Wednesday, 10 August 2016

जाटों में शिक्षा का प्रचार आर्य-समाज ने किया, दयानंद ने जाट ऊपर उठा दिए; Oh please give me a break!

जिसका जितना क्रेडिट बनता हो उतना ही दिया जाए तो सभ्यता कहलाती है, हद से ज्यादा भावुक हो के सारा क्रेडिट उसी पे उड़ेल दो तो वह अंधभक्ति कहलाती है|

पहली तो बात जाट इतने ही अज्ञानी रहे होते तो सत्यार्थ प्रकाश में उनको "जाट जी" कह के नहीं लिखा गया होता| यह नहीं कहा गया होता कि "सारी दुनिया जाट जैसी हो जाए तो पण्डे भूखे मर जाएँ!" कुछ तो ज्ञान रखते होंगे हमारे पुरखे तभी उनकी एक ब्राह्मण की लिखी पुस्तक में स्तुति की गई| वरना हजारों-हजार जातियां हैं भारत में, हुई है आजतक किसी की किसी भी ब्राह्मण की पुस्तक-ग्रन्थ-शास्त्र में "जी" लगा के अनुशंषा,जाट को छोड़ के?

दूसरी बात जो अज्ञानी होता है उसको कोई जी लगा के नहीं बोलता, जो शिष्य होता है उसकी कोई जी लगा के स्तुति नहीं करता| सत्यार्थ प्रकाश लिखने से पहले जाटों के ज्ञान और मान्यताओं को भलीभांति पढ़ा और परखा गया था, तभी सत्यार्थ प्रकाश लिखा गया था| यह ठीक उसी तरह है जैसे कि आज कोई जाट की मान्यताओं पर जाट की स्तुति करते हुए पुस्तक निकाल दे|

मानता हूँ दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में काफी चीजें जाटों से सम्बन्धित डॉक्यूमेंट कर दी, परन्तु उसके साथ ही सड़ी-गली दुनिया की क्रूरतम मनुवाद की वर्णव्यस्था भी उसी पुस्तक में जाट के चिपका दी| सत्यार्थ प्रकाश में लिखा कि लड़की का सानिध्य लड़के के लिए आग में घी के समान होता है इसीलिए लड़के-लड़की को अलग-अलग जगह रख के पढ़ाया जाए; परन्तु दूसरी तरफ उसी आर्यसमाज के नाम से Co-education के DAV स्कूल/कॉलेज बनाये गए; किसी जाट ने प्रश्न किया इस बात पे? एक पल को एडजस्ट भी कर लूँ कि शहरों में इंग्लिश माध्यम के DAV बनाये और गाँव में संस्कृत के गुरुकुल; परन्तु जब दोनों ही संस्थाएं एक पुस्तक को मानती थी तो यह "लड़की लड़के के लिए अग्नि के समान होती है" वाली बात का अनुपालन DAV में क्यों नहीं किया गया?

इतना काफी होना चाहिए तार्किक जाट को समझने के लिए कि यह एक हांडी में दो पेट क्यों किये गए? उद्देश्य साफ़ था जाट को सिख धर्म में जाने से रोकना था और दूसरा जाट को ऐसी शिक्षा पद्दति थमानी थी जो दूसरे दर्जे की थी यानी संस्कृत माध्यम से पढाई| आर्य समाज को बराबरी के विचार से बनाया गया था तो क्यों नहीं दयानंद सरस्वती ने गांव में अंग्रेजी को पढ़ाने की वकालत करी? बताईये जरा कि जिस आदमी को जाट समाज इतना सर आँखों पर बैठा चुका था, वह अगर जाटों को अंग्रेजी पढ़ने की कहते तो क्या जाट समाज मना कर देता?

ऐसा जाट के इसी भोलेपन के चलते नहीं किया गया जिस वजह से आज जब मैं आर्य-समाज की कमियों की बात करता हूँ तो कई जाट भाई भावुक हो जाते हैं| सनद रहे भावुकता जाट का गहन नहीं| मैं वो इंसान हूँ जिसने बचपन में आर्य-समाज की प्रचार सभाओं में स्टेज के प्रभार भी संभाले और प्रबन्ध भी किये| मैं वो इंसान हूँ जिसने पहली से दसवीं तक आरएसएस के स्कूल में पढाई की है| तो इसका यह मतलब तो नहीं हो जाता है ना कि मैं आर्य-समाज या आरएसएस की कमियों पर बात ही नहीं करूँगा?

आर्य-समाज और आरएसएस तो छोडो लोग तो अभी ठीक से आधिकारिक तौर पर दो साल के भी नहीं हुए यूनियनिस्ट मिशन की ही कितनी आलोचना करने लगे हैं, यह जगजाहिर है| और हम तो इन आलोचनाओं का स्वागत करते हैं, क्योंकि हम आगे बढ़ना चाहते हैं, आगे बढ़ते हुए अपने में सुधार करते रहना चाहते हैं|

इसलिए जाट अपने इस भोलेपन में सुधार कर ले कि किसी ने उसके लिए कुछ कर दिया तो फिर उसके लिए बिलकुल ही भावभंगिम की भांति अंधे ही हो जाओ| अंधे हुए बैठे रहे और आर्य-समाज में समय रहते यह सुधार नहीं किये, इसलिए तो आज सुनने में आ रहा है कि आर्य-समाज पर मूर्तिपूजा करने वाले सनातनी कब्ज़ा करते जा रहे हैं,सही है ना? सुन रहे हैं ना आर्य-समाजी लोग, आपके मूर्तिपूजा के विरोध के सिद्धांत पर स्थापित समाज को मूर्तिपूजा करने वाले सनातनी कब्जाने की फिराक में हैं|

और इन कब्ज़ा करने की मंशा रखने वालों की बानगी भी भलीभांति जानते ही होंगे आप| जी, यह जैसे सिखों को हिन्दू-रक्षक बोल के असली हिन्दू बता के उनको कब्जाने की फिराक में रहते हैं; परन्तु सिख इनको दूर से ही दुत्कार देते हैं; ठीक ऐसे ही इनसे दूरी बना के रखिये; वर्ना ना घर के रहेंगे ना घाट के|

अत: समय रहते चेत जाईये और आर्य-समाज को सनातनियों से बचाईये, बचाईये अगर आज भी अपने को वाकई का आर्य-समाजी मानते हो तो|

और इसकी शुरुवात आपके घरों के पिछले दरवाजे से आपकी औरतों के जरिये दान-चढ़ावे-चन्दे के नाम पर पैठ लगाए ढोंगी-पाखंडियों से दूर रहने हेतु उनको समझाने से शुरू करें। औरत का हृदय कोमल होता है, वो अपने घर के भले के लिए कुछ भी कर गुजरती है; इसलिए आदमी की अपेक्षा औरत का इन ढोंगियों के बहकावे में आना आसान होता है| इसीलिए यह आपके घरों की औरतों को इनकी औरतों व् खुद के द्वारा निशाना बनाते हैं और अपने घर भरते हैं। अत: इस घर के पिछले दरवाजे से घर की कमाई में लगी सेंध को बन्द करवाने हेतु, अपने-अपने घर की औरतों से बैठ के मन्त्रणा कीजिये। आपकी औरतें जो अपनापन इन मोडडों-पाखण्डियों की चिकनी-चुपड़ी बातों में पाती हैं, वो आप खुद दो बोल प्यार से बोल के दोगे तो आपकी औरतें ही इनको आगे धका देंगी।

और इस तरह जाट का मूर्तिपूजा रहित समाज का वह मूल-सिद्धांत बचाने में आप कामयाब रहेंगे, जिससे कि जाट समाज पे लट्टू हो के दयानद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश लिख डाला था या इनसे लिखवाया गया था। सनद रहे यह "मूर्ती-पूजा" रहित समाज की थ्योरी दयानंद कहीं बाहर से कॉपी करके नहीं लाये थे, आपके अपने पुरखों के यहां से ही उठाई हुई है। जो जाट हो गया वो ज्ञानी तो जेनेटिकली ही होता है। कृपया यह अनजान और नादान बनने के स्वघाती स्वांग बन्द कीजिये और अपने डीएनए के अनुरूप अपनी उस कहावत को सहेजने में अपना सहयोग दीजिये कि "अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, और पढ़ा जाट खुदा जैसा!"।

और अगर वहाँ असहाय प्रतीत हो रहा है इन चीजों की रक्षा करना तो यूनियनिस्ट मिशन ज्वाइन कर लीजिये, क्योंकि दलित-किसान-पिछड़े के आर्थिक व् सामाजिक हितों की रक्षा व् आवाज बनने के साथ-साथ, हम हमारी इन स्वर्णिम मान्यताओं को सहजने व् सँजोने हेतु भी कार्यरत हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 8 August 2016

जाट क्या थे क्या हो गए या होते जा रहे हैं को मापने का एक पैमाना यह भी!

आज से डेड-दो दशक पहले जाटों के यहां हर दूसरे ब्याह में जाट आर्य-समाजी फेरे करवाता था| जाटों की यह उन्मुक्तता, स्वच्छदंता और आज़ाद कौम होने का भाव देख के ब्राह्मण भी कहते थे कि एक इकलौते यह जाट ही हिम्मतदार हैं जो हमको काटने का दम्भ रखते हैं, वरना राजपूत तक हमारे आगे दुम हिलाते हैं और सारे ब्याहों के फेरे हमसे ही करवाते हैं|

यह पहलु जाट कौम के उन स्वर्णिम अध्यायों के पहलुओं में से एक अग्रणी पहलु है जिसके आधार पर E. Joseph (Rohtak DC 1905-1912) और R.C. Temple (1826-1902) जैसे Anthropologists (मानव विज्ञानियों) ने कहा था कि पूरे भारत में सिर्फ एक ब्राह्मण थ्योरी से समाज चलता है परन्तु जाट-बाहुल्य इलाके यानि जाटलैंड ऐसे क्षेत्र हैं जहां भारतीय समाज जाटिस्म की थ्योरियों से चलता है|

जाटों ने आज इतनी तरक्की कर ली है कि पूरे देश में इस तरह की इकलौती कौम होने का दम्भ खोती जा रही है, और अब हर दूसरे तो क्या तीसरे-चौथे-पांचवें-दसवें ब्याह तक में जा के कोई जाट आर्य समाजी फेरे करवाते हुए दीखता है|

और यही वो गुलामी और निर्भरता है जिसकी ओर जाट को धकेलने के लिए जाट बनाम नॉन-जाट, 35 बनाम 1 जैसे षडयन्त्रों के जरिये जाट की स्वच्छन्द छवि कुंद की जा रही है| इसमें ताज्जुब और दुर्भाग्य की बात तो यह है कि बहुत से जाट तो अपने ही पुरखों और बुजुर्गों की इस कालजयी अमर हैसियत को स्वीकारने तक को तैयार नहीं और उनको ऐसे सुनहरे कौम के अभिमान को याद भी दिलाओ तो काटने को दौड़ते हैं| अंधभक्त बने जाट तो इतने सठियाये और पठाये हुए बना दिए गए हैं कि उनको इन बातों में हिन्दू धर्म को तोड़ना नजर आता है, यहां तक कि ऐसी बातें करने वाले मेरे जैसे को पलक झपकते ही पाकिस्तानी तक बताने लग जाते हैं|

किसी विरले जाट को ही कौम पे मंडरा रहे इस आइडेंटिटी क्राइसिस का भान है, वरना जिसको देखो भंडेलों की भांति अपनों की ही टांग खींचने, पर कुतरने में मशगूल है| वाकई में जाट कौम बहुत बड़े आध्यात्मिक व् सामाजिक आइडेंटिटी क्राइसिस से गुजर रही है|

और जब तक इस भंडेलेपन से बाज नहीं आएंगे, इसको त्याग खुद से पहले कौम को ऊपर रख के नहीं सोचेंगे, यूँ ही बेवजह सॉफ्ट टारगेट बने रहेंगे| और मेरे जैसे जागृति फैलाने वाले यूँ ही गालियां खाएंगे| परन्तु गाली खाने से कहीं ज्यादा पवित्र कार्य है कौम को उसकी हैसियत और गौरवशाली विरासत से अवगत करवाते रहना| कहीं ना कहीं कभी ना कभी तो चौं फूटेगी कौम में अपने आप को फिर से पहचानने की|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 7 August 2016

हिन्दू नाम का कोई धर्म ही नहीं यह खुद आरएसएस प्रमुख के मुख से अब सत्यापित हो चुका है!

आरएसएस की कथनी और करनी में कितना अंतर और विरोधाभाष है, आरएसएस प्रमुख के लन्दन में दिए इन बयानों से सहजता से ही दिख जाता है:
 
1) यह खुद कह रहे हैं कि हिन्दू कोई धर्म नहीं, तो आशा करता हूँ कि आज के बाद जब मैं कहूँ कि हिन्दू कोई धर्म है ही नहीं तो कोई मेरी बात का बुरा नहीं मानेगा; या मानना है तो आरएसएस प्रमुख वाली का बुरा मानने से शुरुवात की जाए|
2) आरएसएस अब उस कदम तक आ गई है जहां इनके एजेंडे में "हिन्दू धर्म" शब्द को शुद्ध ब्राह्मण धर्म यानी "सनातन धर्म" से स्थानांतरित करना निर्धारित है|
3) मेरे ख्याल से आर्य-समाजी लोग तो सनातन धर्म के धुर-विपरीत हैं, क्योंकि सनातन मूर्ती पूजा करता है और आर्य समाज मूर्ती पूजा को नहीं मानता|
4) सनातनी और आर्य-समाजी दोनों को जो शब्द ढंके हुए था, वो था हिन्दू शब्द; जिससे आज आरएसएस प्रमुख ने ही खुद को अलग कर लिया है और हिन्दू शब्द को धर्म ना मानते हुए पद्दति बता दिया है|
5) जाट जैसा समाज जो कि मूर्ती-पूजा विहीन अपने पुरखों की शुद्ध दादा खेड़ा परम्परा पर चलता आया है, जिसको कि "जाटू सभ्यता" कहा जाता है, इससे उसका भी मार्ग अब प्रसस्त होता है|

महृषि दयानंद ने जाटों के दादा खेडों से ही जाट के मूर्ती पूजा नहीं करने के स्वभाव का पता लगाया था और उसको अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश का आधार बनाया था| यह बात वह नादान जरा गम्भीरता से जान लें, जो कहते हैं कि महर्षि दयानंद ने जाट या पूरे समाज को पाखण्डों से निकाला या बचाया| नहीं, बल्कि सच्चाई यह है कि उन्होंने जाट समाज से यह सिद्धांत उठाये और सत्यार्थ प्रकाश लिखा| इस पुस्तक में उन द्वारा "जाट जी" और "पांडा जी" का एकांकी उदाहरण रखना, जाट के यहां इन मान्यताओं का उन द्वारा "आर्य-समाज" स्थापित करने से पहले से होना और इसी से प्रभावित होकर एक ब्राह्मण महर्षि दयानंद द्वारा "जाट जी" कह के जाट की महानता की स्तुति करना; इस बात का साक्षी है कि जाट को महर्षि दयानंद ने नहीं जगाया था अपितु जाट के यहां की यह चीजें देख के उनको जाग्रति आई|

इसीलिए मुझे गर्व है कि भारतीय समाज में जाट ही एक ऐसी कौम रही है जिसको समझदार ब्राह्मणों ने "जी" लगा के मान दिया| अत: जाट अपने इस उच्च स्थान को समझें, और ब्राह्मण के मूर्ती पूजा आधारित इनके ब्राह्मण धर्म उर्फ़ सनातन धर्म के समान्तर युग-युगांतर से स्थापित "जाट-पुरख" धर्म पर चलते रहें| हाँ, हमें जाट-पुरख धर्म का आदर करवाना है इसलिए ब्राह्मण के सनातन धर्म का आदर करते हुए चलना सबसे उत्तम मार्ग है| वो हमारी मान्यताओं का आदर करें और हम उन्कियों का करें|

इन सबसे एक बात और स्थापित होती है कि यूनियनिस्ट मिशन जिस "जाट-पुरख" धर्म की राही अख्तियार किये हुए है, वह बिलकुल सही है| हिन्दू नाम का कोई धर्म ही नहीं यह खुद आरएसएस प्रमुख के मुख से अब सत्यापित हो चुका है| इसलिए इस शब्द को सिर्फ एक परम्परा के तहत ही देखा जाए और ब्राह्मण अपना सनातन धर्म धारे ही हुए है, दलित लगभग बुद्ध हो चुके हैं, जाट भी अपने "दादा खेड़ा" उर्फ़ "जाट पुरख" धर्म जिसपर कि महर्षि दयानंद का "सत्यार्थ प्रकाश" यानि "आर्य समाज" कांसेप्ट भी आधारित है, उन मूल जड़ों की और वापसी करें| कम से कम हर यूनियनिस्ट तो अब इसी राह पर अग्रसर है|

विशेष: यह विचार मेरे निजी हैं, मेरे विश्वास से कहे हैं; क्योंकि यूनियनिस्ट हूँ, युनियनिस्टों से मिलके काम करता हूँ तो इतना विश्वास से कह सकता हूँ कि यूनियनिस्ट इसी राह पर अग्रसर हैं| फिर भी किसी यूनियनिस्ट के इस पर विभिन्न मत होवें तो उनका स्वागत करूँगा और जानना भी चाहूंगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

News Source: महज एक परंपरा ही है हिंदुत्व, कोई धर्म नहीं: भागवत
http://www.24hindinews.com/hinduism-is-only-a-tradition-no-religion-bhagwat/

Thursday, 4 August 2016

‘तीज रंगीली री सासड़ पींग रंगीली’!

चन्दन की पाटड़ी
री सासड़,
रेशम की द्यई झूल।
...
खुसीए मनावैं
री सासड़ गाणे गांवैं,
मद जोबन की गाठड़ी
री सासड़,
ठेस लगै जा खूल।
तीज रंगीली
री सासड़ पींग रंगीली,
बनिए कैसी हाटड़ी
री सासड़
ब्याज मिल्या ना मूल।
पतिए मिल्या ना
री सासड़ च्यमन खिल्या ना,
खा कै त्यवाला जा पड़ी
री सासड़,
मुसग्या चमेली केसा फूल।
लखमीचंद न्यू गावै
री सासड़ साँग बनावै,
जिसका गाम सै जाटड़ी
री सासड़,
गाणै मैं रहा टूल|

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सावन गीत - हरियाणवी (खड़ी बोली)

"गळियों तो गळियों री बीबी मनरा फिरै"
हेरी बीबी मनरा को लेओ न बुलाय।
चूड़ा तो मेरी जान, चूड़ा तो हाथी दाँत का।
...
काळी रे जंगाळी मनरा ना पहरूँ
काळे म्हारे राजा जी के बाळ
चूड़ा तो हाथी दाँत का ।
हरी रे जंगाळी मनरा ना पहरूँ
हरे म्हारे राजा जी के बाग,
चूड़ा तो हाथी दाँत का ।
धौळी जंगाळी रे मनरा ना पहरूँ
धौळा म्हारे राजा जी का घोड़ा,
चूड़ा तो हाथी दाँत का ।
लाल जंगाळी रे मनरा ना पहरूँ
लाल म्हारे राजा जी के होंठ,
चूड़ा तो हाथी दाँत का ।
सासू नै सुसरा सै कह दिया –
ऐजी थारी बहू बड़ी चकचाळ
मनरा सै ल्याली दोस्ती,
चूड़ा तो हाथी दाँत का ।

"नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे"
सावण का मेरा झूलणा
एक सुख देखा मैंने अम्मा के राज में
हाथों में गुड़िया रे, सखियों का मेरा खेलणा
नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे…
एक सुख देखा मैंने, भाभी के राज में
गोद में भतीजा रे गळियों का मेरा घूमणा
नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे…
एक सुख देखा मैंने बहना के राज में
हाथों में कसीदा रे फूलों का मेरा काढ़णा
नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे…
एक दु:ख देखा मैंने सासू के राज में
धड़ी- धड़ी गेहूँ रे चक्की का मेरा पीसणा
नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे…
एक दुख देखा मैंने जिठाणी के राज में
धड़ी- धड़ी आट्टा रे चूल्हे का मेरा फूँकणा
नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे
सावण का मेरा झूलणा

सौजन्य: देवेन्द्र कुमार और फूल मलिक

साम्मण अर मींह की कहावतें:
1.आई तीज बोगी बीज!
2.सास्सु का नाक तोड़ ल्याणा! (इतनी ऊँची पींघ झूलने की हिम्मत की पींघ पेड़ की टहनियों में जा लगे|)
...
3.साढ़ सूखा ना सामण हरा!
4.जब स्यमाणा चौगरदे कै एक-सा निसर ज्या, मींह जोर का बरस ज्या!
5.मंद बूँदा की झड़ी, मरी खेती भी हो ज्या खड़ी!
6.जय्ब चींटी अंडा ले चलै, चिड़िया नहावे धूळ मैं,
कहें स्याणे सुण भाई, बरसें घाग जरूर! (When ants carry eggs, sparrows play in sand - then it should be presumed that rains are very near)
7.चैत चिरपड़ो और, सावन निर्मलो|
8.ज्यब चमकै पच्छम-उत्तर की ओर, तब जाणो पाणी का जोर|
9.बांदर नै सलाह दे, अर बैया आपणा ऐ घर खो ले! (बरसदे मींह म्ह अपणे घोंसले तैं बैये द्वारा बरसात म्ह बिझते बन्दर को घर बनाने की सलाह देने पे, बन्दर उसी का घोंसला तोड़ फेंकता है|)

साम्मण के दोहे:
1.होइ न्यम्बोली पाक कै, इबके मिट्ठी खूब,
मौसम कै स्यर पै धरी, साम्मण नै आ दूब|
2. पड्या साढ़ का दोंगड़ा, उट्ठी घणी सुगंध,
जोड़ घटा तै यू गया, साम्मण के संबंध।
3. मन का पंछी उड़ चल्या, बाबुल की दल्हीज़,
कितने सुख-दुख दे गई, या हरियाली तीज।
4. आ भैया बरसें नैन, बादल उठ्ठें झीम,
साम्मण में मीठा होया, फल कै कडुआ नीम।
5. जीवन भर इब तार ये राखणे पड़ें सहेज,
पाछले साम्मण चढ़ गई, बाहण अगन की सेज।
6. उडे हवा मैं चीर है, अर चढ़ी गगन तक पींग,
बाद्दल सा पिय का प्यार सै, तन-मन जावै भीग।
7. री ननदी तू ना सता रही घटा या छेड़,
बरस पड़े जै नैन ये कडै बचेगी मेड़|
8. घेवर देवर तै दिया साम्मण का उपहार,
पिया आपणे तै दिया रुक्खा-सुक्खा प्यार।
9. पा कै माँ की ‘कोथली’ भूल गई सब क्लेस,
मन पीहर में जा बस्या तन ही था इस देस।

Source: प्रोफेसर राजेंद्र गौतम और फूल मलिक

Jai Yauddhey! - Phool Malik

नानक देखा, महावीर देखा, बुद्ध देखा, दादा खेड़ा देखा, देखा ईसा और अल्लाह!

नानक देखा, महावीर देखा, बुद्ध देखा, दादा खेड़ा देखा, देखा ईसा और अल्लाह,
ना ये बहूबुझा हैं, ना कांधे कोई हथियार, ना ही किसी जानवर पे सवार!
ना यह अपने धर्म के अंदर जातिवाद और वर्णवाद बतलाते,
ना ही खुद कहीं जाट बनाम नॉन-जाट और 35 बनाम 1 रचवाते|
ना तू मुख से, तू भुजा से, तू उदर से और तू पैर से पैदा हुआ बताते,
धर्म के अंदर इनमें से कोई आपस में वर्गीकृत करते नहीं देखा|
यह दुश्मन भी बताते हैं, किसी को मरवाते-भिड़ाते भी हैं तो खुद के धर्म के बाहर वालों के साथ;
तो क्या जो जातिवाद और वर्णवाद फैलाते हैं, यह वाकई में धर्म जानते भी हैं या सिर्फ धर्म शब्द को हाईजैक कर रखा है?

आखिर पूरे विश्व में यही अनोखे ऐसे क्यों हैं कि यह विश्व के धर्मों की किसी परिभाषा के अनुरूप हैं ही नहीं?
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 2 August 2016

आज के जाट बनाम नॉन-जाट का ऐतिहासिक परिपेक्ष्य!

1905 से 1910 तक रोहतक के डीसी रहे मिस्टर ई. जोसफ लिखित "कस्टमरी लॉ ऑफ़ रोहतक" पुस्तक की रिफरेन्स से "Women and Social Reform in Modern India" किताब के पेज नंबर 147 (कटिंग सलंगित) में Sumit Sarkar, Tanika Sarkar, क्वोट करके सत्यापित करते हैं कि जाट और मनुवाद दोनों भिन्न विचारधाराएं रही हैं|

उन्नीसवीं सदी के आथ्रोपोलॉजिस्ट लेखक R. C. Temple के बाद E Joseph की यह रिकॉर्डिंग्स पुख्ता करती हैं कि उत्तर भारत यानी जाट बाहुल्य इलाकों में मनुवाद नहीं बल्कि जाटवाद चलता आया है|

और यही वो मुद्दा है जब आज के दिन हरयाणा में मनुवाद को मौका मिला है जाटवाद पर हावी होने का| यह जाट बनाम नॉन-जाट, 35 बनाम 1 इत्यादि कुछ नहीं सिवाय मनुवाद की जाटवाद पर विजय पाने की कोशिशों के|
अत: जाट युवा/युवती खासतौर पर समझें कि जाटलैंड पर मनुवाद नहीं अपितु जाटवाद से सभ्यता चली है| मनुवाद बाकी के भारत में हावी रहा है परन्तु जाट बाहुल्य इलाकों में नहीं|

और यह भी प्रमाणित बात है कि जाटवाद से मनुवाद कहीं ज्यादा गुना तुच्छ सोच, अमानवीय व् मानव सभ्यता का अहितकारी रहा है| इसीलिए जाट को चाहिए कि वह इस मनुवाद से हर सम्भव अपने जाटवाद की रक्षा करे|
जाटवाद एक गणतांत्रिक थ्योरी रही है जबकि मनुवाद एक अधिनायकवाद थ्योरी रही है| दोनों में आइडिओलोजिकली और जेनेटिकली दिन-रात का अंतर है| एक जाट मनुवादी बनने की कोशिश तो कर सकता है, परन्तु उसका जीन उसको ऐसा बनने नहीं देता| इसलिए बेकार की कोशिशें करने और अपने ऊपर किसी और थ्योरी को कॉपी-पेस्ट मारने की व्यर्थ कोशिशों को छोड़ के वही बने रहें जो हैं और उसी का संवर्धन करके उसको और ज्यादा विकसित करें|

मेरी निजी सोध और अनुभव दोनों यह सत्यापित करते हैं कि मनुवाद को भारत से बाहर किसी भी थ्योरी से तुलना तक में भी नहीं रख सकते, जबकि जाटवाद का खाप सिस्टम डेवलप्ड देशों के सोशल जूरी जस्टिस सिस्टम का रॉ रूप है, जाटों की फोर्ट्रेस रुपी चौपालें डेवलप्ड कन्ट्रीज के सेंट्रल हॉल्स, सिटी हॉल्स के समान्तर रखी जा सकती हैं| जाटों का एक ही गौत में विवाह ना करने की परम्परा, यूरोप के कई देशो में पाई जाने वाली इसी प्रकार की व्यवस्था के समांतर बैठती है| जाटों के यहां नौकर-मालिक की जगह सीरी-साझी का कांसेप्ट होना, गूगल जैसी कंपनी के वर्किंग कल्चर के समान्तर बैठता है|

इसीलिए अपने पुरखों के इस पहले से ही ग्लोबल सोच के कल्चर को दुत्कारें नहीं, छोड़ें नहीं अपितु इसको सुधारें और विकसित करके आगे बढ़ाएं| अगर जाटवाद को थोड़े-बहुत मूलभूत सुधारों के साथ अमेंड करके लागू किया जाए तो यही वो थ्योरी है जो भारत कहो या खासकर जाटलैंड के सोशल स्टेटस को वर्ल्डक्लास का बना सकती है| जबकि मनुवाद कोरा मानवता का दुश्मन, इंसान को इंसान से भिड़ाने वाला, उसमें ऊंच-नीचता की मानसिकता भरने वाला तन्त्र है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक



Source: https://books.google.fr/books?id=GEPYbuzOwcQC&pg=PA160&lpg=PA160&dq=E+joseph+dc+rohtak&source=bl&ots=MeeUj_j7kv&sig=VbFhpfLq3f7TCp2cNL41FFa1DSA&hl=en&sa=X&ved=0ahUKEwjizaul_6LOAhXJthoKHdIaB_0Q6AEIHDAA#v=onepage&q&f=false

शॉट-पुटर इंद्रजीत सिंह सैनी का दूसरा टेस्ट भी पॉजिटिव, रियो जाना लगभग नामुमकिन - एनडीटीवी इंडिया!

भाई इंद्रजीत जी अगर आपको भी फटाफट न्याय चाहिए तो अपनी ओलिंपिक बर्थ को किसी जाट खिलाडी से ट्रायल के लिए चैलेंज करवा लो और फिर देखो झटका कि कैसे पी.एम.ओ. से ले के खेल-मंत्रालय तक दिन-रात एक कर देता है आपको कम-से-कम "बेनिफिट ऑफ़ डाउट" (और कोई ऑप्शन ना भी बचे तो) दिलवाने के लिए| और थोड़ा सा आपके खिलाफ हुई साजिश में किसी जाट के हाथ होने के एंगल का तड़का और लगवा लेना, अन्यथा यूँ इतनी सहजता से बात ना बनने वाली।

फूटी किस्मत आपकी, कि आपको किसी जाट ने ट्रायल के लिए चैलेंज नहीं किया और उधर पिछड़ों का स्वघोषित मसीहा राजकुमार सैनी भी आपकी सपोर्ट में अभी तक नहीं आया। और तो और भाई जी आपकी कम्युनिटी के तो इतने वोट भी नहीं पंजाब और यूपी में जिससे कि आने वाले इलेक्शन्स में माइलेज लेने हेतु मोदी महाशय पर्सनल इंटरेस्ट दिखाएं। बैड लक भाईजान।

फिर भी दिल से उम्मीद है कि जैसे नर सिंह यादव को न्याय मिला, उसी स्तर, तवज्जो और तीव्रता के साथ आपको भी मिले।

विशेष: यह नोट लिखते वक्त मैं बेहद सीरियस हूँ, क्योंकि अगर पीएम मोदी और खेल मंत्रालय सब खिलाडियों को एक समान मानता है और खेलो में जातिवाद की राजनीति नहीं करता तो जाहिर सी बात है भाई इंद्रजीत सैनी को भी "बेनिफिट ऑफ़ डाउट" दे के उनका रियो का रास्ता साफ़ किया जाए।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 1 August 2016

12 साल में तो कुरड़ी के भी भाग बहोड़ आते हैं!

यह एक हरयाणवी कहावत है जिसका मतलब है कि 12 साल में तो निकम्मे से निकम्मे या कहो कि निठ्ठले से निठ्ठले दिखने वाले इंसान की बुद्धि भी चलने लग जाती है अगर वो एक परिवेश स्थिर रहा हो तो, ठीक वैसे ही जैसे एक कुरड़ी (कूड़े का ढेर) भी 10-12 साल या तर्कसंगत काल में हरीभरी हो जाती है यानी उस पर अंकुर फूट आते हैं| वैसे अंकुर और हरियाली तो साल-छह महीने में भी उग आती है, फिर इस कहावत के साथ 12 साल क्यों जोड़ा गया, यह मेरे लिए भी खोज का विषय है|

र यही वह थ्योरी है जिसकी तहत बाबा-साधु लोग इतने सिद्ध बन जाते हैं कि उनकी प्रसिद्धि फैलने लगती है| वजह है इस थ्योरी का ऑब्जरवेशन कांसेप्ट| स्थिरता में बैठे हुए साधु-ध्यानी या आमसमाज के ध्यानी में आसपास के वातावरण व् समाज के माहौल का ज्ञान उसी गहनता व् गहराई से उसमें उतरता है जैसे खेती पर धीमी बूंदाबांदी के तहत पड़ने वाली बूँदें, जो कि पौधे में गहराई तक समाती हैं| इसलिए एक कूड़े के ढेर यानी कुरड़ी की भांति एक जगह जमा साधू का ज्ञान भी उसी तरह उभर के आता है जैसे एक दिन लम्बे समय से एक जगह पड़े उस कूड़े के ढेर पर हरियाली उग आती है|

परन्तु दुविधा यह है कि इनमें से जो सिद्ध बनते हैं वो मात्र 1% होते हैं और जो 99% सिद्धि तक नहीं पहुँच पाते उन पर वो थ्योरी लागू होती है कि "अधूरा ज्ञान, जी-जान का झँझाल, समाज का काल"। और शुरू कर देते हैं अपने अधूरे ज्ञान के साथ समाज को ठगना-लूटना, समाज में वैमनस्यता फैलाना और समाज को छिनभिन्न करना या एक ऐसी दिशा में ले जाना जो यह खुद कभी हासिल ही नहीं किये होते हैं| और ऐसे यह 99% वजह बनते हैं समाज में पाखंड-आडम्बर-ढोंग फैलाने और रचने की|

परन्तु यहां जो काम की बात है वो यह है कि समाज को इनको मोड्डा-पाखंडी-आडम्बरी-ढोंगी बोलने के साथ-साथ निठ्ठला बोलने से पहले इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि "12 साल में तो कुरड़ी के भी भाग बहोड़ आते हैं"| इसलिए अगर यह निठ्ठले बैठे हुए से भी प्रतीत होते हैं तो इनको निठ्ठला मत बोलो क्योंकि उस दौरान इन पर प्रकृति वही कृपा कर रही होती है जो एक कुरड़ी पर कर रही होती है| तो क्या पता इनमें से कोई ऐसा भी हो जो 1% की राह की ओर अग्रसर हो| इसलिए इनको ढोंगी-पाखंडी-आडम्बरी बेशक बोलो परन्तु निठ्ठला-निकम्मा मत बोलो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 30 July 2016

हिन्दू धर्म का यह सिस्टम जो दान तो लेता है, परन्तु हिसाब या विश्वास नहीं देता; अब लदवाना होगा!

हिन्दू धर्म में ही है अपने लोगों को जातिवाद और वर्णवाद के नाम पर बाँट के रखने की परम्परा, बाकियों में इन जैसा घिनौना रूप तो कम-से-कम नहीं:

1) ईसाई चर्च में इसलिए दान देते हैं क्योंकि उनको पता होता है कि चर्च वाले उनके दान को उनके धर्म को फैलाने, उनके इतिहास-संस्कृति को सहेजने, धर्म के लोगों पर किसी प्राकृतिक या कृत्रिम आपदा से निबटने व् धर्म के दुश्मनों से निबटने में लगाएंगे| अगर उनको पता चले कि उनका ही दान दिया पैसा उनके ही धर्म के अंदर हिन्दू धर्म की भांति जातिवाद व् वर्णवाद को बढ़ावा देने हेतु प्रयोग होगा या होता है तो वो अगले ही दिन पादरियों के मुंह नोंच लें| 1789 में हुई फ़्रांसिसी क्रांति इसी का उदाहरण थी जिसमें कि उद्योग और धर्म के पाखंडियों को मात्र 29 युवकों की टोली ने सीधा कर दिया था और ऐसा सीधा किया था कि आजतक नियम लागू है कि एक तो धर्म से सम्बन्धित कोई भी कार्यक्रम चर्च के परिसर से बाहर यानी गली-मोहल्लों में नहीं होगा और दूसरा धर्म के नाम पर दान आये पैसे का धर्म के ही अंदर वैमनस्य फैलाने में प्रयोग नहीं होगा|

2) मुस्लिम मस्जिद में इसलिए दान देते हैं क्योंकि उनको पता होता है मस्जिद में गए धन पर हिन्दू धर्म की भांति मात्र 2-4% लोगों का ही अधिपत्य नहीं होगा; बंटेगा तो सब धड़ों में बंटेगा वो भी बराबरी से अन्यथा नहीं| इनको पता होता है कि तुम पर मुज़फरनगर जैसी दंगे वाली स्थिति आएगी तो तुम्हारी मस्जिद-मदरसे अपने धन के भंडारों को तुम्हारी मदद के लिए खोल देंगे| और मुज़फरनगर दंगे के वक्त ऐसा देखा भी गया| इनको पता है कि ईसाईयों की भांति तुम्हारे धन को भी तुम्हारे धर्म को फैलाने, तुम्हारी इतिहास-संस्कृति को सहेजने, धर्म के लोगों पर किसी प्राकृतिक या कृत्रिम आपदा से निबटने व् धर्म के दुश्मनों से निबटने में लगाएंगे| भले ही दुश्मनों से निबटने के लिए यह लोग गोल-बारूद तक चले जाते हैं परन्तु धर्म के अंदर जाट बनाम नॉन-जाट जैसे अखाड़े खड़े करने में प्रयोग नहीं करते| शुक्र है कि मुस्लिम हो या ईसाई, हिंदुओं की भांति इनके अल्लाह व् ईसामसीह, अस्त्र-असला (गदा-तलवार-भाले-फरसे ईत्यादि) हाथों में धार के अपने ही अनुयायिओं पर अतरिक्त प्रेशर वो भी डर-भय वाला बनाने हेतु तो नहीं विरजवाये होते| और धर्म के अंदर करते भी हैं तो कम से कम इस तरह तो कतई नहीं कि समाज की एक जाति एक तरफ और बाकी सब एक तरफ| सिया-सुन्नी धड़े हैं इनके यहां, परन्तु बराबरी की संख्या में और आपस में विचारधारा के मतभेद पे| जाट बनाम नॉन-जाट वालों की भांति किसी के गौरव-स्वाभिमान को तोड़ने-झुकाने की भांति नहीं|

प्रेमचंद ने लिखा था - " यह बिलकुल गलत है, कि इसलाम तलवार के बल से फैला. तलवार के बल से कोई धर्म नहीं फैलता,और कुछ दिनों के लिए फ़ैल भी जाय ,तो चिरजीवी नहीं हो सकता. भारत में इस्लाम के फैलने का कारण , ऊंची जातवाले हिन्दुओं का नीची जातियों पर अत्याचार था. बौद्धों ने ऊंच नीच का ,भेद मिटाकर नीचों के उद्धार का प्रयास किया ,और इसमें उन्हें अच्छी सफलता मिली, लेकिन जब हिन्दू धर्म ने फिर ज़ोर पकड़ा ,तो नीची जातियों पर फिर वही पुराना अत्याचार शुरू हुआ ,बल्कि और जोरों के साथ. ऊंचों ने नीचों से उनके विद्रोह का बदला लेने की ठानी . ...यह खींच-तान हो ही रही थी कि इसलाम ने नए सिद्धांतों के साथ पदार्पण किया .वहां उंच-नीच का भेद न था .छोटे-बड़े ,उंच-नीच की कैद न .थी ....इसलिए नीचों ने इस नए धर्म का बड़े हर्ष से स्वागत किया,और गाँव केगाँव मुसलमान हो गए. जहाँ वर्गीय हिन्दुओं का अत्याचार जितना ही ज्यादा था, वहां यह विरोधाग्नि भी उतनी ही प्रचंड थी,और वहीं इसलाम की तबलीग भी खूब हुयी ...यह है इसलाम के फैलने का इतिहास, और आज भी वर्गीय हिन्दू अपने पुराने संस्कारों को नहीं बदल सके हैं......तो इसलाम तलवार के बल से नहीं ,बल्कि अपने धर्म-तत्वों की व्यापकता के बल से फैला."---प्रेमचंद( नवम्बर 1931)

3) सिख धर्म वाले गुरुद्वारों में इसलिए दान देते हैं क्योंकि उनको पता होता है कि तुम्हारा दान गरीब-मजलिस को खिलाने में प्रयोग किया जायेगा| तुम्हारे इतिहास व् इतिहास पुरुषों की गौरवगाथा के बखानों में प्रयोग किया जायेगा| धड़े इनके यहां भी हैं परन्तु हिन्दू धर्म की भांति हर धड़े को एक ही बिरादरी वाला हेड नहीं करता| उस धड़े को उसी समुदाय वाला हेड करता है और अपने हिस्से के दान के पैसे को अपनी निगरानी में बरतवाता है|

4) बुद्ध धर्म, अपने धर्म के अंदर शांति और एकलास रखने वाला सबसे बुद्धिजीवी धर्म| इस धर्म के दान और अध्यात्म की ताकत का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि जापान जैसे सबसे अगड़ी श्रेणी की टेक्नोलॉजी इंनोवट करने वाले देश इस धर्म के अनुयायी हैं|

5) ऐसे ही कई सारे अन्य धर्म, जैसे कि जैन इत्यादि जो अपने धर्म के अंदर कभी भी इतने व्यापक स्तर का जातिवाद और वर्णवाद नहीं होने देते, जितना कि हिन्दू धर्म में है|

6) हिन्दू धर्म वाले कहते मिलेंगे अजी हम तो बड़े ही शांतिप्रिय धर्म हैं, आज तक का हमारा इतिहास उठाकर देख लीजिये, हमने किसी पे हमला नहीं किया, विदेशों में लूटपाट करने नहीं गए| इसकी वजह इन्हीं की थ्योरी में है| और वो है कि आपने दूसरों की तरह अपने धर्म के अंदर एकलास जो बना के नहीं रखा? जब आपने धर्म के अंदर ही जातिवाद और वर्णवाद बना के खड़ा कर दिया तो आपको इसकी फुर्सत कहाँ से मिलेगी कि आप किसी बाहर वाले पे आक्रमण करें? आप तो अपने धर्म के अंदर ही कभी दलितों पर, कभी पिछड़ों पर आक्रमण करते रहे हैं| जो धर्म के अंदर काबू का नहीं होता जैसे कि जाट, उनके खिलाफ साजिशें, षड्यन्त्र रचते रहे हैं| आपको इनसे फुर्सत ही कब मिली जो आप धर्म के बाहर जा कर हमले या लूटपाट करने की सोचते भी? बल्कि धर्म के अंदर इन चीजों में उलझे रहे, इसीलिए तो विदेशी आ के आपकी 1100 साल तक बैंड बजाये हैं| और इस 1100 साल के लम्बे इतिहास से सीख भी कुछ नहीं ली, वही ढाक के तीन पात, चौथा होने को ना जाने को| बाजी-बाजी 68 साल की आज़ादी हुई नहीं कि खोल दिए वही धर्म के अंदर ही कांट-छांट के अखाड़े जिनके चलते उस वक्त गुलाम हुए थे| सबसे बड़ा उदाहरण जाट बनाम नॉन-जाट का अखाडा सबके सामने है|

उद्घोषणा: मैं इसी विषय पर खुली बहस चाहता हूँ| इस विषय के इर्दगिर्द तमाम तथ्य सुनना और सीखना चाहता हूँ| हो सकता है कि इन तथ्यों को रखते हुए मैं गलत भी होऊं| परन्तु मैं बहुत ही सीरियस हूँ इस मुद्दे को लेकर, क्योंकि धर्म के नाम पर मेरे से (जाट से) ही पैसा लेकर मेरे ही खिलाफ जाट बनाम नॉन-जाट रचते हैं| मेरे को जाट बनाम नॉन-जाट का अखाडा कोई मुस्लिम आतंकवादी आ के नहीं थमा गया, या कोई ईसाई आ के नहीं मुझे इस घिनौनी बाँटने और काटने के षड्यन्त्र में डाल गया अपितु मेरे ही धर्म का होने के दावे करने वालों वालों ने मुझे इसमें डाला है| जिसमें कि अगर मैं नहीं पड़ा होता तो गणतांत्रिक खाप थ्योरी के मेरे अपने "जाट-पुरख" सिद्धांत में शांति और सम्मान से जी रहा होता| इसलिए मैं चाहता हूँ कि मैं उस जड़ को ही खत्म कर दूँ, उस परम्परा को ही खत्म कर दूँ जिसको कहते हैं कि "दिए हुए दान का हिसाब नहीं माँगा जाया करता!" या कहते हैं ही "गुप्तदान, सर्वोत्तम दान!" हाँ, भाई सर्वोत्तम बोल के एक झटके में हिसाब देने से जो पिंड छूट जाता है, तो सर्वोत्तम तो अपने आप ही होगा|

मैं चाहता हूँ कि अब यह सिस्टम जो दान तो लेता है, परन्तु हिसाब नहीं देता; लदवाना होगा| जो दान लेता है और सिर्फ 2-4% बिरादरी वाले एक समुदाय के आधिपत्य में ही जमा हो के रह जाता है, फिर वो उसको जाट बनाम नॉन-जाट रचने में लगाएं, दलित उत्पीड़न में लगाएं या जहां मर्जी लगाएं, कोई पूछने वाला ही नहीं|
इसलिए इस पोस्ट पर और इसके मर्म को ना समझते हुए सिर्फ गाली गलोच करके ना जावें, कोई तर्क-वितर्क की बात हो तो रख के जावें| वरना आपकी गाली, आपका गुस्सा आपके सर-माथे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 29 July 2016

भक्ति और अंधभक्ति में फर्क!

भक्ति बिना ढिंढोरे की:
ताऊ देवीलाल और लालू प्रसाद यादव ने दिल्ली स्थित अपने एम.पी. आवासों पर भी 3-3, 4-4 गायें रखी।

अंधभक्ति खाली छिछोरेपन की:
1) ताऊ देवीलाल और लालू यादव द्वारा गाय पालने पर यही अंधभक्तों के आका बिरादरी नाक-भों सिकोड़ के ताने दिया करती थी कि इनके एम.पी. निवासों पर तो गोबर की बदबू फैली रहती है।

2) गौभक्तों के सफेदपोश एम.पी. तो छोडो, उनकी तो बात ही क्या करनी; क्या जो भगमापोश गंगा किस सफाई तक का मंत्रालय सम्भालने वाली उमा भारती, बात-बात पर कभी पाकिस्तान भेजने की बात करने वाले, कभी मुल्लों के जितने बच्चे पैदा करने वाले साक्षी महाराज, साध्वी प्राची, योगीनाथ इत्यादि क्या इन तक के भी एम.पी. आवासों पर है एक बछिया भी बंधी?

इसीलिए हरयाणा में और खासकर जाटों के यहां इन बड़बोलों का एक ही इलाज होता आया है और वो है लठ। पहुंचे हुए जाट अच्छे से जानते हैं कि यह सिर्फ बातों के भूत हैं, जिनका इलाज सिर्फ लठ है। और जो पहुँचे हुए नहीं होने की नौटंकी करते हैं वो इन बहरूपियों के यहां पानी भरते हैं और अपनी दुर्गति के साथ-साथ समाज का बंटाधार किये रहते हैं।

सबसे बड़ा अवरोध है यह भारतीय समाज की तरक्की का। एक इकलौते यही हैं बस जो धर्म के नाम पे लोगों को अपना बताते हैं (हिन्दू) और उन से धर्म के नाम पे जो पैसा मिलता है उसको इन्हीं हिंदुओं को बाँट के रखने पे बहाते हैं। उदाहरणतः हरयाणा-राजस्थान में जाट बनाम नॉन-जाट, गुजरात में पटेल बनाम नॉन-पटेल, यूपी-बिहार में यादव बनाम नॉन-यादव।

क्या कभी देखा है ईसाई, बुद्ध या मुस्लिम धर्म के धर्मगुरुवों को धर्म के नाम पे लिए पैसे को अपने ही अनुयायियों में चीर-फाड़ मचाने हेतु इस वाहियात तरीके से प्रयोग करने में जैसे यह हिन्दू वाले करते हैं? कोई ईसाई-बुद्ध-सिख-मुस्लिम धर्म के नाम पर दान देता है तो उसको पता होता है कि उसका धन उसकी संस्कृति-इतिहास-मान-सम्मान के संवर्धन में लगाया जायेगा। परन्तु यह हिंदुत्व के नाम पर खाने वाले, इनका सबको पता है कि तुम्हारी ही ऐसी-तैसी करने में यह इस पैसे को प्रयोग करेंगे और फिर भी फद्दू बनके इनको चढ़ाते रहते हैं।

मेरे ख्याल से इससे बड़े उदाहरण नहीं हो सकते, पर फिर भी लगता है कि लोगों को इस अंधभक्ति नामक गुलामी की जंजीरों प्यार हो चला है। लोगों को समझना होगा कि अंग्रेज-मुग़ल काल के अलावा एक गुलामी से छुटकारा पाना और बचा है और उसका नाम है यह अंधभक्ति और इसके रचियता।

विशेष: अब कृपया करके मुझे कोई यह कहते हुए मत आना कि तुम हिंदुत्व के पीछे पड़े रहते हो, कभी मुल्लों पर क्यों नहीं लिखते। तो ऐसे लोगों को बता दूँ ही यूनियनिस्ट मिशन में हर धर्म का सदस्य है और अपने धर्म की बुराईयों पर रोशनी डालने का काम हमारे यहां उस धर्म से सम्बन्धित सदस्य का है। इस मामले में हम अपने घर की सफाई पहले और पड़ोसी की बाद में वाले सिद्धांत के अनुसार चलते हैं। हमारे मिशन के मुस्लिम सदस्य उनके धर्म के यहां की बुराईयों पर पटाक्षेप करते रहते हैं। परन्तु कोई भी दूसरे के धर्म में घुस के उनके यहां का गन्द नहीं देखता, यह उस धर्म वाले का घर है; अतः उसकी जिम्मेदारी है कि वो ही इसका पटाक्षेप करे और यह अच्छे से किया जा रहा है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"साम्मण उतरया - म्हारे हो आंगणा"


टेक: 'बादळ उठ्या री सखी, मेरे सांसरे की ओड़'

साम्मण उतरया - म्हारे हो आंगणा, घटा मतवाळी छा रही|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||
बादळ उठें उमडें-घुमडें, रुक्खां कै गळ-मठ्ठे घालैं,
प्यछ्वा के झ्यकोळए चालैं, ओळए-बोळए-सोळए चालैं|
मोराँ के पिकोहे गूंजें, स्यमाणे अर अम्बर झूमैं,
नाचण के हिलोरें पड़ें, गात्तां म्ह डयठोरे डटैं।।
सुवासण ज्यूँ हरियल खेती, जावै चढ़ी-ए-चढ़ी|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||

कोथळीयाँ के लारें पडैं, शक्कर और पारे घूटें,
द्य्लां म्ह हुलारे फुटटें, भाहणां के रे हिया छूटें|
पींघां की च्यरड़-म्यरड़, सास्सुवां के नाक टूटें,
माँ के जाए कद आये न्यूं, नैनां म्ह तें अश्रु फूटें||
मुखड़ा द्य्खा दे रे बीरा, बाट मैं जोह करड़ी रही|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||

बाग्गां से फूल जडूं, फून्द्याँ आळी पोंह्ची बनूं,
छ्यांट-छ्यांट रंग धरूं, बीरे की कलाई भरूँ|
मूळ तें हो सूद प्यारा, भतिज्याँ के लाड लड़ूं,
माँ-बाप्पां से भाई हो सैं, किते छिक्कें किते टांड धरुं||
हे री ना चहिये मैंने चांदी-सोना, बस माँ के ज्यायां की हो उम्र बड़ी।
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||

नगरां के प्यटारे हो सें, भक्ति के भी लारे हों सें,
दादे-खेड़े के द्वारे धोकूं, जो पुरख्यां के मान हो सैं।
सासु-पीतस नैं श्याल उढ़ाउं, ससुर-पितसरे की खेस्सी ल्याऊं,
फुल्ले-भगत नयुँ-ए-हांडै रूळदा, तैने तो बस ठोसयां जळाऊँ।
जहर हो पीणा, भोळे जिह्सा जीणा, घड़ी बख्त की गा रही|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||
साम्मण उतरया - म्हारे हो आंगणा, घटा मतवाळी छा रही|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||

जय यौद्धेय!

लेखक: फूल कुमार मलिक!

Wednesday, 27 July 2016

जाट जातिवादी नहीं होता, जाट को ऐसा बताने वालों की नियत में द्वेष होता है!

ग्रेटर हरयाणा (वर्तमान हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-उत्तरी राजस्थान) के हर दस किलोमीटर पर एक गुरुकुल, हर दूसरे डिस्ट्रिक्ट सिटी में एक जाट कॉलेज और एक जाट स्कूल मिलता है| गुरुकुल अधिकतर जाटों की दान की हुई भूमि पर बने हुए हैं|

बात करता हूँ जाति के नाम पर बने हुए जाट स्कूल व् कॉलेजों की, इनमें किसी में भी यह नियम नहीं कि सिर्फ जाट का बालक ही इनमें पढ़ेगा, या इनका टीचिंग से ले नॉन-टीचिंग स्टाफ सब सिर्फ जाट ही होगा|

परन्तु इसी हरयाणा में दो कॉलेज तो मैं निजी तौर पर जानता हूँ, जिनके नाम भी ब्राह्मण जाति के महापुरुषों पर हैं और टीचिंग व् नॉन-टीचिंग पूरा स्टाफ सिर्फ ब्राह्मण होगा, इस कंडीशन के साथ यह कालेज चलते हैं| शायद इनमें पढ़ने वाले भी कम से कम 90% तो ब्राह्मण हैं ही, शायद हों इससे ज्यादा भी| और यह कॉलेज हैं कुरुक्षेत्र में पड़ने वाला परशुराम कॉलेज और जींद जिले के रामराय में पड़ने वाला एक संस्कृत महाविद्यालय|
परन्तु फिर भी अस्वर्ण हो या खुद स्वर्ण ही क्यों ना हो, इनको जातिवादी दिखेगा या यह जातिवादी बताएँगे तो जाट को|

क्या वक्त नहीं आ गया है कि अब ऐसे तमाम जाति-विशेष के स्टाफ और स्टूडेंट दोनों स्तर पर आरक्षित स्कूल-कालेजों को या तो सबके के लिए खुलवाया जाए, अन्यथा इन पर ताले लगवाए जाएँ?

विशेष अनुरोध जाट समाज से: दो चीजें दुरुस्त कर लो:

1) गाँव से जब भी अपने बच्चे को कुछ बड़ा बनने के लिए शहरों में भेजो तो उसको यह कदापि मत कहो कि खेती छोटा काम है, दुखदायी काम है, घाटे का काम है, यहाँ जीवन नहीं; बल्कि यह कहो कि तुम्हें अपनी जाति-संस्कृति-गाँव-खेड़े का नाम रोशन करने के साथ-साथ वापिस मुड़ के इनके सम्मान और सम्पदा को बढाने और बचाने में योगदान देना है| पहले वाला कारण देते रहे बुजुर्ग इसलिए मेरे पिता वाली पीढ़ी (आज के 45 से 65 साल का ग्रुप) में 90% जाट वापिस गाँवों की तरफ मुड़े ही नहीं| और यही वजह है कि शहरी चकचौंध को ही संस्कृति मान बैठे और रम गए जगराते-भंडारे-चौकी इत्यादि की संस्कृति में| यह घर के अगले दरवाजे से कमा के लाते हैं और इनकी तथाकथित आधुनिकता में चूर औरतें घर के पिछले दरवाजे से अधिकतर कमाई ढोंगी-पाखंडी-सत्संगी-पूछा पाडू-बाबों इत्यादि के नल में उतरती रहती है और राजी हुई रहती हैं कि तुमसे बड़ी कलावंती ना कोई हुई ना होगी| सच कह रहा हूँ 90% शहरी जाटों की जिंदगी इससे ज्यादा कुछ नहीं कि मर्द अगले दरवाजे से कमा के लाएगा और घर की औरतें उसको पिछले दरवाजे से पाखंडियों को पूजती रहेंगी| और यह पाखंडी भी तो कौन है; सिर्फ और सिर्फ मंडी-फंडी|

2) मेरे दादा जी वाली पीढ़ी अपने दान के पैसे को अपने हाथों से लगाती थी, इसलिए अंधाधुंध स्कूल-कालेज-गुरुकुल बनवाये| और मेरे पिता वाली पीढ़ी ने यह ठेका अपनी घर की औरतों के जरिये थमा रखा है इन ढोंगी-पाखंडियों को, इसलिए सिर्फ और सिर्फ मंदिर-धर्मशालाएं बन रही हैं| और बाकी के पैसे से जाट बनाम नॉन-जाट के दंगल फाइनेंस हो रहे हैं|

इसलिए और कृपया आप मेरे पिता की पीढ़ी वालों से अनुरोध है कि कृपया हम आपके बच्चों को समझें, हमारा साथ देवें, हम अपने दादाओं की भांति हमारी कमाइयों के दान से स्कूल-कालेज बनवाना चाहते हैं, जाट भवन व् हैबिटेट सेंटर्स बनवाना चाहते हैं; मात्रा और मात्र मंदिर या धर्मशालाएं नहीं| मंदिर-धर्मशालाएं जरूरत के हिसाब से बनें परन्तु इतनी बेहिसाबी भी नहीं कि ऊपर बैठे हमारे दादे-पड़दादे हमारे को कोसते हों|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 24 July 2016

जातिगत द्वेष की राजनीति का इससे वाहियात और घिनौना रूप शायद ही भारतीय इतिहास में पहले कभी देखने को मिला हो!

11 जुलाई को ही नरसिंह यादव का डोपिंग टेस्ट फ़ैल हो चुका था, पोल खुलने के भय से उसको दबाया जा रहा था| 23 जुलाई तक इंतज़ार किया गया कि किसी तरह डोपिंग का इफ़ेक्ट खत्म हो जाए, परन्तु नहीं हुआ| और 23 जुलाई को फिर से किये गए टेस्ट में फिर से फ़ैल पाये रिजल्ट को पब्लिक करना इस बात के मद्देनजर इनकी मजबूरी हो गई थी कि रियो में डोपिंग टेस्ट से हो के गुजरना ही होगा| और वहाँ जानते-बूझते हुए वो एक डोपिंग में फ़ैल खिलाड़ी को नहीं भेज सकते, वर्ना भारत को अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक एसोसिएशन से भारी पेनल्टी झेलनी पड़ती| - खबर एक दम अंदर के विश्वस्त सूत्रों से हासिल हुई है|

ऐसे में सवाल यह उठता है कि 17-18 जुलाई को जब रियो टीम की लिस्ट रियो भेजी गई तो उसमें जानते-बूझते हुए एक ऐसे खिलाडी का नाम क्यों भेजा गया जो डोपिंग टेस्ट में फ़ैल हो चुका था? क्या भारत में जातीय-द्वेष की राजनीति इतना गन्दा रूप ले चुकी है कि इन लोगों के लिए देश का मान-सम्मान तक मिटाना कोई बड़ी बात नहीं रह गई? क्या जब 11 जुलाई को ही नर सिंह यादव डोपिंग टेस्ट फ़ैल कर चुका था तो सुशील कुमार को नहीं बुलाया जा सकता था?

और यह हालत इस देश की तब है जब राष्ट्रवाद का दम भरने वालों की सरकार है| हिन्दू एकता और बराबरी के नारे लगाने वालों की सरकार है| क्या इनका यही राष्ट्रवाद है कि बस एक जाति विशेष का खिलाड़ी आगे नहीं जायेगा, बेशक देश का कोटा खाली चला जाए, बेशक देश की नाक कट जाए?

इससे भी बड़ा दुःख इस बात का है कि यह भार केटेगरी ऐसी केटेगरी थी जिसमें मैडल आने की सबसे प्रबल दावेदारी थी| एक दो बार का ओलिंपिक मेडलिस्ट हैट्रिक लगाने की कगार पर था, जो कि लगती तो भारतीय ओलिंपिक इतिहास में अनूठा कीर्तिमान होता|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक