Thursday, 9 April 2020

आस्था-श्रद्धा-निष्ठां!

हर धर्म पुस्तक की प्रतावना में लिखा मिलेगा कि आपको यह पुस्तक पढ़ने से पहले से इसके प्रति मन में आस्था-श्रद्धा-निष्ठां होनी जरूरी है| और इनमें से जितनी भी वर्णवाद को डिफाइन करती पुस्तकें हैं उनके अंदर जाएंगे तो 99% में किसान को असल तो शूद्र (हल चलाने वाले व् पशुपालन वाले) अन्यथा वैश्य (कृषि संबंधित व्यापार वाले) के रूप में अंकित किया मिलता है| अब विवाद यहीं से खड़ा होता है इन्होनें संसार को अन्न देने वाले के प्रति (जिस पर कि पेट-पूजा को यह खुद निर्भर होते हैं) सारी आस्था-श्रद्धा-निष्ठां कुँए में झोंकी होती है, उसको न्यूनतम स्तर का दिखाया होता है और फिर उम्मीद करते हैं कि किसान-जमींदार वर्ग के लोग इनके लिखे को आस्था-श्रद्धा-निष्ठां से पढ़ें? अरे तुम में बिना अन्नदाता हुए जब इतना दंभ हो सकता है कि तुम अन्न के लिए जिस पे निर्भर हो उसके प्रति तुम अपनी लेखनियों-पुस्तकों में रत्तीभर भी आस्था-श्रद्धा-निष्ठां नहीं दिखाते तो खुद अन्नदाता में कितना होना चाहिए, इस हिसाब से?

ये खामखा की आस्था-श्रद्धा-निष्ठां तो किसान-मजदूर जैसे वर्गों के ऐसे चेपने भागते हो, जैसे कोई कुंवारी कोले लगा दी हो (हिंदी में इसका मतलब घर में ब्याह लायक बेटी होना)| कोई ना इब यें थारी कुंवारी ब्याहने जोगी हो ली, इनको ब्याह-ठाह दो| और किसान के प्रति खुद में आस्था-श्रद्धा-निष्ठां जागृत कर लो उनसे आस्था-श्रद्धा-निष्ठां की अपेक्षा करने से पहले|

इसके बिना यह तुम्हारी पुस्तकें धर्म नहीं हो सकती, कोरी किसान-मजदूर तबके को दबाये रखने के साइकोलॉजिकल षड्यंत्र व् पॉलिटिक्स के अलावा| मैंने नहीं ऐसा घटिया वर्गीकरण पढ़ा किसी अन्य धर्म की पुस्तकों में, जैसा किसान के प्रति तुम रखते हो| किसी और ने पढ़ रखा हो तो मुझे करेक्ट कर दीजियेगा इस पॉइंट पे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आज की मेरी पोस्टें देख के पंचकूला से कजन का मेसेज आया कि, "तेरा क्यों दूध टपक रहा है तब्लीग़ियों के लिए?"

वार्ता कुछ यूँ चली:

मैं: तो मखा फिर पंचकूला में क्यों बैठा है, जा पहुँच अपने गाम में तेरे दोनों लड़कों और भाइयों को लेकर और फूंक दे इनके मकान?
कजन: खामोश!
मैं: मखा तू तो धनी जाट है, साधन-सम्पन्न है, तेरे को खुद फील्ड में उतरने की कही तो खींच गया ख़ामोशी? मखा इसका मतलब पूरा फ़ंडी हो लिया तू भी? जो गरीब जाट को ही दंगों में फंसवाना चाह रहा? जा ना हिम्मत है तो खुद लठ के?
कजन: थोड़ा शांत होते हुए, अरे फूल तुझे पता नहीं है, यह गाड़े 10-15% होते ही सबके सर पे बैठ जाते हैं|
मैं: मखा फरवरी 2016 में कौनसे गाड़े थे?
कजन: फिर से खामोश!
मैं: तू इनको रो रहा, मखा जो ये तेरे खुद के यहाँ 3% फंडी हैं, ये 3% होते हुए भी सारे देश का भूत बनाये हुए हैं यह ना दीखते तुझे? कहीं इस बनाम उस, कहीं 35 बनाम 1, कहीं बैंकों के बैंक लूट के भाग रहे हैं, कहीं भाईभतीजावाद से सब सिस्टम जाम कर रखे हैं, कहीं किसानों की जमीनों से ले फसलों पर गैर-वाजिब नजर रहती है इनकी|
कजन: पर जो भी कह, तेरा यूँ तब्लीग़ियों को सपोर्ट करना, मैं जायज नहीं मानता|
मैं: मैंने कब कोई ऐसा तब्लीगी सपोर्ट कर दिया जो वाकई में ग्राउंड पे कोरोना केस के तहत पाया गया हो? पढ़ मेरी एक-एक पोस्ट दोबारा से| हर पोस्ट में अंत में यह जरूर लिख रहा हूँ कि अगर ऐसा कोई केस मिल रहा है तो उसको अपने हाथ में मत लो अपितु पुलिस-प्रसाशन को पकड़ा दो| मैंने कब यह कह दिया कि उसको घर-गाम में वेलकम करो?
कजन: भाई एक तो बंद कमरों में बैठे, ऊपर से यह मीडिया दिन-रात यही भड़क|
मैं: तू ऐसे चैनल्स देखता ही क्यों है?
कजन: अच्छा भाई, इब तू पैंडा छोड़ दे, आ गई तेरी बात समझ|

सोच में हूँ कि जिस जाट कौम के पुरखे क्या ब्राह्मण, क्या बनिया, क्या ओबीसी, क्या दलित, क्या मुस्लिम, क्या हिन्दू, जिस किसी के भी मुकदमे इनकी पंचायतों में आये, इन्होनें बेखटके निर्भीकता-पारदर्शिता-निष्पक्षता से निबटाये; मखा उनके वंश शहरों में जा के इतने विचलित हो चुके हैं? यह बिरसा भूल गए तभी तो  कोठियों-सेक्टरों में बैठने के बावजूद भी 35 बनाम 1 झेलते हो|

खैर, कजन शांत हुआ, कम से कम थोड़ी देर हेतु ही सही अपने एक को तो वास्तविकता से रूबरू करवाया|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 8 April 2020

"मंडियों में फसल लाने वाने वाले किसानों से कहेंगे कि कुछ हिस्सा दान करें, ताकि देश सेवा हो|" - हरयाणा सीएम खटटर बाबू का बयान

महाराज एक तो यह चल क्या रहा है? परसों बड़े वाला औरतों के जेवर-गहने मांग रहा था और आप सीधा फसल ही मांगने लगे? विश्व में कोई सरकार ऐसी अपील नहीं कर रही जैसी दो दिनों में आपने और आपके बड़े वाले ने करी है, एक जेवर-गहने मांग रहा है और एक फसल ही मांग रहा है| क्या धन्ना सेठों के खजाने खाली हो गए या मंदिरों में लोगों द्वारा दान दे के जोड़ी सम्पदा को धरती निगल गई, अगर एक बार को यह मान लिया जाए कि सरकारों के खजाने खाली हुए पड़े हैं तो?

एक तो पिछले छह साल से मंडियों में लूट-लूट के वैसे ही किसान को कंगाल किया हुआ है आप लोगों ने| उसपे वह इस फसल को बेच इस कोरोना में संकट में अपने घर-बच्चों की कुछ दवा कर लेता तो आप उसपे भी दान मांगने लगे वह भी देश सेवा का नाम दे कर| गलियों में घूमता कोई मंगता या साधु हो आप या एक राज्य की सरकार के मुखिया? और अभी तो कोरोना उस स्तर तक फैला भी नहीं है, जिस स्तर तक अमेरिका-यूरोप झेल रहे हैं और अभी से दान?

खैर, दान भी करेंगे क्यों नहीं करेंगे; ऐसी नौबत आएगी तो सब होगा| आखिर पुरखों के सिद्धांत "अपने गाम-खेड़े में कोई भूखा नहीं सोना चाहिए" के सिद्धांत पे चल, बसे गाम हैं हमारे, इतनी तो समझ उनमें बाई-डिफ़ॉल्ट है कि कोई अन्न से भूखा नहीं मरने देना| तो आप इनको देशसेवा और समाजसेवा सिखाने की बजाए वहां यह अपील कीजिये जहाँ जरूरत है इसकी|

और आप यह क्यों नहीं कहते कि व्यापारी किसान को डबल रेट दे के अबकी बार फसल खरीदें? इससे उनके हिस्से की देशसेवा भी हो जाएगी और गरीब किसान के यहाँ दवा का बंदोबस्त भी?

या इन मंदिर वालों से यह देशसेवा करवाने का कष्ट कब करोगे? सुनी है एक-एक मंदिर के पास अरबों-खरबों का चढ़ावा-सोना-रुपया पड़ा है? गुरुद्वारे वाले सिखों समेत तमाम धर्म वालों को लंगर छका रहे हैं, मस्जिदों वाले मुस्लिमों की मदद में धर्म के चढ़ावे-पैसे को लगाने में जुटे हैं, चर्च वाले ईसाईयों की सेवा में अपना धन बाँट रहे हैं इस वक्त; तो क्या यह मंदिरों वाले अपने धर्म वालों हेतु इस संकट की घड़ी में यह खजाने नहीं खोल सकते? या छाती पे रख के ले जायेंगे ये इसको? पूरे विश्व में एक यही हैं जो मंदिरों में जनता की दी धन-सम्पदा पर कुंडली मारे बैठे हैं और एक पैसा जनता के लिए आगे नहीं कर रहे| अब भी यही सोचते हैं कि जनता ही जगराते-भंडारे लगा के काम चला दे, दान दे दे|

इनको करिये यह अपील सबसे पहले| और फिर करिये धन्ना सेठों को| ताकि आज के दिन अनाज से भी जरूरी दवाई व् मेडिकल सुविधाओं हेतु पर्याप्त धन जुटाया जा सके| किसानों के धर्मात्मा होने पर संशय ना करें और इतनी जल्दबाजी ना मचाएं, नहीं मरने देंगे किसी को भूखा तो कम से कम|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 4 April 2020

चार पीढ़ियों बाद भी इन्होनें इनके पुरखे का आदर्श पहनावा-चाक-चौपटा तक फॉलो किया है|

चार पीढ़ियों बाद भी इन्होनें इनके पुरखे का आदर्श पहनावा-चाक-चौपटा तक फॉलो किया है| और एक ये हरयाणवी-पंजाबी उदारवादी जमींदार परिवेश के लोगों को देख लो, ब्याह-शादी-तीज-त्योहारों-पंचायतों-सभाओं के मौकों पर भी पुरखों की सफेद या सुनहरे रंग की पगड़ियां सिरों पर रखने में भी बोझिल हो चले हैं| 99% सरफुल्ले मिलेंगे, वह भी 4 पीढ़ी गैप के बाद नहीं, अपितु मात्र 1-2 ही पीढ़ी गैप में ही| बताओ चित्पावनी आरएसएस वाले पेशवे क्यों ना तरक्की व् राज की राह चढ़ेंगे? जिनको अपने पुरखों का कल्चर-कस्टम-बिरसा भलीभांति संभालना आता हो, कौनसी रेहमत-खिदमत ना उनके कदमों में पड़ी होगी? यह इस पर रहते हैं तभी तो कोई इनके साथ 35 बनाम 1 नहीं कर पाता| जो अपना कल्चर-कस्टम सर-माथे लेकर चलने का जिगरा नहीं कर पाए, उसको कभी इंसान मत आंकना और ना उसके किसी प्रभाव में चलना|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक



क्या आप, किसी ऐसी फॅमिली को जानते हो जिसके यहाँ नियोग से औलाद हुई हो?

क्या आप, किसी ऐसी फॅमिली को जानते हो जिसके यहाँ नियोग से औलाद हुई हो और वह ढिंढोरा पीटती पाई गई हो कि देखो जी हमारे यहाँ जो बच्चे हुए हैं ये इनके असली बाप के नहीं अपितु किसी के फल-खीर आदि से हुए हैं? किसी ऐसी फॅमिली का पता चल भी जाए तो आप उनको कितना आदर-सम्मान-ओहदा-रुतबा देते हो, मेरे ख्याल से दया की दृष्टि से देखते हुए साइड में कर देते हो? अगर इसके विपरीत एक का भी जवाब हो तो, बेशक ऐसी कथा-कहानियों को अपना इतिहास-कल्चर मानना अन्यथा अपने वास्तविक पुरखों को जानने की कोशिश करना| दत्तक औलादें कोई अच्छा काम करें तो उनको आदर्श मानने में कोई बुराई नहीं परन्तु इतना बड़ा भी आदर्श मत मान बैठना कि कहीं अपना वंशबेल व् कल्चर ही उनसे जोड़ के देखने लगो और पता लगा कि इस चक्कर में दत्तक बाप भी जाति बाहर वालों को बना बैठे| अगर मैं ऐसे खानदानों को अपना वंश या कल्चर बताऊंगा तो दुनिया हँसेगी मुझपे कि क्या ऐसे निर्बुद्धि लोग थे तेरे पुरखे कि अगर नियोग से तुम्हारी माओं को गर्भ धारण करवाए गए तो तुम राजे-महाराजे होते हुए भी घर-खानदान की इतनी गंभीर बात गुप्त ना रखवा सके? वही करे यकीन ऐसी कथा-कहानियों पर जिनकी अपनी बुद्धि भर्मित हो या चेतना मृत हो| और कोई यह कहे कि अजी ऐसा तो इतिहास बताने हेतु करना पड़ता है, तो ऐसा है ऐसे बताने वालों को कहो कि अपनी जाति, अपने खानदान वालों पे बना के सुना-बता-दिखा लें ऐसा इतिहास| सीधी बात मैं कहा नहीं करता, लेकिन बात सीधी ही होती है बस व्यक्त ऐसे तरीके से करता हूं कि किसी के अहम पर भी ना बैठूं और जो समझना चाहता हो वह समझ भी जाए| हम शरीफ व् इंसनियत भरे खानदानों-जातियों के लोग हैं, ऐसे किसी के परिवारों की निजताओं की बख्खियाँ उधेड़ना और उनको लोकचर्चा का विषय बनाना ना हमारा डीएनए और ना हमारा कल्चर|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

हम दलित सीरी को भी काका-दादा-ताऊ के नेग से बोलने वाले लोग रहे हैं!

"शूद्र-स्वर्ण, छूत-अछूत और ऊंच-नीच का भेदभाव मुस्लिमों के आने के बाद इंडिया में फैला, वरना इस से पहले हमारे धर्म-कल्चर में ऐसी दूषिता नहीं थी" - पिछले 6 साल से भक्तगणों ने इनके आकाओं के आदेश पर यह सोशल मीडिया कैंपेन खूब चलाई| "औरत के मान-सम्मान सर्वोच्च थे" - इस बारे भी बहुत कैंपेन देखी गई| इन दोनों कैंपेन को धो देंगे व् इनके असर को उत्तर-कात्तर कर देंगे, आजकल टीवी पर दिखाए जा रहे प्रथम संस्करण वाले धार्मिक टीवी सीरियल्स| प्रथम संस्करण इसलिए, क्योंकि इनमें शूद्र-स्वर्ण का घहटा और औरत पर सम्पूर्ण मर्दवाद का बखान अधिकतम रूप में है| भय है कि कहीं दलित आंदोलन इन टीवी सीरियल्स को आधार मान, अपने मूवमेंट्स में और तेजी पकड़ें व् देश में शूद्र-स्वर्ण की खाई पटने की बजाए कोरोना के बाद और ज्यादा बढ़ी देखने को मिले| ऐसा क्यों, किसलिए, इसपे इन सीरियल्स के उदाहरण समेत एक पोस्ट निकालूंगा, फुरसत में| अन्यथा जो इनको देख रहे होंगे, वह हर एपिसोड के साथ समझते जाएंगे कि यह सीरियल्स दलित मूवमेंट व् फेमिनिज्म को घटाएंगे या बढ़ाएंगे| फ़िलहाल इतना ही कहूंगा कि उदारवादी जमींदारी के परिवेश वाले लोग, खामखा अपनी पूँछ बीच में ना देवें क्योंकि वर्णवाद, शूद्र-स्वर्ण हमारे पुरखों की थ्योरी नहीं रही है| हम दलित सीरी को भी काका-दादा-ताऊ के नेग से बोलने वाले लोग रहे हैं, हाँ कुछ 5-10% जो वर्णवादी प्रभाव में होते हैं उनको छोड़कर| दलितों को अच्छे से देखने समझने दो कि उनके साथ भेदभाव करने वाले उदारवादी जमींदार लोग नहीं अपितु वो हैं जो इन सीरियल्स में दिखाए जा रहे हैं| मैं इन सीरीयल्स की तमाम वर्णवादी चीजों से खुद को दूर करता हूँ, मेरे पुरखों, मेरे कल्चर को दूर करता हूँ| बाकी इन सीरियल्स की अच्छी बातों को मैं अंगीकार करता हूँ| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 3 April 2020

स्वयंवर - स्टैंडर्ड या भाई-भतीजावाद, वर्णवाद व् बाहुबल से भरा ढकोसला?


1) एक स्वयंर की बजाए, बहन को बुआ के लड़के के साथ भगा रहा है|
2) एक तीन-तीन राजकुमारियों को स्वयंवर में जीतने की बजाए, "जिसकी लाठी, उसकी भैंस" की तर्ज पर अगवा करके ही ला रहा है|
3) एक जो मछली की आँख में तीर मार सकता था उसको शूद्र बता के प्रतियोगिता से ही आउट कर दिया जाता है|
4) एक बचपन में धनुष उठा लेने वाली को स्वयंर में तो हार जाता है, परन्तु बाद में इतना बलशाली साबित होता है कि बहन की नाक कटाई का बदला लेने हेतु जो स्वंयवर में धनुष नहीं उठा पाने के कारण हारी थी और जो बचपन में उसी धनुष को उठा लिया करती थी, उसी को अपहरण करके ले जा रहा है|
5) एक शेर का बच्चा तो अपनी सगी मौसी के भाई की बेटी यानि अपनी भतीजी को ही स्वयंवर से अपहरण करके ले गया?

जितने भी आइकोनिक स्वयंवर जो इन्होनें बढ़ा-चढ़ा के गाये हैं जो अगर इनमें से एक भी लॉजिकल व् एथिकल टर्म्स पर हुआ हो तो बता दो?

और फिर यह भी घस्से मारेंगे कि अजी रिकॉर्ड है हमारा, हमने तो कभी युद्ध लड़े ही नहीं, झगड़े किये ही नहीं; किसी दुश्मन देश पर हमला किया ही नहीं; इसीलिए तो हम विश्व से भिन्न हैं| अच्छा, अरे जाने दो तुम, छोरियों के ब्याहों तक में मारकाट मचाने वालो, धक्काशाही करने वालो; देखे हैं तुमने कैसे विश्वराज किये होंगे|

वैसे तो फंडियों ने स्वयंवर को सबसे बड़ा स्टैण्डर्ड बता-गा रखा था और वैसे जो खुद भगवान था वह अपनी बहन का स्वयंवर करने की बजाए उसको वैसे ही बुआ के लड़के के साथ भगा दे रहा था? तभी तुम फंडी कहलाते हो| अब कहेंगे अजी वो भगवान जरूर था परन्तु जीवन साधारण इंसानों का जी के दिखा रहा था| तो फिर इस लॉजिक पे तो मैं भी भगवान हूँ और साधारण इंसान का जीवन जी के दिखा रहा हूँ| इसलिए मुझ भगवान का आदेश मानो और अपनी यह गपोड़ें बंद करो|

विशेष: इस पोस्ट को वही समझ पाएगा, जिसको स्वयंवर इतिहास के फेमस किस्से पता होंगे| सीधे नाम ले के बात इसलिए नहीं करी क्योंकि मुझे किसी के अहम् पर नहीं बैठना और ना इनकी मार्केटिंग करनी| परन्तु बात भी कहनी थी और जो समझना चाहते हैं उनको समझानी थी और वो समझ भी गए होंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 2 April 2020

सोचा रहा हूँ कि इस लॉक-डाउन में रामायण की तर्ज पर तो "खापायण" और महाभारत की तर्ज पर "खापरथ" लिख डालूं, क्योंकि!

1) फंडियों के कल्चर में अलसु-पलसु हो रखी, सेक्टरों में रह रही मेरी एक चचेरी भाभी बोली, "देवर जी देखना, अभी महाभारत में कृष्णलीला शुरू हो रही है|" मैंने पूछा, "हाँ री भावजराणी, टाइम पास के लिए देख रही हो या कृष्ण का कुछ फॉलो भी करती हो?" चामल के बोली, "अरे देवर जी, कृष्ण तो मेरे भगवान, ठाकुर, मुरारी सब कुछ हो चुके|" इसपे मैंने तो बस इतना क्या कहा, "फिर तो मुरारी को फॉलो करते हुए जैसे मुरारी ने उसकी बहन सुभद्रा को उसकी बुआ कुंती के लड़के अर्जुन के साथ लव-अफेयर में भगा दिया था, ऐसे ही आप भी अपने इकलौते लड़के को अपनी इकलौती ननंद की लड़की के साथ भगा सकती हो कोई प्रॉब्लम नहीं, ब्याह देना दोनों को? जैसे मुरारी ने ब्याही थी अपनी ही बहन अपनी ही बुआ के लड़के से?" उस दिन से मुंह फुलाएं हांडै सै मेरे तैं| व्हट्स-एप्प, फेसबुक सारै ब्लॉक मारे बैठी है| वजह पूछूं डायरेक्ट फ़ोन करके तो बोलती है, "क्यूँ-क्यूँ तुझे शर्म ना आई, ऐसी बात कहते हुए?" मैंने भी अबकी बार तो यह कहते हुए दबड़का दी, "मखा जब तुझे शर्म ना आती ऐसे-ऐसों को भगवान मानते हुए जो अपनी बहन, अपनी बुआ के लड़के के साथ भगाते हों तो मैं पुरखों के सिद्धांतो के विपरीत बात थारे भेजे में डालने तक का भी चोर? मुझे दिक्कत इससे नहीं है कि आप उनको भगवान मानती हो, मुझे दिक्कत इससे है कि उनका हवाला दे के आपको एक बात करने को कही तो आप उसी पे बिदक पड़ी? और मखा इन फंडियों की बेहूदगियों के चलते रूसै से तो 14 बै रूस्सी पड़ी रह| मनांदा मैं भी कोनी इब आगै|

एक और बात सोच रहा था, "अभी महाभारत में "गाम-गुहांड" की लड़कियों के साथ रासलीला करते हुए कृष्ण के एपिसोड्स आएंगे| सोच रहा था कि जिनके यहाँ ब्याह-शादी-प्रेम-लव का सिस्टम "गाम-गौत-गुहांड" के कालयजी सिद्धांत पर टिका है, वह क्या व् कौनसा अपना कल्चर बता के जस्टिफाई करेंगे इसको अपने बच्चों को?"

2) एक मुंह बोली बुआ डाइवोर्स लिए बैठी है, बोली, "बेटा रामायण वाले राम में तो कोई कमी नहीं है?" मखा अच्छा तो फूफा से डाइवोर्स क्यों ले रखा है, राम को मानती हो तो? राम की लुगाई ने तो तब भी ना डाइवोर्स की सोची थी जब वो बेवजह ही, वह भी गर्भवती होते हुए बनवास निकाल दी थी| और तेरे को फूफा सिर्फ इतना ही कहते थे कि घर में सिस्टम से रहो, कस्टम से रहो; मखा तेरे से अपने कल्चर-कस्टम तो फॉलो हुए ना, आई बड़ी राम की भक्तणी| तेरे को फूफा बोले कि सिर्फ तू अग्निपरीक्षा देगी? मखा उतर जाएगी आग में अकेली, बिना कोई सवाल करे फूफा से? उस दिन से जब भी फ़ोन करता हूँ तो "बुआ ठीक है के" का जवाब भी "हूँ-हूँ" में दे के फोन काट दे रही है|

सोच ली बस देख लिया| लानी ही पड़ेंगी अब तो रामायण की तर्ज पर "खापायण" और महाभारत की तर्ज पर "खापरथ"| क्योंकि यह पोस्ट यह तो साबित करती है कम-से-कम कि जैसे ही हम अपनी औरतों-बच्चों को अपने कल्चर-कस्टम की चीजें याद दिलाते हैं तो इनके भक्ति के भूत ऐसे उतर के भागते हैं जैसे किसी ने भूत उतरने का झाड़ा लगा दिया हो| अरे वाह, ये तो मैं बैठे-बिठाये फंडी नामक भूत भगवाओ बाबा बन गया| बोलो "फंडियों के फूफा फुल्ला भगत की, जय! जय हो, जय हो, जय हो|"

विशेष: राम हो या कृष्ण, यह पोस्ट दोनों के भगवान या इंसान जिस भी रूप में उनका अस्तित्व है उनको चैलेंज नहीं करती| यह पोस्ट सिर्फ तर्क व् अपने कल्चर-कस्टम्स की थ्योरियों का कम्पेरेटिव एनालिसिस करती है; और इसको उसी रूप में लिया जाए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

कभी पुजारी खुद सरकारों से मुआवजा मांगते हैं तो कभी खुद ही मना कर देते हैं!

बात, कोरोना के चलते पुजारियों द्वारा सरकारों से बेरोजगारी भत्ता मांगने के मद्देनजर है|

इस विषय पर हुड्डा सरकार में हुआ भनभौरी मंदिर प्रकरण याद होगा? भनभौरी मंदिर में पुजारियों को नौकरी पर रखने का विरोध कर, उस वक्त की हुड्डा सरकार से पुजारियों को सरकारी कर्मचारी पालिसी के तहत तनख्वाह पर रखने का फैसला किसने वापिस करवाया था? खुद पुजारियों ने? यह कहते हुए कि हमारे पास चढ़ावा बहुत आता है, वह हमको तनख्वाह से कहीं ज्यादा पड़ता है, तो सरकारी तनख्वाह के लिए इतना बड़ा चढ़ावा सरकार के हवाले कैसे कर दें, हम उसको नहीं छोड़ेंगे| तो अब क्या नौबत आ गई, जो सरकारी भत्ते चाहियें?

वैसे भी मंदिर में आया चंदा-चढ़ावा-पैसा-सोना कोई किसान की खुले आसमान में खड़ी सफल थोड़े है कि ओले-बारिश-तूफ़ान में सब बह गई? रिजर्व में पड़े होंगे? कोरोना जैसे संकट में खुद के धर्म की जनता की मदद हेतु तो इसको निकालोगे नहीं शायद तो क्या इससे अपने खुद के खर्चे भी नहीं चला सकते? तो फिर इस धन का करते क्या हो? वह कुछ फेसबुक वालों की फैलाये कयासों को सच मानें तो कहीं थाईलैंड या कम्बोडिया तो नहीं भेजते?

भनभौरी प्रकरण दरअसल, यह जाट की असीम दयालुता का प्रमाण है| ऐसी दयालुता यह जाट ही दिखाते हैं, वरना अब खटटर से हुड्डा (एक जाट) द्वारा "दान में मिली धौली की जमीनो" की मल्कियतें जो ब्राह्मणों के नाम की गई थी, और खटटर ने आते ही वह वापिस ही छीन ली, वह वापिस ही ले कर दिखा दो? बावजूद इसके दिखा दो कि आरएसएस व् बीजेपी की घर की सरकार है? बात बुरी है और डंके की चोट पर कड़वी है परन्तु कहूंगा जरूर कि जाट, धौली के नाम पर दान में जमीनें दे के भी 80% ब्राह्मण की निगाह में वह दर्जा नहीं पाता, जो खट्टर-बीजेपी-आरएसएस जैसे इनसे ही वोट ले के, इनकी ही धौली की जमीनें तक वापिस छीन के भी पा रहे हैं|" किसी से छुपी बात नहीं कि दोबारा बीजेपी की सरकार बनवाने में जिन समुदायों का अग्रणी योगदान है, उनमें एक आप भी हैं|   

बाकी मुझे क्या? यह तो एक बड़े ही शालीन ब्राह्मण मित्र ने ही मेरी इससे संबंधित एक पिछली पोस्ट पर सवाल खड़ा कर दिया तो भाई पढ़ ले यह भी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

गवर्नमेंट एडिड धार्मिक शिक्षण संस्थान, जिनमें आंशिक या पूर्ण रूप से धर्म की शिक्षाएं पढ़ाई जाती हैं!

मुस्लिम धर्म: मदरसे, इनके धार्मिक स्कूल फुल्ली या पार्शियली गोवेर्मेंट एडिड होते हैं|

ईसाई धर्म: इनके कान्वेंट धार्मिक  स्कूल फुल्ली या पार्शियली गोवेर्मेंट एडिड होते हैं|

सनातन धर्म (मूर्ती-पूजा आधारित): इनके गुरुकुल, संस्कृत विधालय, एसडी स्कूल सीरीज, विद्या भारती स्कूल सीरीज, गोपाल विद्या मंदिर सीरीज, शिशु भारती सीरीज, सरस्वती विद्या मंदिर सीरीज, महर्षि स्कूल सीरीज सब फुल्ली या पार्शियली गोवेर्मेंट एडिड होते हैं|

आर्य-समाज धर्म (मूर्ती-पूजा रहित): इनके गुरुकुल लगभग सब फुल्ली या पार्शियली गोवेर्मेंट एडिड होते हैं|

सिख धर्म: 100% खुद के फाइनेंस से चलाते हैं सब, सरकारों से कोई ऐड नहीं लेते|

जैन व् बुद्ध: यह शायद पार्शियली लेते हैं, मुझे खुद इस पर कन्फर्म करने की जरूरत है|

नोट 1: हिन्दू नाम का कोई धर्म दुनिया की किसी भी देश की सरकार द्वारा ऑफिशियली रेकग्नाइज़्ड नहीं, भारत द्वारा भी नहीं| बस एक हिन्दू मैरिज एक्ट है वह भी जीवन शैली के आधार पर है, धर्म के आधार पर नहीं|

नोट 2: इसपे वह भाई खुद को क्लियर कर लें, जो यह समझते हैं कि किसी एक विशेष को ही सरकारी मददें ज्यादा या कम मिलती हैं|

नोट 3: इसके अलावा खुद धार्मिक मंदिरों-चर्चों-मस्जिदों-गुरुद्वारों-तीर्थंकरों-मठों को किसको कितनी सरकारी मदद मिलती है या नहीं यह अलग शोध का विषय है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 31 March 2020

जैसे बिना अक्ल के ऊँट उभाणे, ऐसे ही बिना कल्चर के लोग निताणे!

लोग निताणे कैसे? एक तो खुद के कल्चर का ज्ञान नहीं, उसपे दूसरों के कल्चर पे दांत फाड़ना, व्यंग्य कसना|
उदाहरणार्थ: कितने हरयाणवियों (हरयाणा+दिल्ली+वेस्ट यूपी) व् पंजाबियों को पता है कि उनकी दादियां, जो आपस में खासम-खास सहेली होती थी वो जब एक-दूसरे के यहाँ आती-जाती थी तो अभिन्दन के स्वरूप आपस में 3 बार गले मिलती थी और प्यार में एक दूसरे के गाल से गाल भी टच करती थी? मेरी खुद की दादी का एक बार का (वैसे तो बहुत बार का) ऐसा वाकया तो मुझे याद है| म्हारा गुहांड है ढिगाणा, वहां की दादी की ख़ास ढब्बण होती थी| एक बार वह दादी से मिलने आई, तो पता है कैसे और क्या बोलते हुए दूर से हाथ फैला 3 बार गले मिली थी दोनों आपस में? यह बोलते हुए व् आलिंगन को बाहें फैलाते हुए कि "आइए ए मेरी शौकण, आइए ए मेरी बैरण, बड़े दिनां बाद चढ़ी मेरी देहल"| ना कोई हाथ मिलाया, ना नमस्ते करी सीधी गले मिली और कालजे में ठंडक पड़ने तक गले लगी रही|

यही फ्रांस में होता है औरतों के बीच आपस में जो खासमखास सहेलियां होती हैं| यहाँ 3 की बजाए दो बार गले गली मिलती हैं| गाल से गाल टच करती हैं|

और तो और वो तुम्हारा भारत मिलाप क्या है? जो अगर इतने चौड़े हो के बोलते रहते हो कि भारत में तो सिर्फ नमस्ते कल्चर रहा है? माइथोलॉजी ही सही, काल्पनिक ग्रंथ ही सही, परन्तु उसमें भरत मिलाप कैसे होता है, नमस्ते करके या बाहें फैला के आलिंगन करते हुए? ढोंगियों, थारी डैश-डैश बोलने को जी कर जाता है, तुम्हारे इन भोंडेपनों पे|

अब तुम तुम्हारे अंदर घुसेड़ी गई या खुद धक्के से घुसवाई तथाकथित आधुनिकता की बौर में चौड़ी हुई/हुए घूमो तो कैसे कल्चर जिन्दा रहेगा? ऐसे में तो बनेगी ही ना इस पोस्ट के शीर्षक वाली? असल में तुम्हारी गलती नहीं है, तुम दिन रात ऐसे फंडियों से जो घूंटी पीते हो जिनका काम ही तुम्हारे अंदर की सारी सीरियसनेस व् विजडम का कत्ल कर तुम्हें अक्ल-इंसानियत से पंगु बनाना होता है|

कोरोना के चलते, लोगों ने यहाँ फ्रांस में ऐसे गले मिलना बंद किया है| हाथ मिलाने की बजाए या तो हाई-फाई दे रहे हैं या खासमखास दोस्त हैं तो बंद मुठ्ठी आपस में टकरा के अभिन्दन कर रहे हैं|

अपने कल्चर को प्रॉपरली जानिये, रैशनल बनिए, वाइजर इंसान बनिए| ऐसे गधों के चंगुल में फंस के खुद के कल्चर से दूर ना जाएँ जिससे इस पोस्ट के शीर्षक वाली बने आपके साथ|

साथ लगे एक और कॉमन चीज बता दूँ, फ्रांस व् हरयाणवी/पंजाबी कल्चर की:

खासमखास मित्र के लिए फ्रांस में जो सम्बोधन प्रयोग होते हैं वह हैं Tu (यानि तू), Toi, Te, Ton यानि बिलकुल unformal जैसे हरयाणवी में होता है तू-तड़ाक-तुस्सी-तुवाड्डी| और जो आगंतुक या अनजान होता है उसके लिए फ्रेंच में सम्बोधन है vous (यानि आप) और हमारे यहाँ है थम, थामें या आप| फ्रांस वालों को तो नहीं लगता कि तू-तवा बोलने में कोई फूहड़पन, गंवारपन या पिछड़ापन है? बल्कि यह तो इस बात की निशानी है यहाँ कि बंदे पहले से एक दूसरे को जानते व् खासमखास या पारिवारिक मित्र या रिश्तेदार हैं| तो एक तुम हरयाणवी, पंजाबी या इंडियन ही कुछ ज्यादा ख़ास उतरे हो क्या धरती पे जो बच्चों को कल्चर की सच्चाई व् मधुरता सिखाने की बजाए घुसा देते हो आप-आप मात्र में उनको? असल में यह तुम्हारी आधुनिकता नहीं अपितु तुम्हारा पिछड़ापन, दब्बूपन व् खुद के कल्चर के प्रति खसना, अलगाव, नॉन-सीरियसनेस व् अज्ञान है|

इसको ठीक कर लीजिये, 50% फंडियों की दुकानें तो इतने मात्र से ही लद जानी, बंद हो जानी|

नाम व् उनके अपभृंषों से पुकारने के फ्रेंच-हरयाणवी कल्चर के कॉमन आस्पेक्ट्स का एक और उदाहरण: जब GE Healthcare, Paris में काम करता था तो वहां एक सीनियर क्लीग होती थी नाम था "Veronica"| उनका ख़ास मित्र-सहेलियों प्लस कलीग का एक ग्रुप था, जिसमें वक्त के साथ मैं भी शामिल हुआ| पता है उसको क्या बुलाते थे, "Hey Veero या Vero"| हरयाणवी में साउंड करो तो वीरो या वेरो बोला जाएगा| जब-जब कोई उसको Veronica की बजाए Veero या Vero बोलता तो मुझे या तो मेरी चचेरी बुआ बीरमति याद आती जिसको सब बीरो बोलते हैं या मेरी ताई बांगरों याद आती, उस ताई को भी सब बीरो बोलते हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 29 March 2020

"आटे दी चिड़ी" - पंजाबी फिल्म में मिले वो 67 शब्द जो पंजाबी-हरयाणवी भाषा में हूबहू हैं और हिंदी में या तो हैं ही नहीं या अर्थ दूसरे हैं!

"आटे दी चिड़ी" - पंजाबी फिल्म में मिले वो 67 शब्द जो पंजाबी-हरयाणवी भाषा में हूबहू हैं और हिंदी में या तो हैं ही नहीं या अर्थ दूसरे हैं:

चोऴ
अल्हड़
आळा
जोहटे
अल्ले-पल्ले
बैरी
राम नाळ 
वीर
डंगर
गुहांडी
गूढी
मेहरबानी
आळे
गिट्टे
सध्या
टुर्र
सोहरे
रूलदे
टब्बर
चादरे-कुडते
फुलकारी
न्याणे
चरीट
सुनक्खा
जिंद
जाण
बोरा - भोरा
खड़का
बीनती
कंडे - कांडे
उडारी
नहू
लंगर
जोगे
जामे-पळे
मशां
लंडू
विरसा
टक
गिट्टे
ठेह
जिवाक
बाड़ा
भतेरा
जमा
साम्भ
टोप्पे
नेड़े
दाणे
माड़ा
खड़क
कुत्तेखाणी
गंडा
डोक्के
भंभीरी
किते
टशन
बाज्जे
मर्र
रूळ
वरगा /बरगा
बळद
टाल्ली
खसम
रैपटा
खुर्क
पास्से

विशेष: हो सकता है कि एक-आध शब्द हिंदी से भी मेल खाता होवे, परन्तु अंत लब्बोलबाव यही है कि अधिकतर सिर्फ पंजाबी-हरयाणवी में ही मिलते हैं| आप भी कोशिश कीजिए कि जब भी कोई पंजाबी मूवी देखें तो साइड में नोटपैड खोल लेवें और नोट करते जावें व् ऐसे पोस्ट्स बना के डालें| एक पंथ दो काज इसी को बोलते हैं, मूवी की मूवी देख ली और रिसर्च की रिसर्च हो गई| 

निचोड़: यह बात एक प्रोपेगण्डे के तहत फैलाई हुई है कि हरयाणवी (वेस्टर्न हिंदी ग्रुप की बोली है) नहीं यह खुद में एक भाषा है और हिंदी से ज्यादा पंजाबी से मेल खाती है| और यह बात आगे हर देखने वाली पंजाबी मूवी में खोजता रहूँगा| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

मुस्लिम से नफरत करने का गजब तर्क देते हैं भक्त कि यह गैर-मुस्लिमों सबको काफिर मानते हैं| काफिर का मतलब होता है खुराफाती, उपद्रवी, उत्पाती!

अच्छा जी अगर इस लॉजिक से चला जाए तो तुम्हारे तो खुद वाले ही तुमको काफिर मानते हैं, वह भी दोहरे वाले काफिर|

1) तुम अपने हक-आवाज उठाओ, अपने ही धर्म के भीतर रहते हुए तो तुमको तालिबानी, नक्सली, देशद्रोही आदि-आदि बोलते हैं| 35 बनाम 1 करके कहो या जाट बनाम नॉन-जाट करके टारगेट करने वाले कौनसे मुस्लिम हैं? इनके इरादे देखे-समझे हों कभी तो तुम्हारी यह खुमारी उतरे कि तुमको मुस्लिम से खतरा हो या ना हो परन्तु जो यह तुम्हारे खुद के अंदर के पिस्सू-परजीवी बैठे हैं इनसे ज्यादा और कई गुना ज्यादा खतरा है| तुम्हारा कल्चर, तुम्हारी भाषा, तुम्हारा ईमान, तुम्हारी क्रेडिबिलिटी हर चीज को निगलने को सिंगरे हुए हैं ये| तुमको मुस्लिम कब मारने आएगा या नहीं आएगा उसका तो पता नहीं परन्तु यह तुम्हारे भीतर वाले तुम्हारे, उनसे पहले ठिकाने ना लगा दें तो कहना कि क्या बनी|

2) दूसरा काफिर जैसा सिस्टम तुम्हारे भीतर की वर्णवादी व्यवस्था व् मानसिकता, खासकर उनके लिए जो इसको मानते हैं|

तुम्हारे साथ तो वो बनी हुई है कि, "अपनी रहियाँ नैं ना रोंदी, जेठ की गइयाँ नैं रोवै"|

तुम तो महाभारत जैसे मैथोलॉजिकल विषयों पर बने टीवी शोज से भी यह अक्ल नहीं ले रहे कि कम से कम घर, जाति को तो पहले इन अपने ही धर्म रुपी घर-जाति वाले बड़े सामूहिक घरों से बचा लो| चले हैं मुस्लिमों से लड़ने| खामखा बहम में ग्याभण करके छोड़ रखे गलियों में फंडियों ने, अक्ल इतनी कोनी कि जाप्पा कौन घर करवाना|
ताज्जुब की बात तो ये है कि यह मुस्लिमों के नाम के चोड़के-ओढ़के-हव्वे उन कम्युनिटीज वालों को सबसे ज्यादा लगे पड़े जिनको पुरखों की खाप रही या राजघराने सबसे ज्यादा तो इनके मोर्चे लिए और सबसे ज्यादा अपने लोहे मनवाये| और जब मित्रता निभाने की बात आई तो वह भी प्रक्टिकली सबसे ज्यादा सर छोटूराम से ले सरदार प्रताप सिंह कैरों, चौधरी चरण सिंह जैसे इन्हीं के पुरखों ने प्रैक्टिकल साबित किये|

इसपे सितम यह कि यह चोड़के-ओढ़के-हव्वे इनको लगवाए भी किसके पड़े, उन्हीं के जो विगत मुग़लराज में मुग़लों के सबसे ज्यादा दरबारी थे और दोबारा ऐसा होवे तो फिर सबसे ज्यादा सबसे पहले दरबारी यही मिलने| क्यों भरमाओ हो खुद को, कुछ अपना पिछोका और पुरखों का ब्योंक भी टंड़वाल लो| निरे फंडियां के दिमाग के चले तो पागल और खाजले कुत्ते वाली एक साथ बननी है, जिनको दुनिया लठ-पत्थर मारने से ज्यादा किसी लायक नहीं समझती| वो पागल प्लस खाजले कुत्ते बना के छोड़ देंगे यह फंडी तुम्हें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक