Saturday, 28 February 2015

विकास भी चाहिए और जमीन भी नहीं देनी, यह कैसे होगा?

एक मित्र जो नाम से तो किसानपुत्र लगता है परन्तु विचार से अंधभक्त लगता है, उसने यह जुमला कहा है| मित्र आपकी शंका का जवाब इस प्रकार है:

1) क्या आपने या आपकी सरकार ने इस बात का अध्यन किया है कि जिन पुराने भूमि अधिग्रहण के नियमों के कारण काफी प्रोजेक्टों के लटके होने की दुहाई दी जा रही है, उनमें कितने प्रतिशत सरकारी प्रोजेक्ट लटके हुए हैं और कितने गैर-सरकारी यानि प्राइवेट? कितने लाइन के यानी सड़क की लाइन, रेल की लाइन, नहर की लाइन, बिजली की लाइन व् आर्मी के यानि सरकारी प्रोजेक्ट लटके पड़े हैं और कितने फिर से वही प्राइवेट हाउसिंग व् इंडस्ट्री के प्रोजेक्ट अटके पड़े हैं? और लाइन का तो मैंने कोई विरला ही प्रोजेक्ट अटका सुना है| और अगर कोई अटका भी है तो 95% लाइन को थोड़ा बदल के बना दिए जाते रहे हैं| क्योंकि लाइन के हर प्रोजेक्ट के कम से कम तीन सर्वे होते हैं, प्राथमिकी के आधार पे, कि या तो यहाँ से बनेगी, या यहां से या यहां से| इसलिए लाइन के प्रोजेक्ट में विरला ही कहीं अधिग्रहण की दिक्क्त आती है| पहली बात!

2) दूसरी बात, सरकारी प्रोजेक्टों के लिए तो खुद सरकार सीधी ले या लीज पे ले परन्तु यह प्राइवेट वालों को किसान से जमीन लीज पर लेने में क्या दिक्कत है? लीज पर लेने में उनको किसान से जमीन खरीदनी नहीं होगी कि जिसके लिए उनको लाखों-करोड़ों रूपये एक ही बार में किसान को देने पड़ें, अपितु जमीन किराए पे भी ली जाएगी, जो कि अगर देखो तो कम से कम पहले पचास साल का लीज का किराया तो एक मुस्त दी जाने वाली कीमत से ही निकल जायेगा| परन्तु नहीं इन्होनें तो किसान का शोषण जो करना है, इनको जमीन से थोड़े ही मतलब है|

3) सर छोटूराम और फिर रही-सही कमी जो चौधरी चरण सिंह ने एक किसान को जो तमाम तरह के जमीन से संबंधित मालिकाना हक किसान को दिलाने के लिए जीवन खपाए थे, इस नए आर्डिनेंस से वो सारे हक किसान के हाथ से निकल जायेंगे और किसान पहले की तरह जमींदारी प्रथा के चंगुल में आके साहूकारों के दोहरे चंगुल में फंस जायेगा|

एक इतिहासकार भाई कह रहा था कि अमेरिका में 1930 में इसी तरह का कानून आया था जिसमें कॉर्पोरेट ने लगभग सारी जमीन एक सोची-समझी स्ट्रेटेजी के तहत अपने अधिकार में ले के किसान को उसी जमीन का मजदूर बना के छोड़ दिया था, अब वही अमरीकन नीति भारत में लागू होने वाली है| यह सही है कि यह नीति उसके जैसी ही होगी, लेकिन यहां यह भाई साहब सर छोटूराम का वो क्रेडिट भूल गए जिसके तहत सर छोटूराम ने उसी 1930 के आसपास 1930 से भी पहले यहां जो सदियों से खेती का कॉर्पोरेट रूप यानी जमींदारी प्रथा चली आ रही थी; वह एक बड़ी लड़ाई लड़ के किसानों को उससे मुक्त करवा दिया था| इसलिए आप ऐसा ना कहें कि अमेरिका की तरह करने जा रहे हैं, अपितु यह कहें कि सर छोटूराम के जमाने से पहले यानी तकरीबन एक सदी पहले जो भारत में किसान की हालत थी, इस बिल के जरिये वो वापिस आ रही है| हर बात में अमेरिका को पैमाना बनाना छोड़ के अपने ही इतिहास को पलटोगे तो यह अमेरिका की चीजें तो यहां, उनसे बहुत पुरानी भरी पड़ी हैं| खैर जो भी है, परन्तु वह एक सदी पुरानी किसान की गुलामी फिर से जबाड़ा खोल रही है इसलिए इस बिल का विरोध जरूरी है| और वो हालत कैसे आ रही है, अगले बिंदु में देखो|

4) किसान की मर्जी का क्लॉज़ प्राइवेट सेक्टर के लिए भी हटा देना; जिसमें कि व्यापारी को एकमुश्त फायदा होगा| उसके ऊपर फिर कोर्ट जाने का रास्ता भी बंद किया, यानी सरकारी अफसरों की तानाशाही चलेगी, वो भी क्लास A और B के अफसरों की, जिनमें कि 80% अफसर गैर-किसान जातियों के हैं या ऐसी जातियों के हैं, जिनके यहां सिर्फ आंशिक रूप से खेती करते हैं या ऐसी जातियों के हैं जिनके लिए खेती द्वितीय धंधा रहा है, प्राथमिक नहीं|

और अफसरों के लिए इतिहास में कहावत रही है कि "बनिया हाकिम, ब्राह्मण शाह, जाट मुहासिब जुल्म खुदा"। और अगर आप हरियाणा और वहाँ भी जींद जिले के हैं तो आपने ऐसे ही एक बनिया हाकिम की किसानों पे अत्याचार बारे 1856-58 में हुआ "लजवाना काण्ड" तो सुना होगा; जानकारी के लिए बता दूँ वो काण्ड इतना मशहूर हुआ था कि पटियाला की लोकधुनों में आज भी यह मुखड़ा सुनने को मिल जाता है कि, "लजवाने रे तेरा नाश जाइयो, तैने बड़े वीर खपाए!" तो मित्र, ऐसी-ऐसी जो दुसम्भावनाएं जो यह बिल ले के आ रहा है, उसके लिए इसका विरोध है| और मुझे यह बता दे भाई, जो समाज जात-पात के नाम पर इतना बंटा हुआ हो, और हरियाणा का तो हाल यह हो कि यहां जाट बनाम नॉन-जाट की राजनीती चलती है, तो ऐसे में इस कानून का इस तरीके का दुरूपयोग नहीं होगा, इसके लिए सरकार ने क्या प्रावधान किये हैं?

5) यह आत्मसम्मान की भी बात हो गई है, वो ऐसे| हमारे यहाँ 50% से ज्यादा ऐसे किसान हैं जो अपनी हाड-तोड़ मेहनत से किल्ले-जमीन जोड़ते हैं| किसी ने 10 किल्ले से शुरू करके अपनी हाड़तोड़ मेहनत से 20 बनाये होते हैं| यह मत समझो कि किसान सिर्फ पिता से ही वंशानुगत जमीन पाता है और उसके लिए वो कोई पसीना नहीं बहाता| आधे से ज्यादा किसान उसमें नई जमीन जोड़ते हैं| तो क्या उसकी मेहनत की इतनी ख़ाक के बराबर की कीमत कि उसकी इस हाड़तोड़ मेहनत को कोई भी एक पल में उसकी मर्जी के बिना ही उड़ा ले जायेगा और वो केस भी नहीं कर सकेगा| और ऐसे में ना सरकारी अफसरों द्वारा हो सकने वाले अत्याचार के खिलाफ आवाज उठा पायेगा| नहीं भाई नहीं| एक उद्योगपति से पूछ के देखो कि क्या वो उसकी जीवनभर की कमाई से खड़ी की इंडस्ट्री को ऐसे ही दे देगा किसी को? फर्क सिर्फ इतना ही तो है ना कि उद्योगपति का विकास वर्टीकल होता है और किसान का हॉरिजॉन्टल, परन्तु विकास तो विकास होता है ना?

तो "विकास भी चाहिए और जमीन भी नहीं देनी, यह कैसे होगा?" का यह जुमला बोलने वालों जरा इन पहलुओं पे जवाब दो तो जानूँ| इन सवालों पे एक किसान की शंका मेटो तो जानूँ|

मतलब यह भारत में अपनी ही तरह के व्यापारी पैदा हो रहे हैं, जिनको ग्राहक तो चाहिए परन्तु उसकी सुननी नहीं| इसीलिए आज जरूरी हो गया है कि किसान अपनी कंस्यूमर पावर (consumer power) को पहचाने और जरा लगा दे इनको दो महीने खाने-पीने के सामान को छोड़ के बाकी सारे सामान को खरीदने के बायकाट का झटका|

पगड़ी सँभाल ओये, तेरा लूट गया माल ओये, दुश्मन नू जाण ओये, ओ किसाना सर छोटूराम नूं पुकार ओये! - फूल मलिक

Friday, 27 February 2015

अगर दो महीने के लिए किसान यह कर दे तो लैंड आर्डिनेंस रद्द समझो!

It is about recognizing the consumer power of a farmer by a farmer!

असल तो पूरे देश में, लेकिन फिर भी अगर पंजाब (22 जिले) - हरियाणा (21 जिले) - पश्चिमी उत्तरप्रदेश (करीब 30 जिले) - राजस्थान (33 जिले) व् दिल्ली (9 जिले) यानी कुल 115 जिलों में भी किसान

1) दो महीने के लिए नया ट्रेक्टर खरीदना बंद कर दे तो (करीब 200 से 500 ट्रेक्टर उत्तरी भारत के हर जिले में बिकते हैं), औसतन 300 भी ले लो तो 115 जिलों में 2 महीने में कुल 34500ट्रेक्टर बिकेंगे| औसतन एक नया ट्रेक्टर आता है 4 लाख का, यानी 400000 * 34500 = INR 13800000000 यानी 13 अरब 80 करोड़ का अकेला नुक्सान तो अकेले ट्रेक्टर ना खरीदने से हो जायेगा उद्योपतियों को| और इन दो महीनों में किसान का कुछ बिगड़ना नहीं|

ऐसे ही सोचिये अगर कृषि के ट्रेक्टर के अतिरिक्त बाकी के कृषि उपक्रम भी दो महीने नहीं खरीदे तो अकेले खेती उपक्रम खरीदने के बायकाट से इन उद्योगपतियों को इतना नुकसान होगा कि इनकी बैलेंस सीटें इम्बैलेंस कर जाएँगी और जो यह मुफ्त में किसान की जमीन पर उसकी मर्जी के बिना नजर गढ़ाए बैठे हैं, इनकी नजरें इनकी बैलेंस सीटों में ही उलझ के रह जाएँगी| और इनकी अक्ल ठिकाने जाएँगी कि जिसको तुम लूटने की सोचे बैठे हो, उसने सिर्फ दो महीने भी तुमसे सामान नहीं खरीदा तो कहाँ से कहाँ होवोगे तुम| इसलिए इस ग्लोबलाइजेशन (globalization) के जमाने में किसान रुपी कंस्यूमर (consumer) अपनी इस कंस्यूमर पावर (consumer power) को पहचाने और इसका इन व्यापारियों को भी अहसास करवा दे कि कहाँ तुम सरकारों पे दबाव दे के हमें कुचलने पे तुले हो, हम अपनी पे आये तो घर-बैठे-बिठाए ही तुम्हें कुचल देंगे|

2) और ऐसे ही दो महीने के लिए अगर सिर्फ किसान अकेला भी कोई कार-एसयूवी (SUV)-मोटरसाइकिल भी खरीदना बंद कर दे तो आप सब अंदाजा लगा लीजिये कि इन लोगों को दो महीने में कितना बड़ा नुक्सान उठाना पड़ जायेगा|

3) और ऐसे ही दो महीने के लिए अगर सिर्फ किसान अकेला भी कोई वाशिंग मशीन-फ्रिज-कूलर-पंखा यानी घर में काम आने वाली तमाम तरह की मशीनें ना खरीदें तो और किस-किस की मार्किट बैठेगी|

4) और ऐसे ही दो महीने के लिए अगर सिर्फ किसान अकेला भी कोई ज्वैलरी-कपडा-लत्ता-बर्तन ना खरीदे तो इन दो महीनों में और किस-किस के पेटों के पानी हिलेंगे और कितने अरबों-करोड़ों के घाटे व्यापारियों को होंगे|
यहां सिर्फ खाने-पीने के सामान की चीजों के बायकाट को बाहर रख रहा हूँ, क्योंकि हम किसान होते हैं, समाज के पालनहारी हैं हम और अगर खाने-पीने की चीजों का भी बायकाट कर देंगे तो कहीं ऐसा ना हो जाए कि किसी व्यापारी के घर में बच्चे बिना दूध-फल-सब्जी के तरसें| इसलिए एक किसान की इंसानियत को कायम रखते हुए अगर किसान खाने-पीने की चीजों को छोड़ के बाकी तमाम सामान का दो महीने भी खरीदने से बहिष्कार कर देवें तो यही व्यापारी जो आज सरकार पर "भूमि अधिग्रहण" के लिए ऐसा जालिम बिल बनवाने को तुले हैं, खुद ही अपने-आप इसको वापिस करवाने को कहेंगे और किसान का उसके घर बैठे-बैठे निशाना सध जायेगा| यानी लाठी भी नहीं टूटेगी और सांप मरे-का-मरा|

लेख का सार यही है कि किसान अपने आपको लाचार-बेबस ना समझे, इस ग्लोबलाइजेशन के जमाने में अपनी कंस्यूमर पावर को पहचाने| इस बिल को वापिस करवाने के लिए उसकी यह कंस्यूमर पावर ही काफी है; ना कोई रेल रोकने की जरूरत ना रोड जाम करने की, ना दिल्ली घेरने की जरूरत ना जेल भरने या जाने की|

प्रवर्तिगार से यही अरदास है कि हमारे तमाम तरह के किसान संगठनों, पार्टियों में उनकी इस कंस्यूमर पावर की ताकत को पहचानने की नजर डाल दे बस, बाकी सारा काम तो घर बैठे ही हो जायेगा; क्योंकि जब कोई किसान ग्राहक दो महीने के लिए सामान खरीदने ही नहीं जायेगा तो बड़े-बड़े कॉर्पोरेट (corporate) सीईओ (CEO) से ले के डायरेक्टर्स (directors), मैनेजर्स (managers) और सेल्समेन (salemen) तक की नौकरियां हिलने के साथ-साथ बैलेंस सीटें हिलेंगी तो कौन किसानों से पंगा लेने का जोखिम लेगा?

अपील: किसान का युवा बेटा-बेटी अपने तमाम किसान नेताओं, शुभचिंतकों और परिवारों के बड़ों को इस पावर बारे समझाएं और इसपे एक-जुट होने का आह्वान करें| साथ ही सोशल मीडिया पे इसको इतना बड़ा आंदोलन बनाये कि सोशल मीडिया पर बैठी व्यापारी और सरकारी लोगों को उनके इन अन्यायकारी क़दमों पर दोबारा सोचना भी पड़े और इस आर्डिनेंस को वापिस लेने के तमाम कारणों का भी इनको अहसास हो जाए|

पगड़ी संभाल ओये, दुश्मन पहचान ओये! - फूल मलिक
 

Wednesday, 18 February 2015

खापलैंड पर महादलितों का ना होना!


तीरों-तलवारों के शौर्य के साथ जाट अब अपनी मानवतावादी सिद्धांतों (theories) को भी दुनिया के आगे रखना शुरू करें| उदाहरणत: पूर्वोत्तर व् दक्षिण भारत की तरह, खापलैंड (प्राचीन हरियाणा) पर भी महादलित क्यों नहीं हैं? मैंने तो हमारे यहां सिर्फ दलित सुने हैं, महादलित तो कभी नहीं सुने| फिर सवाल उठता है कि खापलैंड पे अगर महादलित नहीं हैं तो क्यों और किसकी वजह से नहीं हैं?

काफी तर्कों और सवालों को खंगालने के बाद कारण मिलता है तो सिर्फ एक; कि यहां महादलित इसलिए नहीं हैं क्योंकि यहां जाट और खाप रहे हैं| स्थानीय हरियाणवी संस्कृति को टूटने से बचाना है तो हर जाट को हर दलित का ऐसे इन तथ्यों पर ध्यान लाना होगा, जो यह बताते हों कि खापलैंड पर आप दोनों के कारोबारी कारणों की वजह से झगडे व् मनमुटाव बेशक होते आये हों, पर वो मनमुटाव इतने सामूहिक, बड़े और गहरे भी नहीं रहे कि दलित को ही दलित और महादलित की राजनीती में बाँट देते हों|

आज जो जाट वर्णव्यवस्था के प्रभाव में पड़ दलितों के साथ उच्च और तुच्छ का जो भेद रखने की आदत डाल लिए हैं उनको यह छोड़नी होगी| जाट उच्च होता है तो उसके लिए जाट को वर्णव्यस्था का आँचल ओढ़ने की जरूरत नहीं; अरे जो अन्नदाता, अन्नपूर्णा के साथ-साथ सभ्यता पालक, संरक्षक व् रक्षक हो गया हो, वो तो अपने आप ही हर वर्ण व् नस्ल से परे है| और ऐसे ही दलित हर भेदभाव से ऊपर व् परे है|

कोई ही जाट किसान का ऐसा बेटा-बेटी होगा जिसने एक दलित सीरी-साझी के साथ अपने खेतों-घरों में बैठ एक साथ खाना ना खाया हो| खेतों में उनकी एक ही बर्तन में रोटियां ना गई हों| तो फिर यह रंग-नश्ल के भेद कहाँ से घुसा लेते हैं हम अपने अंदर? और कौन लोग हैं यह जो कारोबारी वजहों से होने वाले मतभेदों को जाट-दलित झगड़ों और घृणा का रूप दे देते हैं? निसंदेह कॉर्पोरेट में होने वाले हर बॉस और कर्मचारी झगड़ों को अगर ऐसे जातीय, वर्णीय अथवा धार्मिक घृणा का रूप देना शुरू कर दिया जाए, तो सारा कॉर्पोरेट एक झटके में ताश के पत्तों की तरह धराशायी हो जाए| तो फिर जाट और दलित क्यों इन झगड़ों को ऐसे रूप लेने दे रहे हैं कि लोग इनको आधार बना इतना साहस पा जाते हैं कि यहां जाट बनाम नॉन-जाट की राजनीती के घिनोने खेल तक बेपरवाही से खेल लिए जाते हैं?

यकीन करो अगर आज खापलैंड पर सिर्फ दलित हैं तो जाटों के डर से धार्मिक उन्मादी शक्तियों को एक हद से ज्यादा पैर ना पसारने देने की वजह से अन्यथा, जैसे कहा करता हूँ कि खापलैंड पर अगर जाट ना होते तो यहां देवदासी भी होती, विधवा पुनर्विवाह ना करके आश्रमों में भी जा रही होती| ज्ञात रहे देवदासियों में नब्बे प्रतिशत लड़कियां दलितों और महादलितों की होती आई हैं| इसलिए खापलैंड का दलित उसके खापलैंड पर होने का यह सकारात्मक पहलु भी समझें|

जाटो अपने तीरों-तलवारों वाले रूपों के साथ-साथ अपने पुरखों के इन मानवतावादी पहलुओं को भी जनता में लाना शुरू करो; जिनकी वजह से कि धर्म को भी अपनी परिधि में रहना भान रहता था| यह जाट और खाप थ्योरी का ही जादू है कि यहां धर्म कभी शालीनता और मानवता के दायरे से बाहर नहीं जा पाया|

यह सामने लाना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि नहीं लाये तो यह ढोंगी-पाखंडों-अंधभक्ति और उन्माद में पागल लोग हमारे यहां भी अधर्म फैला देंगे| याद रहे हमारे बुजुर्ग कहते थे कि धर्मान्धता, अंधश्रद्धा और अंधभक्ति का फल होता है गरीब और औरत पर अन्याय, जो कि खापलैंड पर जाटों ने कभी नहीं फैलने दिया|

भान रहे कि हमारी खापलैंड पर रोजगार की तलाश में आने वाला सिर्फ रोजगार करे, धर्म के नाम पर यहां उन्माद और अराजकता ना फैला पाये| उसको भान रहे कि यह खाप-थ्योरी की धरती है यहां धर्म भी कभी अपनी शालीनता और मानवता की परिधि नहीं लांघता|

और "पहुंचा हुआ जाट, राजा के हाथी को भी गधा बता दे" जैसी कहावतें जाटों की इसी स्वछंद मति की साक्षी हैं, कि इन्होनें धर्म रहा हो या राजा, मानवता और शालीनता की कसौटी पे तौले बिना कुछ नहीं चलने दिया अपनी खापलैंड पर|

Thursday, 22 January 2015

ऐ जाट, तेरी चाल लोकतंत्र की रही है, निरंकुश तंत्र की नहीं, तो फिर क्यों भूला तू इसको?


कहने को तो जाट अपने आपको एंटी-ब्राह्मण कहलवाते आये, और इस बात में गर्व भी महसूस करते आये परन्तु फिर भी ब्रह्मिणों वाली वर्ण-जाति-नश्ल भेद की हरकतें करने से खुद को बचा नहीं पाये| अब ब्राह्मणों का तो ठहरा धंधा यानी आजीविका का साधन, परन्तु बहुतेरे मेरे ऐसे बावले जाट इसको यह समझ बैठे कि दलित या पिछड़ी जाति के की उसकी वर्ण-जाति-नश्ल के आधार पर आलोचना करने से वो और भी ऊँचे बन जायेंगे|

जबकि दलित से जितना रोटी-बेटी का नाता जाट निभाता आया है, इतना भारतीय इतिहास में किसी ने नहीं निभाया| ना यकीन हो तो यह देख लो; वैसे तो सारी खापलैंड उसमें भी जाट बहुल तो अधिकतर गाँवों में छत्तीस बिरादरी की लड़की को बेटी मानने की परम्परा जाट चलाता आया| दलित को अपने घर में नौकर रखता है फिर भी उसको नौकर नहीं कहता बल्कि सीरी-साझी यानी दुःख-सुख-काम-धंधे का पार्टनर कहता आया; यानी इंसानी सभ्यता का व्यवहारिक रूप जीवंत रखता आया| और तो और खेतों में रोटी-पानी जाता तो अधिकतर जाट और जो दलित उनके खेतों में काम कर रहा होता, दोनों एक साथ बैठ के, कई बार तो एक थाली में भी खाते आये|

पर यह दलित को अपने से अलग और कई मामलों में तो छोटा अथवा नीचा दिखाने का ब्राह्मणों वाला चस्का पता नहीं जाटों को कब से पड़ा| पर जो भी पड़ा, इस चस्के ने दलित की तो कमर तोड़ी ही तोड़ी, जाट की भी भ्यां बुला दी|

वो कैसे वो ऐसे, जाट नॉन-जाट की राजनीती फैला के इनसे राज छीनने वाले राज छीन ले गए और अपनी यह वर्ण-जाति-नश्ल भेद की बीमारी में जाटों को दलितों से उलझा दिया| इधर यह लोग उलझे रहे आपस में और उधर वो राज ले के फुर्र, इब लखाओ तीतर-बटेर बणे कूणों मह को, दोनों के दोनों|

अरे मेरे भोले जाट, जो वर्ण-जाति-नश्ल भेद के काम ब्राह्मणों के हैं वो ना तेरे खून में, और ना तू वो करता फबता ना सजता, तो क्यों ऐसी चाल चलनी, कि अपनी ही चाल भूल बैठणी? जाट को फिर से याद करना होगा कि तेरी चाल लोकतंत्र की रही है, निरंकुश तंत्र की नहीं|

आज भी जाट इस बात को समझ के अपनी दलित व् सहयोगी जातियों से इनको दूर करने वाले, जाट नॉन-जाट की राजनीती फैलाने वालों के विरुद्ध लामबंद होना व् बोलना शुरू कर लें तो बात फिर से संभल सकती है| और सिर्फ जाट-जाट क्यों, दलित भी आगे आ जाओ भाई, आखिरकार बहकावे में आ के छींटक के दूर तो आप भी गए हो|

वैसे खापें चाहें तो इस काम के लिए आगे बढ़ सकती हैं| राजनेता चाहें तो वो नई शुरुवात कर सकते हैं| पर जो भी हो अब यह जाट नॉन-जाट का जहर बोने वालों को ना तो बोल ही दो|

हरियाणा यौद्धेय उद्घोषम, मोर पताका: सुशोभम्!

शर्मिला टैगोर, करीना कपूर, गौरी छिब्बर, रीना दत्त, किरण राव:

शर्मिला टैगोर, करीना कपूर, गौरी छिब्बर, रीना दत्त, किरण राव:

न्यूं बता द्यो मैनै, इनमें तैं कुणसी तो जाटनी सै, अर जाटनी ना भी सै तो इनके जाटां बारे विचार के सैं| इनके विचार के सैं इस बारे तो मेरे को थाहरे को बताने की जरूरत ना, इनके कोई सी के भी आगे एक बार जाट का नाम ले के देख लो, इतनी नाक सिकोड़ेंगी जितनी तो गली का कचरा देख के ना सिकोड़ें कभी|

सच्चाई सामने है, यह पता है कि यह हैं कौन, फिर भी पूंजड़ जलवाने से जाटों को बाज नी आना| अरे अगली कम से कम जाटों का, जाटों की जाति का मन से आदर ही करती हों तो समझ भी आवे इन लव जिहादियों के खिलाफ नारे लगाने वालों की आवाज में आवाज मिलाना|

और ऊपर से एक अनुभव और बता दूँ, जब-जब जाट के किसी छोरे ने किसी ब्राह्मणी या हिन्दू पंजाबन से ब्याह करने की कही या प्यार की पींघें बढ़ानी चाही, 90% मामलों में लड़कियों की फैमिली ने रिजेक्ट किया या लड़कियों के जरिये करवाया | तो क्यों अपनी पूंजड़ जलवानी इनके पीछे?

हमें अपनी जिंदगी बनाने के लिए और काम भतेरे, कहीं खाद के कट्टे मिलते ना, कहीं भूमि अधिग्रहण बिल रुपी नाग से जमीनें बचानी हैं तो कहीं खापों के अस्तित्व की लड़ाइयां लड़नी हैं| और किसी तरीके से समझ ना आती हो, तो इसी से बता दो कि ये लव जिहाद के खिलाफ तुम्हें भड़काने वाले, तुम्हें खाद कट्टे दिलवाते हों, भूमि अधिग्रहण बिल को रुकवाते हों, या हमारी खापों पे ही भोंकने वालों को "खाप-जिहादी" कह उनको सबक सिखाते हों?

और तो और थारी खुद की लुगाई थानों में लाइन-हाजिर करवा राखी खाद के कट्टों की खातिर और तुम फिर भी यह सोचते हो कि इनकी बिगड़ीजादियों की हरकतों के लिए अपना वक्त और ऊर्जा ज्याया करें हम?

या फिर आदरणीय हिन्दू महासभा और विहिप जी से यही पूछ लो कि यह जाटों को बिना थाना लाइन हाजिर हुए खाद के कट्टे दिलवाने हेतु कब आवाज उठा रहे हैं? यह जुणसे हिन्दुओं की छोरियों को हिन्दू धर्म से बाहर ले जा रहे इनकी तो बाद में देखी जागी, उससे पहले आप लोग यह तो बता दो कि इन हिन्दुओं का क्या करें, जिन्होनें हिन्दुओं की ही औरतें खाद के कट्टों की खातिर लाइन हाजिर करवा राखी?

पगड़ी संभाल जट्टा, दुश्मन पहचान जट्टा!

Sunday, 5 May 2013

किसान को हीन भावना का चोर बनाती सरकारी नीतियाँ और रीतियाँ (किसान की हद-छात्ती कहूँ या रे-रे माट्टी):

किसान को हीन भावना का चोर बनाती सरकारी नीतियाँ और रीतियाँ (किसान की हद-छात्ती कहूँ या रे-रे माट्टी):

आज तक की सरकारी नीतियाँ किसान को चोर और गर्व की भावानाओ से रहित एक खोखली ओखली बना रही है, एक ऐसी ओखली जिसमें मूसल तो चलते सबको दीखते हैं परन्तु उसमें कूटा जाने वाला महीन अनाज किधर जाता है खुद किसान तक को नहीं पता चल रहा|

एक इंसान उसकी रचना-सरंचना को अपनी इच्छानुसार नाम दे सके, उसका गुणगान कर सके, उस पर गर्व कर सके, उसके बूते ख्याति-प्रसिद्धि और पहचान पा सके, आखिर यही तो अंत-परिमाण के लिए वो जीता है, ताउम्र खटता है| क्योंकि पैसा ही सब कुछ होता तो इनामों-नामों-शोहरतों की लागलपेट से ये दुनिया खाली होती और ये कहावतें ना होती कि “पैसा क्या है, यह तो एक वेश्या भी अर्जित कर लेती है”, परन्तु वो जो अर्जित नहीं कर पाती वो है समाज में मनमुताबिक रुतबा-इज्जत-श्रेय-शोहरत| वैसे तो युगों से ही किसान की ऐसी हालत रही लेकिन आज के हालात देख के तो ऐसा लगता है कि एक वेश्या (लेखक वेश्या को इज्जत की नजर से देखता है, यहाँ उदाहरणार्थ स्वरूप यह कहावत इसलिए प्रयोग की गई है क्योंकि समाज इज्जत के मापदंड पे वेश्या को निचले पायदान पर ही रखता आया है) को इज्जत मिल जाए परन्तु किसान को कदापि नहीं|

और कदापि इसलिए नहीं क्योंकि भारत की आजादी के बाद किसान को छोड़ सबको अपने-अपने हक़ मिले लेकिन किसान को कोई आजादी नहीं, बल्कि सरकारी, गैर-सरकारी नीतियां ऐसी हैं जो उसको “कोल्हू का बैल” तो बना सकती हैं परन्तु गुड़ बनाने का सारा श्रेय तो चाक पर गुड़ की पेड़ियाँ काटने वाला ही ले जाता है, उस बैल का गुणगान कोई नहीं करता, उसका अहसान कोई नहीं मानता जिसने कोल्हू की अथक परिक्रमा कर उस गुड़ के लिए गन्नों का रस निकालने हेतु कोल्हू की चकळीयों और गिरारियों की मरोड़ तोड़ी होती है|

सरकार और तथाकथित पढ़े-लिखे, सभ्य-सभ्रांत समाज ने ऐसी कोई कसर नहीं छोड़ रखी जिससे यह तो सुनिश्चित हो ही कि किसान गँवार-असभ्य-दुर्भाषी तो कहलाये ही साथ ही साथ इसके किये का श्रेय इसको ना मिले और घर में एक नौकर भी रखे तो एक चोर की तरह|

ऐसे ही कुछ पैमानों-सामानों का यहाँ जिक्र कर रहा हूँ जो किसी भी तरीके से अगर कोई किसान कानून की मदद करना चाहे तो वो नहीं करने को मजबूर होता है|

उदाहरणत: अगर मैं एक किसान हूँ और मुझे एक नौकर सालाना तनख्वाह पर रखना है तो मैं कानून द्वारा तय पैमानों के हिसाब से रख ही नहीं सकता| क्योंकि कानून कहता है कि 14 साल से ऊपर के नौकर को आपको किसी भी तरह के कानून द्वारा परिभाषित कार्यों के लिए अधिग्रहित करना है तो उसकी कम से कम तनख्वाह 4800 रूपये माहवार होनी चाहिए और वह सिर्फ दिन में 8 घंटे काम करेगा और हफ्ते में उसको कम से कम एक दिन की छुट्टी भी देनी होगी और सरकारी तन्त्र के तहत उसको न्यूनतम निजी अवकाश भी उपलब्ध करवाना होगा | और यही नियम कृषि क्षेत्र के कृषक पर भी लागू होता है|

यानी अगर महीने में 26 दिन (चार दिन रविवार के नाम के निकाल के) भी नौकर खेतों में काम करता है, वो भी सिर्फ 8 घंटे तो किसान को उसकी प्रतिदिन लागत पड़ी 184.61 रूपये| और यही सरकार जब किसान की फसल की लागत का आंकलन करती है तो उसकी प्रतिदिन की दिहाड़ी गिनाती है 179 रूपये| तो पहले तो जमींदारों को दौलतमंद बताने वाले, उनको धनाढय बताने वाले और उनको अत्याचारी बताने वाले और उनपे बरसने वाले इस बात का जवाब दें कि क्या उन्होंने कभी किसान के इन पहलुओं पर नजर डाल के देखी है? और देखी है तो जिस तन्मयता से उसके सामाजिक रूतबे को कोसते नजर आते हैं उसी तन्मयता से आपके सेमिनारों और सभाओं में उसके ये मुद्दे नदारद क्यों रहते हैं?

क्यों नहीं वो सरकारों-अफसरों से ये पूछते कि खेती का काम दिन-रात का होता है तो जब एक नौकर की दिहाड़ी और उसके कार्य की समय-सीमा तय करी गई तो यह देखा गया कि नहीं कि किसान को रातों में खेतों में पानी भी देने होते हैं, फसलों की रखवाली भी करनी पड़ती है, जिसके लिए उसको 24 घंटे अथक चलना होता है और ऐसे ही उसको नौकर चाहिए होते हैं? तो बताओ जिसकी एक दिन की दिहाड़ी सरकार ने 179 रूपये निर्धारित कर दी हो वो 184 रूपये में आने वाला 8 घंटे का नौकर कहाँ से लायेगा और अगर उस नौकर को 24 घंटे रखना है तो 184*3 = 552 रूपये कहाँ से देगा?

कोई कहे कि फसल से देगा तो वो देखें इस लिंक http://www.nidanaheights.com/choupal.html पे जा के कि उसको फसल में भी क्या बचता है? अपनी ही पैदा की गई उपज का मूल्य निर्धारण तक उसके हाथ में नहीं, उसकी लागत का आंकलन करने में भी उसकी कोई पूछ नहीं, किसान की दिहाड़ी एक मजदूर से भी कम जो सरकारी तन्त्र आंकता हो फिर वो किसान के धनाढय होने का विश्वास दिला दे क्या ऐसा मुमकिन है?

क्या यह आंकड़े किसी तथाकथित दलित-मजदूर की सुरक्षा-समता का रोना पीटने वाले समाजसेवियों को नहीं पता हैं? जो वो अंधे हो मजदूर के लिए हक़ तो मांगने निकल पड़ते हैं परन्तु वो जड़ नहीं देखते जो झगडे का कारण बनती हैं? वो कभी ये नहीं कहते कि एक किसान को 24 घन्टे की मजदूरी 179 रूपये नहीं अपितु कम से कम इतनी तो दी जाए कि वो मजदूर को भी उसके हक़ मुताबिक भुगतान कर सके? सोचने की बात है कि सरकारी आंकड़ों में 179 रूपये की 24 घंटे वाली दिहाड़ी का किसान 552 रूपये की 24 घंटे वाली दिहाड़ी का मजदूर कहाँ से लायेगा?

ऐसे में तो कोई भला-चंगा जागरूक किसान जो ये चाहता हो कि मैं भी सरकारी नियम के अनुसार नौकर अधिगृहित करूँ तो वो भी ना कर पाए? तो फिर ऐसे में उसके पास क्या रास्ता बचा सिवाय उसको सरकारी अनुबंध पे ना ले सदियों से चले आ रहे बनियों की बहियों में कच्चे सहमती पत्र पर उनको रखने के? ऐसे कच्चे सहमती पत्र जिनकी कि सरकारी स्तर पर कोई मान्यता नहीं होती| अपितु बनिए को भी जमींदार को भुगतान करना पड़ता है ऐसे पत्र बनवाने के लिए जिनकी कि कोई मान्यता नहीं?

और इससे अंत परिणाम यही निकलता है कि किसान स्वभाव से उग्र बनता है क्योंकि अंदर ही अंदर उसकी भी चाहत होती है देश के सरकारी तन्त्र में हाथ बंटाने की, परन्तु जब उसके मानक ही इतने उलटे हों तो कोई किसान चाह कर भी देश की मुख्य धारा से कैसे जुड़ जाए|

और गावों के अंदर तो किसान इस तन्त्र के इतने आदि हो गए हैं कि कोई उनको इस पर बात कहे तो वो सिवाय ऊपर-कथित व्यथा सुनाने के गुस्सा भी जाहिर करने लगते हैं कि जैसे पूछने वाले ने ये प्रश्न पूछा ही क्यों| और फिर ईसी से उसकी छवि अंक ली जाती है परन्तु उस अंतहीन व्यथा को बड़े-बड़े पत्रकार भी नकार जाते हैं जो इस गुस्से की जड़ होती है|

और यहाँ यह ना समझें की इस अंतर्वेदना का शिकार सिर्फ किसान ही बनता है| मजदूर भी
तो ऐसे ही सहमती पत्र बनवाने में खुश होता है| क्योंकि वो सरकारी प्रणाली से कार्य समहति पत्र बनवायेगा तो उसको उसकी आमदनी पट कर (tax) देना पड़ेगा| लेकिन उसके पास तो फिर भी विकल्प है, वो चाहे तो किसान को मजबूर कर सकता है कि मुझे तो सरकारी नियमों के तहत कार्य अनुबंध पत्र चाहिए, लेकिन वो किसान क्या करे जिसको ऐसा विकल्प ही नहीं छोड़ा हुआ हो सरकार ने|

और कभी-कभी जब ये 179 रूपये की दिहाड़ी वाला किसान 552 रूपये की दिहाड़ी वाले मजदूर के पैसे चुका नहीं पाता है या देरी कर देता है तो फिर दलित जो कि अधिकतर ऐसे मजदूर होते हैं उनको भारत के SC/ST क़ानून याद आते हैं कि मेरा पैसा चुका नहीं पा रहा है तो ऊठा के इस किसान को मुझसे जातिसूचक शब्द या दुर्व्यवहार के साहस में अंदर करवा दूं और अगर उसके पीछे-पीछे 2-4 N.G.O. वाले और लग जाएँ तो बस फिर कहना ही क्या| शहरों में बैठे इनके लिए ऐसे मामले ऐसे होते हैं कि जैसे बस जगत की सारी ज्यादतियां तथाकथित स्वर्ण किसान ही करता है| लेकिन इसमें सरकार की भावनाओं और प्रेरणाओं से रहित परोक्ष नीतियां शायद ही किसी को आजतक नजर नहीं हों| शर्म और दावे की बात है अगर आज तक हिंदुस्तान की कोई N.G.O. ऐसे झगड़ों के इन मूल-कारणों तक पहुंची हो या पहुँचती हो जो मैंने यहाँ व्यथित कर दिए| वो ऐसे झगड़ों की वजहें ये तो कहते मिल जायेंगे कि किसानों-जमींदारों की जमीनें सिकुड़ रही हैं, अंसतोष फ़ैल रहा है इसलिए वो अपना प्रभुत्व जमाने को दलितों पे अत्याचार करते हैं, लेकिन उनकी सूक्ष्म अनुभूति ये अनुभव नहीं कर पाती जो ऊपर लिखा है

आखिर क्यों नहीं ऐसा हो सकता कि एक किसान भी एक कॉर्पोरेट वाले की तरह नौकर अनुबंध करे, tax भर देश की मुख्य धारा में जुड़े| सब हो सकता है अगर ये सरकारी चीजें पढ़ के इनको खंगाल के कोई इन विसंगतियों को दूर कर सके तो|

कुछ लोग यह भी कुतर्क देते हैं कि किसान 12 माह कार्य नहीं करता? क्यों, आखिर ऐसा कहने वालों की बारह माह की परिभाषा क्या है? यही ना जो सरकारी तन्त्र ने हर सरकारी-गैर सरकारी नौकरीपेशा के लिए निर्धारित कर रखी हैं, जिसमें हर इतवार यानी 52 दिन, तकरीबन 30 त्योहारों की छुट्टियाँ, किसी विभाग में 15 दिन तो किसी में 30 दिन के निजी अवकाश, कहीं महीने के दूसरे शनिवार तो कहीं हर शनिवार की छुट्टी? तो इन छुट्टियों को निकाल के देखो तो एक नौकरीपेशा ने कितने दिन कार्य किया? 3 से 5 महीने का तो अवकाश ही हो जाता है और फिर उसपे कोई 24 घंटे तो काम नहीं करता जबकि किसान का तो फसल चक्र में ऐसा भी वक्त आता है जब उसको दिन का पता होता है ना रात का| नौकरीपेशा तो अधिकतम रात के 12 या 2 बजे तक खट लेगा, लेकिन किसान को तो जब चलना होता है हफ़्तों अनथक निरतंर चलना पड़ता है, तब जा कर एक फसल तैयार कर पाता है तो फिर किसान का कार्य 12 माह का कैसे नहीं हुआ?

कम्पनियों-कोर्पोरेटों-सरकारी विभागों में तो over-time मिलता है लेकिन किसान को तो वो भी कोई addtional नहीं मिलता| और ऐसी परिस्थितियों में पद जाता है कि जैसे गले पड़ा ढोल मन-हो-न-हो बजाना ही पड़ेगा |

आप और हम 10 घंटे over-time कर दें और उसके पैसे ना मिलें तो बॉस से ले कंपनी तक तो 7600 गालियाँ देते हैं और फिर भी सभ्य-सफ़ेद कहलाते हैं अन्यथा शिकायत करने लग जाते हैं कि मुझे कोई motivation ही नहीं है इस job पर, मेरी creativity disturb हो रही है and so on....

लेकिन किसान, उसका तो जैसे कोई motivation ही नहीं, उसकी तो creativity की जैसे कोई value ही नहीं, और फिर तथाकथित सभ्रांत-बुद्धिजीवी किसान को गँवार, असभ्य बताएँगे और कहते मिलेंगे कि किसान में बोलने की तमीज नहीं होती| अरे कभी इन ऊपर बताये हुए सरकार और भारतीय सविंधान द्वारा दिए किसान के इन हालातों में खुद को रख के देखो, अगर इस बात का शुक्र ना मनाओ कि इतना नीरस और उत्साहीन काम का वातावरण होते हुए भी किसान बोल पाता है वही गनीमत है, कैसे बोलता है यह तो उसकी हद-छात्ती जानती है|

इसलिए तो कहा गया है कि "जट्ट दी जूण बुरी रिडक-रिडक मर जाणा” (जट्ट शब्द इसलिए कहा गया है क्योंकि जाट/जट्ट जैसी किसानी दुनियां में कोई नहीं कर सकता और कहा भी गया है कि "बाजी नट की तो खेती जट्ट की")|

और किसान समाज की सबसे बड़ी दिक्कत तो यह भी है कि जो शहरों को निकल गए वो विरले ही पीछे मुड़के देखते हैं कि उनके पूर्वजों के भी कुछ कर्ज उतारने को कोई विरला वापिस उनकी गलियों में आएगा या शहर और सरकारों के बीच इन बातों को उठाएगा| कहाँ उठाने वाले, मैंने तो ऐसे लोग भी देखे हैं जो अपनी पहचान बताने तक को डरते हैं|
किसान की सोच और मेहनत का कोई सच्चा मोल निकाल दे तो साहूकारों को फाके पड़ जाएंगे| लेकिन फिर भी लोग अपने दिमाग और किस्मत के दम पे खाने की हुंकार भरने से बाज नहीं आते और कभी नहीं सोचते की इन हुंकारों में किसी के हक़ भी दबाये गए है, वरना एक किसान ही ऐसा क्यों कि उसकी उपज का मोल भी दूसरे ही उसके लिए निर्धारित करें? उसको बेचना हो तो भी दूसरों के दर पे (मंडियों-बाजारों-मीलों) वो ही जायेगा और उसको खरीदना हो तो भी दूसरों के दर (दुकानों-हट्टीयों) पे वो ही जायेगा?

कोई चुप्पी साध के हक़ मारे है तो कोई दुत्कार के पर किसान को हर कोई लात ही मारे है| शायद इसीलिए तो दुखियारी और अबला नारी को झूठे दिलासे देने हेतु जैसे ये समाज उसको "देवी" कहता आया है वैसे ही जब इस किसान के हक़ की ये बातें कोई सुनता है कर्कस सी आवाज में उसको "अन्नदाता" कह अपनी श्रदांजली सी देता दीखता है| और जब तक तक ये ऊपर-चर्चित loopholes नहीं भरेंगे तब तक किसान एक लाचार अबला सी ही रहेगा|

इस श्रेणी में इस विषय से सम्बन्धित 2 मुद्दे समय और मजदूरी चर्चित किये, अगले लेख मे ऐसे ही दूसरे मुद्दे उठाकर लाऊंगा| आपके विचार, तर्क-वितर्क सहृदय स्वागत हैं|

सद्भावना सहित

Friday, 3 May 2013

राष्ट्रीय मीडिया से एक छोटी सी प्रार्थना:

कल nd tv के मुकाबला कार्यक्रम में एक महानुभाविका को कहते हुए सुना कि दिल्ली में बलात्कार रोकने के लिए खापों पे नियन्त्रण करना होगा| मतलब कुछ लोगों को तो अपनी बकवास बकने का मौका भर चाहिए फिर चाहे खापों का किसी घटना से दूर-दूर तक कोई नाता ना हो| ऐसे ही जब 16 दिसम्बर 2012 वाली घटना हुई तो कहीं शीला दीक्षित तो कहीं दिल्ली पुलिस a.c.p. श्रीमान लूथरा बाबू यही ...राग अलापते मिले कि खापों पे काबू पाना होगा| खापों को ले के इनकी इतनी बेमौके की बेबाकी इस बात का नतीजा तो नहीं कि "सामने वाला तो शर्म-शर्म में मर गया और बेशर्म जाने मेरे से डर गया" या फिर इसका नतीजा हो कि "पिता तो इंट-इंट जोड़ के मकान बनाए और बेटा मकान बेचने में एक पल भी ना लगाए"?

क्या आखिर समझ क्या रखा है इन लोगों ने खापों को? अगर मैं इन दोनों घटनाओं से जुड़े बलात्कारियों की पृष्ठभूमि और इनका पता बताऊंगा (जो कि आम-जनता में हर कोई जानता है) तो मैं मेरे ही उन क्षेत्रों से आने वाले दोस्तों को नाराज कर लूँगा, जो कि हर मामले में सभ्य और सुशील हैं| पर क्या ये हरामखोर मीडिया वाले समझेंगे इस स्वेंदंशीलता को? जिस तरह की चर्चा और सोच इन घटनाओं पर तथाकथित इन बुद्धिजीवियों की देखने को मिल रही है मैं तो सोच के भी भयभीत हो जाता हूँ कि इन दोनों घटनाओं में अगर भूल से भी कोई खापलैंड का बंदा होता तो इसका मतलब मीडिया ने तो खापों को फांसी चढ़ा देना था? अरे कम-अक्लो आओ मैं दिखाता हूँ तुम्हें खापों का वो मन्त्र जिसका आधा भी कोई अपना ले तो उसको अपनी वासना पे नियन्त्रण करना आ जाए (यह बात खापलैंड और इससे बाहर से आने वाले दोनों के लिए है) और बलात्कारों में कमी आये:

गाँव की लड़की गाँव की 36 बिरादरी की बेटी और गोत्र की बेटी गोत्र में सबकी बेटी (खापों का एक ऐसा विधान जो वासना और कामुकता पर नियन्त्रण करना सिखाता है|):

आज के सन्दर्भ में इस तथ्य को शायद ही कोई समझे या मान्यता दे, क्योंकि मर्यादायें रही नहीं, स्वार्थ का स्वभाव बढ़ता जा रहा है और नैतिकता का पैमाना/दायरा सिकुड़ता जा रहा है| लेकिन खाप बुजुर्गों नें जब यह सिद्धांत बनाया था तो इसकी अध्यात्मिक वजह थी युवक-युवती के ध्यान और मन की चंचलता की भटकन को न्यून कर उसको सम्पूर्ण शारीरिक एवं मानसिक विकास, स्थिरता और सुदृढ़ता के पथ पर एकाग्रित करवाना, ताकि वह वासना के वेग को सहना भी सीखे और संजोना भी| इसका दार्शनिक पहलू यह होता था कि इससे इंसान में सहनशक्ति एवं धैर्य का संचय होता था, जिसकी कि आज के युग में कमी बताई जा रही है| ऐतिहासिक पहलू यह था कि बाहरी शक्तियों से अपनी सिमता को बचाया जा सके और गाँव-समाज में सुख-शांति और हर्षोल्लास बना रहे; वही हर्षोल्लास जो आज के दिन हर गाँव-गली- मोहल्ले-नुक्कड़ से हर तीज-त्यौहार के मौके पर नदारद हो चुका है और हर हँसी-ख़ुशी की परिभाषा गली-नुक्कड़ से सिमट कर घरों की चारदीवारियों में कैद हो चुकी है और सामाजिक खुशियाँ बेरंग और बेनूर सी हो चुकी हैं| और घरों से बाहर निकल कर कोई देखता नहीं और इसीलिए बलात्कारी बेख़ौफ़ घूम रहे हैं|

इस स्वर्ण सभ्यता की कमी से समाज से जो हर्षोल्लास और रसता रिक्त हो गई उसको भरने को पता नहीं कब और कौनसा नया रिवाज या मान्यता चलन में आयेगी परन्तु उसके इंतज़ार में समाज इस खुशियों के बिखराव की राह पर इतना आगे ना निकल आया है कि पड़ोस में 5 साल की बच्ची का बलात्कार हो जाता है और किसी को खबर तक नहीं लगती? ऐसा लगता है कि जैसे हमारी सभ्यता एक बिना पते की चिठ्ठी बन के रह गई है, जिसका कोई मुस्सबिर नहीं|

इन मान्यताओं को व्यक्तिगत आजादी की राह में रोड़ा मान, झील के ठहरे हुए पानी सा बताने वाले भी जवाब दें कि जब पैर में कांटा चुभता है तो कांटे को निकाल के फेंका जाता है ना कि पूरा अंग या शरीर ही उस कांटे के दर्द से निजात पाने हेतु काट के फेंक दिया जाता हो? आज के हालात देख के तो यही लगता है कि बलात्कारियों रुपी शरीर में चुभे काँटों को निकालने पे तो किसी का ध्यान नहीं पर जिसको देखो भारतीय सभ्यता के सकरात्मक पहलु वाले शरीर को कान्त के फेंकने पे लगा हुआ है|

दुविधा यह है कि इन फिल्मों और मीडिया वालों ने गैर खापलैंडी तो क्या खाप वालों तक के ऐसे सिद्धांतों से ध्यान हटाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी| वर्ना एक वक्त वो होता था कि हरयाणा और ncr में बलात्कार नगण्य होते थे और बच्चियों के साथ तो शायद ही कभी सुनने को मिलता था| तो भगवान् इन तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया वालों को थोड़ी सी सद्बुद्धि दें कि ये समाज में गाहे-बगाहे ऐसे हालात ना पैदा करें कि फिर कहीं मुंबई की तरह ncr में भी भाषावाद और क्षेत्रवाद की अग्नि धधक उठे| और इन मुद्दों से ध्यान भटक हर कोई भटक कर समाज से छटंक जाए और पहले से सभ्यता के अकाल से ग्रसित समाज में और भी असभ्यता अपना डरावना साया फैला ले|

बच्चे-बच्चियों से बलात्कार और पारिवारिक दाईत्व (बच्चे-बच्चियों को कैसे बलात्कारियों के मुंहों से बचाया जा सकता है):

15 अप्रैल 2013 को दिल्ली में 5 साल की बच्ची से हुए बलात्कार की घटना ने विवेचना पर मजबूर किया और सोचने लगा कि ऐसे बलात्कारों के पीछे वजहें क्या बनती हैं| इन वजहों में क्रूर इंसान की मानसिकता तो मुख्यत: जिम्मेदार रहती ही है साथ ही साथ कैसे बच्चों से किया जाने वाला व्यवहार, उनके लालन-...पालन की प्रक्रिया, बच्चों की सोच और समझ को बच्चा समझ बच्चे को अपनी सोच के अनुसार चलाना अथवा उससे अपने कथनानुसार व्यवहार करने को कहना या बच्चे की इच्छा, मंशा एवं अभिलाषा को किनारे कर उससे मुंह फेर लेना या उसकी बात ना सुने जाने पर उसकी नाराजगी को ये कहते हुए टाल जाना कि यह तो बच्चा है action का reaction तो देगा ही; ये ऐसे वाकये होते हैं जो 3-4 साल से लेकर 8-9 साल तक बच्चे की सहनशक्ति, विवेक, माँ-बाप या guadian के प्रति बच्चे के विश्वास, बच्चे के मानसिक विश्वास और आत्म-सम्मान को गहरा खेद पहुंचाते हैं|

हालाँकि कि दिल्ली में जिस 5 साल की बच्ची से बलात्कार हुआ उन परिस्थितयों के बारे में तो मैं नहीं जानता परन्तु मैंने ऐसे हालात में से बच्चों को गुजरते हुए देखा है जब वो उपरलिखित अपनों (माता-पिता, guardian) के उपेक्षित रव्वये की वजह से घर वालों की जगह बाहर वालों (पड़ोसियों, रिश्तेदारों, राहगीरों) की तरफ जल्दी से झुक जाते हैं| और ऐसे में इन बाहरवालों के लिए वो बच्चा-बच्ची सरल शिकार बन जाता है जिसको बहलाने-फुसलाने-ललचाने में इनको ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती और बच्चा इनके बहकावे में आ जाता है| यह बहकावा-लालच बच्चे को खेलने की चीजें दे के भी दिया जा सकता है, बच्चे को खाने की चीजें दे के भी और कई बार तो मीठे बोल भर से (वो बोल जो कि बच्चे को घर में किसी ऊपर-चर्चित वजहों के चलते नहीं मिल पाते) बच्चा बहकावे में आ दुष्कर्मी के साथ कहीं तक भी जाने को तैयार हो जाता है| और दुष्कर्मी फिर उसको आसानी से एकांत में ले जा अपना शिकार बना लेता है|

हालाँकि कि बलात्कारी के लिए यह चीज मायने नहीं रखती, कि बच्चे का लालन-पालन अच्छी देखभाल वाला है या बुरी वाला परन्तु घर का यह माहौल बलात्कारियों के हाथों आपका बच्चा चढ़े उसकी सम्भावना तो तीव्र कर देता है|

जाने-माने शोधों और अध्ययनों में भी यही तथ्य सामने आये हैं कि एक 4 से 9 साल का बच्चा निर्णय लेने में तो परिपक्कव नहीं होता है, परन्तु आपका गलत व्यवहार और उसकी देखभाल और लालन-पालन का तौर-तरीका उसको आपसे दूर ले जा सकता है; इतना दूर कि कई बार तो बच्चा अपना दुःख भी आपको सुनाने से कतराता है और आपमें विश्वास नहीं दिखा पाता| उसका दिमाग खुश होना, रोना और नाराजगी जाहिर करना तो जान लेता है परन्तु वो फैसला नहीं कर सकता कि खुश या दुखी हूँ तो किस वजह से और वो आपके दिए हुए गलत-सही व्यवहार को चाहे-अनचाहे मन से स्वीकृति सी दे देता है और उसकी इस स्वीकृति को माता-पिता और guardian उसपे अपनी बात की जीत मान लेते हैं|

जबकि सच्चाई यह होती है कि वो चीज उसके अंदर ही अंदर घुटती रहती है और वो जैसे कि मौके की ही तलाश में रहती हो बाहर निकलने को कि उसको सहारा मिला नहीं और वो उसी के साथ हो लेता है| ऐसे ही व्यवहार और लालन-पालन के तरीके ना सिर्फ बच्चों को बलात्कारियों के निशाने पे रख देते हैं बल्कि बच्चों के अगवा होने, उनके रूठ कर घर से बाहर निकल जाने के लिए भी जिम्मेदार होते हैं|

ऐसे ही कुछ वाकये आपके सामने रख रहा हूँ:
१) एक 4 साल का बच्चा माँ के डांट देने से घर में दुबक के बैठ जाता है परन्तु थोड़ी ही देर बाद पता लगता है कि बच्चा लापता हो गया है| दरअसल हुआ यह था कि वो घर में दुबक के नहीं बैठा था वो माँ की डांट से घर से बाहर निकल गया| घटना का वक्त और जगह बतानी मैं इतनी जरूरी नहीं समझता जितना जरूरी की इस घटना की वजह और इसके परिणाम| वजह आपने देखी और इसका परिणाम यह हुआ कि बच्चे को 2 नशाखोर बाबाओं के पास से छुड्वाया गया| 7 घंटे की खोज के बाद बच्चा शहर के दूसरे कोने में स्थित रेलवे-स्टेसन से बाबाओं से बरामद किया गया| माता-पिता और 2 बहनों की किस्मत अच्छी थी कि क्रमस: उनका बेटा और बहनों का इकलौता भाई वापिस मिल गया| जब बच्चा मिला तो माँ उससे लिपटते हुए बोली कि मैं कुछ भी करुँगी पर आज के बाद तुझे डांटुगी नहीं|

२) एक किसान ने अपने 4 साल के बेटे को शहर में अपनी बहन के पास छोड़ दिया परन्तु उस बच्चे का वहाँ मन नहीं लगा| और क्योंकि बच्चा जन्म-जात मेधावी था और हर परीक्षा में 90% से उपर अंक अर्जित करता और जब भी उसका पिता उससे मिलने आता तो बहन उसको भतीजे के अंक दिखाती और भाई से झूठी वाह-वाही सी लूटती दिखती कि जैसे यह उसके लालन-पालन से अंक अर्जित कर रहा है| जबकि बच्चे को पिता के उससे मिलने आने की कोई ख़ुशी नहीं होती; वो तो यह बात सुनते ही कि मेरा पिता आया है तो जरूर ट्रेक्टर-ट्रोली में आया होगा| तो जब उसकी बुआ उसके पिता को उसके अंक दिखाने में मशगूल होती वो दूर main-market की सड़क किनारे खड़ी उनकी ट्रेक्टर-ट्रोली की तरफ भागता और बेचारा उस ट्रेक्टर-ट्रोली के चारों और चक्कर काटता रहता, और ट्रेक्टर-ट्रोली में बैठे उसके गाँव के लोगों के मुंह तांकता रहता कि शायद मुझे कोई बांह पकड़ के उपर चढ़ा ले|

लेकिन उसको प्यार तो सब करते और खाने को चीजें भी देते परन्तु ट्रेक्टर में चढ़ाता कोई नहीं, शायद सब जानते होते थे कि इसको इसकी बुआ पे पास पढने के लिए छोड़ा गया है सो अगर उपर चढ़ाया तो इसका पिता गुस्सा करेगा इसलिए कोई उसको ऊपर नहीं चढ़ाता था|

और 4 साल के बच्चे की दिमाग की उपस्थिति देखो कि वो एक नजर उस रास्ते पे रखता जिधर से उसके पिता को आना होता था और एक ट्रोली-ट्रेक्टर के चक्कर काटने पे| और जैसे ही उसका पिता आता हुआ दीखता वो भाग के ऐसी जगह छुप जाता जहां से उसको उसका पिता ना देख सके परन्तु वो ट्रेक्टर-ट्रोली को जरूर देख सके| और वो उसको तब तक देखता रहता जब तक कि वो उसकी आँखों से ओझल ना हो जाती| और एक-दो बार तो ऐसा भी हुआ कि रोडवेज की बसों के ड्राईवरों ने खुद गाडी रोक उस बच्चे को उनकी गाड़ी के टायर के नीचे आते-आते बचाया और उठा के सड़क के किनारे छोड़ा; वो क्या होता था कि वो कई बार भावनावश ट्रेक्टर-ट्रोली के पीछे भाग लेता था ना|
परन्तु शायद फिर वो समझ जाता था कि बसें भी उस पर नहीं चढ़ती तो भगवान भी उसके साथ नहीं है और अपने मन को मशोश कर वापिस वहीँ चला आता था जहां रहना उसकी इच्छा ही नहीं थी| और मैंने उस बच्चे को बड़ा होते हुए देखा| उसमें हर विकास हुआ परन्तु वह कभी भी आत्म-सम्मान नहीं पैदा हुआ कर पाया खुद पर विश्वास भी पैदा हुआ तो अति-आत्मविश्वास वाला वो क्यों हुआ मैं भी आंकलन करने में फेल हो जाता हूँ|

३) एक बिना माँ का बच्ची भी बनी थी बलात्कार की शिकार 3.5 साल की उम्र में ही: ये एक ऐसे बच्चे की कहानी है जिसको उसकी माँ के जल्दी गुजर जाने के हालातों में रिश्तेदारों के यहाँ पहुंचा दिया जाता है और जब उसको रिश्तेदारों से रिश्तेदारों के अपने बच्चों के बराबर का भी प्यार नहीं मिलता था और छोटी सी उम्र में ही किसी अनहोनी बात को सहन करने के लिए कह दिया जाता था या ये कह के फुसला दिया जाता था कि तुम्हारा दिल फिर भी बड़ा है इसीलिए जिद्द मत करो तो कैसे वो बच्ची एक दिन गली में खेलते-खेलते, सिर्फ एक छोटी गेंद के लालच में एक बलात्कारी के हाथों चढ़ जाती है और उसका बलात्कार होता है तो पूरा घटनाकर्म सोच कर ही शरीर काँप जाता है|
और बाबा रामदेव नें आजतक पे रजत शर्मा के "आपकी अदालत" कार्यकम में यह बात सही कही थी कि कोई बच्चा जन्म से समलैंगिक नहीं होता बल्कि बचपन में मिलने वाला माहौल और सुरक्षा का स्तर ऐसे तत्व होते हैं जो उसको कई बार इन मार्गों पर भी ले जाते हैं| जो समझदार और बचपन में बड़ी समझ रखने वाले होते हैं वो बच्चे तो इन हालातों से निकल आते हैं परन्तु जो सामान्य होते हैं वो फिर इनसे उम्र-भर नहीं निकल पाते| और वो वर्ण-शंकर कहलाने की राही पर चल देते हैं| वो अपने शरीर को, अपनी बुद्धि और क्षमता को अपना दुश्मन मानने लग जाते हैं और हालातों के बुने जालों पे इतनी परतें चढ़ा लेते हैं कि उनकी जिंदगी "राम-भरोसे" जैसी हो जाती है|

निष्कर्ष: तो अगर आप माता-पिता हैं तो अपने बच्चे को कभी भी दूसरों के भरोसे ना छोड़ें; ना ही तो पालने-पलोसने के उद्देश्य से और ना ही पढ़ाई के उद्देश्य से| और जब आप सर्व-साधन संपन्न हों तो बिलकुल भी नहीं| रिश्तेदारों और जानकारों के यहाँ छोड़ने से तो भला बच्चे को day-boarding हॉस्टल में छोड़ दें जहाँ कि जिम्मेदारी निर्धारित होती है| रिश्तेदारों के यहाँ आपके बच्चे की कोई accountability नहीं होती और ना ही जवाबदेही बल्कि उल्टा जिंदगीभर का अहसान रहता है कि हमनें तुम्हारे बच्चे को पढाया फिर चाहे तुम्हारे बच्चे में आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास जैसी चीजें हों या ना हों| और पढ़ाना किसी के हाथ नहीं होता जैसे की ऊपर दिए उदहारण 2 में आपने देखा कि वो बच्चा अंक तो अर्जित करता रहा पर आत्म-सम्मान से रिक्त रहा|

और दूसरों के हाथों बच्चा पलवाना ऐसे होता है जैसे आधे पे दे के जानवर पलवाना| आधे पे दे के जानवर पलवाने का मतलब कि जब जानवर बड़ा हो के बेचा जाता है तो उसकी कीमत को उसके पालने वाले और उसके मालिक में आधी-आधी करके बाँट लिया जाता है या फिर मालिक उसकी आधी कीमत पालने वाले को दे, उस जानवर को अपने घर ले आता जो कि जीवनभर कभी मालिक की उससे सेवाओं की अपेक्षाओं पे खरा नहीं उतरता| और वो क्यों नहीं उतरता इसकी चर्चा आपने ऊपर पढ़ी| सो आपके बच्चे जानवर नहीं हैं उनको अपने हाथों से पालिए या दूसरे के हाथों में सोंपने भी पड़ें तो ऐसी जगह सोंपे जहां जवाबदेही निर्धारित हो, अहसान नहीं|

अंत में इस लेख का बिंदु यही था कि बच्चों को कैसे बलात्कारियों के मुहाने पे रखने से बचाया जा सकता है| हालाँकि इसके साथ हमने कई और बिंदु भी चर्चित किये जैसे कि बच्चे का अगवा या गुम हो जाना वो इसलिए जरूरी था कि इन सब मामलों में परिस्थितियाँ एक जैसी पाई जाती हैं|

Hang on a minute Akhtar Saheb and kindly listen:

Reference here is to the delicious and ear-loving speech delivered by Javed Akhtar Ji in parliament regarding the 15th April 2013 girl child gang rape (heinous of heinous face of brutality).

Personal note before proceeding ahead: Being a stage performer since childhood and a small theater artist of seasonal art and theatre, I have been influenc...ed and thrilled by your creativity and writing charisma thus the contribution towards Indian Cinema by you; so whatever I am going to write here may be sour but value of your art and creativity to me would always be of the level it has been throughout my life. It is immortal and forever in my heart for and will always be.

Now I proceed to the points I want to make. Yesterday' exhaustion by you in parliament was nothing but a mere ceremony to divert the attention of public similar to the way done by Delhi Police Commissioner and Home Minister pertaining to this particular incident. You brought three points of Cinema, Consumerism (Liberalization) and Westernization on desk, which were beautifully briefed but what you might miss-presented was somewhat awkward to me thus felt the impression of you being defensive in your speech:
1) Akhtar Saheb, be remembered each object/subject in world of existence has both side of a coin, whether it is the point of cinema, liberalization (consumerism) and westernization. I equally emphasize on the positive aspects of these fields, but who will hold or bear the responsibility of shits (the negatives) spreading over in communities by the same factors? I think the recently recorded video by our beloved cricketer Harbhajan Singh (Bhajji Paa Ji) on use of molded and mischievous languages and its absurd artistic presentation by some/many of Indian artists may help you in understanding my point (video enlisted in references below).
2) Your speech was nothing but throwing back the responsibility on public. Though it was half way true also but what about the other unpleasant half? If India cinema has the wonderful history of movies like Sholay, Mother India, Mughl-e-aajam, it carries the dark side with incidents like cancelation of concerts/programs of singers like Honey Singh (not so old story - 2013’s new eve programs from him were either canceled or postponed). And I can trace back a list of such malfunctions in hundreds starting from very first movie of Indian Cinema by “Dada Saheb Falke” in 1913 across the adultery cinema propagated by famous legendry icon from Kapoor’s of Indian Cinema during 70’s and 80’s through till date. And reason being is known to all of us.

If under table money is called as bribery in offices, bureaucracy and politics then adultery is the bribery of cinema industry. It is such a big bribery that once time upon met to bankruptcy the RK studio got second time life respiration. Otherwise even the animals of my village also know how to expose, how to do sex and how to make love, so what special on the name of art and theatre your industry serves or has been serving us by taking adultery means?

Another examples being the 16th December gang rape incident happened exactly after the release of movie KLPD and exactly the same scene was portrayed by the perpetuators which was shown in this movie, like the way of abducting the girl, strolling with her on roads of Delhi? I don’t blame that they did it only just after the release of this movie but dare you assert that they might have taken this idea from KLPD movie?
3) More and quite often the statements like “We serve what people see” or “We work for earning and put what can get us the maximum of business” are heard from cinema fraternity of almost all genres like director, actor, producer etc. Do you find any kind of sense of responsibility in such kind of retrograding statements? What is the difference between the time to time murmured statements like these and recent statements of Delhi Police Commissioner and Home Minister? Don’t you anyway see any correlation between the two? Such lines don’t undermine the positive contribution to society from personalities like you and it is the dark face of your profession, isn’t it?
4) Movies and theatres have been source of motivation for different people of different aspects. There is enough stuff available in movies for a man to become as wiser as one can imagine but on the contrary there is enough material accessible to become as heinous, brutal, criminal or spoiled as possible for one. I don’t mind when you wish to grab credit for former point here but you should also bear the responsibility for the later point too. And believe me I would have applauded you unanimously if you would have come saying that yes despite the fact that cinema has contributed distinctively positive to society; it may also have been the motivation behind drastic tragedies like gang rapes and any other.
5) You wrote so many scripts but have you ever taken a biz in writing scripts pertaining to pure cultural roots like the Haryanvi culture? Have you ever searched and promoted the means had prominently been practiced in these areas, which were sufficient enough to make a man of self control and character? That’s a different story that your films hardly showered blessing on Haryanvi culture and always found absent on it, in an impression of which Haryanvi youth always found perplexed and unconfident to take which rout, the one shown in movies or the one inherited from family?
6) Now the points put by you:
(a) Cinema’s impact and crime: You took example of three south Indian states to prove your point but forgot to mention that
(i) These are the three states which are most affected with the evil traditions like “Devdasi” (which still in practice even after legal ban, references put in bibliography) and they are home to international women trafficking mafia. Have you counted these unsaid and by birth accepted lines of woman degradation and crimes from these states, while presenting figures on rape? No, then what would you call it happening to these women, isn’t it a form of forced rape or slavery; if to say on more demonizing note? Isn’t it as heinous and severe issue as female feticide or rapes found in any north or anywhere state in India? Have you ever seen the National Police Crime Bureau reports and then did a proper analogy while patting specific states for something you cheers? One of the states acclaimed by you tops the list on crime against woman (look at reference 5 and 6 from bibliography below).
(ii) And if for instance crime against woman in these states is lesser, then it is because theirs is the most uniform society where as the areas like North India (NCR in focus) is an amalgamation of almost all races and cultures of India? And also on the same track taken by you that women rapes is not an invention of a decade or two, the amalgamation of various cultures and races in North India is also not of a decade or two, rather it starts back as old as 10 centuries and still in continuation. And undoubtedly the uniformity in society is always better than an amalgamated society when it is talked on crime index. You may find this amalgamation in three-four major cities of the states from your list but states in North India especially like Haryana and Punjab, theirs each village is/has been an amalgamation at some point and for or since decades and centuries, because of which evils like biased gender ratio, veil tradition, goggling narghile are found most in these states (though that is a different story that people never found discussing on why Kerala has the most biased sex ration of other side? Why only 922 males over 1000 females there? And if it is accredited to natural birth then upto which extent you would like to pretend the same stand where ratio is reverse that of Kerala?).

People are changing but what the most challenging factor thwarts the native races of these regions is the nonstop continuous amalgamation of different races and it seems endless to them. And in such amalgamation, it is always hard to pin-point which race is more criminal and which is sober; one may like to take help of organizations like MNS or Shivsena to pin-point the most criminal ones? Thankfully that in this regard the native races of north India are/have been more democratic since ages and at least till date no issue of regionalism or lingualism is sought on such an higher level as in Mumbai.
(iii) Why out of 14000 cinemas Nationwide 8000 are just in three south Indian states? I agree that south Indian people are more sensitive towards art and culture though north Indians are also not so tragic on it. The point of difference is that governments of these states promote and finance the cinema and art there. They properly and independently have budgets, resources and departments for theatre and cinema. And it all happens because they have properly decided on their state language and ambiguity. In south India specific groups have hold over the finance and income coming from cinema and they are properly conserved with their rights, where as in North India it’s nothing here.

In north Indian states like Haryana, the governments are no way near to declare the most widely spoken language and the language on the basis of which Haryana got the name Haryana, “the Haryanvi language” as the state’s primary language. They play politics on the name of language even. They have time to declare primary and secondary languages but no concern on the promotion and assertion for the language which the state is home to and in such situation you expect the states to become theatre and art flourishing?

Yes they are but on small scale. There is incubated talent in state but except a few majority of them are creeping in absence of no government aids and supports. Never the late could you please put this voice of Haryanvi artist in Rajyasabha to your government and that also after being an artist of top genre? Or you also believe in territorial representation while in politics?
(iv) South Indian states mentioned by you are the most superstitious states and it is not just my say, you can easily google and find as many as facts you want in support of this point. These are the states which you can easily convince with your art and theatre either this way or that way. Where as in North India, people don’t easily go sheeple on such things.
(b) Westernization: You said,” If so then rapes should be more in western countries and their papers and T.V. programs should be flooded /floated with such news”. With due respect to your senses have you ever imagined the level of infrastructure, basic facilities, human protection sensitivity and highest rate of action on complains in these countries? Can you make a comparison on these parameters with what is available on counters in India?
Another point, I have seen that people here are not even 10% on index of pain and irresponsiveness from administration. When it comes to delay in delivering services and facilities we Indians are at least 10 time higher capable because we are thrashed on habit of waiting and adjusting at every stage in our system by both legal as well as social. Try to put the westerns in shoe of living and earning conditions of an Indian and then compare, I bet you if they could even survive in conditions in which your Indian does; forget about an output of proper, responsible and descent behavior from them in such situations.

Moreover don’t misinterpret the statics here, crime and rape indices are no way lesser in these countries than India and you might have heard on same in similar T.V. debates going on this issues that U.S. is no way less in crime against women than India and that too after being a developed country of facilities and infrastructure. Do a google and see who from the world is at the top list of rapist index and undoubtedly you shall find these only countries? And when it comes to gender sensibility, they are as equal sensible as Indians. Read the 7th reference from bibliography in support of this point.
(c) Consumerism: You said “If it is because of consumerism then European society should be the most affected”. When to talk on rape index about consumerism, you should first provide the administrative functionaries like these countries have, individual social security systems like these countries have and then compare. Their administrative bodies hold a proper responsibility and liability to even a scratch on your body, so you can imagine that responding to a rape victim for them would be of what level priority? So first bring that sensitivity in system responsible and then let’s do a comparison between the two. Don’t forget you are protecting consumerism in a nation where even Home Minister and Commissioner level bureaucrats show insensitivity of lowest level, then forget about the sensitivity of 3rd or 4th class employee of your system.

Can you even imagine the level of social security system in these countries in comparison to what you and your governments have been delivering in our nation? You are appointed as an MP to prestigious Rajyasabha of India and it should be a question of shame in as equal proportion to any other MP so to you. You didn’t even speak a single word on it. Do you know sir; consumerism only can survive if individuals are fed-up with timely and quality services on which your government and system creep on grounds.

I hope that you also have the idea that US economy which is claimed to be the most consumer based economy is on the verge of fart? Why on verge of fart because consumerism has yielded the capitalism there and capitalisms have been the reason behind 1760’s French Industrial revolutions.

Consumerism can’t serve the people in equality in a country where resources and money is hold by a specific group of society, but it is the fact that consumerism is like that. Sir, you being in government of India please assure us something on establishing a profound social security system like European Countries and then only compare their consumerism with ours. Their consumerism provides security, is liable and responsible. Where as in our country consumerism treats us as a commodity, use and throw item put their ambitions on us and expects us to earn them money using our purchasing power and in return they owe no responsibility to human sensitization, such the kind of consumerism you want us to live in?

“Jai Dada Nagar Khede Ki”

Bibliography:
1) https://www.youtube.com/watch?v=Q1d__TGCHF4
2) http://www.bhaskar.com/article/INT-devadasis-systems-are-a-cursed-community-4231617-PHO.html?HF-20
3) http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/12/121210_devdasi_omer_pn.shtml
4) http://www.keralapolice.org/newsite/crime_against_women_2012.html
5) http://ncrb.nic.in/cii2010/cii-2010/Chapter%205.pdf
6) http://hyd-news.blogspot.fr/2013/03/andhra-pradesh-tops-in-crimes-against.html
7) http://www.nidanaheights.com/images/PDF/rape-mania.pdf
8) http://khabar.ndtv.com/video/show/news/272180
9) http://khabar.ndtv.com/video/show/badi-khabar/272177
10) http://www.bhaskar.com/article/UT-DEL-NEW-gudia-rape-case-rape-victim-is-recovering-fast-4243340-PHO.html?HT1