कोई गरीब-गुरबा घर-संसारी मर्द-औरत, इस लामनी के सीजन आपके खेत में गेहूं कटाई के बाद खाली पड़े खेत से "बालें" चुगने आवे तो उसको दुत्कारना मत, चाहे वो किसी जाति-बिरादरी का हो| मैंने कोई फुल-टाइम खेती तो नहीं की जिंदगी में परन्तु स्टूडेंट-लाइफ में हर सीजन की छुट्टियां खेतों में काम करते हुए ही कटती थी| आठवीं क्लास से ले फ्रांस आने तक गेहूं निकालते वक्त ट्रेक्टर पर अक्सर ड्यूटी हम तीनों भाईयों में से ही कोई से की लगती थी| दोनों भाईयों की ड्यूटी होती तब तो ऐसा होता ही था परन्तु जिस दिन मेरी ड्यूटी लगती थी तो ख़ास निशानी होती थी खलिहान में आ "अनाज का झलकारा लगवाने वालों" को कि आज तो "फत्तन का बीचला पोता सै कढ़ाई पै", चालो|
अपने कल्चर के मूल्यांकन का अधिकार दूसरों को मत लेने दो अर्थात अपने आईडिया, अपनी सभ्यता और अपने कल्चर के खसम बनो, जमाई नहीं!
Thursday, 15 April 2021
कोई गरीब-गुरबा घर-संसारी मर्द-औरत इस लामणी के सीजन थारे खलिहान आ जावे तो खाली झोली मत जाने देना!
Tuesday, 13 April 2021
किसान जरा सरकार की 'फसलों की पेमेंट उनके खातों में सीधी डालने' की क्षणिक ख़ुशी देने वाली काईयां चाल को समझें!
अडानी-अम्बानी जैसे हर छोटे से ले बड़े व्यापारी के सर पर लगभग हर वक्त इतना कर्जा व् लोन होते हैं कि अगर बैंक इनके कंपनी खातों से यह कर्जे अगली पेमेंट पड़ते ही सीधे काटने लग जाएँ तो इनके अपने कर्मचारियों को तनख्वाह देने को इनमें से किसी विरले के पास पैसे ही बचें और यह रोड पर आ जाएँ| इनके मामले में कानून यह है कि इनकी मर्जी जाने बिना बैंक इनके खातों से पैसे नहीं काट सकते|
Monday, 12 April 2021
धर्म वह जो आपके काबू का हो, वह नहीं जिसके आप काबू हो जाएँ!
ईसाईयत में 4 त्यौहार खेती से संबंधित मनाए जाते हैं|
मुझे यह लाइन सबसे वाहियात लगती है कि, "दुनिया में क्या ले के आए, और क्या ले के जाना"?
ऐसे बदबुद्धियों को बताया करो कि, "माँ-बाप-खानदान-जाति-कौम-धर्म-देश" का नाम व् रूतबा ले के आया/आई" व् जाते वक्त "अपने कर्मों के जरिये कमाए अच्छे-बुरे नाम-रुतबे-बुलंदी ले के जाऊंगा/जाउंगी"| ऐसी बुलंदियां जो सिर्फ मेरे नाम से रहती दुनिया तक जानी जाएँगी, चाहे वो देशभक्ति के जरिये कमाऊं, धन/व्यापार जोड़ के कमाऊं, डॉन बन के कमाऊं या समाज सुधारक बन के कमाऊं|
Tuesday, 30 March 2021
21 अप्रैल को सिख धर्म में जा रहे एक जाट व् एक फंडी का वार्तालाप!
फंडी (अपना प्रतीकात्मक घड़ियाली अटूट प्रेम दिखाते हुए): जजमान, थम हमनें छोड़ जाओगे तो हम तो भूखे मर जाएंगे?
Sunday, 28 March 2021
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का!
भाभियों बिना क्या रंग-चा फाग का,
Saturday, 27 March 2021
हमारा कल्चर नहीं कि हम किसी लुगाई को आग में जला के उसके इर्दगिर्द "झींगा ला-ला हुर्र-हुर्र" करें!
फिर भले वह लुगाई अच्छी थी या बुरी थी| अगर वह हकीकत में थी भी तो आप कौन होते हो उसको आए साल जलाने वाले? मर ली, मरा ली; हो ली, जा ली| जंगली-वहशी हो आप जो ऐसे करते हो?
Friday, 26 March 2021
आज अहमदाबाद, गुजरात में किसान नेता चौधरी युद्धवीर सिंह जी को मात्र प्रेस-कांफ्रेंस करते हुए ही पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया!
राजनैतिक तौर की बजाए धार्मिक थ्योरियों व् सोशल इंजीनियरिंग मॉडल्स के हिसाब से जब तक समस्याएं पकड़नी शुरू नहीं की जाएंगी, राह नहीं मिलेंगी|
Wednesday, 24 March 2021
सांड व् झोटे (भैंसा) की शालीनता व् चेतना में जमीन-आसमान का फर्क देखिए!
लेख का निचोड़: आप कितने introvert हो या extrovert यह शायद इस पर भी निर्भर करता है कि आप किस जानवर का दूध पीते हो|
Saturday, 20 March 2021
चार जैनियों की जिद्द की वजह से लम्बा खिंचता किसान आंदोलन, इस खींच को समर्थन करता हिंदुत्व व् इस वजह से जाट की सिखिज्म की तरफ बढ़ने की बनती वजहें!
लेख का निचौड़: क्या 1860 से ले 1880 वाला जाटों द्वारा सिखी अपनाने का दौर फिर से आ रहा है, 21 अप्रैल 2021 से?
"होळ" और "होळा" सुने हैं, दोनों होली व् होलिका से भिन्न हैं, परन्तु होली, होळा को लगभग खाती जा रही है; कभी अहसास हुआ?
यह लेख अंत तक पढ़ने के बाद यह, संदेश किसान आंदोलन के आगुओं को पहुँचावें: कि, "28 मार्च को किसान आंदोलन के धरना स्थलों पर 3 कृषि बिलों को आप जिस आग में जलाने वाले हैं, यह आग किसी औरत को जलाने की नहीं अपितु खेतों से चने की टाट लाई जावें, वह धरनों पर बैठ कर आग जला के भून के खाई जावें व् उस आग में बिलों की कॉपी जलाई जावे"| हम नहीं हैं किसी भी दुष्ट या सज्जन व्यक्ति को जलने-जलाने में खुशियां मनाने वाले DNA के लोग| अपनी किनशिप समझिये, कुछ नीचे ब्यां करता हूँ:
एक हरयाणवी भाषा का शब्द है "होळ", पंजाबी भाषा में भी है "होळ" और "होळा" शब्द; परन्तु हिंदी में नहीं मिलते यह दोनों ही शब्द, note it| जो नहीं जानते उनके लिए बता दूँ, "होळ" का अर्थ होता है "कच्चे चने का भुना हुआ दाना"| इसके साथ ही जुड़ा शब्द है "होळा" यानि चने की फसल पर टाट लग आने की ख़ुशी, इन टाटों के होळ पका के खाने से मिलती ऊर्जा व् बसंत-फागण-बैसाख के महीनों के खुशगवार मौसम की उर्जायमान मस्ती के चलते लोग-लुगाईयों का नाचना-गाना-रंग-गुलाल-मिटटी-गारे से खेलने को कहते हैं "होळा"| मिसललैंड (पंजाब) व् खापलैंड (ग्रेटर हरयाणा) पर यह रही है इस त्यौहार की शुद्ध परिभाषा व् परम्परा| यानि शुद्ध खेती आधारित, फसल पे फल आने की ख़ुशी में खुशगवार मौसम में मनने वाला त्यौहार रहा है यह|
अब इन्हीं दिनों, इसी मौके इसपे होली व् होलिका की परत कब व् कैसे चढ़ आई या चढ़ाई गई; जरा खोज कीजिये| एक प्रैक्टिकल, वास्तविक वजहों के कारण मनाए जाने वाले त्यौहार पर माइथोलॉजी का लेप कब से लगने लगा, जरा बुजुर्गों के पास बैठ के मंत्रणा कीजिये|
हमें ऐतराज नहीं कि आपको यह त्यौहार "होळ" खाते हुए "होळा" मनाते हुए मनाना है या पब्लिकली आग में एक माइथोलॉजी की लुगाई को जला के मनाना है| अर्ज सिर्फ इतना है कि बेशक दोनों को मनाओ परन्तु अपने पुरखों की वास्तविक किनशिप, लिगेसी को ज्यों-का-त्यों बरकरार रखो| इसको बरकरार रखोगे तभी कंधों से नीचे के साथ साथ ऊपर भी मजबूत कहलाओगे| जानता हूँ कि मजबूत हो और अपने DNA के उदारवादी खून-खूम के चलते ही अपने पुरखों के त्योहारों पर यह दूसरे कॉन्सेप्ट्स को एडजस्ट करने को मानवता के तहत ग्रहण करते जाते हो| परन्तु जो तुमसे ऐसा करवा जाते हैं वो इसमें तुम्हारी मानवता नहीं अपितु कंधों से ऊपर की कमजोरी देखते हैं|
हॉनर किलिंग से ले डोले-खेत के झगड़ों पे खून-खराबों से ले गुस्से की आगजनी में किसी की जान चली भी जाती हैं तो क्या आपका समाज, आपके रश्मों-रिवाज, आपकी पंचायतें कभी ऐसे काम करने वालों को स्वीकार करती या भगवान बना के पूजती-पुजवाती देखी हैं? नहीं, कभी नहीं देखी होंगी| बल्कि ऐसे लोगों का तो जरूरत पड़ने पर बहिष्कार व् निंदा दोनों तक करते हैं; चाहे उन्होंने लाख घर-समाज की इज्जत के बहाने बना के अपने कुर्कत्य को जायज ठहराया हो| मौत की सजा हमारे कल्चर का कांसेप्ट नहीं है, और जला के मारना तो फिर बिल्कुल ही दोहरा कुर्कत्य हो जाता है| तो कौन हैं यह लोग जो कहीं अपनी ही माँ का गला रेतने वाले हॉनर किल्लर को भगवान बना के पूजते हैं तो कहीं तीन आदमियों के पुतले बनवा उनको जला के जश्न मनाते हैं, तो कहीं होलिका दहन को ही त्यौहार बना के परोस देते हैं? क्या आपका कल्चर है यह? हमारे यहाँ कब देखा कि दो के झगड़े में एक जीत गया व् दूसरा हार गया तो, हारे हुए पक्ष की यूँ युगों-युगों तक झांकी निकालों, भद्द पीटो? हम ऐसे हैको-वाक्यों पर मिटटी डाल आगे बढ़ने वाले लोग हैं| अपना कल्चर, अपना DNA पहचानिये व् उसके अनुरूप व्यवहार कीजिये| तभी दुश्मनों द्वारा कंधों से ऊपर मजबूत कहे जाओगे या कम-से-कम उनके थोड़बे बंद रख पाओगे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक