Thursday, 5 March 2020

हरयाणवी होळी, होळ (अधपके चने के दाने) भूनकर खाने का त्यौहार है!

कोई होलिका नामक बहन-बुआ को सरेआम आग में जलाने का नहीं| तब भी नहीं अगर वह वाकई में जैसा माइथोलॉजी बताती है वैसी कुल्टा भी रही होगी तो|

उदारवादी जमींदारों की औलादो, अपने पिछोके में झाँकों; तुम्हारे पुरखे हल की फाल के आगे आ जाने वाले टटीरी के अण्डों तक के लिए खूड छोड़ देने वाले दयालु लोग रहे हैं| वह ऐसे सामाजिक-सार्वजनिक वाहियात ड्रामे करने वाले लोग नहीं थे| हाँ, व्यक्तिगत तौर पर हिंसाएं कोई बेशक करता हो, परन्तु अगर यह होलिका को जलाना ऐसी भी कोई हिंसा थी तो भी उदारवादी जमींदारी हिंसाओं के उत्सव नहीं मनाती| सनद रहे युद्ध व् हिंसा-अत्याचार-अमानवीय सजाओं में दिन-रात का फर्क होता है|

यह उन्हीं "झींगा-ला-ला-हुर्र-हुर्र" टाइप मेंटालिटी वालों के लिए छोड़ दो जिन्होनें यह बेहूदगियाँ घड़ी हैं| बुराई हर युग हर काल में स्थाई रूप से विद्यमान होती आई है, यह हिंसाओं के उत्सव मना के क्या संदेश देना चाहते हो कि होलिका इस विश्व की आखिरी अपराधन थी, उसके बाद मानवता पर अपराध ही नहीं हुए?

स्वधर्मी होने का मतलब यह नहीं कि फंडी जो भी बकवास भौंकेगा, तुम उसको आत्मसात करोगे| धर्म से भी झाड़-पिछोड के ग्रहण करने वालों की औलादें हैं उदारवादी जमींदार, इसलिए अपने पुरखों की आन-शान पर चलो और हर त्यौहार में जो भी हिंसक बात हो उसको साइड करो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ऐसी बिरादरियों, जिनको हर बिरादरी के फंक्शन में जासूसी करने हेतु एक-दो नुमाइंदा भेजने/शामिल करवाने की खाज होती है या तो उनसे तुम भी ऐसा ही बराबरी का पैक्ट करो कि उनके प्रोग्राम में हमारा भी एक-दो नुमाइन्दा आया करेगा; अन्यथा तो क्यों वो मेरी दादी की कहानी वाली नकटी रांड कहलवा अपनी छीछालेदार करवाते हो!


नकटी रांड कौनसी? मेरी दादी एक नकटी लुगाई की कहानी सुनाती थी कि वह इतनी नकटी थी कि उसका खसम उसको मारने दौड़े और वह कहे कि इबकै मार? वो उसकै एक जड़ै, वह फिर यही बकै कि अबकै मार? वो फेर जड़ै वा फेर बकै|

यह जितने भी बिरादरी के टाइटल से फंक्शन्स होते हैं, इनमें अगर इस पोस्ट के शीर्षक के अनुसार पैक्ट के तहत ही कोई अन्य बिरादरी का व्यक्ति आवे और आप उनके में जावें या अपना नुमाइंदा/जासूस भेजें तो ही बात राह लगती है| अन्यथा अपनी बिरादरी के फंक्शन का मतलब सिर्फ अपनी ही बिरादरी के लोग होने चाहिए, आयोजक-स्पोंसर्स-पार्टिसिपेंट्स सब|

और खासकर जिन समाजों ने फरवरी 2016 देख व् झेल लिया हो अगर वह सिर्फ और सिर्फ अपनी जाति या सामाजिक संस्था का ही सम्मेलन-महापंचायत नहीं कर सकते और उसको वाकई में उसी के लोगों तक सिमित नहीं रख सकते तो समझना वह मानसिक रूप से अभी तक भी खुद को आज़ाद नहीं कर पाए हैं| ऐसे लोग पुरखों की निर्भीकता व् स्वछंदता के रत्तीभर भी पास नहीं पहुंचे हैं| ऐतराज नहीं कि 36 बिरादरी के कार्यक्रम भी करो और औरों द्वारा किये हुओं में जाओ भी, परन्तु अगर कार्यक्रम सिर्फ अपनी बिरादरी के नाम पर करते हो और वहां नॉन-अपनी बिरादरी को बिना किसी इस पोस्ट के शीर्षक टाइप समझौते या पैक्ट के जिमाते/बुलाते हो तो तुम वाकई मेरी दादी की ऊपर बताई कहानी वाले नकटे हो| ऐसे नकटे लोगों से दूर रहो चाहे वह किसी भी बिरादरी के हों|

वह आदमी बिरादरी का हो ही नहीं सकता जो फरवरी 2016 जैसे इन्सिडेंट्स को बेस या सीख मान, कार्यक्रम व् उनकी स्ट्रेट्जी बना के नहीं चल सकता/सकती; इससे तो अच्छा है कि आप कार्यक्रम ही मत करो| नकटी मति के साथ कार्य करने से आप कार्य नहीं ही करोगे तो वह भी बिरादरी की असिमता-बुलंदी में आपका योगदान होता है|

विशेष: ऐसे लोगों का नाम, बिरादरी व् काम मेंशन किये बिना, जनरल तरीके से संदेश देने सीखिए| इससे संदेश लेने वाला संदेश ले लेगा और जिनने गलती की होगी उसको महसूस भी नहीं होगा| पोस्ट हमेशा जोड़ने की होनी चाहिए, महसूस करवाने या तोड़ने की नहीं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 2 March 2020

कल ऑस्ट्रेलिया में दो महीने रह कर आये बुआ-फूफा से बात हुई तो अंदाजा लगा कि हरयाणा-एनसीआर में खाने में पेस्टीसाईड व् वायु-प्रदूषण कितनी विकराल समस्या बनती जा रही है!

दोनों 65+ की उम्र में जा चुके हैं| फूफा ने बताया कि ऑस्ट्रेलिया में रोज 7-8 किलोमीटर पैदल चल लेता था तो भी थकावट महसूस नहीं होती थी| और जिंद आ के हफ्ते भर तो रूटीन कायम रखने की कोशिश करी परन्तु इतने ही वक्त में रूटीन 1-2 किलोमीटर पर सिकुड़ गया है| बुआ ने बताया कि वहाँ घी-दूध खूब खा लेती थी फिर भी लगता था कि कुछ खाया ही नहीं और यहाँ आ के फिर से वही जोड़ों के दर्द व् अलकस शुरू| एक चम्मच भी घी खा लूँ तो कलेजे में रखा रहता है|

दोनों जगह के अनुभव का फर्क बताते हुए दोनों बोले कि एक तो वहां की वायु शुद्ध और दूसरा खाना आर्गेनिक यानि बिना खाद-दवाईयों का है और यहाँ दोनों ही बातें उसके विपरीत| कह रहे थे कि हम तो वहीँ जा रहे हैं जल्द-से-जल्द और वो भी हमेशा के लिए| कजिन रहता है वहां सपरिवार उसके पास|

उनसे बातें होने के बाद मैं चिंतनीय सोच में पड़ गया कि जिनका ब्योंत है वह तो इंडिया से ऊड़ जायेंगे ऑस्ट्रेलिया जैसी जगह पर, परन्तु जिनका ब्योंत नहीं या जो स्वेच्छा से रहना ही हरयाणा-एनसीआर में चाहता है उनका क्या होगा या उनके स्वास्थ्य व् जीवन के साथ कितना बड़ा खिलवाड़ हो रहा है, इसका क्या? आखिर इसका क्या हल होगा और कौन निकालेगा?

क्योंकि जब से किसान-राजनीति को हासिये पर धकेला गया है तब से यह वायु व् खाने में जहर की समस्या विकराल ही विकराल होती जा रही है| ना शहरों में दुकानों में बैठ जहरी पेस्टिसाइड्स बेचने वाले दुकानदारों को समाज के स्वास्थ्य की चिंता और पहले से ही एमआरपी तक के फसलों के दाम पूरे नहीं मिलने वाले किसान (उसको कब खुद फैक्ट्री वालों की तरह अपनी फसल रुपी प्रोडक्ट के दाम खुद निर्धारित करने का अधिकार होगा, यह तो बातें ही कोसों दूर जाती जा रही है) को तो परिवार पालने के ही लाले पड़े रहते हैं तो उसके हालात वैसे ही नहीं छोड़े सरकारों ने इन पहलुओं पर सोचने लायक|

और ऊपर से दुनिया के सबसे वाहियात फंडी लोगों का हमारे यहाँ आम किसान-मजदूर-व्यापारी व् आमजनता पर जाल, ऐसा जाल जिससे कि अब तो जनता को वैसी ही सहूलियत सी लगने लगी है जैसे बेल-जंजीर से बंधे जानवर को लगने लगती है और वह उससे छूटने-छुड़वाने की कोशिशें करना भी धर्मद्रोह या राष्ट्रद्रोह समझने लगता है|

ना ही कोई मूवमेंट इस दिन-प्रतिदिन हरयाणा-एनसीआर में बाकी के इंडिया से बढ़ते ही जा रहे जनसंख्या पलायन पर इसको रोकने या डाइवर्ट करने हेतु दीखता| कोई नहीं कहता कि बहुत हुआ, बस करो क्या सारा इंडिया हरयाणा-एनसीआर में लाकर बसाओगे; बल्कि वहीँ फैक्ट्रियां-रोजगार क्यों नहीं ले जाते जहाँ से सबसे ज्यादा बेरोजगारी व् फंडियों के नश्लवाद की प्रताड़ित जनता का यहाँ पलायन हो रहा है|

धरातल पर बैठे हुओं की क्या, 99% एनआरआई तक इन चीजों बारे लोगों को जागरूक करना, अपने धर्म-देश की तौहीन मानने वाली जंजीर में जकड़े पड़े हैं| वह तक यह बातें लिखते-फैलाते नहीं कि अमेरिका-यूरोप-ऑस्ट्रेलिया आदि जैसे देश वाकई में रहने लायक हैं तो क्यों हैं| बल्कि वह "यूरोप वाले तो काले कोट-पेण्ट-टाई तो वहां अधिक सर्दी की वजह से पहनते हैं तुम हिंदुस्तानी क्यों ढोते हो इनको?" जैसी पोस्ट्स वायरल करते बहुतेरे एनआरआई ही देखे हैं| इनमें बहुतों को देख के तो यह लगता है कि यह तो धरातल पर बैठे भक्तों के भी फूफे हैं|

निसंदेह, अगर ऑस्ट्रेलिया-यूरोप जैसे देश ऐसा कर पाए तो उसकी सबसे बड़ी वजहें रही कि सबसे पहले तो इन्होनें अपने-अपने धर्मों के फंडियों को लिमिट में बाँधा (चर्च-मस्जिद से बाहर कोई धार्मिक प्रोग्राम नहीं कर सकता यहाँ; जो करना है अपने धर्म-स्थलों के परिसर में करो, जिसको तुम्हारी बिड़क यानि जरूरत होगी वह खुद चला आएगा तुम्हारे पास), फिर सरकारों व् सिस्टम को जवाबदेह बनाया तो ही ऐसा हो पाया|

खैर, लिखते हुए उदासीन हूँ क्योंकि क्या मेरे जैसे जो खुद यूरोप जैसे न्यूनतम प्रदूषित वातावरण व् लगभग आर्गेनिक फ़ूड खाने वालों के देश में रहते हैं उनके यह लेख इन मुद्दों पर किसी भी तरह की जागरूकता या चीजों में गति लाने हेतु काफी होंगे? लगता है खामखा ही कलम घिसाई हो रही है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 29 February 2020

जताई की लड़ाई और जताई गाम के बसने का गौरवशाली ऐतिहासिक किस्सा!


वह लड़ाई जब धनाना गाम (मेरा नानका) की "जाटू-खाप 84" की आर्मी ने जिंद रियासत की वह शाही फ़ौज हरा दी थी, जिसमें अंग्रेज अफसर-फौजी-असले भी शामिल थे| यह लड़ाई धनाना गाम से अंग्रेजों द्वारा टैक्स उगाहने हेतु हुई थी| तब धनाने ने जिंद की शाही फ़ौज समेत अंग्रेजों को जताई के मैदानों में कड़ी हार परोसते हुए जो दो टूक कह दी थी, उसकी कविताई पंक्तियाँ अजय घणघस ने कुछ यूँ भेजी हैं:

आपणी पोई आपो खावां, नहीं देवां किसी ने दाना।
कुरली बाजी टाप की, कांपा देश हरयाणा।
डाटा को फोड़ी डाट सी, सर करया गुराणा।
सुई बांधे पगड़ी, पहरा जाटशाही बाणा।
बापोड़ा ना जाणिये, यो से गाम धनाणा।


जताई यानि जहाँ जीत पाई भी कहते सुना जाता है आमजन में|

भिवानी जिले में जिंद-भिवानी रोड पर जताई-धनाना जो गाम हैं, इनमें "जताई" गाम, अंग्रेजों पर धनाना गाम की जीत की ख़ुशी में ठीक वैसे ही बसाया गया था जैसे सन 1620 में गठवाला खाप के आह्वान पर सर्वखाप आर्मी द्वारा कलानौर की रियासत तोड़ने पर मोखरा-कलानौर के बीच "गढ़ी मुरादपुर टेकना" बसाया गया था|

आज फंडी-पाखंडियों से पीढ़ियों को बचाने हेतु पुरखों के इसी ऐटिटूड की जरूरत है कि, "आपणी पोई आपो खावां, नहीं देवां किसी ने दाना।"

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 28 February 2020

1 मार्च 2020: “घणघस सम्मेलन, धनाना” के उपलक्ष्य में आप घणघसों को आपके इस भाणजे का यानि मेरा यह शुभकामनाओं भरा पैगाम पहुंचे!

"अपना चून, अपना पुन" की फिलॉसोफी के गाम धनाणा, जिला भिवानी व् जो कि "जाटू-खाप 84" का हेडक्वार्टर भी है, के गौरवशाली इतिहास बारे महान इतिहासकार ठाकुर देशराज कुछ यूँ लिखते हैं:
देश हरयाणे के बीच में, एक बसै गाम धनाणा,
जित सूही बांधैं पागड़ी, यौद्धेयों का पहराणा,
नौ-सौ नेजे भकड़ते, घुड़ियण का हिनियाणा,
तुरई-टामक बाजते, बुरजण के दरम्याणा
बापौड़ा मत जाणियो, है यो गाम धनाणा|
अर्थात
नौ-सौ नेजे यानि धनाणा गाम की अपनी खाप-आर्मी होती थी, जिसमें 900 घोड़ों का घुड़सवार दस्ता होता था, और जब सजधज कर यह आर्मी पैदल सैनिकों व् घुड़सवारों समेत तुरई-टामकों-धौंसों-नगाड़ों की रणभेरी में हवेलियों-परसों-बंगलों की इस नगरी के बुर्जों-मीनारों के बीच से गुजरती थी तो जो गगनभेदी स्वरलहरी उठती थी उसकी धमक कई कोस के गुहाण्डों तक जाती थी| और क्योंकि धनाणा "अपना चून, अपना पुन" की फिलॉसोफी यानि "अपनी कमाई, अपने हाथ से अपने गाम की सुख-सुविधाओं में लगाई" की थ्योरी पर चलता था, इसलिए फलहरियों, फंडियों को दान-दून या राज-रजवाड़ों को टैक्स-वैक्स कुछ नहीं देता था| मुग़लों से ले अंग्रेजों तक ने जोर लगाए परन्तु जैसे पूरे हिंदुस्तान में एक इकलोती भरतपुर जाट रियासत को अंग्रेज कभी नहीं जीत नहीं पाए, ऐसे ही इस मेरे नानके से अंग्रेज कभी टैक्स नहीं उगाह पाए| जबकि साथ लगता एक्स आर्मी चीफ वीके सिंह का गाम है "बापौड़ा" वहां से बिना रोळे-रब्दे के टैक्स उगाह लेते थे अंग्रेज| तभी अंतिम लाइन में कवि ने कहा है कि "बापौड़ा मत जाणियो, है यो गाम धनाणा"| बापौड़ा टैक्स देता होगा, हमसे ले के दिखाओ? और वाकई में अंग्रेज कभी टैक्स नहीं उगाह पाए मेरे नानके से|

अब बात मेरे इस नानके यानि धनाणे और इसकी परस-बंगलों से मेरे अटूट लगाव की दास्ताँ की:

सलंगित फोटो में जो बँगला यानि परस यानी चौपाल है, इसी में हो रहा है यह सम्मेलन| इससे मात्र 3 हवेली छोड़कर हेडमास्टर ज्ञानेंदर जी (मेरे नानाजी) की हवेली है| यह बंगला 2012 में बना है, इससे पहले दूसरी ब्लैक-एन्ड-व्हाइट फोटो वाला बंगला इसी जगह पर 1856 से 2012 तक रहा| सनद रहे आर्य समाज 1875 में आया, उससे भी 19-20 साल पहले 1856 व् उससे पहले के जमानों से जाट-खाप ऐसे बंगले बनाते आये हैं, यह जानकारी इसलिए जोड़ रहा हूँ ताकि जो यह सोचते हैं कि आर्य-समाज के बाद ही यहाँ तरक्की या जागरूकता आई थी; वह समझें कि भले आर्य-समाज कुछ सुधार लाया समाज में परन्तु जाटों-खापों की यह जागरूकता-धनाढ्यता-प्रतिष्ठा देखकर ही दादा नगर खेड़ों, दादा भैयों से "मूर्ती-पूजा रहित सिस्टम" का कांसेप्ट उठाकर "आर्य-समाज" के नाम से इंट्रोड्यूस किया गया था, वह भी मूर्ती-पूजा नहीं करने का क्रेडिट "दादा नगर खेड़ों" को दिए बिना|

खैर, बताता चलूँ कि यूनियनिस्ट मिशन के झंडे में जो मोरनी है वह इसी ब्लैक-एन्ड-व्हाइट फोटो वाले पुराने बंगले की अटालिकाओं पर लहराती "मोरणियों की फिरकियों" से निकाल के झंडे में डाली गई है|

जब-जब तेज हवाएं चलती थी तो यह फिरकियाँ झर्र-झर्र-चर्र-चर्र-खड़-खड़ की मधुर तालें छेड़ देती थी कि कानों में पड़ते ही नाना की हवेली की अटारी पर खड़ा हो तब तक इनका घूमना-शोर मचाना देखता रहता था, जब तक हवाएँ नहीं थम जाती थी| हवा के साथ अगर बारिश भी आ गई तो भी वहीँ खड़ा रहता था फिर भले नानी-मामी-माँ-मौसी नीचे से रुक्के मारती कि, "बेटा, तले आ ज्या सीलक लाग जागी"| इस कल्चरल हेरिटेज से लगाव इतना अटूट रहा कि एक किनशिप की भाँति पुरखों की इस शान को मिशन के झंडे की शान में लगा लिया| तो जिस जगह से जिंदगी की ऐसी अटूटता जुडी हो, उस नानके में अगर नानकों के पूरे घणघस गौत का सम्मेलन हो रहा हो तो भाणजे में रंग-चा भरणे लाजिमी हैं|

धनाणा रे, रे मेरे नानके, तेरी गलियाँ म्ह बचपन बिताया खूब,
नानी-नाना की कहानियों में, रूआब-रुतबा-रस पाया अटूट|
तेरी हवेलियों-मीनारों-अटारियों-बंगलों में उधम मचाया टूट,
होळ खाये, कुँए-नहर नहाये; आज भी सब याद आवै ज्यूँ महबूब||

अब बात मेरे पैगाम की:
वैसे तो इस सम्मेलन में आप मेरे नानाओ, मामाओं, मामयों आळो; जो भी करेंगे बढ़िया करेंगे और क्योंकि कहीं-ना-कहीं "किनशिप" यानि "एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी को अपना कल्चर-कस्टम-इतिहास-हेरिटेज पास करने" की भावना के तहत यह सम्मेलन हो रहा तो ऐसे में इतना ही कहूंगा कि इस "किनशिप" को इन-डायरेक्ट की बजाये डायरेक्ट पेश कीजियेगा नई पीढ़ियों को और बताईयेगा कि क्या-कौन तुम्हारे पुरखे थे, क्या उनका पिछोका था और क्या उनका इतिहास था| इसके अलावा उदारवादी हरयाणवी जमींदारी के यह कुछ बिंदु जो हमारी फिलॉसोफी-कल्चर को इंटरनेशनल लेवल पर अमेरिका-यूरोप के स्टैण्डर्ड पर बैठाते हैं यह जरूर चर्चा होवें, ऐसी आशा करता हूँ| क्या चर्चा होवे कि:

1) यह जो "कम्युनिटी गैदरिंग" हेतु "मिनी-फोर्ट्रेस" टाइप बंगले-परस-चौपाल बनाने का कल्चर है हमारा, यह या तो इंडिया में सिर्फ खापलैंड पर है या फिर सीधा इंडिया से बाहर अमेरिका-यूरोप-ऑस्ट्रेलिया वगैरह में है|
2) हमारा जो सीरी-साझी कल्चर है यह गूगल जैसी कंपनियों में फ़ॉलो होता है| सीरी-साझी कल्चर यानि नौकर को नौकर नहीं अपितु काम से ले सुख-दुःख का पार्टनर मानना और नौकर की जाति-बिरादरी देखे बिना उसको उसके नाम की बजाये उसके नेग-नाते से पुकारना|
3) यह जो हरयाणवी दामण, इंग्लिश में कहूं तो "बॉल-स्कर्ट" पहनी जाती हैं यह हमारे अलावा अमेरिका-यूरोप में ही है, बस फर्क इतना है कि यहाँ यह लॉन्ग-स्कर्ट या शार्ट-स्कर्ट के रूप में हैं और हमारे यहाँ "बॉल-स्कर्ट" के रूप में|
4) यह जो "खाप-पंचायतें" कर बिना तारीख-पे-तारीख दिए फैसले करने का "सोशल जुडिशरी व् सोशल इंजीनियरिंग सिस्टम" है यह इंडिया में और कहीं भी नहीं, यहाँ के बाद यह अमेरिका-यूरोप जैसी जगहों पर ही मिलता है|
5) यह जो "खाप मिल्ट्री कल्चर" यानि अखाड़े हैं ऐसे गाम-गाम स्पोर्ट्स-क्लब अमेरिका-यूरोप में ही मिलते हैं|
6) यह जो गौत छोड़कर ब्याह करने के कल्चर हैं, यह अमेरिका-यूरोप में भी मिलते हैं|

और जो खापलैंड के अलावा ना इंडिया और ना अमेरिका-यूरोप में भी नहीं मिलती, कुछ ऐसी बातें हमारे उदारवादी जमींदारी कल्चर की:
1) मर्द पुजारी रहित दादा नगर खेड़े यानि दादा नगर भैया या दादा गाम/ग्राम/पट्टी खेड़ा| ऐसा आध्यात्मिक सिस्टम जिसमें 100% धोक-पूजा की अगुवाई औरत को दी गई है वह यह दादे खेड़े हमारे ही कल्चर में मिले हैं आजतक मुझे| जिसमें औरत व्रजसला भी हो तो भी बस सुथरी तरह नहा-धो के बेशक ज्योत-धोक कर आओ, कोई नहीं पूछेगा खेड़े पर चढ़ने से पहले कि तू व्रजसला है या नहीं?
2) "देहल-ध्याणी की औलाद" व् "खेड़े के गौत" के नियमों के तहत "माँ का गौत भी औलाद का गौत" मिल जाना, यह गज़ब जेंडर-सेंसिटिविटी हमारे ही कल्चर में मिली है मुझे आजतक|
3) "ब्याह से पहले पिता व् ब्याह के बाद पति" की प्रॉपर्टी में कन्फर्म तौर पर बराबर की हकदारण औरत न्यूनतम तब से तो कन्फर्म तौर पर रही है जब महाराजा हर्षवर्धन ने सन 643 ईस्वी में खापों को सोशल जूरी आर्गेनाइजेशन के तहत राजकीय मान्यता दी थी, जबकि देश में इस बारे कानून आ के बना है अब 2014 में| और यह कानून सिर्फ कहने भर को नहीं रहा कि जैसे बहुत से समाजों में औरत विधवा हुई और पति की प्रॉपर्टी से बेदखल कर बैठा दी "विधवा-आश्रमों में जिंदगी भर फंडियों की हवस का शिकार होते रहने को"; नहीं अपितु बाकायदा हमारा खाप-सिस्टम दुरुस्त करता आया है कि दिवंगत पति की प्रॉपर्टी वाकई में उसकी पत्नी व् पत्नी के बाद उसके बच्चों की ही रहे| यह सोशल सिक्योरिटी देती आई है "खाप-व्यवस्था" औरतों को| इस बारे और भी सब-कॉलेजेज हैं|

खैर, अकेली खूबियों के जिक्र से इस लेख का मकसद पूरा नहीं होता| कमियाँ भी बहुत आई हैं वक्त के साथ समाज-कस्टम-सिस्टम में| वह तो खैर आप धरातल पर हैं तो मेरे से भली-भाँति परिचित होंगे, उनसे भी नई पीढ़ियों को अवगत करवा, जागरूक कीजियेगा| बस इसी के साथ मेरे पैगाम को विराम देता हूँ|

विशेष: सुनी है आप सम्मेलन तो घणघस जाट गौत का कर रहे हो, परन्तु जीमणवार पूरे गाम-गुहांड की 36 बिरादरी की दे रखी है? रै नानाओं, मामाओं, मामा-आळो; थारी इसी उदारता के कारण ही तो अपनी कौम-खूम-खून-कल्चर पर मरा जियूं सूं कि फरवरी 2016 में 35 बनाम 1 झेल के भी सर्वसमाज को भोज छकाओ सो| काश, कोई ऐसी मशीन या बायोमेट्रिक यंत्र होता जो 36 का 35 बनाम 1 बनाने वाले समाज के 5-10% कीड़ों को छाँट के इस 36 बिरादरी के भोज में आने से अलग कर सकता|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक




Wednesday, 26 February 2020

हरयाणवी ब्राह्मण समाज को शायद दुश्मन और भाई पहचानना नहीं आता!

सलंगित खबर पढ़िए और फिर मेरी पोस्ट पढ़िए:

कमाल कर दिया यार, मतलब जिस आदमी ने यह जमीनें थारे नाम की, उसके पाँव धो-धो पीने की बजाए उन्हीं बाबू-बेटा की रोहतक-सोनीपत एमपी सीटों पे गुद्दी टिका दी? रै इस वफाई के बदले कीमें आधे-पद्धे भी वोट दे देते तो थारी वफाई के बदले वफाई की बड़ाई गाई जाती| और टिकाई सो टिकाई वह भी किसको पावर देने के लिए टिकाई? ऐसे को जो चाहे थारी गोभी खोदे, हुड्डा साहब द्वारा तुम्हारे नाम की जमीनें तुमसे वापिस लेवे या तुम्हारी गर्दनें काटने दौड़े? या उस सेण्टर वाले को पावर देने को जो गर्दन काटने दौड़ने वालों पर एक्शन लेना तक थारे समाज के सम्मान में जरूरी नहीं समझता?

खैर, इस बात को जितना हो सके उतना जल्दी दबा लो, वरना लोग सवाल करने लगेंगे कि जब आजतक आप जाट-जमींदारों से दान में मिली जमीनों पर बसे चले आ रहे हो और वह जमीनें आजतक आपके नाम तक नहीं हैं तो यहाँ 5000 साल पहले कब-कौनसी रामायण-महाभारत के कौनसे ऋषि-मुनि तपस्या कर गए? दबवा दो इस आंदोलन को जो आपके 5000 साल पुराने ऐतिहासिक दावों की ऐसी दिन-धौळी पोल-पट्टी खोल रहा है| क्योंकि बामसेफ-दलित-ओबीसी वैसे ही "मूलनिवासी" बनाम "विदेशी" आंदोलन चलाएं हुए हैं| जाट-जमींदार तो फिर भी कुछ ना बोलेंगे, वह तो आपकी ऊपर बिंदु एक वाली हुड्डा साहब से की बेवफाई-सौदाई तक को दरकिनार कर दें शायद, परन्तु कहीं ऐसा ना हो कि आप इस आंदोलन को जितना ऊँचा उठाओ उधर बामसेफ इस खबर को उनकी बात का एक और सबूत बना ले आपके खिलाफ|

ऐसी खबरें पढ़ के मन खिन्नता से भर जाता है और लगने लगता है कि आपमें से 5-10% को छोड़ के, आपके जाटों से सौतेलेपन के व्यवहार में कुछ नहीं बदला| ना "मनसुखि" कानून बनाकर आपको अंग्रेजों से किसानी स्टेटस दिलवाने वाले सर छोटूराम के प्रति बदला और ना धौली की जमीनें थारे नाम करने वाले हुड्डा साहब के प्रति ही दिल पसीजा? बस "गधा, ज्यूँ कुरड़ियों पर रजे" उस कहावत की भाँति खटटर-मोदी ही रिझे फिर भी? रै टोहने तो चले थे, कीमें रू-सर का तो टोह लेते, बैठाया भी तो के यूँ घूँ, जो 4 बार हरयाणा फुँकवा चुका और थारी जमीनें तुमसे छीन चुका? के खट्टर के बाप-दादों ने दी थी थारे ताहिं ये जमीने?

कई मित्र बहुत ही प्यारे हैं आपमें से, आपके समाज से मेरी ही फ्रेंड लिस्ट में भी हैं परन्तु म्हारे बरगे, जो आपको, आपके समाज को अपना कहने को आगे बढ़ते हैं, उनके हौंसले तोड़ती हैं ऐसी खबरें-बातें कि कोई आपसे दोस्ती-भाईचारा निभाए भी तो किस विश्वास पर; कल को हुड्डा साहब की भाँति अपनी ही पीठ में छुर्रा घुपवाने हेतु? छोड़ दो इन नागपुरी फंडियों के प्रभाव में आना, ना कल्चर मिलता इनसे, ना स्वभाव-हाव-भाव|

अनुरोध: आशा है कि यह सलाहें देने पर मेरे साथ बैये वाली नहीं करोगे कि बैये ने सलाह दी और उसी का घोंषला तोड़ बगाया|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


यौद्धेयों के जागरूकता अभियान को अभिन्दन!

आपने अलख ना जगाया होता तो दिल्ली में आज 22 की जगह 1984 की भाँति 2200 से भी ज्यादा लाशें बिछी होती| दंगे भड़काने के उकसावे तो 1984 में भी बाहरी लोगों व् बाहरी सोच के ही थे, परन्तु तब यौद्धेय जागरूकता अभियान समानांतर में नहीं था| अपना यह क्रेडिट लेने से मत चूकियेगा क्योंकि स्थानीय अजगर, बाहरी मिश्राओं के उकसावे पे भी नहीं उकसा तो इसके पीछे कहीं-ना-कहीं विगत 4-5 साल से चल रहे आपके इस अथक अलख की मेहनत भी है|

इसी का असर हुआ जो कोई अजगर सामने नहीं आया, और मिश्रा का नाम लंदन के "दी-टेलीग्राफ", "गार्जियन" जैसे तमाम बड़े अखबारों समेत अमेरिका-यूरोप में हाइलाइट्स में आया और इसी भय से कि कहीं यह दूसरों के कंधों पर रख बंदूक चलाने वाले फंडियों की हकीकत इंटरनेशनल लॉबी में और ज्यादा ना खुलती जावे, इसलिए तुरंत आनन्-फानन में कोर्टों से ले एनएसए व् पीएमओ के दिशानिर्देश जारी हो गए|

अगर अजगर उकस जाता तो यही लोग सब अजगर के काँधे रख के, स्टुडिओज में बैठ के तमाशा देख रहे होते और खबरों पर डिसाइड कर रहे होते कि इस एरिया वाले दंगे को "मुस्लिम बनाम इस जाति दिखावें या उस जाति?"

आप यौद्धेयों ने बड़े दो टूक शब्दों में दो हरफी संदेश दिलवाया है समाज के फंडियों को कि, "फंडियो, फंड रचने जानते हो तो उनको अंजाम भी खुद देना सीखो"|

बाकी व्यक्तिगत तौर पर आहत हूँ इन दंगों से, यह होने ही नहीं चाहियें थे| और जो "अद्दू फ़ोददे", "फद्दू योद्धे" लिखते-बिगोते हैं, बोलो उनको कि यह कंट्रीब्यूशन है हमारे होने का समाज में कि हमारे जागरूकता अभियानों की वजह से आई जागरूकता के चलते फंडी जो अकेले पड़े तो फंडी को अपनी महाप्रलय मचाने की मंशा दो दिन में मन में मसोसनी पड़ी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

क्या खूब ताकत पहचानी है अपनी; क्या गजब जागरण आया है!

तुम्हारा लोहा तो हमारे पुरखों ने बखूबी हुआ आजमाया है,
हमने तो बस आज की पीढ़ी को पिछोका याद दिलाया है|
हम पर क्यों रोते हो पोस्टों के जरिये सोशल मीडिया पर?
उधर जाओ फलानि माँ, धिमकाने धर्म-राष्ट्र ने तुम्हें बुलाया है||

युवा पीढ़ी को भी क्या खूब महाराजा सूरजमल सुजान समझ आया है,
उसका पानीपत में फंडी का गेम समझना, दिल्ली में उसकी खूमों ने दोहराया है
तभी तो पेशवों की भाँति, आज मिश्रों का हर उकसावा हुआ ज्याया है|
वाह, क्या खूब ताकत पहचानी है अपनी; क्या गजब जागरण आया है|

असर सर छोटूराम का भी नस-नस में चलायमान हुआ जाता है,
वो देखो, वो फंडी, क्योंकर बिन मौसम गला फाड़े जाता है|
वो मेहनत तो रंग लाई है, जिसकी हवा हमने 2016 से ख़ास चलाई है,
तभी तो फंडियों की दो दिन में ही दंगे रचने की हवा हुई हवाई है|

अब तरक्की की राह पर ही रहेगा, इतना जो भगत सिंह जंचा रहा ,युवा को,
इन फंडियों के उतार मुखौटे, युवा अब इनकी असलियत बता रहा इनको|
न्योंदे तुम हमारे घालोगे, हम से पा कर, हम पर ही घुरकी घालोगे?
फुल्ले-भगत जब अलख जगावे, फंडियों का असर दूर-लग खत्म जावे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ना देश में कोई विदेशी आक्रांता आया है!

ना देश में कोई विदेशी आक्रांता आया है,
ना देश में घुसा है कोई लुटेरा,
फिर कौन है यह भीड़, किधर से आई?
है कौन (कपिल मिश्रा, यह बिहार से यहाँ रोजी-रोटी कमाने आया है या मस्ताने?) इसका चेहरा?

सोचा, भूल गए हो तो इस सलंगित खबर के जरिये बता दूँ और इनका नाम है "फंडी", जिसका कपिल मिश्रा नाम का एक चेहरा लांच किया गया है| यह अपने धर्म के भीतर शांतिकाल में शांति नहीं रहने देते, धर्म से बाहर किसको चैन से जीने देंगे ये| और एक ख़ास बात, पूरे मुग़लकाल से ले अंग्रेजीकाल उठा के देखना, सबसे ज्यादा मुगलदरबारी हों या अंग्रेजदरबारी; यही मिलेंगे| और अगर वाकई में इतिहास की भाँति कोई मुग़ल-अंग्रेज फिर से घुस आये तो कुत्ता जैसे मालिक के धमकाने पर उसके पैरों में लौटने-चाटने लगता है ऐसे लौटते-चाटते हुए सबसे पहले दरबारी बनने भागेंगे ये फंडी, जो आज ना निचले टिक रहे, ना किसी को टिकने दे रहे| आये बड़े "ऑफ-सीजन" के धर्मभक्त व् राष्ट्रभक्त|

दंगे रुकवा या शांत ना करवा सको तो दूर रहिएगा इनसे| इनके बड़े ब्योंत, बड़े जुगाड़ हैं तो बड़ी बात होंगी ही| तुम-हम ठहरे महाराजा सूरजमल जी के कथन वाले मामूली से जमींदार, हमारे इतने ब्योंत कहाँ कि इतने बड़े पुवाड़े-पंगे रच सकें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


दिल्ली में शुरू हुए फंडी बनाम मुस्लिम दंगे!

दिल्ली में कपिल मिश्रा की अगुवाई में शुरू हुए फंडी बनाम मुस्लिम दंगों में जरा सम्भल कर हाथ डालें, कोई इनको "हिन्दू बनाम मुस्लिम दंगे" समझ कर तो इनमें अपनी पूंछ बिलकुल ना जलवाए, खासकर उदारवादी जमींदारी (इसको मानने वाले किसान-दलित-ओबीसी-व्यापारी-पुजारी-मुल्ला-मौलवी सभी) तो "मुज़फ्फरनगर दंगे" व् "35 बनाम 1 वाले हरयाणा दंगों" के इतिहास को देखते हुए दूर ही रहें इस सबसे| वैसे भी किसान-जमींदारों की औलादें, जिनमें 90% "हैड-टू-माउथ" कमा के खाने वाले लोग हैं, वह अपने घरों की तरफ जरूर देख लेवें| मिश्रा जैसों को कुछ हुआ तो धर्म से ले सरकारें तक करोड़ों के मुवावजे दे देंगी, और तुम्हें मिलेंगी तो सिर्फ जेलें या कभी ना खत्म होने वाले कोर्ट-केस या बाद में "मुस्लिम बनाम हिन्दू" में से "हिन्दू" गायब कर दिया जायेगा और इसकी जगह एक जाति विशेष चिपका (जैसे मुज़फ्फरनगर दंगों में किया था) के निकल लेंगे|

वैसे है ना कमाल, मुंबई में स्थानीय लोग दंगे करते हैं, गुजरात में स्थानीय लोग करते हैं, परन्तु विशाल हरयाणा (दिल्ली-आज का हरयाणा व् वेस्ट यूपी) में बिहार-बंगाल से आये मिश्रा जैसे लोग दंगे-फसाद करते हैं| जरूर यह महाभारत कोरी कपोल-कल्पना है, यहाँ स्थानीय लोग शांति-सद्भाव से रहने वाले हैं और वह ऐसे ही रहेंगे; इस महाभारत को उन्हीं को जमाने दो जिन्होनें यह घड़ी हुई है|

अगर आप इन दंगों को रोकने या शांत करवाने की भूमिका नहीं निभा सको तो आप इसमें न्यूट्रल भी रहेंगे तो कल को बहुत भला कहलाये जाओगे| यह दंगे धर्म या देशभक्ति से कुछ सरोकार नहीं रखते, अपितु सिर्फ-और-सिर्फ फंडी उनकी इकनोमिक ताकत व् ग्रिप बढ़ाने हेतु भिड़ रहे हैं देश की बाकायदा नागरिकता वाले माइनॉरिटी धर्म से|

सनद रहे, चाहे 1984 हो, 2013, 2016 या अब 2020; इन सबमे एक पक्ष स्थाई तौर पर चल रहा है और उसका नाम है सर छोटूराम का बताया हुआ "फंडी"; जंगली मेंटालिटी ना हो तो, जब देखो इनको झींगा-ला-ला-हुर्र-हुर्र करने को कोई ना कोई चाहिए| अबकी बार इनको खुद ही करने दीजिये, "झींगा-ला-ला-हुर्र-हुर्र"|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 21 February 2020

आजकल वाले इंडियन राष्ट्रवाद की परिभाषा बहुत ही सरल है!

तुमको, तुम्हारी जाति-बिरादरी को, तुम्हारे पेशे को, व् तुम्हारी सोच को राष्ट्रवाद से संबंधित तमाम शब्दों-विचारों-व्यवहारों से जोड़ दो; बस हो गया इंडिया का आजकल के राष्ट्रवाद का डेफिनिशन पूरा|

उदाहरण के तौर पर:
1) अगर तुम व्यापारी हो तो, सारा राष्ट्रवाद व्यापार के इर्दगिर्द घड़ लो| इसके हिसाब से जो बोले वह राष्ट्रवादी बाकी सब देशद्रोही; फिर बेशक बोलने वाला स्वधर्मी, सजातीय तक भी क्यों ना हो|
2) अगर तुम पुजारी हो तो, सारा राष्ट्रवाद पुजार के इर्दगिर्द घड लो| इसके हिसाब से जो बोले वह राष्ट्रवादी बाकी सब देशद्रोही; फिर बेशक बोलने वाला स्वधर्मी, सजातीय तक भी क्यों ना हो|

ऐसा है तभी तो कोई माल्या-मोदी-चौकसी हजारों-करोड़ लेकर देश को चूना लगाने पर भी राष्ट्रद्रोही नहीं कहलाता| तभी तो कोई चिमयानन्द, कोई आशाराम, कोई व्रजसला स्त्री को खाना पकाने पर अगले जन्म में कुत्ता बनेगी कहने वाला राष्ट्रद्रोही नहीं कहलाता| और इधर किसान को देखो 2-4 लाख कर्जा भी गबन कर दे तो क्या-क्या धारा नहीं लग जाती उस पर? कोई किसान सड़कों पर आकर हक मांग ले तो सीधा राष्ट्रद्रोह ठोंकते हैं|

अब तुमने अपनी ही गलतियों के चलते वह जमाने तो लाद दिए जब ऐसे फंडी-पाखंडियों के टकणों पर यह कहते हुए कि, "लातों के भूत, बातों से नहीं माना करते" लठ धरते हुए तुम्हारे पुरखे एक पल नहीं लगाया करते, लेशमात्र झिझक नहीं दिखाया करते| उनके जितनी औकात-बिसात तो जिस दिन वापिस पा लोगे तो बात ही कुछ और होगी परन्तु अभी भी किसान-फौजी-खिलाडी या मजदूर जब तक तुम इस तरह से अपने राष्ट्रवाद का जाल नहीं बुनते; तुम्हें सिर्फ एक काम रहेगा| भेड़ों की तरह इधर से उधर, उधर से इधर हाँकेँ जाओगे वह भी उन द्वारा जो राष्ट्रवाद की परिभाषा ऊपर बताई परिपाटी अनुसार घड़ के अपना हर हित साध अपने चौगरदे हर सुरक्षा बाँध चुके हैं|

क्योंकि तुम राष्ट्रवाद का समर्थन उसकी शहीद-ए-आजम भगत सिंह वाली देशभक्ति समझ व् फौजियों वाली परिभाषा समझकर करते रहोगे जबकि जो इसके झंडाबदार बने हुए हैं उन्होंने इसकी परिभाषा ऊपर कहे अनुसार मरोड़ी हुई है| इसलिए तुम समर्थन करके भी ठन-ठन गोपाल गोबर-गणेश बने रहोगे| और यह मरोड़ी हुई है इसका टेस्ट करना है तो कहो इनको जरा शहीद-ए-आजम वाली देशभक्ति से राष्ट्रवाद चलाने की; 99% के राष्ट्रवाद की साँप की भाँति केंचुली सामने पड़ी होगी और तुम्हारी अक्ल ठिकाने पे|

गोबर-गणेश नहीं बने रहना है तो फसलों के दाम नहीं मिलने पर चिल्लाओ-लिखो, किसान पर होते हर जुल्म पर चिल्लाओ-लिखो कि यह राष्ट्रद्रोह है और ऐसा करने वाले असली राष्ट्रद्रोही| जब तक तुमको राष्ट्रद्रोही ठहरा देने वाले को राष्ट्रद्रोही ठहरा देने के खुद के ओप्संस नहीं रखोगे और इन्हीं की भाषा वाला राष्ट्रवाद नहीं अपनाओगे तो "के तो नंगे नहाओगे और के निचोड़ोगे" वाली कहावत की तर्ज पर अपना खोसन ही उतरवाओगे| 

दिखने की कोशिश मत करो, जो हो वह बाई-डिफ़ॉल्ट दिखने दो| तभी वह देख पाओगे जो ऐसे लोग तुमसे छुपाते हैं| इसलिए:

3) अगर तुम किसान-जमींदार हो तो, सारा राष्ट्रवाद किसानी-जमींदारी के इर्दगिर्द घड लो| इसके हिसाब से जो बोले वह राष्ट्रवादी बाकी सब देशद्रोही; फिर बेशक बोलने वाला स्वधर्मी, सजातीय तक भी क्यों ना हो|
4) अगर तुम मजदूर-कर्मचारी हो तो, सारा राष्ट्रवाद मजदूरी-कर्मचारी के इर्दगिर्द घड लो| इसके हिसाब से जो बोले वह राष्ट्रवादी बाकी सब देशद्रोही; फिर बेशक बोलने वाला स्वधर्मी, सजातीय तक भी क्यों ना हो|

जब तक इंडिया में यह वाली राष्ट्रवाद की परिभाषा चलेगी, तब तक तुम भी यही परिभाषा अपना लो; जब यह थक जाएँ इससे तो तुम भी इसको छोड़कर शुद्ध सरदार भगत सिंह व् फौजियों वाली देशभक्ति की परिभाषा पर लौट आना| वरना तो नाकों चने चबाने को और तैयार कर लो खुद को|

उद्घोषणा विशेष: व्यापारी-पुजारी-किसानी-जमींदारी-कर्मचारी हर जाति-वर्ण-धर्म के लोग इन पेशों में हैं; कहीं अब जातिवाद के काटे हुए चूरणे चले आवें इस पोस्ट में जातिवाद ढूंढने|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 19 February 2020

राय बहादुर दादा चौधरी घासी जी मलिक के प्रकाशोतष्व पर आप सभी को शुभकामनायें!


आप हिंदुस्तान की सबसे बड़ी खाप मलिक (गठवाला) खाप के आजीवन निर्विवादित चौधरी रहे| आपकी न्यायप्रियता इतनी मशहूर हुई कि आपके सालों का एक ब्राह्मण से जमीनी-विवाद हुआ| फैसले के लिए आपके नाम की चिट्ठी पाड़ी गई| सालों ने सोचा कि गाम के गोरे पहुँचते ही जीजा की घोड़ी की लगाम पकड़ कर घर तक लाएंगे, दूध-नाश्ता करवा के परस में जाने देंगे तो जीजा और राजी होगा व् फैसला तुम्हारे हक में देगा| दादा चौधरी जैसे ही उनकी सुसराड़ पहुंचे तो साले-सपटों ने योजना मुताबिक करने की सोची| परन्तु दादा ने सालों के हाथ से घोड़ी की लगाम झटक दी और उनको उससे दूर रहने की कहते हुए कहा कि, "मैं इस वक्त सर्वखाप पंचायती बनके आया हूँ कोई मंगता-फंडी या थारा रिश्तेदार नहीं| गाम की परस में चालो| पहले फैसला होगा, उसके बाद अगर थम निर्दोष साबित हुए तो मैं और मेरी घोड़ी थारी देहल चढ़ेंगे|" दादा ने उनके सालों व् ब्राह्मण दोनों पक्ष सुने| सारी सुणके फैसला ब्राह्मण के पक्ष में हुआ|

यह साले सगे थे या चचेरे यह मुझे कन्फर्म नहीं, परन्तु बताते हैं कि उसके बाद दादा चौधरी की न्यायप्रियता की ख्याति बुलंदियों को छूने लगी थी| सलंगित पोस्टर में दादा चौधरी व् गठवाला खाप के स्वर्णिम इतिहास की कुछ बातें लिखी हुई हैं|

विशेष: 19 से 22 फरवरी 2016 की चार काली-स्याह तारीखें जिंदगी-जेहन में इस तरह छप चुकी हैं कि विगत चार साल से दादा घासी जी के प्रकाशोतस्व की बधाईयाँ भी आदान-प्रदान नहीं की थी| वजह थी उनका प्रकाशोतस्व इन्हीं तारीखों में से आज यानि 19 फरवरी को पड़ना| परन्तु वक्त के साथ सब साध के चलना होता है, इसलिए जहाँ एक तरफ यह चार तारीखें 35 बनाम 1 के ताँडव का कलंक याद दिलाएंगी, वहीँ इन्हीं तारीखों में पड़ने वाला दादा घासी जी प्रकाशपर्व यह राह देगा कि अगर भविष्य में दोबारा 35 बनाम 1 जैसी सॉफ्ट-टार्गेटिंग से बचे रहना है तो पुरखों की "किनशिप" को अगली पीढ़ियों को पास करते चलिए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Monday, 17 February 2020

आस्था और श्रद्धा!


आस्था और श्रद्धा - यार इन्नें ब्याह-ठयाह दयो, जिसके पल्ले की सें उन गेल खन्दा दयो| ये तो समाज के इहसी चिपका दी फंडियाँ नैं, ज्यूँ बाप कै कुँवारी कोलै लाग री हो| कर दो इनको विदा, जितना जल्दी हो सकता हो| भतेरी सुवासण हो ली और के कुँवार-कोठड़े चिनवाओगे इनके? इतने पक्के सबूत तो ऑफिसियल गजटियर से ले आर्कियोलॉजिकल फैक्ट्स तक मानने छोड़ दिए लोगों ने, जितना इनका नाम ले फैलाई-परोसी चीज नैं चिपकाएं हाँडै सै दुनिया| जमा जाम बना दिए लोग बुद्धि-सोधी दोनों से|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक