Saturday, 7 December 2019

पानीपत फिल्म पर मेरी पहली प्रतिक्रिया!

अपना अलग धर्म बना लो या सिखिज्म में चलो| ना हमें इनसे बहस करनी ना अपील ना मान-मनुवार| जाट हैं हम, राजपूत नहीं कि यह पंडे-पाखंडी जो बकवास काटेंगे हम सर झुकाकर सुनेंगे इनकी| अपने यह बहम दूर कर लें यह लोग| 1875 में "आर्य-समाज" स्थापित करके, उसकी गीता की भांति अपनी अलग पुस्तक "सत्यार्थ प्रकाश" बनाकर, उसके ग्यारहवें सम्मुल्लास में जब बार-बार जाट की "जाट जी" व् "जाट देवता" बोलकर स्तुति करी थी तो जाट इस धर्म में रुके थे, वरना कैथल-थानेसर-करनाल-सफीदों तक सिखिज्म में जा चुका था जाट| अगर यह लोग यह इतिहास भूल रहे हैं तो इनको फिर से यह समझाने और याद दिलाने का वक्त आ गया है| यूँ महाराजा सूरजमल का अपमान करेंगे फिल्मों में, जाट इतिहास की आन-शान को छेड़ेंगे-मरोड़ेंगे और हम फिर भी चुपचाप इनके साथ पड़े रहेंगे; नहीं कदापि नहीं| वही ऊपर वाली बात, जाट हैं हम राजपूत नहीं कि तुम पहले 562 रियासतें छीनी तो राजपूत चुप, लगातार दशकों तक  ठाकुर किरदार को फिल्मों में विलेन दिखाया तो राजपूत चुप; वह रहते होंगे, जाट नहीं रहेंगे| "जाट जी" व् "जाट देवता" कहकर, सम्मान देकर चाहे सदियों साथ रह लो; परन्तु हमारी अनख पर बैठ कर तो वही मेरी दादी वाली बात, "तभी ना मठ्ठे मिलेंगे तुम्हें"| यह संदेश इस फिल्म को बनाने वालों, फिल्म को फाइनेंस करने वालों और इसको दिखाना अलाउ करने वालों को सख्त लहजे में कन्वे कर दिया जाए सोशल मीडिया व् तमाम प्लेटफॉर्मों से| तभी इनकी अक्ल ठिकाने आएगी वरना यह झूठे-गपोड़ी अपनी बकवासों से बाज नहीं आएंगे|

बाकी पूरी फिल्म का एनालिसिस फुरसत में करूंगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 5 December 2019

समाज में देवदासी कल्चर उतारने की स्टेप-बाई-स्टेप स्ट्रेटेजी!


स्टेप 1 - जिस कल्चर में यह उतारनी हो पहले उसकी सबसे स्ट्रांग मान-मान्यताओं-एथिकल वैल्यूज-सोशल इंजीनियरिंग मॉडल पर प्रहार करो|
स्टेप 2 - नंगा साहित्य पढ़ने की आदत डालो, नंगा-फूहड़ नाच देखने की आदत तब तक डालो जब तक कि व्यभिचारी-मिथ्याचारी नहीं बन जाते|
स्टेप 3 - औरत में माँ-बेटी-बहन देखने की बजाये सिर्फ एक भोग्यवस्तु दिखे, इस स्तर तक टार्गेटेड समाज को तहस-नहस कर दो|
स्टेप 4 - लोगों को लॉजिक्स की बजाये कथाओं पर ज्यादा यकीन करना सिखाओ| दिमाग की बजाये आस्था पर चलना सिखाओ|
स्टेप 5 - धर्म-जाति-वर्ण के नाम पर बलात्कारियों का समर्थन करवाओ, उनके समर्थन में ज्ञापन दो, मार्चपास्ट करो| इतना कर दो कि कोई गैंगरेप में मरे या आग-तेजाब में फूंक दी जाए; बस सोसाइटी चूं ना करे; करे तो उसी को जेल में डाल दो जो चूं करे चाहे खुद आरोपी ही क्यों ना हो|
स्टेप 6 - फिर समाज के चुनिंदा टारगेट वर्गों जैसे कि ओबीसी-एससी/एसटी व् जहाँ कमजोर हो वहां किसान वर्ग तक की (जैसे साउथ इंडिया के मंदिरों में होती हैं) यौवन में कदम रख रही बेटियों को मंदिरों में देवदासी के नाम पर दान करने को दाम-दंड-भय के जरिये फाॅर्स करो|
स्टेप 7 - "सिंह ना सांड, गादड गए हांड" की तर्ज पर इन देवदासियों का भोग लगाओ और इनसे जो नाजायज औलादें पैदा होवें उनको "हरिजन" के नाम से बदनाम करो|

वह टार्गेटेड समाज हरयाणवी समाज है और पांच स्टेप तक यह स्ट्रेट्जी पहुँच चुकी है| छटा व् साँतवा स्टेप नहीं चाहते हो तो तुंगभद्रा से जाग लो| और अपनी वह खाप वाली सोशल इंजीनियरिंग व्यवस्था (जो राजनीति व् धर्मनीति से बिलकुल रिक्त होती थी) उसको दोबारा खड़ी कर लो|

वरना तो इसके आगे रोना-ही-रोना, यह इस स्ट्रेट्जी वाले तुम्हारे इनके ही द्वारा निर्धारित कर्मों में कटिबद्ध तौर से लिख चुके हैं| फिर फिरते रहना दूनो में सर मारते| तुम्हारे घरों से मर्जी-बेमर्जी "देवदासी" बनाने हेतु लड़किया उठाई जा रही होंगी, तुम्हारे ही किसी बगल वाले मंदिर के गर्भगृह में उसका भोग लगाया जा रहा होगा और तुम दिमाग व् दिल से नपुंसक उन अबलाओ की सिर्फ चीखें सुन पाओगे|

यह मत समझना कि इसमें सिर्फ तुम दोषी होवोगे, तुमसे ज्यादा वह आस्था में पागल हुई इनको पोषित करने वाली औरतें होंगी; जो फिर इसी को किस्मत व् कर्म मान के ढाँढस बंधवा कर शांत बैठा दी जाएँगी या बैठ जाएँगी|

और जिसको बहम हो इस स्ट्रेटजी की सच-झूठ बारे एक बार महाराष्ट्र-कर्नाटका व् आंध्र-तेलंगाना-उड़ीसा के उन मंदिरों में हो आना जिनके इर्दगिर्द येलम्माएं यानि देवदासियां पाई जाती हैं| इस स्ट्रेटजी की सच्चाई सांप की केंचुली की भांति खुद-ब-खुद उतर कर सामने आ जाएगी तुम्हारे|

नोट करके रख लेना: कभी किसी भी मठ-मंदिर-डेरे-अखाड़े से कोई बयान-निर्देश-सजा-आदेश नहीं आएगा बलात्कार व् फूहड़ता फैलाने वालों के खिलाफ; क्यों रहते हैं यह इन पर चुप आखिर? क्यों नहीं कभी कोई शंकराचार्य-महंत-कथावाचक-पुजारी-संत आगे बढ़कर यह बोलता, प्रवचन देता कि बलात्कारियों को सूली पे टांग दो या फांसी दे दो? धर्मनीति बनाने वाले होने का दम्भ भरते हैं यह समाज में| क्या इनकी धर्मनीति में बलात्कारियों व् फूहड़ता फ़ैलाने वालों के खिलाफ कुछ नहीं? आखिर क्यों मूक रहते हैं यह लोग? क्योंकि 90% यह खुद बलात्कारी कल्चर या देवदासी कल्चर के परोक्ष-प्रत्यक्ष पालक/समर्थक-पोषक हैं का आरोप तो क्या लगाऊं इन पर; परन्तु क्या इनकी ख़ामोशी चुभती नहीं आपको ऐसे मौको पर?


धर्म द्वारा समाज को संचालित करना मतलब बेलगाम घोड़े-झोटे द्वारा रथ-बुग्गी ले के चलना| समाज द्वारा समाज को संचालित करना यानि घोड़े-झोटे को लगाम में रख के उससे बुग्गी-रथ चलवाना| इसीलिए बलात्कार-गैंगरेप-एसिड अटैक जैसी घटनाओं पर धर्म वाले ना कोई मत रखते ना बयान ना निर्देश ना पब्लिक में आ के कहने को बलात्कारी आदि के लिए कोई सजा| इनको पता है ऐसा निर्देश दिया तो सबसे पहले सबसे ज्यादा तुम ही घलोगे इसमें| तो यह काम कौन करती थी "खाप" जैसी संस्थाएं, जिनको इन्हीं तथाकथित धर्म-ढकोसले वालों की कहबत में आप-हम बिसराये चल रहे हैं| दूसरा खाप की ऐसी हालत के लिए खाप वालों की राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं भी जिम्मेदार हैं| हैदराबाद प्रियंका रेप-हत्या कांड, निर्भया काण्ड, उन्नाव काण्ड, कठुआ काण्ड ऐसे काण्ड हो चुके जो बिना सामाजिक संथाओं के थमेंगे ही नहीं, चाहे जितने धार्मिक बन लो| बल्कि धर्म की आड़ में तो हिन्दू-मुस्लिम करके, तुम-हम अपराध-अपराधी तय करने लगते हैं| हिन्दू है तो अपराधी नहीं, मुस्लिम है तो अपराधी या इसका वाइस-वरसा| अगर इस बीमार मानसिकता से छुटकारा चाहिए तो खाप वालों को चाहिए कि खापों को दोबारा खड़ा करें परन्तु अबकी बार धर्म व् राजनीति से आज़ाद व् दूर रहते-रखते हुए; जैसे हमारे पुरखे रखते थे| वरना वही बात है, पांच स्टेप्स आ लिए, 2 और बाद तुम्हारे-हमारे घरों से बेटियाँ उठाई भी जाएँगी और दूषित भी की जाएँगी और कुछ नहीं कर पाओगे| कुछ नहीं कर पाओगे चाहे तो जितने धार्मिक बन लेना और जितने घंटे-खड़ताल बजा लेना|

सोच लो हरयाणवी बीर-मर्दो किस काली स्याह वाली काली कोठरी की तरफ धके जा रहे हो| ऐसी-ऐसी भीतरले में लगने वाली कड़वी बातें मैं कभी-कभी ही लिखता हूँ, परन्तु जब लिखता हूँ कलम तोड़ देने की हद तक लिखता हूँ| मेरी तो कलम टूट चुकी आज, तुम्हारी तुंगभद्रा टूटी कि नहीं, देखते हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 4 December 2019

"पापा की परी" से "कौर" वाले कल्चर पर वापिस आ जाओ!

याद करो वह कातक-नहाने जाने के जमाने, घणी दूर घणे पीछे ना गए वो दिन| अपनी बुआ-भाहणों से ही पूछ लो; डोगे-खंडके-धोती-कुडते-जूती वाले मर्दों व् दामण-चूंडा-चुंदड़ी वाली लुगाइओं का वह कल्चर जिसमें सुबह के 4 बजे गाम की छोरियों-सुवासनों-कोरों के टोल-के-टोल गाम के कुए-जोहड़ों पर नहाने जाया करते और क्या मजाल कि एक लोछर-लफंगा भी उधर पैड तक मार ज्याता? असल तो 99% मर्द इतने अनुशासित होते थे बुड्ढे-बडेरों द्वारा कि कोई देर-सवेर खेत से पानी लगा के लौट भी रहा होता तो वह रास्ते छोड़ के आया करते जिन रास्तों गाम की कौरें नहाया करती अन्यथा तो खाप व् पंचायतें खाल उतार लिया करती गुस्ताखी करने वाले की| फैसले भी एक सिटींग में ही दिया करते, ताबड़-तोड़ दूध का दूध और पानी का पानी करके; कोई तारीख-पे-तारीख सिस्टम नहीं था|

और आज, आज तुम्हारी अपने कल्चर के प्रति नीरसता व् उदासीनता ने वह आलम बना दिए हैं कि 15-20 साल के नवयुवा पीढ़ी के बालकों को तो यह बात पढ़ना ही सपना लगती होगी कि क्या ऐसा भी होता था हमारे ही यहाँ वह भी मात्र एक-डेड पीढ़ी पहले ही? होता था युवाओ, बैठो अपने बाप-दादे, माँ-दादियों के पास और जानो इन बातों बारे कि वह क्या तरीके थे, वह क्या सिस्टम थे; जो इंसान में इतना संयम, इतनी शर्म, इतनी हया भरते थे कि पता होते हुए भी कि इस वक्त "गाम की कौरें जोहड़-कुओं पर नहा रही होंगी" तो उधर नहीं जाना; जबकि आज वालों को ऐसा होता पता लग जाए तो 90% का वहीँ जमघट लग जाए जैसे हालातों पर आ लिए तुम उन डोगे-खंडके-चूंडा-चुंदड़ी वालियों के वंश|

और यह ज्ञान किसी कथावाचक किसी ग्रंथ या किसी इन्हीं से संबंधित फिल्म या टीवी सीरियल में नहीं मिलेगा, मिलेगा तो अपने बडेरों के पास बैठ उनको सुनने से मिलेगा|

सोचो इस पर, कि किधर जा रहे हो?

"पापा की परी" बना के बेटियाँ पालने से उक्ता तो गए होंगे ना यह सब देख के? तो आ जाओ उसी ढर्रे पर जिसपे चल के थारी-म्हारी नाम में "कौर" टाइटल वाली बुआ-भाहँण दुष्ट-लंगवाड़े टाइप लोछरों की "डटिए रे मेरा तल्लाकी, देखूं कुणसी का दूध पिया होया सै" टाइप की दहाड़ में अगले का गोबर सा खिंडा दिया करती| जिगरा भरो जिगरा इनमें, जैसे हर कौर में होता था; फिकरा नहीं| याद है वह दादी समाकौर गठवाली, जिसने पूरी कौम हिला दी थी और उसकी अपील पर ही गठवालों के आह्वान पर सर्वखाप ने "कलानौर रियासत का किला ही मलियामेट कर दिया था"? किधर है वह समाज जो बेटी की एक आवाज पर रियासत-की-रियासत तोड़ फेंकता था, आज तो वैसे भी तुम्हारी ही चुनी हुई सरकार है; रियासतें तो फिर भी थोंपी हुई भी कही जा सकें परन्तु यह सरकार; यह तो तुमने ही चुनी हैं ना?

पर नहीं, शायद नहीं ही उठोगे क्योंकि तुमने खुद को व् अपने बच्चों को इन टीवी व् फिल्मों की काल्पनिक कल्पनाओं वाली मैथोलॉजिकल स्टोरीज में ढाल के "बेचारे लाचार परी व् परे" बनना सीख लिया है; सीख लिया है कि उदारवादी जमींदारी का कल्चर सबसे खड़ूस व् खराब होता है, इसलिए इससे दूर रहो चाहे खुद इसी से ही क्यों ना हो|

यह छुईमुई सी बना के पालने वाले कल्चर ना हमें फाबे और ना फबैं| यह देवी और परी मंदरों में धरी, दीवारों पर टंगी या टीवी सीरियल्स में चमकती सुथरी लागैं; गलियों में उतरते ही "कौर" बने बिना गुजारा नहीं|

और दूसरा इन लोछरों को सिंह बनाओ सिंह, "ओटडा कूद बन्दडे नहीं"|

और खुद भी आम-जिंदगी में ना सही तो तीज-त्योहारों-ब्याह-बारातों के मौकों पर ही सही परन्तु उन डेठे पुरखों वाले डोगे-खंडके-धोती-कुडते-जूती व् दामण-चूंडा-चुंदड़ी बाँध लिया करो, पहर लिया करो; ताकि बालकों को यह पता लगता रहे कि तुम्हारा असली-निग्र पिछोका क्या रहा है| जब बंगाली-बिहारी-पंजाबी-मराठी-तमिल-तेलुगु सब अपने ट्रेडिशनल बाणे ओढ़ैं-पहरें ऐसे मौकों पर तो थमने के मौत आ रही सै अक थम हरयाणवी कीमें न्यारे उतरे हो ऊपर तैं?

जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर!

गाम-गौत-गुहांड में छत्तीस-बिरादरी व् हर धर्म की बहन-बेटी-बुआ सबकी बहन-बेटी-बुआ होती है के संयम-शर्म-शालीनता भरे कल्चर पर वापिस आ जाओ समय रहते:

वरना फ़िलहाल तो हालात इतने बिगड़े हैं कि "ओटडे कूद बंदड़ों" के "घरवालों को नींद की गोली देने वाली बंदड़ियों" के साथ किस्सों पर हँसते हो, "अच्छा हुआ सालों के यहाँ" की फील ले के दम सा भरते हो या खामोश रहते हो| परन्तु यह ख़ामोशी और ज्यादा चली तो कल को बढ़ते-बढ़ते यह बातें इतनी बढ़ जाएँगी कि "हैदराबाद वाली प्रियंका वाला काण्ड" व् "दिल्ली वाला निर्भया काण्ड" उन चौधरियों के गली-मोहल्लों के भी हर चौक-चौराहों के किस्से होंगे जो बहन-बेटी-बुआ की इज्जत करते वक्त ना कभी धर्म देखते थे, ना वर्ण और ना जाति| एक वह पुरख थे जो 36 बिरादरी की गाम-गौत-गुहांड की बुआ-बहन-बेटी सबकी बुआ-बहन-बेटी के कालजयी नियम बनाते थे उनको पालते थे और एक हम-तुम हैं जिनको पड़ोस में क्या अच्छा या बुरा हो रहा है पर या तो ख़ामोशी ओढ़े होते हो या अगले का सही बुरा हुआ पे बदला सा उतरने की फील लेते हो| ऐसे कल्चर रेफुजियों-शरणार्थियों के होते हैं, खानाबदोशों के होते हैं; ठहरे हुए कुणबे-ठोलों के नहीं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 3 December 2019

Wow! its amazing to see that विवाह-कार्ड में "जय दादा खेड़ा" व् "जय जाट पुरख" लिखवाया है!

Wow! its amazing to see that विवाह-कार्ड में "जय दादा खेड़ा" व् "जय जाट पुरख" लिखवाया है| "हमारे पुरखों की असीम कृपा" लिखवाया है| संग में अपने स्वर्गीय दादा जी का फोटो लगवाया है|

खुशाल व् उनकी भावी पत्नी नेहा को नवजीवन की अग्रिम बधाइयाँ|

संस्कृत के साथ-साथ फेरे हरयाणवी में भी हो जाएं तो "सोने पे सुहागे" वाली बात हो जाए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक




इंटेल्लेक्टुअल्स की डिक्शनरी में किसी का मजाक उड़ाना या व्यंग्य करना "अपमान करना कहलाता है", "अपनी जलन-द्वेष का प्रदर्शन करना कहलाता है"!

मजाक उड़ाना या व्यंग्य करना सिखाना, बंदे में सीरियसनेस को खत्म करने का सबसे अचूक अस्त्र होता है| और इसका सहारा लेने वाला अव्वल दर्जे का शातिर, आपका छुपा दुश्मन व् दूरगामी नुकसान करने वाला होता है| अगर किसी को पथभृष्ट करना हो या सीरियसनेस की पटरी से उतारना हो तो उनको मजाक उड़ाना, व्यंग्य करना आदि सीखा दो; बाकी सीखने वाला खुद ही खत्म हो जायेगा|

इसीलिए भूल कर भी फंडी-पाखंडी के ढोंग-पाखंड-आडंबर का मजाक या उपहास मत उड़ाइये, अपितु उस पर फंडी को चेताने, उस रास्ते से हटने व् ढोंग-पाखंड को खत्म करने हेतु हमला कीजिये|

अन्यथा आर्य-समाज का हाल देख रहे हैं ना? तमाम खूबियाँ होने के बाद भी आर्य-समाज ने अपने प्रचारों में फंडी-पाखंडी का उपहास उड़ाना ही सबसे ज्यादा सिखाया इसके अनुयायिओं को| और इसी के चलते "मूर्ती-पूजा नहीं करने वालों" के यहाँ कब "मूर्ती-पूजा करने वाले" घुस गए, खुद आर्य-समाजियों को समझ नहीं आ रही| आर्य-समाज को आगे सरवाईव करना है तो अपनी यह भूल ठीक करनी होगी| व् दूसरों के उपहास उड़ाने की अपेक्षा खुद के "मूर्ती-पूजा रहित धर्म" व् "ढोंग-पाखंड-आडंबर से रहित" जैसे विधानों को तल्लीनता से लागू करना होगा| ईसाई हो, सिख हो, जैन हो, मुस्लिम हो; कभी देखे हैं इनके प्रचारक दूसरों के कर्म-कांडों-पाखंडों का मजाक या उपहास उड़ाते हुए? नहीं देखे, क्योंकि यह जानते हैं कि उनके उपहास उड़ाने में घुसे तो अपनी सीरियसनेस खो बैठेंगे|

यह सुधरते हैं तो ठीक हैं, वरना लाजिमी है कि आर्य-समाजी पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले लोग, अपने मूर्ती-पूजा नहीं करने व् ढोंग-पाखंड-आडंबर को नहीं पालने के सिद्धांत लेकर "आर्य समाज पार्ट 2" या कुछ और बना लें| क्योंकि यह आदत आपकी सारी सामाजिक सीरियसनेस व् उसकी क्रेडिबिलिटी खा रही है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 30 November 2019

मेरी गुड़िया - इस वीडियो में कितनी बड़ी, कितनी मेच्योर, कितनी वैचारिक हो गई है; प्राउड ऑफ़ यू लिटिल सिस्टर!


एमबीए सेकंड ईयर दिल्ली - कॉलेज की कैंटीन में बैठ के शायद कोल्ड ड्रिंक्स पी रहा था, एक पतली-साँवली सी लड़की (यानि यह इस वीडियो वाली मेरी गुड़िया), कुछ-कुछ सहमी हुई सी मेरे टेबल के पास आ के दो मिनट के लिए खड़ी हुई, फिर मुड़ दूर गई, फिर वापिस आई और हिम्मत सी जुटा के बोली, "आप फूल कुमार सर" हैं?

मैं: हाँ!

लड़की (इससे आगे गुड़िया): हमें आपसे कुछ बात करनी है!

मैं: हाँ, कहो (साथ वाली कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए बैठने की कही)

गुड़िया: हम यहाँ आपके साथ लगते कैंपस में ग्रेजुएशन फर्स्ट ईयर में आये हैं परन्तु हॉस्टल हमें मास्टर्स वालों के साथ मिला हुआ है| हमारी दिक्कत यह है कि ग्रेजुएशन-पोस्ट-ग्रेजुएशन जिसको देखो जहाँ देखो सबको हमारी रैगिंग करना होता है| मेस में, कैंटीन में, क्लास में, हॉस्टल में, पार्क में जहाँ दिखे कोई भी सीनियर सर या मैडम बुला के रैगिंग लेना शुरू कर देते हैं| हम इनसे बहुत तंग आ चुके हैं| एक तो वैसे ही इतनी दूर आये हैं, ना हमारा यहाँ मन लगा हुआ और ऊपर से यह जब देखो तब रैगिंग| दिन में सर-मैडम दोनों नहीं छोड़ते, रात को हॉस्टल में मैडमें नहीं छोड़ती| हम भाग जायेंगे यहाँ से वापिस अपने घर|

मैं प्रश्नात्मक आँखें लिए लड़की की तरफ देखता रहता हूँ?

गुड़िया समझ गई कि असली बात तो कही ही नहीं|

फिर बोली: हमको आपके पास कुछ सीनियर मैडमों ने भेजा है| बोले कि "ग्लोबल बिज़नेस डिपार्टमेंट के फूल कुमार से जा के मिलो"|

मैं: ओके, तो?

गुड़िया: आपको मेरी मदद करनी होगी, रैगिंग से पीछा छुडवाइये मेरा| मैडम बता रही थी कि आप हमारी मदद करेंगे और आपने मदद की तो हमें कोई कुछ नहीं कहेगा|

मैं: मैं क्या मदद कर सकता हूँ, रैगिंग वाले तो मैनेजमेंट के काबू नहीं आते, इवन एंटी-रैगिंग स्क्वाड वालों तक को ठेंगा दिखा के रैगिंग करते हैं| मैं तो एंटी-रैगिंग टीम में भी नहीं हूँ जो इसी नाते किसी को रोक सकूं? और वैसे भी यहाँ मेरे से पावरफुल बहुत हैं; मुझे नहीं लगता कि मेरी कोई मदद तुम्हारे काम आएगी?

गुड़िया: मैडम-लोगों ने सब बता दिया है हमको| यहाँ बहुत से तो फुकरे वाले पावरफुल हैं जबकि आपको सबसे भरोसे वाला बताया है| अपनी पे आते हैं तो सलीके से रखते हुए मैनेजमेंट - प्रेजिडेंट सर - वाइस-प्रेजिडेंट सर सबको अपनी बात पर कन्विंस कर लेते हैं, और जो आपसे कन्विंस नहीं होता उसको फिर आप सुनते भी नहीं और फिर भी लो-प्रोफाइल में रहते हैं| जो रैगिंग रोकने वालों के काबू नहीं आते, मैनेजमेंट उनको काबू करने के लिए आपकी हेल्प लेती है| अब आपको हमारी भी मदद करनी होगी|


मैं: काफी रिसर्च करके आई हो मेरे बारे? मदद का गलत फायदा तो नहीं उठाओगी? पता लगा मेरा नाम ले के तुम ही शरारतें करने लग गई? 

गुड़िया: थोड़ी देर कन्फ्यूज्ड सी रही, फिर - सर, हम बहुत शरीफ घर से हैं; आपका भरोसा नहीं तोड़ेंगे|

मैं: ठीक है एक तो आज से मुझे सर नहीं भाई कहा करोगी| दूसरा जो भी रैगिंग लेवे उसको बोलना कि, "हम, फूल कुमार की बहन हैं"|

गुड़िया खुश होती है और - थैंक यू सर, आपकी यह हेल्प हम सदा याद रखेंगे|

मैं: सर या .... ?

गुड़िया: हाँ-हाँ सॉरी भैया?

और उस दिन के बाद गुड़िया को रैगिंग की चकचक से परमानेंट छुटकारा मिल गया था| उसके बाद, कहीं खाली बैठा दिखा और आन बैठती अपने भाई के पास|

गुड़िया, पता नहीं तू इस नोट को पढ़ पाएगी भी कि नहीं, तुझे यह नोटिफाई होगा भी कि नहीं परन्तु तुझे पता है मुझे, हम भाई-बहन की सारी धींगा-मस्ती आज भी याद है| खासकर वह वाला पल, जब अपुन दोनों मेस के सामने वाले पार्क में बैठे थे और तुझे HR डिपार्टमेंट वाली सीनियर्स ने बुलाया था और तूने वापिस आ के मुझसे पूछा कि पता है भैया मैडम-लोग क्या पूछ रहे थे?

मैंने कहा: क्या?

बोल रही थी: तुम इसके पास कैसे बैठी हो?

गुड़िया: मैं बोली कि वह मेरे भैया हैं|

HR वाली मैडम-लोग: अच्छा तभी तो, हम भी कहें कि इसके पास तो बैचमेट होते हुए भी हम ही जाने से घबराती हैं| बिना काम तो इससे बातें करने से ही डरती हैं और तू जब देखो इसके साथ मंडराती रहती है| बहन है, तभी तो|

और फिर हम दोनों कैसे ठहाके मार-मार के हँसे थे|

फिर तुमने बताया कि उन्होंने यह भी पूछा कि यह हरयाणा से और तुम बिहार से तो तुम भाई-बहन कैसे हुए?

तो तुमने बताया कि भाई क्या सिर्फ ब्लड रिलेशन से ही होते हैं, यह हमारे ब्लड वाले से भी डबल भाई हैं| हम धर्म के भाई-बहन हैं|

और मैं मंद-मंद मुस्कराता रहा तेरे ऐसे आल्हादित कर देने वाले जवाब पर| आज भी याद हैं मुझे यह सारी बातें|

आज तेरी यह भाई के टाइप वाले तेवरों वाली वीडियो देखी तो लगा कि मेरी गुड़िया पर भाई की कंपनी का असर अभी तक है|

Keep it up Gudiya, you spoke very affirmed and balanced. Stay blessed always! Bhai adores you always and fully endorse your words in this video!

https://www.facebook.com/100000298227594/videos/2900098903343355/UzpfSTEwMDAwMTk0MjU2ODIyMTozMjIxODk2Mzg0NTUxNzQ5/

80 वर्षीय IAS रिटायर्ड ऑफिसर "सर सुखबीर सिंह मलिक जी" से बात करने का सौभाग्य मिला पिछले दिनों!

बोले कि बेटा आप वह काम कर रहे हो जो हम समाज की इलीट क्लास होते हुए भी नहीं कर सके| और वह है हरयाणवी समाज में "KINSHIP - किनशिप" को कंटिन्यू (निरंतरता में जारी रखना) रखने का|

सर ने बताया कि बेटा वक्त की कमी कहो या शहरों में आने के चलते गाम-खेड़ों से हमारा कटाव कहो या उचित मौके नहीं बन पाए या नहीं बना पाए कहो परन्तु यह कमी हमें सालती रही कि हमारी 'किनशिप' कहीं पीछे छूट गई है|

परन्तु जब प्रोफेसर दिव्याज्योति के जरिये आप बारे जाना तो आपसे बातें करने का मन हुआ| आप एक बहुत ही अहम् छूटा हुआ पहलु आगे बढ़ा रहे हो, इसको विशालतम स्तर तक लेकर जाना| क्योंकि हर कामयाबी-शौहरत का अंत हासिल यही है कि अगर आपने जीवन में अपनी 'किनशिप' को कंटिन्यू नहीं रखा तो बुढ़ापे में आपको यह चीज खासी सालती है|

किनशिप का अर्थ: आपके जेनेटिक्स-जनरेशन-कस्टम-कल्चर-भाषा-सोशल आइडेंटिटी व् उसके रुतबे की निरंतरता-स्थिरता-दृढ़ता-अखंडता-प्राकाष्ठा बारे राजनीती व् धर्मनीति से अलग व् समानांतर बनाया जाने वाला आइडियोलॉजिकल थिंकटैंक सोशल प्रेशर ग्रुप, जिसकी कमांड एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी (इस कांसेप्ट बारे सबसे जागरूक-सेंसिटिव व् डेडिकेटेड ग्रुप) को एक उत्तराधिकार के रूप में सौंपी जाती है|

सर बोले कि बिहारी देखे, बंगाली देखे, मराठी-तमिल-सिख-मुस्लिम-ईसाई सब देखे| सबने अपनी किनशिप कन्फर्म कर रखी हैं जिनमें गैर-धर्मी या गैर-एथनिसिटी वाले पंख भी नहीं मार सकते, पैर भी नहीं धर सकते| परन्तु हम हरयाणवी इस बारे अभी तक सबसे विखंडित हैं, बेगोल हैं, नॉन-सीरियस हैं| जब दिव्या ने बताया कि आपने यह पहलु विदेश में बैठे हुए भी आठ-दस साल के लगभग वक्त से इतने व्यापक स्तर पर उठाया हुआ है तो अंदर एक रौशनी हुई, तो बात करने का मन हुआ आपसे; इससे पीछे मत हटना कभी| याद रखना अपने बुढ़ापे के लिए हर तरह की इज्जत-शौहरत-ताकत-दौलत-बुलंदी के साथ आप वह 'किनशिप' कमाने जा रहे हैं जिसके लिए हम लोगों तक को इस उम्र में आकर कमी महसूस होती है| काश हम यह किनशिप जारी रख पाते, इसको टूटने नहीं देते तो हरयाणा में फरवरी 2016 शायद ही होता|

Honorable sir, with due respect and honour to your visionary guidance; your words shall always work for me on this path as cement does in holding a building.

अपने बुजुर्गों से बात करते रहिये, चाहे वह गाम-खेड़े में बसते हों या शहरों की RWAs में|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 28 November 2019

उर्दू व् हरयाणवी:

उर्दू व् हरयाणवी भाषा की 80 प्रतिशत वोकल डिक्शनरी सेम है और ऐसे ही हरयाणवी-पंजाबी की 70% से ज्यादा वोकल डिक्शनरी सेम है; बस लिखित की स्क्रिप्ट हरयाणवी की पंजाबी व् उर्दू से भिन्न है| हरयाणवी को बोली बताकर धक्के से "वेस्टर्न-हिंदी' ग्रुप में घुसाया गया ताकि हरयाणवी खत्म करके हिंदी चला दी जाए| जबकि हरयाणवी की हिंदी से 50% भी वोकल डिक्शनरी नहीं मिलती|

परन्तु जिसके भी हैं यह षड्यंत्र पकड़ में आ रहे हैं| यहाँ हमारे पुरखे, पुरखों के पुरखे सब हरयाणवी बोलते आये और यही हम बोलेंगे; आगे की पीढ़ियों को पास करेंगे| अब तो बल्कि हरयाणवी ही हरयाणा की राजभाषा हो, यही निरंतर प्रचारित करना चाहिए; तब तक जब तक कि यह वाकई में ही हरयाणा की ऑफिसियल भाषा नहीं बना दी जाती|

अब देखना, इस पर भी "हरयाणा एक, हरयाणवी एक" का नारा देने वाले छद्म हरयाणवी कुछ ना कुछ तन्त्रम ना घड़ लाएं; इसीलिए ऐसे लोग हमारे पुरखों की नजर में फंडी कहलाये| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

बात विशाल हरयाणा की!


हुड्डा साहब ने विधानसभा में जो विशाल हरयाणा की बात करी वह मेरे जैसे अनेक साथी अपने लेखों में दशक से भी ज्यादा बरसों से करते आ रहे हैं| पढ़िए और जानिये विशाल हरयाणा बारे मेरे द्वारा लिखे गए सन 2012 के इस लेख से: http://www.nidanaheights.com/choupal-d1.html

हुड्डा साहब आप बेझिझक आगे बढ़ें इस मुद्दे पर, हम आपके साथ विशाल हरयाणा को एक करने के लिए जान पे जान लड़ा सकते हैं| जितना चाहिए उतना समर्थन आपको जोड़ कर दे सकते हैं इस मुद्दे पर|

और रही अनिल विज द्वारा हुड्डा साहब को चण्डीगढ पर घेरने की| अनिल विज, महाशय ऐसा है आप चंडीगढ़ की बात करते हैं, पहले पंजाब में उन 5% हिन्दुओं को वापिस तो बसा के दिखा दो, जो 1984 से वहां के सिखों से पिटे-छिते हरयाणा में शरण लिए हुए हैं? बात करते हैं चंडीगढ़ पर हरयाणा का हक बनाये रखने की| यह भी प्योर हरयाणवी ही कर सकें हैं क्योंकि आपके बस का सिर्फ एक काम है कि संघ के इशारे रायता फैलाना और जब वह रायता इतना ज्यादा फ़ैल जाए कि 1984 जैसा कुछ हो जाए तो पंजाब के सिखों से पिट-छित के वहाँ से भाग खड़े होना| इसलिए आप तो ऐसे मुद्दों पर ना बोलें तो बेहतर|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

सन 1761 के 10 लाख रूपये की आज की तारीख में क्या कीमत होगी, कोई CA दोस्त बता सकता है?

सलंगित कटिंग को देखिये - यह उस खर्चे का ब्यौरा है जो सन 1761 की पानीपत की तीसरी लड़ाई में अहमदशाह अब्दाली से मात खाये दर पर मदद की गुहार लिए आए ब्राह्मण पेशवे व् साथ मरवाई मराठा सेना की जाट महाराजा सूरजमल सुजान जी ने अपने राज के खजानों के मुँह खोल इनकी मरहमपट्टियों से ले आर्थिक मददें करने व् इनको जाट सेना की सुरक्षा में वापिस महाराष्ट्र छुड़वाने में ख़र्च कर दिए थे|

रै रलदू; यह रकम इतनी तो बैठती ही होगी कि जितने का नुकसान बीजेपी सरकार ने पिछले पाँच साल में चार बार हरयाणा जला कर, कर दिया, उसमें भी सबसे ज्यादा फरवरी 2016 का जाट बनाम नॉन-जाट रचकर? इतने नुकसान के बराबर के पैसे यह जाटों को यूँ ही दे देते तो इनके पुरखों पर जाटों के पुरखों द्वारा किये अहसान जरूर कुछ बराबर लग जाते, है कि नहीं?

लेकिन ना यह इतिहास से कुछ सीखने को तैयार ना अपना दम्भ छोड़ने को, फरवरी 2016 में स्टेट-सेण्टर में इनकी सरकारें होते हुए भी उसी हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट किया या इन्होनें होने दिया जहाँ पर इनके पुरखों को मरहमपट्टियाँ मिली थी| कर लो इनपे अहसान, अहसान के बदले जाट बनाम नॉन-जाट देते हैं यह; फिर ज्यादा कहूंगा तो भगत बिलबिलायेंगे| इनके ऐसे ही घावों के चलते यह मीडिया की भाषा वाली जाटलैंड पर उन्हीं दिनों से आज तलक भी भाऊ नहीं अपितु हाऊ कहलाते हैं|

आने वाली 6 तारीख को पानीपत फिल्म आ रही है, यह इतने हवाबाज हैं कि धरातल पर रहना शायद इनके डीएनए में ही नहीं| देखें क्या गपोड़-घस्से भर के ला रहे हैं इस फिल्म में| वैसे तो हर हरयाणे का बच्चा परन्तु उनमें भी खासकर हर जाट का बच्चा यह ऐसे-ऐसे ऐतिहासिक तथ्य याद रखे यह फिल्म देखने जाते हुए, अगर जाओ तो| नहीं तो रिलीज के दो-चार दिन बाद इंटरनेट पर आ ही जाएगी|

डाटा सोर्स: कुंवर प्रवीर नागिल|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक




Saturday, 23 November 2019

जेनएयू वालों के ज्ञान-बुद्धि-टेलेंट पर कोई कमेंट या संदेह नहीं क्योंकि यहाँ सबसे ज्यादा वही स्वर्ण पढ़ते मिलेंगे जिनके समाजों में!

1) आज भी विधवा को पुनर्विवाह की इजादत नहीं| जो आज भी दिवंगत पति की प्रॉपर्टी से बेदखल कर सर मुंडवा कर हरिद्वार से हुगली तक की गंगा के विधवा-घाटों या वृन्दावन जैसे विधवा आश्रमों में फ़ंडी-फलहरियों की कामवासना पूर्ती हेतु फेंक दी जाती हैं| वृन्दावन में तो 80% उसी बंगाल की स्वर्ण विधवाएं हैं जो जेनएयू में सबसे ज्यादा कोटाधारी होते हैं और पूरे देश के स्वघोषित सबसे बड़े विद्वान् कहलाते हैं| इन पर कभी नहीं बोलेंगे यह जबकि इनको हरयाणा की जाट-खाप इन मामलों में सबसे प्रिय टारगेट दिख जायेंगे| वह जाट-खाप जिसके यहाँ पूरे देश में सबसे सम्भव शान से दिवंगत पति की प्रॉपर्टी पर बसते-घसते हुए जीवन जीती हैं विधवाएं| कोई माई का लाल हमारे यहाँ किसी विधवा को उसकी प्रॉपर्टी से इनकी तरह बदहाली करके बेदखल तो करके दिखाए| कभी शादी-ब्याह के मौकों पर विधवा का खड़ा होना अशुभ नहीं माना जाता बल्कि घर की बाकी औरतों के बराबर हर फंक्शन में शामिल की जाती हैं|

2) इनको खाप-पंचायतों के चबूतरों पर महिलाएं नहीं होती पहले झटके दीखता है परन्तु मंदिरों के चबूतरों पर, गृभगृहों में, पुजारी की पोस्टों पर महिलाएं नहीं होती वह इनमें से अधिकतर को होता तब भी नहीं दीखता जब रोज-रोज मंदिरों में घंटा भी बजा के आते हैं और पूजा-प्रसाद भी चढ़ा के आते हैं| सुसरे जो धरती के सबसे बड़े हिपोक्रेट व् घुन्ने ना हों तो|

3) इनको हरयाणा का दलित, बिहार-बंगाल के महादलित से भी दुखी व् प्रताड़ित लगता है| और इसपे बिना हुए भी विवाद खड़े करवाने को जाट नाम का शब्द व् पात्र इनका सबसे प्रिय होता है| वह हरयाणा जहाँ, इनके बिहार-बंगाल में सवर्णों का सताया हुआ दलित-महादलित-ओबीसी बेसिक दिहाड़ी वाला रोजगार पाता है, इनको उसको वहीँ बिहार-बंगाल में रोजगार मुहैया करवाने बारे प्लान-प्रोजेक्ट बनाने से ज्यादा, उस हरयाणा के जहाँ दलित को इतनी नौबत तो कभी आती ही नहीं कि मात्र बेसिक दिहाड़ी को उसको अपना गृहराज्य छोड़ हजारों कोस दूर जाना पड़े, वहां दलित-जाट का गेम इनका सबसे फेवरेट है|

4) इनको शहरों की आरडब्लूए वाली सोसाइटीज के हर उलटे-सीधे-पाबंदी के नियम आधुनिकता दीखते हैं बस तालिबान-तुगलकी फरमान तो एक हरयाणा उसमें भी खासकर जाट व् खाप के यहाँ नजर आता है; फिर चाहे खुद सुसरे तुगलकाबाद की ही किसी आरडब्लूए में रहते हों|

और सुनी है कि फीस तो इतनी सस्ती है कि इतना सस्ता तो बीपीएल वालों को अनाज भी नहीं मिलता?
ओ भाई, ऊपर लिखा शीर्षक में कि तुम्हारे ज्ञान-टैलेंट पर कोई सवाल नहीं परन्तु पहले अपने यह प्रेजुडाइस भी क्लियर कर लो| जाटों-खापों की चिंता करने से पहले अपने बिहार-बंगाल की चिंता कर लो क्योंकि सुना है जेएनयू में तुम 80% वही से हो? बिहार-बंगाल को इतना समृद्ध व् समर्थ बना के दिखाओ कि वहां से मजदूर अन्य राज्यों में रोजगार ढूंढने नहीं जाने की बजाये वहीँ की वहीँ रोजगार पावें तो मानें तुम्हारे इंटेल्लेक्ट को| वरना इन सूखे आडिलियस्टिक इंटेल्लेक्ट के सगूफों पर तो मेरा दादा मुझे "बोळी-खयल्लो" कर मेरी पीठ थपथपा सर पुचकार कर न्यूं कह दिया करदा जा घरां, तेरी दादी दूध गर्म कर रही सै, पी कें सो जा|

बाकी थारी फीस माफ़ी की मांग में थारे साथ हूँ, थारी ही क्या पूरे देश में हर लेवल की शिक्षा निशुल्क होनी चाहिए| पर थोड़ा अपनी ईगो व् एरोगेंस को इतने तो बैलेंस में रखो कि मुझे यह अंतिम तुम्हारे समर्थन वाली ही लाइन लिखने की जरूरत पड़े, ऊपर वाला उपदेश ना पाथना पड़े|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 21 November 2019

बीएचयू में मुस्लिम प्रोफेसर को संस्कृत पढ़ाने नहीं देने का एपिसोड!

जिस तरीके से बीएचयू में एक मुस्लिम प्रोफेसर को संस्कृत नहीं पढ़ाने दी जा रही, इसको देखते हुए तो ऐसा लग रहा है कि धीरे-धीरे वह युग वापिस आ रहा है जिसके बारे बताते हैं कि संस्कृत पढ़ने-पढ़ाने का हक एक धर्म के अंदर भी एक जाति-नश्ल-वर्ण विशेष को ही होता था या ऐसा उनके द्वारा स्वघोषित था? तो क्या अब अगला कदम यह होगा कि गैर-धर्मी के बाद दलित-ओबीसी प्रोफेसरस को भी संस्कृत पढ़ने-पढ़ाने से रुकवा दिया जायेगा?

इसको देखते हुए तो फिर नंबर आर्यसमाजी जाटों का भी आएगा, जो ब्याह-शादियों में फेरे तक अपने बच्चों के खुद करते-करवाते हैं? अपनी जाति से बाहर वाले से फेरे करवाना तो बहुत से गाम-कुनबों में आज भी अशुभ भी माना जाता है और स्वीकार्य भी नहीं है| मेरे तो खानदान-कुनबे-ठोले तक में पीढ़ियों से चला यह दस्तूर आज भी कायम है कि ब्याह फेरे हों या मरगत-उद्घाटन के हवन, हमेशा घर बड़ा बुड्ढा जानता हो तो उससे अन्यथा जाट शास्त्री से ही फेरे-हवन आदि करवाते हैं| मेरे बड़े भाई-भाभी के फेरे, भाभी जी के दादा जी ने करवाए, मेरे बाप-दादा-पड़दादा के फेरे जाट-बडेरों ने करवाए, छोटे भाई के फेरे जाट आर्यसमाजी ने करवाए| अभी 2018 में जब इंडिया गया था तो मेरी चचेरी दादी की मरगत का हवन तक जाट आर्यसमाजी से ही करवाया था फिर भले ही उसके लिए स्पेशल 2 घंटे इंतज़ार करना पड़ा सबको|

भाई, इन हालातों तो एक सलाह है कि जल्दी-जल्दी इन फेरों के मंत्रों को अपनी हरयाणवी में ट्रांसलेट मार लो और संस्कृत के साथ-साथ हरयाणवी में फेरे करवाने शुरू कर लो| क्या पता कब फरमान आ जाये कि संस्कृत पे तो हमारा कॉपीराइट है तुम प्रयोग नहीं कर सकते| साथ-साथ अग्नि के साथ-साथ सिख धर्म में जैसे "उनके धर्मग्रंथ" के राउंड्स काट के फेरे लेते हैं ऐसे ही "दादा नगर खेड़ों" के राउंड्स काट के फेरे लेने भी शुरू कर लो वरना पता लगा कि अग्नि वाले फेरों पे भी कॉपीराइट लागू हो गया कि यह वाले तो विशेष वर्ण-समूह वाले ही कर-करवा सकते हैं बस|

जुनसे ने हरयाणवी में फेरे करवाने की बढ़िया फीस चाहिए बेशक इब से ही हरयाणवी में ट्रांसलेट करके और सुर-ताल-लय ज्यों-की-त्यों संस्कृत वालों के तर्ज पे बिठाना शुरू कर लो| क्योंकि चिंता ना मानियो, इतनी जागरूकता फैला दी है साथियों ने हरयाणवी को ले के कि आने वाले वक्त में थम बेरोजगार भूखे नहीं मरोगे, इतनी डिमांड बढ़वा देंगे थारी|

फेर चाहे सर पे धर के नाच लियो इस संस्कृत ने और संदूकों में बंद करके रख लियो यह बीएचयू वाले| हद होती है जाहिलता-गंवारपणे और नस्लीय नफरत व् भेदभाव की भी| मेरे हैं मेरा धर्म है तो क्या मैं इसमें इतनी हद से ज्यादा की नस्लीय नफरत व् घमंड को भी पी जाऊँ? यहाँ फ्रांस की यूनिवर्सिटीज-स्कूल-कॉलेज तो क्या पूरे यूरोप-अमेरिका का दिखाओ इनको, इतने ईसाई टीचर बाइबिल ना पढ़ाते गोरों को जितने कई-कई इंस्टीटूशन्स में तो अरबी व् अफ्रीकन मूल के मुस्लिम पढ़ाते हैं| समझ ना आती देश इन गँवारों को झेल क्यों रहा है आखिर|

जो चीज इतनी बड़ी नफरत का पर्याय बनती हो वह किसी भी सभ्य धर्म का अंग तो कतई नहीं ही हो सकता; फिर किसी को इस लेख में लिखी बातें पसंद आवें या ना आवें| हम तो औरों के ही धर्म की वाहियात बातें नहीं सुनते तो अपने में कैसे सहन कर लें?

इनको दण्ड़काना शुरू करो कि, "या तो तुम सुधरो वरना अपनी पदवी से उतरो"

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ए री दादी, ए री माँ; सुनती जाईए री!

हरयाणवी अणख, हरयाणवी किनशिप का चलता-फिरता इनसाइक्लोपीडिया थी मेरी दादी! आज दादी की 17वीं मरगत-तिथि सै!

16 साल हो गए तुझे हमको छोड़ के गए हुए और मेरे से बिछड़े हुए तो 18 साल| तेरी वह बुझी सी सूरत आज भी जेहन में तरोताजा है जब मेरी फ्रांस जाने की बात सुनके सब खुश थे परन्तु तू जैसे शॉक में पलंग पे ही जमी रही 3 दिन, और मेरे फ्रांस आने की तैयारियां तेरे इर्द-गिर्द तेरे ही दिशा-निर्देश अनुसार चलती रही थी| आते हुए तुझे झकझोरा परन्तु तू बुत बनी बैठी थी| परन्तु यह इंस्ट्रक्शन देनी फिर भी नहीं भूली कि, "आपणे रीत-रवाज-पच्छोका सदा गेल राखिए"|

छह दिन का था जब जामण आळी चली गई थी, तेरे में ही माँ अर दादी दोनों रूप मिले| वो जो दुनियाँ को कई बार कहता हूँ ना कि, "पोतड़ों में पॉलिटिक्स सीख के बड़ा हुआ हूँ"| वह सबसे ज्यादा तुझसे ही तो सीखी थी|

जब तू सर धुवा कें चुण्डा करवाती थी और फिर सर पे लत्ता धरती थी तो तेरे चेहरे व् माथे का ललाट ऐसी आभा बिखेरता था कि महारानी भी फेल होती थी तेरे उस डठोरे के आगे|

जब तू मरी थी तो कईयों की जुबानों से कहते सुना था कि "गाम का मोड़ गया", "मैदान का बड़ गया"|

खैर तू जानती है फंडी-पाखंडियों वाले पुनर्जन्म-मरण-पितृ आदि से तेरे जैसे पुरखों ने दूर रहना ही सिखाया; थमनै इतना जरूर बताया कि अगले-पिछले जन्म का नहीं पर अगली-पाछली पीढ़ी का करया होया, उसतैं आगली पै जरूर चढ़या करै; तो इसे खातर इतना जरूर कर दिया था अक तेरी चिता की राख उठा के उसकी एक-एक मुट्ठी अपने सारे खेतों-रजबाहों में बहा दी थी, बिखेर दी थी| वहीँ होगी ना तू अपने खेतों में? कभी उनमें काम करती हुई, कभी उनकी डोल पे बैठ के तेरे बेटे यानि मेरे बाप की बाड़ बनी उसकी रूखाळी करती हुई? घर-कुणबे पै आई मुसीबतों में मेरे बाप-दादे से पहले उठा जेली हाथ में अपना धड़ उनसे आगे अड़ाते हुई, आज भी खड़ी है ना तू गाम के मैदान पे गरजती हुई कि, "आ जाओ मेरे तल्लाकियो, जमा-ए-सुन्ने ला लिए"? तुझसे ही सीखा है कि जाटणियां, हमले होते देख; "आग के कुंड सजा के उनमें कूदने की बजाए; जेळी से बैरी के मुंड छेद लिया करती हैं"| 

चिंता ना कर उधम के डब्बी आज भी कई बार कह देते हैं कि भाई दादी को देख उसके भय से हम जब गाल छोड़ दिया करते थे, वह गालें आज भी छोड़ने का जी करता है बस काश दादी फिर से मैदान-चौराहे पे पीढ़ा घालें बैठी दिख जाए तो|

तेरे छींट आळे दामण की झाल, तेरी छींट-चित्ते वाली चूंडे पे धरी चुन्दड़ियाँ, चर-चर करती तेरी जूती, चिंता ना करिये सब घर की बाहण-बेटी-बहुओं को भी पास कर रहा हूँ| सबसे ज्यादा दबाव मैं ही दिए रहता हूँ सब बुआ-बाहण-भाभियों को कि यही चीजें ही नहीं छोड़नी बस| सुलोचना की होक्के गेल आळी हरयाणवी ड्रेस की फोटो दिखाते तुझे जिन्दा होती तो|

तेरी वह रेहड़ी पर से बिना तुलवाए चीज नहीं खाने की सीख आज भी फ्रांस के शॉपिंग-माल्स तक में साथ ले के चलता हूँ और चीज को चखता भी तभी हूँ जब तुलवा लेता हूँ| वह तेरी "भूखा-माडा-नंगा भूखा नहीं जाने देने की और फंडी मुंह नहीं लाने की "दादा नगर खेड़े वाली सीख" भी साथ लिए हुए हूँ| सीरी-साझी को कुनबे शामल खाना खिलाने की सीख म्हारी माँ यानि तेरी बहु आज भी यूँ की यूँ चलाये हुए है|

एक वो तेरा जो तेरी गाम-गुहांड की अपने घर आई डब्बणों (म्हारी दादियों से) से तीन बार गाल-से-गाल मिला के गाफी भर-भर मिलना होया करता ना (के कह के मिला करती जो घनी प्यारी होया करती उससे कि "हे आ जा मेरी तल्लाकण, काळजे के लाग जा"; वो यहाँ फ्रांस के कल्चर में भी यूँ का यूँ ही है| यहाँ देखता हूँ तो सुखद अनुभूति लेता हूँ कि क्या ग्लोबल स्टैण्डर्ड का कल्चर विरासत में मिला; थारे बरगे पुरखों के जरिए| 

और कितने किस्से गाऊं तेरे आ के बता जा तू ही|

आज तक भी जितना रोमांचित मुझे मोहळे व् ज्याब की (तेरे पीहरों की यानि मेरे दोनों दादकों की) यादें करती हैं इतना रोमांचित बाकी यादों में होता तो हूँ परन्तु इन जितना नहीं| मोहळा (हिसार) की गलियों के तब के वेस्ट-मैनेजमेंट के सिस्टम, साफ़-सफाई इतनी कि आज की मोदी की सफाई अभियान फेल हो जाए, इतनी चमचमाती गलियां और वो रूख, वो परस, वो काका रमेश के ब्याह में केसूहड़े आगे नाचती घुंघरुओं वाली घोड़ी, घोड़ी के आगे बजता धौंसा और तेरा दामण पकड़ें उनको देखता मैं; सब यूँ के यूँ धरे दिमाग में कि जी में आवै उठा के गूंची सब उतार दूँ पेंटिंग में|

जब तू मरी थी तो उस वक्त गया था तेरे दोनों पीहर, अब भी जाता रहता हूँ| उस वक्त मोहळा में दादा होशियारा बड़ी नदी के पार वाले खेतों वाली वह पाळ दिखा के लाया था जहाँ बालकपन में तुम भाई-बहन इकट्ठे डांगर चराया करते| दादा रोने लग गया था तुझे याद करता-करता| बहुत किस्से सुनाएँ थारे बचपन के, क्यूकर तुझे भुळा के बड़ी बहन का हवाला दे, अधिकतर वक्त तेरे से ही डांगर हिरयवाया करते और फिर जब तुझे उनकी स्यानपत पता लगती तो तू कैसे उन सारों की कुटाई किया करती| जितना तेरे से डरते थे तेरे भाई उससे कई गुणा ज्यादा प्यार करते थे तुझसे; उस दिन खेत की डोल पे दादा होशियारे को बैठ के तेरी याद में रोते देख इस बात का अहसास हुआ मुझे| दादा बोला पोता तेरा बाप आ लिया, तेरा दादा आ लिया तेरे भाई-बाहण भी आ लिए पर जो हरक तेरी दादी के नाम का तैने ठुवा दिया इसकी टीस ही न्यारी सै| और इसकी वजह बताई कि जो छड़दम तू तारया करता मोहळा आ के वें सबतैं न्यारे होया करते और सबतैं निश्छल व् प्यारे भी; इसीलिए तुझे आता देख के तो न्यू लगया जानूं खुद धूळा  चाली आवै सै|

तेरे दूसरे पीहर ज्याब (रोहतक) भी गया था| वहां सारे दादी-काके-ताऊ-भाईयों में तेरे नाम की, तेरी याद की चमक-धमक दोनों उतने ही वेग की ताजा हैं; जैसे कभी तेरे साथ हमें आते देख; भाजड़ पड़ ज्याया करती; "बुआ आ गई, बुआ आ गई" करते हुओं की| ज्याब जित थम मैंने घाल्या करते या छोड़ के आया करते 2-4 दिन के लिए और मैं मोरा मार के 20-20 दिन सारी छुटियाँ वहीँ काट आया करता| क्योंकि मुझे वहां कोई रोक-टोक नहीं होती थी; आइशर-मेसी-फोर्ड-HMT चारों ट्रेक्टर चलाने मुझे ज्याबियों ने ही तो सिखाए थे| वो कलानौर में ताऊ आळे घर में बेबे के फेरों के वक्त, मिठाई के कोठे पे डिठोरे से एक हाथ चौखट पर व् एक हाथ में मुझे पकड़े; आज भी खड़ी दिखती है तू| दोनों दादकों में ब्याह-वाणो में मिठाई के कोठों का चार्ज तुझे मिलता, आज भी देखना चाहूँ सूं| ईबी भी म्हारे में तें कोई सा चला जाओ, सबकी निगाह तैने टण्डवालती पावें म्हारे म|  

इब बता कित-तैं-ल्या कैं द्यूं तैने इन ताहिं| ज्याबियों की खजानी तू और मोह ळी यों की धनकौर उर्फ़ धूळा तू, बता कित तैं ल्या कें दयूं तैने इन ताहीं? अर और के-के तो लिखूं और के-के छोडूं? कदे जिंदगी ने फुरसत दी तो किताब ही लखूँगा तेरे पे|

सलंगित फोटो में हैं मेरी दादी, बाबू, बाबू की गोदी में मैं और दादी के बगल में बड़ा भाई मनोज| 

जय यौधेय! - फूल मलिक