Friday, 26 April 2019

जाट मतदाता को ब्राह्मण मतदाता से सीखना चाहिए कि कौम-प्रेम क्या होता है व् उससे भी जरूरी कैसे संभाल के रखा जाता है!

पोस्ट का सार: एक सीट पर एक से अधिक सजातीय उम्मीदवार आ जाने की स्थिति में ब्राह्मण हैवीवेट और जिताऊ को जिताता है, वह कैसे उसके लिए पूरी पोस्ट पढ़ें|

हर ब्राह्मण को पता है कि ताऊ रमेश कौशिक ने भाड़ नी फोड़ा सोनीपत लोकसभा में विकास के नाम पर| हर ब्राह्मण को पता है कि ताऊ अरविन्द शर्मा ने रोहतक की तरफ लखाणा भी नहीं था अगर टिकट न मिलती तो, शायद वापिस कांग्रेस या बसपा में भी जा लेता| हरयाणा में जमींदार से ले खिलाडी तक भी हैं ब्राह्मण और बीजेपी सरकार ने दोनों की उतनी ही बराबर से बिरान माट्टी करी है जितनी कि अन्य जाति वालों की|

लेकिन क्या इसके बावजूद किसी एक भी ब्राह्मण ने सोशल मीडिया या धरातल पर कौशिक या शर्मा का विरोध किया? यह बात अब आम है कि अंदरखाते खुद ब्राह्मण दोनों को पसंद नहीं कर रहे| लेकिन फिर भी इनके प्रचार प्रसार में ब्राह्मण कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे| सोशल मीडिया पर रोज ब्राह्मण लड़कों की कौशिक और शर्मा के पॉजिटिव प्रचार की धड़ाधड़ पोस्टें देखता हूँ| और बावजूद इसके कि दोनों सीटों पर 7-8% ही वोट हैं ब्राह्मण के| परन्तु लग्न क्या है कि चाहे जैसे भी हैं जिताने हैं|

हाँ, एक बात जरूर नहीं हुई कि एक सीट पर दो-दो नहीं हैं, एक ही है| करनाल व् सोनीपत पर संभावना थी कि दो की टक्कर होती; तब शायद एक नया अध्याय देखने को मिलता कि ब्राह्मण किस पर ज्यादा झुक रहे हैं| परन्तु ऐसी सीटों व् स्थितियों पर इनकी मैनेजमेंट देखी-सुनी है मैंने| जिस भी सीट पर एक से ज्यादा ब्राह्मण आ जाते हैं वहाँ सिर्फ दो ही स्ट्रेटेजी होती हैं इनकी| एक तो यह देखते हैं कि कौनसे वाला कितना हैवीवेट है यानि कितना सीनियर है, स्टेट या सेण्टर का न्यूनतम मिनिस्टर प्रोफाइल है या नहीं| और दूसरी बात कहते हैं कि जिताऊ यानि सीट निकालू है कि नहीं, यानि दो ब्राह्मण के अलावा जो अन्य जाति वाले खड़े हैं उनपर कौनसा भारी पड़ रहा है व् सीट निकाल सकता है|

उदाहरणार्थ: नरेश दुहन भाई बताते हैं कि हरयाणा का पुण्डरी विधानसभा हल्का, रोड समुदाय बाहुल्य है| हर बार दो-तीन ब्राह्मण खड़े होते हैं और पूरा इलेक्शन रोड बनाम नॉन-रोड पर लड़ा जाता है| परन्तु दो-तीन ब्राह्मण उम्मीदवार होने पर भी अंत में सारे चढ़ते एकमुश्त हैवीवेट व् जिताऊ पर हैं|

और हर प्रकार की स्थिति में इनकी आपस की खटास या नापसंदगी यह कौम से बाहर शायद ही जाने देते हों, कम-से-कम मैंने तो कभी ऐसी तू-तू-मैं-मैं नहीं सुनी जैसे अन्य जातियों में सुन जाती है| जिसको भी जिताना या हराना होता है हैवीवेट और जिताऊ के आधार पर जिताते-हराते हैं और रोहतक-सोनीपत की भांति हो ही जाति का एक कैंडिडेट तो योग्यता-मान्यता को साइड रखते हुए उसको ही जिताते हैं|

और क्योंकि हरयाणा में यह एक सीट पर एक से अधिक सजातीय कैंडिडेट होने की समस्या सबसे ज्यादा जाट फेस करते हैं तो इस बारे में कैसे यह चीजें मैनेज की जाएँ ऊपर दिए उदाहरणों व् व्याख्याओं से सीखा व् समझा जा सकता है| यादव भी गुड़गाम्मा सीट पर इस समस्या से जूझ रहे हैं, गुज्जर फरीदाबाद पर, दलित अम्बाला व् सरसा पर| जाट सबसे ज्यादा रोहतक-सुनपत-कुलछेत्र-हिसार-भ्याणी-महेंद्रगढ़ पर|

इन सबमे भी सोशल मीडिया पर अपनी ही कौम वाले परन्तु दूसरी पार्टी वाले उम्मीदवार के लत्ते उतारने में जाट ही सबसे ज्यादा मशगूल हैं| शायद 10% भी सोशल मीडिया सिपाहियों को फरवरी 2016 याद हो, कैसे इनकी लुगाई खाद के कट्टों के लिए थानों में लाइन लगवा दी थी याद हो, कैसे फसल बीमा योजना के तहत दसियों हजार करोड़ का किसान की जेब लूट का सीधा घोटाला अकेले हरयाणा में हुआ याद हो, कैसे झूठे केसों में बच्चे आज भी जेलों में सड़ रहे याद हो, कौम-स्टेट को आगे ले जाने इसके मान-सम्मान को सहेजे रखने की 10 साल की दूरगामी सोच कोई से पे हो; हरयाणा को 35 बनाम 1 बना रख छोड़ने वालों से बच वापिस 36 को एक बनाने की चिंता हो, जबकि यह अहसास लगभग हर एक को है कि बीजेपी दोबारा आ गई तो 36 तो क्या 35 में भी राड़ लगवायेगी|

कोई बदले की राजनीति का एजेंडा प्रचारित कर रहा है, कोई बेहड्डा लिख के किसी को कोस रहा है; जबकि सब कहूँ या 99% इस बात पर तो सहमत हैं कि बीजेपी से मुक्ति चाहिए परन्तु आपसी लेग-पुल्लिंग इस मुक्ति की राह में कितनी घातक है शायद ही कोई विचार रहा हो|

20 दिन के लिए यह लेग-पुल्लिंग छोड़ के ब्राह्मण की तरह कौम भक्त (अपना मुंह मत चिढ़ाना या चढ़ाना, परन्तु यह सच है आज के दिन 95% जाटों में ब्राह्मण की आधे जितनी भी कौम व् स्टेट भक्ति नहीं) बनो और जो हैवीवेट और जिताऊ हो उस पर जुटो| तुम-हम इधर इस तू-तू-मैं-मैं उलझे हैं और उधर ब्राह्मण को देखो प्रतिशत में इकाई का आंकड़ा होते हुए भी, खुद को एक करके दूसरी जातियों से कैसे अपनी जाति वाले पर वोट चढ़वानी हैं उसकी पूरी स्ट्रेटेजी में जुटे हैं| भाईयो सोशल मीडिया पर इस आपस की जंग को बंद करो, ओवर-कॉन्फिडेंस से बचो, बदले व् नफरत की राजनीति के एजेंडों से बचो और जिताऊ की तरफ खुद भी बढ़ो और अन्य जातीय दोस्तों का एक-दो-चार-पांच जितने भी वोट हों उस पर फोकस करो|

विशेष: यह पोस्ट एक ही जाति के भीतर एक या एक से ज्यादा उम्मीदवार को कैसे मैनेज करें, उस पर है| आउट ऑफ़ सेम कास्ट, लाइक माइंडेड जातियों समूहों जैसे कि 'अजगरम' आदि को इस परिवेश में कैसे मैनेज करें; इस पर अगली बार लिखूंगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 26 March 2019

आदरणीय सैणी समाज अगर नहीं चाहता कि "आदरणीय ज्योतिबा फुले" का वैसे ही करैक्टर-अस्सेसिनेशन हो जैसे राजकुमार सैनी पिछले 2-3 साल से "सर छोटूराम" पर अटैक कर करने की कोशिश कर रहा है तो कृपया उसको लगाम लगाइये!

सलंगित स्क्रीनशॉट: Crispin Bates लिखित पुस्तक "Mutiny at the Margins: New Perspectives on the Indian Uprising of 1857" के अध्याय दो का है जिसमें साफ़-साफ़ लिखा है कि महात्मा ज्योतिबा फुले ने 1857 की क्रांति में अंग्रेजों का साथ देने पर महार रेजिमेंट को बधाई दी थी| यह पंक्ति पढ़िए इस स्क्रीनशॉट की ध्यान से, ""It is not surprising that Jyotiba Phule congratulated the Mahars for aiding the British in suppressing the 1857 Revolt".

इसी सिलसिले में ज्योतिबाफुले का एक और वक्तव्य है जिसमें वह कहते हैं कि "अभी 1857 की जरूरत नहीं थी, देश पर कुछ साल और अंग्रेजों का राज रहना जरुरी है तभी देश में सुधर हो सकता है"|

और ऐसी ही बहुत सी बातें निकल आएँगी अगर और ज्यादा "चूचियों में हाड ढूंढने" की भांति मेरे जैसे भी ठीक वैसे ही महापुरुषों के करैक्टर असेसिनेशन पर उतर आये तो जैसे राजकुमार सैनी जब दांव लगता है चला आता है और "हिरै-फिरै गादड़ी और गाजरों म्ह को राह" की तर्ज पर जाट समाज पर लगता है बरगलाने|

और अबकी बार यह दांव लगा 23 मार्च 2019 को बरवाला में जननायक जनता पार्टी द्वारा किये गए शहीदी दिवस सम्मान समारोह में मुंहफट पंडित रामकुमार गौतम द्वारा आज़ादी के वक्त के 'सर', 'राव', राय-बहादुर आदि उपाधि मिले महापुरुषों को अपनी बेलगाम व् बेसोची जुबान द्वारा गद्दार बोलने व् कुर्सी के लालच में अंधे हुए अपने सगे दादा को दरकिनार गौतम में नया दादा ढूंढते हुए उनकी हाँ-में-हाँ मिलाने वाले दुष्यंत के बाद तुकबंदी जोड़ते हुए राजकुमार सैनी ने फिर से महापुरुषों के खिलाफ जहर उगला|

राजकुमार सैनी कितना ही फंडियों का भोंपू बन ले परन्तु एक बात याद रखना जाट-समाज जितनी रेपुटेशन और ओहदा आप तो क्या आपके तो फ़रिश्ते भी नहीं पा सकते| और इस ओहदे की ऊंचाई इस स्तर की है कि जाटों को तो महर्षि दयानन्द जैसे समझदार बाह्मणों तक ने अपने ग्रंथों में "जाट जी" और "जाट-देवता" लिखा-कहा और गाया है| यह ऐसा रुतबा जो बाह्मण उसके सबसे चाहते राजपूत तक को भी आजतक नहीं दिया, जाट के लिए उसके मुंह से निकलता आया| तो जाओ सैनियों के लिए लिखवा दे बाह्मणों से "सैनी जी" और "सैनी देवता" फिर बात करना जाटों से| एवीं खामखा लेते हैं और उठ के चले आते हैं| खैर कोई ना समंदर है जाट समाज, तेरे जैसे गंदंगी के नाले भी समेट लेंगे| परन्तु एक बात गौर फरमाए सैनी समाज|

मेरे जैसे समाज की ऐसी बातों पर नजर रखने वाले, राजकुमार सैनी जैसों की नादानियों को सिर्फ इसलिए दरकिनार करते आ रहे हैं क्योंकि हम उन फंडियों का भोंपू नहीं जिनका भोंपू बनके राजकुमार सैनी पिछले 2-3 साल से बदजुबानी किये जा रहा है| और इन महाशय के निशाने पर जाट समाज, सर छोटूराम और जाट रेजिमेंट यदाकदा चली आ रही हैं| अगर राजकुमार सैनी को जाट समाज के किसी व्यक्ति विशेष से कोई दिक्कत है तो उस व्यक्ति का सीधा नाम लेकर अपनी दिक्कत दूर करे; अगर वह दोषी होगा तो समाज सैनी के साथ होगा| परन्तु यह कौनसी भड़ास है कि कभी जाट रेजिमेंट, कभी जाट समाज में जन्में परन्तु सर्वसमाज के महापुरुष? वह भी उस इतिहास के जिस वक्त यह जनाब पैदा भी नहीं हुए थे?

हमारे पुरखों ने इस हरयाणा को बड़ी कुर्बानियां दे-दे इन फंडी-पाखंडियों से बचा के रखा हुआ है| जितनी सीधी टक्कर जाट समाज ने इनकी ली है सदियों से उसके राजकुमार सैनी जैसे तो पासंग भी नहीं| जहाँ आपके यहाँ फंडियों से टक्कर लेने वाले महात्मा ज्योतिबा फुले जैसे इक्का-दुक्का ही हुए, वहीँ यह जाट समाज है यहाँ फंडी को फंडी कहने और ताड़ने का साहस तो जाट का बच्चा-बच्चा करता आया है| और जिन सर छोटूराम के खिलाफ इतनी लम्बी जुबान हुई जाती है उन जितनी खुली वाट तो फंडियों की पूरे हिंदुस्तान में कोई नहीं लगा सका| यहाँ तक कि बाबा साहेब आंबेडकर से ले ज्योतिबा फुले तक इनसे गच्चा खा गए थे परन्तु सर छोटूराम इनको आजीवन पटखनी दी| और जाट समाज इस मर्म को भलीभांति समझता है इसलिए राजकुमार सैनी की बकवासों पर चुप है| अन्यथा उसकी तरह बदजुबानी और अनादर करने पर उतरे तो ज्योतिबा फुले तक को घेर सकते हैं, उदाहरण ऊपर दिया है सबूत समेत|

ऐसे में मैं जिला जिंद हरयाणा में सैनी खाप के प्रधान दादा दरियाव सिंह सैनी जी (जिसने मैं 23 फरवरी 2017 को रोहतक मे खापलैंड वेबसाइट के लांच के वक्त मिला था) से अनुरोध रहेगा कि सैनी समाज या सर्वसमाज (जिसकी भी जरूरत पड़े) की खाप पंचायत बुलाकर राजकुमार सैनी की बदजुबानी को लगाम लगवाएं, अन्यथा हम आपके बालक यही मानेंगे कि आप जैसे समाज के मौजिज लोगों की भी इस मुंहफट को शय है| दादा जी तक मेरी यह चिट्ठी पहुँचाने वाले वाले का शुक्रिया| मैं खुद भी उन तक इसको पहुंचाने की कोशिश करूँगा|
अनुरोध सिर्फ इतना है कि हम नहीं चाहते कि राजकुमार सैनी जैसों के जरिये समाज को "डिवाइड एंड रूल" पर ले जाते हुए दांव लगाए बैठे फंडी का कोई और नया मौका लगे|

हम रामकुमार गौतम से सफाई लेते हुए नहीं डरे क्योंकि हमें पता है वह ना कभी हमारा था और ना होगा, चाहे जजपा वाले उसने घी में तो गाड़ लियो और दूध में नुहा लियो और गूगा बना लियो| इसीलिए शहीदी दिवस पर काटी उनकी बदजुबानी को लेकर उनके पीछे पड़े और पंडित रामकुमार गौतम एक ही दिन में फेसबुक पर आ कर सफाई दे गए| दूसरा सलंगित स्क्रीनशॉट उनकी सफाई की पोस्ट का है| परन्तु हम राजकुमार सैनी को घेरने से पहले इसलिए सोचते हैं क्योंकि फंडी ताक में बैठा है, ताक में बैठा है राजकुमार सैनी जैसों के जरिये समाज में पड़ी फूट को और गहरी करवाने को|

और यही फर्क समझा दिया जाए राजकुमार सैनी जैसों को कि पूरा सैनी समाज पिछड़ा नहीं है परन्तु तेरे जैसों की सोच के चलते समाज पर पिछड़ा होने का ठप्पा लगता है|

आशा करता हूँ कि सैनी समाज इस मर्म को समझेगा और राजकुमार सैनी जैसे फंडियों के भोंपुओं को समझायेगा|

विशेष: इस पोस्ट में प्रस्तुत किये गए महात्मा ज्योतिबा फुले के दोनों प्रसंग, इस मसले की गंभीरता को समझाने हेतु प्रयोग किये गये हैं, इसमें उनका कोई अपमान या उपहास ना देखा जावे| यह सिर्फ इस तौर पर पेश किये गए हैं कि अगर सामने वाला पक्ष भी ऐसी ही बेशर्मी पर उतर आवे जैसी पर राजकुमार सैनी उतरा हुआ है तो बेशर्मी उससे भी भारी बन जाए|

इस पोस्ट को आगे शेयर करने वालों से अनुरोध: इसको ज्यों-का-त्यों शेयर करें तो बेशक करें अन्यथा इसमें मिर्च-मशाला लगा के करना चाहें तो टाल करें, नहीं करें| यह पोस्ट समाज में शांति बहाली हेतु है, वैमनस्य बढ़ाने हेतु नहीं और यही संदेश इसको शेयर करने वाले आगे देवें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक



Tuesday, 19 March 2019

जातीय प्रेम की सुगंध रुपी कस्तूरी के नशे से पार पाईये!

विषय: जाट व् इसके समकक्ष जातियों की सबसे बड़ी समस्याएं!

सबसे बड़ी समस्या: इन जातियों को अपना जातीय अभिमान संभालने की इच्छाशक्ति नहीं होती| जिसकी वजह से यह बाहुबल के साथ-साथ बुध्दिबल का प्रयोग अपने साधन-सम्पदा संजोने की बजाये, उनको बाँटने, इस्तेमाल होने देने व् बिखरेने में ज्यादा करते हैं| और यह संभालने की इच्छाशक्ति नहीं होने की वजह से इन जातियों के जो कुछ एडवांस्ड लोग होते हैं वह दूसरी जातियों के साथ बिना-सोचे समझे, बिना किसी मिनिमम कॉमन एजेंडा के मर्ज हो अपनी असली एथनिसिटी-कल्चर बिसरा के जीवन जीने को ही क्लास मानते हुए जीवन व्यतीत कर देते हैं|

जातिगत प्रेम को जातिवाद का नाम दे के चिढ़ने और बिदकने वाले जाट से कोई पूछे कि क्या आप अमूमन ब्राह्मण-बनिया-दलित आदि से भी बड़े जातीय-अभिमान रखने वाले हो या उनसे भी ज्यादा जातिवाद-वर्णवाद नस्लीय ऊंच-नीच की भावना रखने वाले हो (यहाँ बात कम-ज्यादा की कर रहा हूँ किसी पर इल्जाम नहीं लगा रहा हूँ, वरना जातिवाद-वर्णवाद से रहित लोग इन जातियों में बहुतायत में होते हैं), तो जवाब मिलेगा बिलकुल भी नहीं| तो फिर जो सबसे ज्यादा जातिवाद या जातीयप्रेम रखने वाले हैं आप उनकी तरह आश्वस्त होकर क्यों नहीं चलते हो? आपको ही क्यों 36 बिरादरी भाईचारे टाइप की चीजों की सबसे ज्यादा चिंता रहती है? चिंता क्या, लगभग इसका झाल्ला ही अपने सर उठाये से रहते हो, कि जैसे तुमने इसको नहीं संभाला तो दुनिया खत्म| कम-ऑन रिलैक्स दो अपने कंधों और सर को इससे|

तो जो जातीय प्रेम, स्वाभिमान, अभिमान, सम्मान व् बहुतेरे मामलों में जातिवाद-वर्णवाद वाले जो हैं वह कैसे इन चीजों को जाट जैसी जातियों से भी ज्यादा अच्छे से करते हुए सबकुछ संभाल के रख लेते हैं और समाज को अपने चॉइस के फ़ील्ड्स में लीड कर लेते हैं?

मेरे अनुभव व् सूझबूझ से जवाब ढूंढता हूँ तो कुछ यूँ चीजें निकलकर सामने आती हैं:

1) ब्राह्मण-बनिया लोग सबसे पहले जातीय अभिमान-स्वाभिमान-घमंड आदि नाम की जो मृग की खुद की कस्तूरी रुपी सुगंध का नशा होता है उसको बचपन में ही साइड में रखना सिखाते हैं, मैनेज करना सिखाते हैं| जबकि जाट व् इसके जैसी जातियों इसकी कमी है| और वजह होती है इसको लेकर इच्छाशक्ति ना होना| 'देख ल्यांगे', 'देखी जागी', 'के बिगड़े सै' टाइप वाला ऐटिटूड, जो कि खुद की कस्तूरी रुपी सुगंध वाले जातीय अभिमान को मैनेज करने की इच्छाशक्ति नहीं होने के चलते आता है|

यह जातीय अभिमान, घमंड में तब्दील हो जाए इसके लिए विरोधी प्रोपेगंडा भी करते हैं; ताकि आप इसके घमंड में ही उलझे रहें और वह अपनी राहें आसान करते चले जाएँ| इन समाजों में इन प्रोपेगंडा व् इनको रचने-बचने वालों के पास क्या हल होते हैं, शायद कुछ भी नहीं? यह प्रोपेगंडा खेत में बिना बाद की खड़ी फसल पर आवारा जानवरों द्वारा हमला करने जैसा होता है| यह बाड़ कौन करेगा? आखिर क्यों फसल तक की बाड़ करने की सूझ-बूझ-हिम्मत-जज्बा रखने वाले लोग, जातीय स्वाभिमान को सॉफ्ट-टारगेट नहीं बनने देने बारे बाड़ क्यों नहीं करते या कर पाते? जवाब अमूमन मृग की कस्तूरी वाला ही है|

2) ब्राह्मण-बनिया लोग इस कस्तूरी रुपी नशे को अपनी जाति के लिए नाम-प्रसिद्धि-संसाधन-सत्ता-पावर को पीढ़ी-दर-पीढ़ी जोड़ते चले जाने में लगाते हैं| इसकी जरूरत इनको जातीय अभिमान की कस्तूरी के नशे में टूलने से ज्यादा सिखाई जाती है इसलिए यह जातीय प्रेम पर किसी भी अन्य जाति से ज्यादा संगठित होते हैं| ना होते हों तो बता दो| और इनकी इन क्वालिटीज़ का मैं कायल भी हूँ|

और क्या कहूं| फ़िलहाल इतना ही बहुत| लेख का निचोड़ यही समझिये कि जातीय प्रेम की सुगंध रुपी कस्तूरी के नशे से पार पाईये! इसके नशे में चढ़ टूलने, रिफल्ने, बिफरने या बिगोने की जरूरत नहीं होती अपितु इसको सही दिशा में प्रयोग करने की और चलना चाहिए|

इस नशे से पार नहीं पाने की स्थिति में विरोधी के हमले होने पर आप डिफेंसिव होते हो और डिफेंसिव हुए तो समझो सॉफ्ट-टारगेट हुए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 7 March 2019

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है, कुछ "खाप-खेड़ा-खेत" कल्चर में महिलाओं व् उनके स्थान बारे बतला लें!

मैं जाट हूँ, मैं हरयाणवी भी हूँ और मेरी एक खाप भी है| गठवाला (मलिक) खाप, हिंदुस्तान की सबसे बड़ी खाप| ऐसी खाप जिसके गढ़ गज़नी से ले लिसाढ़-शामली तक गढ़-गढ़ी-खेड़े-खेड़ी-किस्से-कहानी बिखरे पड़े हैं|
अब पढ़ क्या रहे हो? पढ़ के डरो मुझसे| क्योंकि एक तो मैं जाट, ऊपर से हरयाणवी और सबसे बिघन की बात "खाप वाला जाट"; खाप यानी खौफ?

माफ़ करना परन्तु तुमको नेशनल मीडिया से ले, तथाकथित एनजीओ, तथाकथित गोल बिंदी गैंग, तथाकथित जाट बनाम नॉन-जाट, तथा कथित 35 बनाम 1, तथाकथित फंडी-पाखंडियों ने जाट-खाप-हरयाणा इन तीन शब्दों से दशकों से डराया ही इतना जो हुआ है! अरे सिर्फ तुम क्या, आधे से ज्यादा तो खुद जाट इन तीनों पहचानों से परेशान हैं| इतने परेशान कि बहुतेरे तो खुद को जाट ही कहने से घबराते हैं, बहुत से हरयाणवी शब्द से कन्नी काटते हैं और खाप शब्द तो बाजे-बाजे सुनना ही नहीं चाहते| और जहाँ मैं पहुँच चुका हूँ यानि पेरिस-लिल्ल-फ्रांस में, यहाँ बैठ के जाट-खाप-हरयाणा पे बात करूँ तो इसको पिछड़ापन कहने वाले भी बहुतेरे हैं कि देखो इस मूर्ख को, वहां बैठ के भी जाट-खाप-हरयाणा करता रहता है|

परन्तु मैं ठहरा जन्मजात प्रचारक| वर्णवादियों की तरह किसी से ना खुद को बड़ा बताता और ना किसी को छूत-नीच-गंवार कहता| बस प्रचार करता हूँ, इस जूनून की वजहें पूरा लेख पढ़ के समझ आएँगी| इसलिए पढ़ने लग तो गए ही हो 2-4-5 मिनट लगा के अंत तक पढ़ना|

बहुत बार सोचा करता हूँ कि नेशनल मीडिया द्वारा इतना एंटी जाट-खाप-हरयाणा प्रचार के बावजूद भी आज के दिन सारे भारत के हर कोने की ओर से कामगारों-मजदूरों-रेफुजियों-शरणार्थियों-व्यापारियों का माइग्रेशन इसी "जाट-खाप-हरयाणा" की छाप से बाहुल्य धरा की तरफ है| कमाल है मीडिया इनको इनसे इतना डराता है और यह फिर भी यहीं खिंचे चले आते हैं? तो कुछ तो है जालिम इस "जाट-खाप-हरयाणा" में कि ऊपर गिनाए आधा दर्जन-भर से ज्यादा इन शब्दों से नफरत वालों के बावजूद भी हर कोई इन्हीं की तरफ खिंचा चला आता है| तो ऐसा क्या माद्दा-जज्बा है यहाँ कि यह धरती सबको आसरा देती है, उनको भी जो कभी टीवी के डब्बों में तो कभी सामाजिक नफरतों में "जाट-खाप-हरयाणा" को पानी पी-पी के कोसते हैं?

बस ओये फूल कुमार बहुत हो चुका, अब पाठकों को मुद्दे की बात पर ले आ| और बता तेरे यहाँ हॉनर किलिंग, भ्रूण हत्या आदि की बदनामी के अलावा औरतों के नाम पर कुछ पॉजिटिव भी है या नहीं? तो चलिए आज "अंतराष्ट्रीय महिला दिवस" के अवसर पर जानते हैं कि इस "खाप-खेड़े-खेत" में औरतों के लिए मुस्कराने व् गर्व करने जैसा क्या है|

यूरोप में एक कहावत है कि जेंडर न्यूट्रैलिटी (यह लोग औरत को देवी या दुर्गा कहने की कभी नहीं कहते, बस उसको अपने बराबर मान लो वही बहुत है) जितनी ज्यादा रखोगे उतने समर्थ-समृद्ध और शालीन बनोगे| अब सोचोगे कि "जाट-खाप-हरयाणा" और "जेंडर न्यूट्रैलिटी"; क्यों मजाक करते हो साहेब|

मजाक नहीं, दावा भी नहीं परन्तु इतना कहैबा जरूर करूँगा कि जो कोई हिंदुस्तान में यह दावा करता हो कि हिंदुस्तान में उनके समाज-समूह-राज्य में सबसे ज्यादा जेंडर न्यूट्रैलिटी है या रही है, वह "जाट-खाप-हरयाणा" वाले समाज में औरत बारे एक बार यह नीचे लिखे पहलु जरूर पढ़ लें|

वैसे आगे बढ़ने से पहले मैं "जाट-खाप-हरयाणा" शब्दों को "खाप-खेड़ा-खेत" यानि "उदारवादी जमींदारी, दादा नगर खेड़ा व् सर्वधर्म सर्वजातीय सर्वखाप" टर्मिनोलॉजी से बदल कर इस लेख की असली आत्मा में जाना चाहूंगा| दरअसल "जाट-खाप-हरयाणा" तो इसको मीडिया व् इसके एंटी लोगों ने बना छोड़ा है| अन्यथा यह है "खाप-खेड़ा-खेत" यानि "उदारवादी जमींदारी, दादा नगर खेड़ा व् सर्वधर्म सर्वजातीय सर्वखाप" का कल्चर|

तो यह रही हैं "खाप-खेड़ा-खेत" कल्चर में औरत के मान-सम्मान-स्थान-किरदार-हैसियत-हस्ती की स्वर्णिम बातें-रीतें-रवाजें:

1) धोक-पूजा-पुजारी का विभाग शुद्ध रूप से है ही औरतों का इस कल्चर में: दादा नगर खेड़ा (दादा भैया, गाम खेड़ा, ग्राम खेड़ा आदि) में मूर्ती नहीं होती, पूर्वजों को ही भगवान माना है इस कल्चर ने| इन खेड़ों में कोई पुजारी नहीं होता| दिया-ज्योत सब औरतें करती हैं, खुद करती हैं| यहाँ तक कि मर्दों को बच्चे से वयस्क और वयस्क से ब्याहता होने तक के तमाम मुख्य पड़ावों पर मर्द की पूजा (धोक मारना) तक औरत करवाती हैं| है ना गजब की बात? पूरे विश्व में यह इतनी सुंदर परम्परा व् औरत के महत्व की बात मैंने तो आज तक नहीं देखी| और यही वजह रही कि यहाँ कभी देवदासी कल्चर नहीं मिलता| क्योंकि पूजा-धोक आदि के कार्य में पुरुष ने कभी दखलंदाजी ही नहीं करी इस कल्चर में| परन्तु जहाँ-जहाँ करी वहां देख लो दक्षिण-पूर्वी-मध्य भारत में देवदासियों से ले प्रथमव्या व्रजसला की सामूहिक सीलभंग के रिवाज जैसी कितनी घिनौनी हरकतें होती हैं धर्मस्थलों के गृभगृहों में| और हमारे पुरखे पुरुष को पुजारी बनाने के यह नेगेटिव पहलु जानते थे इसीलिए कभी दादा खेड़ों की पूजा पुरुष के सुपुर्द नहीं की बल्कि आज भी यह महिलाओं के ही हाथ में है|

2) माँ का सरनेम (गौत) औलाद का सरनेम हो सकता है: और पूरे विश्व में यह अद्भुत सिस्टम इस "खाप-खेड़ा-खेत" वाले कल्चर वालों के यहाँ पाए जाने वाले "ध्याणी-देहल की औलाद" व् "दादा नगर खेड़ा के जेंडर न्यूट्रैलिटी" नियम के तहत होता है| बताओ और कहीं होता हो तो पूरे हिंदुस्तान तो क्या विश्व तक में?

3) स्वेच्छा से विधवा पुनर्विवाह अथवा दिवंगत पति की सम्पत्ति पर आजीवन बसे रहना: यह बात अपनी विधवा बेटी-बहुओं को उसके दिवंगत पति की प्रॉपर्टी से बेदखल कर वृन्दावन व् गंगा के घाटों वाले विधवा आश्रमों में भेजने वालों या विधवा को मनहूस बता ताउम्र काल-कोठरियों में गुजरवा देने वालों को जरूर अटपटी लगेगी| परन्तु यह होता है "खाप-खेड़ा-खेत" कल्चर में| और यह होता है "शादी से पहले बेटी का हक बाप के और शादी के बाद पति के" नियम के तहत| शादी के बाद पति का हक वाकई में उसका रहता है फिर चाहे पति पहले मर जाए या बाद में| मेरे कुनबे-ठोले में मेरी चार काकी-ताइयाँ ऐसी हैं जो विधवा होते हुए भी स्वेच्छा से पुनर्विवाह नहीं करते हुए, अपने दिवंगत पतियों की प्रॉपर्टी पर शान से बसती हैं| कोई माई का लाल उनको उनके पतियों की सम्पत्ति से बेदखल कर विधवा आश्रमों में बिठवाने की कह के तो दिखा दे, जो ना खाल तार लें तो साले की|

4) तलाक का गुजारा भत्ता: हिंदुस्तान में तो तलाक पर गुजारे भत्ते हेतु कानून 2014 में आया परन्तु इस कल्चर में "दो जोड़ी जूती व् नौ मण अनाज" के नियम के तहत यह कानून सदियों से चलता आया| तो सोचो जो कल्चर तलाक के बाद भी औरत के हक-हलूल बारे सदियों पहले से जागरूक रहा हो, उसमें औरत का सम्मान किस दर्जे का रहा है? और ये काल के कुतरु, 2014 में इस पर कानून बनवा के औरतों के अधिकारों के मसीहा बनने को फिरते हैं और चले आते हैं इस कल्चर को औरत के हक-हलूल सिखाने| यह तो मेरी दादी वाली वही बात हो गई कि "छाज तो बोले, छालणी भी क्या बोले जिसमें बहतर छेद"|

5) गाम-गौत-गुहांड की बेटी सबकी बेटी (यह जट्टचरयता का नियम है): कोई कहता है कि ब्रह्मचारी रहने हेतु औरतों से दूर रहो, ब्रह्मचर्यता करो; कोई कहता है कि गुरुकुलों में रहो; परन्तु "गाम-गौत-गुहांड" का नियम यानि जट्टचरयता कहता है कि समाज में रहते हुए जट्टचारी रहो और बस मुझे निभा दो, संयम-सामर्थ्य-संकल्प-साहस सब सहसा ही आ जायेगा| बताता चलूँ कि ऐतिहासिक वजहों से कई गाम ऐसे भी हैं जो गौत को छोड़ते हैं, गाम व् गुहांड को नहीं| तो कह रहा था कि जरूरत ही नहीं कान फड़वाने या दर-दर मंगता बनने की| बस गौत भी छोड़ दो, गुहांड-गाम छोड़ दो तो और भी बढ़िया| बाकी, कृपया हमारे इस नियम को योगी आदित्यनाथ के "एंटी रोमियो स्क्वैड" या "बजरंगदल" वालों से मत तोलना| क्योंकि "गाम-गौत-गुहांड" छोड़ के सबसे ज्यादा लव-मैरिज हमारे यहाँ ही होती हैं| चार लव मैरिज तो मेरे ही परिवार में हैं| दो और होती, परन्तु उनके अपने गलत व् जल्दबाजी भरे चुनाव के चलते सिरे नहीं चढ़ पाई| हाँ तो अब चार लव मैरिज कह दी तो क्या सबकी लव-मैरिज ही हो जाएगी, कोई गलत चॉइस करेगा तो पीछे भी हटना पड़ जाता है|

बाकी यह भ्रूण-हत्या जैसी चीजें सब एक्स-रे व् अल्ट्रा साउंड की मशीनें आने के बाद के चोंचले हैं| मेरी आठ बुआ हैं, मेरे बाप-काका-ताऊ-फूफा-मामा वाली पीढ़ियों में सबकी 5-5, 6-6 बहनें हैं| तो बताओ पुराने जमाने में किधर थी भ्रूण हत्या या बेटियों को जिन्दा होते ही मारने की रवायतें? यह सब अभी के नए चोंचले हैं और वह भी तथाकथित पढ़े लिखों के ज्यादा|

अक्सर महसूस करता हूँ कि "जाट-खाप-हरयाणा" में औरतों इतनी ज्यादा दुखी या प्रताड़ित होती जितनी कि इनकी एंटी-ताकतें दिखाती हैं तो प्रकृति ही नहीं बनाती इस धरा को इतना समृद्ध व् हरा-भरा|

बिंदु-पहलु और भी बहुत हैं, परन्तु लेख बड़ा ना हो जाए इसलिए यहीं विराम ले रहा हूँ| इस लेख का उद्देश्य ध्यान में रखते हुए हरयाणा में औरतों की बुरी दशाओं बारे किसी अन्य लेख में लिखूंगा| आशा करता हूँ कि लेख को पढ़ना सार्थक रहा होगा| आपको आपकी कल्चर बारे सुखद अहसास व् गर्व अनुभव करने की बातें जानने को मिली होंगी|

बस एक चीज सीखी जगत में, कल्चर से मत भटको; भटके तो खुद को यूँ जानो ज्यूँ बिना पते की चिठ्ठी| फिर चाहे गाम में रहो, शहर में या विदेश में; अपने कल्चर को अपनी पहचान को ओढ़ के चलो| रोजगार-व्यापर आदि के चलते जरूरत पड़े तो नफरत करने वालों को इसे मत दिखाओ, बेशक उनसे छुपा के रखो परन्तु दिल-आत्मा-दिमाग में सजा के रखो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 23 February 2019

ऐसा क्या है कि हरयाणा में जो दलित व् ओबीसी, जाट के इतने विरुद्ध हुआ जाता सा दीखता है या विरुद्ध किया जा रहा है?

जनवरी 2019 में निबटे जिंद (जिंद ले गया दिल का जानी वाला जिंद) उपचुनाव से पहले मैं इस मुद्दे को छूने से परहेज करता रहा हूँ| परन्तु इस पर लिखने की फरवरी 2016 से ही दिमाग में थी| तब से अब तक इसलिए नहीं लिख रहा था क्योंकि लोग कहते कि जब देखो यह भी क्या जहर घोलने जैसी बातें उठाये रहता है| परन्तु जिंद उपचुनाव ने मेरे को वह वजहें दी हैं जो मुझे यह लेख लिखने का साहस करने हेतु चाहिए थीं|

और वह दिया लोसुपा अध्यक्ष राजकुमार सैनी के जिंद उपचुनाव बारे 'मेरा रिपोर्टर' संग दिए साक्षात्कारों में सामने आये उनके निम्नलिखित बयानों ने; महाशय सैनी की जुबानी:

1) हरयाणा में जाट, भाजपा-आरएसएस के लिए ऐसे ही हो चुका है जैसे यूपी में मुस्लिम| यानि आप जाट को भाजपा-आरएसएस के लिए हरयाणा में मुस्लिम समझिये|
2) हम जिंद उपचुनाव में और ज्यादा वोटें लेते अगर चुनाव से ऐन पहले दिन व् उसी रात, सारे शहर में यह हाय-तौबा नहीं मचाई होती कि बीजेपी को वोट दे दो अन्यथा जाट कैंडिडेट जीत रहा है| यानि दिग्विजय चौटाला जीत की और अग्रसर थे|
3) हरयाणा में सरकारी नौकरी सिर्फ 1% हैं बाकी 99% रोजगार प्राइवेट है|

असली मर्म की बात पर आने से पहले, थोड़ा हमारे समाज का सामाजिक-व्यवसायिक परिवेश का परिदृश्य रखते हुए चलूँगा| हमारे समाज में मुख्यत: चार प्रकार की रोजगार-कारोबार केटेगरी हैं:

1) पुजार - यानि मंदिरों-मठों-डेरों-मस्जिद-गुरुद्वारों-चर्चों से होने वाली आवक व् इससे मुठ्ठीभर लोगों को मिलने वाला रोजगार| हिन्दू परिपेक्ष्य में 90% एक ही समुदाय का आधिपत्य है| हरयाणवी परिपेक्ष्य में यह शायद 60 % है, 40 % अन्य जातियों जिनमें कि मुख्यत: जाट ही हैं उनके पास है|

मेरे यहाँ जिन "दादा मोलू जी महाराज, खरकरामजी" टिल्ले की मान्यता है, उस पर 90 % वाला ना तो चढ़ता और ना ही उसका चढ़ना शुभ माना जाता| बल्कि पूर्णिमा के दिन 90% वाले समुदाय के दर्शन भी अपशकुन माने जाते हैं| खीर-पकवान आदि भी दलित जाति में धाणकों को देते हैं, 90% वाले को नहीं| यह 90% वाले को दर्द का बिंदु है, क्योंकि इससे उसकी पुजार के फील्ड में मोनोपोली टूटती है| और यही मोनपोली हासिल करने की लड़ाई भी बनी हुई है जाट बनाम नॉन-जाट के जरिये हरयाणा में| लेकिन यह हासिल करने का प्रयास है दलित-ओबीसी को जाट से छिंटकवाने के जरिये|

2) व्यापार - यानि हर प्रकार के क्रय-विक्रय से उत्पन होने वाले रोजगार| मुख्यत: दो व् कृषि संबंधी व्यापारों को जोड़ें तो कृषि से जुड़ा लगभग हर समुदाय इस केटेगरी में आता है|

3) कृषक-जमींदार - यानि खेती से उत्पन होने वाला रोजगार| हरयाणा में मुख्यत:जाट-यादव-गुज्जर-राजपूत-रोड आदि व् कुछेक जगह बाहमण जातियां इसमें आती हैं|

4) मजदूर-कारीगर - पुजार-व्यापार-कृषक-जमींदार के यहाँ मजदूरी व् कारीगरी से संबंधित प्राइवेट नौकरी/रोजगार/दिहाड़ी व् इसमें अफसर-कर्मचारी वाली सरकारी नौकरी/रोजगार/दिहाड़ी और जोड़ लीजिये| इसमें 1% सरकारी वाले निकाल दें तो 99% प्राइवेट में 80% से ज्यादा ओबीसी व् दलित बिरादरी आती हैं|

अब आते हैं असली मर्म की बात पर:

आखिर ओबीसी व् दलित में, जाट के प्रति इतना जहर-गुस्सा-तनाव विगत के 2-4-5-10 सालों में उभर के क्यों आया है?

मोटे तौर पर जड़ जो पकड़ में आती है वह यह है कि, "जाट आसानी से सॉफ्ट-टारगेट बनाया जा सकता है" और वह बनाया जा भी रहा है| यह तो अब खुद राजकुमार सैनी जैसे जाट-विरोधी भी पब्लिक इंटरव्यू तक में बोलने लगे हैं|

जाट "सॉफ्ट-टारगेट" क्यों, कैसे और किसलिए बन रहा है या बनाया जा रहा है?:

पहले जाट क्यों सॉफ्ट टारगेट बन रहा है या बनाया जा रहा है:

1) जाट जितनी सिद्द्त से खेती की बाड़ कर उसकी सुरक्षा करना जानता है, उतना ही अपनी सामाजिक पहचान की सुरक्षा करने बारे उदासीन है| जबकि इसको दलित-ओबीसी से जो टारगेट करवा रहे हैं (नाम नहीं लिखूंगा, क्योंकि जो इस विषय बारे जरा भी जानता होगा वह भली-भांति जानता है कि वह कौन वर्ग, कौन लोग हैं) वह तानाशाह-क्रूर-विश्व के सबसे बड़े नश्लवादी-वर्णवादी-छूआछूति लोग हैं| "ब्रांड प्रोटेक्शन, प्रिजर्वेशन एवं प्रमोशन" की आज के दिन जाट को सबसे ज्यादा जरूरत है| उसको अपना पैसा-संसाधन आज के दिन इस पर सबसे ज्यादा लगाने की जरूरत है| क्योंकि सामाजिक परिवेश में आपकी सामाजिक पहचान की बाड़ आपकी कौम की "ब्रांड प्रोटेक्शन, प्रिजर्वेशन एवं प्रमोशन" से ही होती है| सनद रहे व्यर्थ में जाट एकता, जाट-जाट चिल्लाना "ब्रांड प्रोटेक्शन, प्रिजर्वेशन एवं प्रमोशन" में नहीं आता| पहले खापें (सर्वजातीय सर्वखाप में उसके नीचले लेवल पर जो सजातीय सर्वखाप विंग होती है उसकी बात है यहाँ, वरना खाप 36 बिरादरी की रही हैं) यह काम भलीभांति करती थी परन्तु इनमें जब से "ठू-मच राजनीति" घुसी है, तब से इस कौम की हालत सुन्नी गोखड़ जैसी हो गई है; जिसको राह चलते कुत्ते भी काटने को दौड़ रहे हैं| इस पर काम हो जाए तो 70 % मसला हल हो जाए|

2) जाट अपनी औरतों के साथ बैठ कभी यह बातें उनसे साझा नहीं करता कि जाट समाज की मान्यताओं में "जेंडर इक्वलिटी व् जेंडर सेन्सिटिवटी" बारे क्या प्रावधान रहे हैं| जैसे कि "दादा नगर खेड़ों" 100% में पूजा का अधिकार औरतों को होना (विश्व में कोई अन्य ऐसी मान्यता व् समाज नहीं, जो पूजा-पाठ का 100% आधिपत्य अपनी औरतों को दे के रखता हो; बाजे-बाजे तो अपने धर्मस्थलों को पुरुषों के ही अधीन रखते हैं; औरतें कब क्यों उनमें चढ़ेंगी यह भी पुरुष ही तय करते हैं), "देहल-धाणी की औलाद का कांसेप्ट", "तलाक में बेटी-बहु के हक क्या रहे हैं", "खेड़े का गौत का कांसेप्ट कैसे जेंडर न्यूट्रल है", "गाम-गौत-गुहांड" नियम की पाजिटिविटी क्या हैं, "गाम की बेटी 36 बिरादरी की बेटी" का क्या महत्व है" आदि-आदि| पहले के साथ इस बिंदु पर भी काम हो जाए तो समझो जाट को "सॉफ्ट-टारगेट" बनाने की 99% समस्याएं हल| इनमें बिंदु और भी हैं जोड़ने को, परन्तु फ़िलहाल यह दो भी जाट समाज कर ले तो बहुत होगा|

3) तीसरा मुख्य कारण है कि शहरी व् धनाढ्य जाट की अपनी मान-मान्यताओं से तो दूरी बनी ही, साथ ही उसकी उसके पुरखों की भांति अपनी कोई विचारधारा अभी तक उभर कर नहीं आ पा रही है| यह पहलु भी बहुत सीरियस है|

दूसरा जाट को कैसे सॉफ्ट-टारगेट बनाया जा रहा है:

मोटे तौर पर देखा जाए तो जाट के दलित या ओबीसी के साथ सभी प्रकार के जितने भी झगड़े-लफड़े-कलह आदि होती हैं उनमें 95% कारोबारी मसलों को लेकर होती रही हैं| खेत में सीरी है तो ठीक से काम नहीं करने पर कहासुनी| दिहाड़ी पर मजदूर आया तो वक्त पर उसकी दिहाड़ी नहीं दी तो कहासुनी| सनद रहे यहाँ कोई-कोई अवैध शारीरिक संबंधों को भी वजह बताएगा, परन्तु इनमें भी 95% अवैध संबंध रजामंदी के देखे गये हैं| धक्काशाही के मिले भी तो वह वाली धक्काशाही तो नहीं ही मिलती जो दक्षिण-पूर्व भारत के मंदिरों में "देवदासी (दो टूक कहूं तो मंदिरों में पुजारियों की रखैल)", "प्रथमव्य व्रजसला कन्या-भंजन (इसमें मंदिर के पुजारी प्रथम बार व्रजसला हुई लड़की की मंदिर के गर्भगृह में सामूहिक सील-भंग करते हैं, ज्यादा जानकारी के लिए 2002 में आई "माया" फिल्म देखें)" या "विधवा आश्रमों (हरिद्वार से ले हुगली तक के गंगाघाटों के विधवा आश्रम देख आईये, नर्क को जितना बुरा बताते हैं उससे भी बुरा इन आश्रमों में विधवाओं का हाल न कहो तो कहियेगा)" में मिलती है|

अब एक गजब और देखिये, किसान यानि जमींदार जाट से ज्यादा जुल्म दलित-ओबीसी मजदूर-कारीगर को व्यापारी की फैक्ट्री-ऑफिस में झेलने को मिलते हैं| वहां वह ऐसा कभी करने को तैयार नहीं होता कि मुख्य व्यापारिक जातियों को नाम लेकर उनसे नफरत अभियान चला दे?

इनसे भी बड़ा गजब इन वर्णवाद-जातिवाद-नक्शलवाद-छुआछूत फ़ैलाने वालों का देख लीजिये| जाट के साथ तो 95% झगड़े कारोबारी हैं दलित-ओबीसी के| परन्तु इनके साथ तो 95% झगड़े-मनमुटाव, वर्णवाद-जातिवाद-नक्शलवाद-छुआछूत के हैं| परन्तु कभी नहीं देखा हरयाणा में इनके खिलाफ कभी इतना खुला बिगुल फूंके, जितना जाट पे आँखें तराये हुआ सा नजर आता है?

और दलित-ओबीसी को यह फूंक मार कौन है रहा है?

दो बातें:

एक - यह फूंक मार रहे हैं जिनको पुजार में मोनोपॉली चाहिए व् जिनको खेती को सबसे कम आवक का धंधा बनाना है; यह दो|

दूसरी - जाट का ऊपर बताये "ब्रांड प्रोटेक्शन, प्रिजर्वेशन एवं प्रमोशन" व् अपनी औरतों से "जाट समाज में जेंडर इक्वलिटी व् सेंसिटीवी पर डाइलॉगिंग" करने के प्रति उदासीनता भी इस फूंक मारने के माहौल में फूंक मारने वालों को हौंसला देता है कि जाटों को अपनी ब्रांड प्रोटेक्शन तो करनी नहीं तो लगे रहो दलित-ओबीसी को इनके खिलाफ भरने-भड़काने पे| पहले तो बुड्ढी-ठेरी यह जानकारियां पास कर दिया करती थी परन्तु आजकल जब 24 घंटे टीवी के डब्बे ही जानकारी का मुख्य स्त्रोत हों और उनमें भी फंड-पाखंड का कल्चर जितना चाहे उतना ढूंढ लो, उतना परोसा जा रहा हो तो जाट औरतों को जाट कल्चर से जोड़े कौन रखेगा? उसके प्रति जागरूक कौन रखेगा? जाहिर सी बात है जाट समाज के पुरुष|

और यह सब किसलिए हो रहा है, उसकी एक तो मुख्य वजह पुजार वालों को पुजार में मोनोपोली बता ही दी, इसलिए| दूसरा कृषि को लूट के खाना है| तीसरा जाट को आधुनिक जमाने का अछूत बनाना है| हालाँकि धन-दौलत से तो अछूत नहीं बना पाएंगे, परन्तु सोच से दीनहीन बनाने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी है|

जो जाट या नॉन-जाट चाहता हो कि हरयाणा व् वेस्ट यूपी रुपी धन-धनाढ्यता, उदारवादी जमींदारी के कल्चर का यह डाहरा बचा रहे, वह एक्टिव हो जावें| फंडी ने जहर बहुत भर दिया है हरयाणा में| और दलित-ओबीसी को यह भान भी नहीं है कि वह इन फंडियों के बहकावे में आकर उनके और इन फंडियों के बीच सदियों से रहे जाट रुपी सुरक्षा कवच को तोड़ कर बहुत भारी भूल कर रहे हैं| जाट ना होते यहाँ तो शायद दक्षिण-पूर्व भारत वाला देवदासी कल्चर यहाँ भी होता| जाट तो किसी तरह इस बवंडर को खे जायेंगे, परन्तु जब तक दलित-ओबीसी सम्भलें तब तक शायद बहुत देर हो चुकी हो| इसलिए उठिये और जागिये व् जगाईये| इस लेख जैसे विचार लिखिए और फैलाइये| इस लेख को भी ज्यादा से ज्यादा फैलाइये| क्योंकि यूँ हाथ पर हाथ धरे बाड़ नहीं रहने वाली समाज की|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 4 January 2019

मदवि की कल की घटना से छात्रराजनीति को गलत ठहराने वाले, कृपया एक मिनट विचारें!

छात्रसंघ चुनाव पूरे विश्व का अटल सत्य हैं, एक मदवि की कल की अप्रिय घटना से इनका औचित्य मत आंकिये| आंकना है तो यह आंकिये कि हरयाणा में छात्रसंघ चुनाव का फॉर्मेट कितना गलत कितना सही| आंकना है तो यह आंकिये कि छात्रसंघ चुनाव जबसे बंद हुए, हरयाणा के ग्रामीण परिवेश व् कल्चर से लगाव रखने वाले कितने नेता बने, शायद एक भी ढंग का गिना सको| हमारे जमाने में जितेंद्र पहल होते थे, जगदीश खटकड़ होते थे जींद की छात्र-राजनीति के सितारे| उस वक्त के मुख्यमंत्री भजनलाल कांपते थे उनसे कोई भी उल्ट निर्णय या अप्रिय निर्णय लेने से| नरवाना के कृष्ण श्योकंद, अजय चौटाला आदि की गाड़ियां बीच हाईवे रुकवाने की ताकत रखते थे| कुल मिलाकर छात्रराजनीति तो होनी ही चाहिए| फ्रांस-अमेरिका-दिल्ली यूनिवर्सिटी कहाँ नहीं है छात्रराजनीति, जो हरयाणा में होने को बुरा बता रहे?

हरयाणा की ग्रामीण राजनीति का इतना बुरा हश्र क्यों हुआ पिछले एक-डेड दशक में? इसकी वजहें आंकेंगे तो छात्रसंघ चुनाव बंद होना उसकी मुख्य वजहों में से एक पाएंगे| झगड़े-फसाद किस सिस्टम का हिस्सा नहीं हैं? एक वक्त जींद में जगदीश खटकड़ की बाँधी बंधती थी, खुली खुलती थी| जींद की राजनीति के शहरी अड्डे तो थर-थर कांपते थे उससे| परन्तु उसको मारा जीतेन्द्र पहल ने (मैं उस वक्त तीसरी क्लास में होता था, मौत की खबर सुनते ही स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी)| उसके बाद यह नहीं हुआ कि नेतागिरी बंद हो गई| जीतेन्द्र पहल के रूप में ऐसा छात्र नेता उभरा कि भजनलाल मुख्यमंत्री तक की कुर्सी हिलती थी उसके भय से| सोचिये सीएम लेवल तक के राज जानता था वह बंदा, आज कितने युवा हैं जो सीएम तो छोड़िये एमएलए-एमपी या पार्षद स्तर तक के राज जानते हो युवा? यह छात्रराजनीति की ही जागरूकता थी कि जितेंद्र पहल को भजलनलाल तक के ऐसे राज पता थे| और इसी वजह से भजनलाल को षड्यंत्र रचवा कर जेल में मारना पड़ा था पहल को| फिर भी न्यूनतम एक दशक तक राज किया पहल ने जींद की छात्र राजनीती में|

पहल के बाद कृष्ण श्योकंद का उभार हुआ था| इनकी ताकत और रुतबा यह था कि चंडीगढ़ जाते हुए अजय चौटाला की कार को सिरसा-चंडीगढ़ हाईवे पर जहाँ रुकने की बोलते थे अजय को रुकना पड़ता था| परन्तु वह अपना पूरा उभार ले पाते उससे पहले ही 1996 में हरयाणा में छात्रसंघ के चुनाव ही बंद हो गए| बांगर की राजनीति के दबंग नेता जयप्रकाश (जेपी) इसी राजनीति की देन हैं|

इसलिए छात्रसंघ चुनाव के आपसी गुटबाजी वाले नुकसान हैं तो ग्रामीण कल्चर के रुतबे और रुवाब को कायम रखने के अपने फायदे भी हैं| वरना आज देख लो क्या हालत हो रखी है, बड़े-बड़े तुर्रमखां भी टुच्चे नेताओं के आगे-पीछे टूरते है|

यही हालत पानीपत-कुरुक्षेत्र साइड होती थी| छात्र राजनीति इतनी बढ़िया चलती थी कि क्या कहने| नरवाना वालों की विंग का ख़ास प्रभाव होता था कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी में| "जींद कंट्री" (Jind Country) वाले बोला जाता था, नरवाना-जींद वालों को वहां|

भगवान करे कि प्रदीप देशवाल जल्द से जल्द स्वस्थ हो करआवें| रोहतक में छात्रराजनीति की यह पहली वारदात नहीं हुई है| नब्बे के दशक में होते थे एक से एक अलाही| ऐसे अलाही जो बीच चौराहे भजनलाल की धोती खोल लिया करते थे और भजनलाल तब भी चूं नहीं कर पाते थे| आज कोई नेताओं की धोती खोलना तो दूर उनकी तहमद तक हाथ ही पहुंचा के दिखा दो|

और इतने भावुक होने से क्या काम चलता है? क्या विधानसभा-लोकसभा चुनावों में जिस तरह के दांवपेंच, सरफुडाई, कुटाई, लड़ाई, दंगे-फसाद होते हैं उनसे भी बुरे हैं छात्रचुनाव? नहीं, कदापि नहीं| अपितु छात्रचुनाव का अनुभव रहता है तो बड़ी राजनीति और अच्छे से समझ आती है, उसके लिए ट्रेनिंग हो जाती है| वरना बिना छात्रराजनीति के अनुभव के तो भगत बनाने वाली फैक्ट्रियों द्वारा आपके बच्चे लपक लिए जाते रहेंगे और कभी ट्रेंड कबूतरों से ज्यादा कुछ नहीं बन पाएंगे| कभी अपना स्वछंद रवैया, रुतबा कायम नहीं कर पाएंगे| ऐसे ही फिरेंगे भगत बने फलाने-धकड़ों की बिना सोची जय बोलते| वैसे भी छात्रराजनीति में वही भाग लेते हैं जिनका पॉलिटिक्स में इंटरेस्ट होता है, जिनको डॉक्टर-इंजीनियर-सीए वगैरह बनना होता है; वह छात्रराजनीति होने पर भी चुपचाप पढाई करते हैं|

इसलिए अगर हमें "ट्रेंड-कबूतर" टाइप की बजाये "स्वछंद रवैये-रुवाब" वाले भविष्य के नेता चाहियें तो छात्रराजनीति जरूरी है |

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 3 January 2019

किस्सा हीर-राँझा!

देर रात काम करते-करते, यह रागणी याद हो आई!
बाबा जी तेरी श्यान पै बेहमाता चाळा करगी,
कलम-तोड़गी लिख दई पूँजी, रात दीवाळा करगी!
दिखे तेरे जैसे माणस नैं चाहियें थे हाथी-घोड़े,
तेरे ऊपर वार कें फेंकू, समझ कें मोती रोड़े!
रूप दिया तै भाग दिया ना, कर्म डाण नैं फोड़े,
बाबा जी तेरी शान देख कें, हाथ दूर तैं जोड़े!!
चाहियें थे सोने के तोडे, काठ की माळा करगी!
कलम-तोड़गी लिख दई पूँजी, रात दीवाळा करगी!
तेरे के से माणस के हों, पलटण-फ़ौज-रिसाले,
सुथरी बहु परोसे भोजन, भूख लागते ही खा ले!
अर्थ-मझोली, टमटम-बग्गी, जिब चाहे जुड़वा ले,
मेवा और मिष्ठान मिठाई, मोहन-भोग मसाले!!
चाहियें थे तैने शाल-दुःशाले, वा कंबळ काळा करगी,
कलम-तोड़गी लिख दई पूँजी, रात दीवाळा करगी!
दिखे लोहे की रित लगे बराबर, तू सोना अठमासी का,
किले-उजले घर चाहियें थे, बालम सोलह राशि का!
म्हारे के सी रह सेवा म्ह, रूप बना दासी का,
तेरे रूप की चमक इशी जाणु चाँद खिला परणवासी का!!
लख-चौरासी जीवजंतु, सहम रूखाळा करगी,
कलम-तोड़गी लिख दई पूँजी, रात दीवाळा करगी!
दिखे मांगेराम चाल पड्या घर तैं, लत्ते-चाळ ठान कें,
दुखी इसी मेरे जी म्ह आवै, मर ज्यां लिपट नाड कै!
और घनी दूर तैं देख लिया मैंने, अपनी नजर तार कें,
सारी दुनिया तोल लई सै, पक्के बाट हाड़ कैं!!
दिखे जिसने जाम्या पेट फाड़ कें, क्यों ना टाळा करगी,
कलम-तोड़गी लिख दई पूँजी, रात दीवाळा करगी!
बाबा जी तेरी श्यान पै बेहमाता चाळा करगी,
कलम-तोड़गी लिख दई पूँजी, रात दीवाळा करगी!
फूल मलिक

जब उदारवादी जमींदार को जानवरों पर बोलना होता है तो वह बोलता है, सिवाए इंसानी जानवरों के!

सबसे पहले: जमींदार दो तरह के होते हैं:

1) सामंतवादी जमींदार: इनकी पहचान "नौकर-मालिक वर्किंग कल्चर", "बंधुवा मजदूरी को बुरा नहीं मानते", "वर्णवादी व् जातिवादी ताकतों के सबसे बड़े पोषक होते हैं", "खेतों में खुद काम ना करके मजदूरों से करवाते हैं", "दलित-शूद्र का छुआ नहीं खाते-पीते, उसको पास बैठने नहीं देते", "गरीब-अमीर का अंतर् अव्वल दर्जे का होता है", "महिला क्या किसको कैसे कब पूजेगी इसका अधिकार मर्द समाज रखता है", "सोशल-मिल्ट्री-कल्चर नहीं होता", "सभाएं-पंचायतें पेड़ों के नीचे लगती हैं", "औलाद का गौत बाप का ही गौत होता है", "सोशल जस्टिस के नाम पर "जिसकी लाठी, उसकी भैंस" की रीत चलती है| बिहार-बंगाल-पूर्वांचल-झारखंड-उड़ीसा में सबसे ज्यादा यही जमींदारी पाई जाती है|

2) उदारवादी जमींदार: इनकी पहचान "सीरी-साझी वर्किंग कल्चर", "बंधुवा मजदूरी को बुरा मानते हैं", "वर्णवादी व् जातिवादी ताकतों से बचते हैं और विरोध करना पड़े तो वह भी करते हैं", "खेतों में मजदूर के साथ खुद भी काम करते हैं", "दलित-शूद्र, छुआछूत, ऊँचनीच लगभग ना के बराबर होता है", "गरीब-अमीर का अंतर् सबसे कम होता है अपेक्षाकृत बाकी के भारत के", "पूजा अर्चना का 100% अधिकार औरत के सुपुर्द होता है "दादा नगर खेड़ों के जरिये", "औलाद का गौत माँ का गौत भी हो सकता है", "सोशल मिल्ट्री कल्चर होता है", "सभाएं-पचायतें मिनी-फोर्ट्रेस टाइप की परस-चौपालों में होती आई हैं", "सोशल जस्टिस में दोनों पक्षों के झगड़े सुलझाने के बाद, उनके बीच भाईचारे को पुनर्स्थापित करना अहम् रहता है और ९९% होता भी है"| हरयाणा-वेस्ट यूपी-दिल्ली-पंजाब-उत्तरी राजस्थान में सबसे ज्यादा यही जमींदारी पाई जाती है|

लेख के शीर्षकानुसार बात उदारवादी जमींदारी की करेंगे| यह जमींदार फसल को औलाद की तरह पालते हैं (सामंती पलवाते हैं), फसल की आवारा जानवरों से रक्षा बड़े अच्छे से करते हैं| परन्तु जब यही फसल कट के इसको कैश करने की बात आती है तो इंसानी जानवरों के आगे धराशायी हो जाते हैं| यही बात उसकी औलाद रुपी फसल के बारे रहती है| शहरों में निकली उसकी औलादें, उसके कल्चर को, उसके आध्यात्म को, उसके सोशल इंजीनियरिंग को क्यों कायम नहीं रख पाते? 90% तो खुद को जमींदार की औलाद या जमींदार का वंश कहने तक से कतराते देखे हैं| औरों में तो धर्मों-जातियों-वर्णों को लेकर घृणा देखी जाती है, मगर यह तो बिलकुल इसी तरह की छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच समझने की घृणा गाम में पीछे अपने ही पिछोके वालों से करते देखे हैं|

कमी कहाँ है? आखिर ऐसा क्यों होता है?

हरयाणा के बड़े शहरों का उदाहरण लेते हैं| चंडीगढ़-गुड़गामा-रोहतक-हिसार-पानीपत-पंचकूला-करनाल-सोनीपत| इन शहरों में देश के अलग-अलग कोनों से आ के बसे हुए लोग भी हैं| परन्तु पडोसी राज्यों या सुदूर देश के सैंकड़ों-हजारों किलोमीटर के कोनों से आये क्षेत्रों के यह लोग, जिस स्वछंदता व् सिद्द्त से अपने कल्चर-भाषा-पहनावा-रहन-सहन-खान-पान इत्यादि को साथ लिए रहते हैं, यही उदारवादी जमींदारी परिवेश से अपने गाम से मात्र १०-२०-५० किलोमीटर अपनी होम-स्टेट ही के शहरों में आन बसे लोग क्यों नहीं रख पाते? वजहें क्या इसकी?

ऊपर जो उदारवादी जमींदारी के चरित्र-पहचान बारे बिंदु बताये, ऐसे बिंदु सिर्फ यूरोप-अमेरिका आदि के डेवलप्ड देशों में मिलते हैं| फिर भी इनको अंगीकार करने को तैयार नहीं?

कुछ एक साल पहले की बात है, मेरी सगी बुआ का लड़का, एक मेरे गाम का मेरे बचपन का मित्र, पेरिस के "इंडिया हाउस" हॉस्टल में इकठ्ठे हुए| मैंने आदतवश रागणी लगा दी और साथ की साथ वह फेसबुक पर भी अपडेट कर दी| इतने भर पे मुझे नसीहत दे डाली गई कि तुम यहाँ आकर भी इनमें डूबे हुए हो, तुम्हारा कुछ नहीं हो पायेगा| हालाँकि उनको पता था कि वह किसको और किस बात पर नसीहत देने की गलती कर बैठे| इसलिए मेरे बोलने से पहले ही एक्सक्यूज़ लेने की कोशिश करने लगे| परन्तु मुझे खिन्न ने घेर लिया था| इसलिए छोटा सा जवाब दिया|

झन्नाते हुए से सर के साथ बालकनी से बाहर देखने लगा| नीचे सड़क पर जाते हुए एक सरदार जी दिखे| मैंने उसकी तरफ इशारा करके कहा कि क्या उन सरदार जी को जा के यही बात कहने की हिम्मत रखते हो कि, "पेरिस में आ के भी तुम पगड़ी बांधे फिरते हो, तुम्हारा कुछ नहीं हो पायेगा"? और शायद पंजाबी भंगड़े-गाने भी मेरे से तो कुछ ज्यादा ही शेयर किये होंगे सोशल मीडिया पर सरदार जी ने? "इंडिया हाउस" हॉस्टल में थोड़ी देर पहले मिले "शिमला-टोपी" पहने एक हिमाचली की याद दिलवाई और पूछा कि क्या तुम उसको कह सकते हो कि, "पेरिस में आ के भी शिमला-टोपी लगाए फिरते हो, तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता"? दोनों मेरे को ऐसे देख रहे जैसे किसी ने पुचकार दिया हो|

फिर मैंने उनसे दूसरा सादा सवाल किया| यह बताओ यहाँ हम सिर्फ तीन हैं? तीनों हरयाणवी? तीनों एक जाति के भी हैं| गाम-खून-वंश में भी तीनों काफी नजदीकी हैं| फिर भी हम हमारी ही कल्चर की रीढ़ रागणी सुनने-शेयर करने पर सिर्फ इसलिए एकमत नहीं हैं कि हम पेरिस में बैठे हैं?

मैं उस सारी रात, इसकी वजह ढूंढता रहा|

मैंने आज तक यूरोपियन-अमेरिकन और हिंदुस्तानी उदारवादी जमींदारों की लाइफ व् कल्चरल फिलोसोफी में दसियों ऐसे समानताएं देश के सुप्रीम कोर्ट से लेकर लंदन की सभाओं और रिसर्च पेपर प्रेसेंटेशन्स में बताई और बढ़ाई हैं|

परन्तु आजतक इस पहेली का ऐसा माकूल हल नहीं निकाल पाया हूँ जिसके सहारे उदारवादी जमींदारों की शहरी व् ग्रामीण औलादों-वंशों को यह समझा सकूं कि पैसा कमाना, लाइफ स्टैण्डर्ड बेहतर करना, पावर कमाने का मतलब अपनी कल्चरल पहचान छुपाना, उससे दूरी बनाना तो कम-से-कम नहीं ही होता|

मैंने पेप्सी को की सीईओ इंदिरा नूई को अमेरिका में पब्लिक कांफ्रेंस में बैठ के खुद को "प्राउड साउथ इंडियन ब्राह्मण" कहते सुना-देखा है, यूट्यूब पर आज भी वह वीडियो पड़ी है; सर्च करके देख सकते हो|

तो फिर क्या-कैसी तो यह कमियां हैं और क्या-कैसे इसके हल होवें; ताकि उदारवादी जमींदारों के बीच की यह कमी समझी जा सके| कहीं ऐसा करते वक्त जेनेटिक उदारवाद हद से ज्यादा हावी होने वाली समस्या तो नहीं है; कि जिसके चलते दूसरे को कम्फर्टेबल स्पेस देने का गुण हावी हो जाता हो? अगर यही वजह है तो फिर इस पर तो यही कहूंगा कि "ना इतने मीठे बनो कि दुनिया निगल ले, और ना इतने कड़वे कि दुनिया उगल दे" वाली इस कहावत वाला मीठा कुछ ज्यादा ही हो रहा है|

और इसकी बलि एक ऐसा कल्चर चढ़ रहा है जो हिंदुस्तानी परिपेक्ष्यों में दूसरों की तुलना में सबसे अधिक लिबरल है, गणतांत्रिक है, लोकतान्त्रिक है और धर्म-आध्यात्म के मामले में तो इकलौती ऐसी थ्योरी जो पूजा के "दादा नगर खेड़ों" धामों में पूजा-विधान करने का पूरा अधिकार ही औरत को देकर रखता है| वह भी एक ऐसे देश में जिसकी तथाकथित सबसे पढ़ी-लिखी स्टेट में सबरीमला जैसा मंदिर औरतों के मंदिर प्रवेश अधिकार पर मर्दों से लड़ रहा है|

जरा सोचिये-विचारिये| ऊपर बताये अति-उदारवाद के साथ-साथ और कौनसे कारण हैं कि हम अपनी कल्चर-भाषा की पहचान को अन्य भारतियों की अपेक्षा कम विश्वास कैरी करते हैं?

हालाँकि मैं इसमें अपवाद हूँ और मुझे जो भी मिला और इस पहलु पर समझ पाया, वह या तो पहले से ही अपवाद था या हमारी संगत ने उसको अपवाद बना दिया| कुछ साथियों ने मिलके धरातल पर अभियान भी चलाया हुआ है परन्तु अपवाद हमारी मंजिल नहीं, जब तक कि इस अपवाद को संवाद ना बना दें|

आखिर कुछ तो है इस हरयाणे की हरयाणत उदारवादी जमींदारी में जो चेन्नई-मुंबई-गुजरात के पिटे हुए उत्तरी-पूर्वी भारतीय भी इस धरा को सेफ-हेवन मानते हैं और इधर रोजगार करने चले आते हैं| और तो और 1984 में जब पंजाब में आतंकवाद छिड़ा तो वहां के उजड़े भी यहीं बसे, कश्मीरी पंडित यहीं बसे| इतने गुण परन्तु फिर भी हम खुद को अपनों के बीच भी अपने कल्चर-आध्यात्म को लेकर सहज नहीं?

सबको सेफ-हेवन भी उदारवादी जमींदारी वाले हरयाणवियों का हरयाणा लगता है और नेशनल मीडिया के अनुसार देखो तो इससे खूंखार लोग और स्टेट भी कहीं की ना बताई? क्या यह बात इससे सुधर ना जाएगी, जिस दिन ऊपर बताई उदारवादी जमींदारी वाली परिभाषा हर सभा, हर मंच से गई सुनाई और गाई?

इंसानी जानवरों से रक्षा की बात अभी पूरी नहीं हुई है| कोई नी पहले इस लेख में उठाई बातों के कारण खोज लेवें, जानवरों से रक्षा वाले पहलु अगले लेख में लाऊंगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 13 October 2018

हरयाणवी सांझी, दशहरे, दुर्गा पूजा व् नवरात्रों (गरबों) में अंतर बताता मेरा तीन साल पुराना लेख!


Happy upcoming Sanjhi visarajn in advance!

दशहरे व् नवरात्रों के बारे तो मूलत: आप सभी जानते ही होंगे| आइए आपको बिलकुल सेम तारीखों में मनाये जाने वाले हरयाणा-हरयाणवियों के ठेठ त्यौहार "सांझी" बारे बताते हैं|

सांझी सिर्फ एक त्यौहार ही नहीं अपितु "खाप सोशल इकनोमिक साइकिल" का एक नायाब सिंबल भी रहा है|

मूल हरयाणवी परम्पराओं और समाज में हर त्यौहार को मनाने के आर्थिक इकॉनमी को चालू रखने के कारण प्रमुखता से होते आये हैं| उदारवादी जमींदारी सभ्यता से बाहुल्य इस समाज में हर त्यौहार या तो आर्थिक लाभ-हानि, लेन-देन से जुड़ा होता आया है या फसल चक्र से या फिर सामाजिक व् वास्तविक मान-मान्यता त्योहारों के जरिये सीखने-सिखाने के तरीकों से जुड़ा होता आया है| काल्पनिक कहानियों के आधार पर घड़े हुए त्योहारों से हरयाणा मुक्त ही रहा है|

अभी पड़ोसी राज्यों के शरणार्थी और विस्थापित भाई-बहनों के हमारे यहां पलायन के चलते और खुद हम कट्टर प्रवृति के ना होते हुए इन त्योहारों को मनाने लगे| परन्तु हमें अपने मूल त्यौहार भी कभी नहीं भूलने चाहियें|

जैसे कि हमारे यहां गुजरात के गरबों (नवरात्रों) व् सांझी विसर्जन के साथ-साथ सांझी विसर्जन की दशमीं की रात तमाम पुराने मिटटी के बने पानी रखने के लिए प्रयोग होने वाले बर्तन गलियों में फेंक के फोड़े जाया करते थे, जैसे मटका, माट आदि| और इसका कुम्हार की इकॉनमी से जुड़ा कारण हुआ करता| साल में एक बार यह पुराने हो चुके बर्तन फोड़ते आये हैं हम| क्योंकि इसी वक्त कुम्हार के चाक से बने नए बर्तन पक के तैयार हो जाया करते और उसकी बिक्री हो इसलिए हर घर पुराने बर्तन तोड़ दिया करता था|

हालाँकि सारे बर्तन नहीं तोड़े जाया करते, परन्तु कुम्हार को उसकी इकॉनमी चलाने हेतु सिंबॉलिक परम्परा बनी रहे, इसलिए हर घर कुछ बर्तन या जो वाकई में जर्जर हो चुके होते, उनको जरूर फोड़ा करता| और कुम्हार को उसके बिज़नेस की आस्वस्तता जरूर झलकाया करता|

खुद मैंने बचपन में मेरी बुआओं के साथ घर के पुराने मटके गलियों में फोड़ते देखा भी है और फोड़े भी हैं| इसको "जाटू सोशल इकनोमिक साइकिल" भी कहा करते हैं| मुझे विश्वास है कि जो चालीस-पचास की उम्र के हरयाणवी फ्रेंड मेरी लिस्ट में हैं वो मेरी इस बात से सहमत भी करेंगे|

ठीक इसी प्रकार हमारे यहां खेतों में गन्ना पकने के वक्त पहला गन्ना तोड़ के लाने पे दिए जलाये जाते थे, परन्तु इसको अवध-अयोध्या से इम्पोर्टेड दिवाली के साथ रिप्लेस करवा दिया गया|

बसंत-पंचमी तो सब जानते हैं कि सरसों पे पीले फूल आने की ख़ुशी में मनता आया है|

बैशाखी गेहूं की फसल पकने की ख़ुशी में मनती आई है|

आइये अब ठेठ-हरयाणवी भाषा में जानते हैं कि कैसे सांझी का त्यौहार इकनोमिक साइकिल के साथ-साथ कल्चरल लर्निंग्स भी देता है:

सांझी का पर्व: सांझी सै हरयाणे के आस्सुज माह का सबतैं बड्डा दस द्य्नां ताहीं मनाण जाण आळा त्युहार, जो अक ठीक न्यूं-ए मनाया जा सै ज्युकर बंगाल म्ह दुर्गा पूज्जा, या गुजरात म्ह गरबा अर अवध म्ह दशहरा दस द्यना तान्हीं मनाया जांदा रह्या सै|

हरयाणवी कल्चर में पराणे जमान्ने तें ब्याह के आठ द्य्न पाछै भाई बेबे नैं लेण जाया करदा अर दो द्य्न बेबे कै रुक-कें फेर बेबे नैं ले घर आ ज्याया करदा। इस ढाळ यू दसमें द्य्न बेबे सुसराड़ तैं पीहर आ ज्याया करदी। इसे सोण नैं मनावण ताहीं आस्सुज की मोस तैं ले अर दशमी ताहीं यू उल्लास-उत्साह-स्नेह का त्युहार मनाया जाया करदा। अर इस्ते नई पीढ़ी के बालकों ताहिं इस कस्टम की बारीकी खेल-खेल में सीखा दी जाया करती|

आस्सुज की मोस तें-ए क्यूँ शरू हो सै सांझी का त्युहार: वो न्यूं अक इस द्य्न तैं ब्याह-वाण्या के बेड़े खुल ज्यां सें अर ब्याह-वाण्या मौसम फेर तैं शरू हो ज्या सै। इस ब्याह-वाण्या के मौसम के स्वागत ताहीं यू सांझी का दस द्य्न त्युहार मनाया जाया करदा/जा सै। ब्याह-वाण्याँ का मौसम इसलिए क्योंकि इस वक्त जमींदार-किसान अपने खेती-बाड़ी से फ्री वक्त में होता था, या तो फसल पकाई पे आ चुकी होती थी या कट चुकी होती थी| तो घर में धन की उपलब्धता भी और वक्त भी दोनों होते थे| प्रैक्टिकल और व्याहारिक वजहें बता दी हैं, इसकी वजहें खामखा तंत्र-पंत्रों में जोड़ के देखने की जरूरत ना है|

के हो सै सांझी का त्युहार: जै हिंदी के शब्दां म्ह कहूँ तो इसनें भींत पै बनाण जाण आळी न्य्रोळी रंगोली भी बोल सकें सैं| आस्सुज की मोस आंदे, कुंवारी भाण-बेटी सांझी घाल्या करदी। जिस खात्तर ख़ास किस्म के सामान अर तैयारी घणे द्य्न पहल्यां शरू हो ज्याया करदी।

सांझी नैं बनाण का सामान: आल्ली चिकणी माट्टी/ग्यारा, रंग, छोटी चुदंडी, नकली गहने, नकली बाल (जो अक्सर घोड़े की पूंछ या गर्दन के होते थे), हरा गोबर, छोटी-बड़ी हांड़ी-बरोल्ले। चिकनी माट्टी तैं सितारे, सांझी का मुंह, पाँव, अर हाथ बणाए जाया करदे अर ज्युकर-ए वें सूख ज्यांदे तो तैयार हो ज्याया करदा सांझी बनाण का सारा सामान|

सांझी बनाण का मुहूर्त: जिह्सा अक ऊपर बताया आस्सुज के मिन्हें की मोस के द्य्न तैं ऊपर बताये सामान गेल सांझी की नीम धरी जा सै। आजकाल तो चिपकाणे आला गूंद भी प्रयोग होण लाग-गया पर पह्ल्ड़े जमाने म्ह ताजा हरया गोबर (हरया गोबर इस कारण लिया जाया करदा अक इसमें मुह्कार नहीं आया करदी) भींत पै ला कें चिकणी माट्टी के बणाए होड़ सुतारे, मुंह, पाँ अर हाथ इस्पै ला कें, सूखण ताहीं छोड़ दिए जा सैं, क्यूँ अक गोबर भीत नैं भी सुथरे ढाळआँ पकड़ ले अर सुतारयां नैं भी। फेर सूखें पाछै सांझी नैं सजावण-सिंगारण खात्तर रंग-टूम-चुंदड़ी वगैरह लगा पूरी सिंगार दी जा सै।

सांझी के भाई के आवण का द्यन: आठ द्यन पाछै हो सै, सांझी के भाई के आण का द्य्न। सांझी कै बराबर म्ह सांझी के छोटे भाई की भी सांझी की ढाल ही छोटी सांझी घाली जा सै, जो इस बात का प्रतीक मान्या जा सै अक भाई सांझी नैं लेण अर बेबे की सुस्राड़ म्ह बेबे के आदर-मान की के जंघाह बणी सै उसका जायजा लेण बाबत दो द्य्न रूकैगा|

दशमी के द्य्न भाई गेल सांझी की ब्य्दाई: इस द्यन सांझी अर उनके भाई नैं भीतां तैं तार कें हांड़ी-बरोल्ले अर माँटा म्ह भर कें धर दिया जा सै अर सांझ के बख्त जुणसी हांडी म्ह सांझी का स्यर हो सै उस हांडी म्ह दिवा बाळ कें आस-पड़ोस की भाण-बेटी कट्ठी हो सांझी की ब्य्दाई के गीत गांदी होई जोहडां म्ह तैयराण खातर जोहडां क्यान चाल्या करदी।

उडै जोहडां पै छोरे जोहड़ काठे खड़े पाया करते, हाथ म्ह लाठी लियें अक क्यूँ सांझी की हंडियां नैं फोडन की होड़ म्ह। कह्या जा सै अक हांडी नैं जोहड़ के पार नहीं उतरण दिया करदे अर बीच म्ह ए फोड़ी जाया करदी|

भ्रान्ति: सांझी के त्युहार का बख्त दुर्गा-अष्टमी अर दशहरे गेल बैठण के कारण कई बै लोग सांझी के त्युहार नैं इन गेल्याँ जोड़ कें देखदे पाए जा सें। तो आप सब इस बात पै न्यरोळए हो कें समझ सकें सैं अक यें तीनूं न्यारे-न्यारे त्युहार सै। बस म्हारी खात्तर बड्डी बात या सै अक सांझी न्यग्र हरयाणवी त्युहार सै अर दुर्गा-अष्टमी बंगाल तैं तो दशहरा अयोध्या व् थाईलैंड का त्युहार सै। दुर्गा-अष्टमी अर दशहरा तो इबे हाल के बीस-तीस साल्लां तैं-ए हरयाणे म्ह मनाये जाण लगे सें, इसतें पहल्यां उरानै ये त्युहार निह मनाये जाया करदे। दशहरे को हरयाणे म्ह पुन्ह्चाणे का सबतें बड्डा योगदान राम-लीलाओं नैं निभाया सै|

आप सभी को शुद्ध हरयाणवी त्यौहार सांझी की बधाई के साथ-साथ, गुजरात के गरबा, बंगाल की दुर्गा पूजा (नवरात्रे), अवध व् थाईलैंड के दशहरे की भी शुभकामनाएं|

जय योद्धेय! - फूल मलिक




Tuesday, 12 June 2018

दुलीना-गोहाना-मिर्चपुर-भगाना से दूबलधन-मोखरा तक!

दुलीना-गोहाना-मिर्चपुर-भगाना से दूबलधन-मोखरा तक:

यानि दलितों को जाटों से भिड़ाने या जाटों को दलितों का दुश्मन दिखाने या जाटों का भाईचारा तोड़ने से ट्राई करके अब ओबीसी के साथ वही एपिसोड दोहराने की इन कोशिशों में जाट ही सॉफ्ट-टारगेट क्यों है, जाट ही कॉमन क्यों है?

दलितों को आज के दिन यह चीज समझ आ चुकी है कि जाट उनका दुश्मन नहीं, बल्कि ऐसा दिखाने के षड्यंत्र किये गए थे| देखें ओबीसी को यह बात कब तक समझ आती है कि जाट दुश्मन उनका भी नहीं, परन्तु उनको कब तक यह बात समझ आती है, देखें|

चार-पांच साल से यह बदलाव देखा आपने?

दुलीना-गोहाना-मिर्चपुर-भगाना की बजाये दूबलधन-मोखरा रचने-रचवाने की साजिशें सामने आ रही हैं? इतना समझ लीजिये कि दोनों के पीछे ताकत एक ही है| वक्त रहते ही पहचान लीजिये|

दलित तो जाट के साथ प्रोफेशनल रिश्ते के तहत खेतों में काम करता रहा है, इसलिए यह बात समझ भी आ सकती थी कि उन प्रोफेशनल रिश्तों की कड़वाहट को जाट के दुश्मन दुलीना-गोहाना-मिर्चपुर-भगाना के जरिये भुना गए| परन्तु ओबीसी के साथ किस बात के मनमुटाव बढ़ाने के षड्यंत्र आजमाए जा रहे हैं, दूबलधन व् मोखरा के जरिये? अभी तक शुक्र है कि यह कांड हुए नहीं, परन्तु ऐसा करवाने की मंशा लिए लोग यहीं पर रुक जायेंगे इसकी कोई मियाद नहीं|

एक नाई ने बाल काटे तो जाट ने बदले में पैसा-तूड़ा-अनाज-हरा चारा दिया जाता रहा|
एक कुम्हारी ने मिटटी के बर्तन दिए तो जाट ने बदले में पैसा-तूड़ा-अनाज-हरा चारा दिया जाता रहा|
एक लुहार ने औजार बनाये तो जाट ने बदले में पैसा-तूड़ा-अनाज-हरा चारा दिया जाता रहा|
एक जुलाहे ने कपड़े-लत्ते-गाब्बे सीए तो जाट ने बदले में पैसा-तूड़ा-अनाज-हरा चारा दिया जाता रहा|
एक माली ने फल-फूल दिए तो जाट ने बदले में पैसा-तूड़ा-अनाज-हरा चारा दिया जाता रहा|

यहाँ तक कि एक बाहमण (वैसे आर्य-समाजी होने के कारण अधिकतर जाट यह कार्य खुद ही कर लिया करते थे, हाँ आजकल चलन में बदलाव जरूर है, परन्तु बदलाव अब वापिस जड़ों की तरफ मुड़ने भी लगा है) ने फेरे करवाए तो जाट ने बदले में पैसा-खाना दिया जाता रहा|

ना जाट ने कभी इनको चतुरवणीर्य व्यवस्था के तहत छूत-अछूत की तरह ट्रीट किया| ना जाट ने कभी देवदासियों की भाँति कभी किसी दलित-ओबीसी की बेटी का सार्वजनिक स्थल में सामूहिक बलात्कार किया (अब यहाँ पर्दे के पीछे होने या पाए जाने वाले अवैध संबंधों को जुल्म मत कह दीजियेगा, क्योंकि जो अवैध होता है वह जुल्म नहीं सहमति से होता है या किसी लोभ-प्रलोभन-लालच में होता है)| ना कभी किसी ओबीसी-दलित को बिहार-बंगाल के ओबीसी-दलित की भांति वहां के सवर्णों की भांति जाट ने इतना सताया कि उनसे तंग आकर मात्र बेसिक दिहाड़ी के लिए वह लोग हरयाणा-पंजाब में जैसे मारे-मारे फिरते हैं, ऐसे यहाँ का ओबीसी-दलित को कभी हरयाणा-पंजाब से बाहर जाना पड़ा हो (हाँ स्वेच्छा से बड़े व्यापार-नौकरी के चलते बेशक कोई गया हो, वह तो जाट भी जाते रहते हैं)|

जाट ने तो बल्कि चतुर्वर्णीय व्यवस्था को धत्ता बताते हुए, "गाम-गुहांड-गौत" के कांसेप्ट दिए| "छतीस बिरादरी, सर्वधर्म की बेटी सबकी बेटी" के सिद्धांत दिए और सिद्द्त से निभाए| आज भी बारातें जहाँ जाती हैं, वहां अपने गाम की छतीस बिरादरी की बेटी की मान बराबरी से करके आती हैं|

तो फिर क्यों ओबीसी को जाट का पीड़ित दिखाने की साजिशें अंजाम दिलवाने की दूबलधन व् मोखरा के जरिये कोशिशें हो रही हैं?

यह वक्त है जाट बुद्धिजियों, यौद्धेयों, खाप चौधरियों के जाग जाने का, और सोशल मीडिया व् ग्राउंड पर इन हकीकतों से हर ओबीसी को वाकिफ करवाने का, करवाए रखने का|

वरना रोहतक-झज्जर में जो यह करवाने को एंटी-जाट विचारधारा मंडरा रही है इसका अंत परिणाम यह होगा कि बैठे-बिठाये बिना किसी दोष के ओबीसी भी आपसे कट लेगा (हाँ समझेगा जरूर, जैसे दलित ने समझा; परन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी होगी) और खाजकुमार खैनी जैसों के जरिये तो ओबीसी का वोट ले जायेंगे और ठगपाल कालिख के जरिये जाटों का| हुड्डा-चौटाला आदि को भी अगर अपने क्षेत्र के इन हालातों की खबर है तो चुप ना बैठें| इस लेख की बातें अपने कैडर के जरिये ग्राउंड तक आप भी ले जा सकते हैं, ले जा सकते हैं कि इससे पहले देर हो जाए| और खैनी के जरिये ओबीसी का और कालिख के जरिये जाटों का वोट एंटी-जाट सोच के लोग ले उड़ें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 6 January 2018

कहलवा दो दिल्ली के नवाब को, "जाट सूरमे आये हैं और राणी हिंडौली को साथ लाये हैं! देखें वह राणी ले जाता है या हरदौल को देने घुटनों के बल आता है"!

महाराजाधिराज सूरजमल सुजान की पुण्यतिथि (25 दिसंबर 1763) को समर्पित !

1) दुर्दांत इतना कि जब सब अब्दाली के भय से दुबके हुए थे, वह बेख़ौफ़ अब्दाली के दुश्मनों यानि तीसरे पानीपत युद्ध के घायल बाह्मण पेशवा व् उनकी सेना की मरहमपट्टी कर रहा था!

2) दयालु इतना कि उसी को 'दुशाला पाट्यो भलो, साबुत भलो ना टाट, राजा भयो तो का भयो रह्यो जाट-गो-जाट' का तंज कसने वाले पेशवा सदाशिवराव भाऊ की घायल फ़ौज को अपने रोहतक से ले जयपुर तक फैले राज्य में शरण-रशद व् दवा-दारु देने का आदेश दे देता है|

3) कूटनैतिक ऐसा कि पानीपत युद्ध के घायल पेशवाओं की मदद करने से उससे क्रुद्ध अब्दाली ने जब उसे धमकाने की कोशिश करी तो ऐसा कुटिल जवाब दिया कि अब्दाली की भरतपुर पर हमला करके जाटों को सबक सिखाने की धरी-की-धरी रह गई|

4) वर्णवाद और जातिवाद से रहित ऐसा कि अपना खजांची चमार बनाया हुआ था और सेनापति-दूत गुज्जर को|

5) धर्मनिरपेक्ष इतना कि एक पाले मस्जिद बनवाता था तो दूसरे पाले मंदिर|

6) कौम समाज की इज्जत का इतना सरोकार कि दिल्ली नवाबों की कैद में पड़ी बाह्मण बेटी हरदौल को अपनी बेटी मानते हुए, अफलातूनी अंदाज में जब, "अरे आवें हो भरतपुर के जाट, दिल्ली के हिला दो चूल और पाट" का हल्कारा बोलता हुआ छुड़ाने निकला तो मुग़ल कह उठे, "तीर-चलें-तलवार-चलें, चलें कटारें इशारों तैं! अल्लाह मियां भी बचा नहीं सकदा जाट भरतपुर वाले तैं!!"

7) दबंग और आत्मविश्वासी इतना कि हरदौल को छुड़ाने वाले युद्ध में रानी हिंडौली को भी नवाब की ख्वाइस पर साथ ले गया था और गुड़गांव में डाल के पड़ाव संदेशा दिया कि, "कह दो नवाब को, जाट सूरमे आये हैं और राणी हिंडौली को साथ लाये हैं! देखें वह राणी ले जाता है या हरदौल को देने घुटनों के बल आता है!"

8) चतुर व् पारखी इतनी कि बाजीराव पेशवा व् सदाशिवराव भाऊ दोनों की उसको बंदी बनाने की, उसकी सेना का इस्तेमाल करने की चालें भांप, उनको चकमा दे तुरंत शिविर से बच निकला|

9) युद्ध कौशल का माहिर ऐसा कि बागरु (मोती-डूंगरी) की लड़ाई में मुग़ल-पुणे पेशवा-राजपूतों की 330000 की 7-7 सेनाओं को मात्र 20000 की छोटी सी फ़ौज के साथ 3-3 दिन रण में छका के हरा देता था|

10) मैत्री इतना कि जयपुर का ताज किसके सर सजेगा इसका फैसला हाथों-हाथ कर देता था और माधो सिंह के सर से ताज उतार राजा ईश्वरी सिंह के सर सजा देता था|

11) उसी की हृदय-विशालता ने समाज को "बिन जाटों किसने पानीपत जीते", "जाट मरा तब जानिये जब तेरहवीं हो ले" की कहावतें दी|

12) जिसकी दूरदर्शी सोच व् भवन निर्माण कला ने समूचे भारत का ऐसा किला लोहागढ़ दिया कि जिसको अंग्रेज भी 13-13 हमले करके जीत नहीं पाए और आखिरकार 'ट्रीटी ऑफ़ फ्रेंडशिप एंड इक्वलिटी' करनी पड़ी|
हिन्दू-हिन्दू चिल्लाने से हिंदुत्व नहीं आने वाला, असली हिन्दू-हीरों को सम्मान देना सीखो! उनकी महानताओं को बराबरी से गाना और उठाने का जज्बा रखो|

और आज के दिन नोट करो कि इस "एशियाई ओडियसस" व् "जाटों के प्लेटो" के नाम से मशहूर हुए अफलातून को कौन-कौन याद करने की हिम्मत जुटा पाता है| वरना छोड़ दो दोगलों के पीछे दुम हिलाना क्योंकि, 'यूँ व्यर्थ में काका कहें काकड़ी आज तक किसी को मिली हो तो तुम्हें मिलेगी!'

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आज 1 जनवरी यानि सर्वखाप बलिदान दिवस पर सर्वखाप-यौधेयों को कोटि-कोटि नमन व् इंग्लिश नववर्ष की शुभकामनाएं!

उदारवादी जमींदारे के इतिहास में तीन ऐसी विशाल किसान-क्रांतियां हुई हैं जिनमें से एक का आज बलिदान दिवस है, यह तीन रही हैं:

1 - मई से दिसंबर 1669 , 7 महीने हुई औरंगजेब के बढ़ाए गैर-वाजिब कृषि-करों के खिलाफ गॉड-गोकुला जी महाराज की अगुवाई में हुई सर्वखाप किसान क्रांति! इसके बारे विस्तार से नीचे पढ़ेंगे| 
2 - वर्ष 1907 में 9 महीने चली, अंग्रेजों के बनाए तीन गैर-वाजिब कृषि-कानूनों के खिलाफ चाचा सरदार अजित सिंह जी की अगुवाई में "पगड़ी संभाल जट्टा" शीर्षक से हुई किसान क्रांति| नतीजा कृषि कानून वापिस लिए गए व् चाचा अजित सिंह को आजीवन देश निकाला झेलना पड़ा| 
3 - वर्ष 2020-21 में 13 महीने चली, मोदी सरकार के बनाए तीन काले कृषि-कानूनों के खिलाफ, संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले| नतीजा काले कानून वापिस लिए गए| 

इस ऐतिहासिक परम्परा व् प्रेरणा की पृष्ठभूमि से निकलती है हमारी किनशिप| आईए जानते हैं कि सन 1669 वाली किसान-क्रांति में क्या कैसे हुआ था:  


ब्रज (हरयाणा व् वेस्टर्न यूपी दोनों का दक्षिणी हिस्सा व् उत्तरी-पूर्वी राजस्थान) के उदारवादी जमींदारों की थी सन 1669 की किसान-क्रांति, जिसने उत्तरी हिंदुस्तान का इतिहास बदल के रख दिया! उस क्रांति के अगुआ समरवीर अमरज्योति गॉड-गोकुला जी महाराज को 01/01/1670 को दर्दनाक मौत दी गई थी उन्हीं को समर्पित है यह विशेष आर्टिकल:

गॉड-गोकुला के नेतृत्व में चले इस विद्रोह का सिलसिला May 1669 से लेकर December 1669 तक 7 महीने चला और अंतिम निर्णायक युद्ध तिलपत, फरीदाबाद में तीन दिन चला| यह हिंदुस्तान के उस वर्ग यानि सर्वखाप की कहानी है जिसमें सर्वखाप के दिए अखाड़ा-कल्चर से उपजता मिलिट्री-कल्चर पाया जाता है|

कहानी बताने का कुछ कविताई अंदाज से आगाज करते हैं:
हे री मेरी माय्यड़ राणी, सुनणा चाहूँ 'गॉड-गोकुला' की कहाणी,
गा कें सुणा दे री माता, क्यूँकर फिरी थी शाही-फ़ौज उभाणी!
आ ज्या री लाडो, हे आ ज्या मेरी शेरणी,
सुण, न्यूं बणी या तेरे पुरखयां की टेरणी!
एक तिलपत नगरी का जमींदार, गोकुला जाट हुया,
सुघड़ शरीर, चुस्त दिमाग, न्याय का अवतार हुया!
गूँज कें बस्या करता, शील अर संतोष की टकसाल हुया,
ब्रजमंडल की धरती पै हे बेबे वो तै, जमींदारी का सरताज हुया!!
यू फुल्ले-भगत गावै हे लाडो, सुन ला कैं सुरती-स्याणी!

1) यह खाप-समाजों में पाए जाने वाले उस मिलिट्री-कल्चर की वजह से सम्भव हो पाता है, जो खापलैंड के गाम-गाम गेल पाए जाने वाले अखाड़ा-कल्चर से पनपता है, कि जब-जब देश-समाज को इनके पुरुषार्थ की जरूरत पड़ी, इन्होनें रातों-रात फ़ौज-की-फौजें और रण के बड़े-से-बड़े मैदान सजा के खड़े कर दिए| आईये जानें उसी मिलिट्री कल्चर से उपजी एक ऐतिहासिक लड़ाई की दास्ताँ, जिसकी अगुवाई करी थी 1 जनवरी 1670 के दिन शहीद हुए 'गॉड-गोकुला जी महाराज' ने|
2) यह हुई थी औरंगजेब की अन्यायकारी किसान कर-नीति के विरुद्ध ‘गॉड गोकुला’ की सरपरस्ती में| जाट, मेव, मीणा, अहीर, गुज्जर, नरुका, पंवारों आदि से सजी सर्वखाप की हस्ती में||
3) राणा प्रताप से लड़ने अकबर स्वयं नहीं गया था, परन्त "गॉड-गोकुला” से लड़ने औरंगजेब तक को स्वयं आना पड़ा था।
4) हल्दी घाटी के युद्ध का निर्णय कुछ ही घंटों में हो गया था| पानीपत के तीनों युद्ध एक-एक दिन में ही समाप्त हो गए थे, परन्तु तिलपत (तब मथुरा में, आज के दिन फरीदाबाद में) का युद्ध तीन दिन चला था| यह युद्ध विश्व के भयंकरतम युद्धों में गिना जाता है|
5) अगर 1857 अंग्रेजों के खिलाफ आज़ादी का पहला विद्रोह माना जाए तो 1669 मुग़लों की कर-नीतियों के खिलाफ प्रथम विद्रोह था|
6) एक कविताई अंदाज में तब के वो हालत जिनके चलते God Gokula ने विद्रोह का बिगुल फूंका:
सम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार, गिद्ध, चील उड़ते दिखाई देते थे|
हर तरफ धुंए के बादल और धधकती लपलपाती ज्वालायें चढ़ती थी|
राजे-रजवाड़े झुक चुके थे; फरसों के दम भी जब दुबक चुके थे|
यूनिवर्स के ब्रह्मज्ञानियों के ज्ञान और कूटनीतियाँ कुंध हो चली थी|
चारों ओर त्राहिमाम-2 का क्रंदन था, ना इंसान ना इंसानियत के रक्षक थे|
तब उन उमस के तपते शोलों से तब प्रकट हुआ था वो महाकाल का यौद्धेय|
उदारवादी जमींदार समरवीर अमरज्योति गॉड-गोकुला जी महाराज|
7) इस युद्ध में खाप वीरांगनाओं के पराक्रम की साक्षी तिलपत की रणभूमि की गौरवगाथा कुछ यूँ जानिये:
घनघोर तुमुल संग्राम छिडा, गोलियाँ झमक झन्ना निकली,
तलवार चमक चम-चम लहरा, लप-लप लेती फटका निकली।
चौधराणियों के पराक्रम देख, हर सांस सपाटा ले निकलै,
क्या अहिरणी, क्या गुज्जरी, मेवणियों संग पँवारणी निकलै|
चेतनाशून्य में रक्तसंचारित करती, खाप की एक-2 वीरा चलै,
वो बन्दूक चलावें, यें गोली भरें, वो भाले फेंकें तो ये धार धरैं|
(8) God Gokula के शौर्य, संघर्ष, चुनौती, वीरता और विजय की टार और टंकार राणा प्रताप से ले शिवाजी महाराज और गुरु गोबिंद सिंह से ले पानीपत के युद्धों से भी कई गुणा भयंकर हुई| जब God Gokula के पास औरंगजेब का संधि प्रस्ताव आया तो उन्होंने कहलवा दिया था कि, "बेटी दे जा और संधि (समधाणा) ले जा|" उनके इस शौर्य भरे उत्तर को पढ़कर घबराये औरंगजेब का सजीव चित्रण कवि बलवीर सिंह ने कुछ यूँ किया है:
पढ कर उत्तर भीतर-भीतर औरंगजेब दहका धधका,
हर गिरा-गिरा में टीस उठी धमनी धमीन में दर्द बढा।
9) राजशाही सेना के साथ सात महीनों में हुए कई युद्धों में जब कोई भी मुग़ल सेनापति God Gokula को परास्त नहीं कर सका तो औरंगजेब को विशाल सेना लेकर God Gokula द्वारा चेतनाशून्य उदारवादी जमींदारी जनमानस में उठाये गए जन-विद्रोह को दमन करने हेतु खुद मैदान में उतरना पड़ा| और उसको भी एक के बाद एक तीन हमले लगे थे उस विद्रोह को दबाने में|
10) आज उदारवादी जमींदारी (सीरी-साझी कल्चर वाली, समातंवादी जमींदारी नहीं) की रक्षा का तथा तात्कालिक शोषण, अत्याचार और राजकीय मनमानी की दिशा मोड़ने का यदि किसी को श्रेय है तो वह केवल 'गॉड-गोकुला' को है।
11) 'गॉड-गोकुला’ का न राज्य ही किसी ने छीना लिया था, न कोई पेंशन बंद कर दी थी, बल्कि उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली मुग़ल-सत्ता, दीनतापूर्वक, संधी करने की तमन्ना लेकर गिड़-गिड़ाई थी।
12) हर धर्म के खाप विचारधारा (सिख धर्म में मिशल इसका समरूप हैं) को मानने वाले समुदाय के लिए: बौद्ध धर्म के ह्रास के बाद से एक लम्बे काल तक सुसुप्त चली खाप थ्योरी ने महाराजा हर्षवर्धन के बाद से राज-सत्ता से दूरी बना ली थी (हालाँकि जब-जब पानी सर के ऊपर से गुजरा तो ग़ज़नी से सोमनाथ की लूट को छीनने, पृथ्वीराज चौहान के कातिल मोहम्मद गौरी को मारने, कुतबुद्दीन ऐबक का विद्रोह करने, तैमूरलंग को हराकर हिंदुस्तान से भगाने, राणा सांगा की मदद करने हेतु सर्वखाप अपनी नैतिकता निभाती रही)| जो शक्तियां आज खाप थ्योरी के समाज पर हावी होना चाह रही हैं, तब इनकी इसी तरह की चक-चक से तंग आकर राजसत्ता इनके भरोसे छोड़, खुद कृषि व् संबंधित व्यापारिक कार्य संभाल लिए थे| परन्तु यह शक्तियां कभी हिंदुस्तान को स्वछंद व् स्वतंत्र नहीं रख सकी| और ऐसे में 1669 में जब खाप थ्योरी का समाज "गॉड-गोकुला" के नेतृत्व में फिर से उठा तो ऐसा उठा कि अल्पकाल में ही भरतपुर और लाहौर जैसी भरतपुर और लाहौर के बीच दर्जनों शौर्य की अप्रतिम रियासतें खड़ी कर दी| ऐसे उदाहरण हमें आश्वस्त करते हैं कि खाप विचारधारा में वो तप, ताकत और गट्स हैं जिनका अनुपालन मात्र करते रहने से हम सदा इतने सक्षम बने रहते हैं कि देश के किसी भी विषम हालात को मोड़ने हेतु जब चाहें तब अजेय विजेता की भांति शिखर पर जा के बैठ सकते हैं|
13) हर्ष होता है जब कोई हिंदूवादी या राष्ट्रवादी संगठन राणा प्रताप, शिवाजी महाराज व् गुरु गोबिंद सिंह जी के जन्म या शहादत दिवस पर शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करते हैं| परन्तु जब यही लोग "गॉड गोकुला" जैसे अवतारों को (वो भी हिन्दू होते हुए) याद तक नहीं करते, तब इनकी राष्ट्रभक्ति थोथी लगती है और इनकी इस पक्षपातपूर्ण सोच पर दया व् सहानुभूति महसूस होती है| दुर्भाग्य की बात है कि हिंदुस्तान की इन वीरांगनाओं और सच्चे सपूतों का कोई उल्लेख, दरबारी टुकडों पर पलने वाले तथाकथित इतिहासकारों ने नहीं किया। हमें इनकी जानकारी मनूची नामक यूरोपीय यात्री के वृतान्तों से होती है। अब ऐसे में आजकल भारत के इतिहास को फिर से लिखने की कहने वालों की मान के चलने लगे और विदेशी लेखकों को छोड़ सिर्फ इनको पढ़ने लगे तो मिल लिए हमें हमारे इतिहास के यह सुनहरी पन्ने| खैर इन पन्नों को यह लिखें या ना लिखें (हम इनसे इसकी शिकायत ही क्यों करें), परन्तु अब हम खुद इन अध्यायों को आगे लावेंगे| और यह प्रस्तुति उसी अभियान का एक हिस्सा है| आशा करता हूँ कि यह लेख आपकी आशाओं पर खरा उतरा होगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आने वाले कल के नवदलित बन जायेंगे भारत के उदारवादी जमींदार अगर इन बातों पर गौर नहीं फ़रमाया तो!

धरती पर धन अर्जित करने के जरियों को मुख्यत: चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

1) धर्म के धंधों के जरिये
2) वस्तुओं व् मानवीय सेवाओं के व्यापार के जरिये
3) जमींदारी व् इससे संबंधित व्यापारों के जरिये
4) मजदूरी/कर्मचारी/नौकरी के जरिये

भारतीय जमींदारी में भी दो प्रकार हैं| एक सामंतवादी जमींदारी और एक उदारवादी जमींदारी| उत्तरी-पश्चिमी भारत में मुख्यत उदारवादी जमींदारी होती है, बाकी भारत में सामंतवादी जमींदारी होती है| दोनों में मुख्य अंतर् यह है कि सामंती जमींदारी छूत-अछूत,शूद्र-स्वर्ण व् ऊंच-नीच के भेद से चलती है जबकि उदारवादी जमींदारी सीरी-साझी यानि सुख-दुःख-आमदनी के वर्किंग पार्टनर कल्चर के मानवीय सिद्धांत पर| जहाँ-जहाँ देश में वर्णवादी व् शूद्र-स्वर्ण व्यवस्था हावी रही है वहां-वहां सामंती जमींदारी चली आई है और जहाँ-जहाँ सीरी-साझी संस्कृति रही है वहां उदारवादी जमींदारी|

इसको कुछ यूँ भी समझ लीजिये कि जहाँ-जहाँ उदारवादी जमींदारी है वहां के मजदूर को सिंपल दिहाड़ी करने हेतु भी इस क्षेत्र से कभी बाहर नहीं जाना पड़ा, उदाहरण के तौर पंजाब-हरयाणा-वेस्ट यूपी| और जहाँ-जहां सामंतवादी जमींदारी है वहां के मजदूर इतने पीड़ित-प्रताड़ित होते आये हैं कि उनको सम्मान व् इज्जत की बेसिक दिहाड़ी कमाने हेतु भी उदारवादी जमींदारी की धरती पर आना पड़ता रहा है, जैसे कि पंजाब-हरयाणा-वेस्ट यूपी में आने वाले प्रवासी मजदूर|

आज के दिन उदारवादी जमींदारी बाकी सबके निशाने पर है और इसको बचाये रखना है तो बाह्मण-राजपूत (इन दोनों का वह हिस्सा जो उदारवादी जमींदारी के तहत खेती करता है) जाट-गुज्जर-अहीर-सैनी-धानक-चमार आदि के तहत जो भी उदारवादी जमींदारी करने वाली जातियां हैं इनको समझना होगा कि जैसे धर्म के धंधे में बाह्मण वर्ण में भी सैंकड़ों जातियां होने के बावजूद यह लोग धर्म के जरिये अर्थ कमाने के उद्देश्य को ही सर्वोपरी रखते हैं|

जैसे बनिया-अरोड़ा-खत्री-जैनी-सिंधी आदि वस्तुओं व् मानवीय सेवाओं के व्यापार के जरिये धन कमाने के रास्ते में इनकी जातियों की भिन्नता को साइड रख, धन कमाने के मिनिमम कॉमन एजेंडा को आगे रख काम करते हैं|

और ऐसे ही मजदूरी/कर्मचारी/नौकरी, यह वर्ग भी अपनी न्यूनतम दिहाड़ी-तनख्वाह वगैरह के लिए जाति साइड में रख अर्थ की न्यूनतम सुनिश्चितत्ता किये रखते हैं|

ऐसे ही उदारवादी जमींदारी जातियों को भी दो वजहों से उनके बीच दिनप्रतिदिन बढ़ते जा रहे जातीय जहर को साइड करना होगा| दो वजह यानि एक तो खुद की निष्क्रियता, मिथक व् अज्ञान के चलते पैदा हुए मतभेद व् दूसरा धार्मिक व् व्यापारिक ताकतों द्वारा डाल दिए गए मतभेद|

जब तक इन दोनों को समझ के व् इनको अपनी जगह दिखाते हुए, अपने आर्थिक हितों पर ध्यान नहीं दिया जायेगा तो समझ लीजियेगा कि आने वाले समय के नवदलित आप ही होने वाले हो| चौड़े मत होना और किसी बहम में मत रहना, फिर बेशक उदारवादी जमींदार होते हुए आपकी जाति चाहे बाहमण ही क्यों ना हो, जाट, राजपूत, धानक चमार चाहे कुछ भी क्यों ना हो| जमींदार हो, शहरों में बसते हो तो भी आप आने वाले कल के नवदलित बनने वाले हो अगर समय रहते इस जातीय ईर्ष्या को साइड करके, उदारवादी जमींदारी जातियों का मिनिमम कॉमन एजेंडा बना के नहीं चले तो|

वैसे भी यह ईर्ष्या की बीमारी विगत सालों तक वर्णीय आधार पर तो देखने को मिल जाती थी परन्तु अब ऐसा लगता है कि यह 'खुद के सुवाद खुद ही लेने' जैसी जो एक बिमारी सी उदारवादी जमींदारों में लग चली है, अगर वक्त रहते इससे बाज नहीं आये तो यह जहर वर्णीय जहर से भी घातक होने वाला है| वर्णीय जहर जब तक था तब तक आप लोग कम से कम जातीय स्तर पर तो एक थे| अब तो आप खुद ही इसको खत्म करवाते जा रहे हो, कुछ 'खुद के सुवाद खुद लेने' के चक्रों में और बाकी धर्म-व्यापार-अंतरराष्ट्रीय ताकतों जैसी जो ताकतें मिलके आपको पीस रही हैं वह तो पीस ही रही हैं| और उनका यह पीसना तभी रुकेगा, जब आप इनके ही आपके बीच फेंके इस जातीय जहर के पाश को तोड़ने हेतु 'खुद के सुवाद खुद लेना' बंद नहीं करोगे| कर दो और मिनिमम कॉमन एजेंडा बना लो, वरना वही बात फिर तैयार रहो आने वाले वक्त के नवदलित कहलाने को|

अगर चाहते हो कि कल को प्रवासी मजदूरों की भांति आपको भी कहीं और से बेसिक दिहाड़ी कमाने जाना ना पड़े तो सतर्क हो जाईये| अपने पुरखों की विरासत में दी इस उदारवादी जमींदारी सिस्टम की सौगात और सोहरत पहचानिये कि सामंती जमींदारी के सताये लोग भी आपके यहाँ रोजगार और इज्जत पाते हैं| परन्तु अगर आपने ही इसकी पैरोकारी करनी छोड़ दी तो फिर कहीं खुद के ही उट-मटीले ना उठ जाएँ, दूसरों के सतायों को रोजगार देने तो सपनों की गर्भगाह जा ठहरेगी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक