Saturday, 6 January 2018

जमीन-फैक्ट्री-मंदिर और दलितों की इच्छा!

लेख का निचोड़: किसी भी अवांछित व् अनजाने टकराव की जगह बचाव की राह पर चलना होगा, खासकर उदारवादी जमींदार को|

पहले तो यही समझते हैं कि जमीन-फैक्ट्री-मंदिर बनते कैसे हैं:

जमीन: ऐतिहासिक परिवेश से शुरू करें तो किसान के पुरखों ने जंगल-पहाड़ों-पत्थरों-रेही-बंजर जमीनें तोड़-काट के सर्वप्रथम खेती करने के लायक बनाई| इस काम में दिहाड़ी पर मजदूर लिए तो अधिकतर ने फसल पक के घर आने का इंतज़ार किये बिना दिन-के-दिन दिहाड़ियाँ दी| इसके बाद जितनी मेहनत इनको जमीन को खेती के लायक करने में लगी, उससे ज्यादा नानी याद दिलाई समय-समय पर हुए राजे-रजवाड़े-मुग़ल-अंग्रेज-सेठ-साहूकार-सरकारों आदि द्वारा कभी भूमिकर, तो कभी भारी माल-दरखास (टैक्स) भरवा के| कई बार यह टैक्स इतने भारी तक होते थे किसानों को कभी औरंगजेब के खिलाफ गॉड गोकुला की सरप्रशती में सशत्र विद्रोह करने पड़े तो कभी अंग्रेजों के खिलाफ जींद रियासत में लजवाना काण्ड जैसे विद्रोह करने पड़े, कभी गोहद की किसान क्रांति करनी पड़ी तो कभी वर्णवाद व् शुद्रवाद वाले चचों-दाहिरों-पुष्यमित्रों के खिलाफ युद्ध लड़ने पड़े| जाट जैसी जातियों ने तो इसकी रक्षा हेतु ऐसे बलिदान दिए कि इनके जमीन से प्यार को देखते हुए व् ऐसे भीषण अकालों में, शासनकालों में जब सेठ-साहूकार भी जमीनें सुन्नी छोड़ दिया करते तब भी जाटों ने अपने घर-ढोर तक गिरवी रख टैक्स भर जमीनें बचाई तो कहावत चली कि "जमीन जट्ट दी माँ हुंदी ए"! जहाँ-जहाँ उदारवादी जमींदारी थी वहां तो दलितों मजदूरो को फसल पक के घर आने का इंतज़ार किये बिना दिन-के-दिन दिहाड़ियाँ दी, परन्तु जहाँ सामंतवादी जमींदारी थी वहां-वहां बंधुवा मजदूरी ने दलितों को इतना परेशान किया कि दलित जमींदारों को दुश्मन समझने लगे| सामंती जमींदारी में तो पता नहीं परन्तु उदारवादी जमींदारी में जिन मजदूरों ने खेती को समझा उन्होंने अपनी लग्न व् मेहनत से खुद के खेत भी बनाये और जमींदार भी कहलाये|

फैक्ट्री: लगाने वाला मालिक एक होता है, इसमें काम करने वाले सैंकड़ों-हजारों दलित-ओबीसी-स्वर्ण तमाम तरह की जातियों के मजदूर| जिन मजदूरों ने इनसे सीखा उन्होंने मजदूरी छोड़ खुद की फैक्टरियां खड़ी कर ली|
यानि जमीन हो या फैक्ट्री, रिस्क, मेहनत-दिहाड़ी और इन्वेस्टमेंट मालिक की व् दिहाड़ी मजदूर की| अब आते हैं तीसरे पे|

मंदिर: यहाँ पे इन्वेस्टमेंट क्या है जमीन-फैक्ट्री व् दिहाड़ी वाले द्वारा दिया गया तथाकथित दान, परन्तु मालिक कौन, इस इनकम पर आधिपत्य किसका, पुजारी का|

अब समझते हैं दलितों की जमीन की मांग: अगर दलित जमीन मेहनत से कमाने हेतु मांग रहे हैं तो सरकार ने पहले भी जमीनें दलितों को दी हैं| उदाहरण के तौर पर लगभग 3-4 दशक पहले हरयाणा के लगभग हर गाम में 1.75 एकड़ जमीन कुछ दलित जातियों को प्रति परिवार दी थी| इनमें जो मेहनती और लग्न वाले थे वह इस 1.75 की डबल-ट्रिप्पल व् इससे भी ज्यादा बना चुके हैं, बाकी अधिकतर बेच चुके हैं| इससे पहले सर छोटूराम की सरकार में तीन लाख एकड़ के करीब खाली व् बंजर जमीन मुल्तान की तरफ वाले पंजाब में दी गई थी| वहां अब कितनी दलितों के पास व् कितनी किधर जा चुकी, इसका कोई पता नहीं लग सकता क्योंकि उसके बाद से वह एक अलग देश बन चुका है| परन्तु आज कई दलित ऐसे भी हैं जो जैसे जाट पंजाब-हरयाणा-वेस्ट यूपी में छोटी पड़ती जोत को देखते हुए मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में पट्टे पे या अन्य तरह के कॉन्ट्रैक्ट्स पर जमीनें लेकर वहां की पथरीली जमीनों को अपने पुरखों की भांति समतल बना खेती कर रहे हैं, ऐसे ही यह दलित भाई भी कर रहे हैं| और मेहनत करके जमींदार बनने की चाह रखने वाले हर जाट-दलित या अन्य जाति के किसान के पास यह एक खुला रास्ता है|

तो जमीन और फैक्ट्री तो ऐसा सिस्टम है कि इन पर तो मलकियत मेहनत के सरल रास्ते पर चलते हुए बड़ी आसानी से पाई जा सकती है|

परन्तु इन तीनों में मंदिर चीज ऐसी जो बनती सर्वसमाज की कमाई से है लेकिन इनसे होने वाली आमदनी पर एकछत्र कब्ज़ा पुजारी वर्ग का चल रहा है| इसके लिए दलित अगर आवाज उठावें तो इसमें कोई कानूनी दांवपेंच भी नहीं क्योंकि यह किसानों व् फैक्ट्री वालों की भांति अधिकतर केसों में टैक्स भी नहीं भरते हैं, सिवाय कुछ 1-2% सरकार द्वारा अधिग्रहित मंदिरों को छोड़ कर| और जिनमें टैक्स भरा जाता है उनमें भी बाकी की इनकम पुजारी वर्ग अकेला हजम करता है जबकि बँटनी वह सर्वसमाज में बराबरी से चाहिए| या सर्वसमाज के कार्यों में सर्वसमाज से पूछ कर लगनी चाहिए| परन्तु दोनों ही काम नहीं होते|

अब मैं इस बात पर तो नहीं जाना चाहूंगा कि यह सिर्फ जमीन चाहियें वाली बातें ही क्यों उठ रही हैं और कौन उठा या उठवा रहा है| परन्तु ऐसी आवाजों को चाहिए कि सबसे पहले मंदिरों के चंदे-चढ़ावे की सर्वसमाज में बराबरी से बंटवारे बारे आवाज उठावें| क्योंकि जमीन-फैक्ट्री वाला तो इस बात के कानूनी कागज भी पेश कर देगा कि उसने या उसके पुरखों ने वह जमीन या फैक्ट्री मेहनत से बनाई है, दान-चंदे के चढ़ावे से नहीं| इसलिए अगर ऐसी आवाज उठानी या उठनी ही है तो ऐसी सर्वसमाज की प्रॉपर्टी व् इनकम के लिए उठे जो बनती सबके योगदान से है परन्तु उसको भोगता सिर्फ पुजारी वर्ग है|

विभिन्न किसानी संगठनों (खासकर उदारवादी जमींदारी वाले) से अनुरोध रहेगा कि एक तो सबसे पहले इस नाजुक पहलु पर मिनिमम कॉमन एजेंडा के तहत इकठ्ठे होईये (मेरे ख्याल से इस पर किसी भी संगठन की दो राय या दो रास्ते नहीं होंगे) और इस पर मिलकर काम कीजिये| दलितों के बीच जाईये और उनसे पूछिए आप जमीन मेहनत करके पाना चाहते हैं ना? अन्यथा इससे पहले कि देर हो जाए और स्थिति विकराल रूप ले ले, इस लेख की भांति अपना पक्ष उनके आगे रखिये| मुझे आशा ही नहीं उम्मीद है कि दलित आपके मर्म को समझेंगे और जिससे वास्तव में ऐसे हक़ मांगने चाहियें यानि मंदिर, उनसे ही आमदनी में हिस्सेदारी बारे आवाज उठाएंगे और इसमें फिर उदारवादी जमींदारी को दलितों का साथ देना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए|

वरना फंडी ऐसी आवाजों के जरिये दलित-किसान जातियों के बीच एक और भीषण महासंग्राम की तैयारी करवा रहा है जिसको समय रहते व् सूझ-बूझ से जल्द-से-जल्द नहीं सुलझाया गया तो दलित-किसान तो आपस में माथा फोड़ेंगे ही, समानांतर में उधर फंडी इसके जरिये अगली 2-4 पीढ़ियों का तो न्यूनतम बैठ के खाने का जुगाड़ बना जायेंगे| इस मुद्दे पर दलित से नफरत मत कीजिये, भय मत खाईये; इन भाईयों के बीच जाईये बात कीजिये, अन्यथा फंडी-पाखंडी तो चाहता ही है कि आप लोग इस मुद्दे पर बिना बात किये बस कोरी नफरत के आधार पर आपस में कट-मरो| और ऐसा करोगे तो फिर आप चिंतक-विचारक किस नाम के हुए? इसलिए जागरूक व् लॉजिकल दलित और किसान इस नाजुक मुद्दे पर आगे आवें और न्यायकारी हल निकाला जाए| क्योंकि फंड-पाखंड व् वर्णवाद का भुग्तभोगी अकेला दलित नहीं अपितु उदारवादी जमींदार भी रहा है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 31 May 2017

पंजाब केसरी अख़बार नहीं मानता जाटों को हिन्दू!

अरे रलदू, भाई जरा पहुँचाना इस बात को "हिन्दू एकता और यूनिटी" चिल्लाने वाले अंधभक्तों तक; उनमें भी खासकर जाट अंधभक्तों तक तो जरूर से जरूर पहुँचवा भाई! जिन्होनें हिंदुत्व के नाम पर इनके गलों-पेटों व् दान-पेटियों में अपने घर के घर उड़ेल दिए| और पुछवा कि पंजाब केसरी की इस "हिन्दू एकता" तोड़ने वाली बात के विरोध में कितने आरएसएस वालों ने, कितने अन्य हिन्दू संगठनों ने पंजाब केसरी के कौनसे-कौनसे दफ्तर के आगे धरना दिया या इसका खंडन ही किया?

यही देश का चौथा स्तम्भ होने का दायित्व होता है क्या इन अखबारों का?

फिर लोग यह भी पूछ बैठते हैं कि जाट-जाट क्यों चिल्लाते हो; ऐसे लोग भी देख लो, जाट-जाट, जाट नहीं चिल्लाता बल्कि यह लोग चिल्लाते हैं| पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा भी नहीं होगा कि वो जाट हैं, यह तो इन्हीं को मिर्ची लगी हुई जाट को हिन्दू नहीं बता के सिर्फ जाट बताने की| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


100 % आरक्षण की मांग और किसानी मुद्दों को उठाना ही सही मार्ग रहेगा जाटों के लिए!

जिस कूटनीतिक तरीके से मोर्चेबंदी चल रही है ऐसे हालातों में अकेले आरक्षण के मुद्दे पर डटे रहने से जाट-समाज को आगे की राह नहीं मिलने वाली| आगे की राह मिलेगी किसानी मुद्दों को उठाने से जिसके लिए शायद अहीर-गुज्जर-मीणा व् अन्य किसानी जातियाँ भी जाटों की बाट जोह रही हैं कि कब जाट इस आरक्षण के मुद्दे से निबटें (या इसके समानांतर किसानी मुद्दे भी उठावें) और कब किसानों के मुद्दों को लेकर एकजुट हो किसानी-युग की वापसी करवाई जाए| हालाँकि अहीर-गुज्जर-मीणा व् अन्य किसानी जातियों की तरफ से फ़िलहाल ऐसा कोई संकेत भी नहीं आया है कि वो किसानी मुद्दों पर लड़ने को तैयार हैं| परन्तु इसकी संभावना ज्यादा है कि यह जातियां जाटों द्वारा किसानी मुद्दों पर आगे बढ़ने की इशारा मिलने वाली भाषा का इंतज़ार कर रही हों|

यह तो तय है कि चाहे कोई जाटों से कितना ही चिढ़ता रहे और कोई कितना ही कुछ कह ले; परन्तु उत्तरी भारत में किसानी मुद्दों पर जब जब कोई क्रांति या आवाज उठी; जाट सर्वदा से उसका अग्रमुख रहे हैं| कोई भी किसी अन्य किसान जाति का नेता अपने झूठे अहम् की तृप्ति हेतु कितना ही जाटों से किसान जातियों को तोड़ने के प्रयास कर ले, परन्तु किसान का हित जिस दिन चाहेगा; बिना जाट सोच ही नहीं पायेगा| और यह बात जाट के अलावा अन्य किसान जातियों को भी सोचनी होगी कि अपने जातिगत नेताओं के झूठे दम्भ पालने हेतु अपने किसानी हक यूँ ही बलि चढ़ाते रहोगे या इन नेताओं को यह भी कहोगे कि अगर किसान के भले की बात करके, सब किसान जातियों को साथ नहीं उठाते हो तो घर बैठो; कौम की आर्थिक बदहाली की कीमत पर तुम्हें और कितना पालें?

दूसरी बात, बीजेपी जाटों को आरक्षण देगी तो 2019 के चुनावों के आसपास देगी, वो भी इलेक्शन से 2-3 महीने पहले और 2-3 महीने बाद तक| और फिर वही स्टेटस-कवो मेन्टेन कर दिया जायेगा जाट-आरक्षण का जो आज है|

मेरा मानना है कि जाटों को अब वर्तमान व्यवस्था के तहत आरक्षण मांगने की अपनी रणनीति में दोहरा बदलाव लाना होगा| फ़िलहाल जो आरक्षण मिल रहा है वो लेने की मुहीम के साथ-साथ, इसके समानांतर "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी!" की तर्ज पर अन्य समाजों-वर्गों के साथ 100% आरक्षण की मांग का नया मोर्चा अभी से खड़ा करना शुरू करना होगा| या कम-से-कम नीचे-नीच उसकी नींव रखनी शुरू करनी होगी, ताकि जाट बनाम नॉन-जाट रचने वालों को इस मुद्दे पर तमाम 100% आरक्षण चाहने वाले वर्गों को एकजुट कर जवाब दिया जा सके|

आरक्षण को 100 % वाली लाइन पर लाना ही होगा और अन्य किसानी जातियों के साथ किसान मुद्दों पर जुड़ना शुरू करना होगा; वर्ना अनाचारी व् किसान कौम के दुश्मन लोगों ने आरक्षण के नाम पर जाट कौम में ही कुछ ऐसे गुर्गे फिट कर रखे हैं जो आपको जाट-जाट में उलझाए रखेंगे| यह गुर्गे चंदे का हिसाब भी नहीं दे रहे और हिसाब मांगने पर त्योड़ी चढ़ा रहे हैं और घुर्रा भी रहे हैं| इनको आदेश है कि ना खुद दूसरे मुद्दे उठाएंगे और ना आपको उन मुद्दों को उठाने की ध्यान आने देंगे, जिससे जाट अन्य समाजों से तो जुड़ेगा ही; साथ ही जाट बनाम नॉन-जाट के मुद्दे को भी गौण करने में मदद करेगा|

और यही आरएसएस और बीजेपी चाहती है कि यह जाट-जाट का अलाप 2019 के चुनाव तक भी कायम रहे ताकि दूसरे समाज खुद भी इनसे डरते रहें और रहे-सही मीडिया मैनेजमेंट के माध्यम से डराए जाते रहें; और ऐसे जाट के अलावा सबके वोट अपनी झोली में ले 2019 की सरकार फिर से परवान चढ़वा ली जाए|

हरयाणा में किसान राजनीति का दम भरने वाली राजनैतिक पार्टियों को भी यह समझना होगा कि राजनैतिक पार्टी के उठाने से मुद्दे आमजन के नहीं बना करते| लेकिन अगर राजनैतिक पार्टियां अपने कैडर को जनता का रूप दे, जनता के बीच उतार और जनता के गैर-राजनैतिक संगठनों की पीठ थपथपा किसानी मुद्दों को उठवावें और फिर उस माहौल में खुद उनकी आवाज बनें तो रास्ता सरल होगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 27 May 2017

"आम आदमी पार्टी" भी दावों के बावजूद चंदे के हिसाब में जो ट्रांसपेरेंसी नहीं दिखा पाई, वो दिखाई "सर्वखाप पंचायत" ने!



फरवरी जाट आंदोलन 2016 के पीड़ितों की मदद हेतु "जाट सर्वखाप" ने ट्रस्ट बना कर जो "4 करोड़ 59 लाख" रूपये (राउंड फिगर, डिटेल्स देखें सलंगित वेबपेज पर) चंदा एकत्रित किया था, व् इसके अतिरिक्त ज्ञात सूत्रों से जो कुल "12 करोड़ 91 लाख रूपये" (राउंड फिगर, डिटेल्स देखें सलंगित वेबपेज पर) चंदा आया; 26 मई 2017 को रोहतक में प्रेस कांफ्रेंस कर उसकी "पाई-पाई का हिसाब" समाज के समक्ष रख; अपनी उस सदियों पुरानी नि:स्वार्थ सेवा व् समाज के प्रति निष्ठां और जवाबदेही की छवि को पेश किया जो अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी तक में दावों के बावजूद देखने को नहीं मिली|

खाप-चौधरियों की मुख्य भूमिका वाले “जाट-समाज राहत कोष ट्रस्ट” का यह सम्पूर्ण हिसाब-किताब देने का कुलीन कार्य इस बात का फिर से साक्षी बन गया कि क्यों खापें सदियों से लगातार आज भी क्यों वाजिब हैं|

इस चंदे के बैंक अकाउंट, CA की ऑडिट रिपोर्ट्स, चंदा आवंटन की वर्गीकृत रिपोर्ट्स समेत तमाम रोचक तथ्य देखें इस लिंक से: http://www.khapland.in/khaplogy/jsrkt-donation-report/

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Sunday, 21 May 2017

यह गहनता से समझने की बात है कि भारत में दो तरह की जमींदारियां होती आई हैं!

एक सामंती जमींदारी और दूसरी मेहनती जमींदारी|

सामंती जमींदारी यानी जो खुद खेत में काम नहीं करते, परन्तु खेत के किनारे या हवेली के अटारे खड़े हो सिर्फ आदेशों के जरिये ओबीसी, दलित, महा-दलित मजदूरों से खेती करवाते आये हैं| यह जमींदारी बिहार-बंगाल-उड़ीसा-पूर्वी यूपी से ले मध्य-दक्षिण व् पश्चिम भारत तक भी रही है और आज भी है|

दूसरे रहे हैं मेहनती जमींदार यानि वो जो खेत में मजदूर के साथ खुद भी खटते रहे हैं| यह जमींदारी मुख्यत: पंजाब-हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-उत्तराखंड व् उत्तरी राजस्थान के क्षेत्रों में पाई जाती है|

दोनों में समानता कुछ नहीं सिवाय इसके कि जमीन के मालिक होते हैं| हाँ, असमानताएं इतनी है कि गिनने चलो तो साफ़ स्पष्ट समझ आ जायेगा कि मेहनती जमींदारी वाली खापलैंड की धरती, बाकी के भारत की धरती से ज्यादा समृद्ध-सम्पन्न-विकसित व् खुशहाल क्यों रही है|

नंबर एक अंतर: सामंती कभी दलित-मजदूर की अपने पर परछाई तक नहीं पड़ने देता| जबकि मेहनती जमींदार उसके साथ ना सिर्फ खेत में खटता है अपितु एक ही पेड़ के नीचे बैठ के खाना भी खाता है और एक ही बर्तन से पानी भी पीता रहा है| हाँ, कुछ एक अपवाद मेहनती जमींदारी में भी तब बन जाते हैं जब अगर जमींदार जातिवाद व् वर्णवाद की मानसिकता से ग्रसित हो तो|

नंबर दो अंतर: सामंती जमींदारों के एरिया नदियों-धरती के पानियों की भरमार होने पर भी कभी देश को अन्न देने वाले अग्रणी राज्य नहीं बन सके| लेकिन मेहनती जमींदारी क्षेत्र वाले दो-दो हरित-क्रांतियों से ले श्वेत क्रांति तक के धोतक रहे|

नंबर तीन अंतर: सामंती जमींदारी वाली धरती के दलित-महादलित-ओबीसी को बेसिक दिहाड़ी-मजदूरी वाली आजीविका कमाने हेतु भी मेहनती जमींदारों वाली धरती पर आना पड़ता है| जबकि मात्र बेसिक दिहाड़ी के लिए मेहनती जमींदारी की धरती का कोई मजदूर सामंती जमींदारी वाली धरती वालों के यहाँ नहीं जाता|

नंबर चार अंतर: सामंती जमींदारी का जमींदार हद से आगे तक मानसिक गुलाम प्रवृति का रहा है, इसलिए अपने नीचे गुलाम रखने की रीत चलाई| जबकि मेहनती जमींदारी का जमींदार सदियों से कच्चे-पक्के कॉन्ट्रैक्ट्स के तहत सीरी रखता आया है|

नंबर पांच अंतर: सामंती जमींदारी में दलित मजदूर को नए कपड़े तक पहनने से पहले दस बार सोचना पड़ता है| जबकि मेहनती जमींदारी वाली धरती पर दलितों तक के घर-मकान जमींदारों की टक्कर तक के होते आये हैं|

नंबर छह अंतर: सामंती जमींदारी में या तो बेहद गरीब हैं या बिलकुल अमीर| जबकि मेहनती जमींदारी की धरती पे गरीब-अमीर का अंतर सबसे कम रहा है|

नंबर सात अंतर: सामंती जमींदारी में दलित-मजदूर की बहु-बेटी अपनी बहु-बेटी नहीं मानी गई| जबकि मेहनती जमींदार की धरती पर दलित-स्वर्ण सब छत्तीस बिरादरी की बेटी पूरे गाम की बेटी मानी गई|

नंबर आठ अंतर: सामंती जमींदारी में ब्याहने गए गाम में अपने गाम की बेटी की मान करने की कोई रीत नहीं मिलती| जबकि मेहनती जमींदारी सिस्टम की धरती पर, जिस गाम में बारात जाती रही है, वहां उनकी 36 बिरादरी की बेटी की मान करके आने की रीत रही है|

नंबर नौ अंतर: सामंती जमींदारी में जमींदार खलिहान से अन्न अपने घर पहले ले जाता है और बाकियों का हिसाब बाद में करता है| जबकि मेहनती जमींदारी सिस्टम की धरती पर जमींदार खलिहान से ही लुहार-कुम्हार-नाई-खात्ती आदि का हिस्सा अलग करके तब अन्न घर ले जाता आया है|

नंबर दस अंतर: सामंती जमींदारी अधिनायकवाद पर चलती है, जबकि मेहनती जमींदारी लोकतांत्रिकता व् गणतन्त्रिकता के सिद्धांत पर|

नंबर ग्यारह और सबसे बड़ा अंतर: सामंती जमींदारी का जमींदार मजदूर के साथ नौकर-मालिक का रिश्ता रखता है| जबकि मेहनती जमींदारी का जमींदार मजदूर के साथ सीरी-साझी यानि पार्टनर्स का वर्किंग कल्चर रखता आया है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 20 May 2017

भारत के मुग़ल-अंग्रेज गुलामीकाल के वो ऐतिहासिक सुनहरे पन्ने जब भारतीय सिंह-सूरमों ने "दिल्ली" पर 5 बार विजय पताका फहराई!

1) सन 1753 में भरतपुर (ब्रज) के महाराजाधिराज अफलातून सूरजमल सुजान ने दिल्ली जीती! और ऐसी झनझनाती टंकार पर जीती कि कहावत चल निकली, "तीर चलें तलवार चलें, चलें कटारे इशारों तैं; अल्लाह मिया भी बचा नहीं सकदा जाट भरतपुर आळे तैं"!

2) सन 1757 में मराठाओं ने कमांडर रघुनाथ राव की अगुवाई में दिल्ली जीती|

3) सन 1764 में भरतपुर के ही महाराजा भारतेन्दु जवाहरमल ने दिल्ली जीती और मुग़ल राजकुमारी का हाथ नजराने में मिला परन्तु अपनी सेना के फ्रेंच कप्तान समरू को नजराने में दे दिया| हाँ, चित्तौड़गढ़ की महारानी पद्मावती के काल से अल्लाउद्दीन खिलजी द्वारा वहां के किले का उखाड़ कर लाया गया अष्टधातु का दरवाजा जो तब से अब तक दिल्ली लालकिले की शोभा बढ़ा रहा था, वह जरूर उखाड़ के भरतपुर ले गए| जो कि आज भी भरतपुर के दिल्ली दरवाजे की शोभा बढ़ा रहा है| यह जीत "जाटगर्दी" व् "दिल्ली की लूट" के नाम से भी जानी जाती है|

4) सन 1783 में सरदार बघेल सिंह धालीवाल ने दिल्ली को फत्तह किया! और दिल्ली में एक के बाद एक 7 गुरुद्वारे स्थापित किये|

5) सन 1834 में शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह संधावालिया ने शाहसूजा को हराकर उससे कोहिनूर हीरा नजराने के रुप में लिया और दिल्ली फतेह की !

क्योंकि लेख में जिक्र गुलामी काल में भारतियों द्वारा दिल्ली जीतने का था, इसलिए दिल्ली की जीत की तारीखों पर फोकस रखा गया| इसके अलावा जो सबसे मशहूर और विश्व सुर्ख़ियों में छाने वाली जीतें थी, वो थी भरतपुर में अंग्रेजों की एक के बाद एक 13 हारें| जो इतनी बुरी थी कि इधर भरतपुर में भरतपुर सेनाएं अंग्रेजों को मार पे मार मारे जा रही थी और उधर कलकत्ता में अंग्रेजन लेडीज अंग्रेज अफसरों व् सैनिकों की लाश पे आती लाशें देख कर इतनी रोई कि कहावत चल निकली, "लेडी अंग्रेजन रोवैं कलकक्ते में!"

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 19 May 2017

फिल्मों व् सीरियल्स में दिखाई जाने वाली कल्चर-मान-मान्यताओं पर चौपाल स्तर के विश्लेषण, समय की मांग है!

कोई कह रहा है कि संस्कृति-संस्कार बदल रहे हैं!
कोई कहता है हमारा समाज तेजी से बदल रहा है, जो कि बहुत खतरनाक है!
कोई इसको समय की मांग बता रहा है!
कोई इसी को आधुनिकता बता रहा है कि बदलने दो, यही बदलाव है!

इन प्रतिक्रियात्मक विचारों में कहीं बेसमझी स्वीकार्यता है, कहीं चिंता है, कहीं बेचैनी और कहीं उलझन|
कहीं लोग ऐसी प्रतिक्रियाएं देते वक्त संस्कृति-संस्कार और सामाजिक पहचान व् किरदार को मिक्स तो नहीं कर रहे? मुझे तो ऐसा ही लग रहा है|

क्योंकि संस्कृति-संस्कार-मान-मान्यताएं बदलती तो सदियों से चले आ रहे बाइबिल-कुरान-गीता-रामायण-महाभारत-गुरुग्रंथ आदि भी बदल गए होते, नहीं?

क्योंकि संस्कार-संस्कृति-मान-मान्यताएं बदलती तो सदियों से चले आ रहे चर्च-मस्जिद-मंदिर-गुरुद्वारे भी बदल गए होते, नहीं?

क्योंकि संस्कार-संस्कृति-मान-मान्यताएं बदलती तो मराठी-बंगाली-पंजाबी-गुजराती-मलयाली-उड़िया-बिहारी-पहाड़ी-सिंधी-पारसी-कन्नड़ी आदि सब सामाजिक समूह बदल चुके होते, नहीं?

मगर हाँ, इस बीच एक चीज जरूर बदल रही है, दरअसल कहूंगा कि कंफ्यूज हुई अनराहे पर खड़ी है| ऐसे अनराहे पर जो ना तो दोराहा है, ना तिराहा, ना चौराहा; असल में समझ ही नहीं आ रहा कि कितने राहा है?

इसके नाम पे आने से पहले इसकी समस्या पे बात करते हैं| समस्या हैं दो| एक तो यह कि यह हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-राजस्थान-पंजाब के तथाकथित मेजोरिटी धर्म वाले जमींदार के "के बिगड़े से", "देखी जागी", "यें भी आपणे ही सैं" वाले अभिमानी अतिविश्वासी स्वभाव की है| दूसरी बात में बड़ा उल्टा सिस्टम है| बाहर से आये हुए शरणार्थी, नौकरी-पेशा-व्यापारी वर्गों के साथ मिक्स होने की ललक बाहर से आये हुए लोगों से ज्यादा इन स्थानीय जमींदार वर्ग के लोगों को है| और इन स्थानियों में से जो शहर को निकल जाते हैं, उनके तो बाप रे कहने ही क्या| बाजे-बाजे तो ऐसे अहसास दिलाते हैं जैसे वो भी शरणार्थी ही यहाँ आये थे|

इस हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-राजस्थान-पंजाब क्षेत्र जिसको मोटे तौर खापलैंड भी कह देते हैं, इन लोगों को समझना होगा कि आप संस्कृति-संस्कार-मान-मान्यताओं से ज्यादा अपनी सामाजिक पहचान व् किरदार बदल ही नहीं रहे हैं; बल्कि खो रहे हैं, उसको घटा रहे हैं|

जैसे ईसाई एक धर्म है संस्कृति है, और उसमें कैथोलिक-प्रोटेस्टंट्स-ऑर्थोडॉक्स इसके सामाजिक समूह व् किरदार हैं| ऐसे ही हिन्दू एक धर्म है, इसमें सनातनी (मूर्तिपूजक), आर्यसमाजी (सन 1875 से पहले यह समूह मूर्तिपूजा-विमुख परन्तु मूर्ती-उपासक, जिसमें खापलैंड की जमींदार जातियां झंडबदार रही हैं) इसके सामाजिक समूह व् किरदार हैं| व् ऐसे ही अन्य समूह|

विश्व में कहीं भी चले जाइये, किसी भी देश-सभ्यता-धर्म-संस्कृति में; हर किसी के धर्म-कानून-कस्टम का निर्धारक जमींदार वर्ग रहा है| फ्रांस हो, इंग्लैंड हो, अमेरिका हो, इटली-स्पेन-जर्मनी-ऑस्ट्रेलिया-चीन कोई देश हो; हर जगह जमींदार वर्ग की पहचान ही धर्म-सभ्यता-संस्कृति का सोर्स होती है| व्यापार-धर्माधीस-भूमिहीन कहीं भी इन चीजों का निर्धारक नहीं मिलेगा|

बाहर भी क्यों देखना दिल्ली-एनसीआर-चंडीगढ़ जैसे शहरों में आन बसे मराठी-बंगाली-पंजाबी-गुजराती-मलयाली-उड़िया-बिहारी-पहाड़ी-सिंधी-पारसी-कन्नड़ी आदि में क्या छोड़ा किसी ने खुद को इन पहचानों के अनुसार कहना-कहलवाना-पहनना-खाना आदि? जबकि हरयाणवी यहां के स्थाई निवासी होने पर भी, इनसे मिक्स होने के चक्कर में अपनी पहचान दांव पे धरते जा रहे हैं|

दादा खेड़ा, बेमाता, चौपाल, खाप, गाम-गुहांड-गौत, जोत-ज्योत-टिक्का सब सुन्ना सा छोड़ दिया है; ऊपर वाले के रहमो कर्म पर? बावजूद इसके कि इनमें कोई खोट नहीं, बावजूद दुनिया की मानवता व् समरसता से भरपूर होने के?

मैंने तो जीवन में एक चीज देखी और बड़े अच्छे से समझी है| जमींदार चाहे तो धर्म को अपने अनुसार चला ले, व्यापार तक अपने अनुसार करवा ले| उदाहरण के तौर पर सिख धर्म देख लो, दस-के-दस गुरु व्यापारिक वर्ग के पिछोके से हुए; परन्तु वहां जमींदार की खोली खुलती है और उसी की बाँधी बंधती है| हाँ, व्यापार और जमींदार के रिश्ते पर इन लोगों को काम करना अभी बाकी है| इस्लाम धर्म देख लो, जमींदार वर्ग की खोली खुलती है और उसी की बाँधी बंधती है|

सदियों तक धूमिल चले हिन्दू धर्म में भी सन 1669 के गॉड-गोकुला जी की शहादत के बाद से इसके जमींदार की फिरकी ऐसी निकली कि खापलैंड पर बीसवीं सदी के अंत तक ना सिर्फ धर्म में अपितु व्यापार में भी इसी की खोली खुली और इसी की बाँधी बंधी| मैं इसको जमींदार वर्ग के आधुनिक युग का स्वर्णिम काल कहता हूँ|

और इसको हमें आगे भी जिन्दा-जवाबदेह-जोरदार रखना है तो बहुत लाजिमी है कि फिल्म-सीरियल्स में दिखाई जाने वाली कल्चर-मान-मान्यताओं पर चौपाल स्तर के विश्लेषण होवें| इन पर जवान-बच्चे-बूढ़े-महिला-पुरुषों के साथ बैठ के चिंतन-मनन करने होंगे| जमींदार वर्ग के समूहों की जितनी भी पत्र-पत्रिकाएं निकलती हैं उनमें इन पर विशेष कॉलम-सेक्शंस बना के सीरीज में इन फिल्मों-सीरियलों के एक-एक एपिसोड के विश्लेषण छापने होंगे| जो कि आज के दिन 99% पत्रिकाओं से गायब हैं| जबकि मैं-स्ट्रीम के अख़बार-पत्रिकाएं इनसे सम्भंधित विशेष कॉलम रखते हैं|

और इन विश्लेषणों में इनको अपनी स्थानीय संस्कृति-सभ्यता की मान-मान्यताओं के समक्ष रख तुलनात्मकताएँ पेश करनी होंगी| ताकि आपकी युवा पीढ़ी अपने आपको अपनी जड़ों से सटीकता से सहज बैठा सके| फिल्म-सीरियलों में जो आता है, उसमें और अपने वाले की वास्तविकता की सच्चाई जान्ने के साथ, कौनसा बेहतर है यह पूरी विश्वसनीयता से सेट कर सके| और अपने हरयाणवी होने की बजहों में गर्व-गौरव-गरिमा सब समझ सके| मैनेजमेंट की परिभाषा में बोले तो बेंचमार्किंग करनी होगी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 16 May 2017

जमींदार जागरूकता के 30 सूत्र!

ताकि लोकतान्त्रिक सामाजिकता बची रहे!

(01) जमींदार एक हों।
(02) दादा खेड़ा (उर्फ़ दादा भैया, ग्राम खेड़ा) को अपना नायक मानें।
(03) छोटे छोटे संगठनों के जमींदार कोष बनें।
(04) कोष से गरीब जमींदारों की मदद हो।
(05) जमींदार कोई न कोई तकनीक सीखें।
(06) जमींदार अधिकारी, नेता, उद्योगपति कानून के अंदर जमींदार की मदद को प्राथमिकता दें।
(07) ढोंग-मूढ़मढ़िता-पाखंड बढ़ाने वाली चीजों से जमींदार का पतन हुआ है, इसलिए इनको बढ़ावा देने की अपेक्षा इनके सामने स्कूल-कॉलेज-चौपाल-परस खड़ी करें|
(08) पढ़े लिखे जमींदार, ढोंग-पाखंड की समस्त थ्योरियों को ध्वस्त करें।
(09) अस्पृश्यता बिलकुल न रखें, समाज को वर्ण व् जाति में बांटने वालों से उचित दूरी बना कर चलें।
(10) जमींदार व् जमींदार का वंशज होने पर गर्व करें।
(11) सभी जमींदार अपने नाम में अपना गौत गर्व से लिखें।
(12) जमींदार, जमींदार की निंदा कभी न करे। यदि कोई करता है, तो तार्किक विरोध करें।
(13) "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी" नियम के तहत 100% आरक्षण लागू करवाने हेतु मिलकर आंदोलन चलाएं।
(14) जहाँ भी दादा खेड़ा, बेमाता, खाप जैसी जमींदारों की तमाम लोकतान्त्रिक प्रणालियों का विरोध या आलोचना हो तो तार्किक व् तुलनात्मक मुकाबला करें।
(15) अपनी मान-मान्यताओं व् खाप यौद्धेयों का अपमान बिलकुल सहन न करें।
(16) सर छोटूराम व् अन्य तमाम जमींदारों के मसीहाई नेताओं के जमींदारों के कल्याण हेतु बनाये कानूनों को अपना गौरव ग्रंथ मानें व बच्चों को अवश्य पढ़ाएं। ऐसे तमाम कानूनों को एक पुस्तक का रूप दे के, उस पुस्तक को "जमींदार-सहिंता" के नाम से अपने पास रखें|
(17) इतिहास के जमींदार नायकों व् खाप यौद्धेयों पर शोध पूर्ण लेख व् पुस्तकें लिखी जाएँ।
(18) जमींदार पहले बनें, कोई भी धर्मी बाद में! शहरी जमींदार वंशजों को भी इस बात के तमाम महत्व बताएं!
(19) अगर किसी भी धर्म-जाति के नाम पर बनी कोई संस्था, जमींदार जमात का भला नहीं करती है तो उसको त्याग दें| और अपना जमींदारी सिद्धांत अपनाएँ।
(20) सभी जमींदार प्रतिदिन दादा खेड़ा व् चौपाल की ओर जाएँ व् इनकी इमारतों को बनाये रखने, मरम्मत व नवनिर्माण हेतु यथाशक्ति दान करें।
(21) संगठित होकर रहें| किसी जमींदार पर संकट आने पर मिलकर मुकाबला करें।
(22) प्राचीन व आधुनिक शिक्षा प्राप्त करें।
(23) कैरियर पर अधिक ध्यान दें। जमींदारी से संबंधित तमाम व्यापारों में उतरिये!
(24) जीविका के लिए जो भी काम मिले, दादा खेड़ा का नाम लेकर करें।
(25) जमींदार-पुरखों में आस्था रखें!
(26) नित्यकर्म मे स्वाध्याय को सम्मिलित कीजिये!
(27) नारी का सम्मान व् यथासम्भव बराबरी के लिये संकल्पित होईये! आसपास का माहौल नारी को भयमुक्त जीवन देने वाला बनाईये!
(28) जमींदार किसी भी हालत मे हो उसका सम्मान एवं उसकी उन्नति के लिये प्रयास कीजिये!
(29) जमींदार के दुश्मन वर्गों से जमीन व् फसल बचाने के यथोचित सक्रिय (Proactive) मार्ग अपना कर चलिए!
(30) जमींदार एक जाति-वर्ण रहित सोशल थ्योरी है, इसको किसी भी प्रकार की सामन्तवादिता से बचा के चलिए!


जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 13 May 2017

यह कैसे भूमंडल के विजेता हैं जो भारत से बाहर राम-कृष्ण-परशुराम का नाम लेने से भी हिचकिचाते हैं?

मोदी ने लंदन में अपने अभिभाषण में भारत को "राम या कृष्ण" की बजाये "बुद्ध" का देश बोला, मैंने उसको अ ब स द वजहें दे के स्वीकार कर लिया; परन्तु श्रीलंका में भी भारत को "बुद्ध" का ही देश बोला, क्यों भाई "राम का देश" बोलने में रावण से डर लगा क्या? रावण का डर था तो कृष्ण का बोल देते, परन्तु यह क्या जहाँ जाते हैं "बुद्ध" का देश? जबकि घर में बुद्ध को मानने वालों को आरएसएस अपना सबसे बड़ा दुश्मन बताती है?

सीख लो लोगो इनसे कुछ कि दुश्मन का नाम ले के भी कैसे पब्लिसिटी की रोटियां सेंकी जा सकती हैं| कैसे दुश्मन की खूबी को अपने फायदे के लिए बेचा जाता है| दुश्मन से साम्प्रदायिक दुश्मनी निभाते हैं, परन्तु जहां दुश्मन की रेपुटेशन से आर्थिक या रेप्युटेशनल लाभ दिखे तो उसी दुश्मन को अपना बताने से परहेज नहीं करते| आखिरकार यही यथार्थ है आर्थिक लाभ व् रेपुटेशन का|

परन्तु मुझे अफ़सोस तो यह है कि हजारों वर्ष पुराने राम-कृष्ण को यह इतना भी बड़ा नहीं मानते कि यह बुद्ध की जगह उनका नाम ले के यही आर्थिक लाभ व् रेपुटेशन कमा सकें? क्या इनके नाम आगे ना करना इनकी हीन भावना तो नहीं? यह कैसे भूमंडल के विजेता होने के दावे करते रहते हैं इतिहास में, जबकि यह राम-कृष्ण या परशुराम का नाम भारत से बाहर लेने से भी हिचकिचाते हैं?

वैसे "बुद्ध" के अलावा भारत को किसी दूसरे अन्य व्यक्ति का देश कहने की मोदी हिम्मत कर पाए हैं तो वह हैं मुरसान रियासत के जाट नरेश राजा महेंद्र प्रताप जी| जब मोदी अफ़ग़ानिस्तान संसद का उद्घाटन करने गए थे तो राजा जी का नाम बड़े गर्व से लिए थे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

मुलायम सिंह यादव को जाटों से उनकी नफरत ले डूबी!

आईये समझें कैसे?

मुलायम सिंह यादव पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को ना सिर्फ अपना राजनैतिक गुरु मानते हैं अपितु खुद को चौधरी साहब का उत्तराधिकारी भी बताते हैं|

परन्तु चौधरी साहब के दिए राजनैतिक मूलमंत्र मजगर यानी म-अजगर + दलित + पिछड़ा ( मजगर यानी मुस्लिम-अहीर-जाट-गुज्जर-राजपूत व् दलित) से इन्होनें आते ही ज को अलग करने की राजनीति खेली| और इसकी शुरुवात इन्होनें रक्षामंत्री रहते हुए "जाट-रेजिमेण्ट के कैडर में छेड़छाड़ करके कर दी थी| 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगे तो अपने ही गुरु के मूलमंत्र वाले मजगर से म व् ज को फाड़ने की इन्होनें "अपने ही पैरों पे कुल्हाड़ी मारने वाली" प्रकाष्ठा ही कर दी थी|

भले ही बीजेपी ने यह लालच दे के यह दंगा करवाया था कि इससे जो धुर्वीकरण होगा उसका मुस्लिम वोट तुम ले लेना और हिन्दू वोट हम ले लेंगे| और हो गई इनके साथ "ना माया मिली ना राम वाली"| बीजेपी तो ऐसा काला कोयला है कि जिसके साथ दलाली में हाथ काले होवें ही होवें; हरयाणा में इनेलो और ताऊ देवीलाल व् चौधरी बंसीलाल के साथ क्या-क्या करती आई है बीजेपी उससे भी रिफरेन्स नहीं ली|

इनेलो वालो सावधान पब्लिकली ना सही, परन्तु अंदर खाते बीजेपी से क्या गलबहियाँ पा के चल रहे हो; हमको सब खबर है| अब भी दूर हट जाओ इनसे, वरना यह तुमको "कुत्ते को मार, बंजारा जैसे रोया था" उस तरिके से रोने लायक भी नहीं छोड़ेंगे| याद रखना, 1999-2004 वाली सरकार में इनेलों ने जो बीजेपी की वाट लगाई थी, उसको भूले नहीं हैं यह लोग; मौका मिलते ही गच्चा खा जाने वाला झटका देंगे, सो इनसे जरा सम्भल के|

खैर, आगे बढ़ते हैं| मुज़फ्फरनगर दंगे वाले झांसे में पड़ने से पहले अगर मुलायम की जगह लालू यादव होते तो जैसे बिहार में रथयात्रा के दौरान अडवाणी को जेल में डाल दिए थे, ऐसे बीजेपी के इस ऑफर को ठंडे बस्ते में डाल देते और मुज़फ्फरनगर में लालू यादव चिड़िया को भी पर नहीं मारने देते|

यहां यह याद रखें कि मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि जाटों ने इनको वोट नहीं दिए तो यह हारे; नहीं अपितु ज के बाद ग व् र भी इनसे टूट गया| और 2017 चुनाव में तो यह म को भी एक नहीं रख पाए| यानि खुद की पोलिटिकल स्ट्रेटेजी से जो a bad carpenter quarrels with own tools टाइप में इन्होनें खटबढ़ शुरू की थी, अंत में वही मुलायम सिंह यादव की राजनीति को लील गई|

और यही वजह है कि दंगों की डील से शुरू हुई दास्तां, अब पुरजोर डिमांड वाले स्टाइल में सहारनपुर-मेरठ में लाइव चल रही है| वो भी हिन्दू या मुस्लिम के बीच नहीं, बल्कि सतयुगी टाइप वाले हिन्दू स्वर्ण व् हिन्दू दलित के बीच|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

राह पनघट की अब इतनी सहज नहीं है गौरी!

पिछले हफ्ते भाजपा दफ्तर की एक वीडियो हाथ लगी थी, जिसमें ओबीसी के लोगों को राजपूतों से यह कह के जोड़ने का अभियान अभी से चलाया जा रहा है कि "देखो तुमको ओबीसी आरक्षण देने वाले प्रधानमंत्री वीपी सिंह एक राजपूत थे"|

और इधर इनेलो इतना तक कैश नहीं करवा पा रही है कि उस राजपूत प्रधानमंत्री के लिए कुर्सी को छोड़ अजगर धर्म निभाने वाला एक जाट यानि ताऊ देवीलाल थे| इन्होनें सर्वसमत्ति से सांसद-दल का नेता व् प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद भी, कुर्सी वीपी सिंह की ओर सरका दी थी| इनेलो वालो जाग जाओ और अपनी शक्तियों को पहचान लो|

और यह ओबीसी आरक्षण देने पीछे भी बड़ी रोचक कहानी है, पूरी पढ़नी है तो मेरा यह लेख पढ़िए कि कैसे इस ओबीसी आरक्षण की घोषणा ताऊ देवीलाल करने वाले थे, परन्तु मंडी-फंडी ने ताऊ जी से पहले वीपी सिंह जी से करवा दी| लेख - http://www.nidanaheights.com/choupalhn-ajgr-split.html

जाटों को यह बात भी आमजन में किसी तरह कैश करवानी होगी कि जिस मंडल कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर ओबीसी आरक्षण लागू हुआ था, उस मंडल कमीशन का गठन करने वाले पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह भी एक जाट ही थे| अगर कैश नहीं भी करवा पाओ, तो प्रतिद्व्न्दी राजनीति उसको अपने हित में कैश ना करवा ले (जो कि कोशिशों में लगी हुई है) इससे बचने के लिए आमजन में फैलाये तो जरूर रखनी होगी| और इस पॉइंट को तो हरयाणा में जो पार्टी चाहे कैश कर सकती है|

वरना राह पनघट की अब इतनी सहज नहीं है गौरी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 12 May 2017

सिद्धू गोत्र के जाट महाराजा रणजीत सिंह को सांसी राय की उपाधि क्यों मिली?

सांसी एक शराब निकालकर बेचने वाली जाती होती है,पंजाब और राजस्थान में बहोत बड़ी संख्या में है,अब सवाल ये उठता है कि सिद्धू गोत्र के जाट महाराजा रणजीत सिंह को सांसी राय की उपाधि क्यों मिली??कहीं उन्हें साहसी राय तो नही कहा गया??चलिये इतिहास में चलते है,17वी सदी में सूबाई राजा जिन्हें चौधरी कहा जाता था वो मुगलो को गद्दी से उतारने के लिए उत्सुक हो रहे थे उन्हें अपनी रियासत आज़ाद चाहिए थी ना कि टैक्स दे मुगलो को,सारा जाट एरिया इन चौधरियो के अंडर था, ओर एक चौधरी राजा को छोड़ कर सभी जाट थे,इन चौधराहट जागीरों को sikkhism से जोड़ने के लिए इन्हें मिसल कहा जाने लगा,उन दिनों पंजाब के सारे जाट सिख धर्म अपना चुके थे,पंजाब जो आज का पाकिस्तानी पंजाब और हरयाणा ओर हिमाचल ओर उत्तरी राजस्थान और जम्मू के क्षेत्र थे इनमे 12 सिख मिसल राज कर रही थी 12 में से सिर्फ 1 सांसी थे और बाकी 11 जाट थे,ये सारे चौधरी पंजाब पर हुकूमत करने के लिए आपस मे लड़ रहे थे,सांसी चुप चाप अपनी ताकत और अपना क्षेत्र बढ़ा रहे थे,पर इनसे गलती ये हुई कि इन्होंने जाट मिसल के क्षेत्र पर हमला कर दिया,कमजोर जाट मिसल की समझ मे आ गया कि बात काबू से बाहर हो गयी वो अपने से 10 गुना बड़ी फौज जिसमे 90% जाट्ट ओर 10% सांसी हो और जिन्हें मुगल पैसे देते हो उनको हराया नही जा सकता,तो ऐसे में इस मिसल के चौधरी ने सिद्धूओ से मदद मांगी क्योंकि इन्होंने सिद्धूओ को लड़की ब्याही हुई थी,उत्तरी पंजाब में दोनों फौज टकराई और सिद्धू और गिल इतनी बहादुरी से लड़े की क्षेत्र में एक भी सांसी को ज़िंदा नही छोड़ा,गिल गोत इतनी बहादुरी से लड़ा की उन्हें देख कर लोग शेर गिल कहने लगे,इनके 120 के जत्थे ने 1400 सांसी मार दिए,लड़ाई खत्म हुई तो इस लड़ाई से जीत कर आये हुए गिल जाट परीवारों को शेर गिल कहा जाने लगा और सिद्धूओ को सांसी राय, महाराजा रणजीत सिंह को सांसी राय इसलिए कहा गया कि इन्होंने पूरी तरह सांसियो को हराकर उनपर राज किया अपने बाप दादाओ की तरह,पर समय के साथ सांसी राय उपाधि छोटी हो कर सांसी रह गयी,आज सांसी जाटो का गोत्र है पर ये है वो सिद्धू जाट्ट ही जिन्होंने सांसियो को खत्म किया था,आज ऐसे बहोत गोत्र है जाटो के जो उपाधि है पर छोटे हो गए जैसे jatt rana से घट कर सिर्फ राणा रह गया,मलिक-ऐ-राजपूत से घट कर मलिक रह गया,अहीर रावत से घट कर रावत रह गया,इन उपाधियों में दूसरी जाति का नाम सिर्फ इसलिए है कि जाटो ने उन जातियो को हराया था ना कि ये जाट उन जातियो से बने है

Source: https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=1631784090182951&id=1070908336270532&pnref=story 

Tuesday, 9 May 2017

अंग्रेजों के लिए काल बन गया था बख्तावर जाट!

गुड़गांव, यहां पर आजादी का एक ऐसा महानायक भी पैदा भी हुआ है जो अंग्रेजी सेना और अधिकारियों के लिए काल बन गया था। देश की खातिर उन्होंने अपने पूरे परिवार को कुर्बान कर दिया। हालांकि उन्हें अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी पर लटका दिया था।

गांव झाड़सा के रहने वाले झाड़सा 360 के वर्तमान प्रधान महेंद्र सिंह ठाकरान के छोटे भाई राकेश सिंह ठाकरान ने कल मुलाकात के दौरान मुझे काफी जानकारी दी । उनके मुताबिक बख्तावर सिंह ठाकरान झाड़सा 360 के चौधरी थे। उस समय इस चौधरी को राजस्व अधिकारी का दर्जा प्राप्त था। झाड़सा कमिश्नरी थी।


चौधरी बख्तावर शुरू से ही अंग्रेजी हुकूमत की जड़ काटने में लगा था। 1857 के संग्राम के दौरान शहीद राजा नाहरसिंह वल्लभगढ़ की मार से डरकर दिल्ली से जब कुछ अंग्रेज अफसर भागकर गुड़गांव में छुपने आए तो बख्तावर सिंह ने करीब ढाई सौ अंग्रेजी सैनिकों और अधिकारियों को बंधक बना लिया। बख्तावर सिंह ने उन्हें वे तमाम यातनाएं दीं जो अंग्रेजी हुकूमत भारतीयों को देती थी। उसने सभी को मार गिराया।


संग्राम की आग जब ठंडी हुई तो अंग्रेजों ने बख्तावर सिंह को बंदी बना लिया। इससे पूर्व ही बख्तावर ने अपने परिवार को कहीं भेज दिया था, जो आज तक नहीं लौटे हैं। अंग्रेजी हुकूमत ने अंग्रेजी अधिकारियों को मारने के जुर्म में बख्तावर सिंह को आज जहां राजीव चौक बना हुआ है वहाँ पर फांसी पर लटका दिया था। बख्तावर के शव को भी अंग्रजों ने वहीं छोड़ दिया था। इस्लामपुर के ग्रामीणों ने उनका अंतिम संस्कार किया था।


जब इस घटना को गुलामी के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं कि बख्तावर सिंह अकेला ऐसा शख्स था जो सही मायने में इस क्षेत्र से आजादी का महानायक कहलाने लायक हैं।


बख्तावर सिंह को स्वतंत्रता के बाद सरकार ने पूरा सम्मान नही दिया। उनके नाम से बने 3 यादगारों को क्रमश: नेहरू चोंक ,इंदिरा चोंक और राजीव चोंक करने की बहुत बड़ी सरकारी कोशिस चली पर झाड़सा ओर इस्माइलपुर के ठाकरान जाटों ने लाठी जेली कुल्हाड़े ओर भाले लेकर सड़क पर बैठ गए । ग्रामीण जाटों ने तत्कालीन कांग्रेस सरकार के पिछवाडे पर झाड़ झाड़ कर जूते मारे ।


पर कहते है जनता ही असली सरकार होती है फिर भी तमाम विरोध के चलते एक स्थल को सरकार राजीव चोंक बनाने में सफल रही । जबकि ग्रामीणों के निरन्तर प्रदर्शन के चलते नेहरू चोंक वाली जगह को ठाकरान जाटों ने नेताजी सुभाष चौक बनवाकर ही दम लिया। इंदिरा चोंक कैंसल होकर वापस बख्तावरसिंह चोंक बनाया गया ।
इन्ही दो गावों झाड़सा ओर इस्माइलपुर के जाटों के हथियारो समेत किये गए विरोध के चलते उनके नाम से शहर में आज चौक है, सड़क है और झाड़सा गांव में चारों और उनके नाम अत्याधुनिक गेट बनवाए गए हैं।


सिर्फ झाड़सा 360 या गुड़गांव जिले ही नही चौधरी बख्तावरसिंह पर पूरी जाट नश्ल को गौरव है । असली इतिहास की खोज की कोशिसकर्ता आपका भाई रणधीर देशवाल


# जाट_गजट_पत्रिका