Monday, 10 October 2016

"जय यौद्धेय" का उदघोष क्यों करना/बोलना चाहिए!

दरअसल "यौद्धेय" (यौद्धेया - स्त्रीलिंग) शब्द उन सूरमाओं, हुतात्माओं, वीरांगनाओं के लिए कहा गया है जो सर्वखाप की विभिन्न लड़ाइयों में अपनी कुर्बानिया-बलिदान और जौहर करते हुए वक्त-दर-वक्त फना होते रहे हैं| सर्वखाप से यह शब्द जुड़ा है इसकी सिर्फ यही खासियत नहीं है| इसकी खासियत यह भी है कि यह हिन्दू-मुस्लिम-सिख हर धर्म से जुड़ा हुआ है| यह हिन्दू धर्म की 36 बिरादरी से जुड़ा हुआ है| यानी कि यह शब्द धर्म-सम्प्रदाय-वर्ण-जाति से परे है, स्वच्छन्द है, स्वतन्त्र है| 

जातिवाद सिर्फ एक जगह नहीं था और वो था "यौद्धेय संस्कृति" की परिपाटी| जिसमें यौद्धेय होने का सिर्फ एक ही पैमाना होता था वो होती थी व्यक्ति वीरता, समाज-संस्कृति के प्रति निष्ठां और न्यायाप्रियता| तुरन्त-पां न्याय मिलता था, फ्री-ऑफ़-कॉस्ट मिलता था और सबको मिलता था; और आज भी न्याय मिलने की यही परिपाटी है जिस तन्त्र में वो है सर्वखाप| सर्वखाप समाज को अपने अंदर की कमियों को एडिट करते हुए, अपनी यह पहचान, अपनी यह यौद्धेय संस्कृति जिन्दा रखनी होगी, वर्ना मानवता जैसा सब खत्म समझो|

कई लोग सनातनियों और यौद्धेय संस्कृति को मिलाने की कोशिश करते हैं, ऐसे लोग ऐसा करते वक्त यह क्यों भूल जाते हैं एक मूर्ती पूजा करता है और दूसरा उसका विरोधी होने के सिद्धांत पर बना है|

यह शब्द "गॉड गोकुला" की कुर्बानी के बाद औरंगजेब के दरबार में सुलह करने हेतु जाने वाले परन्तु कुर्बानी दे आने वाले उन 21 यौद्धेयों का स्मरण करवाता है जिनमें 11 जाट, 3 राजपूत, 1 रोड, 1 ब्राह्मण, 1 सैनी, 1 पठान खान, एक गुज्जर, एक त्यागी, एक वैश्य थे|

यह शब्द 1857 की क्रांति को हिन्दू-मुस्लिमों द्वारा मिलके लड़ने का प्रतीक है| बाबा शाहमल के जौहर का प्रतीक है|

यह शब्द दिल्ली के मुहम्मद तुगलक तक को सरेंडर करवा लेने वाले तैमूरलंग के 1398 में दांत खट्टे कर उसको भारत से भगोड़ा बनाने वाली उस सर्वखाप आर्मी के जौहर का प्रतीक है जो जाट राजा देवपाल के कहने पर बुलाई गई थी, जिसके सेनापति दादा जोगराज जी पंवार थे, उपसेनापति दादा हरवीर सिंह गुलिया जी व् दादा धूला भंगी बाल्मीकि जी थे| जिसमें दादीराणी रामप्यारी गुजरी के नेतृत्व में 40000 यौद्धेयायों की आर्मी भी रशद-पानी का प्रबन्ध करने के साथ-साथ हथियार ले भी लड़ी थी|

और इसी तरह के दर्जनों और खाप की लड़ाइयों के उदाहरण हैं, जहां सिर्फ वीरता पैमाना रही, जाति-धर्म इनसे परे रहा|

सनद रहे, यौद्धेय शब्द और यौद्धा शब्द दोनों अलग-अलग हैं| दूसरी बात जब तक सिख धर्म नहीं बना था तो पंजाब में भी खाप होती थी, जैसे कि 35 जाट खाप फ़िरोज़पुर; परन्तु सिख धर्म आते ही वहाँ खाप ने "मिशल" का रूप ले लिया, जो कि आज भी चलती हैं| उदाहरण के तौर पर फुलकिया मिशल, यह सरदार फूल सिंह के नाम से चली और आगे चल जींद-नाभा-पटियाला इसकी रियासतें बनी|

अत: "यौद्धेय" शब्द बड़ा ही सोच-विचार कर धारण किया गया शब्द है, जो धर्म-जाति-वर्ण-सम्प्रदाय से रहित सच्ची-सूची वीरता व् शौर्यता का प्रतीक है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

1761 में पूना पेशवाओं को हराने वाला अहमदशाह अब्दाली, 1757 में एक जाट की कूटनीति के आगे हुआ था धराशायी!

यह किस्सा प्रोफेसर गण्डासिंह ने अहमदशाह अब्दाली पर लिखी अपनी पुस्तक में क़दरतुल्लाह के ग्रंथ ‘जाम-ए-जहानुमा’ के पेज 181 से लिया है|

आक्रांता अहमदशाह अब्दाली ने भारत में लाखो लोगो का कत्लेआम किया| जब दिल्ली पर कब्ज़ा करने के बाद, अब्दाली मथुरा की तरफ बढ़ा तो चौमुहा गाँव में 5000 जाटों की सेना ने अब्दाली से युद्ध किया| अब्दाली यहां से वृंदावन गया और हज़ारो लोगो का क़त्ल किया| नई निज़ामी के अनुसार 7 दिन तक यमुना का पानी खून से लाल रहा| अब्दाली ने महावन में कैम्प लगाया, उसने देखा की भरतपुर का राजा उससे डरा नहीं|

27 मार्च 1757 को अहमदशाह अब्दाली ने लोहागढ़ (भरतपुर) को धमकी देने के लिए एक अफगान अधिकारी को एक धमकी भरे पत्र के साथ सूरज-सुजान (महाराजा सूरजमल) के पास भेजा कि अगर उसने एक करोड़ रुपया नजराना पेश करने में और टालमटोल की तो डीग, कुम्हेर, वैर और भरतपुर के उसके चारों दुर्ग भूमिसात करके धूल में मिला दिए जायेंगे| और उसके प्रदेश की जो दुर्गति होगी, उसकी पूरी जिम्मेदारी उसी की होगी। किन्तु जाट राजा भयभीत नहीं हुआ। उसने कूटनीतिक शब्दों में उत्तर भेजकर अपने साहस एवं सूझबूझ का परिचय दिया।

अपने विशाल कोष, सुदृढ़ दुर्गों; असंख्य सेना और भारी मात्रा में युद्ध सामग्री के कारण महाराजा सूरजमल ने अपना स्थान नहीं छोड़ा और अपने को युद्ध के लिए तैयार किया।

सूरज-सुजान ने अब्दाली के दूतों को कहा - “अभी तक आप लोग भारत को नहीं जीत पाये हैं। यदि आपने अनुभवहीन बच्चे (इमाद-उल-मुल्क गाजीउद्दीन, जिसका दिल्ली पर अधिकार था) को अपने अधीन कर लिया है तो इसमें घमंड की क्या बात है? अगर आप में सचमुच कुछ दम है, तो मुझ पर चढ़ाई करने में इतनी देर किसलिए?”

शाह जितना समझौते की कौशिश करता गया, उतना ही जाट का अभिमान और दृढ़ता (अक्खड़पन) बढ़ती गयी। उसने कहा, “मैंने इन किलों पर बड़ा धन लगाया है। यदि शाह मुझसे युद्ध करे, तो यह उसकी मुझ पर कृपा होगी| क्योंकि तब भविष्य में दुनिया यह याद रख सकेगी कि एक बादशाह बाहर से आया था और उसने दिल्ली जीत ली थी, पर एक साधारण जाट-जमींदार के विरुद्ध वह लाचार हो गया था।”

जाटों के किलों की मजबूती से डरकर शाह वापस चला गया। और दिल्ली जाकर मुहम्मदशाह की पुत्री के साथ स्वयं का तथा आलमगीर द्वितीय की पुत्री के साथ अपने पुत्र का विवाह करके और नजीब खान को भारत में अपना सर्वोच्च प्रतिनिधि नियुक्त करके वह कन्धार लौट गया।”

कुछ दिग्भर्मित इतिहासकार महाराजा सूरजमल और अब्दाली के मध्य 5 लाख रुपए का समझौता हुआ बताते हैं, पर सूरजमल ने 1 पैसा भी अब्दाली को नहीं दिया| पेशवा दफ्तर, xxi, पत्र iii; भाऊ बख़र के अनुसार सूरजमल ने अब्दाली को एक पैसा भी नहीं दिया बल्कि पानीपत के युद्ध में अब्दाली से हारे मराठो को भी अब्दाली के खिलाफ सहायता दी| ऐसे अफलातून जाट को दुनिया नमन करती हैं। सभी प्राप्त वृत्तान्तों के अनुसार अब महाराजा सूरजमल हिन्दुस्तान में सबसे धनी, सबसे बुद्धिमान राजा था और वही एक ऐसा था, जिसने पेशवाओं को ‘चौथ’ और ‘सरदेशमुखी’ न देते हुए भी उनसे अच्छे सम्बन्ध बनाये रखे। अब्दाली को उसने चकमा दे दिया था।

प्रेरणा: जाट पुरखों के ऐसे देदीप्यमान किस्से, उत्साह और ऊर्जा देते हैं कि जब इतने बड़े-बड़े सुरमा जाटों को नहीं झुका सके तो इन "जाट बनाम नॉन-जाट" फैलाने वालों से क्या डरना| रो-पीट के बैठ जायेंगे अपनेआप| बस वो "कुल्हड़ी में दाने, कूद-कूद के खाने" वाला किस्सा है इनका; इनकी कुल्हड़ी के दाने खत्म करवाने में इनका सहयोग करो और आगे के लिए सीख ले लो कि इनकी कुल्हड़ी में उतने ही दाने डालो, जिससे यह फुदकें नहीं|

सोर्स: मानवेन्द्र सिंह तोमर

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 7 October 2016

मैं जो कर रहा हूँ उसको जातिवाद नहीं, जातिगत प्रेम कहते हैं!

और मैं यह क्यों, कब और किसकी वजह से करने लगा हूँ इसकी व्याख्या यह रही।

2012 में सम्पूर्ण हरयाणवी जातियों व् उनके आपसी सहयोग से बनने वाले हरयाणवी कल्चर को दुनियां के सामने निष्पक्ष रूप से लाने के लिए मैंने एक वेबसाइट लांच की थी "निडाना-हाइट्स", जो कि निर्बाध रूप से आज भी चल रही है। शायद मैं पहला इंसान रहा होंगा जिसने समाज में जातिसूचक शब्दों के प्रयोगों बारे निष्पक्षता से लेख लिखा और इनकी आलोचना की। ब्राह्मण को "पण्डा", "पंडोकली वाला", "ताता खानिया" कहने पे ऐतराज जताया; हिन्दू अरोड़ा/खत्री को "रेफूजी", "भाप्पा", "झंगी", "पाकिस्तानी" कहने पे ऐतराज जताया; जाट को "सोलह दूणी आठ" कहने पे ऐतराज जताया; बनिए को "किराड़", "मूंजी" कहने पे ऐतराज जताया, दलित/ओबीसी को "कमीन", "कांदु', "डेढ़", "गण्डल" कहने पे ऐतराज जताया। इसी से सम्बन्धित निडाना-हाइट्स पर चार साल पुराना लिखा मेरा यह आर्टिकल है: http://www.nidanaheights.net/EHhr-marmmt.html

इसी बीच आती है यह "हिन्दू एकता और बराबरी" के ठेकेदारों की 2014 में सेण्टर और हरयाणा में सरकार। आते ही "जाट बनाम नॉन-जाट" पसार दिया। वैसे तो मैं जाट हूँ, किसी भी प्राकृतिक-अप्राकृतिक विपदा-आपदा से लड़ने-भिड़ने-सुलटने में सक्षम हूँ। परन्तु साथ ही मैं लोकतान्त्रिक भी हूँ और लोकतंत्र में व्यक्ति-विशेष से लेकर, परिवार-कुनबा, गाँव-गुहांड, जाति-सम्प्रदाय सबकी छवि, रेपुटेशन और प्रभाव मायने रखता है। और इसकी मुझे इन निखट्टुओं के आने से पहले चिंता नहीं थी।

परन्तु फिर जब 35 बनाम 1 के नारे, वो भी खट्टर, चोपड़ा, ग्रोवर जैसे उन समाजों के नेताओं के मुंह से सुने, जिनको कि मैं "रेफूजी", "भाप्पा", "झंगी", "पाकिस्तानी" कहने पर, ओबीसी वाले सैणी, आर्य जैसों को "कमीन", "कांदु' कहने पर विरोध का झंडा अपने लेखों और नेटवर्कों में उठाया करता था तो लगा कि भाई कुछ तो गड़बड़ है। ऐसा करो, इनको बाद में सम्भालना, पहले इस "जाट बनाम नॉन-जाट" की फैलाई जा रही खाई से अपने समाज की छवि को सुरक्षित कर, सुरक्षित निकाल। यहां तो उल्टा ही हो चला है। कहाँ तो मुम्बई में ठाकरे-परिवार बाहर से वहाँ आकर बसने वालों को लताड़ता है और यहां तो जाट बाहर से आकर बसने वालों से प्रेम-मुलाहजा निभाने के बाद भी लताड़ा जा रहा है तो चिंता हुई।

ऐसे में मेरे पास दो राह थी, या तो मैं इन द्वारा जाट को बदनाम किये जाने पर इनके समाजों को भी इन्हीं के तरीके से बदनाम करने वाला "जातिवाद" का मार्ग चुनूँ, या फिर जब तक यह "जाट बनाम नॉन-जाट" चलता है तब तक सिर्फ अपने समाज के पॉजिटिव को अपने लेखों के जरिये समाज के आगे लाना शुरू करने का "जातिगत-प्रेम' का मार्ग चुनूँ। और मैंने "जातिगत-प्रेम" के मार्ग को चुना। और यह तब तक रहेगा जब तक यह जाट बनाम नॉन-जाट समाज में चलता है या कोई मेरे साथ आगे बढ़ के इसको खत्म करवाने बाबत कार्य नहीं करता है।

और मेरा "जातिगत-प्रेम" का मार्ग मानव-धर्म के अनुसार सही है। मानव धर्म कहता है कि जब आपके शरीर में कोई विपदा हो तो आपको पहले वह दूर करनी चाहिए। इसी तरह जब आपके समाज पर कोई विपदा हो तो पहले उसको दूर करना चाहिए। और मैं वही कर रहा हूँ। मुझे नहीं लगता कि जो जातिवाद और जातिगत प्रेम में अंतर समझता होगा और अपनी जाति से प्रेम करता होगा, वह मेरे मार्ग को गलत कहेगा। और मेरे से जातिगत प्रेम करने वाले को डरने की भी जरूरत नहीं। मेरे से सिर्फ वही डरेगा, जो जातिवादी होगा।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 6 October 2016

आओ राष्ट्रभक्ति पर राजनीति करें!

वो कहते हैं कि हम सबसे बड़े राष्ट्रभक्त हैं और मैं कहता हूँ कि मैं सबसे बड़ा राष्ट्रभक्त हूँ; क्योंकि:

1) वो भारत माता की जय बोलता-बोलता, अपनी धरती माँ की उपजाऊ धरती का अनादर करने लग जाता है और अपने किसानों की क्षमता का उपहास| और पहुँच जाता है नाइजीरिया दालें उगवाने| क्योंकि मैं अपनी धरती माँ की उपजाऊ क्षमता और अपने देश के किसान की क्षमता पर यकीन करता हूँ इसलिए उनसे ही दालें उगवाने का समर्थक हूँ, तो बोलो हुआ ना उनसे बड़ा राष्ट्रभक्त?

2) वो "मेड इन चाईना" का विरोध करते-करवाते और 'मेक-इन-इंडिया' की पैरवी करते-करते, एक मूर्ती (सरदार पटेल का स्टेचू) तक चाईना से ही बनवा बैठता है| मैं होता तो देश की लोहे की सबसे पुराणी टाटा जैसी कंपनी को इसको बनाने की कहता और साथ ही कहता कि भले 2-4 साल फालतू लग जाएँ, परन्तु बाहर से उधारी मत लेना, "मेक-इन-इंडिया" का पूरा सेट यहीं रेडी करके यह मूर्ती यहीं देश में ही बनाना| परन्तु उसने जिस कंपनी को ठेका दिया, उससे यह भी नहीं पूछा कि वो इसको कैसे बनाएंगे| तो मैं हुआ ना उससे बड़ा और जुमलेबाजी से रहित सच्चा राष्ट्रभक्त?

3) वो और उसका पैतृक-संगठन कहते हैं कि हम "एकता और बराबरी का हिन्दू राष्ट्र" बनाएंगे| यह कोरा जुमला है छद्म राष्ट्रवाद है| क्योंकि ऐसा होता तो 1985 से मुम्बई में बाल ठाकरे और अब राज ठाकरे के हाथों कभी भाषावाद तो कभी क्षेत्रवाद के नाम पर पिटते चले आ रहे उत्तरी भारतीय हिंदुओं की हिंदुओं ही के द्वारा पिटाई के खिलाफ आवाज उठाते| क्योंकि उसके पैतृक संगठन का हैडकवाटर भी तो उसी राज्य में हैं? तो जब वो मुम्बई जैसे शहर में ही हिंदुओं के हाथों हिंदुओं का पिटना नहीं रोक सकते तो सुदूर छत्तीसगढ़-आंध्र जैसे राज्यों में कहीं हिन्दू जातिवाद की वजह से तो कहीं हिन्दू धर्म की वजह से छूत-अछूत व् देवदासी के रूप में उत्पीड़ित होते दलित हिन्दू की क्या ख़ाक आवाज उठाएंगे| लेकिन मैं इनके लिए आवाज उठाने की बात करता हूँ, इसलिए मैं इनसे बड़ा राष्ट्रभक्त हूँ|

4) जबसे सेण्टर और हरयाणा में इनकी सरकार आई है, तब से इन "हिन्दू एकता और बराबरी" के जुमलेबाजों का ही फैलाया जाट बनाम नॉन-जाट सड़कों पर पसरा पड़ा है| एक ऐसे राज्य में जिसने मुम्बई से भी ज्यादा हिन्दू माइग्रेशन देखा है| मुम्बई में तो माइग्रेशन मात्र 40-50 साल पुराना है, जाट बाहुल्य हरयाणा में तो यह सदियों पुराना है| वैसे तो पानीपत की तीसरी लड़ाई से भी पुराना, परन्तु उदाहरण के तौर पर इस लड़ाई के बाद से उठा लेते हैं| 1761 में अब्दाली से हारे हुए (बाल ठाकरे और राज ठाकरे जैसों को समझना चाहिए कि माइग्रैन्टस उनके ही यहां नहीं आते, उन वाले भी कहीं जा के बसे हुए हैं) मराठे भाईयों को अपने यहां बसाया, 1947 में हिन्दू अरोड़ा/खत्री कम्युनिटी को अपने यहां बसाया, 1984 में जब पंजाब में आतंकवाद छिड़ा तो वहां से निकल के आये हिन्दू अरोड़ा/खत्री को फिर से यहां बसाया, 1992 के दौरान ही कश्मीर में कश्मीरी हिंदुओं (मैं जातिवादी नहीं, इसलिए कश्मीरी हिन्दू कहूंगा, कश्मीरी पंडित नहीं) को अपने यहां बसाया (आ के देख लो कश्मीर का माइग्रेटेड हिन्दू सबसे ज्यादा हरयाणा में ही पनाह लिए हुए है), इसी दौरान बाल ठाकरे और राज ठाकरे के जुल्मों से पीड़ित बिहार-बंगाल-आसाम-पूर्वी यूपी के हिन्दू को ठाकरों के डर से बचने हेतु व् बिना जिरह के रोजगार के लिए जाट बाहुल्य हरयाणा, पंजाब व् वेस्ट यूपी ही सेफ-हेवन लगे और इधर माइग्रेट हुए| तो बताओ इतने लम्बे काल से इतनी ज्यादा माइग्रेशन देखने-झेलने के बाद भी क्या एक बार भी भाषावाद-क्षेत्रवाद हमने हमारे यहां उठने दिया? तो हरयाणवी ज्यादा राष्ट्रभक्त हुए या बाल ठाकरे और राज ठाकरे व् हिन्दू यूनिटी की एकता और बराबरी की बात करने वाले (जिन्होनें सरकार आते ही हिन्दू बाहुल्य हरयाणा में ही जाट बनाम नॉन-जाट पसार दिया)?

खैर इन ऊपर दिए चार उदाहरणों की भांति और भी उदाहरण हैं, परन्तु "राष्ट्रभक्ति" शब्द पर राजनीति कैसे हो की शुरुवाती चर्चा के लिए इतने उदाहरण काफी होने चाहियें|

इसलिए आओ राष्ट्रभक्ति पर खुलकर राजनीति करें और छद्म राष्ट्रभक्तों को इस मुद्दे पर कांफ्रण्ट करें और ओपन डिबेटोँ में आमन्त्रित करके इनके खामखा के हव्वे की हवा निकालें| जब तक इनको इस शब्द के ऊपर चैलेंज करना शुरू नहीं किया जायेगा, यह ऐसे ही फुदकेंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"यूनियनिस्ट मिशन वाले सिर्फ एक धर्म विशेष को टारगेट करते हैं' की भ्रान्ति दूर करें!

इस सवाल का मैंने इससे पहले भी दो बार जवाब दिया है। मिशन सिर्फ मंडी-फंडी की ढोंग-पाखंड-आडम्बर-सूदखोरी नीतियों के विरुद्ध अलख जगाता है। मिशन में जो जिस धर्म से आता है वो अपने यहां के मंडी-फंडी की आलोचना भी करता है और गलत बात का विरोध भी। अब क्योंकि भारत में एक धर्म कहो या वर्ग की जनसँख्या 80% के करीब है तो लाजिमी है कि मिशन में 80-85% के अनुपात में उसके सदस्य भी होंगे। तो जब वो 80-85% अपने धर्म के मंडी-फंडी पर बोलते दिखेंगे तो सबको लगेगा कि यह तो सिर्फ एक ही धर्म को टारगेट कर रहे हैं; जबकि ऐसा नहीं है। मिशन में जो 15-20% अन्य-धर्मी हैं वो भी अपने-अपने धर्मों के ढोंग-पाखंड पर कार्य करते हैं। और क्योंकि यूनियनिस्ट मिशन एक धर्म-निरपेक्ष मिशन है इसलिए अंतर्धार्मिक मुद्दे पर दूसरे धर्म वाले के मामलों पर उसी धर्म का बन्द बोलता, कार्यवाही करता है। यानि जो मुद्दा जिस धर्म का है, मिशन का उस धर्म का कैडर उस पर कार्य करता है। अंतर्धार्मिक जिम्मेदारियाँ मिशन नहीं देता।

सनद रहे, यूनियनिस्ट मिशन किसी धर्म विशेष के लिए नहीं है, यह सिर्फ और सिर्फ किसान-मजदूर-दलित के आर्थिक-सामाजिक-शैक्षणिक हितों, मुद्दों व् समरसता की बात करने के लिए है।

यह मिशन उन सर छोटूराम जी की विचारधारा पर चलता है जिन्होनें धर्म के आधार पर पंजाब के टुकड़े करने की बात करने वाले मोहम्मद अली जिन्नाह तक को जरूरत पड़ने पर यूनाइटेड पंजाब से तड़ीपार करने में जरा सी भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई थी। और वहीँ दूसरी तरफ धर्म से ऊपर उठकर समाज-देश हित की बात करने वाले मुस्लिम सर सिकन्दर हयात खान व् सर फज़ले हुसैन के साथ मिलकर पंजाब की सरकारें चलाई। उनके आगे यही विचारधारा सरदार प्रताप सिंह कैरों (छोटे छोटूराम), चौधरी चरण सिंह व् बाबा महेन्द्र सिंह टिकैत ने बढ़ाई, उनकी इसी विचारधारा की झलक सरदार भगत सिंह की लेखनी व् कार्यशैली में दिखती है और अब इसी को लेकर मिशन, भाई मनोज दुहन की प्रेरणा व् नेतृत्व में अपनी राह पर अग्रसर है।

मैं भलीभांति जानता हूँ कि मिशन का हिंदी जाट कैडर जरूर "जाट-पुरख धर्म" की बात करता रहता है। इस पर मिशन की आलोचना करने वाले यह बात स्पष्ट तौर पर जान लें कि खुद आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत लन्दन से ले के कई स्थानीय सभाओं में हिन्दू कोई धर्म है इस बात से साफ़ इंकार कर चुके हैं, दूसरा सुप्रीम कोर्ट तक हिन्दू धर्म के होने से इंकार कर चुका है। तो ऐसे में बेहतर है कि ऐसे लोग पहले स्वधर्म को भारतीय सविंधान और कोर्ट-कानून में पहचान दिलवाएं और फिर बात करें।

मिशन के बाकी हिंदी जाट कैडर का तो मैं कह नहीं सकता, परन्तु मैं इतना स्पष्ट जरूर हूँ कि मैं उस ब्राह्मण का आदर करता हूँ जो मुझे ऋषि दयानंद की भांति "जाट जी" और "जाट देवता" कह कर मेरा आदर करता है| परन्तु जो ब्राह्मण यह सोचता हो कि वह मुझसे श्रेष्ठ है, ऐसे ब्राह्मण को मैं मान्यता नहीं देता। मैं वो जाट हूँ, जिसके बराबर बैठ के ब्राह्मण बात करेगा, बराबर का साथी समझेगा तो साथ हूँ अन्यथा वो अपने राजी और मैं अपने राजी। उसका अपनी श्रेष्ठता का अभिमान है तो मेरा अपना अभिमान है, मैं उसके का आदर करूँ और वो मेरे का करे, सिंपल फंडा है, इसमें कोई बड़ी घुमाने वाली बात नहीं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आओ बाबा महेंद्र सिंह टिकैत जी की जन्मजयंती पर जानें कि "जाटू-सभ्यता" किसको कहते हैं!

बाबा का अवतार धारण दिवस 6 अक्टूबर, 1935 पर विशेष!

सलंगित फोटो से वैसे तो सम्पूर्ण भारतीय समाज, उसमें भी आज का जाट-युवा खासतौर पर समझे कि कैसे हर धर्म का नुमाइंदा बाबा टिकैत की महफ़िल में सजदा करता था| कैसे और कितने विशेष स्नेह के साथ बाबा टिकैत का मुंह ताकता था| देखो इस फोटो में क्या मुस्लिम, क्या हिन्दू, क्या सिख हर कोई बाबा टिकैत को घेरे बैठा है|

और यही रीत सर छोटूराम, सर सिकन्दर हयात खा, सर फज़ले हुसैन, सरदार प्रताप सिंह कैरों (छोटे छोटूराम) व् चौधरी चरण सिंह ने चलाई थी| जिसको बाबा टिकैत ने आगे बढ़ाया| परन्तु ऐसा लगता है बाबा के 2011 में चले जाने के बाद से यह रीत अपने उत्तराधिकारी की बाट ही जोह रही है| इन लोगों ने धर्म के पीछे लगने की बजाय, हर धर्म को मानवता की राह दिखाई और उस पर चला के, एक झंडे नीचे खड़ा किया| किसी अन्य भारतीय जाति के पुरखों के खाते नहीं है यह शाहकार| जातियों को जोड़ने वाले तो अन्य जातियों में भी मिल जायेंगे, परन्तु यूँ सभी धर्मों को एक खूंटे बाँधने वाले सिर्फ जाट पुरखे हो के गए हैं|

आज के दिन कट्टरता-साम्प्रदायिकता में भ्रमाये सर्वसमाज के युवा के साथ-साथ जाट युवा समझे कि जाट, कट्टरता पर आधारित धर्म को फॉलो करने के लिए नहीं बना, जाट बना है सब धर्मों को एक साथ ले के मानवता को धर्म से ऊपर रख के पालने के लिए| इस फोटो में जो दृश्य दिख रहा है इसी को "जाटू-सभ्यता" कहते हैं| सुख-दुःख, आपदा-विपदा-हर्ष का वक्त आता जाता रहता है; आज अगर जाट पर जाट बनाम नॉन-जाट को झेलने की विपदा पड़ी है तो ख़ुशी-ख़ुशी झेलो, परन्तु वह राह मत छोडो जो आपके पुरखे देवता थमा गए, दिखा गए|

क्यों किसी के बहकावे में आ के सिर्फ एक कट्टरता, जातिवाद और सम्प्रदायवाद पर आधारित धर्म-विशेष को पोषने की खुद से ही जिद्द बाँध बैठ हो| सर्वधर्म को पालो, मानवता को पालो; हर धर्म की अच्छी बात को प्रणाओं और बुरी को तिलांजलि दो| क्यों व्यर्थ अपने ही डी.एन.ए. से जद्दोजहद कर रहे हो; अंतिम दिन हारोगे अपने ही डी.एन.ए. से और वापिस आओगे अपने पुरखों की दिखाई राहों पर|

जोर लगाना है तो अपने पुरखों के लेवल का इंटेलेक्ट खुद में पैदा करने में लगाओ, इन छद्म फंडी-पाखंडियों के पीछे जूतियां चटकाने या तुड़वाने से कुछ नहीं मिलने वाला| वैसे भी सभ्यताएं और मानवताएं बिना बलिदान दिए नहीं सँजोई जाया करती और असली बलिदान की राह है मानवता को पालना|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 5 October 2016

जाट की महानता, कृज्ञता और दयालुता किसी को जाननी है तो ऋषि दयानंद की आत्मा से पूछो!

आज और आज से पांच-दस साल पहले वाले "सत्यार्थ प्रकाश" की कॉपियां/प्रतियां सम्भाल के रखना; क्योंकि अब बदले हुए हालातों में और जिस तरीके से "जाट बनाम नॉन-जाट" का जहर पुरजोर तरीके से बोया जा रहा है, ऐसे में हो सकता है कि इसके मद्देनजर "सत्यार्थ प्रकाश" के जो भी नए वर्जन निकलें, उसमें से "जाट जी" और "जाट-देवता" के जिक्र व् अध्याय खत्म कर दिए जाएँ।

खत्म कर दिए जाएँ ताकि अगर ओबीसी व् दलित में कोई इसको पढता होगा तो वो ना जान पाए कि जाट समाज को ब्राह्मण समाज ने "देवता" क्यों कहा है, "जी" लगा के क्यों सम्बोधित किया है; और फिर इससे जाट बनाम नॉन-जाट फैलाने वालों की राह और आसान हो जाए। इसकी बहुत जल्द जाट समाज को जरूरत पड़ने वाली है, बहुत ही नजदीक है वह समय जब जाट को इसकी जरूरत पड़ेगी।

कोई माने ना या माने "सत्यार्थ-प्रकाश" एक ऐसा सबूत है जो ब्राह्मण तक को इस बात की शिक्षा देता है कि अगर आप ऋषि दयानंद की भांति जाट को "जाट जी" व् "जाट देवता" कहकर उसकी स्तुति करेंगे और उचित आदर-मान देंगे तो जाट आपको उन ऊँचाइयों पर बैठा देंगे कि आप उत्तरी भारत में सबसे मशहूर ब्राह्मण कहलायेंगे।

जब जाट ब्राह्मण से उचित आदर पाता है तो उसको ऋषि दयानंद की भांति आदर-मान का सर्वोच्च स्थान दिलवा देता है अन्यथा फंड-पाखंड करने वालों की ऐसी खिल्ली उड़ाएगा कि सीधा अंदर-तक हिला दे। लेकिन आज दिक्कत यह आ गई है कि जाट अपने इस मूल प्रवृति को छोड़ने के खुद पर ही एक्सपेरिमेंट कर रहा है। इसीलिए पशोपेश में है। नादाँ है जो अपने ही डीएनए को चुनौती दे रहा है।

जाट जाति अपने इस गौरव व् देवताई स्थान को ना भूले। ब्राह्मण ने किसी भी अन्य सांसारिक जाति को ना कभी "जी" लगा के बोला है और ना ही "देवता" कहा है। परन्तु जाट को कहा है। जाट को यह आदर-मान दिया तो आज तक भी उत्तरी भारत में ऋषि दयानंद से बड़ा ब्राह्मण कोई नहीं जाना जाता; और यह इसलिए है कि जाट श्रद्धा और प्रेम को सूद-समेत लौटाना जानता है।

अत: इन जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े खड़े करने वालों को ब्राह्मण वर्ग भी आगे आ के समझाए और इनको कहे कि जाट को आँख दिखा कर या धमका कर विश्व की कोई ताकत नहीं जीत सकती। अगर भारत को विश्वशक्ति बनाना है तो इन जाट बनाम नॉन-जाट के चासडू नादानों को समझाया जाए (चाहे वो जिस किसी भी जाति के हों) कि जाट से मित्रता से रहोगे तो आधे से भी कम समय में विश्वशक्ति हो जाओगे। वर्ना तो भारत को सिर्फ बुद्ध का देश कह के ही काम चलाना पड़ेगा।

और यह विचार मेरा अहम/घमण्ड या बहम नहीं कह रहा, इतिहास के पन्ने भी यही बोलते हैं। जाट-ब्राह्मण के इतिहास के रिश्ते भी यही बोलते हैं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

राम, रामायण और रामलीला हरयाणा में प्रभावी तौर पर कब से आये?

2014 में रणदीप हुड्डा अभिनीत फिल्म आई थी "रंग-रसिया", जो कि भारत के प्रथम चित्रकार "राजा रवि वर्मा" (1848 में पैदा हुए, 1906 में मृत्यु हो गई) पर आधारित है। कायदे से तो बॉलीवुड का "दादा साहेब फाल्के" पुरस्कार "राजा रवि वर्मा" के नाम से ही होना चाहिए था, परन्तु शायद जातिवाद के चलते ऐसा हुआ नहीं; क्योंकि वो "राजा रवि वर्मा" और उनके जर्मन सहयोगी की स्थापित करी प्रेस थी, जिसके जरिये व् "राजा रवि वर्मा" की प्रेरणा से "दादा फाल्के" ने पहली फिल्म बनाई थी। यानि बॉलीवुड के साजो-सामान-मंच की नींव रखने वाले राजा रवि वर्मा थे।

खैर, राजा रवि वर्मा वो सख्श हैं जिन्होनें "राम-सीता-लक्ष्मण-हनुमान", "धन की देवी लक्ष्मी", "राधा-कृष्ण" आदि मैथॉलॉजीकल देवी-देवताओं को चित्रित रूप दिया; इनके रूप की कल्पना करी व् अपनी पेंटिंग्स पर उकेरा। आज के दिन जो 30 से 40 उम्र का वर्ग है इन्होनें यह मूर्तियां अपने व् पड़ोसियों के घर खूब देखी होंगी। इन टाइटल्स से गूगल करके इमेज ढूंढेंगे और जिस तरह की पहली क़िस्त इमेजों की आएगी, यह सब "राजा रवि वर्मा" की कलाकृतियों की कापियां हैं। दिखने में ऐसी प्रतीत होती हैं जैसे युग-युगान्तर से चली आई हों, परन्तु यह बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की देन हैं। उससे पहले इन भगवानों का कोई मूरत रूप नहीं होता था।

जब यह मूर्तियां बनी तो पूरे भारत में फैली, तो लाजिमी है कि हरयाणा की तरफ भी फैली। इन्होनें हरयाणवी सांगी "पण्डित लखमीचन्द" (1901 में पैदा और 1945 में मरण) का ध्यान आकर्षित किया। पण्डित लखमीचन्द अनपढ़ थे, इसलिए उन्होंने बनारस से एक पंडा और माइथोलॉजी की पुस्तकें मंगवाई। पण्डे के साथ मिलकर इन पुस्तकों का हरयाणवी किस्सों में अनुवाद हुआ व् इन किस्सों पर रागनियां बनी। बताता चलूँ कि भारत की सबसे पहली रामलीला 1862 में चित्रकूट (यूपी वाला, एक चित्रकूट मध्यप्रदेश में भी है) में शुरू हुई थी यानि लगभग मात्र 150 साल पहले। जबकि प्रभाव व् प्रचार ऐसा है कि जैसे हजारों साल से होती आ रही हो।

1940 के इर्दिगर्द का वक्त ही वह वक्त था जब बनारस-अवध-अयोध्या की तरफ होने वाली रामलीलाएं हरयाणा की तरफ बुलवाई गई और फैलाई गई। इससे पहले हरयाणा में राम-रामायण का कोई ख़ास जिक्र नहीं मिलता, इतना तो बिलकुल नहीं जितना कि आज हो चला है। शुरू-शुरू में लोगों ने इनको नौटंकियों के रूप में लिया और यह फैलती गई| रामलीलाओं ने राम के चरित्र को इतना प्रचारित और व्यापक किया कि लोग "राम" शब्द को "राम-राम" के सम्बोधन में प्रयोग करने लगे। उसके बाद से आजतक आगे कितनी इस विषय पर प्रगति हुई, उसको हर सख्श जानता ही है। नब्बे के दशक में रामायण पर टीवी सीरियल आ गए और फिर इन विषयों पर टीवी सीरियलों की बाढ़।

इससे पहले हरयाणा में दशहरा कोई ख़ास नहीं मनता था बल्कि इस दिन "पुराने मिटटी के बर्तन फोड़ने" का दिन मनाया जाता था ताकि कुम्हार द्वारा चाक व् आक से उतारी गई नई बर्तनों की खेप को मार्किट मिल सके और कुम्हार की आमदनी हो सके। बचपन में इस दिन खूब पुराने-भांडे तो मैंने भी फोड़े हुए हैं। दशहरे का सामानांतर हरयाणवी त्यौहार "सांझी" में भी जो "हांडी" फोड़ने का कांसेप्ट है वो इसके साथ मिश्रित है।

यह एक बहुत बड़ा मूल फर्क है शुद्ध हरयाणवी त्योहारों व् अन्यों के त्योहारों में। बाकियों के त्यौहार जहां मूलतः माइथोलॉजी आधारित व् एक वर्ग विशेष को महिमामंडित करने वाले रहे हैं, वहीँ हर शुद्ध हरियाणवी त्यौहार में किसी-ना-किसी कारोबारी जाति के सहयोग की प्रेरणा रहती रही है; जैसे इस पुराने भांडे फोड़ने के "सांझी" वाले त्यौहार में कुम्हार को मार्किट व् बिज़नस देना।

हालाँकि इससे पहले भी रामायण हरयाणा में रही है, परन्तु इतने व्यापक स्तर पर नहीं। क्योंकि बुद्धकाल में यहां लगभग हर दलित-ओबीसी-किसान बौद्ध बन गया था। ख़ास बात यह भी है कि रामायण में बुद्ध का जिक्र है, जो साबित करता है कि रामायण बुद्ध के बाद लिखी गई। जब बुद्ध और सनातन धर्म के अनुयायिओं में युद्ध हुए तो बहुत से बुद्ध मठ तोड़े गए, जिसकी वजह से आज भी हरयाणा में "मार दिया मठ", " कर दिया मठ", हो गया मठ" की कहावतें चलती हैं। बौद्धों व् सनातनियों की लड़ाइयों की कटुता के चलते यह चीजें दोनों पक्षों के मनों में रही। और क्योंकि बौद्ध ज्यादा थे तो उस वजह से उस वक्त यह चीजें इधर ज्यादा नहीं फ़ैल पाई।

परन्तु वक्त के साथ और गुलामी काल की वजह से लोग इन पर चर्चाएं नहीं कर पाए; जिसकी वजह से यह कहावतें तो आजतक भी जिन्दा हैं परन्तु लोग धीरे-धीरे इनके पीछे का उद्गम भूलने लगे। और यही वह समय था जब रामायण, रामलीलाओं को हरयाणा में प्रवेश करवाने का उचित समय मिला।

रामायण बारे ऐसा भी कहा जाता है कि यह 1253 ईसवीं के इर्दगिर्द थाईलैंड के अयुथ्या (अयोध्या शब्द से मिलता-जुलता शब्द है) में हुई थी; परन्तु इसकी सच्चाई अभी ज्यादा नहीं जान पाया हूँ।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 3 October 2016

हरयाणा की "सांझी" है, बंगाल की "दुर्गा पूजा", अवध के "दशहरे", सिंधी-अरोरा-खत्रियों के "नवरात्रों" व् गुजरात के "गरबा" का समानांतर शुद्ध हरयाणवी त्यौहार!

परन्तु एक फर्क के साथ, और वो है वास्तविकता का| हरयाणा की सांझी का कांसेप्ट वास्तविकता की व्यवहारिकता पर आधारित है, जबकि बाकी सब माइथोलॉजी पर आधारित|

"सांझी" क्या होती है, इसकी विस्तृत व्याख्या तीन साल पहले हरयाणवी में लिखे मेरे इस लेख में जानें:

सांझी का पर्व:
सांझी सै हरयाणे के आस्सुज माह का सबतैं बड्डा दस द्य्नां ताहीं मनाण जाण आळआ त्युहार, जो अक ठीक न्यूं-ए मनाया जा सै ज्युकर बंगाल म्ह दुर्गा पूज्जा अर अवध म्ह दशहरा दस द्यना तान्हीं मनाया जांदा रह्या सै|
पराणे जमान्ने तें ब्याह के आठ द्य्न पाछै भाई बेबे नैं लेण जाया करदा अर दो द्य्न बेबे कै रुक-कें फेर बेबे नैं ले घर आ ज्याया करदा। इस ढाळ यू दसमें द्य्न बेबे सुसराड़ तैं पीहर आ ज्याया करदी। इसे सोण नैं मनावण ताहीं आस्सुज की मोस तैं ले अर दशमी ताहीं यू उल्लास-उत्साह-स्नेह का त्युहार मनाया जा सै|

आस्सुज की मोस तें-ए क्यूँ शरू हो सै सांझी का त्युहार: वो न्यूं अक इस द्य्न तैं ब्याह-वाण्या के बेड़े खुल ज्यां सें अर ब्याह-वाण्या के मौसम फेर तैं शरू हो ज्या सै। इस ब्याह-वाण्या के मौसम के स्वागत ताहीं यू सांझी का दस द्य्न त्युहार मनाया जाया जा सै।

के हो सै सांझी का त्युहार:
जै हिंदी के शब्दां म्ह कहूँ तो इसनें भींत पै बनाण जाण आळी न्य्रोळी रंगोली भी बोल सकें सैं| आस्सुज की मोस आंदे, कुंवारी भाण-बेटी सांझी घाल्या करदी। जिस खात्तर ख़ास किस्म के सामान अर तैयारी घणे द्य्न पहल्यां शरू हो ज्याया करदी।

सांझी नैं बनाण का सामान:
आल्ली चिकणी माट्टी/ग्यारा, रंग, छोटी चुदंडी, नकली गहने, नकली बाल (जो अक्सर घोड़े की पूंछ या गर्दन के होते थे), हरा गोबर, छोटी-बड़ी हांड़ी-बरोल्ले। चिकनी माट्टी तैं सितारे, सांझी का मुंह, पाँव, अर हाथ बणाए जाया करदे अर ज्युकर-ए वें सूख ज्यांदे तो तैयार हो ज्याया करदा सांझी बनाण का सारा सामान|

सांझी बनाण का मुहूर्त:
जिह्सा अक ऊपर बताया आस्सुज के मिन्हें की मोस के द्य्न तैं ऊपर बताये सामान गेल सांझी की नीम धरी जा सै। आजकाल तो चिपकाणे आला गूंद भी प्रयोग होण लाग-गया पर पह्ल्ड़े जमाने म्ह ताजा हरया गोबर (हरया गोबर इस कारण लिया जाया करदा अक इसमें मुह्कार नहीं आया करदी) भींत पै ला कें चिकणी माट्टी के बणाए होड़ सुतारे, मुंह, पाँ अर हाथ इस्पै ला कें, सूखण ताहीं छोड़ दिए जा सैं, क्यूँ अक गोबर भीत नैं भी सुथरे ढाळआँ पकड़ ले अर सुतारयां नैं भी। फेर सूखें पाछै सांझी नैं सजावण-सिंगारण खात्तर रंग-टूम-चुंदड़ी वगैरह लगा पूरी सिंगार दी जा सै।

सांझी के भाई के आवण का द्यन:
आठ द्यन पाछै हो सै, सांझी के भाई के आण का द्य्न। सांझी कै बराबर म्ह सांझी के छोटे भाई की भी सांझी की ढाल ही छोटी सांझी घाली जा सै, जो इस बात का प्रतीक मान्या जा सै अक भाई सांझी नैं लेण अर बेबे की सुस्राड़ म्ह बेबे के आदर-मान की के जंघाह बणी सै उसका जायजा लेण बाबत दो द्य्न रूकैगा|

दशमी के द्य्न भाई गेल सांझी की ब्य्दाई:
इस द्यन सांझी अर उनके भाई नैं भीतां तैं तार कें हांड़ी-बरोल्ले अर माँटा म्ह भर कें धर दिया जा सै अर सांझ के बख्त जुणसी हांडी म्ह सांझी का स्यर हो सै उस हांडी म्ह दिवा बाळ कें आस-पड़ोस की भाण-बेटी कट्ठी हो सांझी की ब्य्दाई के गीत गंदी होई जोहडां म्ह तैयराण खातर जोहडां क्यान चाल्या करदी।

उडै जोहडां पै छोरे जोहड़ काठे खड़े पाया करते, हाथ म्ह लाठी लियें अक क्यूँ सांझी की हंडियां नैं फोडन की होड़ म्ह। कह्या जा सै अक हांडी नैं जोहड़ के पार नहीं उतरण दिया करदे अर बीच म्ह ए फोड़ी जाया करदी|

भ्रान्ति:
सांझी के त्युहार का बख्त दुर्गा-अष्टमी, सिंधी-अरोरा-खत्रियों के "नवरात्रों" व् गुजरात का "गरबा" अर दशहरे गेल बैठण के कारण कई बै लोग सांझी के त्युहार नैं इन गेल्याँ जोड़ कें देखदे पाए जा सें। तो आप सब इस बात पै न्यरोळए हो कें समझ सकें सैं अक यें तीनूं न्यारे-न्यारे त्युहार सै। बस म्हारी खात्तर बड्डी बात या सै अक सांझी न्यग्र हरयाणवी त्युहार सै अर दुर्गा-अष्टमी बंगाल तैं तो दशहरा अयोध्या तैं आया त्युहार सै। दुर्गा-अष्टमी अर दशहरा तो इबे हाल के बीस-तीस साल्लां तैं-ए हरयाणे म्ह मनाये जाण लगे सें, इसतें पहल्यां उरानै ये त्युहार निह मनाये जाया करदे। दशहरे को हरयाणे म्ह पुन्ह्चाणे का सबतें बड्डा योगदान राम-लीलाओं नैं निभाया सै|

सांझी का सर्वप्रसिद्ध लोकगीत - "सांझी री":
सांझी री मांगै मड्कन जूती,
कित तैं ल्याऊं री मड्कन जूती।
म्हारे रे मोचियाँ कें तैं,
ल्याइये रे बीरा जूती॥
सांझी री मांगै हरया गोबर,
कित तैं ल्याऊं री हरया गोबर।
म्हारे रे पाळी ब्य्टोळएं गोरयां,
ल्याइये रे बीरा, हरया गोबर||
सांझी री मांगै दामण-चुंदड़ी,
कित तैं ल्याऊं री दामण-चुंदड़ी|
म्हारे रे दर्जी के भाई,
दे ज्याइये रे दामण-चुंदड़ी||
सांझी री मांगै गंठी-छैलकड़ी,
कित तैं ल्याऊं री गंठी-छैलकड़ी|
म्हारे रे सुनारां के तैं,
ल्याइये रे बीरा गंठी-छैलकड़ी॥
सांझी री मांगै चिकणी-माटी,
कित तैं ल्याऊं री चिकणी-माटी|
म्हारे रे डहर-लेटा की,
ल्याइये रे बीरा चिकणी-माटी||
सांझी री मांगै नए तीळ-ताग्गे,
कित तैं ल्याऊं री नए तीळ-ताग्गे|
म्हारे रे बाणियाँ के तैं,
पड़वाइए रे बीरा तीळ-ताग्गे||
सांझी री मांगै छैल-बैहलड़ी,
कित तैं ल्याऊं री छैल-बैहलड़ी|
म्हारे रे खात्ती के तैं,
घड़वाइए रे बीरा छैली-बैहलड़ी॥
सांझी री मांगै टिक्का-चोटी,
कित तैं ल्याऊं री टिक्का-चोटी|
म्हारी री मनियारण के तैं,
ल्याइये री भाभी टिक्का-चोटी||

 हरयाणा मतलब आज का हरयाणा, दिल्ली, वेस्ट यूपी, उत्तरी राजस्थान व् उत्तराखंड का ग्रेटर हरयाणा कहे जाने वाला भूभाग|

Root Source: http://www.nidanaheights.net/culturehr-aasujj.html

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

एक अंधभक्त बोला, मुझे एक ऐसा वाकया दिखाओ जब मुस्लिमों ने जाटों के साथ निभाई हो!

मखा तू, एक नहीं ऐसे तीन वाकये ले:

1) चौधरी सर छोटूराम का धर्मरहित हिन्दू-मुस्लिम-सिख धर्म के किसानों का गठजोड़| जिसने मिलके यूनाइटेड-पंजाब में ऐसी धनाढयता की खुशहाली और सौहार्द की हरियाली छटा बिखेरी कि हरयाणा-पंजाब के किसानों की हवेलियों पे मोरनियां चढ़ गई थी|

"हवेली पे मोरनी" चढ़ने का मतलब है कि इस क्षेत्र के जिस किसान की मकान/हवेली पर मोरनी की फिरकी (जैसे फ्रांस में ख़ास घरों व् चर्चों पर मुर्गे की फिरकी चरणाती है) चरणाई यानी चढ़ाई गई, वो इलाके का माना हुआ रईस माना जाता था| यह "हवेलियों-मकानों पर मोरनी चढाने की परम्परा जाटों में खासतौर से होती आई|

2) चौधरी चरण सिंह का वो मुस्लिम-जाट गठजोड़ जिसने पूरे वेस्ट यूपी को निहाल कर दिया, धनाढ्यता से भर दिया| और आज जब से यह गठजोड़ टूटा पड़ा है, तो पूरे वेस्ट यूपी में क्या जलालत पसरी पड़ी है, यह किसी की नजरों से ओझल बात नहीं|

3) बाबा महेंद्र सिंह टिकैत का वो मुस्लिम-जाट गठजोड़, जब बाबा स्टेज से हलकारा देते थे "अल्लाह-हु-अकबर" तो भीड़ से आवाज आती थी "हर-हर-महादेव" और जब वो हलकारा देते "हर-हर-महादेव" तो भीड़ से आवाज आती थी "अल्लाह-हु-अकबर"।

मखा, यह विभिन्न धर्मों को मॉस-लेवल (mass level) पर एक साथ जोड़ के चलने की मैनेजमेंट सिर्फ जाटों ने इस देश में चलाई और जब-जब चलाई वो इलाके और वहाँ के हर धर्म के बन्दे ना सिर्फ धनाढ्य बने बल्कि इंसान बने| और जो तुम लोग बना रहे हो वो इंसान नहीं सिर्फ ट्रैंड जानवर बना रहे हो; जो मालिक कहे तो भोंके, मालिक कहे तो काटे|

खैर छोड़, यह तो हुए, तुम्हारे पूछे जाट-मुस्लिम के वो वाकये जब इनका गठजोड़ हुआ तो धरती पर धनाढ्यता, सम्पन्नता, साहौर्द और उल्लास पसरा| अब मखा तू मुझे एक उदाहरण ऐसा दे दे इन जाट बनाम नॉन-जाट चिल्लाने वालों का, जब यह जाट के साथ शांति से रहे हों; बराबरी से मिलके धन-शक्ति-सम्पन्नता अर्जित की हो?
तुम बड़ा उलाहना देते हो ना कि मैं क्यों इतना मुस्लिम प्रेम दिखाता हूँ; मखा तुम दिखा दो इन जाट बनाम नॉन-जाट फैलाने वालों के ऐसे एक-दो किस्से, फिर जिसके कहोगे उसके प्रति भी प्रेम दिखा लूंगा| 


जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 2 October 2016

जो देश-धर्म भक्ति पैसा देख के रंग बदलती हो, वो क्या ख़ाक क्रांति लाएगी; वो सिर्फ दिशाहीन बवाल ला सकती है, सिवाए इसके कुछ नहीं!

1) अडानी ने 72000 करोड़ रूपये का कर्ज लिया भारतीय बैंकों से और इन नाजुक हालातों में भी बिजली दे रहा है पाकिस्तान को? और इस पर स्वघोषित देश-धर्म के भक्त खामोश?

2) जियो का सस्ता सिम वही शाहरुख़ खान बेच रहा है, जिसको कल तक स्वघोषित देश-धर्म के भक्त परिवार समेत पाकिस्तान भेज रहे थे| सस्ता मिल जाओ, फिर उसके आगे देश-धर्म का सम्मान जाए तेल लेने|

3) चीन ने ब्रह्मपुत्र नदी की एक ब्रांच का पानी रोक दिया, परन्तु देश-धर्म के भक्तों का सामान ना खरीदने का लेक्चर सिर्फ ग्राहक को, इनकी नजर में वहाँ से सामान लाने वाले अभी भी देश-धर्म भक्त हैं; उनको वहाँ से सामान लाना बन्द करने का लेक्चर नहीं देगा कोई|

4) "मेक इन इंडिया" का नारा लगाने वाला मोदी, देश में नाइजीरिया की बोई हुई दालें आयात करेगा| एक उस देश में जिसकी जमीन और किसान को जितना नाइजीरिया को दिया, उतना तक भी पैसा दे दिया जाए अगर तो उसका किसान कम-से-कम एक पूरे महाद्वीप की दाल की मांग पूरी करने जितनी दाल पैदा कर दें| पंरतु कॉर्पोरेट खेती यानि पैसे वालों का मामला जो ठहरा, वहाँ थोड़े ही चुसकेंगे यह स्वघोषित देश-धर्म के भक्त|

छोड़ दो इस झूठे भ्रम की ऐसी देश-धर्म वाली भक्ति को जो "गरीब की बहु सबकी भाभी" के सिद्धांत पे टिकी हो; अन्यथा हो अगर असली राष्ट्रभक्त तो, दो अडानी को पाकिस्तान को बिजली ना बेचने का डंडा| लगाओ हर उस दुकान-शॉपिंग मॉल पे ताला जो चाइनीज सामान बेचता हो| करो पीएमओ के आगे धरना और पूछो उस "मेक इन इंडिया" का जुमला रुपी नारा लगाने वाले से कि जब हमारे किसान व् जमीन जिस चीज को पैदा करने में सक्षम हैं तो वो उसको बाहर से पैसे दे के क्यों उगवा रहा है?

मोदी, जिस "भारत माता की जय" बोलते-बुलवाते नहीं थकते, उसी उपजाऊ जमीन रुपी भारत माँ का उसकी जय बोलने वाले के हाथों ही ऐसा घोर तिरस्कार? अपनी माँ भूखी मरे, सम्मान को तरसे और नाइजीरिया वाली माँ पे इसके पैसे और कृपा दोनों बरसें? डूब मारें, कहीं कोई कुआं-जोहड़ मिलता हो तो ऐसे "भारत माता की जय" बोलने वाले ढोंगी| होता जो इस आदमी में इस नारे और वाकई में भारत माता यानी इस जमीन के प्रति थोड़ा सा भी स्वाभिमान तो उठाता यह आदमी अपनी धरती रुपी माँ की उपजाऊ क्षमता को दरकिनार करने का कदम? जवाब देवें हर स्वघोषित देश-धर्म भक्त?

हिटलरवादी अधिनायकवाद यही तो होता है जो इंसान को अधिनायक द्वारा ही दिखती-दिखाती लूट तक नहीं देखने-समझने देता| ताज्जुब है कि इन स्वघोषित हुए फिर रहे देश-धर्म भक्तों में अब किसानों तक के बालक बावले हुए गरियाये हुए हैं|

अरे बिना पैसे के तो कोई तुम्हें मंदिर में भी ना फटकने दे (मन्दिर के दरवाजों के बाहर कटोरा ले के बैठने की औकात होती है बिना पैसे वाले की), और तुम चले हो देशभक्ति करने? वो तुम्हारी किसान माँ-बापों की जेबें खाली करवा के तुम्हें भूखे पेट बना रहा है और तुम चले हो भूखे पेट देश-धर्म भक्ति करने? हुई है जो आजतक किसी से भूखे पेट देश-धर्म भक्ति, जो तुम करोगे?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 1 October 2016

नवरात्रों के चक्कर में, मैं क्यों गिरूँ अपनी 'जाट-देवता' की उपाधि से?

वो कहते हैं नवरात्रे मनाओ, मैं मना तो लूँ पर उस उपाधि को कैसे छोड़ दूँ जो खुद ब्राह्मण ने मुझे दी है| ब्राह्मण मुझे कहीं "जाट देवता" लिखता है कहीं "जाट जी" तो मैं इस श्रेणी से कैसे गिरा लूँ अपने-आपको? एक देवता होते हुए एक देवी को कैसे पूजूँ? यह तो वही बात हो गई कि मैं अपने ऑफिस की कलीग यानी सहकर्मी महिला को बॉस कहूँ? यह कैसे सम्भव है?

निसन्देह, लोगों की भावना का आदर-मान करते हैं परन्तु माफ़ करना दोस्तों नवरात्रे मेरी संस्कृति नहीं|

मेरी तो पड़दादी ने मनाये ना, दादी ने मनाये ना और ना माँ ने मनाये ना आज के दिन मेरे घर की बहुएं यानी मेरी भाभी और बौड़िया मनाती; आप मनाओ आपको सपोर्ट करते हैं, परन्तु सविनय बता देता हूँ यह 'जाट-देवता' की मान्यता नहीं| बताओ मैं एक जाट जो खुद देवता कहलाता हूँ, वो एक देवी को किसलिए पूजेगा? जाट तो पहले से ही देवता श्रेणी में काउंट होते हैं तो मैं क्यों गिरूँ अपनी श्रेणी से?

सीधा सिंपल वास्तविकता पर आधारित म्हारा "दादा खेड़ा" बना रहो बस वही बहुत है, मेरा आध्यात्म उससे ही सन्तुष्ट है|

सर्वखाप पंचायतें, डंके की चोट पर और आज भी बहुत रेसोलुशन निकालती हैं व्यर्थ खर्ची के आडम्बरों के खिलाफ| लेटेस्ट महापंचायत अभी हांसी में हो के हटी है, इन्हीं मसलों पर| राजनीति के चक्कर में अगर कोई खाप-पंचायती इनमें जा धंसा है तो उनसे सविनय निवेदन है कि आपको नवरात्रे मनाने के लिए खाप का नाम प्रयोग करने की जरूरत नहीं| वैसे भी खाप के नाम से सामाजिक वोट मिलते आये हैं, राजनैतिक वोट नहीं; सो इस नाम को अपनी बधाइयों में ना खींच के खाप पम्परा भी निभाएं और जनता की भावनाओं का आदर-मान रखने की राजनैतिक जरूरत भी निभा लें|

एक और पहलु है जो आर्य-समाजी परिवार हैं, वो तो पहले से ही मूर्ती-पूजा से दूर होंगे? आखिर इनसे दूर रहते थे, इतने सभ्य ज्ञानी थे तभी तो ऋषि दयानंद जैसे बाह्मण ने 'सत्यार्थ प्रकाश' में 'जाट-देवता' व् 'जाट जी' कह के गुणगान किया था| वही ऊपर लिखी बात, मैं क्यों गिरूँ अपनी 'जाट-देवता' की उपाधि से| या तो घर में ऋषि दयानंद की फोटो टांग लो, या इनकी, या दो नावों में एक साथ सवार होवोगे? कोई राजनीति, कोई मान्यता आपको इतना मजबूर नहीं कर सकती कि आप अध्यात्म तौर पर भी दो नावों में एक साथ सवार होवो| अगर ऐसा करना पड़ रहा है तो निसन्देह आप भर्मित प्रवृति के हैं और आपकी मानसिकता अनिश्चित है सुनिश्चित नहीं|

फिर भी फैसला आपका, परन्तु मैं निर्धारति हूँ; ना मेरी सर्वखाप इसकी इजाजत देती, ना मेरे परिवार-पुरखों के सिद्धांत, ना आर्य-समाज, ना मेरा मूर्ती पूजा रहित दादा खेड़ा और इन सबसे बड़ी बात ना मेरी "जाट देवता" और "जाट जी" की छवि; सो मैं नवरात्रे मानने-मनाने वालों को बधाई देते हुए, परन्तु साथ ही अपनी छवि बरकरार रखने हेतु, इनसे तथष्ट रहने की राह पर चलता हूँ| और आशा करता हूँ कि देश-समाज-मीडिया-ब्राह्मण भी मेरे इस फैलसे का सम्मान करेंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जींद-नाभा-पटियाला की जट्ट सिख रियासतें ही क्यों बदनाम की गई, जबकि ......


1857 की क्रांति में इनके अलावा जयपुर-ग्वालियर-जोधपुर-चित्तोड़ आदि दर्जनों रियासतों ने भी अंग्रेजों का साथ दिया था? क्यों सिर्फ जींद-नाभा-पटियाला को तो हाई स्कूल की किताबों तक में अंग्रेजों के साथी बना के पढ़ाया जाता है|

 जो इतिहास और सिख सिद्धांत जानता होगा वह अच्छे से जानता होगा कि सिखों ने रातों के 12 बजे कितने मुग़ल पीटे थे| महाराज रणजीत सिंह का नाम सुनके तो मुस्लिम, धर्म और वेश तक बदल लिया करते थे| इसलिए सिखों के लिए किसी भी सूरत में मुस्लिमों का साथ तक गंवारा नहीं था, फिर 1857 की क्रांति एक मुग़ल बादशाह के नेतृत्व में लड़ने की बात तो ठहरी ही सपनों की|

और यही वजह थी कि यह जट्ट सिख रियासतें, 1857 की मुग़ल बादशाह के नेतृत्व वाली क्रांति में मुग़लों के विरुद्ध ही खड़ी रही और मुग़लों को हराने हेतु ही अंग्रेजों के साथ रही| क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि जिनको इतनी जद्दोजहद के बाद पंजाब से दूर किया है उनको फिर से कोई वजह मिले यहां वापिस पैर जमाने की|

दूसरी वजह यह भी थी कि सिख पानीपत की तीसरी लड़ाई में यह सुन-देख चुके थे कि महाराजा सूरजमल के लाख कहने पर भी पूना पेशवा इस जिद्द पर अड़े रहे कि अगर पानीपत में हमारे अलायन्स की जीत होती है तो दिल्ली मुग़लों की ही रहेगी| जबकि महाराजा सूरजमल अड़े रहे कि दिल्ली जाटों की थी और जाटों की रहेगी; जो कि बाद में महाराजा सूरजमल के सुपुत्र भारतेंदु महाराज जवाहर सिंह ने अकेले जाट सेना के बलबूते, अहमदशाह अब्दाली के सिपहसालारों की दिल्ली में घेरेबंदी करके उनपर जीत कर दिखा दी थी| इस पूना पेशवाओं और जाटों की बीच, पेशवाओं की जिद्द की वजह से यह अलायन्स सिरे नहीं चढ़ पाने के वाकये ने भी सिखों में 1857 की क्रांति वालों के प्रति विश्वास नहीं आने दिया|

इसलिए जींद-नाभा-पटियाला की रियासतों से लगाव रखने वाले या इन इलाकों में रहने वाली प्रजा को इस बात पर मन मायूस नहीं करना चाहिए कि उनकी रियासतों के बारे क्या पढ़ाया जाता है; अपितु इस पढाये जाने को किताबों से हटवाने बारे अभियान चलाया जाना चाहिए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक