Saturday, 13 October 2018

हरयाणवी सांझी, दशहरे, दुर्गा पूजा व् नवरात्रों (गरबों) में अंतर बताता मेरा तीन साल पुराना लेख!


Happy upcoming Sanjhi visarajn in advance!

दशहरे व् नवरात्रों के बारे तो मूलत: आप सभी जानते ही होंगे| आइए आपको बिलकुल सेम तारीखों में मनाये जाने वाले हरयाणा-हरयाणवियों के ठेठ त्यौहार "सांझी" बारे बताते हैं|

सांझी सिर्फ एक त्यौहार ही नहीं अपितु "खाप सोशल इकनोमिक साइकिल" का एक नायाब सिंबल भी रहा है|

मूल हरयाणवी परम्पराओं और समाज में हर त्यौहार को मनाने के आर्थिक इकॉनमी को चालू रखने के कारण प्रमुखता से होते आये हैं| उदारवादी जमींदारी सभ्यता से बाहुल्य इस समाज में हर त्यौहार या तो आर्थिक लाभ-हानि, लेन-देन से जुड़ा होता आया है या फसल चक्र से या फिर सामाजिक व् वास्तविक मान-मान्यता त्योहारों के जरिये सीखने-सिखाने के तरीकों से जुड़ा होता आया है| काल्पनिक कहानियों के आधार पर घड़े हुए त्योहारों से हरयाणा मुक्त ही रहा है|

अभी पड़ोसी राज्यों के शरणार्थी और विस्थापित भाई-बहनों के हमारे यहां पलायन के चलते और खुद हम कट्टर प्रवृति के ना होते हुए इन त्योहारों को मनाने लगे| परन्तु हमें अपने मूल त्यौहार भी कभी नहीं भूलने चाहियें|

जैसे कि हमारे यहां गुजरात के गरबों (नवरात्रों) व् सांझी विसर्जन के साथ-साथ सांझी विसर्जन की दशमीं की रात तमाम पुराने मिटटी के बने पानी रखने के लिए प्रयोग होने वाले बर्तन गलियों में फेंक के फोड़े जाया करते थे, जैसे मटका, माट आदि| और इसका कुम्हार की इकॉनमी से जुड़ा कारण हुआ करता| साल में एक बार यह पुराने हो चुके बर्तन फोड़ते आये हैं हम| क्योंकि इसी वक्त कुम्हार के चाक से बने नए बर्तन पक के तैयार हो जाया करते और उसकी बिक्री हो इसलिए हर घर पुराने बर्तन तोड़ दिया करता था|

हालाँकि सारे बर्तन नहीं तोड़े जाया करते, परन्तु कुम्हार को उसकी इकॉनमी चलाने हेतु सिंबॉलिक परम्परा बनी रहे, इसलिए हर घर कुछ बर्तन या जो वाकई में जर्जर हो चुके होते, उनको जरूर फोड़ा करता| और कुम्हार को उसके बिज़नेस की आस्वस्तता जरूर झलकाया करता|

खुद मैंने बचपन में मेरी बुआओं के साथ घर के पुराने मटके गलियों में फोड़ते देखा भी है और फोड़े भी हैं| इसको "जाटू सोशल इकनोमिक साइकिल" भी कहा करते हैं| मुझे विश्वास है कि जो चालीस-पचास की उम्र के हरयाणवी फ्रेंड मेरी लिस्ट में हैं वो मेरी इस बात से सहमत भी करेंगे|

ठीक इसी प्रकार हमारे यहां खेतों में गन्ना पकने के वक्त पहला गन्ना तोड़ के लाने पे दिए जलाये जाते थे, परन्तु इसको अवध-अयोध्या से इम्पोर्टेड दिवाली के साथ रिप्लेस करवा दिया गया|

बसंत-पंचमी तो सब जानते हैं कि सरसों पे पीले फूल आने की ख़ुशी में मनता आया है|

बैशाखी गेहूं की फसल पकने की ख़ुशी में मनती आई है|

आइये अब ठेठ-हरयाणवी भाषा में जानते हैं कि कैसे सांझी का त्यौहार इकनोमिक साइकिल के साथ-साथ कल्चरल लर्निंग्स भी देता है:

सांझी का पर्व: सांझी सै हरयाणे के आस्सुज माह का सबतैं बड्डा दस द्य्नां ताहीं मनाण जाण आळा त्युहार, जो अक ठीक न्यूं-ए मनाया जा सै ज्युकर बंगाल म्ह दुर्गा पूज्जा, या गुजरात म्ह गरबा अर अवध म्ह दशहरा दस द्यना तान्हीं मनाया जांदा रह्या सै|

हरयाणवी कल्चर में पराणे जमान्ने तें ब्याह के आठ द्य्न पाछै भाई बेबे नैं लेण जाया करदा अर दो द्य्न बेबे कै रुक-कें फेर बेबे नैं ले घर आ ज्याया करदा। इस ढाळ यू दसमें द्य्न बेबे सुसराड़ तैं पीहर आ ज्याया करदी। इसे सोण नैं मनावण ताहीं आस्सुज की मोस तैं ले अर दशमी ताहीं यू उल्लास-उत्साह-स्नेह का त्युहार मनाया जाया करदा। अर इस्ते नई पीढ़ी के बालकों ताहिं इस कस्टम की बारीकी खेल-खेल में सीखा दी जाया करती|

आस्सुज की मोस तें-ए क्यूँ शरू हो सै सांझी का त्युहार: वो न्यूं अक इस द्य्न तैं ब्याह-वाण्या के बेड़े खुल ज्यां सें अर ब्याह-वाण्या मौसम फेर तैं शरू हो ज्या सै। इस ब्याह-वाण्या के मौसम के स्वागत ताहीं यू सांझी का दस द्य्न त्युहार मनाया जाया करदा/जा सै। ब्याह-वाण्याँ का मौसम इसलिए क्योंकि इस वक्त जमींदार-किसान अपने खेती-बाड़ी से फ्री वक्त में होता था, या तो फसल पकाई पे आ चुकी होती थी या कट चुकी होती थी| तो घर में धन की उपलब्धता भी और वक्त भी दोनों होते थे| प्रैक्टिकल और व्याहारिक वजहें बता दी हैं, इसकी वजहें खामखा तंत्र-पंत्रों में जोड़ के देखने की जरूरत ना है|

के हो सै सांझी का त्युहार: जै हिंदी के शब्दां म्ह कहूँ तो इसनें भींत पै बनाण जाण आळी न्य्रोळी रंगोली भी बोल सकें सैं| आस्सुज की मोस आंदे, कुंवारी भाण-बेटी सांझी घाल्या करदी। जिस खात्तर ख़ास किस्म के सामान अर तैयारी घणे द्य्न पहल्यां शरू हो ज्याया करदी।

सांझी नैं बनाण का सामान: आल्ली चिकणी माट्टी/ग्यारा, रंग, छोटी चुदंडी, नकली गहने, नकली बाल (जो अक्सर घोड़े की पूंछ या गर्दन के होते थे), हरा गोबर, छोटी-बड़ी हांड़ी-बरोल्ले। चिकनी माट्टी तैं सितारे, सांझी का मुंह, पाँव, अर हाथ बणाए जाया करदे अर ज्युकर-ए वें सूख ज्यांदे तो तैयार हो ज्याया करदा सांझी बनाण का सारा सामान|

सांझी बनाण का मुहूर्त: जिह्सा अक ऊपर बताया आस्सुज के मिन्हें की मोस के द्य्न तैं ऊपर बताये सामान गेल सांझी की नीम धरी जा सै। आजकाल तो चिपकाणे आला गूंद भी प्रयोग होण लाग-गया पर पह्ल्ड़े जमाने म्ह ताजा हरया गोबर (हरया गोबर इस कारण लिया जाया करदा अक इसमें मुह्कार नहीं आया करदी) भींत पै ला कें चिकणी माट्टी के बणाए होड़ सुतारे, मुंह, पाँ अर हाथ इस्पै ला कें, सूखण ताहीं छोड़ दिए जा सैं, क्यूँ अक गोबर भीत नैं भी सुथरे ढाळआँ पकड़ ले अर सुतारयां नैं भी। फेर सूखें पाछै सांझी नैं सजावण-सिंगारण खात्तर रंग-टूम-चुंदड़ी वगैरह लगा पूरी सिंगार दी जा सै।

सांझी के भाई के आवण का द्यन: आठ द्यन पाछै हो सै, सांझी के भाई के आण का द्य्न। सांझी कै बराबर म्ह सांझी के छोटे भाई की भी सांझी की ढाल ही छोटी सांझी घाली जा सै, जो इस बात का प्रतीक मान्या जा सै अक भाई सांझी नैं लेण अर बेबे की सुस्राड़ म्ह बेबे के आदर-मान की के जंघाह बणी सै उसका जायजा लेण बाबत दो द्य्न रूकैगा|

दशमी के द्य्न भाई गेल सांझी की ब्य्दाई: इस द्यन सांझी अर उनके भाई नैं भीतां तैं तार कें हांड़ी-बरोल्ले अर माँटा म्ह भर कें धर दिया जा सै अर सांझ के बख्त जुणसी हांडी म्ह सांझी का स्यर हो सै उस हांडी म्ह दिवा बाळ कें आस-पड़ोस की भाण-बेटी कट्ठी हो सांझी की ब्य्दाई के गीत गांदी होई जोहडां म्ह तैयराण खातर जोहडां क्यान चाल्या करदी।

उडै जोहडां पै छोरे जोहड़ काठे खड़े पाया करते, हाथ म्ह लाठी लियें अक क्यूँ सांझी की हंडियां नैं फोडन की होड़ म्ह। कह्या जा सै अक हांडी नैं जोहड़ के पार नहीं उतरण दिया करदे अर बीच म्ह ए फोड़ी जाया करदी|

भ्रान्ति: सांझी के त्युहार का बख्त दुर्गा-अष्टमी अर दशहरे गेल बैठण के कारण कई बै लोग सांझी के त्युहार नैं इन गेल्याँ जोड़ कें देखदे पाए जा सें। तो आप सब इस बात पै न्यरोळए हो कें समझ सकें सैं अक यें तीनूं न्यारे-न्यारे त्युहार सै। बस म्हारी खात्तर बड्डी बात या सै अक सांझी न्यग्र हरयाणवी त्युहार सै अर दुर्गा-अष्टमी बंगाल तैं तो दशहरा अयोध्या व् थाईलैंड का त्युहार सै। दुर्गा-अष्टमी अर दशहरा तो इबे हाल के बीस-तीस साल्लां तैं-ए हरयाणे म्ह मनाये जाण लगे सें, इसतें पहल्यां उरानै ये त्युहार निह मनाये जाया करदे। दशहरे को हरयाणे म्ह पुन्ह्चाणे का सबतें बड्डा योगदान राम-लीलाओं नैं निभाया सै|

आप सभी को शुद्ध हरयाणवी त्यौहार सांझी की बधाई के साथ-साथ, गुजरात के गरबा, बंगाल की दुर्गा पूजा (नवरात्रे), अवध व् थाईलैंड के दशहरे की भी शुभकामनाएं|

जय योद्धेय! - फूल मलिक




Tuesday, 12 June 2018

दुलीना-गोहाना-मिर्चपुर-भगाना से दूबलधन-मोखरा तक!

दुलीना-गोहाना-मिर्चपुर-भगाना से दूबलधन-मोखरा तक:

यानि दलितों को जाटों से भिड़ाने या जाटों को दलितों का दुश्मन दिखाने या जाटों का भाईचारा तोड़ने से ट्राई करके अब ओबीसी के साथ वही एपिसोड दोहराने की इन कोशिशों में जाट ही सॉफ्ट-टारगेट क्यों है, जाट ही कॉमन क्यों है?

दलितों को आज के दिन यह चीज समझ आ चुकी है कि जाट उनका दुश्मन नहीं, बल्कि ऐसा दिखाने के षड्यंत्र किये गए थे| देखें ओबीसी को यह बात कब तक समझ आती है कि जाट दुश्मन उनका भी नहीं, परन्तु उनको कब तक यह बात समझ आती है, देखें|

चार-पांच साल से यह बदलाव देखा आपने?

दुलीना-गोहाना-मिर्चपुर-भगाना की बजाये दूबलधन-मोखरा रचने-रचवाने की साजिशें सामने आ रही हैं? इतना समझ लीजिये कि दोनों के पीछे ताकत एक ही है| वक्त रहते ही पहचान लीजिये|

दलित तो जाट के साथ प्रोफेशनल रिश्ते के तहत खेतों में काम करता रहा है, इसलिए यह बात समझ भी आ सकती थी कि उन प्रोफेशनल रिश्तों की कड़वाहट को जाट के दुश्मन दुलीना-गोहाना-मिर्चपुर-भगाना के जरिये भुना गए| परन्तु ओबीसी के साथ किस बात के मनमुटाव बढ़ाने के षड्यंत्र आजमाए जा रहे हैं, दूबलधन व् मोखरा के जरिये? अभी तक शुक्र है कि यह कांड हुए नहीं, परन्तु ऐसा करवाने की मंशा लिए लोग यहीं पर रुक जायेंगे इसकी कोई मियाद नहीं|

एक नाई ने बाल काटे तो जाट ने बदले में पैसा-तूड़ा-अनाज-हरा चारा दिया जाता रहा|
एक कुम्हारी ने मिटटी के बर्तन दिए तो जाट ने बदले में पैसा-तूड़ा-अनाज-हरा चारा दिया जाता रहा|
एक लुहार ने औजार बनाये तो जाट ने बदले में पैसा-तूड़ा-अनाज-हरा चारा दिया जाता रहा|
एक जुलाहे ने कपड़े-लत्ते-गाब्बे सीए तो जाट ने बदले में पैसा-तूड़ा-अनाज-हरा चारा दिया जाता रहा|
एक माली ने फल-फूल दिए तो जाट ने बदले में पैसा-तूड़ा-अनाज-हरा चारा दिया जाता रहा|

यहाँ तक कि एक बाहमण (वैसे आर्य-समाजी होने के कारण अधिकतर जाट यह कार्य खुद ही कर लिया करते थे, हाँ आजकल चलन में बदलाव जरूर है, परन्तु बदलाव अब वापिस जड़ों की तरफ मुड़ने भी लगा है) ने फेरे करवाए तो जाट ने बदले में पैसा-खाना दिया जाता रहा|

ना जाट ने कभी इनको चतुरवणीर्य व्यवस्था के तहत छूत-अछूत की तरह ट्रीट किया| ना जाट ने कभी देवदासियों की भाँति कभी किसी दलित-ओबीसी की बेटी का सार्वजनिक स्थल में सामूहिक बलात्कार किया (अब यहाँ पर्दे के पीछे होने या पाए जाने वाले अवैध संबंधों को जुल्म मत कह दीजियेगा, क्योंकि जो अवैध होता है वह जुल्म नहीं सहमति से होता है या किसी लोभ-प्रलोभन-लालच में होता है)| ना कभी किसी ओबीसी-दलित को बिहार-बंगाल के ओबीसी-दलित की भांति वहां के सवर्णों की भांति जाट ने इतना सताया कि उनसे तंग आकर मात्र बेसिक दिहाड़ी के लिए वह लोग हरयाणा-पंजाब में जैसे मारे-मारे फिरते हैं, ऐसे यहाँ का ओबीसी-दलित को कभी हरयाणा-पंजाब से बाहर जाना पड़ा हो (हाँ स्वेच्छा से बड़े व्यापार-नौकरी के चलते बेशक कोई गया हो, वह तो जाट भी जाते रहते हैं)|

जाट ने तो बल्कि चतुर्वर्णीय व्यवस्था को धत्ता बताते हुए, "गाम-गुहांड-गौत" के कांसेप्ट दिए| "छतीस बिरादरी, सर्वधर्म की बेटी सबकी बेटी" के सिद्धांत दिए और सिद्द्त से निभाए| आज भी बारातें जहाँ जाती हैं, वहां अपने गाम की छतीस बिरादरी की बेटी की मान बराबरी से करके आती हैं|

तो फिर क्यों ओबीसी को जाट का पीड़ित दिखाने की साजिशें अंजाम दिलवाने की दूबलधन व् मोखरा के जरिये कोशिशें हो रही हैं?

यह वक्त है जाट बुद्धिजियों, यौद्धेयों, खाप चौधरियों के जाग जाने का, और सोशल मीडिया व् ग्राउंड पर इन हकीकतों से हर ओबीसी को वाकिफ करवाने का, करवाए रखने का|

वरना रोहतक-झज्जर में जो यह करवाने को एंटी-जाट विचारधारा मंडरा रही है इसका अंत परिणाम यह होगा कि बैठे-बिठाये बिना किसी दोष के ओबीसी भी आपसे कट लेगा (हाँ समझेगा जरूर, जैसे दलित ने समझा; परन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी होगी) और खाजकुमार खैनी जैसों के जरिये तो ओबीसी का वोट ले जायेंगे और ठगपाल कालिख के जरिये जाटों का| हुड्डा-चौटाला आदि को भी अगर अपने क्षेत्र के इन हालातों की खबर है तो चुप ना बैठें| इस लेख की बातें अपने कैडर के जरिये ग्राउंड तक आप भी ले जा सकते हैं, ले जा सकते हैं कि इससे पहले देर हो जाए| और खैनी के जरिये ओबीसी का और कालिख के जरिये जाटों का वोट एंटी-जाट सोच के लोग ले उड़ें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 6 January 2018

कहलवा दो दिल्ली के नवाब को, "जाट सूरमे आये हैं और राणी हिंडौली को साथ लाये हैं! देखें वह राणी ले जाता है या हरदौल को देने घुटनों के बल आता है"!

महाराजाधिराज सूरजमल सुजान की पुण्यतिथि (25 दिसंबर 1763) को समर्पित !

1) दुर्दांत इतना कि जब सब अब्दाली के भय से दुबके हुए थे, वह बेख़ौफ़ अब्दाली के दुश्मनों यानि तीसरे पानीपत युद्ध के घायल बाह्मण पेशवा व् उनकी सेना की मरहमपट्टी कर रहा था!

2) दयालु इतना कि उसी को 'दुशाला पाट्यो भलो, साबुत भलो ना टाट, राजा भयो तो का भयो रह्यो जाट-गो-जाट' का तंज कसने वाले पेशवा सदाशिवराव भाऊ की घायल फ़ौज को अपने रोहतक से ले जयपुर तक फैले राज्य में शरण-रशद व् दवा-दारु देने का आदेश दे देता है|

3) कूटनैतिक ऐसा कि पानीपत युद्ध के घायल पेशवाओं की मदद करने से उससे क्रुद्ध अब्दाली ने जब उसे धमकाने की कोशिश करी तो ऐसा कुटिल जवाब दिया कि अब्दाली की भरतपुर पर हमला करके जाटों को सबक सिखाने की धरी-की-धरी रह गई|

4) वर्णवाद और जातिवाद से रहित ऐसा कि अपना खजांची चमार बनाया हुआ था और सेनापति-दूत गुज्जर को|

5) धर्मनिरपेक्ष इतना कि एक पाले मस्जिद बनवाता था तो दूसरे पाले मंदिर|

6) कौम समाज की इज्जत का इतना सरोकार कि दिल्ली नवाबों की कैद में पड़ी बाह्मण बेटी हरदौल को अपनी बेटी मानते हुए, अफलातूनी अंदाज में जब, "अरे आवें हो भरतपुर के जाट, दिल्ली के हिला दो चूल और पाट" का हल्कारा बोलता हुआ छुड़ाने निकला तो मुग़ल कह उठे, "तीर-चलें-तलवार-चलें, चलें कटारें इशारों तैं! अल्लाह मियां भी बचा नहीं सकदा जाट भरतपुर वाले तैं!!"

7) दबंग और आत्मविश्वासी इतना कि हरदौल को छुड़ाने वाले युद्ध में रानी हिंडौली को भी नवाब की ख्वाइस पर साथ ले गया था और गुड़गांव में डाल के पड़ाव संदेशा दिया कि, "कह दो नवाब को, जाट सूरमे आये हैं और राणी हिंडौली को साथ लाये हैं! देखें वह राणी ले जाता है या हरदौल को देने घुटनों के बल आता है!"

8) चतुर व् पारखी इतनी कि बाजीराव पेशवा व् सदाशिवराव भाऊ दोनों की उसको बंदी बनाने की, उसकी सेना का इस्तेमाल करने की चालें भांप, उनको चकमा दे तुरंत शिविर से बच निकला|

9) युद्ध कौशल का माहिर ऐसा कि बागरु (मोती-डूंगरी) की लड़ाई में मुग़ल-पुणे पेशवा-राजपूतों की 330000 की 7-7 सेनाओं को मात्र 20000 की छोटी सी फ़ौज के साथ 3-3 दिन रण में छका के हरा देता था|

10) मैत्री इतना कि जयपुर का ताज किसके सर सजेगा इसका फैसला हाथों-हाथ कर देता था और माधो सिंह के सर से ताज उतार राजा ईश्वरी सिंह के सर सजा देता था|

11) उसी की हृदय-विशालता ने समाज को "बिन जाटों किसने पानीपत जीते", "जाट मरा तब जानिये जब तेरहवीं हो ले" की कहावतें दी|

12) जिसकी दूरदर्शी सोच व् भवन निर्माण कला ने समूचे भारत का ऐसा किला लोहागढ़ दिया कि जिसको अंग्रेज भी 13-13 हमले करके जीत नहीं पाए और आखिरकार 'ट्रीटी ऑफ़ फ्रेंडशिप एंड इक्वलिटी' करनी पड़ी|
हिन्दू-हिन्दू चिल्लाने से हिंदुत्व नहीं आने वाला, असली हिन्दू-हीरों को सम्मान देना सीखो! उनकी महानताओं को बराबरी से गाना और उठाने का जज्बा रखो|

और आज के दिन नोट करो कि इस "एशियाई ओडियसस" व् "जाटों के प्लेटो" के नाम से मशहूर हुए अफलातून को कौन-कौन याद करने की हिम्मत जुटा पाता है| वरना छोड़ दो दोगलों के पीछे दुम हिलाना क्योंकि, 'यूँ व्यर्थ में काका कहें काकड़ी आज तक किसी को मिली हो तो तुम्हें मिलेगी!'

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आज 1 जनवरी यानि सर्वखाप बलिदान दिवस पर सर्वखाप-यौधेयों को कोटि-कोटि नमन व् इंग्लिश नववर्ष की शुभकामनाएं!

उदारवादी जमींदारे के इतिहास में तीन ऐसी विशाल किसान-क्रांतियां हुई हैं जिनमें से एक का आज बलिदान दिवस है, यह तीन रही हैं:

1 - मई से दिसंबर 1669 , 7 महीने हुई औरंगजेब के बढ़ाए गैर-वाजिब कृषि-करों के खिलाफ गॉड-गोकुला जी महाराज की अगुवाई में हुई सर्वखाप किसान क्रांति! इसके बारे विस्तार से नीचे पढ़ेंगे| 
2 - वर्ष 1907 में 9 महीने चली, अंग्रेजों के बनाए तीन गैर-वाजिब कृषि-कानूनों के खिलाफ चाचा सरदार अजित सिंह जी की अगुवाई में "पगड़ी संभाल जट्टा" शीर्षक से हुई किसान क्रांति| नतीजा कृषि कानून वापिस लिए गए व् चाचा अजित सिंह को आजीवन देश निकाला झेलना पड़ा| 
3 - वर्ष 2020-21 में 13 महीने चली, मोदी सरकार के बनाए तीन काले कृषि-कानूनों के खिलाफ, संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले| नतीजा काले कानून वापिस लिए गए| 

इस ऐतिहासिक परम्परा व् प्रेरणा की पृष्ठभूमि से निकलती है हमारी किनशिप| आईए जानते हैं कि सन 1669 वाली किसान-क्रांति में क्या कैसे हुआ था:  


ब्रज (हरयाणा व् वेस्टर्न यूपी दोनों का दक्षिणी हिस्सा व् उत्तरी-पूर्वी राजस्थान) के उदारवादी जमींदारों की थी सन 1669 की किसान-क्रांति, जिसने उत्तरी हिंदुस्तान का इतिहास बदल के रख दिया! उस क्रांति के अगुआ समरवीर अमरज्योति गॉड-गोकुला जी महाराज को 01/01/1670 को दर्दनाक मौत दी गई थी उन्हीं को समर्पित है यह विशेष आर्टिकल:

गॉड-गोकुला के नेतृत्व में चले इस विद्रोह का सिलसिला May 1669 से लेकर December 1669 तक 7 महीने चला और अंतिम निर्णायक युद्ध तिलपत, फरीदाबाद में तीन दिन चला| यह हिंदुस्तान के उस वर्ग यानि सर्वखाप की कहानी है जिसमें सर्वखाप के दिए अखाड़ा-कल्चर से उपजता मिलिट्री-कल्चर पाया जाता है|

कहानी बताने का कुछ कविताई अंदाज से आगाज करते हैं:
हे री मेरी माय्यड़ राणी, सुनणा चाहूँ 'गॉड-गोकुला' की कहाणी,
गा कें सुणा दे री माता, क्यूँकर फिरी थी शाही-फ़ौज उभाणी!
आ ज्या री लाडो, हे आ ज्या मेरी शेरणी,
सुण, न्यूं बणी या तेरे पुरखयां की टेरणी!
एक तिलपत नगरी का जमींदार, गोकुला जाट हुया,
सुघड़ शरीर, चुस्त दिमाग, न्याय का अवतार हुया!
गूँज कें बस्या करता, शील अर संतोष की टकसाल हुया,
ब्रजमंडल की धरती पै हे बेबे वो तै, जमींदारी का सरताज हुया!!
यू फुल्ले-भगत गावै हे लाडो, सुन ला कैं सुरती-स्याणी!

1) यह खाप-समाजों में पाए जाने वाले उस मिलिट्री-कल्चर की वजह से सम्भव हो पाता है, जो खापलैंड के गाम-गाम गेल पाए जाने वाले अखाड़ा-कल्चर से पनपता है, कि जब-जब देश-समाज को इनके पुरुषार्थ की जरूरत पड़ी, इन्होनें रातों-रात फ़ौज-की-फौजें और रण के बड़े-से-बड़े मैदान सजा के खड़े कर दिए| आईये जानें उसी मिलिट्री कल्चर से उपजी एक ऐतिहासिक लड़ाई की दास्ताँ, जिसकी अगुवाई करी थी 1 जनवरी 1670 के दिन शहीद हुए 'गॉड-गोकुला जी महाराज' ने|
2) यह हुई थी औरंगजेब की अन्यायकारी किसान कर-नीति के विरुद्ध ‘गॉड गोकुला’ की सरपरस्ती में| जाट, मेव, मीणा, अहीर, गुज्जर, नरुका, पंवारों आदि से सजी सर्वखाप की हस्ती में||
3) राणा प्रताप से लड़ने अकबर स्वयं नहीं गया था, परन्त "गॉड-गोकुला” से लड़ने औरंगजेब तक को स्वयं आना पड़ा था।
4) हल्दी घाटी के युद्ध का निर्णय कुछ ही घंटों में हो गया था| पानीपत के तीनों युद्ध एक-एक दिन में ही समाप्त हो गए थे, परन्तु तिलपत (तब मथुरा में, आज के दिन फरीदाबाद में) का युद्ध तीन दिन चला था| यह युद्ध विश्व के भयंकरतम युद्धों में गिना जाता है|
5) अगर 1857 अंग्रेजों के खिलाफ आज़ादी का पहला विद्रोह माना जाए तो 1669 मुग़लों की कर-नीतियों के खिलाफ प्रथम विद्रोह था|
6) एक कविताई अंदाज में तब के वो हालत जिनके चलते God Gokula ने विद्रोह का बिगुल फूंका:
सम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार, गिद्ध, चील उड़ते दिखाई देते थे|
हर तरफ धुंए के बादल और धधकती लपलपाती ज्वालायें चढ़ती थी|
राजे-रजवाड़े झुक चुके थे; फरसों के दम भी जब दुबक चुके थे|
यूनिवर्स के ब्रह्मज्ञानियों के ज्ञान और कूटनीतियाँ कुंध हो चली थी|
चारों ओर त्राहिमाम-2 का क्रंदन था, ना इंसान ना इंसानियत के रक्षक थे|
तब उन उमस के तपते शोलों से तब प्रकट हुआ था वो महाकाल का यौद्धेय|
उदारवादी जमींदार समरवीर अमरज्योति गॉड-गोकुला जी महाराज|
7) इस युद्ध में खाप वीरांगनाओं के पराक्रम की साक्षी तिलपत की रणभूमि की गौरवगाथा कुछ यूँ जानिये:
घनघोर तुमुल संग्राम छिडा, गोलियाँ झमक झन्ना निकली,
तलवार चमक चम-चम लहरा, लप-लप लेती फटका निकली।
चौधराणियों के पराक्रम देख, हर सांस सपाटा ले निकलै,
क्या अहिरणी, क्या गुज्जरी, मेवणियों संग पँवारणी निकलै|
चेतनाशून्य में रक्तसंचारित करती, खाप की एक-2 वीरा चलै,
वो बन्दूक चलावें, यें गोली भरें, वो भाले फेंकें तो ये धार धरैं|
(8) God Gokula के शौर्य, संघर्ष, चुनौती, वीरता और विजय की टार और टंकार राणा प्रताप से ले शिवाजी महाराज और गुरु गोबिंद सिंह से ले पानीपत के युद्धों से भी कई गुणा भयंकर हुई| जब God Gokula के पास औरंगजेब का संधि प्रस्ताव आया तो उन्होंने कहलवा दिया था कि, "बेटी दे जा और संधि (समधाणा) ले जा|" उनके इस शौर्य भरे उत्तर को पढ़कर घबराये औरंगजेब का सजीव चित्रण कवि बलवीर सिंह ने कुछ यूँ किया है:
पढ कर उत्तर भीतर-भीतर औरंगजेब दहका धधका,
हर गिरा-गिरा में टीस उठी धमनी धमीन में दर्द बढा।
9) राजशाही सेना के साथ सात महीनों में हुए कई युद्धों में जब कोई भी मुग़ल सेनापति God Gokula को परास्त नहीं कर सका तो औरंगजेब को विशाल सेना लेकर God Gokula द्वारा चेतनाशून्य उदारवादी जमींदारी जनमानस में उठाये गए जन-विद्रोह को दमन करने हेतु खुद मैदान में उतरना पड़ा| और उसको भी एक के बाद एक तीन हमले लगे थे उस विद्रोह को दबाने में|
10) आज उदारवादी जमींदारी (सीरी-साझी कल्चर वाली, समातंवादी जमींदारी नहीं) की रक्षा का तथा तात्कालिक शोषण, अत्याचार और राजकीय मनमानी की दिशा मोड़ने का यदि किसी को श्रेय है तो वह केवल 'गॉड-गोकुला' को है।
11) 'गॉड-गोकुला’ का न राज्य ही किसी ने छीना लिया था, न कोई पेंशन बंद कर दी थी, बल्कि उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली मुग़ल-सत्ता, दीनतापूर्वक, संधी करने की तमन्ना लेकर गिड़-गिड़ाई थी।
12) हर धर्म के खाप विचारधारा (सिख धर्म में मिशल इसका समरूप हैं) को मानने वाले समुदाय के लिए: बौद्ध धर्म के ह्रास के बाद से एक लम्बे काल तक सुसुप्त चली खाप थ्योरी ने महाराजा हर्षवर्धन के बाद से राज-सत्ता से दूरी बना ली थी (हालाँकि जब-जब पानी सर के ऊपर से गुजरा तो ग़ज़नी से सोमनाथ की लूट को छीनने, पृथ्वीराज चौहान के कातिल मोहम्मद गौरी को मारने, कुतबुद्दीन ऐबक का विद्रोह करने, तैमूरलंग को हराकर हिंदुस्तान से भगाने, राणा सांगा की मदद करने हेतु सर्वखाप अपनी नैतिकता निभाती रही)| जो शक्तियां आज खाप थ्योरी के समाज पर हावी होना चाह रही हैं, तब इनकी इसी तरह की चक-चक से तंग आकर राजसत्ता इनके भरोसे छोड़, खुद कृषि व् संबंधित व्यापारिक कार्य संभाल लिए थे| परन्तु यह शक्तियां कभी हिंदुस्तान को स्वछंद व् स्वतंत्र नहीं रख सकी| और ऐसे में 1669 में जब खाप थ्योरी का समाज "गॉड-गोकुला" के नेतृत्व में फिर से उठा तो ऐसा उठा कि अल्पकाल में ही भरतपुर और लाहौर जैसी भरतपुर और लाहौर के बीच दर्जनों शौर्य की अप्रतिम रियासतें खड़ी कर दी| ऐसे उदाहरण हमें आश्वस्त करते हैं कि खाप विचारधारा में वो तप, ताकत और गट्स हैं जिनका अनुपालन मात्र करते रहने से हम सदा इतने सक्षम बने रहते हैं कि देश के किसी भी विषम हालात को मोड़ने हेतु जब चाहें तब अजेय विजेता की भांति शिखर पर जा के बैठ सकते हैं|
13) हर्ष होता है जब कोई हिंदूवादी या राष्ट्रवादी संगठन राणा प्रताप, शिवाजी महाराज व् गुरु गोबिंद सिंह जी के जन्म या शहादत दिवस पर शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करते हैं| परन्तु जब यही लोग "गॉड गोकुला" जैसे अवतारों को (वो भी हिन्दू होते हुए) याद तक नहीं करते, तब इनकी राष्ट्रभक्ति थोथी लगती है और इनकी इस पक्षपातपूर्ण सोच पर दया व् सहानुभूति महसूस होती है| दुर्भाग्य की बात है कि हिंदुस्तान की इन वीरांगनाओं और सच्चे सपूतों का कोई उल्लेख, दरबारी टुकडों पर पलने वाले तथाकथित इतिहासकारों ने नहीं किया। हमें इनकी जानकारी मनूची नामक यूरोपीय यात्री के वृतान्तों से होती है। अब ऐसे में आजकल भारत के इतिहास को फिर से लिखने की कहने वालों की मान के चलने लगे और विदेशी लेखकों को छोड़ सिर्फ इनको पढ़ने लगे तो मिल लिए हमें हमारे इतिहास के यह सुनहरी पन्ने| खैर इन पन्नों को यह लिखें या ना लिखें (हम इनसे इसकी शिकायत ही क्यों करें), परन्तु अब हम खुद इन अध्यायों को आगे लावेंगे| और यह प्रस्तुति उसी अभियान का एक हिस्सा है| आशा करता हूँ कि यह लेख आपकी आशाओं पर खरा उतरा होगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आने वाले कल के नवदलित बन जायेंगे भारत के उदारवादी जमींदार अगर इन बातों पर गौर नहीं फ़रमाया तो!

धरती पर धन अर्जित करने के जरियों को मुख्यत: चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

1) धर्म के धंधों के जरिये
2) वस्तुओं व् मानवीय सेवाओं के व्यापार के जरिये
3) जमींदारी व् इससे संबंधित व्यापारों के जरिये
4) मजदूरी/कर्मचारी/नौकरी के जरिये

भारतीय जमींदारी में भी दो प्रकार हैं| एक सामंतवादी जमींदारी और एक उदारवादी जमींदारी| उत्तरी-पश्चिमी भारत में मुख्यत उदारवादी जमींदारी होती है, बाकी भारत में सामंतवादी जमींदारी होती है| दोनों में मुख्य अंतर् यह है कि सामंती जमींदारी छूत-अछूत,शूद्र-स्वर्ण व् ऊंच-नीच के भेद से चलती है जबकि उदारवादी जमींदारी सीरी-साझी यानि सुख-दुःख-आमदनी के वर्किंग पार्टनर कल्चर के मानवीय सिद्धांत पर| जहाँ-जहाँ देश में वर्णवादी व् शूद्र-स्वर्ण व्यवस्था हावी रही है वहां-वहां सामंती जमींदारी चली आई है और जहाँ-जहाँ सीरी-साझी संस्कृति रही है वहां उदारवादी जमींदारी|

इसको कुछ यूँ भी समझ लीजिये कि जहाँ-जहाँ उदारवादी जमींदारी है वहां के मजदूर को सिंपल दिहाड़ी करने हेतु भी इस क्षेत्र से कभी बाहर नहीं जाना पड़ा, उदाहरण के तौर पंजाब-हरयाणा-वेस्ट यूपी| और जहाँ-जहां सामंतवादी जमींदारी है वहां के मजदूर इतने पीड़ित-प्रताड़ित होते आये हैं कि उनको सम्मान व् इज्जत की बेसिक दिहाड़ी कमाने हेतु भी उदारवादी जमींदारी की धरती पर आना पड़ता रहा है, जैसे कि पंजाब-हरयाणा-वेस्ट यूपी में आने वाले प्रवासी मजदूर|

आज के दिन उदारवादी जमींदारी बाकी सबके निशाने पर है और इसको बचाये रखना है तो बाह्मण-राजपूत (इन दोनों का वह हिस्सा जो उदारवादी जमींदारी के तहत खेती करता है) जाट-गुज्जर-अहीर-सैनी-धानक-चमार आदि के तहत जो भी उदारवादी जमींदारी करने वाली जातियां हैं इनको समझना होगा कि जैसे धर्म के धंधे में बाह्मण वर्ण में भी सैंकड़ों जातियां होने के बावजूद यह लोग धर्म के जरिये अर्थ कमाने के उद्देश्य को ही सर्वोपरी रखते हैं|

जैसे बनिया-अरोड़ा-खत्री-जैनी-सिंधी आदि वस्तुओं व् मानवीय सेवाओं के व्यापार के जरिये धन कमाने के रास्ते में इनकी जातियों की भिन्नता को साइड रख, धन कमाने के मिनिमम कॉमन एजेंडा को आगे रख काम करते हैं|

और ऐसे ही मजदूरी/कर्मचारी/नौकरी, यह वर्ग भी अपनी न्यूनतम दिहाड़ी-तनख्वाह वगैरह के लिए जाति साइड में रख अर्थ की न्यूनतम सुनिश्चितत्ता किये रखते हैं|

ऐसे ही उदारवादी जमींदारी जातियों को भी दो वजहों से उनके बीच दिनप्रतिदिन बढ़ते जा रहे जातीय जहर को साइड करना होगा| दो वजह यानि एक तो खुद की निष्क्रियता, मिथक व् अज्ञान के चलते पैदा हुए मतभेद व् दूसरा धार्मिक व् व्यापारिक ताकतों द्वारा डाल दिए गए मतभेद|

जब तक इन दोनों को समझ के व् इनको अपनी जगह दिखाते हुए, अपने आर्थिक हितों पर ध्यान नहीं दिया जायेगा तो समझ लीजियेगा कि आने वाले समय के नवदलित आप ही होने वाले हो| चौड़े मत होना और किसी बहम में मत रहना, फिर बेशक उदारवादी जमींदार होते हुए आपकी जाति चाहे बाहमण ही क्यों ना हो, जाट, राजपूत, धानक चमार चाहे कुछ भी क्यों ना हो| जमींदार हो, शहरों में बसते हो तो भी आप आने वाले कल के नवदलित बनने वाले हो अगर समय रहते इस जातीय ईर्ष्या को साइड करके, उदारवादी जमींदारी जातियों का मिनिमम कॉमन एजेंडा बना के नहीं चले तो|

वैसे भी यह ईर्ष्या की बीमारी विगत सालों तक वर्णीय आधार पर तो देखने को मिल जाती थी परन्तु अब ऐसा लगता है कि यह 'खुद के सुवाद खुद ही लेने' जैसी जो एक बिमारी सी उदारवादी जमींदारों में लग चली है, अगर वक्त रहते इससे बाज नहीं आये तो यह जहर वर्णीय जहर से भी घातक होने वाला है| वर्णीय जहर जब तक था तब तक आप लोग कम से कम जातीय स्तर पर तो एक थे| अब तो आप खुद ही इसको खत्म करवाते जा रहे हो, कुछ 'खुद के सुवाद खुद लेने' के चक्रों में और बाकी धर्म-व्यापार-अंतरराष्ट्रीय ताकतों जैसी जो ताकतें मिलके आपको पीस रही हैं वह तो पीस ही रही हैं| और उनका यह पीसना तभी रुकेगा, जब आप इनके ही आपके बीच फेंके इस जातीय जहर के पाश को तोड़ने हेतु 'खुद के सुवाद खुद लेना' बंद नहीं करोगे| कर दो और मिनिमम कॉमन एजेंडा बना लो, वरना वही बात फिर तैयार रहो आने वाले वक्त के नवदलित कहलाने को|

अगर चाहते हो कि कल को प्रवासी मजदूरों की भांति आपको भी कहीं और से बेसिक दिहाड़ी कमाने जाना ना पड़े तो सतर्क हो जाईये| अपने पुरखों की विरासत में दी इस उदारवादी जमींदारी सिस्टम की सौगात और सोहरत पहचानिये कि सामंती जमींदारी के सताये लोग भी आपके यहाँ रोजगार और इज्जत पाते हैं| परन्तु अगर आपने ही इसकी पैरोकारी करनी छोड़ दी तो फिर कहीं खुद के ही उट-मटीले ना उठ जाएँ, दूसरों के सतायों को रोजगार देने तो सपनों की गर्भगाह जा ठहरेगी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जमीन-फैक्ट्री-मंदिर और दलितों की इच्छा!

लेख का निचोड़: किसी भी अवांछित व् अनजाने टकराव की जगह बचाव की राह पर चलना होगा, खासकर उदारवादी जमींदार को|

पहले तो यही समझते हैं कि जमीन-फैक्ट्री-मंदिर बनते कैसे हैं:

जमीन: ऐतिहासिक परिवेश से शुरू करें तो किसान के पुरखों ने जंगल-पहाड़ों-पत्थरों-रेही-बंजर जमीनें तोड़-काट के सर्वप्रथम खेती करने के लायक बनाई| इस काम में दिहाड़ी पर मजदूर लिए तो अधिकतर ने फसल पक के घर आने का इंतज़ार किये बिना दिन-के-दिन दिहाड़ियाँ दी| इसके बाद जितनी मेहनत इनको जमीन को खेती के लायक करने में लगी, उससे ज्यादा नानी याद दिलाई समय-समय पर हुए राजे-रजवाड़े-मुग़ल-अंग्रेज-सेठ-साहूकार-सरकारों आदि द्वारा कभी भूमिकर, तो कभी भारी माल-दरखास (टैक्स) भरवा के| कई बार यह टैक्स इतने भारी तक होते थे किसानों को कभी औरंगजेब के खिलाफ गॉड गोकुला की सरप्रशती में सशत्र विद्रोह करने पड़े तो कभी अंग्रेजों के खिलाफ जींद रियासत में लजवाना काण्ड जैसे विद्रोह करने पड़े, कभी गोहद की किसान क्रांति करनी पड़ी तो कभी वर्णवाद व् शुद्रवाद वाले चचों-दाहिरों-पुष्यमित्रों के खिलाफ युद्ध लड़ने पड़े| जाट जैसी जातियों ने तो इसकी रक्षा हेतु ऐसे बलिदान दिए कि इनके जमीन से प्यार को देखते हुए व् ऐसे भीषण अकालों में, शासनकालों में जब सेठ-साहूकार भी जमीनें सुन्नी छोड़ दिया करते तब भी जाटों ने अपने घर-ढोर तक गिरवी रख टैक्स भर जमीनें बचाई तो कहावत चली कि "जमीन जट्ट दी माँ हुंदी ए"! जहाँ-जहाँ उदारवादी जमींदारी थी वहां तो दलितों मजदूरो को फसल पक के घर आने का इंतज़ार किये बिना दिन-के-दिन दिहाड़ियाँ दी, परन्तु जहाँ सामंतवादी जमींदारी थी वहां-वहां बंधुवा मजदूरी ने दलितों को इतना परेशान किया कि दलित जमींदारों को दुश्मन समझने लगे| सामंती जमींदारी में तो पता नहीं परन्तु उदारवादी जमींदारी में जिन मजदूरों ने खेती को समझा उन्होंने अपनी लग्न व् मेहनत से खुद के खेत भी बनाये और जमींदार भी कहलाये|

फैक्ट्री: लगाने वाला मालिक एक होता है, इसमें काम करने वाले सैंकड़ों-हजारों दलित-ओबीसी-स्वर्ण तमाम तरह की जातियों के मजदूर| जिन मजदूरों ने इनसे सीखा उन्होंने मजदूरी छोड़ खुद की फैक्टरियां खड़ी कर ली|
यानि जमीन हो या फैक्ट्री, रिस्क, मेहनत-दिहाड़ी और इन्वेस्टमेंट मालिक की व् दिहाड़ी मजदूर की| अब आते हैं तीसरे पे|

मंदिर: यहाँ पे इन्वेस्टमेंट क्या है जमीन-फैक्ट्री व् दिहाड़ी वाले द्वारा दिया गया तथाकथित दान, परन्तु मालिक कौन, इस इनकम पर आधिपत्य किसका, पुजारी का|

अब समझते हैं दलितों की जमीन की मांग: अगर दलित जमीन मेहनत से कमाने हेतु मांग रहे हैं तो सरकार ने पहले भी जमीनें दलितों को दी हैं| उदाहरण के तौर पर लगभग 3-4 दशक पहले हरयाणा के लगभग हर गाम में 1.75 एकड़ जमीन कुछ दलित जातियों को प्रति परिवार दी थी| इनमें जो मेहनती और लग्न वाले थे वह इस 1.75 की डबल-ट्रिप्पल व् इससे भी ज्यादा बना चुके हैं, बाकी अधिकतर बेच चुके हैं| इससे पहले सर छोटूराम की सरकार में तीन लाख एकड़ के करीब खाली व् बंजर जमीन मुल्तान की तरफ वाले पंजाब में दी गई थी| वहां अब कितनी दलितों के पास व् कितनी किधर जा चुकी, इसका कोई पता नहीं लग सकता क्योंकि उसके बाद से वह एक अलग देश बन चुका है| परन्तु आज कई दलित ऐसे भी हैं जो जैसे जाट पंजाब-हरयाणा-वेस्ट यूपी में छोटी पड़ती जोत को देखते हुए मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में पट्टे पे या अन्य तरह के कॉन्ट्रैक्ट्स पर जमीनें लेकर वहां की पथरीली जमीनों को अपने पुरखों की भांति समतल बना खेती कर रहे हैं, ऐसे ही यह दलित भाई भी कर रहे हैं| और मेहनत करके जमींदार बनने की चाह रखने वाले हर जाट-दलित या अन्य जाति के किसान के पास यह एक खुला रास्ता है|

तो जमीन और फैक्ट्री तो ऐसा सिस्टम है कि इन पर तो मलकियत मेहनत के सरल रास्ते पर चलते हुए बड़ी आसानी से पाई जा सकती है|

परन्तु इन तीनों में मंदिर चीज ऐसी जो बनती सर्वसमाज की कमाई से है लेकिन इनसे होने वाली आमदनी पर एकछत्र कब्ज़ा पुजारी वर्ग का चल रहा है| इसके लिए दलित अगर आवाज उठावें तो इसमें कोई कानूनी दांवपेंच भी नहीं क्योंकि यह किसानों व् फैक्ट्री वालों की भांति अधिकतर केसों में टैक्स भी नहीं भरते हैं, सिवाय कुछ 1-2% सरकार द्वारा अधिग्रहित मंदिरों को छोड़ कर| और जिनमें टैक्स भरा जाता है उनमें भी बाकी की इनकम पुजारी वर्ग अकेला हजम करता है जबकि बँटनी वह सर्वसमाज में बराबरी से चाहिए| या सर्वसमाज के कार्यों में सर्वसमाज से पूछ कर लगनी चाहिए| परन्तु दोनों ही काम नहीं होते|

अब मैं इस बात पर तो नहीं जाना चाहूंगा कि यह सिर्फ जमीन चाहियें वाली बातें ही क्यों उठ रही हैं और कौन उठा या उठवा रहा है| परन्तु ऐसी आवाजों को चाहिए कि सबसे पहले मंदिरों के चंदे-चढ़ावे की सर्वसमाज में बराबरी से बंटवारे बारे आवाज उठावें| क्योंकि जमीन-फैक्ट्री वाला तो इस बात के कानूनी कागज भी पेश कर देगा कि उसने या उसके पुरखों ने वह जमीन या फैक्ट्री मेहनत से बनाई है, दान-चंदे के चढ़ावे से नहीं| इसलिए अगर ऐसी आवाज उठानी या उठनी ही है तो ऐसी सर्वसमाज की प्रॉपर्टी व् इनकम के लिए उठे जो बनती सबके योगदान से है परन्तु उसको भोगता सिर्फ पुजारी वर्ग है|

विभिन्न किसानी संगठनों (खासकर उदारवादी जमींदारी वाले) से अनुरोध रहेगा कि एक तो सबसे पहले इस नाजुक पहलु पर मिनिमम कॉमन एजेंडा के तहत इकठ्ठे होईये (मेरे ख्याल से इस पर किसी भी संगठन की दो राय या दो रास्ते नहीं होंगे) और इस पर मिलकर काम कीजिये| दलितों के बीच जाईये और उनसे पूछिए आप जमीन मेहनत करके पाना चाहते हैं ना? अन्यथा इससे पहले कि देर हो जाए और स्थिति विकराल रूप ले ले, इस लेख की भांति अपना पक्ष उनके आगे रखिये| मुझे आशा ही नहीं उम्मीद है कि दलित आपके मर्म को समझेंगे और जिससे वास्तव में ऐसे हक़ मांगने चाहियें यानि मंदिर, उनसे ही आमदनी में हिस्सेदारी बारे आवाज उठाएंगे और इसमें फिर उदारवादी जमींदारी को दलितों का साथ देना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए|

वरना फंडी ऐसी आवाजों के जरिये दलित-किसान जातियों के बीच एक और भीषण महासंग्राम की तैयारी करवा रहा है जिसको समय रहते व् सूझ-बूझ से जल्द-से-जल्द नहीं सुलझाया गया तो दलित-किसान तो आपस में माथा फोड़ेंगे ही, समानांतर में उधर फंडी इसके जरिये अगली 2-4 पीढ़ियों का तो न्यूनतम बैठ के खाने का जुगाड़ बना जायेंगे| इस मुद्दे पर दलित से नफरत मत कीजिये, भय मत खाईये; इन भाईयों के बीच जाईये बात कीजिये, अन्यथा फंडी-पाखंडी तो चाहता ही है कि आप लोग इस मुद्दे पर बिना बात किये बस कोरी नफरत के आधार पर आपस में कट-मरो| और ऐसा करोगे तो फिर आप चिंतक-विचारक किस नाम के हुए? इसलिए जागरूक व् लॉजिकल दलित और किसान इस नाजुक मुद्दे पर आगे आवें और न्यायकारी हल निकाला जाए| क्योंकि फंड-पाखंड व् वर्णवाद का भुग्तभोगी अकेला दलित नहीं अपितु उदारवादी जमींदार भी रहा है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 31 May 2017

पंजाब केसरी अख़बार नहीं मानता जाटों को हिन्दू!

अरे रलदू, भाई जरा पहुँचाना इस बात को "हिन्दू एकता और यूनिटी" चिल्लाने वाले अंधभक्तों तक; उनमें भी खासकर जाट अंधभक्तों तक तो जरूर से जरूर पहुँचवा भाई! जिन्होनें हिंदुत्व के नाम पर इनके गलों-पेटों व् दान-पेटियों में अपने घर के घर उड़ेल दिए| और पुछवा कि पंजाब केसरी की इस "हिन्दू एकता" तोड़ने वाली बात के विरोध में कितने आरएसएस वालों ने, कितने अन्य हिन्दू संगठनों ने पंजाब केसरी के कौनसे-कौनसे दफ्तर के आगे धरना दिया या इसका खंडन ही किया?

यही देश का चौथा स्तम्भ होने का दायित्व होता है क्या इन अखबारों का?

फिर लोग यह भी पूछ बैठते हैं कि जाट-जाट क्यों चिल्लाते हो; ऐसे लोग भी देख लो, जाट-जाट, जाट नहीं चिल्लाता बल्कि यह लोग चिल्लाते हैं| पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा भी नहीं होगा कि वो जाट हैं, यह तो इन्हीं को मिर्ची लगी हुई जाट को हिन्दू नहीं बता के सिर्फ जाट बताने की| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


100 % आरक्षण की मांग और किसानी मुद्दों को उठाना ही सही मार्ग रहेगा जाटों के लिए!

जिस कूटनीतिक तरीके से मोर्चेबंदी चल रही है ऐसे हालातों में अकेले आरक्षण के मुद्दे पर डटे रहने से जाट-समाज को आगे की राह नहीं मिलने वाली| आगे की राह मिलेगी किसानी मुद्दों को उठाने से जिसके लिए शायद अहीर-गुज्जर-मीणा व् अन्य किसानी जातियाँ भी जाटों की बाट जोह रही हैं कि कब जाट इस आरक्षण के मुद्दे से निबटें (या इसके समानांतर किसानी मुद्दे भी उठावें) और कब किसानों के मुद्दों को लेकर एकजुट हो किसानी-युग की वापसी करवाई जाए| हालाँकि अहीर-गुज्जर-मीणा व् अन्य किसानी जातियों की तरफ से फ़िलहाल ऐसा कोई संकेत भी नहीं आया है कि वो किसानी मुद्दों पर लड़ने को तैयार हैं| परन्तु इसकी संभावना ज्यादा है कि यह जातियां जाटों द्वारा किसानी मुद्दों पर आगे बढ़ने की इशारा मिलने वाली भाषा का इंतज़ार कर रही हों|

यह तो तय है कि चाहे कोई जाटों से कितना ही चिढ़ता रहे और कोई कितना ही कुछ कह ले; परन्तु उत्तरी भारत में किसानी मुद्दों पर जब जब कोई क्रांति या आवाज उठी; जाट सर्वदा से उसका अग्रमुख रहे हैं| कोई भी किसी अन्य किसान जाति का नेता अपने झूठे अहम् की तृप्ति हेतु कितना ही जाटों से किसान जातियों को तोड़ने के प्रयास कर ले, परन्तु किसान का हित जिस दिन चाहेगा; बिना जाट सोच ही नहीं पायेगा| और यह बात जाट के अलावा अन्य किसान जातियों को भी सोचनी होगी कि अपने जातिगत नेताओं के झूठे दम्भ पालने हेतु अपने किसानी हक यूँ ही बलि चढ़ाते रहोगे या इन नेताओं को यह भी कहोगे कि अगर किसान के भले की बात करके, सब किसान जातियों को साथ नहीं उठाते हो तो घर बैठो; कौम की आर्थिक बदहाली की कीमत पर तुम्हें और कितना पालें?

दूसरी बात, बीजेपी जाटों को आरक्षण देगी तो 2019 के चुनावों के आसपास देगी, वो भी इलेक्शन से 2-3 महीने पहले और 2-3 महीने बाद तक| और फिर वही स्टेटस-कवो मेन्टेन कर दिया जायेगा जाट-आरक्षण का जो आज है|

मेरा मानना है कि जाटों को अब वर्तमान व्यवस्था के तहत आरक्षण मांगने की अपनी रणनीति में दोहरा बदलाव लाना होगा| फ़िलहाल जो आरक्षण मिल रहा है वो लेने की मुहीम के साथ-साथ, इसके समानांतर "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी!" की तर्ज पर अन्य समाजों-वर्गों के साथ 100% आरक्षण की मांग का नया मोर्चा अभी से खड़ा करना शुरू करना होगा| या कम-से-कम नीचे-नीच उसकी नींव रखनी शुरू करनी होगी, ताकि जाट बनाम नॉन-जाट रचने वालों को इस मुद्दे पर तमाम 100% आरक्षण चाहने वाले वर्गों को एकजुट कर जवाब दिया जा सके|

आरक्षण को 100 % वाली लाइन पर लाना ही होगा और अन्य किसानी जातियों के साथ किसान मुद्दों पर जुड़ना शुरू करना होगा; वर्ना अनाचारी व् किसान कौम के दुश्मन लोगों ने आरक्षण के नाम पर जाट कौम में ही कुछ ऐसे गुर्गे फिट कर रखे हैं जो आपको जाट-जाट में उलझाए रखेंगे| यह गुर्गे चंदे का हिसाब भी नहीं दे रहे और हिसाब मांगने पर त्योड़ी चढ़ा रहे हैं और घुर्रा भी रहे हैं| इनको आदेश है कि ना खुद दूसरे मुद्दे उठाएंगे और ना आपको उन मुद्दों को उठाने की ध्यान आने देंगे, जिससे जाट अन्य समाजों से तो जुड़ेगा ही; साथ ही जाट बनाम नॉन-जाट के मुद्दे को भी गौण करने में मदद करेगा|

और यही आरएसएस और बीजेपी चाहती है कि यह जाट-जाट का अलाप 2019 के चुनाव तक भी कायम रहे ताकि दूसरे समाज खुद भी इनसे डरते रहें और रहे-सही मीडिया मैनेजमेंट के माध्यम से डराए जाते रहें; और ऐसे जाट के अलावा सबके वोट अपनी झोली में ले 2019 की सरकार फिर से परवान चढ़वा ली जाए|

हरयाणा में किसान राजनीति का दम भरने वाली राजनैतिक पार्टियों को भी यह समझना होगा कि राजनैतिक पार्टी के उठाने से मुद्दे आमजन के नहीं बना करते| लेकिन अगर राजनैतिक पार्टियां अपने कैडर को जनता का रूप दे, जनता के बीच उतार और जनता के गैर-राजनैतिक संगठनों की पीठ थपथपा किसानी मुद्दों को उठवावें और फिर उस माहौल में खुद उनकी आवाज बनें तो रास्ता सरल होगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 27 May 2017

"आम आदमी पार्टी" भी दावों के बावजूद चंदे के हिसाब में जो ट्रांसपेरेंसी नहीं दिखा पाई, वो दिखाई "सर्वखाप पंचायत" ने!



फरवरी जाट आंदोलन 2016 के पीड़ितों की मदद हेतु "जाट सर्वखाप" ने ट्रस्ट बना कर जो "4 करोड़ 59 लाख" रूपये (राउंड फिगर, डिटेल्स देखें सलंगित वेबपेज पर) चंदा एकत्रित किया था, व् इसके अतिरिक्त ज्ञात सूत्रों से जो कुल "12 करोड़ 91 लाख रूपये" (राउंड फिगर, डिटेल्स देखें सलंगित वेबपेज पर) चंदा आया; 26 मई 2017 को रोहतक में प्रेस कांफ्रेंस कर उसकी "पाई-पाई का हिसाब" समाज के समक्ष रख; अपनी उस सदियों पुरानी नि:स्वार्थ सेवा व् समाज के प्रति निष्ठां और जवाबदेही की छवि को पेश किया जो अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी तक में दावों के बावजूद देखने को नहीं मिली|

खाप-चौधरियों की मुख्य भूमिका वाले “जाट-समाज राहत कोष ट्रस्ट” का यह सम्पूर्ण हिसाब-किताब देने का कुलीन कार्य इस बात का फिर से साक्षी बन गया कि क्यों खापें सदियों से लगातार आज भी क्यों वाजिब हैं|

इस चंदे के बैंक अकाउंट, CA की ऑडिट रिपोर्ट्स, चंदा आवंटन की वर्गीकृत रिपोर्ट्स समेत तमाम रोचक तथ्य देखें इस लिंक से: http://www.khapland.in/khaplogy/jsrkt-donation-report/

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Sunday, 21 May 2017

यह गहनता से समझने की बात है कि भारत में दो तरह की जमींदारियां होती आई हैं!

एक सामंती जमींदारी और दूसरी मेहनती जमींदारी|

सामंती जमींदारी यानी जो खुद खेत में काम नहीं करते, परन्तु खेत के किनारे या हवेली के अटारे खड़े हो सिर्फ आदेशों के जरिये ओबीसी, दलित, महा-दलित मजदूरों से खेती करवाते आये हैं| यह जमींदारी बिहार-बंगाल-उड़ीसा-पूर्वी यूपी से ले मध्य-दक्षिण व् पश्चिम भारत तक भी रही है और आज भी है|

दूसरे रहे हैं मेहनती जमींदार यानि वो जो खेत में मजदूर के साथ खुद भी खटते रहे हैं| यह जमींदारी मुख्यत: पंजाब-हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-उत्तराखंड व् उत्तरी राजस्थान के क्षेत्रों में पाई जाती है|

दोनों में समानता कुछ नहीं सिवाय इसके कि जमीन के मालिक होते हैं| हाँ, असमानताएं इतनी है कि गिनने चलो तो साफ़ स्पष्ट समझ आ जायेगा कि मेहनती जमींदारी वाली खापलैंड की धरती, बाकी के भारत की धरती से ज्यादा समृद्ध-सम्पन्न-विकसित व् खुशहाल क्यों रही है|

नंबर एक अंतर: सामंती कभी दलित-मजदूर की अपने पर परछाई तक नहीं पड़ने देता| जबकि मेहनती जमींदार उसके साथ ना सिर्फ खेत में खटता है अपितु एक ही पेड़ के नीचे बैठ के खाना भी खाता है और एक ही बर्तन से पानी भी पीता रहा है| हाँ, कुछ एक अपवाद मेहनती जमींदारी में भी तब बन जाते हैं जब अगर जमींदार जातिवाद व् वर्णवाद की मानसिकता से ग्रसित हो तो|

नंबर दो अंतर: सामंती जमींदारों के एरिया नदियों-धरती के पानियों की भरमार होने पर भी कभी देश को अन्न देने वाले अग्रणी राज्य नहीं बन सके| लेकिन मेहनती जमींदारी क्षेत्र वाले दो-दो हरित-क्रांतियों से ले श्वेत क्रांति तक के धोतक रहे|

नंबर तीन अंतर: सामंती जमींदारी वाली धरती के दलित-महादलित-ओबीसी को बेसिक दिहाड़ी-मजदूरी वाली आजीविका कमाने हेतु भी मेहनती जमींदारों वाली धरती पर आना पड़ता है| जबकि मात्र बेसिक दिहाड़ी के लिए मेहनती जमींदारी की धरती का कोई मजदूर सामंती जमींदारी वाली धरती वालों के यहाँ नहीं जाता|

नंबर चार अंतर: सामंती जमींदारी का जमींदार हद से आगे तक मानसिक गुलाम प्रवृति का रहा है, इसलिए अपने नीचे गुलाम रखने की रीत चलाई| जबकि मेहनती जमींदारी का जमींदार सदियों से कच्चे-पक्के कॉन्ट्रैक्ट्स के तहत सीरी रखता आया है|

नंबर पांच अंतर: सामंती जमींदारी में दलित मजदूर को नए कपड़े तक पहनने से पहले दस बार सोचना पड़ता है| जबकि मेहनती जमींदारी वाली धरती पर दलितों तक के घर-मकान जमींदारों की टक्कर तक के होते आये हैं|

नंबर छह अंतर: सामंती जमींदारी में या तो बेहद गरीब हैं या बिलकुल अमीर| जबकि मेहनती जमींदारी की धरती पे गरीब-अमीर का अंतर सबसे कम रहा है|

नंबर सात अंतर: सामंती जमींदारी में दलित-मजदूर की बहु-बेटी अपनी बहु-बेटी नहीं मानी गई| जबकि मेहनती जमींदार की धरती पर दलित-स्वर्ण सब छत्तीस बिरादरी की बेटी पूरे गाम की बेटी मानी गई|

नंबर आठ अंतर: सामंती जमींदारी में ब्याहने गए गाम में अपने गाम की बेटी की मान करने की कोई रीत नहीं मिलती| जबकि मेहनती जमींदारी सिस्टम की धरती पर, जिस गाम में बारात जाती रही है, वहां उनकी 36 बिरादरी की बेटी की मान करके आने की रीत रही है|

नंबर नौ अंतर: सामंती जमींदारी में जमींदार खलिहान से अन्न अपने घर पहले ले जाता है और बाकियों का हिसाब बाद में करता है| जबकि मेहनती जमींदारी सिस्टम की धरती पर जमींदार खलिहान से ही लुहार-कुम्हार-नाई-खात्ती आदि का हिस्सा अलग करके तब अन्न घर ले जाता आया है|

नंबर दस अंतर: सामंती जमींदारी अधिनायकवाद पर चलती है, जबकि मेहनती जमींदारी लोकतांत्रिकता व् गणतन्त्रिकता के सिद्धांत पर|

नंबर ग्यारह और सबसे बड़ा अंतर: सामंती जमींदारी का जमींदार मजदूर के साथ नौकर-मालिक का रिश्ता रखता है| जबकि मेहनती जमींदारी का जमींदार मजदूर के साथ सीरी-साझी यानि पार्टनर्स का वर्किंग कल्चर रखता आया है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 20 May 2017

भारत के मुग़ल-अंग्रेज गुलामीकाल के वो ऐतिहासिक सुनहरे पन्ने जब भारतीय सिंह-सूरमों ने "दिल्ली" पर 5 बार विजय पताका फहराई!

1) सन 1753 में भरतपुर (ब्रज) के महाराजाधिराज अफलातून सूरजमल सुजान ने दिल्ली जीती! और ऐसी झनझनाती टंकार पर जीती कि कहावत चल निकली, "तीर चलें तलवार चलें, चलें कटारे इशारों तैं; अल्लाह मिया भी बचा नहीं सकदा जाट भरतपुर आळे तैं"!

2) सन 1757 में मराठाओं ने कमांडर रघुनाथ राव की अगुवाई में दिल्ली जीती|

3) सन 1764 में भरतपुर के ही महाराजा भारतेन्दु जवाहरमल ने दिल्ली जीती और मुग़ल राजकुमारी का हाथ नजराने में मिला परन्तु अपनी सेना के फ्रेंच कप्तान समरू को नजराने में दे दिया| हाँ, चित्तौड़गढ़ की महारानी पद्मावती के काल से अल्लाउद्दीन खिलजी द्वारा वहां के किले का उखाड़ कर लाया गया अष्टधातु का दरवाजा जो तब से अब तक दिल्ली लालकिले की शोभा बढ़ा रहा था, वह जरूर उखाड़ के भरतपुर ले गए| जो कि आज भी भरतपुर के दिल्ली दरवाजे की शोभा बढ़ा रहा है| यह जीत "जाटगर्दी" व् "दिल्ली की लूट" के नाम से भी जानी जाती है|

4) सन 1783 में सरदार बघेल सिंह धालीवाल ने दिल्ली को फत्तह किया! और दिल्ली में एक के बाद एक 7 गुरुद्वारे स्थापित किये|

5) सन 1834 में शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह संधावालिया ने शाहसूजा को हराकर उससे कोहिनूर हीरा नजराने के रुप में लिया और दिल्ली फतेह की !

क्योंकि लेख में जिक्र गुलामी काल में भारतियों द्वारा दिल्ली जीतने का था, इसलिए दिल्ली की जीत की तारीखों पर फोकस रखा गया| इसके अलावा जो सबसे मशहूर और विश्व सुर्ख़ियों में छाने वाली जीतें थी, वो थी भरतपुर में अंग्रेजों की एक के बाद एक 13 हारें| जो इतनी बुरी थी कि इधर भरतपुर में भरतपुर सेनाएं अंग्रेजों को मार पे मार मारे जा रही थी और उधर कलकत्ता में अंग्रेजन लेडीज अंग्रेज अफसरों व् सैनिकों की लाश पे आती लाशें देख कर इतनी रोई कि कहावत चल निकली, "लेडी अंग्रेजन रोवैं कलकक्ते में!"

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 19 May 2017

फिल्मों व् सीरियल्स में दिखाई जाने वाली कल्चर-मान-मान्यताओं पर चौपाल स्तर के विश्लेषण, समय की मांग है!

कोई कह रहा है कि संस्कृति-संस्कार बदल रहे हैं!
कोई कहता है हमारा समाज तेजी से बदल रहा है, जो कि बहुत खतरनाक है!
कोई इसको समय की मांग बता रहा है!
कोई इसी को आधुनिकता बता रहा है कि बदलने दो, यही बदलाव है!

इन प्रतिक्रियात्मक विचारों में कहीं बेसमझी स्वीकार्यता है, कहीं चिंता है, कहीं बेचैनी और कहीं उलझन|
कहीं लोग ऐसी प्रतिक्रियाएं देते वक्त संस्कृति-संस्कार और सामाजिक पहचान व् किरदार को मिक्स तो नहीं कर रहे? मुझे तो ऐसा ही लग रहा है|

क्योंकि संस्कृति-संस्कार-मान-मान्यताएं बदलती तो सदियों से चले आ रहे बाइबिल-कुरान-गीता-रामायण-महाभारत-गुरुग्रंथ आदि भी बदल गए होते, नहीं?

क्योंकि संस्कार-संस्कृति-मान-मान्यताएं बदलती तो सदियों से चले आ रहे चर्च-मस्जिद-मंदिर-गुरुद्वारे भी बदल गए होते, नहीं?

क्योंकि संस्कार-संस्कृति-मान-मान्यताएं बदलती तो मराठी-बंगाली-पंजाबी-गुजराती-मलयाली-उड़िया-बिहारी-पहाड़ी-सिंधी-पारसी-कन्नड़ी आदि सब सामाजिक समूह बदल चुके होते, नहीं?

मगर हाँ, इस बीच एक चीज जरूर बदल रही है, दरअसल कहूंगा कि कंफ्यूज हुई अनराहे पर खड़ी है| ऐसे अनराहे पर जो ना तो दोराहा है, ना तिराहा, ना चौराहा; असल में समझ ही नहीं आ रहा कि कितने राहा है?

इसके नाम पे आने से पहले इसकी समस्या पे बात करते हैं| समस्या हैं दो| एक तो यह कि यह हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-राजस्थान-पंजाब के तथाकथित मेजोरिटी धर्म वाले जमींदार के "के बिगड़े से", "देखी जागी", "यें भी आपणे ही सैं" वाले अभिमानी अतिविश्वासी स्वभाव की है| दूसरी बात में बड़ा उल्टा सिस्टम है| बाहर से आये हुए शरणार्थी, नौकरी-पेशा-व्यापारी वर्गों के साथ मिक्स होने की ललक बाहर से आये हुए लोगों से ज्यादा इन स्थानीय जमींदार वर्ग के लोगों को है| और इन स्थानियों में से जो शहर को निकल जाते हैं, उनके तो बाप रे कहने ही क्या| बाजे-बाजे तो ऐसे अहसास दिलाते हैं जैसे वो भी शरणार्थी ही यहाँ आये थे|

इस हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-राजस्थान-पंजाब क्षेत्र जिसको मोटे तौर खापलैंड भी कह देते हैं, इन लोगों को समझना होगा कि आप संस्कृति-संस्कार-मान-मान्यताओं से ज्यादा अपनी सामाजिक पहचान व् किरदार बदल ही नहीं रहे हैं; बल्कि खो रहे हैं, उसको घटा रहे हैं|

जैसे ईसाई एक धर्म है संस्कृति है, और उसमें कैथोलिक-प्रोटेस्टंट्स-ऑर्थोडॉक्स इसके सामाजिक समूह व् किरदार हैं| ऐसे ही हिन्दू एक धर्म है, इसमें सनातनी (मूर्तिपूजक), आर्यसमाजी (सन 1875 से पहले यह समूह मूर्तिपूजा-विमुख परन्तु मूर्ती-उपासक, जिसमें खापलैंड की जमींदार जातियां झंडबदार रही हैं) इसके सामाजिक समूह व् किरदार हैं| व् ऐसे ही अन्य समूह|

विश्व में कहीं भी चले जाइये, किसी भी देश-सभ्यता-धर्म-संस्कृति में; हर किसी के धर्म-कानून-कस्टम का निर्धारक जमींदार वर्ग रहा है| फ्रांस हो, इंग्लैंड हो, अमेरिका हो, इटली-स्पेन-जर्मनी-ऑस्ट्रेलिया-चीन कोई देश हो; हर जगह जमींदार वर्ग की पहचान ही धर्म-सभ्यता-संस्कृति का सोर्स होती है| व्यापार-धर्माधीस-भूमिहीन कहीं भी इन चीजों का निर्धारक नहीं मिलेगा|

बाहर भी क्यों देखना दिल्ली-एनसीआर-चंडीगढ़ जैसे शहरों में आन बसे मराठी-बंगाली-पंजाबी-गुजराती-मलयाली-उड़िया-बिहारी-पहाड़ी-सिंधी-पारसी-कन्नड़ी आदि में क्या छोड़ा किसी ने खुद को इन पहचानों के अनुसार कहना-कहलवाना-पहनना-खाना आदि? जबकि हरयाणवी यहां के स्थाई निवासी होने पर भी, इनसे मिक्स होने के चक्कर में अपनी पहचान दांव पे धरते जा रहे हैं|

दादा खेड़ा, बेमाता, चौपाल, खाप, गाम-गुहांड-गौत, जोत-ज्योत-टिक्का सब सुन्ना सा छोड़ दिया है; ऊपर वाले के रहमो कर्म पर? बावजूद इसके कि इनमें कोई खोट नहीं, बावजूद दुनिया की मानवता व् समरसता से भरपूर होने के?

मैंने तो जीवन में एक चीज देखी और बड़े अच्छे से समझी है| जमींदार चाहे तो धर्म को अपने अनुसार चला ले, व्यापार तक अपने अनुसार करवा ले| उदाहरण के तौर पर सिख धर्म देख लो, दस-के-दस गुरु व्यापारिक वर्ग के पिछोके से हुए; परन्तु वहां जमींदार की खोली खुलती है और उसी की बाँधी बंधती है| हाँ, व्यापार और जमींदार के रिश्ते पर इन लोगों को काम करना अभी बाकी है| इस्लाम धर्म देख लो, जमींदार वर्ग की खोली खुलती है और उसी की बाँधी बंधती है|

सदियों तक धूमिल चले हिन्दू धर्म में भी सन 1669 के गॉड-गोकुला जी की शहादत के बाद से इसके जमींदार की फिरकी ऐसी निकली कि खापलैंड पर बीसवीं सदी के अंत तक ना सिर्फ धर्म में अपितु व्यापार में भी इसी की खोली खुली और इसी की बाँधी बंधी| मैं इसको जमींदार वर्ग के आधुनिक युग का स्वर्णिम काल कहता हूँ|

और इसको हमें आगे भी जिन्दा-जवाबदेह-जोरदार रखना है तो बहुत लाजिमी है कि फिल्म-सीरियल्स में दिखाई जाने वाली कल्चर-मान-मान्यताओं पर चौपाल स्तर के विश्लेषण होवें| इन पर जवान-बच्चे-बूढ़े-महिला-पुरुषों के साथ बैठ के चिंतन-मनन करने होंगे| जमींदार वर्ग के समूहों की जितनी भी पत्र-पत्रिकाएं निकलती हैं उनमें इन पर विशेष कॉलम-सेक्शंस बना के सीरीज में इन फिल्मों-सीरियलों के एक-एक एपिसोड के विश्लेषण छापने होंगे| जो कि आज के दिन 99% पत्रिकाओं से गायब हैं| जबकि मैं-स्ट्रीम के अख़बार-पत्रिकाएं इनसे सम्भंधित विशेष कॉलम रखते हैं|

और इन विश्लेषणों में इनको अपनी स्थानीय संस्कृति-सभ्यता की मान-मान्यताओं के समक्ष रख तुलनात्मकताएँ पेश करनी होंगी| ताकि आपकी युवा पीढ़ी अपने आपको अपनी जड़ों से सटीकता से सहज बैठा सके| फिल्म-सीरियलों में जो आता है, उसमें और अपने वाले की वास्तविकता की सच्चाई जान्ने के साथ, कौनसा बेहतर है यह पूरी विश्वसनीयता से सेट कर सके| और अपने हरयाणवी होने की बजहों में गर्व-गौरव-गरिमा सब समझ सके| मैनेजमेंट की परिभाषा में बोले तो बेंचमार्किंग करनी होगी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 16 May 2017

जमींदार जागरूकता के 30 सूत्र!

ताकि लोकतान्त्रिक सामाजिकता बची रहे!

(01) जमींदार एक हों।
(02) दादा खेड़ा (उर्फ़ दादा भैया, ग्राम खेड़ा) को अपना नायक मानें।
(03) छोटे छोटे संगठनों के जमींदार कोष बनें।
(04) कोष से गरीब जमींदारों की मदद हो।
(05) जमींदार कोई न कोई तकनीक सीखें।
(06) जमींदार अधिकारी, नेता, उद्योगपति कानून के अंदर जमींदार की मदद को प्राथमिकता दें।
(07) ढोंग-मूढ़मढ़िता-पाखंड बढ़ाने वाली चीजों से जमींदार का पतन हुआ है, इसलिए इनको बढ़ावा देने की अपेक्षा इनके सामने स्कूल-कॉलेज-चौपाल-परस खड़ी करें|
(08) पढ़े लिखे जमींदार, ढोंग-पाखंड की समस्त थ्योरियों को ध्वस्त करें।
(09) अस्पृश्यता बिलकुल न रखें, समाज को वर्ण व् जाति में बांटने वालों से उचित दूरी बना कर चलें।
(10) जमींदार व् जमींदार का वंशज होने पर गर्व करें।
(11) सभी जमींदार अपने नाम में अपना गौत गर्व से लिखें।
(12) जमींदार, जमींदार की निंदा कभी न करे। यदि कोई करता है, तो तार्किक विरोध करें।
(13) "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी" नियम के तहत 100% आरक्षण लागू करवाने हेतु मिलकर आंदोलन चलाएं।
(14) जहाँ भी दादा खेड़ा, बेमाता, खाप जैसी जमींदारों की तमाम लोकतान्त्रिक प्रणालियों का विरोध या आलोचना हो तो तार्किक व् तुलनात्मक मुकाबला करें।
(15) अपनी मान-मान्यताओं व् खाप यौद्धेयों का अपमान बिलकुल सहन न करें।
(16) सर छोटूराम व् अन्य तमाम जमींदारों के मसीहाई नेताओं के जमींदारों के कल्याण हेतु बनाये कानूनों को अपना गौरव ग्रंथ मानें व बच्चों को अवश्य पढ़ाएं। ऐसे तमाम कानूनों को एक पुस्तक का रूप दे के, उस पुस्तक को "जमींदार-सहिंता" के नाम से अपने पास रखें|
(17) इतिहास के जमींदार नायकों व् खाप यौद्धेयों पर शोध पूर्ण लेख व् पुस्तकें लिखी जाएँ।
(18) जमींदार पहले बनें, कोई भी धर्मी बाद में! शहरी जमींदार वंशजों को भी इस बात के तमाम महत्व बताएं!
(19) अगर किसी भी धर्म-जाति के नाम पर बनी कोई संस्था, जमींदार जमात का भला नहीं करती है तो उसको त्याग दें| और अपना जमींदारी सिद्धांत अपनाएँ।
(20) सभी जमींदार प्रतिदिन दादा खेड़ा व् चौपाल की ओर जाएँ व् इनकी इमारतों को बनाये रखने, मरम्मत व नवनिर्माण हेतु यथाशक्ति दान करें।
(21) संगठित होकर रहें| किसी जमींदार पर संकट आने पर मिलकर मुकाबला करें।
(22) प्राचीन व आधुनिक शिक्षा प्राप्त करें।
(23) कैरियर पर अधिक ध्यान दें। जमींदारी से संबंधित तमाम व्यापारों में उतरिये!
(24) जीविका के लिए जो भी काम मिले, दादा खेड़ा का नाम लेकर करें।
(25) जमींदार-पुरखों में आस्था रखें!
(26) नित्यकर्म मे स्वाध्याय को सम्मिलित कीजिये!
(27) नारी का सम्मान व् यथासम्भव बराबरी के लिये संकल्पित होईये! आसपास का माहौल नारी को भयमुक्त जीवन देने वाला बनाईये!
(28) जमींदार किसी भी हालत मे हो उसका सम्मान एवं उसकी उन्नति के लिये प्रयास कीजिये!
(29) जमींदार के दुश्मन वर्गों से जमीन व् फसल बचाने के यथोचित सक्रिय (Proactive) मार्ग अपना कर चलिए!
(30) जमींदार एक जाति-वर्ण रहित सोशल थ्योरी है, इसको किसी भी प्रकार की सामन्तवादिता से बचा के चलिए!


जय यौद्धेय! - फूल मलिक