Wednesday, 19 August 2020

आज पंजाबी फिल्म "मंजे-बिस्तरे" देखी और ऐसी देखी कि बचपन की सौधी से ले फ्रांस आने तक की तमाम बारातें जेहन में घूम गई, वो भी जिनमें बाराती बन के गए और वो भी जो अपने गाम-रिश्तेदारियों में आई|

और एक चीज बड़ी जंची कि आज वाले तथाकथित मॉडर्न लोग, इकनोमिक मॉडल के नाम के सबसे बड़े गधे हैं| बारातों की इकॉनमी तो पुराने पुरखे मैनेज करते थे, आज वाले तो बोर और चौड़ के भूखे, ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरों के कारोबार चलवाते हैं, ब्याह-शादी के नाम पर अपने घर का धोना सा धर के| देखो पहले पुरखों के ब्याह-शादियों के इकनोमिक मैनेजमेंट और तुम आज वाले तथाकथित अक्षरी ज्ञान से पढ़े-लिखे परन्तु दिमाग से पैदलों के मैनेजमेंट:


1) पहले वाले बूढ़े पूरा ब्याह-वाणा का इवेंट-मैनेजमेंट खुद करते थे और आज वाले इवेंट कंपनी हायर करते हैं; स्याणे व् बढ़िया इवेंट मैनेजर तुम अक्षरी व् डिग्री ज्ञान वाले हुए या वो अक्षरी ज्ञान में कम परन्तु इवेंट मैनेजमेंट के गुरु पुरखे होते थे?
2) तुम्हारा इवेंट मैनेजमेंट "घर फूंक तमाशा देख", तुम्हारे पुरखों का इवेंट मैनेजमेंट "घर व् भाईचारा बाँध, दिल बल्लियां करने वाले इवेंट"|
3) पुरखों के ब्याह-वाणे के इवेंट भाईयों-सगारों को मनाने-जोड़ने के इवेंट, तुम्हारे वाले आपस में जलन-अकड़-हैसियत-बोरपन-महाभारत टाइप छेछर भरे इवेंट, जिनमें सगे भाईचारे बेशक रूसे रहो परन्तु तथाकथित बिरादरियों के भाईचारे निभांदे हांडै; जाणू हों भांड किते के|
4) पहले वालों के परस-चौपालों-चुपाड़ों जैसे भव्य-आलिशान फ्री के बारात घर और आज तुम्हारे ये लाखों-लाख किराए के बिसाहे तथाकथित "मैरीज हॉल"|
5) पुरखों के खाट (मंजे)-बिस्तरे फ्री में मैनेज हो जाते थे और आज वालों थारे, ये महंगे-महंगे किराए के सिर्फ बिस्तरे, खाट तो बिछाणी ही भूल गए हो|
6) गाम के चौगरदे को केसूहड़े फिर के आया करदे, तुम आज वालो घर से सिर्फ 100 मीटर तक में गेड़ा मार के वापस घर में|
7) पहले वाले गाम-की-गाम में गाम की बिरादरियों को रोजगार देते, जैसे बैंड-बाजा गाम का होता, नाई गाम का होता, ब्याह-फेरे करवाने वाला दादा खुद के घर का बड़ा बूढा होता, दर्जी गाम का होता, सुनार गाम का, खाती गाम का और आज थारा गाम में होते हुए भी सब कुछ बाहर का| ब्याह के जरिये साथी-बिरादरियों के रोजगार सारे तथाकथित शहरियों के पढ़न बैठा दिए, वो भी पता नहीं कहाँ-कहाँ के पिछोके के लोगों के यहाँ| भाईचारे तो टूटेंगे ही ऐसे में|
8) पुरखों के वक्त ब्याह-वाणे का मतलब होता था पूरा इवेंट पूरे रंग-चाया चढ़, ले घर-कुनबे-गाम-ठोले को साथ अपने हाथों करने-करवाने का, जिसमें ना खर्चे का पता लगता था और ना थकावट का| और आज तुमने सब कुछ सिकोड़ के टोटल "इवेंट मैनेजमेंट कंपनियों" के यहाँ गिरवी रख दिया और फिर भी वो लहरे-गाजे-बाजे-गूँज-रंग-चा नहीं|

और इस सब पे खुद के साथ अंजानपणा और बनावटपणा इतना कि खुद ही कहेंगे कि, "इब वें ब्याह-वाणे-रंग-चा कित रहे"? कित रहन नैं किते दूसर कै चाल कें जा रे सें अक छूछक कै चले गए? थम राखनिये, थम ल्यावनिये; और थम ही खुद के मखौल बना रहे इन मसलों के| बर्बाद तो थम यूँ ना हुए हो और के थारै लोग रात्यां नैं उठ-उठ खावैं सैं|

"मंजे-बिस्तरे" फिल्म देख के मुझे तो दर्जनों वह बारातें याद आ गई कि जिनके बारे मित्र-प्यारे आज भी याद करते हैं| किसी के बारात में गए तो वें नजारे नहीं भूलते और म्हारे गाम में किसी बुआ-बहन-भतीजी की बारातें आई तो उनके मैनेजमेंट करने आज भी आँखों आगै घूम ज्यावें सें| सबसे ज्यादा मजा तो बारात में आये बिगड़ैल बारातियों को सीधा करने की जब ड्यूटी लगती थी तो उसमें आता था या गाम की परस में खाट-बिस्तरे इकठ्ठे करने में| बड़े किस्से हैं बिगड़ैल बारातियों को बिना-रोला रब्दा होने देने के सीधा करने के, अलग से लेख बनेगा इनपे|

इहसे फ्रांस में आ के चढ़े कि 15 साल हो गए ऐसी किसी बारात में गेस्ट बने या किसी ऐसी बारात का होस्ट बने| इन 15 सालों में बस एक सगी बहणों के ब्याह जरूर मैनेज किये, नहीं तो ब्याह-वाणों-बारातों में कूदने-रचने-रमने-रंगने के नाम की तो जाणूं बेमाता ने आगै की लकीर ही मिटा दी| डब्बी बाट देख्या करते अक वो आवैगा तो कीमें रंग चढ़ेगा, सुसरा इहसे फ्रांस की पैड़ां चढ़े सब पाछै छूट गया; नहीं तो हम न्यूं बंध के बैठनीयां तो कदे रहे ही नहीं| वो ऊँचे महल-अटारियों-दरवाजों-नौहरों-घेरों-परस-चौपालों के ब्याह-वाणे और वो मस्त मेळ-माण्डों से ले रातजगों के गीत, केसूहड़े-बारोठी और हर बारात में अलग छाप छोड़ के आने के ढकोसले|

और इतनी मस्ती से यह इसलिए कर लिया करते थे क्योंकि इनके इवेंट मैनेजर दादे होते थे; हाँजी दादे, बाप-काके-ताऊओं का तो साइड में बैठने का नंबर हुआ करता था| वो मण्डासों वाले चौधरी, वो खंगारों वाले चौधरी वो डिठौरों वाले चौधरी; ईब वालों को तो सर पे खंडका धरते हाणें भी शर्म आवै| ऐसे बैठेंगे ब्याहों में सरफुल्ले जणूं मोहकान आ रे हों| बाजे-बाजे को तो यह चिंताएं तो सताने लग गई कि औरतों के घूंघट उतर रहे हैं, रै थमनें ना दिखती कि थारे सरों से पगड़ी-खंडके भी उतर के जा लिए? लुगाइयों के घूंघट चाहियें पर खुद के खंडके-पगड़ियों-पगों का ठिकाना मालूम ना रह रह्या|

लब्बोलवाब लेख का यही है कि घने चौड़े मत हुआ करो खुद को अक्षरी ज्ञान का चुघड़ा समझ के, थारे पुरखे कम अक्षरी-ज्ञान वाले होते हुए भी तुम से भी बड़े-बड़े इवेंट चुटकियों में मैनेज कर लिया करते थे| उनके लिए ब्याह-वाणे बोर-अकड़ आदि दिखाने के नहीं अपितु भाईचारे मनाने-मनवाने व् मिलके ब्याह निबटाने के प्रतीक हुआ करते थे| अब देख लो थम म्ह कित तैं और कब तैं डूबा पड़ी और क्यूकर इस्ते बाहर आओगे|

कड़वी सच्चाई यही है कि तुम इवेंट मैनेजरों की औलाद हुआ करते थे एक जमाने में, आज इवेंट मैनेजमेंट वालों के कंस्यूमर (ग्राहक) बन के रह गए हो 90%|

और हाँ, झूठ नहीं सच कहूंगा, जबसे ये फंडी जरूरत से ज्यादा सर पर धरे हैं तब से थारे धोने से दुहते आ रह हैं| वही पुरखों वाली इवेंट मैनेजरी व् डिठोरे चाहियें तो इन फंडियों को उसी औकात में रखो जिसमें पुरखे रखते थे; फिर चाहे थम लुगाई हो या माणस| ये फंडी माणस-खाणे हों सैं, बचो और बचाओ अपनी ऊजा-ज्यात-उलाद सब क्याहें नैं इनकी गिद्द नजरों से|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 11 August 2020

अस्थल बोहर मठ, रोहतक के महा-मंडलेश्वर को तीन दिन एक टांग पर खड़ा रहने पर भी नहीं मिली थी निडाना गाम से एक रूपये की भी भिक्षा!

जानिए वह किस्सा कि कैसे बोहर वाले मठ के महामंडलेश्वर को निडाना गाम मोड्डे-बाबाओं के नाम का "छुट्टा हुआ सांड घोषित करना पड़ा था"|

विशेष: आगे पढ़ने से पहले जान लें कि आज जब इतना तथाकथित धार्मिक माहौल हुआ पड़ा है तो हो सकता है आपके अपने पुरखों की यह 3-4 पीढ़ी पुराणी बातें, उनके तर्क आपको अजीब लगें और आप पढ़कर यह व्यक्त करें कि क्या ऐसे भी थे हमारे पुरखे, तो कोई अतिश्योक्ति मत मानियेगा खुद से; परन्तु जो घटना लिखी है यह सत्य पर आधारित है; खुद के दादे-दादियों की बताई हुई है|

बात लगभग 125-130 साल पुरानी है| मेरे सगे दादा से ले गाम के अनेकों बूढ़े दादा-दादियों की बताई हुई है| हुआ यूँ कि निडाना के पुरखों के तार्किक ज्ञान व् मूर्ती-पूजा के ढोंग-पाखंड-आडंबर नहीं करने की ख्याति जा पहुँची अस्थल बोहर मठ, रोहतक के महा-मंडलेश्वर के पास| बात पहुंची कि महाराज यह रियासत जिंद (आज जिला जींद) वाला निडाना बाबाओं को खाने व् कपड़े-लत्ते के अलावा धेला दान नहीं देता| सुन कर महा-मंडलेश्वर को अहम् पर लगी यह बात| बोला कि ऐसे-कैसे नहीं देता, मैं लाऊंगा निडाने से धन का दान|

मोड्डा ले कमंडल और तामझाम निकल लिया अस्थल-बोहर मठ से (बाबा मस्तनाथ यूनिवर्सिटी, रोहतक जहाँ है आज वहां से) और आ गाड्या चिमटा और धूणा जिंद वाले निडाना के गोरे पै| दो दिन हो गए, रोटी और पानी के अलावा निडाना में कोई जात भी ना पूछे मोड्डे की| बाबा जी के उठया छोह और साथ लाये चेले-चपाटों से कहा कि गाम के मौजिज आदमियों से मुलाकात का प्रबंध करो|

चेले-चपाटे आये गाम के भीतर और बात बताई, एक-दो बैठकों में| निडाने के पुरख देवते यानि म्हारे दादे बोले हमनें इस मोड्डे के चाल-ढाल से ही अंदाजा लगा लिया था कि यह कुणसे रंगा रंगया आया सै| बोले कि चलो बतलवाओ के भटकन हो गई बाबा कै?

बाबा भटकन की बात सुनते ही भड़का और बरसा, "मैं सांसारिक मोह-माया त्यागा हुआ घोर तपस्वी हूँ, थमनें मुझे भटका हुआ कैसे कह दिया?"
म्हारे बुड्ढे पुरखे बोले, "तपस्या तो हमनें तेरे लोवै-धोरै भी ना लिकड़ी दिखती, नहीं तो तेरे में ईबी भी धन यानि माया के दान की लालसा रह जावै ए के?"

सुन पुरखों का जवाब, बाबा हक्का-बक्का|
बाबा, "नहीं-नहीं, मुझे धन की कोई लालसा नहीं; मैं तो तुम्हारा घमंड तोड़ने आया था?"

पुरखे बोले, "कौनसा घमंड?"

बोहर का महामंडलेश्वर, "कि निडाना इतना एंडी पाक रह्या सै अक किसे बाबा को एक रूपये का भी दान ना देता?

पुरखे बोले, "रूपये किसी से लूट के लाये हैं हम, या किसी से कर्जे ले रखे हैं, आप बोल कैसे रहे हो?"

बाबा सकपकाया और बोला,"नहीं-नहीं मैंने ऐसा तो नहीं कहा?"

पुरखे बोले,"तो फिर?"

बाबा पकड़ समझ गया कि ऐन उस कहावत वाले जाटों के हाथों चढ़ा सै जिनके बारे कह्या जाया करै कि, "अनपढ़ जाट पढ़े बरगा और पढ़ा जाट खुदा बरगा"| ये तो वो जाट हैं जिन बारे कही जाया करै कि, "वो जाट ही क्या हुआ, जिसके आगे फ़ंडी ज्ञान झाड़ जा"|

बाबा, अपने रूख में नरमाई लाता हुआ बोला, "चौधरियो, असल में थारे गाम में आ कें पता लगा कि असली तपस्वी तो थम सो, जो दौलत कमा के भी उसका घमंड ना करते"| देखो ऐसा है कि मैं जोश-जोश में बाबा बिरादरी में बोल आया कि मैं लाऊंगा निडाना से धन का दान, थम मैंने एक रूपये का दान दे के विदा कर दो; मेरी इज्जत रह जाएगी और थारी बात|

म्हारे पुरखे बोले कि, "बाबा, भगमे बाणे वाले की दो जून की रोटी और साल के दो भगमे बाणे होते हैं| जितने दिन रहना हो रह, यह रशद गाम तेरी टूटने देगा नहीं और इस्ते फ़ालतू हम मुंह लगावेंगे नहीं|"

बाबा का कभी पारा चढ़े, कभी उतरे कि अच्छा फंसा चढ़ा-चढ़ा; असली जाटों के हाथों आन चढ़ा| बाबा कुछ और पार ना पड़ती देख क्रोध में बोला कि, "मैं श्राप दे दूंगा थारे गाम को"|

म्हारे चौधरी पुरखे बोले कि, "बाबा, आप संसार की जिम्मेदारियों से भागे भगोड़े तथाकथित तपस्वी, जो खुद को तो आजतक मोह-माया से मुक्त ना कर सके और आप हम सांसारिक तपस्वियों को श्राप दोगे? उनको जिनकी वजह से थारे पेट में अन्न और तन पे वस्त्र आता है? जा कर लो यह बहम भी पूरा|"

इस पर बाबा ने अपना आखिरी हथियार प्रयोग करते हुए, एक टांग पर खड़ा हो कर तपस्या शुरू कर दी; दिन में एक टांग पे खड़ा रहता और रात को सोता रहता| जब तीन दिन हो गए और म्हारे पुरखे दादे टस-से-मस ना हुए तो महा-मंडलेश्वर थक-हार के यह बोलते हुए धूणा उठा गए कि, "आज के बाद मैं इस गाम को बाबाओं के नाम छुट्टा हुआ सांड छोड़ता हूँ| आज के बाद जो भी बाबा इस गाम में रैन-बसेरे डटेगा और धूणा लगाएगा, वह लठ खा के जायेगा|"

हे मेरे पुरखो, थारे तेज की रौशनी बनी रहे निडाना की हर युवा पीढ़ी पे| और इस रौशनी की बुलंदी यानि हाइट में बसता रहे म्हारा निडाना और इसकी निडाना हाइट्स|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

निडाना की झोटा फ़्लाइंग; जो रखती थी गाम में फंड-पाखंड फ़ैलाने वालों की नकेल कस के!

जानिये फंडी क्यों बोलते थे कि "निडाना के जाट तो कसाई सें"|

हम छोटे होते थे, हुआ यूँ कि एक बार मेरी जन्मभूमि निडाना, जिला जींद में कुछ फ़ंडी जमात वालों ने सतसंग बुला लिया उनके घर में| कुछ जमींदारों की लुगाईयां भी बुला ली चोरी छुपे (हमारे यहां चोरी छुपे ही बुलाते हैं आज भी, क्योंकि अन्यथा मर्द लोग विरोध कर देते हैं)| और फ़ंडी फंड फ़ैलाने के लिए इसीलिए घरों में बैक-दूर एंट्री मारते हैं, घर की औरतों के जरिये| क्योंकि आर्य-समाजी गाम रहा है और आर्य-समाज आने से पहले आर्य-समाज की जड़ यानि "दादा नगर खेड़ों" को धोकने-ज्योतने वाला|

रात के 9-10 बजे के करीब लगी खड़ताल बजने और तथाकथित भक्ति के गीतों का शोर गली-चौराहों तक पहुँचने| पता नहीं यह निडाना के डीएनए में ही है शायद, कि सतसंग की खड़ताल हमें भड़क देने लगती है| यही भड़क पे पड़ोस के एक काका भड़क गए और जा खुड़काये किवाड़ सतसंग वालों के| और मारा रुक्का कि, "थमनें बेरा कोनी के कि गाम में झोटा-फ़्लाइंग ने सतसंग-फंड-पाखंड पर बैन लगा राख्या सै?" घर-वाला बोला, "हैड म्हाडा घड, हम जो चाहवें कड़ें"| वह काका अंदर गया तो देखा कि उसकी लुगाई और 12 साल की बेटी भी वहीँ बैठी है| बस फिर क्या था काका का तो पारा सातवें आसमान पर|

बेटी समझ गई और पापा को सामने देखते ही बोली कि, "पापा मैं तो मना कर दी थी, पर आपको सोया जान के माँ मुझे साथ ले आई"| बस फिर क्या था वहीँ पे हंगामा| और काका बोला कि, "यूँ चोरी छुपे आने की क्या जरूरत थी? चल ऐसा कर इस फ़ंडी के परिवार की औरतों को अपने घर ले आ| वहां मटकवायेंगे तेरे और इसकी औरतों के ढूँगे अपने घर में"?

इस पर फंडी बोला, "हड ऊत के ऊत, हड थाड़े बड़गे जाट-जमींदारा के, हड़ म्हाड़ी बीड़बांनी ना जाया कड़ती| ले जा आपणी नैं गेल"| थाड़े ढूँगे, मटकावेंगी म्हाड़ी जूती| हड कसाई किते के, आपणी लुगाईयां नैं नाचण देते ना गान देते"|

काका बोला, "आ गया जिगरा स्याह्मी? म्हारी लुगाई थारै नाचें तो हम माणस, थारी म्हारै नचाण बुला ली तो हम कसाई"| ला ईब बुलाई, झोटा फ़्लाइंग|

फ़ंडी, "हड तू के बलावैगा, मैंने हे मिलाया इब जुलाना थाणे में फ़ोन (उस टाइम लैंडलाइन शुरू ही हुए थे, इक्का-दुक्का घर लगे थे)|

काका, जा पहुंचा गाम की झोटा फ़्लाइंग के दरबार यानि दादा चौधरी दरियाव सिंह मलिक की बैठक में और दादा चौधरी जगबीर सिंह मलिक (दोनों आज दुनिया में नहीं है) को भी वहीँ बुला लिया| सारा मैटर बता दिया कि म्हारी लुगाइयाँ गेल धक्का कर रह्या सै| इसकी लुगाई म्हारे आ के नाच के जावै तो हम कसाई, म्हारी लुगाई इनके ढूँगे मटका आवैं तो हम इन खातर इंसान| इतने में फंडी के फ़ोन करे से निडाना में जुलाना थाने से पुलिस आ ली| पुलिस आई तो फंडी पुलिस को बोला कि लो थानेदार साहब एक गाखड़ा होया जाट जो म्हारी घर की लुगाइयाँ नैं डडावे अर म्हाड़ी बीड़बांनीयाँ नैं भुण्डा बोलै| बेडा ना कद बोलणा सीखेंगे| कड़ो उसने गिड़फ्ताड|

इधर दादा दरियाव सिंह को पता लगा कि इतनी जल्दी पुलिस भी बुला ली| तो शामलो के दादा चौधरी जिले सिंह मलिक (पूर्व एमएलए जुलाना) व् जुलाना में पड़ने वाले सारे मलिक गांमौ की झोटा फलाइंग के हेड को मारा फ़ोन| अक जल्ले न्यू-न्यू एक फ़ंडी नैं गाम तैं पूछे बिना गाम में पुलिस बुला ली, इसका मतलब ऑथर रह्या सै, पाधरा करना सै|

दादा जल्ले नैं मारया फ़ोन जुलाने, और बोला कि पुलिस जुणसे पायाँ निडाना गई से उन्हें पायां उल्टी आनी चाहिए| और आती-आती शामलो से मेरे पास से जुलाना के मलिक गामों की झोटा फ़्लाइंग का फंड-पाखंड-सतसंग के खिलाफ पास किये रेसोलुशन की कॉपी ले जावें, जिसका कि यह फ़ंडी उलंघन किये हुए है| बस फिर क्या था वायरलेस पर थाने ने पुलिस खाली हाथ वापिस बुला ली|

आगै फ़ंडी की क्या रेल बनाई झोटा फ़्लाइंग ने समझ जाओ| और समझ जाओ लुगाई खासकर, जब इनकी लुगाइयों पे तो ये इतनी नकेल रखें कि इनके घर से बाहर, किसी जाट-जमींदार के जा के नहीं नाच सकती तो थारे पायें तले कीमें न्यारी इ माटी कटे से जो थम जा खड़तल और ढूँगे मटकाओ इनके घरों में और गैर-मर्दों के स्याह्मी?

म्हारे दादे समझाया करते कि बेटो-पोतो, "ऐसी व्यवस्था कायम रखन ताहिं फ़ंडी चाहे थमनें कसाई बुलाओ या फूहड़; जमे रहो अन्यथा थारे घरों का धोना सा धुवा के धर देंगे ये| थारी ही लुगाइयों की नजरों में "ओपन-माइंडेड" बनेंगे और अपनी लुगाइयों पे अपनी जकड़न ढीली होने दें ना| इसलिए इससे पहले कोई और थारी लुगाइयों को "ओपन-माइंडेडनैस" के लेक्चर देवे, इनकी असलियत बता के रखो अपनी लुगाइयों को|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 5 August 2020

तुम्हारे कल्चर-सिविलाइज़ेशन पर कटाक्ष करने वालों के मुंह व्यक्तिगत टॉपर्स से बंद ना होने, यह होंगे आपसी सर-जोड़ मुहिमों से!

फंडियों वाली बुद्धिमत्ता "सामूहिक व् सवैंधानिक परन्तु अनैतिक लूट" करने हेतु "सर-जोड़" के कम्युनिटी कहो या कैडर का गिरोह बना के काम करने और फिर लूटे हुए को आपस में बाँट के खाने को कहते हैं; व्यक्तिगत तौर पर परीक्षाओं में टॉप करने या ओहदा हासिल करने को नहीं| यूँ ओहदे वाले क्या आज से पहले नहीं थे; जो समझते हो कि फंडी जमात के दो ओहदेदारों (जिनको तुम जवाब मिल गया होगा की पोस्टें निकाल रहे हो कल से) को किन्हीं व्यक्ति-विशेषों के टॉप करने से जवाब मिल गया? नहीं बल्कि, फंडी लोग इन टॉपर्स व् ओहदेदारों को, आजकल क्या बोलते हैं उन तथाकथित दूतों को जो हर डीसी-एसपी ऑफिस में लगा के छोड़े हुए हैं; उन लपाड़ी-लफंगों से गवर्न करवाते हैं| निःसंदेह यह टॉपर्स कम्युनिटी का स्वाभिमान-गौरव बढ़ाये हैं, परन्तु इससे इन फंडियों को जवाब मिल गया; यह गलतफहमी ना पालें|

यह जवाब उस दिन मानेंगे जब इनकी तरह आपस में "सर-जोड़" के इनसे भी बड़ी अनैतिक लूट ना सही, बल्कि अपने एथिकल पूंजीवाद को आगे बढ़ाओगे| आपस में मिलके काम करने के नाम पर तो आजकल थारै माणस-माणस के बीच "घणिये अक्षोहिणी सेना टाइप वाले युद्ध" जस्टिफाई हो जा सैं, वैसे ना होवै तो ये थारे घरों में ही नई-नई पनपी कथा गुरुवों की चेलियां समझौता होणे दे ना| जबकि देखे हैं कभी वह आपस में "यही युद्ध" वो मचाते या "ऐसे युद्धों के मोर्चे भी खोलते" जो तुम्हें प्रवचन के नाम पे यही लठ-बजाने परोसते हैं? तुम इन लठ-बजानी कथाओं को धर्म मान बैठे हो, जबकि फंडियों के लिए यह सब तुमको आपस में सर नहीं जोड़ने देने की राजनीति है| जिस दिन यह समझ गए उस दिन समझना इनको जवाब दे गए|

परन्तु संकट यही तो है कि कद तो थम समझोगे और कद थारी लुगाई कि जमींदारों के यहाँ हर दूसरे घर में "खेत-डोळे के रोळे" होते आये, कद-कद इनको अक्षोहिणी सेना टाइप वाले काल्पनिक युद्धों के स्टाइल में निबटाओगे| म्हारै तो पंचायती यानि सोशल जस्टिस, सोशल जूरी कल्चर रहा है सै, उसके तहत रोळे निबटते आये और वापिस "सर-जुड़ते-जोड़ते-जुड़वाते" आये; जोड़ लो वापिस| एक पंचायत का ऐसा इतिहास दिखा दो जिसने कभी समझौता ना भी हो पाया हो तो आपस में हथियार तनवा दिए तो दूर, अगर बोहें भी सिकोड़ने दी हों; मामला उनकी सुपुर्दगी में आने के बाद? बेशक इनकी तरह अनैतिक लूट मचाने हेतु नहीं जोड़ने, परन्तु "सरजोड़" तो तुम्हारे "एथिकल कैपिटलिज्म" के फलते-फूलते रहने के लिए भी जरूरी है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 2 August 2020

हरयाणवी सलूमण (सलूणे) यानि हिंदी की राखी!

हरयाणवी सलूमण (सलूणे) यानि हिंदी की राखी: सलामती शब्द से निकला बताया जाता है "सलूमण"| हरयाणवी में यह रक्षा से ज्यादा आपसी दुआ-सलामती व् भाण-भाई में आत्मीयता का प्रतीक है क्योंकि हरयाणवी कल्चर में औरत को मर्द के बराबर ही ताकतवर माना गया है| इसलिए हम इस सोच से भी बचते हैं कि औरत कोई छुई-मुई है व् वह अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकती; वक्त आने पर वह बड़े-बड़ों के भोभरे से ले भीतरले तक फोड़ सकती है|

हरयाणवी पोहंची यानि हिंदी की राखी: हरयाणवी में इसको पोहंची बोलते हैं क्योंकि यह हाथ के पोहंचे (हिंदी में कलाई) पर बंधती है| हिंदी में राखी शायद इसको रक्षा बंधन बोलने से निकाला गया होगा|

वैसे एक राखी थाईलैंड में भी मनाई जाती है: क्योंकि थाईलैंड की सबसे बड़ी इकॉनमी "वेश्यावृति" से चलती है तो वहां सुनने में आता है कि भाई, बदमाश ग्राहकों से अपनी बहन की रक्षा हेतु यह त्यौहार मनाते हैं| खैर, यह उनका उद्देश्य, वह जानें| और अगर यह उद्देश्य और इस वजह से नाम है इसका "राखी" या "रक्षा बंधन" " तो इससे तो म्हारा "सलूमण" नाम ही बेहतर भी और सुथरा-सूचा भी|

चित्र में सलंगित हैं, मेरी बुआओं द्वारा उनके हाथों से बनी, मुझे भेजी, फूंदों वाली शुद्ध हरयाणवी पोहंचीं| वो बुआ-भाण का प्यार ही क्या हुआ जो बाजार की तरफ भागने की बजाये अगर अपने भाई-भतीजों के लिए अपने हाथों से पोहंचीं बुनने की जेहमत नहीं उठा सकती| वैसे पोस्टें-तख्तियां लगाएंगे की "प्यार कोई पैसों से नहीं खरीद सकता"; अरे 90% से ज्यादा खरीद तो रही हो कई दशकों से, हर "सलूमण" पे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Sunday, 26 July 2020

त्रिपुरा के मुख्यमंत्री की जाट व् सिख सरदारों पे कही बात को Ethical Capitalism बनाम Unethical Capitalism के पहलु से समझा जाए!



Ethical Capitalism: यानि उदारवादी जमींदारी, जहाँ खेत में फसल उठने से पहले सब देनदारों का निर्धारित करार के तहत हिस्सा खलिहान से ही बाँट के उसके बाद खसम फसल घर ले जाता रहा है, फिर चाहे उसमें बढ़ई का हिस्सा रहा हो, मिटटी के बर्तन बनाने वाले का, कृषि के औजार बनाने वाले का, बाल बनाने वाले का, सीरी-साझी आदि का रहा हो| यह जमींदारी वर्णवाद-जातिवाद-धर्मवाद से रहित, सीरी-साझी के वर्किंग पार्टनर कल्चर की एथिक्स की होती है, कि अपनी पूँजी बनाओ जितनी चाहे उतनी बनाओ परन्तु दूसरे का हक मत खाओ व् अमानवीयता मत अपनाओं| और जहाँ-जहाँ तक जाट व् सिख सरदार बहुलयता में बसते आये हैं, वहां-वहां 5-10% को छोड़ के यही Ethical Capitalism प्रैक्टिस होता आया है|

Unethical Capitalism: यानि सामंती जमींदारी, जहाँ खलिहान में फसल बंटने का कोई कांसेप्ट नहीं होता, बल्कि बेगारी और होती है| सीरी-साझी की जगह नौकर-मालिक का कल्चर रहता आया| वर्णवाद-जातिवाद-धर्मवाद प्रकाष्ठा की नीचता के स्तर का होता है| और इनकी इस नीचता की बानगी ही है ये कि इनके यहाँ दलित-ओबीसी मात्र बेसिक दिहाड़ी कमाने तक को इन्हीं जाटों-सरदारों की धरती पर दशकों से आ रहे हैं| तो ऐसा है बिप्लब देब तेरी बुद्धिमत्ता उस दिन मानूं जिस दिन तू हमारी तरह तेरे यहाँ के वर्णवाद-जातिवाद-धर्मवाद के प्रताड़ितों को रोजगार देना तो छोड़, तू तेरे यहाँ वालों के ही रोजगार के बंदोबस्त कर दे तेरे यहाँ|

और अगर तेरे यहाँ से बिकने वाली बेटियों (जो हरयाणा-पंजाब में बहुओं के रूप में आने से पहले कोलकाता के सोना-गाछी, हैदराबाद, मुंबई, दुबई आदि में वेश्यावृति के लिए बेची जाती रही हैं) की बिक्रियां बंद करवा दे तो तुझे वाकई अकलवान इंसान मानें हम| लोग बड़े चौड़े हो के थू-थू करते हैं कि बंगाल-बिहार से बहुएं लाते हैं हरयाणा-पंजाब वाले, अरे यह देखो किन बच्चियों को ला के अपने घरों की शान बनाते हैं, उनको जो हरयाणा-पंजाब में आने से पहले कोठों पर बेचीं जाती रही हैं| और भाई सुन, तू बंगाली है ना? तेरा अहसान होगा अगर यह वृन्दावन के विधवा आश्रम को उठा के तेरे त्रिपुरा या बंगाल में ले जाए तो क्योंकि यह जमा जाट बाहुल्य धरती पर रखा है जबकि इसमें 90% विधवाएं बंगालन बैठी हैं जो प्रोफेशनल वेश्याओं से भी बदतर जीवन जीने को मजबूर हैं और तथाकथित धर्म के मोड्डे-फलहरी ही इनका जीना मुहाल रखते हैं| बोंडेड-वेश्याओं जैसी जिंदगी चलती है इनकी| उस दिन मानूं तेरी अक्ल जिस दिन तेरी इन बंगालन विधवाओं (सही मायनों में बोंडेड-वेश्याएं) के गले की फांस काट दे|

पर मुझे इतना भी पता है कि क्योंकि तू Unethical Capitalism के सिस्टम की उपज है, तो चिकने घड़े की भांति तू यह नोट पढ़ भी लेगा तो सकपका के नजरें झेंपने के अलावा कुछ कर ले तो| तो जिनकी कोई एथिक्स ही ना हों, उनको एथिक्स पर चल के पूँजी बनाने वाले कम दिमाग के लगें, इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं| लिखने को बहुत-कुछ है, 20 पन्ने जितना लेख छाप सकता हूँ परन्तु वक्त की कमी हो रखी है आजकल| इतने से ही समझ जाना कि अगर जाट-सरदार एथिक्स पे रहते हुए भी इतने ताकतवर हैं तो जिस दिन तेरी तरह Unethical हो गए तो तुम्हारा क्या होगा; सबसे पहले तुम ही फिर "लुटेरे" लिखते-लिखवाते-बिगोते-बड़बड़ाते हांडोगे|

अंतिम सुन ले, पूरे इंडिया में जाट-सरदार ही इकलौते Ethical Capitalism वो पैरोकार हैं जो इंडिया के बाद अमेरिका-यूरोप आदि वालों में ही मिलती है| तुमसे तो रीस तो छोड़, तकदीस भी ना होवे जाट-सरदारों की|

नोट: कुछ प्रोफेशनल-सोशल असाइनमेंट्स में बिजी था, इसलिए रिप्लाई लाने में लेट हो गया; हो सके तो पहुंचा दीजियेगा महाशय को यह लेख, वैसे तो पढ़ेंगे ही नहीं फिर भी दिमाग के किसी कोने में कोई बात चौंध जाए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 4 July 2020

दादा नील्ले खागड़ हो!

मेरे बचपन के, मेरे निडाणे के दादा नीले खागड़ की याद में समर्पित मेरी यह हरयाणवी कविता पढ़िए:

दादा नील्ले खागड़ हो, तैने आज भी टोहन्दा हांडु हो|
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूजा हो||

बुड्डे खागड़ का बदला तैने, लिया खेड़े आळी लेट म,
ड्यंग पाट्टी नही बैरी पै, ज्यब धरया तैने फटफेड़ म|
रुक्का पाट्या तेरी रहबरी का, दूर-दूर की हेट म,
आंडीवारें गाम की गाळैं, रहन्दा रात्याँ खेत म||
मिटटी-गारे की भरी मांग माथे म, किते सूरज, किते चंदा हो!
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

रोज सांझ नैं आया करदा, जाणू कोए सिद्ध-जोगी हो,
गाळ म आ धाहड्या करदा, जाणू अलख की टार देई हो|
ले गुड़ की डळी मैं आंदा और तू चाट-चाट हाथ खांदा हो,
गात पै खुर्रा फेरूँ, इस बाबत फेर पूंजड़ बारम्बार ठांदा हो||
जब मिटदी खुश्क खुर्रे तैं, तू अकड़दा ज्यूँ को बड़बुज्जा हो|
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

दो पल भिक्षा की बाट देखण की तैनें, मर्याद कदे तोड़ी नहीं,
दादी बरसदी म्हारे पै, जै टेम पै टहल तेरी मोड़ी नहीं|
दूसरा दर जा देख्या तन्नै, जो बार माड़ी सी हुई नहीं,
पर देहळ की सीमा-रेखा, तैने कदे लांघी नहीं||
सब्र-संतोष व् आत्मीयता की, अजब था तू धजा हो!
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

खागड़ सून्ने राह न्यडाणे की, भोत-ए-भोत चढ़े,
तू ए बताया जिसनें सबके मोर्चे खूब-ए-खूब अड़े|
एक-एक खैड़ तेरी, गाम की गाळा नैं सरणा ज्यांदी,
स्याह्मी आळे खागडाँ की, जोहडाँ बड़ें ज्यान छूटदी||
पाणी जांदे पाटदे जोहडां के, ज्यूँ चढ़ के चली को नोक्का हो,
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

उत्तराधिकारी नैं ब्यरासत सोंपणी तन्नें खूब स्य्खाई,
ज्यब नया बाछड़ा हुया तैयार, तू गाम की गाळ त्यज जाई|
सांझरण आळी पाळ बणी डेरा, तैनें जग-मोह तैं सुरती हटाई,
माणस भी के जी ले इह्सी, बैराग ज्यन्दगी तैनें लई प्रणाई||
सुणी ना भकाई मेरी एक भी, दे धर देंदा ठा सींगा हो!
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

आज भी तरी तस्वीर मग्ज म न्यूं की न्यूं धरी, ओ गाम के मोड़ हो|
गाम का दयोता, गाम का रुखाळा, तू था गाम का खोड़ हो|
लियें तासळा दळीये का हांडू, न्यडाणे के काल्लर-लेट हो,
फुल्ले-भगत की भेंट स्वीकारिये, नहीं आगै करूँ को अळसेट हो|
बुड्ढे खागड़ तेरी सोहबत, मैंने देवै रिश्तों का जज्बा हो,
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

दादा नील्ले खागड़ हो, तैने आज भी टोहन्दा हांडु हो|
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

लेख्क्क: फूल कुंवार म्यलक

Sunday, 21 June 2020

2016-18 के इर्दगिर्द परशुराम जयन्तियों के मुख्यतिथि रहे राजकुमार सैनी के मुखमंडल से सुनिए ब्राह्मण समाज व् उनकी रचनाओं बारे राय!

Note: See the attached video, before reading this post!

यह महाशय वही हैं जिनको 35 बनाम 1 की फायरब्रांड बनाया गया था| अब इस्तेमाल किये जाने के बाद अपनी वास्तविकता पर आख़िरकार आ ही गए|
ऐसे ही तमाम अन्य नेताओं को ध्यान रखना चाहिए कि जाट समाज में अगर यह जज्बा व् माद्दा है कि वह आध्यात्म से ले इकॉनोमी व् सोसाइटी से ले पॉलिटिक्स तक में अपने हिस्से बराबरी से सुनिश्चित रखता आया है तो इससे जलो मत|
1) आध्यात्म में दादा नगर खेड़े, आर्यसमाज, बिश्नोई, बैरागी व् कई डेरों के मालिक होने के साथ-साथ सिखिज्म व् मुस्लिम धर्मों के अगवा होने जरिये, जाट समाज ने अपना हिस्सा सुनिश्चित रखा|
2) इकॉनमी में कृषि-डिफेंस-खेल में लीडिंग के साथ और व्यापार व् नौकरियों में अग्रणी समाजों में रह के, जाट समाज ने अपना हिस्सा सुनिश्चित रखा|
3) सोसाइटी में सोशल इंजीनियरिंग व् समाज-सुधार के नाम की थ्योरी यानि खापोलॉजी, जो विश्व की सबसे प्राचीन सोशल जूरी सिस्टम है, के साथ जाट समाज ने अपना हिस्सा सुनिश्चित रखा|
4) पॉलिटिक्स में राजशाही (महाराजा हर्षवर्धन से होते हुए महाराजा रणजीत सिंह व् महाराजा सूरजमल आदि) से ले लोकशाही (सर छोटूराम-चौधरी चरण सिंह - सरदार प्रताप सिंह कैरों - ताऊ देवीलाल व् अन्य बहुत से स्टेट लेवल लीडर्स की लिगेसी) के साथ अपने हिस्से आध्यात्म-इकॉनमी-सोसाइटी-पॉलिटिक्स में सुनिश्चित रखे|
इस वीडियो में देखिये राजकुमार सैनी समेत तमाम ओबीसी या दलितों के हक किसने मारे, यह जनाब खुद अपनी जुबानी बता रहे हैं| इनके अनुसार जिन्होनें इनके हक़ मारे, जाटों ने तो उन तक को "धौली की जमीनें" दान में दे-दे अपने यहाँ बसाया हुआ है| और वह समाज भी तब चुप रह गया जब 35 बनाम 1 उछला, एक भी यह कहने को आगे नहीं आया कि हमें मत काउंट करो इसमें, 34 बनाम 2 समझो अगर ऐसे ही करना रास्ता बचा है तो| किसी समाज ने नहीं बाँट रखी जमीन जैसी बेशकीमती दौलत इस समाज को जिस अनुपात में जाटों ने दी| और कमाल देखो 35 में काउंट हुए खटटर बाबू ने ही इनसे इस जमीन की मल्कियत छीनी, जो मल्कियत इनके नाम भी चौधरी भूपेंद्र सिंह हुड्डा जैसा जाट करके गया था|
और अंदरखाते राजकुमार सैनी जैसे इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि दिमाग और लठ दोनों की ताकत के बैलेंस वाली जाट कम्युनिटी ही वह कम्युनिटी है जिसके साथ अगर दलित-ओबीसी मिलके रहे तो उसके हक-हलूल दलित-ओबीसी सबसे जल्दी हासिल कर सकते हैं| परन्तु राजकुमार सैनी जैसे नेता ही इन चीजों को हासिल होने देने में बाधा हैं| बल्कि इनकी हरकतें देख कर कई सारे तो जाट भी विचलित हो जाते हैं कि क्या वाकई में मेरा समाज या मेरे पुरखे इतने गलत रहे, जितने राजकुमार सैनी, रोशनलाल आर्य, मनीष ग्रोवर, अश्वनी चोपड़ा या मनोहरलाल खट्टर जैसे फरवरी 2016 पे आग झोंक कर या मूक रह कर समाज को जतलाते दिखे?
खैर, किसी द्वेष-क्लेश के चलते यह पोस्ट नहीं लिखी है और ना ही 35 बनाम 1 का कोई रश्क मुझे| अच्छा है हमारी स्थापना और दृढ ही करके गया फरवरी 2016| जिस प्रकार 1984 के बाद सिख पहले से भी बेहतर बन के उभरे, जाट समाज भी उभरेगा| परन्तु दलित व् ओबिसियों के सैनी जैसे नुमाइंदे औरों की बजाये इन्हीं की राहों के रोड़े ज्यादा साबित होते हैं| जो जनाब की इस वीडियो से झलक भी रहा है|
होंगी जाट समाज में भी कमियां, परन्तु यह कोई तरीके नहीं होते कि तुम 35 बनाम 1 करके अपना गुबार निकालो; बस आपसी कम्पटीशन के इन असभ्य तरीकों से असहमति है अपनी तो| तुम भी इन तरीकों से गुबार तो नहीं निकाल पाते, उल्टा अपना थोबड़ा सा झिड़कवा के बैठ जाते हो; परन्तु बहुतों के दिलों में खामखा की टीस जरूर बैठा जाती हैं ऐसी हरकतें|
बाकी इससे बड़ी विडम्बना व् भंडाफोड़ क्या होगा कि एक वक्त जो व्यक्ति कुरुक्षेत्र का सांसद रहा हो, वही व्यक्ति महाभारत व् कुरुक्षेत्र दोनों को काल्पनिक बता रहा है| ना जाने ब्राह्मण सभाएं अब क्या हश्र करेंगी एक वक्त परशुराम जंयन्तियों के चीफ-गेस्ट रहे सैनी साहब का|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Monday, 15 June 2020

कुंडलिनी की ऊर्जा का वैमनस्य!

जब यह ऊर्जा वैमनस्य यानि शारीरिक हिंसा, व्यभिचार में बदल जाती है तो वासना कहलाती है| और यह लड़का-लड़की दोनों की समस्या रहती है| समाज गलती यह करता है कि वयस्कों को इसको ऊर्जा के रूप में बताता ही नहीं, सीधा इसको वासना का नाम दे देता है जिससे दिग्भर्मिता फैलती है और वयस्कों में इसको ले कर उलझन| जबकि जिंदगी में अगर सबसे सहज (सीरियस तो बिलकुल भी नहीं) लेने की कोई चीज होती है तो वह यह कुंडलिनी की ऊर्जा ही होती है|
क्योंकि वासना को पाप बताया/फैलाया गया है और कुंडलिनी की ऊर्जा को पहले ऊर्जा की तरह समझाने की बजाये सीधा वासना के नाम से बता दिया जाता है तो वयस्कों में आत्मग्लानि भाव भरता है, असुरक्षा का भाव भरता है, चरित्रहीन हो जाने का भय भरता है और इसको कण्ट्रोल (मैनेज) करने की इच्छाशक्ति ही मारी जाती है|
ऊपर से समाज में फैली/फैलाई गई ऐसी भ्रांतियां कि, "इस उम्र में नहीं करोगे तो तब करोगे", "यह चीजें होती ही एन्जॉय करने के लिए हैं" टाइप की पंक्तियाँ बच्चों को इस ऊर्जा के व्यर्थ व्यय की ओर तल्लीनता से धकेलती हैं| और ऐसे अपनी ही अच्छी खासी शारीरिक ऊर्जा के वयस्क दुश्मन बन, खुद को मानसिक-शारीरिक परिपक्क्वता तक पहुंचने ही नहीं देते|
इसलिए वयस्कों को इसको पहले झटके वासना मत बताएं, इसको शारीरिक ऊर्जा बताये व् इसको मैनेज करना सिखाएं| क्योंकि यह सत्य है कि अगर बच्चों ने यह नहीं सीखी तो वह अपने जैविक अस्तित्व की बुलंदी को कभी नहीं छू पाएंगे|
इसलिए निम्नलिखित कारकों को अपने वयस्कों के इर्दगिर्द से हटाइए, या ईमानदारी से सही-सही बताईये:
1) कुंडलिनी की ऊर्जा को वासना का नाम देना बंद करें| इसको ऊर्जा बता के उनको इसको मैनेज करने को प्रेरित करें|
2) चरित्रप्रमाण पत्र जारी करने की जल्दबाजी ना करें, पहले उनको चरित्र होता क्या है यह सही से समझा दिया, इसको पुख्ता करें|
3) किसी भी प्रकार की ब्रह्मचर्यता (खुद की हो सकने वाली बीवी या बीवी के अलावा विश्व की सब औरतों को अपनी बहन मानना व् गलतख्याली से दूर रहना) या जट्टचर्यता (सिर्फ गाम-गौत-गुहांड वालियों को बहन मानना व् गलतख्याली से दूर रहना) वयस्कों पे थोंपने की जल्दबाजी ना करें|
4) सबसे पहले अपने बच्चों को फॅमिली पॉलिटिक्स से प्रोटेक्ट कीजिये| क्योंकि फॅमिली पॉलिटिक्स चाहे पॉजिटिव हो या नेगेटिव अगर आपका बच्चा उसका शिकार हुआ तो वह इस ऊर्जा को कभी सीरियस नहीं लेता और फिर इसको कभी शौक-स्टैण्डर्ड-शोऑफ के चक्कर में बरबाद करता/करती है तो कभी शरीर में कोई कुछ अजीब उभार ना देख ले इस चक्कर में बर्बाद करता/करती है|
5) शारीरिक मैनेजमेंट मामले में बच्चों को कभी भी दिल से काम लेना ना सिखाएं, हमेशा आत्मा की इच्छाशक्ति से दिमाग को काबू रखते हुए, एक मानवीय विज़न दे के उसके मद्देनजर इसको मैनेज करना सिखाएं|
6) शारीरिक रिलेशन एक जरूरत है, स्वाभविक क्रिया है; उसको प्यार-व्यार समझने की भूल से बच्चों को बचाएं| प्यार एक जिम्मेदारी का नाम होता है, मस्ती/हंगाई/गधे के अढ़ाई दिन के अखाड़े का नहीं|
7) मोरल पोलिसिंग से पहले पर्सनल पोलिसिंग सिखाएं|
8) बताएं कि इच्छा-शक्ति हर किसी के शरीर की बॉस होती है, जिसको दोनों आँखों के मध्य माथे के बीच की संवेदना यानि तीसरी आँख संचालित करती है| इच्छाशक्ति-आत्मिक सवेंदना के नीचे दिमाग को रखें और दिमाग के भी नीचे दिल को| और उन लोगों-माहौलों को अपने बच्चों का दुश्मन मानें जो उनको इस हायररकी के उल्टा चलने को प्रेरित या बाधित करते हैं|
फिर बेशक वो किसी भी धर्म के नाम पे ज्ञान-प्रवचन वालों की शिक्षा ही क्यों ना हों| ऐसी शिक्षा धर्म नहीं होती, अपितु दिग्भर्मिता होती है, फंडियों का फंड होती है|
9) बच्चों को सोशल इंजीनियरिंग व् इकनोमिक इंजीनियरिंग में सहयोगी व् दुश्मन सामाजिक समूहों की सही-सही ईमानदारी से जानकारी दें| खामखा के थोथे भाईचारे पे चलने के सबब पढ़ाने से कन्नी काटें| यहाँ बिना रोये माँ दूध नहीं पिलाती, तुम भाईचारा-भाईचारा चिल्ला के काका से ककड़ी लेने चल देते हो| दी है आज तक किसी ने काका कहने मात्र से ककड़ी, जो तुमको मिलेंगी? यह भी वजह रहती है शारीरिक ऊर्जा को वासना समझने की|
10) अपने परिवार-कुल के सर्वश्रेष्ठ आध्यात्म व् सम्मान, एथिकल वैल्यू सिस्टम, कल्चर-इतिहास से बच्चों को जरूर अवगत व् प्रेरित करवाएं (सीधा वह जो पुरखों से आता है, फंडियों का फैलाया तो वह बाहर से वैसे ही जान लेंगे, क्योंकि वह तो प्रचारित ही इतना हद से आगे तक मिलता है समाज में), अन्यथा उनको इनका ही नहीं पता होगा तो उनको कुंडलिनी की ऊर्जा वासना ही फबेगी और वह इसको यूँ ही बेवक्त-बेवजह बर्बाद करेंगे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 11 June 2020

नारनौंद के मल्हाण पान्ने की विहंगम परस!


ऐसी मिनिफोर्ट्रेस-नुमा परस (चौपाल/चुपाड़) 1857 से पहले के प्राचीन विशाल हरयाणा (वर्तमान हरयाणा, वेस्ट यूपी, दिल्ली, उत्तरी राजस्थान, दक्षिणी उत्तराखंड) व् पंजाब के हर गाम-पिंड की कहानी हैं| और खास बात यह, कि यह कम्युनिटी गैदरिंग का अजब सिस्टम, इंडिया में इस क्षेत्र से बाहर नहीं मिलता; फिर मिलता है तो सीधा अमेरिका-यूरोप-ऑस्ट्रेलिया के डेवेलप्ड देशों में मिलता है|

और यह सिस्टम देन है वर्णवाद रहित नेग-नात की सीरी-साझी वर्किंग कल्चर वाली उदारवादी जमींदारी (उज़्मा) सिस्टम की; जिसको सींचती है
  1. विश्व की सबसे पुरानी वैधानिक मान्यता प्राप्त सोशल जूरी व् सोशल इंजीनियरिंग की सर्वखाप व्यवस्था
  2. मूर्ती-रहित, मर्द-पुजारी रहित व् 100% औरत की धोक-ज्योत की लीडरशिप वाली दादा नगर खेड़ों/दादा नगर बईयों/भूमिया खेड़ा/गाम खेड़ा/बाबा भूमिया/दादा बड़े बीरों के आध्यात्म वाली वह आध्यात्मिकता कि जो आर्य-समाज की मूर्ती-पूजा रहित आइडियोलॉजी का बेस सोर्स है
  3. गाम-गौत-गुहांड व् 36 बिरादरी की बेटी सबकी बेटी वाली नैतिकता
  4. खेड़े के गौत की लिंग समानता
  5. गाम-खेड़े में कोई भूखा-नंगा ना सोवे की मानवता व्
  6. पहलवानी अखाड़ों वाले मिल्ट्री कल्चर|
यह परस 1871 की बनी बताई जाती है| कमाल है अगर उस जमाने में लोगों के यह ब्योंत व् जीने के स्टाइल थे तो यह बातें झूठी हैं कि अंग्रेजों ने या अन्य प्रकार के प्रवासियों ने यहाँ लोगों को जीना सिखाया, या नहीं?  

अपने पुरखों की इस लिगेसी की किनशिप डेवेलोप करते चलिए, इन चीजों को सहेजते व् आगे की पीढ़ियों को पास करते चलिए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक



Friday, 5 June 2020

खुद की बजाए, जो कौम को लीडर बनाना चाहे, वह साथ आवे!

"खुद को लीडर बनाने की महत्वाकांक्षाओं" वालों के आदर्श "खुद की बजाए कौम को लीडर बनाने वाले सर छोटूराम" कैसे हो सकते हैं? उनके नाम पर अगर कौम की लीडरी चमकाने की बजाये खुद की चमकानी है तो भला हो, घर बैठो| क्योंकि लीडर-मसीहा कोई खुद के घोषित करने से या प्रचारित करवाने से नहीं बना करते| यह लीडरी तो वह गाज़ी है जो उन्हीं के सर सजा करती है जो "कौम को लीडर" बनाने को टूरदे होवें| उदाहरण: यूनियनिस्ट पार्टी की यूनाइटेड पंजाब में 25 साल की सरकार में सर फ़ज़्ले हुसैन से ले सर सिकंदर हयात खान व् मलिक हिज्र खान टिवाणा तक कोई वह ताजपोशी नहीं पा सका जो सर छोटूराम इन तमामों के कार्यकालों में मंत्री रहते हुए पा गए यानि "रहबर-ए-आज़म सर छोटूराम"| इसलिए सर छोटूराम को आदर्श मानते हो तो खुद के जज्बे-नीत-नियत-विज़न पर यकीं रखते हुए यह त्याग भी करना सीखो कि खुद को औरों पर थोंपना नहीं अपितु चुपचाप काम करते जाना है; इस सिद्द्त से करते जाना है कि फिर बेशक हिन्दू महासभा सर छोटूराम को पंजाब छुड़वाने के प्रोपेगंडा के तहत जम्मूकश्मीर का प्राइम-मिनिस्टर बनवाने का लालच भी देवे तो भी बंदा अपना कॉल-करार अपनी कौम, अपनी जमीन के साथ ना तोड़े और वहीँ जमा रहे, उसी लाइन पर चला-चले| तब जा कर मिलती है मसीहा या रहबर की खलीफाई|

और इस जल्दबाजी में रहते हो कि खुद को लीडर बनना है, तभी भटकन बनी हुई है और अपनी ही स्ट्रैटेजियों में घिर रहे हो| कौम की सोचो कौम की, क्योंकि अपनों के हाथों मारे जाने वाले तो ईसाह मसीह भी, अपनों द्वारा उठा लिए जाते हैं भले अपनों के ही हाथों मारे जाने के बाद ही| इसलिए अपनों के हाथों मरने का खौफ ना खा, बुलंदी लिख और सूली चढ़; तेरे कौल-करार की टीस सच्ची हुई तो सूली पे टंगा-टंगा भी ईसाह मसीह कहलाएगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

उस जमाने के "खट्टर खान" से आज वाले "खट्टर" तक!

सर सिकंदर हयात खान खट्टर, यूनियनिस्ट पार्टी की तरफ से अविभाजित पंजाब के प्राइम-मिनिस्टर साहब का आज जन्मदिन है (5 June 1892)| दिवंगत प्राइम-मिनिस्टर साहब के जन्मदिन की आप सभी को शुभकामनायें|
ऐसे मसीहाई इंसानों को रहती दुनियाँ की कायनात तक हर वह जमींदार-मजदूर-व्यापारी याद करेगा जिनको अविभाजित पंजाब में 25 साल तक वह स्थाई राज व् कानून मिले जो आज तक भी भारत-पाकिस्तान के दोनों तरफ के पंजाब के लोगों के जीवन का शबब हैं| कहने की बात नहीं कि इन 25 सालों में यूनियनिस्ट पार्टी के कितने ही अन्य नामी-गिरामी प्राइम मिनिस्टर बने, परन्तु इन सब के दौर में जो एक नाम स्थाई तौर से सत्ता में जम के जमींदारों की जून संवारता रहा, वह था "खालिस-अलाही-आला-ए-पंजाबियत रहबर-ए-आजम दीनबंधु चौधरी सर छोटूराम ओहल्याण"| सलंगित फोटो दोनों हस्तियों की है|

"खट्टर" शब्द नोट किया खान साहब के नाम में? 'वाह', मुल्तान-पाकिस्तान की प्रसिद्ध खट्टर फेमिली के चिराग थे खान साहब| एक "खट्टर" वो थे और एक ... | क्या यह संगत का फर्क है कि वो खट्टर खान, एक चौधरी के साथ मिले तो जमींदारों को पुख्ता-तौर पर जमींदार शब्द पर जमा गए और एक यह वाले "खट्टर" हैं जो फंडियों के साथ मिल के जमींदार को उल्टा जमींदार से किसान बनाने को आतुर दीखते हैं? खटटरो और चौधरियो, पहले की तरह एक रह लो; चौधरी तो आज भी उसी लाइन पर हैं परन्तु आप किधर से किधर जा चुके, जरा देखो "खट्टर खान" से ले आज वाले "खट्टर" की जर्नी तक| आप एक रहो तो ना सितंबर 1947 होवे, ना जून 1984 और ना फरवरी 2016| जिन फंडियों के चक्करों में आप रहते हो इन्हीं की वजह से हमारी धरती को 1947, 1984 व् 2016 देखने पड़े हैं; मत पड़िये इनके चक्करों में| क्योंकि यह तो आपको-हमको लड़ा के फिर से साफ़ बच निकलते हैं| और हम-आप जब तक 30-35 साल में पीछे वाली खाई पाटते हैं जैसे 1947 से 1984 (37 साल), 1984 से 2016 (32 साल) तब तक यह कुछ ना कुछ और ऐसा करवा जाते हैं कि हम फिर अगले 30-35 साल यही खाई पाटने में खपा देते हैं| क्या यह सिलसिला बंद नहीं हो सकता? कहने की बात नहीं कि 1947, 1984 व् 2016 भुगता सर्वसमाज ने परन्तु सबसे ज्यादा व् बड़े स्तर के भुग्तभोगी खट्टर व् चौधरी ही रहे, कि मैं झूठ बोल्या?

नोट: इन दोनों वर्गों को उनका इतिहास याद दिलवाने की इस पोस्ट को कोई जातिवाद का चश्मा मत पहनाना प्लीज| और हो सकता है यह अपील अनसुनी जाए, परन्तु कल मुझे यह संतुष्टि रहेगी कि मैंने ऐसी अपील की थी| दिल खुले रखिये, क्या पता इससे दिमाग भी मिल जाएँ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 3 June 2020

आर्य-समाज क्यों महान है, देखिये उसकी बानगी - भाग 1

नीचे जो लिख रहा हूँ इसमें बस एक कसर रहती है कि जिन खाप-खेड़ा-खेतों से यह विचार सबसे गहन समानता में मिलते हैं, वह रेफरेन्सेस इसमें शामिल हो जाएँ तो "सोने पे सुहागा" हो जाए| जानिये क्या हैं वो बातें|
आर्य-समाज की गीता कही जाने वाली पुस्तक "सत्यार्थ प्रकाश" के ग्यारहवें समुल्लास अनुसार निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान दीजिये (संबंधित पन्नों की कटिंग सलंगित हैं):

1) तीन सलंगित कटिंग में से एक के अनुसार: मूर्ती-पूजा जैनियों की देन है यानि महर्षि दयानन्द के कथनानुसार सिर्फ हिन्दू धर्म का आर्य-समाजी पंथ ही नहीं अपितु सनातनी पंथ भी भूतकाल में मूर्तिपूजा नहीं करने वाला माना जाए, क्योंकि सनातनियों से भी पहले तो मूर्तिपूजा जैनी करते थे| तो फिर सनातनियों ने यह मूर्तिपूजा कब व् क्यों पकड़ी जैनियों से? इसका दूसरा आशय यह भी हुआ कि मूर्तिपूजा नहीं करने वाला आर्यसमाजी ही असली व् पुराना हिन्दू है, सनातनी तो मूर्तिपूजा नहीं करने वालों में से निकली हुई एक शाखा हुई इस मायने से; या नहीं?

मेरी विवेचना: और यही मूर्तिपूजा रहित आध्यात्म तो उदारवादी जमींदारी की आध्यात्म की थ्योरी यानि "दादा नगर खेड़ों / दादा भैयों / बाबा भूमियाओं / गाम खेड़ों" के माध्यम से अनंतकालीन है?

2) तीन सलंगित कटिंग में से एक के अनुसार: मंदिर में जाने से दरिद्रता बढ़ती है| मंदिर में जाने से स्त्री-पुरुषों में व्यभिचार, लड़ाई-झगड़ा बढ़ता है| मंदिर में जाने को ही पुरुषार्थ मान के इंसान मनुष्य जन्म व्यर्थ गंवाता है| पुजारी लोग एकमत को तोड़कर विरुद्धमत में पड़कर देश का नाश करते हैं| महर्षि दयानन्द के अनुसार पुजारी लोग दुष्ट होते हैं| बाकी इस पेज पर पूरी पढ़ लीजिये|

मेरी विवेचना: इतनी अति तो मैं नहीं करता किसी के विरोध की जितनी यहाँ महर्षि दयानन्द कर गए, परन्तु हाँ इतना मानता हूँ कि धर्म-धोक में मर्द का आधिपत्य नहीं होना चाहिए| और इस नहीं होने की सबसे सुंदर बानगी हैं हमारे मूर्ती-पूजा रहित, मर्द-पुजारी रहित, 100% औरत की धोक-ज्योत की लीडरशिप वाले प्रकृति-परमात्मा से ले तमाम पुरखों को एक धाम में नीहीत मानने के कांसेप्ट पर बने "दादा नगर खेड़े/ दादा भैये / बाबा भूमिये / गाम खेड़े"| हमें महर्षि दयानन्द के मतानुसार मर्दों को अपने धोक-ज्योत की चाबी/लीडरशिप देने से ना सिर्फ परहेज करना चाहिए अपितु यह दुरुस्त करना चाहिए कि यह चाबी/लीडरशिप हमारी औरत के ही हाथ में रहे| गर्व है मुझे मेरे पुरखों के इस आध्यात्म पर, जिसको महर्षि दयानन्द ने भी माना, भले इसकी रिफरेन्स सही जगह नहीं जोड़ी; जो कि हमें जोड़ने की जरूरत है|

3) तीन सलंगित कटिंग में से एक के अनुसार: आर्यसमाज में मूर्तिस्वरूप कोई है तो वह हैं जीते-जागते 1 - माता-पिता, 2 - शिक्षक, 3 - विद्वान्-सभ्य-अहानिकारक अतिथि, 4 - पति के लिए पत्नी व् 5 - पत्नी के लिए पति|

मेरी विवेचना: यानि पत्थर वाली मूर्तिपूजा नहीं करनी चाहिए| मूर्ती के रूप में पूजना है तो उपरलिखित 5 प्रकार के मनुष्यों को पूजें| यह है वो सबसे उत्तम बात जो "उदारवादी जमींदारी" में होती है| अपनी दादी-काकी-ताई में देखो, कितनियों के गले में विवाहिता के पट्टे स्वरूप मंगलसूत्र-सिंदूर आदि होते हैं; यह आज-कल वाली तथाकथित मॉडर्न जरा ध्यान देवें इस बात पर| और इस पर भी कि यह मर्दों को खामखा झाड़ पे टांगने के "करवाचौथ" तुम्हारी सास-पीतस-दादस कितनी करती थी या करती हैं? खामखा द्वेष-जलन की मॉडर्न व् एडवांस दिखने वाली देखा-देखी की पर्तिस्पर्धा में दे रही मर्दवाद को बढ़ावा व् खुद बनती जा रही शॉपीस|

लौटो अपनी इन जड़ों पर| यह विश्लेषण सिद्ध करता है कि आर्य-समाजी विचारधारा सनातनी विचारधारा से भी पुरानी है| 1875 में यह "आर्य-समाज" के रूप में लिखित अवस्था में आई और उससे पहले यह "दादा नगर खेड़ों" के रूप में युगों-युगों से अलिखित अवस्था में मौजूद रही|

विशेष: हमें नवीनता हेतु आर्य-समाज में इस बात पर मंथन करना चाहिए कि आर्य-समाज की मूल थ्योरी का आधार खाप-खेड़े-खेत इसमें जोड़ा जाए ताकि इसकी जड़ें 1875 से पहले व् अनंतकाल तक स्थापित की जा सकें|
लेख संदर्भ: 1882 व् 2000 के "सत्यार्थ-प्रकाश" के संस्करण| कटिंग्स 2000 वाले वर्जन की हैं जो मेरे पास है| यह मेरे बड़े भाई-भाभी को उनके फेरों के वक्त भाभी जी के आर्यसमाजी आचार्य सगे दादा जी, जिन्होनें दोनों के फेरे करवाए थे उन्होंने दी थी| यहाँ यह भी मिथ्या तोड़ें अपनी कि ब्याह-फेरे कोई जाति विशेष वाला ही करवा सकता है| 35-40 साल से ऊपर वाले आर्य-समाजियों में झांक के देखो, 50% से अधिकतर के फेरे ऐसे ही उनकी ही जाति-परिवार वाले के करे मिलेंगे जैसे मेरे बड़े भाई-भाभी के हुए थे| भाई-भाभी के पास 4 साल तो न्यूतम रही यह पुस्तक, उन्होंने कितनी पढ़ी पता नहीं परन्तु फ्रांस आते वक्त मैं इसको साथ उठा लाया था| 1882 का वजर्न यौद्धेय भाई विकास पंवार से चीजों को क्रॉसचेक करने हेतु चर्चित किया गया कि 1882 और 2000 के संस्करणों में क्या-कितना अंतर् व् समानता है|

आगे है: "आर्य-समाज क्यों महान है, देखिये उसकी बानगी - भाग 2" में ला रहा हूँ कि कैसे महर्षि दयानन्द ने "अवतारवाद" का खंडन किया है| यानि उनके अनुसार जितने भी अवतारी भगवान-देवता हुए हैं यह सब मिथ्या हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक