Friday, 24 April 2015

किसान सरकार और भगवान के भरोसे ना रहे| - नितिन गडकरी!

भगवान की तो बात आप छोड़ ही दो गडकरी साहब, रही सरकार की, तो एक तो यही बात जब दोबारा वोट लेने उतरो तो इसको 'चुनावी जुमला' बना के उतारना, अच्छे से पता लग जायेगा कि किसान आपके भरोसे है या आप किसान के|

दूसरी रही बात सरकार के भरोसे रहने वाली, ऐसा है जनाब आढ़त पे बैठ के किसान से बैर करना, घोड़े का घास से मुंह फेर लेने जैसा होता है| याद रखिये घास का तो घोड़े बिना काम चल जायेगा, पर घोडा दो दिन में भूखा मर जायेगा| और यहां यह घोडा आप हो और किसान घास| जिस दिन किसान ने पूरे FMCG sector को आप जैसों द्वारा सेकेंडरी प्रोडक्ट (secondary product) बनाने हेतु रॉ मटेरियल (raw material) रुपी अपना प्राइमरी प्रोडक्ट (primary product) ना देने का जाम बिठा दिया ना, उस दिन सारी अक्ल ठिकाने आ जाएगी| परजीवी हो के इतने बड़े बोल सजते नहीं आपके मुंह पे|

इसीलिए तो कहता हूँ, कि ऐसे लोगों को रेल-रोड जाम करने, जेल भरने या दिल्ली का दूध-पानी रोकने की भाषा समझ में ना आया करती, सारे किसान मिलके एक बार यह प्राइमरी और सेकेंडरी प्रोडक्ट के बीच की कनेक्टिविटी (connectivity) तोड़ के, एक महीना भी व्यापारियों से खाने-पीने के सामान को छोड़ (खाने-पीने का सामान भी इसलिए ताकि किसी व्यापारी का बच्चा बिना दूध के ना बिलखे) और इन धर्म के ठेकेदारों को दान-दक्षिणा और भाव ना देने का असहयोग आंदोलन चला दें तो नितिन गडकरी तो क्या, जनाब के फ़रिश्ते भी आके यह ना कहें तो कि 'हे किसान देवता, आप ही पालनहार हो, गलती हो गई माई बाप तोहफा कबूल करो!"
और ठेठ देशी समझ में आती हो तो देशी में सुन लो गडकरी बाबू, "दो दिन सिर्फ दो दिन तो गुजारे हमारे खेतों में हल पकड़ के, अगर ना आपके हांडे से पेट में भरी हवा फुस्स हो के खस्स हो जाए तो"।

अरे हम तो व्हट्स-एप्प, ट्विटर, फेसबुक वालों से जैसे मोबाईल कंपनियां रॉयल्टी/हिस्सेदारी मांग रही हैं, इंफ्रा प्रोवाइड करवाने की ऐसे देश के जीडीपी में खेती से आने वाले उस रॉ मटेरियल जिसके दम पे आपका पूरा FMCG sector चलता है, उसकी रॉयल्टी भी नहीं मांग रहे; फिर भी हमें चैन से ना जीने दे रहे| कसम दादा खेड़े की जिस दिन यह रॉयल्टी मांगनी शुरू कर दी ना तो जो यह खेती के नाम पे सिर्फ 14% जीडीपी दिखा रहे हो, यह 14 से 40 ना दिखे तो| शर्म कर लो जनाब कुछ! - फूल मलिक

क्या फर्क है 16/12/2012 में और 22/04/2015 में?:

फर्क सिर्फ इतना है कि 16/12/2012 को दिल्ली में 6 सिरफिरों ने एक लड़की का रेप किया था, और आज उसी दिल्ली में सिस्टम और सरकार दोनों ने मिलके किसानियत का रेप किया है|

गजेन्द्र सिंह राजपूत, किसान दौसा-राजस्थान की मौत, संसद भवन से सिर्फ पांच-सौ मीटर दूर जंतर-मंतर पर और सारा मेट्रो तबका सोया सा लगता है या अभी तक किसी को खबर नहीं मिली है जो तमाम मोमबत्ती गैंग अभी तक गुल हैं? या मेट्रो में रहने वाले इस रेप को रेप ही नहीं मानते? क्यों नहीं कोई निकला आज दिल्ली की सड़कों पर मोमबती ले के अभी तक?

क्या यह सिस्टम और सरकारों द्वारा खुले-आम किसानियत का रेप नहीं?

चलो कम से कम इस गूंगी-बहरी सरकार के गुर्गे अब यह तो नहीं कहेंगे कि किसान आत्महत्या नहीं कर रहे|

काश आज दिल्ली के जंतर-मंतर पर गजेन्द्र सिंह राजपूत की फांसी की जगह कोई गाय काटी गई होती, तो लाशें बिछ गई होती|| पर यदि कोई खेती की वजह से मर जाए तो कोई नहीं पूछता|

एक जानवर की रक्षा के लिए सजा का प्रावधान और उसी जानवर को पालने वाले व् देश-समाज को अन्न देने वाले किसान के लिए कोई इंडिया गेट पर एक मोमबत्ती भी नहीं लेकर निकला अभी तक? फिर उसकी सुरक्षा हेतु सजाओं के प्रावधान या कानून तो सपनों की बात हो चली|

वाह रे निरंकुशो और हृदयहीनों, गाय का दूध पीकर गोरक्षा करते हो और किसान का अनाज खाकर उसे मरने के लिए छोड़ देते हो। तुम्हारे चाक-चौबारों के बगल में अन्न पैदा करके तुम्हारा पेट भरने वाला, कपास पैदा करके तुम्हारा तन ढंकने वाला और गन्ना पैदा कर तुम्हारे पानों का स्वाद मीठा करने वाला, वो किसान फांसी झूल गया और तुम अंदर दुबके बैठे हो|

वाकई नराधमों का देश है ये|

सुध ले लो ओ इन गायों के रखवालों की रखवाली करने वालो, इनकी गायों को तो यह खुद बचा लेंगे, तुम पहले अपने को सम्भालो ओ किसानो; ये ना निकालेंगे अपने चौबारों से, तेरे लिए| 

किसान पर एक्सपेरिमेंटल राजनीति का दौर है यह: रहबरे-ए-आजम राय बहादुर दीनबंधु चौधरी सर छोटूराम से लेकर चौधरी चरण सिंह, सरदार प्रताप सिंह कैरों, चौधरी देवीलाल, चौधरी बंसीलाल और बाबा महेंद्र सिंह टिकैत तक, आप सबकी रैलियों में लाखों-लाख किसान पहुंचा करते थे अपने दुःख लेकर, पर क्या मजाल किसी को कभी खरोंच तक भी आई हो| सब सही सलामत घर वापिस पहुँचा करते थे, फिर भरी सभा में आत्महत्या तो सपनों जैसी बात है| निसंदेह यह किसान की भले की राजनीति का दौर नहीं, वरन किसान पर हो रही एक्सपेरिमेंटल राजनीति का दौर है|

जहां प्रधानमंत्री वास्कोडिगामा बने विश्व-भ्रमण में मशगूल हैं, अमेरिका जाते हैं, ऑस्ट्रेलिया - फ्रांस जा आते हैं, परन्तु वहाँ पे यह तक खोज के नहीं लाते कि उनके किसान इतने खुशहाल क्यों हैं| और एक जनाब तो सिर्फ बीस गज की दूरी पर उनकी रैली में फांसी पर झूल जाने वाले गजेन्द्र सिंह राजपूत किसान को ही नहीं बचा पाते और रैली भर लेते हैं समूचे किसान समाज का ठेका उठाने को|

किसी ने सही कहा है, "जब बनिया हो हाकिम, ब्राह्मण शाह और जाट मुहासिब तो जुल्म खुदा|" - फूल मलिक

इससे पहले कि आपके दादे-खेड़े आपसे और ज्यादा रूष्ट हों, छोड़ द्यो इनका पूंजड़!


दो-चार हिन्दुओं के धर्मपरिवर्तन कर इधर-उधर हो जाने वालों पर धरती-पाताल एक कर देने वाले योगी आदित्यनाथ, साक्षी महाराज, तमाम शंकराचार्य और साध्वियां व् इनके भगतगण किधर हो आप लोग; यह देखो यहां दो-चार नहीं रोज-की-रोज दर्जनों किसान आत्महत्या कर धर्म तो क्या गृह ही परिवर्तित किये जा रहे हैं; और यह तमाम हिन्दू हैं|

तुमको तो पहले से ही ज्यादा हिन्दू चाहिए ना, क्योंकि मुस्लिमों से लोहा जो लेना है| इसीलिए तो एक-एक हिन्दू औरत को 4-5 बच्चे पैदा करने की गुहार लगाते हो? अरे पहले जौनसे धरती पर हैं उनको तो संभाल लो या तुम्हारी सरकारों से सम्भलवा दो|

यह लोग तो शायद ना सुनें, परन्तु ओ जाटो-जमींदारों-किसानों की औलादो, तुम ही संभल जाओ, क्या इन हालातों को देखने के बाद भी इनके ही पूंजड़ पकडे रहने को मन मान रहा है? सुध लो अपनी स्वछंद छवि और मति की, आप तो खुद "देवता" होते आये हो इस समाज के| यह तो खुद दो दाने पैदा करके पेट नहीं भर सकते अपना, उसके लिए भी आपपे निर्भर हैं तो आपका क्या ख़ाक भरेंगे|

सच कह रहा हूँ, इससे पहले कि आपके दादे-खेड़े आपसे और ज्यादा रूष्ट हों, उनकी आत्माएं रोवें और आपको ही धिक्कारें, छोड़ द्यो इनका पूंजड़| - फूल मलिक

Friday, 17 April 2015

गुरु-नानक देव जी को छोड़ कर बाकी सब सिख-गुरु एक ही खानदान के!

मुझे नहीं पता आप में से कितनों ने यह बात आज तक गौर की है, परन्तु जहां पहले मैं यह कहता था कि सिख धर्म के दसों गुरु एक ही जाति के हैं, अब नई बात यह मिली कि प्रथम गुरु नानक जी को छोड़ के बाकी सब गुरु एक ही खानदान के हुए हैं| यह देखिये:

1) गुरु नानक देव जी ने उनके शिष्य लहना जी उर्फ़ गुरु अंगद जी को दूसरा सिख गुरु घोषित किया|

2) गुरु अंगद जी की बेटी तीसरे सिखगुरु गुरु अमरदास जी की भतीज बहु थी| भतीज बहु से गुरु अमरदास जी ने प्रेरणा ली और गुरु अंगद देव जी के पास पहुंचे और तीसरे सिख गुरु बने|
 

3) तीसरे गुरु अमरदास जी के बाद उनके जमाई गुरु रामदास जी चौथे सिख गुरु बने|

4) चौथे गुरु रामदास जी के छोटे सुपुत्र गुरु अर्जनदेव जी सिख धर्म के पांचवें गुरु बने (इनको जाट सिख बाबा बुड्ढा जी को दरकिनार कर गुरु बनाया गया था)|
 

5) पांचवें गुरु अर्जन देव जी के बाद इनके बेटे गुरु हरगोबिन्द जी को छटा सिख गुरु बनाया गया|
 

6) छटे गुरु हरगोबिन्द जी के बाद इनके पोते (पोत्र) गुरु हर राय जी सातवें गुरु बने|
 

7) सातवें गुरु हर राय जी के बाद इनके बेटे गुरु हर किशन जी आठवें गुरु बने|
 

8) आठवें गुरु हर किशन जी के चचेरे दादा गुरु तेगबहादुर जी नौवें गुरु बने|
 

9) नौवें गुरु तेगबहादुर जी के सुपुत्र गुरु गोबिंद सिंह जी दसवें गुरु बने|

मैं यह तथ्य लिखते हुए न्यूट्रल हूँ और सिर्फ जानकारी हेतु आपके समकक्ष रख रहा हूँ| इससे आप आगे क्या निष्कर्ष निकालते हैं, यह आपके विवेक और सूझबूझ पर है| - फूल मलिक

"कर्म किये जा फल की इच्छा मत कर ए इन्सान" सबसे बड़ा छलावा है!

यह पंक्ति मंडी-फंडी द्वारा अपने रास्ते खुले रखने के लिए बनाई गई है, कि किसान और कमेरा को हम इस पंक्ति के सहारे लूटते रहें और वो इसको आगे रख के गधे की तरह बस उनके लिए खेतो-क्यारों में कहीं किसान तो कहीं मजदूर बनके खटता रहे|

वर्ना जरा यह तो बता दो कि यह लोग खुद ऐसा कौनसा काम करते हैं जिसका फल पहले निर्धारित करके, उसके अनुसार अपेक्षित कार्य-योजना बना के कार्य ना करते हों?

अगर कॉर्पोरेट वाले इस लाइन के सहारे काम करने लग जाएँ तो उनके वर्क (work) की असेसमेंट (assessment) के फंडे किसलिए हैं| वर्क (work) का स्वोट एनालिसिस (SWOT Analysis) से ले के उसके इम्प्रोवमेंट्स (improvements) के स्कोपस (scopes) पे वर्कआउट (workout) क्यों करवाया जाता है?
कर्म की भूल से सीख ले के आगे बढ़ने की प्रेरणा लेने की बात क्या दर्शाती है कि अगर कर्म का फल आशानुरूप नहीं आया तो उसका अध्ययन करो और फिर नए सिरे से शुरू करो|

तो जरा मंडी-फंडी आये खुले मंच पे और साबित करे कि वो लोग गीता की इस पंक्ति को खुद भी फॉलो करते हैं|
इस पंक्ति का दूसरा उद्देश्य है अपनी कमियों को छुपाना और कहीं कोई इनकी असफलताओं पर प्रश्न-चिन्ह ना लगा दे उससे बचना:

उदाहरण:

1) सोमनाथ के मंदिर की लूट के लिए कौन जिम्मेदार था, आजतक निर्धारित नहीं| जबकि उसी लूट के लुटेरे महमूद ग़ज़नवी से इस लूट को छीनने वाले जाटों को तो लुटेरा तक भी लिख दिया गया है? क्या यही वो फल है, जिसकी चिंता ना करने की सलाह इस पंक्ति के जरिये दी गई है?

2) पृथ्वीराज चौहान द्वारा मोहम्मद गौरी को हराने और कैद करने के बाद फिर भी माफ़ी दे के छुड़वाने वाले लोग कौन थे? क्यों नहीं उन लोगों ने आजतक भी इस बात की जिम्मेदारी ली कि हाँ हमने गौरी को छुड़वाने की गलती की तो पृथ्वीराज की हत्या हुई और इस तरह हम इसके सीधे जिम्मेदार हैं|

3) अरब के व्यापारियों के साथ दुर्व्यवहार किसके और कौनसे व्यापारियों और राजदरबारियों ने किया; जिसकी वजह से कि भारत में बिन कासिम के रूप में पहला मुग़ल एंट्री मारा|

4) देश के गद्दारों के नाम पर जयचंद का ही नाम क्यों उछाले जाते हैं, वो पंडित नेहरू के दादा पंडित गिरधर कॉल का नाम किधर है, जिन्होनें महाराजा नाहर सिंह को धोखे से बुला चांदनी-चौक दिल्ली पर अंग्रेजों के हाथों फांसी लगवाई थी?

5) वो शोभा सिंह (लेखक खुशवंत सिंह के पिता) किधर हैं, जिनकी गवाही पर शहीद-ए-आजम भगत सिंह को फांसी हुई थी?

6) वो जोधा को अकबर से ब्याहे जाने का कलंक रुपी श्राप राजपूत समाज पर लगाने वाले सलाहकार किधर हैं, जिनके कहने पे यह ब्याह हुआ?

और भी ऐसे ही अनगिनत किस्से और उदहारण, किधर हैं इनके जिक्र, इनके जिक्र एक इस कहावत की आड़ में छुपे बैठे हैं कि 'कर्म किये जा फल की इच्छा मत कर ए इन्सान!'

और अब इसी लाइन को आगे अड़ा के कहीं ना कहीं यह लोग सरकार और प्रकृति की मिलीझुली मार से घायल किसान को कंट्रीसाइड में चिंता ना करने का पाठ पढ़ा के और ऐसी मेहनत करने का घोटा चढ़ा रहे होंगे जिसकी डोर इनके इशारों पे चलती सरकारों के हाथ में है| - फूल मलिक

Thursday, 16 April 2015

'जींद' शब्द 'जैन्तापुरी' से 'जिंद' के ज्यादा नजदीक लगता है!


कारण: जींद एक सिख जाट रियासत रही है| और पंजाबी भाषा का एक शब्द है "जिंद" यानी जान| वो गाना सुना होगा बॉलीवुड का, "जिंद ले गया वो दिल का जानी, ये बुत बेजान रह गया"| यही इस गाने वाला ही "जिंद"।
अब ठीक है एक शहर के नाम का एक वर्जन यह भी है कि इसका नाम अपह्र्न्श हो के 'जैन्तापुरी' से आया हो, परन्तु क्या एक बार जींद के शाही परिवार या शाही रिकॉर्डों से यह चीज कन्फर्म नहीं करवाई जानी चाहिए कि "जींद", "जिंद" से बना है या "जैन्तापुरी" से? वैसे भी हिंदी में उच्चारण करते हुए पंजाबी शब्द "जिंद" को बहुतेरे "जींद" बोल देते हैं| और क्योंकि यह रियासत तो सिख जाटों की रही परन्तु है हिन्दू-बाहुल्य, इसलिए हिंदी-भाषी क्षेत्र होते हुए 'जिंद' की जगह 'जींद' बोलने में आ जाता है|

इसके अलावा इंग्लिश व् ब्रिटिशर्स सबके रिकार्ड्स में इसकी स्पेलिंग "JIND" लिखी हुई है, "JEEND" नहीं| तो साफ़ है कि अगर यह जींद रहा होता तो रिकार्ड्स में भी JEEND लिखा गया होता| इंग्लिश में हिंदी की छोटी इ की मात्रा लिखने के लिए "I" का प्रयोग होता है और बड़ी ई की मात्रा लिखने के लिए "EE" का| इससे भी साफ़ स्पष्ट है कि जींद, जैन्तापुरी का नहीं अपितु जान वाले 'जिंद' शब्द से बिगड़ के 'जींद' बना है| तमाम गूगल जैसे सर्च इंजन की ट्रांसलेशन स्क्रिप्ट हों या और ट्रांसलेशन टूल हों, सब छोटी इ की मात्रा लिखने के लिए "I" का प्रयोग करते हैं और बड़ी ई की मात्रा लिखने के लिए "EE" का| तो इससे स्पष्ट है कि ब्रिटिशर्स ने इंग्लिश रिकार्ड्स बनाते वक्त इसकी स्पेलिंग "JIND" लिखी "JEEND" नहीं|

और आप पंजाब या पंजाबी भाषी क्षेत्रों में निकल जाओ, वहाँ लोग इसको "जिंद" ही बोलते हैं, "जींद" नहीं| दिल्ली तक में बहुतों को इसको "जिंद" कहते तो मैंने खुद भी सुना है| - फूल मलिक

http://www.chandigarh.amarujala.com/photo-gallery/wonderful-religious-place-where-is-ramayana-nad-mahabharata-too/

राखी-गढ़ी, हिसार में मिले हड़प्पा-मोहनजोदड़ो कालीन नर-कंकाल और हमारी सभ्यता पर उठते सवाल!

पहली तो बात इन्होनें पूरे इतिहास को ही उलझा के रखा है; रामायण-महाभारत के रचयिताओं, संरक्षकताओं और प्रचारकों व् इनको वैधानिक तौर पर सत्य बताने वाली पीठों-सीटों-संस्थाओं (वैसे मुझे आजतक यही ही नहीं पता चला कि इन मामलों पर सत्यता की मोहर लगाने वाली "फाइनल अथॉरिटी" है कौन हमारे धर्म में) तक में एक मत नहीं कि इनका सही-सही काल रहा कौनसा| कोई इनको 5000 साल तो कोई 100000 साल तो कोई 2000 साल तो कोई मेरे जैसा इनको मानवरचित कल्पना बताते हुए सातवीं-आठवीं सदी के इर्द-गिर्द लिखी हुई बताता है|

परन्तु राखी-गढ़ी में मिले यह नर-कंकाल इन दावों को और पेचीदा ही करने वाले हैं| क्योंकि कंकाल तो दफनाए हुए के मिला करते हैं, जबकि हिन्दू धर्म में तो मृत-शरीर को जलाने की रीत है और वो भी आज से नहीं महाभारत और रामायण के काल से| पांडव के संग उनकी दूसरी पत्नी माद्री का सति-प्रथा के तहत उनके साथ चिता में जलना, जैसे उदाहरण इसका प्रमाण हैं|

अभी हाल में स्टार-प्लस पर प्रसारित हुई महाभारत में घटोत्कच के शरीर को गोबर-उपलों की चिता पे रख के जलाया दिखाया जाना, निसंदेह महाभारत की उस कॉपी की तरफ इशारा करता है जिसको रिफरेन्स बना के यह सीन दर्शाया गया; जो कि अभी कुछ ही दिन पहले सोशल मीडिया पर वायरल हुए हिमाचल प्रदेश में मिले एक दानवरूपी कंकाल को घटोत्कच का बताये जाने से विरोधाभास खड़ा करता है| क्योंकि घटोत्कच तो हिन्दू था और उसको जलाया जाता है, दफनाया नहीं| अब कोई महामूर्ख यह तर्क लेते हुए मत आ जाना कि हिन्दू धर्म में मानवों को जलाया जाता था और दानवों को दफनाया| फिर मैं उसको रावण (एक राक्षस) की चिता में विभीषण द्वारा मुखाग्नि देने का उदहारण उठा लाऊंगा|

बुद्ध धर्म में भी इसके स्थापनकाल से मृत शरीर को जलाने की ही रीत है| तो फिर ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि या तो इन मृत-कंकालों के खोजकर्ताओं ने इनको हड़प्पाकालीन बताने में जल्दबाजी की है अथवा यह कंकाल जरूर मुग़लों के भारत आने के बाद किन्हीं मुग़लों के होंगे| अन्यथा यह कंकाल वास्तव में हड़प्पाकालीन हैं तो क्या उस वक्त भी यहां मुस्लिम जैसा कोई धर्म था? कम से कम इनका दफनाया हुआ पाया जाना, हिन्दू, सनातन, आर्यसमाजी, बुद्धिज़्म व् सिखिस्म धर्मों के अनुरूप तो है नहीं|

तो फिर यह हड़प्पा-मोहनजोदड़ो किसकी सभ्यता है जिसको हम अपनी बता के, खुद को प्राचीनतम मानवजाति व् सभ्यता बताने का दम्भ भरते आये हैं? - फूल मलिक

reference source: http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2015/04/150415_hisar_harappan_civilisation_skeleton_found_sr.shtml

भैंस का दूध मल्टीटास्किंग होता है जबकि गाय का दूध सिंगल-टास्किंग!


गाय का बछड़ा एक वक्त में एक ही काम कर सकता है, या तो उसको सांड बना के प्रजनन के लिए रख लो या फिर उसको "उन्ना" बना के यानी उसकी प्रजनन नली बंद करके हल में जोड़ लो|

जबकि भैंस का कटड़ा, दोनों काम एक साथ कर लेता है, यानि बोझा ढुवा लो या बुग्गी-ट्राली में जोड़ लो या सेम टाइम प्रजनन करवा लो| इससे भी बड़ी बात, सर्विदित है कि जहां कोर लोड का काम होता है वहाँ भैंसे, बैलों से ज्यादा कामयाब होते हैं| तमाम हरियाणा से पश्चिमी यू. पी. में गन्ने से भरी बुगियों को कीचड भरे खेतों से निकालने के लिए हट्टे-कट्टे झोटे ही ले जाए जाते हैं, बैल नहीं|

बैल सिर्फ हल्का-फुल्का बिना ज्यादा दबाव का ही काम कर सकता है वो भी "उन्ना" बनाने के बाद, जबकि भैंसा मस्त-मौला कहीं से भी भरी गन्ने की बुग्गी को उखाड़ ले जाता है|

विशेष: यह लेख उन लोगों के लिए एक ओपन डिबेट है जो सारे किसान समाज को गाय या भैंस में से कौनसा जानवर बढ़िया है की हठधर्मिता वाली शिक्षा देते फिरते हैं| और मेरा कहना है कि अगर तुलना करने लगोगे तो भैंस ज्यादा उपयोगी है गाय की अपेक्षा, लेकिन फिर भी कहूँगा कि दोनों में कुछ ऐसे गुण भी हैं जो एक के दूसरी से ज्यादा बेहतर हैं, इसलिए यह फैसला गाय या भैंस पालने वाले पे छुड़वा के इन तथाकथित फंडियों के ऐसे उपदेशों को दरकिनार किया जावे|

इससे भी जरूरी जानवर पालना किसान का कारोबार है धर्म नहीं, धर्म वालों को अगर किसी जानवर में उनकी माँ या बाप दीखता है तो ले जा के अपने धर्म-स्थलों में बाँध लेवें|

कोई आपसे अगर यह पूछे या कहे कि भैंस की जगह गाय क्यों नहीं पालते तो कहना:

नाथ परम्परा पे हमारे गाँवों के तरफ यह कहावत है कि, "मसोहका गोक्के पै नहीं जायेगा, परन्तु गोक्का मसोहके पे भी चला जाता है", यानी खागड़ इतना कामांध होता है कि वो भैंस-गाय में फर्क नहीं कर पाता परन्तु झोटा यानी भैंसा इतना सूझबूझ वाला होता है कि वह यह फर्क कर लेता है| इससे आप अंदाजा लगा लीजिये कि हमारे इधर नाथ परम्परा वालों को कामांध मानते हैं| और यह बाकायदा जांचा-परखा तथ्य है, किसी को पुष्टि करनी हो तो पांच-दस दिन - महीना भैंसों-गायों-खागड़-झोट्टों के झुण्ड का गवाला बन के खुद परख लो|

और खागड़ की इसी कामान्धता पे हमारे यहां एक कहावत और है कि "फलानि धकड़ी बात, तू के सांड छूट रह्या सै, आया बड़ा गोरखनाथ का चेल्ला, जाँदा नी!" बाकी मुर्राह भैंस देशी गाय से ज्यादा दूध देती है यह तो विश्वविख्यात है ही|

परन्तु फिर भी समझ नहीं आता कि लोग गायों के पीछे इतने पागल हुए क्यों फिर रहे हैं, क्या समाज के अंदर कामांधों (lustfull jerks) की संख्या बढ़ानी है?

अब पत्थर-जानवर पूजने-पुजवाने का नहीं, लोहे की आराधना का जमाना है:

खेती में काम आने की वजह से ही अगर कोई मेरा माँ-बाबू (तुम्हारी परिभाषा में, हमारी में तो जो जानवर थे वो जानवर हैं, और जो मशीनें हैं सो वो तो मशीनें हैं ही) बन जाता है, या कहा जाता है तो मैं आज से ट्रेक्टर-ट्राली को मेरा माँ-बाबू घोषित करता हूँ| क्योंकि जबसे किसान के घर में जन्म लिया है तब से ले के आजतक ट्रेक्टर-ट्राली ने ही मेरा पेट पाला है| सो आपकी परिभाषा के अनुसार (मेरी नहीं) आज से कोई सफेद जानवर नहीं अपितु यह मशीनें मेरे माँ-बाबू|

फंडियो जी किसानों ने तो टेक्नोलॉजी के सहारे इतनी तरक्की कर ली और आप हो कि अभी तक सातवीं-सत्रहवीं शताब्दी में जी रहे हो| ये देखो यहां गाय-बैल की जगह अब ट्रेक्टर-ट्राली हमारे माँ-बाबू बन चुके| तुम भी अपडेट करो अपने फंड रचने की कला को; ताकि फिर उसका आगे और कोई तोड़ निकालें हम|

अब पत्थर-जानवर पूजने का नहीं, लोहा पूजने का, ओह नहीं पूजना नहीं, उसकी आराधना करने का जमाना है|

गाय हमारी माता है, बैल हमारा बाप है के दिन.... गए रे भैया, गए रे भैया!
 ट्रेक्टर हमारा पापा और ट्राली हमारी मम्मा, के दिन .... आये रे दैया, हाय रे दैया ....

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

साधुओं-मोडडों-महंतों का "छोड़ा हुआ सांड", मेरी निडाना नगरी!


आज से करीब 125 साल पहले अस्थल बोहर के महंत चंदा मांगने मेरे गाँव निडाना नगरी, जिला जींद में आये थे| निडाना नगरी ने एक द्व्वनी भी नहीं दी| महंत जी अपने अहम में तीन दिन रुके रहे गाँव के बाहर कि मुझे भला चंदे-दान से कौन इंकार कर सकता है| तीन दिन दान-चंदा तो क्या जब कोई हाल-चाल भी पूछने नहीं आया उनके पास तो जाते-जाते बोले कि ओ निडाना नगरी के बाशिंदों, इतने बड़े महंत की थोड़ी सी तो इज्जत राख दो, एक रुपया ही दान दे दो, पर निडानिये टस-से-मस नहीं हुए| बोले कि बाबा रोटी-पानी खानी हो तो दस दिन खा, चंदे के नाम पे नहीं मिलेगी दवन्नी भी|

अंत में महंत को खाली हाथ ही यह कह कर अपना डेरा उठाना पड़ा कि "आज से मैं निडाना नगरी को साधुओं के नाम का खुल्ला-सांड छोड़ता हूँ|" वो दिन है और आज का दिन कोई साधु मेरे गाँव में रैन-बसेरा नहीं रूकता| और गलती से रुक जाता है तो शर्तिया लट्ठ खा के जाता है| क्योंकि सुल्फे-गांजे के धूमे लगाने के उलटे कुच्चों से इन्होनें बाज आना होता नहीं और यही गाम को सुहाता नहीं| आगे का तो पता नहीं परन्तु आजतक तो कोई मंदिर भी नहीं है मेरे गाम में, बस हमारे दादा नगर खेड़ा जी और गढ़ गजनी से हमारे पूर्वज देवता दादा मोमराज जी महाराज को गज़नी की बेगम के साथ कैद से निकल आने में मदद करने वाली कुलदेवी दादी चौरदे जी की मढ़ी हैं| - फूल मलिक

ओ जाटो, इन लोगों के लिए मंदिर भी बनवा दोगे तो भी तुम्हारा नाम नहीं लेंगे!


जाट से तो धर्म वाले भी इतनी नफरत करते हैं कि इनके लिए जाट अगर मंदिर भी बना के दे तो उसके आगे एक सूचनापट्ट पर यह भी लिख के नहीं लगा सकते कि यह फलां-फलां का बनाया हुआ है| उदाहरण भी कोई छोटा-मोटा नहीं, पूरे देश में तालाब के अंदर अमृतसर गोल्डन टेम्पल के बाद दूसरा इकलौता मंदिर जिला जींद, हरियाणा का रानी तालाब का भूतेश्वर मंदिर है| इस टेम्पल को जाट-रियासत जींद नरेश महाराजा रघुबीर सिंह संधु जी ने बनवाया था|

रन्तु ना ही तो मंदिर के पुजारियों व् ट्रस्टियों में इतनी दरियादिली कि मंदिर और रानी-तालाब के द्वारों पर महाराजा को श्रद्धा व् श्रद्धांजलिवश सूचनापट्ट ही लगवा दिए जावें, और ना ही भारत का आर्कियोलॉजिकल विभाग जो कि अमूमन ऐसी-ऐसी हर ऐतिहासिक धरोहरों पर मूल जानकारी बारे आधिकारिक सूचना पट्ट लगाते हैं, उन्होंने इसपे कुछ लगाया हुआ| जबकि इसी मंदिर के गेट पर एक सेठ परिवार ने विशाल गोलाकार (जो जींद के हैं वो जानते हैं) एंट्री गेट बनवाया तो उन जनाब का उस गोलाकार गेट बनवाने बारे बाकायदा सूचनापट्ट तक लगा हुआ है|

और ऐसी ही कहानी पुष्कर,राजस्थान में स्थित भरतपुर महल की है, जिसको कि बाद में पुजारियों को दान में दे दिया गया और आज उस महल पर स्वागतकर्ता परिवारों के तो नाम मिल जायेंगे परन्तु जिसकी यह ईमारत है उनका कोई निशाँ इसपे ढूंढने से भी बमुश्किल मिलता है| सिर्फ पूछने पर ही पता चलता है कि यह भरतपुर महल है|

इसीलिए कहता हूँ कि ओ जाटो अपनों को (दादा खेड़ों को) तो बिसरहाये फिरते हो और जिनके लिए बनवाते हो वो तुम्हें इतना भी आदरमान नहीं देते कि महाराजा के सम्मानवश एक सूचनापट्ट ही लगा देवें, फिर महाराजा के मान-सम्मान में समारोह करने-करवाने तो रही सपनों की बात|

मुझे माफ़ करना परन्तु दिल खोल के जो इतना साथ देते हों, उनके सम्मान में ऐसा सौतेलापन दिखाने वाले मेरे नहीं हो सकते| पर इनको यह याद दिलाना और मनवाना तो जरूरी है कि हमने और हमारे पुरखों ने इनके लिए क्या-क्या किया है| और यह तो सिर्फ एक उदाहरण है, ऐसे सैंकड़ों उदाहरण पूरी खापलैंड/जाटलैंड पे बिखरे पड़े हैं|

जय श्री दादा नगर खेड़ा! - फूल मलिक

Monday, 13 April 2015

नेट-न्यूट्रैलिटी और देश के प्रॉफिट प्लस जी.डी.पी. में खापलैंड के किसान की हिस्सेदारी!

जब से व्हट्स-ऐप, वाइबर, फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल मीडिया साइटों ने स्मार्टफोनों की दुनिया में एंट्री मारी है, टेलीफोन-मोबाइल कंपनियों ने इनके प्रॉफिट (profit) में यह कहते हुए हिस्सेदारी मांगी है कि क्योंकि हम इनको पहले से तैयार इंफ्रास्ट्रक्चर (infrastructure) प्रदान करवा रहे हैं, इसलिए इनके प्रॉफिट (लाभ) में हमारा भी शेयर (हिस्सा) होना चाहिए|

और दूसरी तरफ यह पंजाब-हरियाणा-एन.सी.आर.-पश्चिमी यू. पी. यानी मोटे तौर पर 'खापलैंड का भोला-भाला किसान', जिसको "इंफ्रास्ट्रक्चर" नाम की बला का या तो पता ही नहीं है या भाग्यवान मानवता से ही इतना भरा हुआ है कि अपने यहां इनके द्वारा तैयार किये गए इंफ्रास्ट्रक्चर का प्रयोग कर-कर के 1947 से ले 1984-86 और अब विगत दो दशकों से बिहार-बंगाल-आसाम व् तमाम देश से स्किल्ड-अनस्किल्ड (skilled-unskilled both) मजदूर-मैनेजर (labor-manager) और फैक्ट्री (industry) वाला यहां आ के इसको प्रयोग कर दशकों से मुनाफा कूटे जा रहा है और इनको इस बात का भान या फिर लालच ही नहीं है कि ऐसे भी कोई कमाई होती है|

कहीं इन्हीं बातों से ध्यान हटाये रखने के लिए तो नहीं, खापलैंड पे कभी कल्चर-क्राइसिस (culture crisis) तो कभी ह्यूमैनिटी क्राइसिस (humanity crisis) जैसे कि हॉनर-किलिंग, भ्रूण हत्या आदि के मुद्दों में ही स्थानीय बाशिंदे को उलझाये रखा जा रहा है और यह लोग चुपचाप ना सिर्फ हमारे बनाये इंफ्रा पे बिना हिस्सा/रॉयल्टी दिए मुनाफा कूटे जा रहे हैं अपितु देश-दुनिया में हमको सबसे क्रूरतम प्रजाति बना के पेश किये जा रहे हैं?

खापलैंड का किसान व् इसकी औलादों के लिए गौर-फरमाने की बात है कि क्या हमारे-आपके बुजुर्गों-पुरखों और हमारे द्वारा दिए गए इस इंफ्रास्ट्रक्चर की वजह से जो फैक्ट्रियां अथवा व्यापार धंधे वाले देश के कोने-कोने से आकर हमारे यहां मुनाफे कमा रहे हैं, उनमें हमारा हिस्सा यानी रॉयल्टी बनती है कि नहीं; ठीक वैसे ही जैसे सोशल मीडिया साइटों से इंफ्रा के नाम पर आज मोबाईल कंपनियां प्रॉफिट में हिस्सा लेने को चिल्ला रही हैं और लोग उनके खिलाफ नेट-न्यूट्रैलिटी (Net-Neutrality) का आंदोलन चलाये हुए हैं|

देख लेना यह आंदोलन चलाने वाले मोबाईल कंपनियों का "बाबा जी का ठुल्लु" भी नहीं उखाड़ पाएंगे और कल चुपचाप सोशल मीडिया साइटें प्रयोग करने की ऐवज में इनको एक्स्ट्रा (अतिरिक्त) चार्जेज दे रहे होंगे|

तो यहां सोचने का मुद्दा यह है कि आपकी यह इसी तरह की हिस्सेदारी ना मांगने की वजह से आज देश के जी.डी.पी. में एक दशक पहले तक खेती का जो हिस्सा 25% हुआ करता था आज 13-14% बताया जाता है| और कल को शायद इस दहाई के आंकड़े से भी उतार के इकाई के आंकड़े में बताया जावे| सो अगर हमें शुद्ध मुनाफा नहीं भी मिलता है तो इस बात के लिए तो आवाज उठाओ कि हाड-तोड़ मेहनत से समतल की हुई जमीन,बिजली-पानी-रोड की सुविधा (ofcourse हम और हमारे पुरखे मेहनती रहे हैं और विकास की हमारी नीयत रही तभी ही आज यहां सब सुविधाएं आई, वर्ना बिहार-बंगाल में क्यों नहीं बनी आजतक; वो भी बावजूद लेफ्टिस्टों का पैंतीस साल वहाँ राज रहने के) पर यह लोग ये जो फैक्ट्रियां बनाते हैं, उसकी रॉयल्टी देवें ना देवें परन्तु उसकी पर्सेंटेज जी.डी.पी. में जरूर जोड़ी जावे; खेती से मिले इंफ्रा और प्राइमरी यानी रॉ मटेरियल की वजह से जो FMCG यानी फ़ास्ट मूविंग कंस्यूमर गुड्स (Fast Moving Consumer Goods) का व्यापार इतनी सस्ती कॉस्ट ऑफ़ बिज़नेस (cost of business) पे चलता है, उसमें मेरे-आपके-हमारे दिए और बनाये हुए इस इंफ्रास्ट्रक्चर का भी हाथ है; इसलिए इसके प्रॉफिट शेयरिंग में हिस्सा तो मिले ही मिले साथ ही साथ देश का जी.डी.पी. जब कैलकुलेट हो तो उसमें खेती शेयर प्रोपोर्सनेट्ली (proportionate share of agri contribution) जोड़ा जाए| क्योंकि वास्तविकता यह है कि खेती का देश के शुद्ध जी.डी.पी. में हिस्सा 25 से 13 या 14 नहीं अपितु 35 या 30 तो बनेगा ही, अगर इसी तर्ज पर मापा या मपवाया गया, जिस तर्ज पर कि आज मोबाइल कंपनियां सोशल मीडिया साईट वालों से मांग रही हैं|

और इन सबसे भी बड़ी रॉयल्टी जो हम और आप स्थानीय लोग अपने दूसरे राज्यों से आये भाइयों को देते हैं, वो है हमारा-आपका लोकतान्त्रिक व्यवहार, जिसकी वजह से यह सब लोग यहां इतना बड़ा बिज़नेस खड़ा कर लेते हैं, मजदूर कम से कम मानवीय खतरे में अच्छा लाभ कमा लेते हैं, वर्ना तो भाषावाद और क्षेत्रवाद से ग्रसित मुंबई क्या थी नहीं; जहां कि बिहार-बंगाल-पूर्वियों को भाषावाद और क्षेत्रवाद के नाम पर खदेड़ा गया और हमारे इन भाइयों ने मुंबई जाने की बजाय, हमारी खापलैंड पे हम लोगों द्वारा दिए गए लोकतान्त्रिक भाषावाद और क्षेत्रवाद से मुक्त माहौल में आ के काम करने को बेहतरी समझा|

वो अलग बात है कि यह लोग अहम और अहंकार में कभी आपका-हमारा धन्यवाद नहीं करते, हाँ कोस जरूर लेते हैं हमको, कभी हमारे हरियाणवीपने के नाम पे तो कभी अखड़ मिजाजी के नाम पे, परन्तु फिर भी हम इनको मुंबई वाले माहौल में नहीं उलझाते|

इसलिए अपनी ताकत और अपने द्वारा दिए इस सोशल-प्रोफेशनल-इकोनोमिकल-कल्चरल इंफ्रा की ताकत को खापलैंड के किसान की औलाद पहचानें और खापें और खापलैंड के तमाम तरह के किसान संगठन व् युवा किसान औलाद, इससे देश को हो रही कमाई में हिस्सेदारी मांगनी शुरू करे|

कई दिनों से उधेड़बुन में था कि खापलैंड पर यह सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते ही जा रहे मानवीय-पलायन के बीच, हमारे यहां के स्थानीय बन्दे पर बढ़ चले सोशल-प्रोफेशनल-इकोनोमिकल-कल्चरल संकट का क्या हल हो; धन्य हो मोबाइल कम्पनियों, तुम्हारे सहारे मुझे भी यह मुद्दा उठाने का मौका मिल गया| - Phool Malik

पहले ही "Patent Crisis" से जूझ रहे देश के लिए उधार की टेक्नोलॉजी माँगना कितना जायज?

Development generated through borrowed technology will dense the patent credibility issue for an already ‘Globally Patent Crisis’ ridden nation and for generations nation won’t be able to smirk for its excellence.

Not at all the symptoms of a visionary leader!

सरकार क्यों विदेश-विदेश धक्के खा रहे हो तकनीक (technology) के लिये। हमारे पुराण-ग्रन्थ-वेदों में भरा पड़ा है ना सारा विश्व का तकनीक| शंकराचार्यों-आचार्यों-बाबाओं को क्यों नहीं सौंप देते यह काम, इनको भी बेतुकी-बेबाक जबान चलाने के अलावा कोई ढंग का काम मिल जायेगा करने को|

वो म्हारे हरियाणवी में एक कहावत है इस मौके की, "इतनै हांडै बगड़-बगड़, इतणे पीस ले रगड़-रगड़|"
चाहिए तो हमको यह कि पहले से ही पेटेंट-क्राइसिस (Global Patent Crisis) से जूझ रहे हम इंडियंस, अपने वेदों-पुराणों-ग्रंथों के मृतप्राय सूत्रों-दावों को खंगाल के, अपनी खुद की टेक्नोलॉजी विकसित करें, पर आप हो कि इस संकट को और जटिल बनाने में लगे हो| काश आप हमारी टेक्निकल विरासत को कोई ही विकसित करने, खंगालने के प्रोजेक्ट लांच करते, जिससे कि विश्व स्तर पर हमारे खुद के "पेटेंटों" की संख्या बढ़ती और मेरे जैसे अनाड़ी को भी पता लग पाता कि हम कितने टेक्निकल विरासत के धनी हैं| ऐसे कॉपी-कैट (copy-cat) से आप टेक्नोलॉजी तो बुलवा लोगे, परन्तु "पेटेंट" के लिए आगे की पीढ़िया इन्हीं के मुंह ताका करेंगी, जिनसे आप आज विदेशी टेक्नोलॉजी ले के देश में डाल रहे हो| और ऐसे में 'ईस्ट-इंडिया-कंपनी' की भांति कोई फिर से हमारा खसम बन के बैठ गया तो लेने के देने पड़ जायेंगे वो अलग से| इसलिए देशज टेक्नोलॉजी विकसित करवाओ जनाब देशज|

हमारे पास यह टेक्नोलॉजी, हमारे पास वह टेक्नोलॉजी, इतनी पुरानी टेक्नोलॉजी, इतनी प्राचीन टेक्नोलॉजी, वेदों की टेक्नोलॉजी, पुराणों की टेक्नोलॉजी, ग्रंथों की टेक्नोलॉजी, विश्व की प्राचीनतम खोजकर्ता, प्राचीनतम वैज्ञानिकों की टेक्नोलॉजी के तुर्रे छोड़ने वालों की पोल तो यहीं से खुल जाती है कि इनके मनकल्पित दावों और लेखनियों (हरियाणवी भाषा में पोथे-पण्डोकली) में कितनी टेक्नोलॉजी है और कितनी कल्पना|

यह सोच किसी भी मायने में दूरदर्शी नहीं|

अबकी बार तेरी फीकी बैशाखी ओ जट्टा!

ओंधे मुंह हुआ रब, गोड्डे चढ़ा जा टोटा,
अबकी बार तेरी फीकी बैशाखी ओ जट्टा!

काल भैरवी, पाताल भैरवी, धारें दूण का सोटा,
खा गया अकूत चूट, बढ़ा चाण्डालों का कोटा!
अपनी फितरत संगवा ले, कर साक्षी नूण का लोटा,
संगठन साधे बिना सधै ना, यू फंड-फंडी का ठोस्सा||
"गॉड-गोकुला" फेर हो बणना, मार क्रांति का घोट्टा|
अबकी बार तेरी फीकी बैशाखी ओ जट्टा!

सरकार का ना करतार का, खोट बड्डा तकरार का,
अचरच माचें अचम्भे, जै ना हो 'अजगर' इकरार का|
जोड़-जुड़ाने, तोड़-तुड़ाने कर, कर ले खोल करार का,
रयात-अँधेरी छंट ज्यागी, हो दूर तम-अंधकार रा||
राद बह चली अरमानां की, रह्या ना टींगर हट्टा-कट्टा|
अबकी बार तेरी फीकी बैशाखी ओ जट्टा!

खुली पण्डोकळी, सीख बांधणी,
ला ग्याँठ म्ह, खुले बाट-ताखड़ी|
मोकळे-मोर्चयाँ पै फैला दे वंश नैं,
ग्लोबल सोच धार कैं नश-नश म||
भर ज्ञान तैं इनको ज्यूँ, तेल पिलाया कट्टा|
अबकी बार तेरी फीकी बैशाखी ओ जट्टा!

फिर देख नज़ारे काळ के, देवै हुलारे सीळी बाळ के,
जलियावालां-रोहणात् लगाइये घी के दिए बाळ के!
मोरणी फेर चढ़ेंगी हवेलियां पै, गूंजें टामर टाक के,
'फुल्ले-भगत' खोज टोहणी, ज्यूँ बादळ छटें काळ के||
जमींदारों की परस सजो सदा, जैसे नभ के म्ह चंदा|
अबकी बार तेरी फीकी बैशाखी ओ जट्टा!

ओंधे मुंह हुआ रब, गोड्डे चढ़ा जा टोटा,
अबकी बार तेरी फीकी बैशाखी ओ जट्टा!

लेखक: फूल मलिक