियों की नियुक्ति में देरी का जिक्र, ना कच्चे अध्यापकों को पक्के करने का जिक्र, ना बढ़ती रिश्वतखोरी और भाईभतीजावाद का जिक्र, ना समाज में पसर रही अशांति और असहनशीलता का जिक्र, ना सरकार के नेताओं के गैर-जिम्मेदाराना ब्यानों और रवैयों का जिक्र; खैर ब्यान तो खुद जनाब कौनसे सम्भल के देते हैं। एक ही झटके में ऐसा मुंह खोलते हैं कि हरयाणा तो हरयाणा बिहार तक में बीजेपी की चुनावी हालत खस्ता कर देते हैं।

कमाल की बात तो यह है कि किसान को तो लागत के पूरी होने तक के भी फसल-भाव नहीं मिल रहे और उसके बावजूद भी दाल-सब्जियों के भाव आसमान छू रहे हैं| और सरकार भोंपू बजाये जा रही है कि हमने भ्रष्टाचार मिटा दिया? तो आखिर यह भ्रष्टाचार कौन देखेगा सरकार जी कि किसान से उसकी लागत भी पूरी ना हो उस भाव पे खरीदी जाने वाली दाल कंस्यूमर तक पहुंचते-पहुंचते इतनी महंगी कैसे हुए जा रही है?

किसान के खेत से दाल खरीद है 25-35 रूपये प्रति किलो के बीच,परन्तु शहर-गाँव के ग्राहक को मिल रही है 200 रूपये प्रति किलो। अच्छे दिन तो सिर्फ बिचौलियों, सटोरियों और व्यापारियों के आये हैं। और इसमें सरकार को कोई भ्रष्टाचार, जमाखोरी वगैरह भी नहीं दिखती।

भगत भी बेचारे सुन्न हैं, ना फड़फड़ाहट ना फड़फड़ाहट की गुंजाइस। मुझे तो अचरज इस बात का है कि 200 रूपये किलो की दाल खा के भी भगतों को सरकार के खिलाफ आवाज उठाने के बजाये दंगे कैसे सूझ जाते हैं। हाँ तभी तो अंधभगत कहलाते हैं, खुले दिमाग के भगत होते तो दंगे करने से पहले अपने घरों की बिगड़ रही इकोनॉमी पे आवाज ना सही कम से कम चिंता तो उठाते।

फूल मलिक

यह तो जलाने-जलाने वाले पे निर्भर है कि मामले को आपसी रंजिश का नाम दिया जावे या कांड का!

हरयाणा के डीजीपी साहब सीखा रहे हैं कि जब झगड़ा जाट और दलित का हो तो उसको कैसे उत्पीड़न का बना के दिखाया जाए, और जब झगड़ा आज वाले सनपेड़ गाँव में स्वर्ण जाट के अतिरिक्त कोई अन्य स्वर्ण का हो तो कैसे सिर्फ रंजिश बना के दिखाया जाए| मीडिया भी खूब साथ दे रहा है उनका, बिलकुल मुंह-में-मुंह डाल के रिपोर्टिंग हो रही है| क्या बात है क्या तालमेल है मीडिया और सरकार का|

डीजीपी साहब और मीडिया, यूँ तो गोहाना-कांड हो, मिर्चपुर-कांड हो, या आज फरीदाबाद में हुआ सनपेड़-कांड, मामले तो सारे ही आपसी रंजिश के थे, पर किसी एक के भी द्वारा यह "आपसी रंजिश" शब्द तब तो प्रयोग नहीं किया गया जब गोहाना कांड हुआ था या मिर्चपुर कांड हुआ था, वाकया तो एक ही प्रकार का था ना? दलितों के घर उस वक्त भी जलाये गए थे और आज भी? फर्क सिर्फ इतना ही तो था ना कि उस वक्त मसला जाट बनाम दलित था और आज राजपूत बनाम दलित?

ओह समझ गया, यह तो जलाने-जलाने वाले पे निर्भर है ना कि मामले को दो-चार परिवारों की आपसी रंजिश कह के हल्का बताना है या पूरी जाट कौम बनाम दलित कौम का बता के जाटों का दलितों पर आतंक और अत्याचार कह के बड़ा बताना है|

हुड्डा साहब, चौटाला साहब और तमाम तरह के अन्य जाट नेता, सीखें खट्टर साहब और उनके डीजीपी से कि कैसे दलितों के घर तक जलाने पर भी, उनके बच्चे जिन्दा फूंकने के बावजूद भी उस कांड को मात्र आपसी रंजिश का बना के दिखाया जा सकता है| शायद भविष्य में काम आएगा आप लोगों के|

वैसे यह वही खट्टर साहब हैं जिन्होनें रोहतक सिस्टर्स बस छेड़छाड़ मामले में मात्र एक जाटों के बालक होने की वजह भर से बिना जाँच रिपोर्ट का इंतज़ार किये तुरंत-फुरन्त आनन-फानन में इनाम भी घोषित कर दिए थे और आज वाले मामले को कैसे इनके कर्मचारियों और मीडिया द्वारा सिर्फ आपसी रंजिस मात्र का मामला बताया जा रहा है|

चलो हुड्डा हो या चौटाला, उनमें इतनी संवेदना तो थी कि वो दलितों पर हुए अत्याचार को अत्याचार की तरह ही लेते थे, उसको एक रंजिश मात्र कह के रफा-दफा नहीं करते थे| यहां तक कि खट्टर साहब के 10 लाख के मुवावजे की तुलना में 25 लाख मुवावजा देते थे| दलित मकानों को दोबारा से बनवाते थे| उनके बीच जा के उनकी सुनते थे, सुना है खट्टर साहब तो अभी तक चंडीगढ़ से ही नहीं निकले हैं| डीजीपी भी यही कह रहे हैं कि जरूरत हुई तो मिलने भी जाऊंगा|

और ना ही अभी तक उस बेचारे दलित के फूंके हुए घर को दोबारा से बनाने के बारे सरकार ने कोई घोषणा की, क्या सिर्फ 10 लाख में पल्ला झाड़ लिया जायेगा?

और हाँ, वो मिर्चपुर कांड के पीड़ित दलित भाईयों को आश्रय देने वाले तंवर साहब किधर हैं, कोई भेजे उनके पास संदेशा की जनाब आओ इधर सनपेड़ गाँव में भी कुछ आपकी ही जाति के राजपूत भाईयों ने दलितों के घर फूंके हैं, उन पीड़ित दलित भाईयों को भी आपके फार्महाउस में आश्रय दीजिये|

भाई कोई गोल बिंदी वाली रुदालियों को भी संदेशा भेजो, कि सनपेड़ में रूदन मचाने जाना है, या फिर वहाँ घर फूंकने वाले जाट नहीं कोई और थे इसलिए जाना कैंसिल?

फूल मलिक

झगड़ों में भी जातिय रियायत बरतने वाला हिंदुस्तानी मीडिया!

एक मीडिया वाले भाई ने कहा, "काश, आज सनपेड़, फरीदाबाद में जो राजपूतों द्वारा घरों समेत दलित जलाये गए हैं, उनमें दूसरी पार्टी राजपूत की जगह जाट होती तो हमें "दबंग" शब्द इस्तेमाल ना करना पड़ता और टीआरपी भी मीटर तोड़ देती|"

मैंने पूछा वो कैसे?

तो बोलता है कि क्योंकि मामला राजपूतों का है इसलिए सिर्फ "दबंग" बता के दिखाने के निर्देश हैं; लेकिन अगर होते राजपूतों की जगह जाट तो निर्देश यही होते कि इनको 'दबंग' शब्द में कवर नहीं करना, डायरेक्ट 'जाट' बता के खबर चलाना है|

मैंने कहा वाह रे मीडिया, तुम्हारी निष्पक्षता, निडरता और लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ होने के दावे| तुमसे बड़ा खोतंत्र नहीं होगा पूरी दुनिया में कोई| सलाम है तुम्हारी सोच को, झगड़ों में भी जाति के नाम पर रियायत बरत के खबर चलाते हो|

अब इसको क्या कहूँ, "मीडिया की भी जो टीआरपी तोड़ दे जाट ऐसी सबसे बड़ी बड़ी ब्रांड है क्या?"

धन्यवाद घुन्नो, बदनाम ना हुए तो क्या नाम ना होगा? वजह जो भी हो मार्केटिंग तो करते ही हो जाटों की पॉजिटिव ना सही नेगेटिव ही सही| परन्तु याद रखना बड़े-से-बड़े मार्केटिंग प्रोफेशनल्स भी पॉजिटिव से ज्यादा नेगेटिव मार्केटिंग को ज्यादा इफेक्टिव बताते हैं, लगे रहो जाटों को मशहूर करने में|

अभी एक बार हरयाणा में पंचायती राज इलेक्शन हो जाने दो, दोबारा से जब जाट आरक्षण का जिन्न फिर से खड़ा होगा, तो कर लेना अपने यह अरमान भी पूरे| बस इतना ध्यान रखना कि कहीं जाट-जाट चिल्लाते-चिल्लाते तुम्हारी साँसे तुम्हारी ........... टों में ना उलझ जाएँ|

जय योद्धेय! - फूल मलिक