Thursday, 31 March 2022

"नेग में सबसे बड़ा बूढा होता था ठोळों-बगड़ों का कॉउंसलर"!

दादा चौधरी दरिया सिंह मलिक: मेरे पड़दादा थे, उम्र में मेरे दादा, असल में कई दादाओं से छोटे; परन्तु नेग में एक पीढ़ी ऊपर| उनको मैंने मेरे ठोळे व् बगड़ (जिनको तुम आज शहरों में RWA कहते हो) की सभी छोटी-बड़ी औरतों की मासिक अथवा तिमाही रूटीन में कॉउंसलिंग मीटिंग लेते हुए देखा है| सभी की समस्याएं सुनी जाती थी, गलत को गलत व् सही को सही बताया जाता था| जो गलत होती थी उसको डांट पड़ती थी| फंडी-फलरहियों से एकमुश्त दूर रहने की सबको हिदायत होती थी| बूढ़े मानते थे कि औरत ही घर की मुदई होती है, उसकी कॉन्सलिंग होती रहे तो छोटे बच्चे, कल्चर-किनशिप सब सही रहता है| 


परन्तु वह मेरे बगड़ का आखिरी दादा था; जिसको मैंने ऐसे अपने बच्चों में, औरतों के साथ बैठ, अपनी किनशिप को ट्रांसफर करते देखा था| हालाँकि कई औरतें उनकी ज्यादा सख्ती से खफा भी रहती थी व् इस बात की शिकायतें भी करती थी, अपने बेटे-पतियों को| परन्तु सबको पता होता था कि कल्चर-किनशिप कायम  रखनी है तो इतना अनुसाशन तो चाहिए ही| ऐसी औरतों को सख्ती व् अनुसाशन में फर्क बताया जाता था या बताने की कोशिश मैंने देखी हैं| 


यही होता है एक "स्वर्ण" समाज| आज किधर खड़े हो तुम, खुद देख लो| स्वर्ण से कितने गिर के शूद्र बन चुके हो; आईना सामने हैं| यही गति से गिरते रहे तो आने वाले जमाने के अति-पिछड़े, महा-शूद्र तुम ही कहलाओगे; फिर बेशक कितने ही चमकते-दमकते महले-दुमहलों में बैठे रहना|


जय यौधेय! - फूल मलिक  

स्वर्ण क्या है, व् शूद्र क्या है?

स्वर्ण: जो अपनी जाति-समुदाय के भीतर सम्पूर्ण लोकतंत्र रखे व् बाहरी जाति-समुदायों में तोड़फोड़ मचवाये रखे| या जो अपनी सोशल-आइडेंटिटी की प्रोटेक्शन का ठेका स्वर्ण को दे दे व् बदले में स्वर्ण को चंदा-चढ़ावा देता रहे; परन्तु व्यक्तिगत नहीं उसकी पूरी जाति-बिरादरी की सोशल प्रोटेक्शन का| इन प्रोटेक्शन का ठेका देने वालों को स्वर्ण, आधा-स्वर्ण कहता है| 


शूद्र: जो अपनी छोड़, अपने परवार-ठोले-कुनबे-पान्ने-जाति की छोड़ बाकी सभी के लोकतंत्र की चिंता करे| अपनी के लिए सिर्फ व्यक्तिगत प्रोटेक्शन हेतु छुपे रूप से स्वर्ण को यह समझ के चंदा-चढ़ावा चढ़ाए कि वह उसकी सोशल आइडेंटिटी की रक्षा करेगा| परन्तु ऐसा कभी होता नहीं है| स्वर्ण उसको प्रोफेसर बनने पर भी स्वर्ण में शामिल ना करके, शूद्र ही कहते-मानते रहते हैं| स्वर्ण की चुसाई छद्म राष्ट्रवाद व् धर्मवाद की घूंटी यही सबसे ज्यादा पिए होते हैं|  


और यह नई सदी के नए शूद्र, तमाम उन बिरादरियों के लोग हैं, जो दो-तीन जनरेशन पहले तथाकथित स्वघोषित अर्बन हुए हैं| इनके पुरखे जब ग्रामीण थे तो अपने-अपने गाम के स्वर्ण थे, परन्तु यह मूढ़मति 99% अर्बन तो हुए परन्तु स्वर्ण वाला स्टेटस खो चुके| जबकि फंडियों ने जो ट्रडीशनली शूद्र घोषित किये हुए थे, वह कुछ-ना-कुछ स्वर्णता को अर्जित करते जा रहे हैं| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

पूंछ पाड़ैगा मेरी!

यही क्रेडबिलिटी है इस रंग वालों की| तुम ऐसे ही इनके चढ़ाए, ताड़ पे टँगते रहना; यह इतनी ही सिद्द्त से तुम्हें नीचे पटकते रहेंगे| तुम्हारा सब कुछ काबू करेंगे और अंत में तुम्हें बोलेंगे, "पूंछ पाड़ैगा मेरी"| और यह तो था भी उस वर्ग से जिसको फंडी, शूद्र बोलते हैं; इनके असली वर्ण वाले कितने खतरनाक होंगे; अंदाजा लगा पा रहे हो या नहीं?


बस, अपने दिमाग के बहम वक्त रहते ठीक कर लो; वरना इन्होनें तो वो दिन तुम्हें दिखाने ही हैं, जब यह तुम्हारी बहु-बेटियों को दक्षिण-पूर्व भारत के धर्मस्थलों के जैसे "देवदासी" बना के पब्लिकली नचाएंगे व् तुम इसको धर्म-भाग्य मान के भीतर-ही-भीतर सड़ते रहोगे| यह है इनके सब सब्जबागों की आखिरी मंजिल| और यह इसके लिए पीढ़ियां लगा के इंतज़ार करते हैं; कदे न्यू कहो फलाना न्यू कहवा था,परन्तु मैं तो मरने को भी आ लिया पर इब लग तो होया भी कोनी|

ये जो खापों के लोकतान्त्रिक गुण के तप से उत्तर-पश्चिम भारत बचा हुआ था, इसको संभाल लो, वरना देवदासियां बना के देने को तैयार रहें अपनी बहु-बेटियों को; यह कह जाना अपनी अगली पीढ़ियों को|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Wednesday, 30 March 2022

ऐसे संघठनों से प्रोफेशनल मतलब निकालने को बेशक जुड़ना, परन्तु इनको अपना कल्चर-किनशिप-बोली-भाषा कभी गिरवी ना रखना!

कौनसे-कैसे संघठन?: जो खुद को तुम्हारे आगे शालीन-सभ्य-मृदुलभाषी दिखने को व् यह दिखाने को कि वह खुद जातिवाद से कितने दूर हैं; इन बातों हेतु तुम्हारे नाम के आगे से गौत हटाने की कहें व् उसकी जगह नाम के पीछे "जी" लगा के बोलने की कहें; फिर तुम चाहे 5 साल के बच्चे हो या 50 साल के वयस्क| जैसे "विजय जी", "विकास जी"; परन्तु उन्हीं की टॉप लीडरशिप में ना सिर्फ वह एक ही जाति के सब बंदे रखने का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष विधान रखते हों अपितु वह अपना गौत भी ज्यों-का-त्यों कायम रखते हों| 


ऐसे संघठन सत्ता में हों तो इनसे प्रोफेशनली तो बना के रखो परन्तु अपना कल्चर-किनशिप-बोली-भाषा भूल के भी इनके आगे गिरवी मत रखना| क्योंकि यह चाहते होते हैं कि तुम अपने गौत-नात छोड़ दो परन्तु खुद के नहीं छोड़ेंगे; इसलिए इनकी टॉप-लीडरशिप गौत लगाती भी मिलेगी व् सबसे घोर जातिवादी व् वर्णवादी भी मिलेगी; क्योंकि सारे-के-सारे एक ही वर्ण-जाति के होते हैं टॉप में| हाँ, यदा-कदा 100 में 1 बार झूठा दिखावा करने को किसी दूसरी जाति वाले को ले भी लेंगे टॉप में तो भी दिखावे को|  


तुम्हारा क्या जाता है, ऐसे ही चिकना-चुपड़ा "जी" जुबान पे रख के तुम अपने काम निकालते रहो, वो कहावत है ना कि, "जाट, कहे जाटणी से, जै चाहवै राजी रहना; चींटी ले गई हाथी को, हांजी-हांजी कहना" इसकी तर्ज पे इनके साथ दीखते रहो; परन्तु अपने कल्चर-किनशिप-बोली-भाषा को कतई मत छोड़ना| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

Saturday, 26 March 2022

सीरी-साझी कौम की आज की सबसे बड़ी विडंबना, जो इसको तोड़ सकेगा, वही आगे राज करेगा!

या तब तक वह राज करेंगे, जिन्होनें यह विडंबना बनाई है|


जो कोई भी पोलिटिकल पार्टी, सोशल मिशन या संगठन, क्रमश: इस वोटबैंक को एक जगह गिरवाने की व् इनकी किनशिप को बचाने की चिंता करता है; उसको यह उलझन सुलझानी होगी| या कम-से-कम से इसके सवालों के जवाब समाज में उतारने होंगे, इसके बगैर राह नहीं आगे| खाली ड्राइंग रूम्स की बैठकें, क्यास, आंकड़े व् पार्टी के बाहर-भीतर के तोड़जोड़ कामयाबी नहीं देने वाले|

आज की यथास्थिति व् इलेक्शन की अगली तारीख के बीच 2 साल हैं; इस बीच निबट सकते हो तो इस विडंबना से निबटो| पब्लिकली नहीं निबटना, नीचे-नीचे निबटना है| आपके पुरखों की "साइकोलॉजिकल वॉर गेम छापामार" नीतियों से इनको निबटाना है| वह छापामार नीतियां जो सर्वखाप ने विजयनगर साम्राज्य से ले गोलकुंडा-हैरदाबाद को ट्रेनिंग दे-दे सिखाई| जिससे आपकी खापें औरंगजेब व् अंग्रेजों से लड़ी| शिवाजी तक ने यह छापामार नीतियां अपनाई|

क्या बला है यह विडंबना?: यह विडंबना फंडी की बनाई ऐसी पिच है जिसपे वह आपको खेलने को बुलाएगा; आप खेले तो समझो आप निश्चित हारे| अपितु इन अगले 2 सालों में इस विडंबना को तोड़ आपको अपनी पिच बनानी होगी| तो क्या है यह पिच व् विडंबना?

फंडी (हर जाति-वर्ण-धर्म में मिलता है; किसी में कम अनुपात में तो किसी में ज्यादा में) का polarisation व् manipulation की पिच तोड़ो /बिगाड़ो तब बात बनेगी (पब्लिकली नहीं, फंडी के ही स्टाइल वाली छुपम-छुपाई से): और वो क्यों बिगाड़ो? क्योंकि फंडी उसकी polarisation व् manipulation की धाती को सीरी-साझी में इस स्तर तक ले जा चुका है कि कल तक इनमें जो छूत-अछूत-ऊंच-नीच-स्वर्ण-शूद्र-वर्णवाद के दंश से पीड़ित जातियां, वर्णवादियों से सीधा लोहा लेने की हुंकार भरती थी; वह इन मुद्दों पर चुप रहने लगी हैं, सहन करने लगी हैं| इसकी वजह फंडियों का फैलाया भय-द्वेष-लालच-दबाव-विघटन सब हैं| आपको यही भय-द्वेष-लालच-दबाव-विघटन क्षत-विक्षत करने होंगे|

दूसरा किसान व् खेत-मजदूर के बीच फंडियों ने कुछ और भी जहर के मटके भर के धर दिए हैं, वह भी फोड़ने होंगे व् दफनाने होंगे| इनके प्रकार व् उनको दफनाने के सारे सूत्र, आपको मिल जायेंगे| परन्तु काम अभी से शुरू करना होगा; अखिलेश यादव की भांति इलेक्शन से 5-6 महीने पहले या इलेक्शन डेट देलकारे होंगे के बाद अखिलेश के साथ आन मिलने वाले OBC नेताओं जितना देरी से नहीं| 

साथ ही प्रवासी मजदूर वोटों पर भी सफलता पाई जा सकती है, इसके भी ऐसे अकाट्य सूत्र हैं; जिनको फंडी भी नहीं काट सकता| 

मतलब दिन-रात कैडर झोंकना होगा, तब जा के कहीं आसपास पहुंचा जाएगा| फंडियों के घड़े फैलाए narratives काट के अपने narratives देने होंगे; यानि अपनी पिच बनानी होगी|

सत्ता चाहिए तो पहले सीरी-साझी बीच धरे, जहर के मटके फुड़वाइये; फिर ऊंच-नीच के इस अन्याय पर इनमें चर्चा करवाइए; रास्ता खुलता चला जाएगा| यह कर लिया तो वोट हैं वरना कोई तिगड़म, कोई अनुभव, कोई लिगेसी कुछ ही काम आए शायद|

सब नीचे-नीचे करना होगा; पब्लिक में बता-दिखा के कुछ भी नहीं होगा| अब शेर दहाड़ के हिरण मारने चलेगा तो हिरण थोड़े ही हाथ आएगा; इसलिए सब चुपचाप करना होगा| 

फंडियों से मत घबराओ, इनकी ताकत बस दो चीजें हैं; एक सामने वाले की अकर्मण्यता यानि चुप्पी व् दूसरा यह ज्ञान का दुरूपयोग करने में सबसे ज्यादा माहिर हैं; परन्तु दुरूपयोग की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यह तभी तक चलता है जब तक सदुपयोग साइड धरा है| आप सदुपयोग से चुप्पी तोड़िए; रास्ते खुलते चले जाएंगे|

जय यौधेय! - फूल मलिक 

Friday, 25 March 2022

सुधांशु त्रिवेदी बाबू, "चौधराहट खत्म हुई या लौटने लगी है"?

उद्घोषणा: लेख पढ़ने से पहले पाठक सनद रखें कि चौधर किसी एक जाति की लागू नहीं है, यह खाप व्यवस्था का कांसेप्ट है जो किसी भी जाति के आदमी के पास हो सकती है; परन्तु फंडियों ने षड्यंत्र के तहत इसको एक बिरादरी का सिंबॉलिक बना छोड़ा है|


जयंत चौधरी व् किसान आंदोलन; दोनों का जलवा या उनकी दी भड़क व् खौफ ही कहिये कि पिछली भाजपा की यूपी सरकार वाले जहाँ यह कहते थे कि "चौधरियों की चौधराहट खत्म हो गई" व् एक भी इस बिरादरी से मंत्री नहीं बनाया था; इस बार उसी बिरादरी से 4 मंत्री बनाए हैं| अभी जल्द ही सेण्टर में भी बनाने वाले हैं|

जातिवादी तो मैं नहीं हूँ, परन्तु यह तो देखना ही पड़ेगा कि मुझे कोई "for guaranteed" भी ना ले| इतना जबरदस्त साइकोलॉजिकल करंट दिया है किसान आंदोलन व् जयंत चौधरी के उभार ने फंडियों को कि आगे के पाँच साल कुलमुलाते हुए ही निकलेंगे| बैलट वोट व् अपंग वृद्ध सिटीजन के घर जा के लिए वोटों की धोखाधड़ी से बहुमत लिए हैं, यह इनको भी पता है; इसलिए जीत कर भी वह रौनक गायब है जो अक्सर इनमें होती है|  

दूसरा सुखद पहलू यह है कि किसान आंदोलन के सबसे स्ट्रांग-होल्ड्स में बीजेपी का सूपड़ा साफ़ हुआ है; यानि पंजाब व् वेस्ट यूपी के मुज़फ्फरनगर-शामली-मेरठ-बागपत-बड़ौत क्षेत्र की 19 में से 13 सीटें बीजेपी हारी है| तीसरा स्ट्रांग होल्ड हरयाणा था, वहां अभी चुनाव नहीं थे|

सबसे सुखद बात यह है कि पंजाब ने वह साइकोलॉजिकल स्वछंदता पा ली है जो उसको अमेरिका-यूरोप का सिस्टम लागू करने का माहौल व् साहस देती है| बेसक वहां बनी सरकार संदेह के दायरे में है, फंडियों से अंदरखाते संदेह के चलते, परन्तु यह वाले वह बिन दांत वाले सांप हैं; जो अब पंजाब को साइकोलॉजिकली उतना नहीं काट पाएंगे, जितना पंजाब काट चुका| और कोई बात नहीं किसान यूनियनें अबकी बार वहां लड़े एलेक्शंस में ज्यादा सफल नहीं हुई तो, हो जाती अगर MSP ले के उठते तो, बस 15 दिन की जल्दी मचा दी; दिसंबर भी पूरा किसान आंदोलन जमाए रखा होता तो MSP भी मिलता व् वो साख व् क्रेडबिलिटी भी मिलती जो चुनाव जीतने को चाहिए|

इन चुनावों व् किसान आंदोलन के कुछ साइड के फायदे: ना सिर्फ सरदार भगत सिंह दोगुने स्ट्रांग हो के उभरे अपितु उनके चाचा सरदार अजित सिंह व् उनके गुरु सरदार करतार सिंह सराभा की जड़ें और गहराई पा गई| यह जो कुछ बेअकले "जैसे काटड़ा अपने को मारता है, ऐसे इनको मारने पे तुले हैं"; कुछ ना निकाल पाएंगे अपितु अपना दायरा व् साख खुद मिटटी में मिला लेंगे|

सुधांशु त्रिवेदी, हरयाणा में पानीपत के तीसरे युद्ध से एक कहावत चलती आती है कि, "जाट को सताया तो ब्राह्मण भी पछताया"; (यह कहावत पुणे पेशवा सदाशिवराव भाऊ द्वारा महाराजा सूरजमल का उपहास उड़ाने व् उनको धोखे से बंदी बनाने की कुचेष्टा के बाद जब पानीपत में पेशवाओं की हार हुई तो तब चली थी); इसका संदेश साफ़ है कि, "चौधर जितनी कटती है, उतनी बढ़ती है"| हमेशा एक बात याद रखना, तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारा दावा; तभी तक है जब तक वह चौधर से ढांक के रखा हो; जिस दिन खुले में आ के बोल दिया, उसी दिन से तुम्हारे जैसे चंदा ज्यूँ गहने शुरू हो जाते हैं| जा, पूछ बीजेपी से कि यह यूपी में 4-4 जाट मिनिस्टर क्यों बना दिए; जबकि तूने तो इनकी चौधराहट खत्म का ऐलान कर दिया था?

अभी क्या अभी तो 13 महीने का किसान आंदोलन व् फरवरी 2016 म्हारी छाती म्ह ए धरे सैं| और न्योंदे उधारे रखने का इतिहास भी नहीं म्हारा| वक्त चाहे कितना ही लगे; परंतु अबकी बार सारी अलसेट मेटते चले हैं|  

जय यौधेय! - फूल मलिक

  

Thursday, 17 February 2022

यूं ही कैसे भुला दें 19-20-21-22 फरवरी 2016 की शाहकाली थोंपी गई दंगाई रातों को; कोई सनातनी शूद्र थोड़े हैं!

विशेष: इस लेख में सिर्फ कड़वी सच्चाई है, विद्रोह तो हम भगवान के सिवाए किसी का किया ही नहीं करते, क्योंकि हम उस कौम से आते हैं जो अपने खेत बीच खड़ा हो ऊपर वाले से आँखें मिला उसको धमकाने से भी नहीं कतराती| जिसको इस कौम की यह फिलोसॉफी सही-सही समझ आती होगी, वह इस लेख को समझ पाएगा/गी|

इन रातों को थोंपने का सबसे पहला मकसद था: दुनिया की सबसे सेक्युलर कौम, सबसे अवर्णीय, अनस्लीय, मानवीय कौम जिसका कभी प्रवासियों पर मुंबई-गुजरात वाले बाल ठाकरे या राज ठाकरे के भाषीय-क्षेत्रीय आक्षेप व् हमले थोंपने का कोई इतिहास नहीं; अपितु 1761 से भी पहले से ले आजतक अपने बीच सबसे ज्यादा प्रवासी व् परदेसी बसाने व् समाहित करने का इतिहास रहा है; उस कौम को उनसे भी बदत्तर हालातों से गुजारने का मकसद था| मतलब था फंडियों द्वारा इस कौम को साफ़-साफ़ संदेश देना कि तुम्हारा यह सेकुलरिज्म-अनस्लीय-मानवीय होना, हमारी जूती की नौक पे| फंडियों ने इन चार रातों में दिखाया कि यह देखो भीड़ पड़ी में तुम भोले-भंडारियों की ही मदद ले, तुम्हारे बीच बसेंगे भी और तुम्हारे पल्ले यह महानता भी नहीं छोड़ेंगे| यही महानता दागदार की गई थी इस कौम की इन चार रातों में| यह करके भी तुम इनके लिए कभी स्वर्ण नहीं हो सके, हो गए होते तो ऐसा कभी नहीं होता| जिसको बहम हो स्वर्ण होने का, इस कौम से, वह इन चार रातों का जवाब ला दे मुझे| ऐसे में पुरखों का "अवर्णीय" मार्ग ही सर्वोत्तम मार्ग है; जिनको यह स्वर्ण-शूद्र खेलने का शौक चढ़ा है, उनको छोड़ दो इस व्यवस्था में ही| देर-सवेर समझेंगे तो स्वत: ही वापिस आन मिलेंगे|
दूसरा सबसे बड़ा मकसद: इन चार रातों में उगला गया 35 बनाम 1 कुछ और नहीं अपितु, धर्म के क्षेत्र में 1 वाली कौम के बाबाओं-संतों-डेरों के आधिपत्य को क्षीण-हीन कर; उन पर अपनी मोनोपॉली स्थापित करना था| किसी दलित बिरादरी वाले, ओबीसी बिरादरी वाले के कितने डेरे-संत-महंत ऐसे हैं जो धर्म के फील्ड में इन मोनोपॉली चाहने वालों को टक्कर देते हैं? विशाल हरयाणे में तो 40-50% इस 1 बिरादरी वाले ही देते आए हैं| तो असल झगड़ा इस 40-50% को भी हथियाने का है| ख़ास बात यह कि इनमें अधिकतर डेरे स्वर्ण-शूद्र के फंडियों के खेल को चुनौती देने वाली विचारधारा के हुए महापुरुषों पर बने हुए हैं| अगर आभास हो इन डेरों के बाबाओं-संतों को तो करवाओ कि 2014 के बाद से तुम्हारी वैचारिक स्वछंदता किस हद तक छिनभिन्न हुई है| इनसे मुकाबला करना इतना बड़ा भी खेल नहीं है; बस यह इनका खेल समझ, आप लोगों को आपस में सरजोड़ के अपनी स्वछंद परिषद बनाने भर तक की दूरी है|
और इन चार रातों के जहर व् तपन से ज्यादा तथाकथित फलाने-धिमकाणे आतंकवाद के मुद्दे, बेढंगे धर्म के मुद्दे, सच्चे-झूठे जातिवाद के मुद्दे ज्यादा जिनको तकलीफ देते हैं; वह लोग जिंदा होते हुए भी मृतप्राय हैं| इन रातों को भूल अन्य मुद्दों की परवाह करना जैसे कि, "घर में गधी मरी पड़ी व् भाड़े करै सुनपत लग के"| बाकी हम तो भाई कोई सनातनी शूद्र व् वर्णवादी पिछलग्गू नहीं, जो यूं ही भुला देंगे; इस हमारी मानवीय महानता के बदले मिले दंश को| असल खेड़ों वाले हिन्दू हैं, इन बातों से सीख ले अपनी अगली पीढ़ियों को इतना जागरूक व् हर तरह से सुदृढ़ करके जाएंगे कि इनके दांव कब इन पर ही उल्टे पडने लगे इनको समझ भी हैक्का होने के बाद आएगी; जैसे कि 2020-21 का किसान आंदोलन| इस विश्वास की वजह यह है कि फंडी वहीँ सर्वाइव करता है जहां आपकी अनुपस्तिथि हो; जहाँ आप सक्रिय हुए वहां से यह ऐसे भागते हैं जैसे रौशनी के आगे हो अँधेरा भागता है|
अत: आपकी आने वाली पीढ़ियों पर कोई फिर से 19-20-21-22 फरवरी 2016 ना कर पाए इसके लिए जरूरी है कि:
1) अपने पुरखों की किनशिप यानि खाप-खेड़ा-खेत पर सरजोड़ो| जादू है इस किनशिप में|
2) अपनी कौम से बाहर दान देना बंद करो| खासकर फंडियों को तो आज की आज ही बंद कर दो|
3) अपनी किनशिप की बैटन को अपनी अगली पीढ़ी में उसकी 1 से 5 साल की अवस्था में ही स्थान्तरित कर दो|
4) मानवता पालो, परन्तु फंडियों से अपनी फसल-नस्ल दोनों की पुख्ता बाड़ पहलम झटके करो|
5) स्वर्ण-शूद्र में, वर्ण में उलझाने वाली विश्व की सबसे अमानवीय व् नस्लीय व्यवस्था को तिलांजलि दे दो|
6) भाईचारा सबसे पहले अपने के लिए, फिर अहसान जो कौमें मानती-समझती हों उनके लिए; फंडियों व् वर्णवादियों के लिए कभी भी नहीं|
7) फंडियों के साथ सिर्फ कारोबारी रिश्ते रखो; आध्यात्मिक-कल्चरल व् सामाजिक रिश्ते सिर्फ अपनों व् गैर-फंडियों के साथ|
8 - फंडियों को समाज के सबसे बड़े अछूत-मलिन-चांडाल-नीच समझो| इसमें कोई अमानवता मत समझना; क्योंकि किसान खालिस मानवता ही आगे रख, अपनी फसल की आवारा जानवरों से बाड़ ना करे तो घर एक दाना भी खेत से ना ले जा सके| बस यही वाले आवारा जानवर होते हैं फंडी आपकी नस्लों के लिए| इसलिए इतनी न्यूनतम बाड़ जरूरी है, ताकि मानवता भी बची रहे| इसलिए इनसे बचो व् बचाओ|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Monday, 14 February 2022

शहीद सूर्यचंद्र कवि "दादा फौजी जाट मैहर सिंह दहिया जी" की जन्मजयंती (15 फरवरी 1918) पर विशेष!

कृषि-दर्शनशास्त्र, युद्ध-दर्शनशास्त्र व् वैवाहिक-दर्शनशास्त्रों के प्रख्यात हरयाणवी शेक्सपियर, शहीद सूर्यचंद्र कवि "दादा फौजी जाट मैहर सिंह दहिया जी" की जन्मजयंती (15 फरवरी 1918) पर विशेष:

"आह्मी-सयाह्मी":
दादा मेहर सिंह अर दादा लखमीचंद, एक बै सांपले म्ह भिड़े बताये|
दादा लखमी नैं दादा मेहरू धमकाया घणे कड़े शब्द सुणाए||
सुण दिल होग्या बेचैन गात म रही समाई कोन्या रै,
बोल का दर्द सह्या ना जावै या लगै दवाई कोन्या रै|
सबकी साहमी डाट मारदी गलती लग बताई कोन्या रै,
दादा लख्मी की बात कड़वी उस दिन दादा मेहरू नैं भाई कोन्या रै||
सुणकें दादा लख्मी की आच्छी-भुंडी उठ्कैं दूर-सी खरड़ बिछाये||
इस ढाळ का माहौल देख, लोग एक-बै दंग होगे थे,
सोच-समझ लोग उठ लिए, दादा लख्मी के माड़े ढंग होगे थे|
दादा लख्मी के उस दिन के सारे प्लान भंग होगे थे,
लोगां नें सुन्या दादा मेहरु, सारे उसके संग होगे थे||
दादा लख्मी अपणी बात पै भोत घणा फेर पछताए||
दादा मेहर सिंह कै एक न्यारा सा अहसास हुया,
दुखी करकें दादा लख्मी नैं, उसका दिल भी था उदास हुया|
दोनूं जणयां नैं उस दिन न्यारे ढाळ का आभास हुया,
आह्मा-सयाह्मी की टक्कर तैं पैदा नया इतिहास हुया||
उस दिन पाछै एक स्टेज पै वें कदे नजर नहीं आये||
गाया दादा मेहर सिंह नैं दूर के ढोल सुहान्ने हुया करैं सें,
बिना विचार काम करें तैं, घणे दुःख ठाणे हुया करैं सें|
सारा जगत हथेळी पिटे यें लाख उल्हाणे हुया करैं सें,
तुकबन्दी लय-सुर चाहवै लोग रिझाणे हुया करैं सें||
रणबीर सिंह बरोणे आळए नैं सूझ-बूझ कें छंद बणाए||
ऊपर पढ़ी रागणी विख्यात विद्वान्, कवि डॉक्टर रणबीर सिंह दहिया जी की लेखनी में उकेरित है|
दादा मेहरु यानि शहीद सूर्यचंद्र कवि "दादा फौजी जाट मैहर सिंह दहिया जी" जन्मदिवस की सभी को शुभकामनायें व् दादा को शत-शत नमन|



Friday, 11 February 2022

कोक्को व् हाऊ!

चौधरी राकेश टिकैत जी को धन्यवाद जो उन्होंने शुद्ध हरयाणवी भाषा के ऐसे शब्द पुनर्जीवित करने का विगत एक साल से जैसे सिलिसला सा चला रखा हो, जो गैर-हरयाणवी पत्रकार लॉबी व् हरयाणवी को हिंदी का सबसेट समझने की भूल करने वालों को सक्ते में डाल दे रहे हैं| जैसे कि "गोला-लाठी दे देंगे", "बक्क्ल तार देंगे", "भुरड़ फेर देंगे" व् कल बोला "कोक्को ले गई"| कोक्को की केटेगरी का एक शब्द और है "हाऊ"| आइए थोड़ा इन बारे विस्तार से जानते हैं| 


"कोक्को" व् "हाऊ" शब्द ऐसे विचार का प्रतिबिम्ब होते हैं जो आसपास की कई चीजों का सामूहिक दर्पण होता है| जो चीजें हम देख सकते होते हैं व् उनका अस्तित्व भी होता है; परन्तु वह डरावनी होती हैं| जैसे कि 


"कोक्को": यह ऐसे पक्षियों की केटेगरी का नाम है जो आपके सर पर हमला कर देते हैं, आपकी थाली से रोटी उठा ले जाते हैं| बच्चों की थाली व् हाथ से तो जबरदस्ती उठा के या छीन के ले जाते हैं| जैसे कि कव्वा-कव्वी, चील, काब्बर आदि| काब्बर हालाँकि हमला नहीं करती, परन्तु आपकी थाली के पास मंडराती रहती है व् आपके इधर उधर होते ही या आपकी नजर इधर उधर होते ही चुपके से खा जाती है या उठाने लायक टुकड़ा हो तो ले के उड़ जाती है| और बच्चों के दिमाग में ऐसे पक्षियों के इम्प्रैशन का फायदा बड़े-स्याणे बच्चों से कोई चीज छुपाने को करते हैं व् नाम "कोक्को" का लगा देते हैं ताकि बच्चे को यकीन हो जाये कि वाकई में कोक्को ही ले गई| 


हाऊ: कपास के खेतों में, गोदामों में, धतूरे-आक-आकटे के पेड़ों-बोझड़ों के पास छोटी गेंद के आकार का सफेद रंग का बालों का चमकीला झुण्ड सा उड़ता हुआ देखा होगा? किसान व् खेत-मजदूरों के बालकों ने तो अवश्य ही देखा होगा? उसी को हाऊ कहते हैं| इसको सफ़ेद भूतों की केटेगरी में रखा जाता है, क्योंकि इसको छूने पे यह अटपटा सा अहसास देता है; उब्क या उल्टी या ग्लानि सी आने का| हानिकारक नहीं होता परन्तु इसका चिपकना किसी को अच्छा भी नहीं लगता| स्पर्श में अति-मुलायम व् सफ़ेद भूतों जैसा अहसास करवाता है| 


यह ज्यादा मशहूर तब हुआ था जब 1761 की पानीपत लड़ाई में आये पुणे के पेशवे भाउओ (भाऊ) से भी हमारी औरतों ने इस हाउ को जोड़ दिया| क्योंकि यह लोग भी यही गलानि व् ग्लीजता का अहसास दिलाते थे; इसीलिए हरयाणवी औरतों ने कहावत शुरू कर दी कि, "गैर-बख्त बाहर मत जाईयो, नहीं तो हाउ यानि भाउ उठा ले जायेंगे"| 


यह हरयाणवी भी कमाल की भाषा है, एक शब्द बोल दो; तथाकथित ज्ञानियों को इतने में ही दस्त लग जाते हैं| 


बाकी पहले दौर की कल हुई वोटिंग में गठबंधन 40 सीटें (हो सकता है ज्यादा भी जीते) तो आराम से जीत रहा है; बस यह फंडी लोग एडमिनिस्ट्रेटिव मशीनरी का दुरुप्रयोग नहीं करेंगे तो| 


जय यौधेय! - फूल मलिक

Tuesday, 25 January 2022

सावधान: हिन्दू-मुस्लिम फ़ैल होने के बाद, भूमिहीन जातियों को भूमिवान जातियों के खिलाफ भिड़ाने की साजिश पर फंडियों का संघठन दिन-रात काम कर रहा है!

यूपी-पंजाब-उत्तराखंड फंडी हारे या जीते, परन्तु फंडियों के संघठन का समाज में तोड़फोड़ मचाए रखने का अगला एजेंडा तैयार है| अगर हारे तो यह एजेंडा पूरे देश में आजमाया जाएगा, अगर जीते तो इसकी सबसे पहली प्रयोगशाला हरयाणा को बनाया जाएगा| जिसके कि लिटमस-टेस्ट शुरू भी किए जा चुके हैं|


और इसमें ख़ास टारगेट पर हैं खाप पंचायतों के चौधरी| चौधरियों के बोले एक-एक शब्द में विवाद तलशवाये जा रहे हैं|

2024 के चुनाव आने तक फंडियों के संघठन से जुडी सारी फंडी बिरादरियों को, हरयाणा में 35 बनाम 1 लगभग खत्म होने की कगार पर पहुँचने के बाद (किसान आंदोलन की बदौलत), व् राष्ट्रीय स्तर पर "हिन्दू-मुस्लिम" मृतपर्याय (यूपी इलेक्शन इसको साबित कर रहे हैं) होने के बाद, अब आजमाया जाना है "भूमिहीन बनाम भूमिवान"| ध्यान से पढ़िए, "मंदिरहीन बनाम मंदिरवान" या "फ़ैक्टरीहीन बनाम फ़ैक्टरीवान" नहीं अपितु "भूमिहीन बनाम भूमिवान"|

और इनके इस एजेंडा की काट इसी फार्मूला में छुपी है| इससे पहले यह "भूमिहीन बनाम भूमिवान" को इतना विशाल बना दें कि भूमिवान फिर हाथ मलने के अलावा कुछ ना कर सकें; भूमिवानों को 3 पहलुओं को ले कर भूमिहीनों को स्पष्ट करने की मुहिमें चलानी होंगी|

मुहीम एक: वर्णवाद के चलते मंदिरों में वर्ग-विशेषों का कब्जा क्यों है? समाज के पैसे से यह बनते हैं परन्तु इनकी कमाई सर्वसमाज की बजाए वर्ग विशेष ही क्यों खाता है? उसपे वर्ण के नाम पर इनमें सबसे ज्यादा नश्लीय शोषण दलित व् पिछड़े का क्यों है? भूमिवानों को फंडियों द्वारा समाज में फैलाई इस असमानता पर वक्त रहते; गाम-गाम बातें कर, दलित-पिछड़ों को मंदिरों में उनके प्रतिनिधित्व की बात उठानी होगी| अन्यथा फंडी तो फिर भूमिवानों को घेरने निकल ही चुका है| जो कि दोहरे तौर से अन्यायसंगत है; एक तौर पर यह नश्लवाद यानि वर्णवाद फैलाएंगे; दूसरे तौर पर "नेक कमाई व् अथक मेहनत (दान नहीं) से भूमि जोड़ने वाले यानि भूमिवानों के लिए मुसीबतें खड़ी करेंगे|

मुहीम दो: भूमिहीनों को यह कह के भूमिवानों के खिलाफ भड़काया जा रहा है कि तुम जमीनों पे मजदूर ही क्यों? और इसमें फंडियों की व्यापारी बिरादरी नीचे-नीचे सबसे ज्यादा आग लगा रही है| किसी को यह बात टेस्ट करनी है तो भूमिहीन तबके का बन के किसी फंडी की दुकान पर इसके इर्दगिर्द बात करके चेक कर ले| इस पर भूमिवानों को चाहिए होगा कि वह इनकी बातों में आने वालों में प्रचारित करवाएं कि मजदूर तो फैक्ट्री व् दुकान में भी होते हैं तो क्या करेंगे फैक्टरियों वाले फैक्टरियों में मजदूरों की मलकियत या हिस्सेदारी? खेती की मजदूरी से तो ज्यादातर आसान व् आरामदायक ही होती है फैक्ट्री की मजदूरी (फिर चाहे वह मैनेजर की पोस्ट पे बैठा मजदूर हो या सबसे नीचे स्तर वाला तकनीशियन या दिहाड़ीदार)?

मुहीम तीन (पहले दो से भी जरूरी): प्रचारित करवाया जाए कि कैसे भूमिवानों के पुरखों ने अपनी मेहनत से जमीनें कमाई हैं| व् मुग़ल रहे या अंग्रेज या आज वाले; हर जमाने में इन जमीनों के टैक्स, खिराज, मालदरखास सब भरी हैं; तब जमीनें थमीं हैं| साथ ही यह भी बताएं कि सबसे ज्यादा भूमिहीनों में जमीनें भी सर छोटूराम सरीखे लोगों ने बंटवाई हैं, 100-100 गज के प्लॉट पंचयती जमीनों पे दिए हैं (फंडियों की सरकार ने बाँटें क्या कभी?)| व् जब-जब इतिहास में भूमिहीनों को जमीनें देने पर सरकार की पॉलिसियाँ बनी, भूमिवानों ने हमेशा उनका समर्थन किया है| उदाहरण के तौर पर 1980 के दशक में एक पालिसी आई थी भूमिहीनों को किसान-जमींदार बनाने की, जिसके तहत पंजाब-हरयाणा-वेस्ट यूपी के हर गाम में बहुत से दलित परिवारों में प्रति-परिवार पौने-दो एकड़ जमीन दी गई थी| इस पालिसी के तहत लेखक के गाम में 84 किल्ले धरती आवंटित हुई थी| कभी इसका विरोध नहीं किया किसी ने|

गाम-गाम गेल "धरती-उत्सव", "उदारवादी जमींदारी उत्सव" करवाइए; इनसे भला होगा भूमिवानों का, ना कि फंडियों के बताए उत्त्सवों से|

अब इस नए एजेंडा के जरिए ऐसी भूमिवान जातियां फिर से फंडियों के निशाने पर हैं, जिन्होनें हमेशा अपने सीरी-साझियों के ब्याह-वाणे तक ओटने के भाईचारे निभाए| इसलिए सावधान हो जाईए; वरना नर-पिसाच फिर आ लिए हैं|

जय यौधेय! - फूल मलिक 

Sunday, 23 January 2022

​​इंडिया गेट के नीचे से "अमर-जवान ज्योति" को हटाए जाने ​के​पीछे "mercenaries" वाला कारण देना; बहुत ही बेहूदगी भरे अंध-अहंकार की प्रकाष्ठा है!

वैसे तो नहीं बोल रहा था इस ज्योति को नेशनल वॉर मेमोरियल में समाहित करने बारे; एक अच्छी भावना से ही देख रहा था| परन्तु जब आर्मी के ही दो बड़े अधिकारीयों के ट्वीट्स का सलंगित स्क्रीनशॉट ​(see attachment) ​देखा तो माथा ठनका कि यह फंडी इस देश की आत्मा को खोखला करने की कौनसी अप्रत्याशित ​व् ​अमर्यादित हदों के पार जा चुके हैं|


क्योंकि किसी भी देश की सेना उसकी सरकार के हुक्म की पाबंद होती है; फिर चाहे वह किसी भी काल के शासक-सरकार का युग रहा हो; आज़ाद युग रहा हो अथवा गुलाम युग| आज भी तो पता नहीं कहाँ-कहाँ अरब-अमेरिका-अफ्रीका में कभी नाटो के कहे पे तो कभी किसी अन्य शांति-बहाली के नाम पर भारतीय ​​सेना जाती रहती है; तो क्या कल को उनको भी यही बोल दिया जाएगा कि यह देशभक्त नहीं थे अपितु "पैसे के लिए​​ भाड़े पे गए लोग थे"?  ऐसे ही विश्व युद्ध ​- 1 व् ​2 में सेना​ ​गई थी|

​ऐसे तो फिर क्या ​अकबर के दरबार के नौ रत्नों में जो 4 या 5 हिन्दू बताए जाते हैं; उनको यही लोग महान, रत्न आदि कहना-लिखना-बताना बंद कर चुके हैं? अंग्रेजों से प्राप्त 300 से ज्यादा "सर" की उपाधि वाले लोगों में 98 से ले 99% फंडी वर्ग से आते हैं; क्या उनको भी यह इस विकृत मानसिकता के लोग​,​ इसी ​"mercenaries" ​वाली श्रेणी में रखेंगे? यह लोग महानिकम्मे व् मक्कार लोग हैं; इनसे समाज जितना जल्दी पिंड छुड़वा ले उतना बेहतर|

और "पैसे के लिए" इस दुनिया कौनसी नौकरी नहीं की जाती है, जो यह लोग इस चीज को एक "निंदनीय अतिश्योक्ति" के रूप में बयाँ कर रहे हैं?​ इस हिसाब से तो इनके ही एक बड़े नेता अमित शाह ने ब्यान दिया था कि, "व्यापारी भी बड़ा देशभक्त होता है"? क्यों भाई, किस बात का देशभक्त व्यापारी; वह तो अपने नफे-नुकसान यानि पैसे के लिए काम करता है; खटता है; या नहीं? तो कहें फिर हर व्यापारी को भी mercenary?

सेना वालों की देशभक्ति देश की सरकारों के हुक्म से निर्धारित होती है| सरकार उनको जहाँ कहेगी, उनको वहां खड़ना होता है| यह किसी पोलिटिकल पार्टी, किसी नेता विशेष या फंडियों की मनमाफिक परिभाषाओं की पाबंद कैसे हो जाएगी? यह लोग ऐसा करके ना सिर्फ डिफेंस वेटरंस में तनाव पैदा करना चाहते हैं अपितु विदेशों में बसने वाले WW-1 व् WW-2 की पीढ़ियों की NRI फैमिलीज़ में को भी शर्मिंदा व् हताश करना चाहते हैं| स्थानीय वॉर-वेटरंस तो इनके निशाने पर हैं हीं|  

कितनी आसान स्टेटमेंट बना दिया है इन्होनें डिफेंस में काम करने को, कि उसको मात्र पैसे पे ला के तोल दिया है? उस भावना, उस वीरता, उस जिगरे​,​ उस शारीरिक फिटनेस की कोई कीमत नहीं, जिसपे कि पास होने को फंडियों के तो 99% बच्चे, भर्ती लाईनों में खड़ा होने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं?

अरे फंडियों, और नहीं तो उस इजराइल से ही सीख लेते; ऐसे जहर फैलवाने से पहले, जिनको तुम हर बात में आदर्श मान फॉलो करते दीखते हो? सीख लेते कि क्यों वह अपने हर सिटीजन को न्यूनतम 2 साल सेना में लगवाते हैं?​ लगता है अब मुद्दा यह उठना चाहिए कि देश का हर नागरिक न्यूतम 2 साल डिफेंस में लगाएगा; तब जा कर ऐसे लोगों को पट्ट खुलेंगे| ​

फंडी अपनी बेशर्मी व् बदनीयती के चरम पर है| अगर इनको नहीं रोका गया तो समझो इनका क्रूरतम तो अभी देखना बाकी है|

जय यौधेय! - फूल मलिक  



Friday, 14 January 2022

​संकरात: त्यौहार देसी, तारीख अंग्रेजी (14 जनवरी); ऐसा क्यों?

या फिर यह 14 जनवरी 1761 को पुणे के पेशवाओं की घायल सेना पर सर्वखाप द्वारा की गई मानवीय उदारता की प्रकाष्ठा ​​के "सर्वखाप मानवता दिन" ​को समाज से छुपाने का चोला है? या यह दो त्यौहार हैं व् पड़ते एक ही तारीख को हैं? 


विषय विवेचना:
1) अंग्रेज उनकी ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ भारत आए 1600 में; तो इससे पुराना तो अंग्रेजी कैलेंडर हो नहीं सकता भारत में; या था?
2) अगर संकरात देसी त्यौहार है तो यह अंग्रेजों से पहले कौनसी तारीख को मनता था? मनता था तो कोई देसी तारीख ही रही होगी? वह देसी, इस अंग्रेजी तारीख से क्यों, कब से व् किसलिए बदली गई?
3) तर्क आते हैं कि सर्वखाप तो सिर्फ उत्तरी भारत में है परन्तु यह त्यौहार तो लगभग पूरे ही भारत में मनता है| यह तो फैलाया गया भी हो सकता है, जैसे सन 1891 में गंगाधर तिलक द्वारा मुंबई से शुरू किया गया "गणेश चतुर्थी" लगभग सवा एक सदी में ही इतना फ़ैल गया| 1947 में पाकिस्तान से आया त्यौहार "नवरात्रे" व् "करवा-चौथ" हो या बिहारी प्रवासी मजदूरों के साथ आया नया-नया "छट पूजा" या बंगालियों के साथ ​आई ​"दुर्गा पूजा" यह तो अभी हाल ही के ताजा उदाहरण हैं; जो इतने कम समय में इतने फ़ैल गए, तो संकरात तो 14 जनवरी 1761 से शुरू हुआ; वह तो फ़ैल ही जाएगा| तो यह तर्क भी इसका जवाब नहीं|
4) और इसको सूर्य के उत्तरार्द्ध में आने से जोड़ के और पुख्ता सा बनाने की कोशिश भी सही नहीं लगती| क्योंकि अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार तो सूर्य 25 दिसंबर (उनका बड़ा दिन कहते हैं इसको) से उत्तरार्ध में आना शुरू हो जाता है|

हालाँकि यह ऐसी विवेचना है जिससे लोगों की धारणाएं चैलेंज होती हैं जो कि लेखक का उद्देश्य कतई नहीं है| लेखक सिर्फ इतना चाहता है कि इस तारीख के दिन ही इतिहास में सर्वखाप-किनशिप का वह सबसे महान दिन हुआ था जिस दिन मानवता सबसे ज्यादा बरसी थी​ (शायद विश्व भर की तारीखों में सबसे ज्यादा मानवता वाली तारीख हो यह)​; उस दिन को भी मनाया जाए| मनाया जाए अगर "कंधे से नीचे मजबूत व् ऊपर कमजोर" के तंज नहीं सुनने व् "35 बनाम 1" नहीं झेलना तो|  

तो क्या है हर साल 14 जनवरी को मनाया जाने वाला "सर्वखाप मानवता दिन"?:​​

किस्सा जुड़ता है 14 जनवरी 1761 को हुई पानीपत की तीसरी लड़ाई से| ज्यादा डिटेल्स में नहीं जाऊंगा परन्तु इतना जानते हुए चलते हैं कि इस लड़ाई में अहमदशाह अब्दाली ने पुणे की पेशवाई सेना को हरा दिया था| यह सेना यहाँ के स्थानीय राजाओं को हटा, खुद राज करने आई थी; जैसे अब्दाली आया था| और इनकी इस छुपी बदनीयत का परिचय इसके सेनापति सदाशिवराव भाऊ ने उस वक्त के उत्तर भारत सबसे ताकतवर शासक महाराजा सूरजमल ​(जो कि ​इनसे मिलकर पानीपत लड़ने हेतु संधि बनाने को इनके कैंप में इनसे मिलने आए थे) ​को ही बंदी बनाने की अपनी कोशिशों से जाहिर कर दी थी| जाहिर सी बात है कि ऐसा दम्भी व् अल्पमति इंसान फिर अकेला ही रह जाता है व् ऐसा ही हुआ; यानि पानीपत की लड़ाई पेशवा हार गए| 

इसकी हारी हुई सेना, जनवरी की कंपकपाती ठंड में घायल-मूर्छित अवस्था में तीतर-बितर आसरा ढूंढ रही थी| अब्दाली के डर से कोई राजा-नवाब इनको शरण नहीं दे रहा था| तब यहाँ​ चारों तरफ पाई जाने वाली सर्वखाप की जनता खासकर जाट आगे आए व् इनके घायल सैनिकों-घोड़ों को रसद-मरहमपट्टी-आसरा दिया| घायलों ​को ​कंबल-खेस-चद्दर ओढ़ाए गए| और ऐसे उतरी थी उस दिन इस धरती पर मानवता की उदारता की सबसे दयालु मूरत कि उनके ही महाराजा को बंदी बनाने वाली सेना को हारने पर यह मदद इनायत की गई| साथ ही यह बात धोई गई कि हम अब्दाली से डरते नहीं हैं अपितु पेशाओं की हमारे ही प्रति बदनीयती के चलते, पेशवाओं ने ही हमारी मदद लड़ाई में नहीं ली| 

​इस सेना का कुछ हिस्सा भागकर भरतपुर भी पहुँच गया था; जहाँ महाराजा सूरजमल ने भी अपनी सर्वखाप किनशिप वाली उदारता से ही इनका इलाज करवाया| व् बाद में इनको जाट सेना भेज वापिस पुणे-नासिक आदि छुड़वाया| हालाँकि इस उदारता को देख तो पेशवे पसीजे और इनको छोड़ने गई जाट सेना को वहीँ नासिक में बसा लिया; वापिस नहीं आने दिया| जितने जाट परिवार वाले थे, उनके परिवार नासिक बुला लिए गए व् जो अनब्याहे थे, उनको स्थानीय पेशवा-मराठी लोगों ने अपनी बेटियां ब्याह दी| यहाँ भी जाटों ने अपनी किनशिप के स्वभावरूप खाप बनाई जिसको "जाट बाईसी" के नाम से जाना जाता है|  

यहाँ सनद रहे, हरयाणा में पाई जाने वाली रोड बिरादरी, जिसको कि अक्सर इन्हीं में से उस वक्त यहाँ रहे लोग मान लिया जाता है; यह ये नहीं हैं अपितु यह यहाँ की स्थानीय जाति है|

​14 जनवरी 1761 को क्योंकि इस मानवता की शुरुवात हुई थी तो स्थानीय लोग इसको एक याद एक रूप में उसी अंदाज में मनाने लगे| और ​धीरे-धीरे इस बात ने एक त्यौहार का रूप ले लिया व् हर साल 14 जनवरी को ठंड में ठिठुरते लोगों को गर्म वस्त्र व् खाने की सामग्री देने से चलता-चलता घर के बड़ों को मानाने हेतु भी ऐसे कंबल-खेस-शॉल देने का चलन बढ़ चला|

अब फंडियों को इससे कुलमुलाहट हुई; क्योंकि यह ठहरे "बदले की भावना" से काम करने वाले जींस के लोग; आप इनके लिए गर्दन भी काट के रख दो तो यह उसको आपका अहसान की बजाए इनका हक मानते हैं तो इनको कहाँ यह अहसान सदियों-सदियों ज्यों-का-त्यों याद रहने देना था| इसलिए चढ़ा दिया इस  यह दूसरा लेप; जिसमें ना सर्वखाप की महानता बताई जाती ना उसका जिक्र ही होने दिया|

परन्तु खैर कोई नहीं, यह चीजें कब तक छुपेंगी| हम हैं ना सर्वखाप के बेटे-बेटी| ​जो आ गए हैं अपनी "किनशिप" की चीजों को संजों के रखने की महत्वता को समझने की मति लिए| ​इनको बिना शिकायत किये, बिना उलाहना दिए; हम मनाएंगे इसको "सर्वखाप मानवता दिन" के रूप में| तो आप सभी को ​​"सर्वखाप मानवता दिन" की भी बधाई| 

​जय यौधेय! - फूल मलिक ​

Monday, 3 January 2022

अधिनायकवाद, सबसे बड़ी मूर्खता है; जिसको फंडी सिद्द्त से पालते हैं!

और खुद तो लोकनिंदा का सबब बनते ही हैं साथ ही देश-समाज-सभ्यता का स्तर भी दुनिया में गिरा देते हैं| मेघालय के राज्यपाल महामहिम सत्यपाल मलिक ने भक्तों के अधिनायक से मुलाकात बारे कल जो कहा है अगर यह सत्य है तो यह अधिनायक अब एक ऐसा बेलगाम घोडा बन चुका है जो अब ना तो इसको बनाने वाली आरएसएस के काबू का रहा और ना किसी शंकराचार्य के बस का| इनके बस का होगा भी तो यह काबू नहीं करना चाहेंगे क्योंकि इनकी अल्पमति अनुसार अब इसको रोकना, इनके लिए इन सबके सर्वविनाश तुल्य यह मानते हैं| अधिनायक नाम का जिन्न खड़ा करते-करते इन्होनें अपनों के ही इतने टेटवे दबाए हुए हैं (वो भी लम्बे समय से) कि इसको रोकने में सक्षम होते हुए भी यह यूं डरते हैं कि अगर इसको रोका तो नीचे वाले भी बोलने लग पड़ेंगे व् इनका खड़ा किया तथाकथित स्वयंसेवकों का जखीरा ताश के पत्तों की भांति बिखर जाएगा| लखीमपुर खीरी वाले अपराधी गृह-राजयमंत्री को नहीं हटाने के पीछे भी तो यही डर है| इसलिए देश डूबो-बिको या बंटों, देश की विश्वपटल पर हंसी उड़े या ठिठोली; इन गिरोह बना के लूट करने वालों को चुप रहना बेहतर लगता है बस इतना ही खोखला राष्ट्रवाद इनका| 


इसी एपिसोड में अमितशाह ने मोदी बारे जो महामहिम को कहा अगर यह भी सत्य है तो अब यह घोडा अपने घनिष्टम मित्र के कहे से भी बाहर जा चुका है| यानि आरएसएस व् शंकराचार्यों को तो छोडो, खुद अमितशाह इसके आगे असहाय हो चुका दीखता है| 


ऊपर से यह सर्वखाप जैसी मध्य-मार्गी संस्था के उभार से इतना घबराते हैं कि दादरी दौरे में कुछ ही किलोमीटर दूर उसी दौरे के दौरान हुई सर्वखाप पंचायत में महामहिम द्वारा शामिल होने बारे पहले मंजूरी दे कर फिर दूरी बनावाना भी इन्हीं फंडियों की चाल की साजिश लगती है| अन्यथा महामहिम को नहीं आना होता तो वह आना स्वीकार ही क्यों करते? फंडियों ने ऐसा करवाया होगा ताकि इनके शामिल होने से सर्वखाप की साख और ज्यादा ना बढ़ जाए, जो कि फंडियों के लिए परेशानी का सबब हो सकती थी| दूसरा इन्हीं ताकतों ने इनको धर्म के डेरे पर जाने से नहीं रोका, क्योंकि यहीं से इनके एजेंडा समाज में उतरते हैं| व् यह जगहें समाज की नजरों में ऊंचीं ले जाना इनका उद्देश्य है| वरना जो तर्क दे कर राजयपाल ने खाप की पंचायत में आने से मना किया, वही तर्क धर्म कीजगह पर जाने बारे बल्कि ज्यादा सटीक बैठता था| 


परन्तु यह 10% वैचारिक भिन्नता को आपसी दूरी की 100% वजह बना के अलग-अलग चलने की आदत इस सर्वखाप फिलॉसोफी को सबसे ज्यादा तंग कर रही है; 90% समान विचार होते हुए भी, यह 10% भिन्नता वाले मिलकर इस बात की वजह ढूंढने व् भविष्य में ऐसा फिर कभी ना हो इसके लिए जरूरी मंत्रणा कर कदम उठाने की बजाए इस सर्वखाप पंचायत में राजयपाल के नहीं आने का मन-ही-मन ठीकरा इस पंचायत के आयोजकों फोड़ राजी हो रहे होंगे| यह शायद ही कोई सोच रहा होगा कि यही कल को तुम्हारे आयोजित कार्यक्रम के साथ बनी तो? यही आदत इस फिलोसॉफी वालों से 35 बनाम 1 झिलवाती है| 


 लेकिन यह कमी ठीक कर ली जाए तो कुल मिलाकर मार्ग खाप-खेड़े-खेतों वाले पुरखों वाले ही सबसे उपयुक्त हैं| "सर छोटूराम मार्ग" अगर चंद शब्दों में कहूं तो| 


जय यौधेय! - फूल मलिक