Wednesday, 29 April 2020

दादा नगर खेड़ों पर कोई मूर्ती कोई क्यों नहीं होती, यह मर्द पुजारी रहित क्यों होते हैं और इनमें धोक-ज्योत में औरत को 100% लीडरशिप क्यों दी गई है?

यह तीन सवाल अक्सर मुझसे कई युवा साथी उत्सुकता में पूछते हैं| जवाब इस प्रकार हैं:

1 ) दादा नगर खेड़ों में मूर्ती क्यों नहीं रखी जाती: यह एक निराकार प्रकृति स्वरूप पुरख धाम हैं, जिनके भगवान धरती पर वास्तव में हो कर गए, पुरखे होते हैं| इसलिए हमारे यहाँ 13 दिन बैठ कर मरने वाले की अच्छी-बुराई सब जिक्र कर, उसके प्रति सबका मन साफ़ किया जाता है, व् उसको भी पुरखों शामिल करवाया जाता है| मूर्ती इसलिए नहीं होती कि हमें पुरखों का धंधा करने/बनाने की मनाही है| मूर्ती नहीं होने की अगली वजह यह है कि फंडी रोज-रोज नए-नए भगवान घड़ के धर्म मार्किट में उतारते रहते हैं| और कमाई कायम रहे इसलिए ये कोशिश करते हैं कि इनको किसी के वंश से जोड़ के उसके वंश का पुरखा घोषित कर दें| तो ऐसे में पुरखों का चिंतन-मनन रहा कि इनका तो रोज का काम है, नए-नए भगवान घड के ले आना तो क्या हमें यही काम और हमारी कमाई इसीलिए के लिए रह गई कि यह रोज-रोज नया भगवान लावें और हम इनके नए-नए घर बना के देते जावें? तो अंत मंथन यह दिया पुरखों ने कि इनसे कौन बहस में पड़े, तुम हमारी औलादो ऐसा करना कि यह अगर कोई नया भगवान घड़े के लावें और तुम्हारे वंशों से जोड़ पुरखा बताने भी लगें तो कह देना कि अगर यह भगवान हमारा पुरखा था भी तो यह हमारे दादा नगर खेड़ों में स्वत: निहीत हो जाता है क्योंकि दादा नगर खेड़े पुरखों का ही तो धाम हैं और बात खत्म| वरना यह तब तक तुमको इन फंडों के नाम पर निचोड़ते रहेंगे जब तक तुमको खाने के लाले तक ना पड़ जाएं| इनसे "पैंडा छूटा रहे", इसीलिए पुरखों ने दादा नगर खेड़े मूर्ती रहित ही रखे| अगली मुख्य वजह इसकी यह है कि मूर्ती-पूजा से इंसान की सोच में जड़त्व पैदा होता है| वह अगर मूर्तिपूजा का व्यापार नहीं करना जानता है तो वह मूढ़मति बनता जाता है| इंसान में चढ़ावे के जरिये रिश्वतखोरी की प्रवृति पड़ने के चांसेज बढ़ते हैं व् वह करप्शन को भी सही मानने की प्रवृति की ओर बढ़ने लगता है| इसलिए इन वजहों से दादा नगर खेड़ों में मूर्ती नहीं रखी जाती|

2) दादा नगर खेड़े मर्द-पुजारी रहित क्यों होते हैं?: पुरखों ने इसकी दो मुख्य वजहें बताई| नंबर एक: धर्म के स्थल पर बैठे 99% मर्द साधु-बाबा-पुजारी चिलमधारी-नशेड़ी-अफीमची पाए जाते हैं| और इनके सानिध्य में नौजवान बालक का जाना बेहद खतरनाक होता है| यह लोग नौजवानों को नशे-पते की बुरी लत्त लगा देते हैं जो आज के दिन चिट्टे तक पहुँच गई है| इसलिए पुरखों ने मर्द पुजारी सिस्टम नहीं रखा| नंबर दो: 99% साधू-पुजारी-बाबा चरित्रहीन होते हैं, वासनायुक्त पाए जाते हैं; जिनको ऐसे स्थलों की चाबी सौंपना जहाँ औरतें धोक-ज्योत करती हों, समाज के चाल-चलन का सत्यानाश करना है| यह गाम की बहु-बेटियों पर गंदी नजरें रखते हैं और बच्चों को भी उसी राह पर डालते पाए जाते हैं| जहाँ मर्द-पुजारी सिस्टम के तहत इनको ज्यादा छूट व् एकाधिकार मिल जाता है वहां तो यह इतने निर्भय हो जाते हैं कि अपनी वासनापूर्ति के लिए मंदिरों में दलित-ओबीसी की लड़कियों को खुल्लेआम देवदासियां रखने लगते हैं| साउथ इंडिया में बहुत टेम्पल्स इसके साक्षी हैं| यह यहीं तक नहीं रुकते अपितु औरत पर मंदिर में चढ़ने बारे भी व्रजसला होने या नहीं होने की तालिबानी शर्तें तक थोंपने लगते हैं| इसलिए पुरखों ने इन दो वजहों से दादा नगर खेड़ों में मर्द पुजारी का कांसेप्ट ही नहीं रखा| औरत व्रजसला हो या ना हो, सधवा हो या विधवा हो, अच्छे से नहा-धो के जाओ और अपने हाथों से अपने तरीके से धोक-ज्योत करो, अपनी मर्जी से प्रसाद बाँट के आ जाओ|

3) दादा नगर खेड़ों में औरत को धोक-ज्योत में 100% लीडरशिप क्यों है?: कई बार जब एंटी-हरयाणा, एंटी-खाप मीडिया ने इनको मर्दवाद का निशाना बनाया तो यह लोग खुद को डिफेंड करने में फ़ैल रहे क्योंकि इन लोगों ने पुरखों की तरह एक तो मंथन-चिंतन करने छोड़ दिए और दूसरा अपने कल्चर-कस्टम-आध्यात्म के अतिरिक्त सबके देई-दयोते जैसे माथे गधी बैठा ली हो ऐसे बैठा लिए| अब जिसने धक्के माथे गधी धार रखी हो, उसको खुद के कल्चर का इतना उम्दा जेंडर सेन्सिटिवटी का ऐसा पहलु दिख भी भला कहाँ से जायेगा जो हमारे खेड़ों के अतिरिक्त कहीं और किसी भी धर्म-पंथ में पाया ही नहीं जाता| और वह है कि हमारा आध्यात्म औरत को धर्म-धोक-ज्योत में ही 100% लीडरशिप दिए हुए है| हमारे समाज के मर्द सिर्फ इन खेड़ों की मेंटेनेंस और दिशा-दशा सही रखते हैं, अन्यथा ब्याहँदड़ तक की उम्र पहुँचने तक मर्द को धोक भी खुद औरत मरवाती है इन खेड़ों पर| सनातनी-मुस्लिम-ईसाई किसी में आपको औरत को इतनी स्वायत्ता देखने को नहीं मिलेगी जितनी हमारे खेड़ों पर है| और इसकी वजह पुरखों ने दी कि औरत अपने परिवार-कौम के प्रति सबसे सेंसिटिव होती है| मुसीबत की घड़ियों में वो सबसे पहले अपने पुरखों का स्मरण करती है| बस औरत का यही स्मरण व् सम्पर्ण इसकी सबसे बड़ी वजह है कि क्यों औरत को 100% लीडरशिप है दादा नगर खेड़ों में|

विशेष: दादा नगर खेड़ा का कांसेप्ट उदारवादी जमींदारी के प्राकृतिक आध्यात्म का आधार बिंदु है| यह पंजाब, हरयाणा, दिल्ली, वैस्ट यूपी, उत्तरी राजस्थान व् तमाम उदारवादी जमींदारी जहाँ तक फैली है वहां-वहां तक पाए जाते हैं| इस धरा पर क्षेत्र के हिसाब से दादा नगर खेड़े के पर्यायवाची हैं जैसे बाबा भूमिया, दादा भैया, गाम खेड़ा, नगर खेड़ा, पट्टी खेड़ा, भूमिया खेड़ा, जठेरा, बड़ा बीर व् एक-दो नाम और हैं जो अभी कन्फर्म करने बाकी हैं|

बोल नगर खेड़े की जय!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 25 April 2020

आज रमादान मुबारक है!


देखना आज कैसे-कैसे फंडी (जो मुस्लिमों को रोज दफना के सोते है) मुस्लिमों पर प्यार बरसाते मिलेंगे, इनका यही नहीं पता कि यह कितने मुंहें सांप हैं| खैर इन मानवता के कलंकों को साइड में रखते हुए विश्व की तमाम मुस्लिम बिरादरी को रमादान मुबारक|

और मेरे गाम निडाना की उन चारों बिरादरियों कुम्हार-लुहार-तेली-मिरासी के मुस्लिम मेरे काके-दादे-भाई-भतीजों को खासकर मुबारक, जिनकी वजह से मेरे जैसों के घरों में मिटटी के बर्तन आते रहे, खेती के औजार आते रहे, तेली का निकाला तेल आता रहा| और वो दादी डूमणी जिसको हम आदर से "दादी सुरजे की डूमणी" कहा करते थे उस दादी को खासतौर से मुबारक| शायद वह दादी आज जिन्दा नहीं परन्तु जब भी आती थी तो जो आल्हे का झलकारा सा लगाती थी वो कच्चा-पक्का आज भी याद है| दादी कहती थी कि, "हो दादा घासी के पोते, हो गठवाले राजाओं के खूम, हो राजा, हो जजमान, थारे खेत-खेड़े बसदे लिकड़ो| बने रहो जजमान, खब्बीखान"| और मैं दादी को बार-बार कहता कि दादी तेरा तो पोता हूँ मैं, मुझे शर्मिंदा ना किया कर| तू हक से बोल क्या चाहिए|

गेहूं के पैर पड़ते ही मिरासी आया करते| कुछ-एक के तो नाम भी याद हैं मुझे, परन्तु लिखूंगा नहीं| उन्होंने मेरी खास पहचान की हुई थी| जिस खेत में गेहूं निकलवाने में मेरा डेरा होता था, वहां उनको पक्का आना होता था| क्योंकि मैं उनको तसले भर-भर अनाज डाल देता था| परन्तु उनके मांगने में फंडियों वाला छलावा नहीं होता था कि तुमसे ही लिया और तुम पे घुर्राया| कृतज्ञता होती थी हर एक में| और ये फंडी, इनके कितने ही हांडे से पेट भर देना, मौका लगते ही तुम्हारी पीठ पे वार करें ही करें|

मिरासियों के साथ विश्वास इतना बंधता है कि इतना तो महर्षि दयानन्द के लिखे-बोले "जाट जी" और "जाट देवता" शब्दों में नहीं बंधता| आदर में कम और छल में ज्यादा लिखे प्रतीत होते हैं ये शब्द| अब मैं क्या करूँ, तुम्हारी मार्किट वैल्यू ही तुमने यह बनाई है सदा से तो, और दूसरी तरफ देखो एक मुस्लिम दादी जाटों के आल्हे गाती थी तो वास्तविक प्रतीत होती थी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 24 April 2020

निडाना हाइट्स की वेबसाइट की 8वीं वर्षगांठ 19 अप्रैल 2020!

1 हफ्ता लेट हो गया: अभी निडाना हाइट्स की वेबसाइट की 8वीं वर्षगांठ थी 19 अप्रैल 2020 को|

एक ऐसा प्रोजेक्ट, एक ऐसी वेबसाइट जिस पर आपको हरयाणा-हरयाणवी-हरयाणत का लगभग तमाम पहलू पूरा-आधा-पद्धा परन्तु कवर मिलता है, वह भी हिंदी-इंग्लिश-हरयाणवी तीनों भाषाओं में| बाकी इस वेबसाइट बारे मेरी मोटिवेशन-विज़न इस पोस्टर में लिखा हुआ है, पढ़ लीजिएगा|

www.nidanaheights.com

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

तुम्हारे पुरखे वो थे जिनके खूँटों पर सारे धर्म चरते आये|

तुम्हारे पुरखे वो थे जिनके खूँटों पर सारे धर्म चरते आये|
और तुम जातियों में घुसे पड़े हो, धर्मों को कण्ट्रोल करने वालों के वंशजो?

यह लाइन का लहजा मुझे एक खाप पंचायती ने दिया था| सोच के देख लेना कि उनका विज़न कितना बड़ा था और तुम्हारा कितना रह गया है|

जो धर्मों को कण्ट्रोल किया करते थे, वो आज धर्म के अंदर जातियों के फेर में उलझ के रह गए? क्या हुआ तुम्हारे डीएनए को, या फंडियों की नौसिखियों में बह गए?

सारे धर्म खूंटे चरते थे और फंडियों ने एक धर्म में ही इतना बोझ मार दिया कि कंधे टूटे जाते हैं तुम्हारे? इतिहास याद दिलाऊं या यूँ ही समझ जाओगे?

1947 के हिन्दू-मुस्लिम दंगे याद दिलाऊं, जिनको वेस्ट यूपी में रोकने वाली कोई और नहीं अपितु खाप पंचायतें थी? यह पैठ रही तुम्हारी कि कहाँ तो डंका तुम्हारा धर्मों के दोनों पासे बजता था और कहाँ आज अपने ही धर्म में सिकुड़े जाते हो? जब जाट चौधरी हुए थे खड़े लठ लेकर कांधला में , कोई हिंदुल्ला या मुल्ला पैर नहीं धमक सका था, 1947 में| सारे घरों में घुसेड़ दिए थे खापों ने|

और वो ऐसा कर पाते थे इसीलिए पूरे उत्तरी भारत की इकॉनमी की धुर्री होते थे| और इस औकात के लिए चाहिए होता है आत्मचिंतन, इतिहास-कस्टम-फिलॉसफी पर मनन| और तुम पता नहीं ऐसे कौनसे छदम छप्पन खां बने जाते हो कि तुम्हें हर किसी ऐरे-गैरे के कस्टम-कल्चर बिना-सोचे समझे छाती पे जमाने होते हैं और खुद का कल्चर और गौरव ऐसे बिलख रहा है जैसे माँ ने दूध ही पिलाने से मना कर दिया हो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 23 April 2020

फंडी की पीठ पर सवार जाट!

तुम कौनसे वाले जाट हो जी? फंडी जिसकी पीठ पे सवार है या जो फंडी की पीठ पे सवार है? फंडी के साथ तुम बराबर के दर्जे पर रह लोगे यह तुम चाहोगे तो भी फंडी देर-सवेर पिछने बिना नहीं रहेगा| फ्रांस में एक ऐसा ही दोस्त मिला था, इस लेख का आधार वही है नीचे बताऊंगा, इसलिए अंत तक पढ़ते जाना|

हालाँकि मैंने कभी क्लेम नहीं किया, परन्तु जब भी सोचता हूँ तो अचंभित हो जाता हूँ कि मैंने तो आज तक किसी फंडी को एक गाली तक नहीं दी, असभ्य नहीं बोला, उनका कभी जाम के बुरा नहीं किया, कोई बद्दुआ तक इनके लिए नहीं की आजतक; फिर भी मेरा नाम आते ही यह बिदकते पहलम झटके हैं| आखिर ऐसा क्यों है? क्या इनकी पोल खोलने का मेरा तरीका, लहजा ही इतना सटीक है कि यह मेरा नाम आते ही कोई प्रतिक्रिया या अटैक करने से बिदक लेना बेहतर समझते हैं? पता नहीं, इनको ये अहसास कहाँ से आता है कि "और किसी भी तुर्रम खाँ को तुम उलझा लोगे, डरा-झुका लोगे, छल लोगे" परन्तु यह वह वाला निगर जाट है जिसके बारे "सत्यार्थ प्रकाश" में महर्षि दयानन्द ब्राह्मण लिख गए कि, "सारा संसार जाट जी जैसा हो जाए, तो पंडे भूखे मर जाएँ"| अब महर्षि दयानन्द जी की यह बात तो गलत थी कि, "पंडे भूखे मर जाएँ" और उनके भूखे मरने का इल्जाम जाटों पे लगेगा? कितने जाट महर्षि की इस बात को पढ़ के भावुक हो जाते हैं? बताओ, जिस जाट के बाढ (खेत) में आवारा जानवर से ले आवारा पंछी तक छकता हो| जिस जाट के घर से दलित से ले हर ओबीसी कामगार भाई का वक्त पे हिस्सा जाता रहा हो, वह भला पंडों को क्यों भूखा मारेगा? महर्षि जी को शायद ज्यादा चाहिए, इसलिए जाट के पल्ले मढ़ गए कि जाटो तुमने हमसे मुंह मोड़ लिया तो हम भूखे मर जायेंगे| तो फिर महाराज सीधे-सीधे क्यों नहीं कहे? जाट तो दर पे आये कुत्ते तक को रोटी या लठ, दोनों में से एक दिए बिना वापिस नहीं मुड़ने देता, तुमसे सौतेला व्यवहार क्यों करेगा? इसलिए आपा ने तो दादा वाली बैलेंस्ड लाइन पकड़ रखी है कि, "पोता, धर्म इतना ही भतेरा कि कोई मंगता तेरे दर से भूखा-नंगा ना जाए और इससे ज्यादा जो मुंह बाए, उसको लठ प्याया जाए", ठीक वैसे ही जैसे हम कुत्ते के लिए करते हैं| कुत्ता जब तक रोटी के लिए बैठा है तो खिलाओ, उसके बाद ज्यादा कुन्ह-कुन्ह करे तो लठ प्याओ|

बात है 2012 की है, एक दोस्त था ईस्ट यूपी का यहाँ फ्रांस में, आज भी है| वह फंडी था या नहीं आप खुद ही निर्धारित कर लेना| हम साथ काम करते थे, एक ही कंपनी में| वह घर की रोटी-सब्जी बहुत मिस करता था| उसको बनानी नहीं आती थी| जबकि मैं सातवीं क्लास से ही एसडी स्कूल, जिंद के हॉस्टल में रहते हुए हलवा-पूरी-खीर-रोटी-सब्जी सब सीखा हुआ था| मैंने उससे कहा कोई नी, वीकेंड पे मेरे फ्लैट पे आ जाया कर, मैं सीखा दूंगा और तू एक प्योर इंडियन लंच मेरे साथ कर लिया करना| जब सीख जाए तो मुझे तेरे फ्लैट पे इन्वाइट करके बदला उतार देना| छह महीने तक हम वीकेंड पे ऐसे ही खाते रहे, किसी वीकेंड वो मेरे घर, किसी वीकेंड मैं उसके घर| भाई, आपा नी सरमाया करदे, आपा वो वाले जाट हैं जो फंडी के घर का फंस जाए तो पहले झटके खोसण उतारते हैं; वह भी इस खौफ से बेख़ौफ़ कि फंडी सबसे ज्यादा जहर में खाना दे के ही मारता है, बेख़ौफ़ इसलिए कि उसी बर्तन से लिया पहले वो खाता था और फिर मैं| इनके साथ तो दोस्ती ऐसे ही निभानी पड़ती है|
ऐसे ही एक दिन लंच करते-करते आमिर खान का सत्यमेव जयते शो लगा लिया| महम चौबीसी वाले पधारे हुए थे| दोस्त, को पता नहीं क्या धुन चढ़ी, वह यह भी भूल गया कि वह इस वक्त एक जाट के साथ बैठा है, और एक दम से उसके मुंह से फूटा कि, "यह खाप पंचायतें तो सबसे पहले खत्म कर देनी चाहियें"| मेरा निवाला जहाँ था वहीँ रुक गया, मैंने उसकी तरफ देखा तो पता नहीं मेरी आँखों में कुछ था या क्या, जब तक रहा खाप के गुण ही गाता रहा| और बीच-बीच मुझे टटोलता रहा कि क्या स्थिति है| परन्तु इस सबसे इतना प्रतीत हो गया था कि उसको उससे आज बहुत बड़ी गलती होने का अहसास हो रहा था|

उसके बाद, वह मुझसे ऐसा बिदका (जबकि मैंने उससे कभी यह प्रतिउत्तर भी आज तक भी नहीं माँगा है कि एक हिन्दू होते हुए भी तुझे हिन्दुओं की सबसे बड़ी सोशल इंजीनियरिंग व्यवस्था यानि खाप खत्म क्यों चाहिए) कि फिर कभी खाने पे नहीं आया (अपने आप आया करता था बिन बुलाये) और मुझे बुलाने की शायद हिम्मत नहीं कर पाया उसके यहाँ, उस इंसिडेंट के बाद| ऑफिस में भी डेस्क मेरे से दूर शिफ्ट कर लिया| एक बार परफैक्चर (कोर्ट) में (वीजा एक्सटेंशन हेतु गए हुए थे दोनों ही) मिला तो मेरे से 2 नंबर आगे था लाइन में| मेरे को देखा और अस्थिर आँखों व् मुस्कान के साथ हाय-हाय करता दिखा, ऐसे जैसे उसके चेहरे की हवाइयां उड़ रखी हों, परन्तु उस वीजा लाइन से 2 मिनट में गायब हो गया, जिसमें लोगों को घंटों खड़े हो अपने नंबर का वेट करना पड़ता है| सुबह 7 बजे आ के लाइन में लगे का दोपहर 2 बजे मेरा काम हुआ, परन्तु वो नहीं दिखा मुझे कहीं भी|

शायद समझ गया था कि तूने जिसके ऊपर सवाल किया था, उसके लिए यह जाट तुझे मार ना दे| परन्तु इतना खौफ तो नाजायज है ना, उसके मन में? मैंने तो उससे मुड़ के सवाल भी नहीं किया, आज तक नहीं किया|
जो भी कहो, फंडी की पीठ पे सवार होवो तो इसी हस्ती और रौब के साथ सवार होवो कि मुंह से उसको एक गाली नहीं दी, लठ उठा के मारना तो बहुत दूर की बात, बस आँखों-आँखों में इतना निचोड़ दिया उसको कि आज भी किसी गेट-टू-गैदर में दीखता है तो ऐसे भागता है जैसे शिकारी को देख तीतर| अब महर्षि दयानन्द जी, अगर ऐसे हमारा कोई दोष हुए बिना भी कोई फंडी भूखा मरे (खाने का भूखा हो या दोस्ती का) तो वो मेरी दादी वाली बात 14 बार मरे, इसमें मेरा क्या कसूर?

अब भी देख लो, ना उसकी जाति का जिक्र किया, ना उसके नाम का; परन्तु किस्सा पूरा कर दिया, वह भी एक सभ्य-शालीन तरीके से| और अच्छी खासी कंपनी में टीम लीडर है यहाँ पे वो|

पता है यह बिना गाली, बिना लाठी कैसे सम्भव होता है? क्योंकि मैं आज भी मेरे पुरखों के कल्चर-कस्टम-वैल्यू सिस्टम-एथिक्स-ह्यूमैनिटी-भाषा-जेंडर सेंसिटिविटी पर कायम हूँ इसलिए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"अश्वत्थामा हतो-हत:" - इस अफवाह ने ही द्रोणाचार्य को मरवाया था ना?


पालघर में यही तो हुआ है? अफवाह फ़ैलाने वाले अपने, मारने वाले अपने|

कब तक बचोगे तथाकथित कच्छाधारी देशभक्तो, सम्भल जाओ क्योंकि फंड-पाखंड-अफवाहों-अन्यायियों के सरताज बनोगे तो यह मत समझो कि आंच तुम तक नहीं आएगी| यह वह जहर है, देर-सवेर जिसके लपेटे में तुम भी आओगे जैसे द्रोणाचार्य आया था|

और ये द्रोणाचार्य टाइप सारे इन भक्तों के गुरु भी समझ लें, तुमको यह तुम्हारा डेढ़श्याणापन ही ले के डूबेगा अंत दिन| ठीक वैसे ही जैसे अर्जुन के लिए एकलव्य का अंगूठा तक मांगने वाले द्रोणचार्य को फिर अर्जुन व् तमाम पांडुओं की आँखों के आगे ही मार दिया गया था, वह भी निहत्थे को| क्योंकि द्रोणाचार्य कि विधा थी ही इतनी आधारहीन कि अर्जुन व् तमाम पांडुओं ने उसको मरते देख, यह हवाला देना तक उचित ना समझा कि वह निहत्था है, दुःख में लिप्त है, वह वो आदमी है जिसने अर्जुन के लिए एक दलित का अंगूठा मांग लिया था| कम-से-कम इतनी रियायत तो दी होती उस आदमी को, कि उसकी हस्ती-हैसियत के हिसाब की मौत नसीब करवाई होती? मारो-मारो रिवाज व् आदर्श है तुम्हारा तो अपने ही गुरुओं को मारने का| तुम्हारे आका ने मार रखा आडवाणी, जिन्दा लाश बना रखा|

यही गोबर-घूं-खाना-कुणबाघाणी की शिक्षा है तुम्हारी, खुद को विश्वगुरु क्लेम करने वालो| मरोगे इसी के लपेटे में आ के एक दिन, उदाहरण पालघर|

बताओ ऐसी-ऐसी कुणबाघाणी की कथाओं को यह आदर्श बनाए घूम रहे हैं| ऐसे-ऐसे जमीन-डोले के रोले हर दूसरे जाट-जमींदार के घर होते हैं, यूँ हर कोई दूसरे दिन महाभारत सजा के खड़ा होने लगा तो बस लिए जाट-जमींदार तो|

वैसे MBA टाइम में "अश्वत्थामा हतो-हत:" का नाटक मंचन किया था मैंने अपनी टीम के साथ| नाटक को बेस्ट नाटक और मुझे बेस्ट डायरेक्टर का अवार्ड जूरी हेड मिस्टर अतुल शर्मा ने यह अनाउंस करते हुए दिया था कि "There is no competition for the first position of Best Director Award in One Act Play category as it goes to one and only Mr. Phool Kumar, competition is for the second position in this category".

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 22 April 2020

बबिता पहलवान बेबे के जरिये आजमाई ट्रिक फ़ैल हो गई तो फंडी देखो क्या नई ट्रिक लेकर आये हैं!

ट्रिक की छोडो, पहले तुम मंडियों में हिन्दू जमींदार-किसान की हो रही बीरान-माटी को ठीक करो, ओ स्टेट-सेण्टर दोनों जगह बैठे हिंदुत्व के ठेकेदारों| तुम्हें जरा भी लिहाज शर्म हो तो जिस ट्रिक का नीचे जिक्र कर रहा हूँ, इसकी बजाये अपने धर्म के जमींदार-किसान की टाइम पे तो फसल उठाने पे ध्यान दो मंडियों में और वक्त पे उसकी पेमेंट करवाने पे|

ट्रिक कौनसी: व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी के जरिये अभी एक पोस्ट मिली जिसमें लिखा है कि लाखनमाजरा व् दनोद में वहां के जाटों ने वहां के मुस्लिमों को वह भी वहां के मुस्लिमों की अपील पर हिन्दू बनाना स्वीकार किया?
ऐसा है फंडियों: यह दूसरों की पीठ पे सवार हो के चलना छोड़ दो| है औकात तो खुद जा के बना लो मुस्लिमों को हिन्दू| हमें मुस्लिम के साथ मुस्लिम रहते हुए एडजस्ट करने में कोई परेशानी नहीं| 70% उदारवादी जमींदार (जिसके बड़े धड़े यानि जाट को तुम बहकाने हेतु सबसे मुख्य निशाने पर रखते हो) ने तो तुम्हें पीठ पे लादा भी नहीं कभी| जो 20-30% ने लाद लिए थे उनमें से आधे से ज्यादा तुम्हें पीठ से उतार धरती पे पटक चुके| और बाकी भी जल्दी ही पटकेंगे| हम महाराजा सूरजमल और सर छोटूराम की राह पर चलते हुए आ रहे हैं, हमें वक्त कितना ही लग जाए परन्तु हम आ रहे हैं और याद रखना, कसम इन पुरखों की, इनसे भी बेहतर तरीके से ना सिर्फ तुमको बाकियों की पीठ से भी पटकवायेंगे अपितु महाराजा सूरजमल और सर छोटूराम की भांति तुम्हारी पीठ पर सवार होने हम आ रहे हैं| और यह दोनों पुरखे व् इनके जैसे अनगिनत पुरखे गवाह हैं इस बात के कि जब-जब उदारवादी जमींदार फंडी की पीठ पे सवार हुआ है फिर तुम सिवाए देखते रह जाने के कुछ नहीं कर पाए हो, जैसे महाराजा सूरजमल और सर छोटूराम के उदाहरण|

हिन्दू धर्म के जमींदार-किसान को वक्त पर व् न्यायकारी तरीके से उसकी फसल के दाम देने तक की शर्म-लिहाज-जिम्मेदारी-नैतिकता नहीं तुम में, और पालोगे अन्य धर्म वालों को हिन्दू धर्म में मिलवा के? जो पहले से हैं तुम्हारे धर्म में इनकी भुखमरी-गरीबी-गुरबत तो मिटा लो? इनको इनके बनते-बनते जायज हक ही दे दो?

अन्यथा वही बात, हम आ रहे हैं, महाराजा सूरजमल और सर छोटूराम के अनुयायी, हमें वक्त भले जितना लग जाए परन्तु हम आ रहे हैं| और तुम्हारी तरह चार पीढ़ियां नहीं लेंगे, असल तो एक ही पीढ़ी में अन्यथा दूसरी में तो तुम्हें जरूर बता देंगे कि अपनी कौम-धर्म-देश की सब वर्गों की जनता-जनार्दन के हक-हलूल कैसे पाले व् रखवाए जाते हैं| याद रखना उदारवादी जमींदार तो किसी को पीठ-कंधे पर बैठा के चल भी लेता है, तुम्हारा तो इतना भी जाथर नहीं है कि अगर उदारवादी जमींदार तुम्हारी पीठ पर बैठ गया तो दो ढंग भी चल सको, उदाहरण महाराजा सूरजमल और सर छोटूराम| वो टूटी ही टूटी समझो, बस एक बार कंधे के ऊपर से मुड़ के देखने की जरूरत भर है| छोड़ दो ये चलित्र, वरना इतना समझ लो कि हमारे मनों से दिन-भर-दिन छिंटकते जा रहे हो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ऐ परस-चौपाल-बंगले बनाने वालो, इस साल से सामूहिक अनाज-के-गोदाम बनाने शुरू कर दो, गाम गेल!

ऐ उदारवादी जमींदारों (हर जाति-धर्म वाला), पूरे हिंदुस्तान में एक तुम्हारी धरती (अमृतसर से लेकर धौलपुर व् सिरसा से लेकर अमरोहा तक) ऐसी है जहाँ पर अंग्रेजों-फ्रेंचों की तर्ज पर मिनी-फोट्र्रेस टाइप परस-चौपाल-बंगले मिलते हैं, गाम गेल| लेकिन अब वक्त आ गया है कि इन परस-चौपाल-बंगलों की तर्ज पर साझे गेहूं के गोदाम बनाओ| ताकि जहाँ जब-जब ऐसी भिखमंगी-मंगतों की सरकारें आवें जैसी आज के दिन हरयाणा में चल रही हैं तो तुम्हें मंडियों में इनके आगे रिडाना ना पड़े| व् जब इनकी मरोड़ निकल जाए, तब फसल बेचो| इसके लिए अपनी-अपनी खेती को कॉर्पोरेट में तब्दील करके, गोदाम बनाने के राइट्स में आओ और शुरू कर दो इसी साल से गाम गेल सामूहिक गोदाम बनाने| और हाँ बंद करो ये गाम-पान्ने जेल 80-80 फुट के घंटे व् पताकाएं चढ़ानी, क्या यह तुम्हारी फसल रख लेंगे अब, एक ऐसे समय में जब सरकारें तक तुम्हें खिजा रही हैं? पूछो इनसे, जवाब ना में मिले तो शुरू कर दो, इसी साल से पहली फुर्सत से सामूहिक अनाज-के-गोदाम बनाने|

हरयाणा सरकार वालो सुनी है गेहूं से 5 किलो प्रति किवंटल व् सरसों पर 1 किलो प्रति किवंटल किसान की मर्जी-बेमर्जी तथाकथित दान के नाम पर धक्के से काट रहे हो? अरे भिखमंगों, कुँए-जोहड़ क्यों ना टोह लेते तुम?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

धर्म इतना ही कि, "मंगता-साधु भूखा मरे नहीं, इससे ज्यादा जो मांगे उसके दो लठ रखने में डरें नहीं"!

साधू भी सच्चे वाला, फंडी बदमाश नहीं!

गाम-समाज के नाम पर एक गाम या एक पंचायत का एक ही गामी/सरकरी/पंचायती/दागा हुआ झोटा/सांड छोड़ा जाता है| अगर किसान-जमींदार हर जानवर को गामी-सरकारी-दागा हुआ खुला सांड या झोटा छोड़ दे तो वह उसके खेत-घर-क्यार-नोहरे-दरवाजे सब क्याहें का खोसण उठा दें| यही दशा धर्म की होती है| सरकारी के नाम पर अपने पुरखों के बनाये सर्वमान्य दादे खेड़ों को रखो क्योंकि मानवता और जेंडर सेंसिटिविटी पे यही सबसे बेहतर हैं| और इन बाकी सबको इनके गले में बाँध-बाँध बेल खोरों-खूँटों पे बाँध के रखो और इनसे यथाशक्ति काम लेते रहो और उसी हिसाब से खुराक दो| जैसे दूध देने वाली भैंस/गाय से दूध लेने का काम व् बदले में बढ़िया चाट (डांगरों वाला चाट, कहीं रेहड़ियों पे मिलने वाला चाट समझ लो) वाला खाना| जो दूध ना दे उसको जोड़ो हल-बुग्गी वगैरह में|

प्रैक्टिकल बता दी, यह करोगे तो सुखी रहोगे क्योंकि तुम्हारे पुरखे इसी तरह सुखी रहे और जाट जी व् जाट देवता कहलाये| अन्यथा तो यह इसका उल्टा तुम्हारे साथ करने में एक पल ना लगाएंगे| इसका एक्साम्प्ल भी गामी झोटा/सांड ही से लो, एक खुला चरता है तो तुम्हें भी पता नहीं लगता; सारे जानवर खुले चरने छोड़ दिए तो छोड़ेंगे कोई डिक्का तुम्हारे लिए खेतों में? आधी खा गेरेंगे और आधी छड़ गेरेंगे|

ये अपने बाप के सगे ना होते, तुम्हारे तो तब से होंगे| भगवान तक के नाम से डरा के तुमसे हफ्ता वसूली कर जाते हैं और तुम बेबे सा मुंह बनाये, थोथी धार्मिक होने की फील में ग्याभण हुए रह जाते हो| ग्याभण भी वो "विकास" टाइप वाले जो 2014 से ले आज 6 साल हो गए परन्तु आज तक हो के नहीं दे लिया|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 21 April 2020

जाट का धार्मिक-मार्किट में शेयर व् होल्डिंग, उसका चढ़ाव-उतार-ढलान व् भविष्य!

जाट का ही जिक्र क्यों?: फरवरी 2016 वाले 35 बनाम 1 ने समझाया कि जाट ऐसी क्या बला है जो इस 35 में बाकी सब थे या धक्के से लपेटे गए थे परन्तु 1 में सिर्फ जाट था परन्तु क्यों था? जिस गैर-जाट को इस लेख के शीर्षक से आपत्ति हो वह इस सवाल का जवाब ढूंढ के दे दे कि 35 बनाम 1 में, 1 तू क्यों नहीं था; जाट ही क्यों था?

संदेश: अगर तुम अपने पुरखों की भांति धर्म में अपना मार्किट शेयर पुरखों वाली चौधर व् अणख के साथ बरकार नहीं रखोगे जाटो, तो तुम्हें यूँ ही पीटने-घेरने-मारने-दबाने की कोशिशें तुम्हारे ही धर्म वाले बार-बार करने आएंगे, जैसे फरवरी 2016 में 35 बनाम 1 के बहाने आये थे| इंतज़ार मत करना कि कोई मुस्लिम या ईसाई या कोई अन्य धर्मी तुम्हें मारने आने वाला है, ना-ना उससे पहले तो तुम्हें यह स्वधर्मी ही मारेंगे, उसमें भी खासकर से 35 में जो भी टूल रहे हैं| ये वाकई 35 हैं भी या 35 का चोला ओढ़े चले आ रहे हैं| "कुणबाघाणी" क्या होती है सुनी होगी? बाकि समझदार हो|

खैर, आगे बढ़ते हैं| उत्तरी भारत में धर्म की मार्किट में किसी एक जाति-वर्ण-वर्ग की मोनोपॉली नहीं चली, सीधे-सीधे दखल से तो कभी चली ही नहीं और शायद ऐसा कभी होवे भी नहीं अगर जाट ने फरवरी 2016 से अपना सही सबक ले लिया है तो| और मानवता-समाजवाद को जिन्दा रखना है और खुद भी इज्जत से जिन्दा रहना है तो असल तो 36 बिरादरी जाट के साथ मिलके अन्यथा जाट तो जरूर से जरूर अपने पुरखों का धर्म की मार्किट में उसका शेयर व् होल्डिंग बरकरार करे, रखे| कैसे और कौनसा धर्म मार्किट का शेयर व् होल्डिंग?

उठाने के तो माइथोलॉजी वालों के जमानों से उठा सकता हूँ परन्तु इतने पीछे 90% गपोड़ें मिलती हैं| आईये फ़िलहाल मात्र 1469 से 1839 व् 1839 से 1875, फिर 1875 से 1945, 1945 से 1986, 1986 से 2000, 2000 से 2016 व् 2016 से आज और आज से आगे यानि भविष्य में जाट धार्मिक मार्किट में इसका शेयर कैसे बरकरार रह सकेगा|

सन 1469 से 1839: वह वक्त जब सबसे ज्यादा फंडी के फंडवाद से तंग आ कर जाट ने सनातन धर्म विंग से खुद को ऑफिशियली अलग किया| ऑफिशियली अपनाया तो कभी था ही नहीं| भक्त जरा नोट करें यहां, किसी मुस्लिम या ईसाई ने नहीं छिंटकवाया था; फंडियों की बकचोदियों ने छिंटकवाया था जाटों को इनसे| उससे पहले इनको अपनाया भी नहीं था तो ऐसे ऑफिशियली दुत्कारा भी नहीं था| भक्त यह भी नोट करें और बुलंदी देखिए सिख धर्म की व् इस धर्म में जाट का मार्किट शेयर व् होल्डिंग देखिए, अणख देखिए| मेरे ख्याल से बाकी सब धर्मों के जाटों से ज्यादा है| मार्किट शेयर व् होल्डिंग की बात अगर करूँ तो जाट को यह सबसे ज्यादा सिखिज्म में है, फिर मुस्लिम धर्म में, फिर बुद्धिज्म में, फिर रही तो आर्य-समाज में (आज के दिन यह स्टेक रिस्क पे रखा है और इसी से उद्वेलित यह लेख है) व् इसके बाद किसी अन्य में| सनातन विंग में तुम्हारा स्टेक ना कभी था न कभी होगा, मानों या ना मानों; इनके लिए तुम दुग्ध देती उस गाय से ज्यादा कुछ औकात के नहीं जिसको चारा भी यह खुद डालना चाहते हैं| यानी तुम्हारी धरती-फसल-प्रॉपर्टी सब इनको इनके कण्ट्रोल में चाहिए, कहने मात्र को नाम तुम्हारा, परन्तु उसका पूरा आउटपुट इनका| तुम्हारे लिए छोड़ा जायेगा तो बस गाय के चारे जितना| हजम नहीं होती ना? वक्त के साथ हो जाएगी, अगर अभी भी नहीं सुधरे तो, खासकर शहरी व् इलीट जाट;क्योंकि गाम वाले 90% तुमको फॉलो करते हैं| खैर आगे बढ़ते हैं, सन 1839 में महाराजा रणजीत सिंह के राज में सिख धर्म अपनी बुलंदी की इतनी प्रकाष्ठा पर था कि बाकी का जाट भी सिखिज्म में जाने लगा| कैथल-थानेसर-करनाल (3 क का कॉम्बिनेशन बनाकर कुरुक्षेत्र भी लिखना चाहता था परन्तु उस वक्त कुरुक्षेत्र नाम का कोई शहर था ही नहीं, यह बना ही 1947 में है वह भी उस वक्त जब पाकिस्तान से आये शरणार्थी भाईयों के थानेसर के बगल में लगे कैंप का नाम रखा गया था "कुरुक्षेत्र", जैसे रोहतक में "गाँधी कैंप", हिसार में "पटेल कैंप" ऐसे)|

1839 से 1875: कैथल-थानेसर-करनाल तक सिखिज्म फैलता चला तो सनातनियों को चिंता हुई कि जाट हमारे लिए सबसे दुधारू गाय है, अगर यह चली गई तो हम किसके सहारे खाएंगे? यह चिंतन भी हरयाणा वाले सनातनियों ने नहीं किया था, यह तो भोले खुद ही 90% नारनौंद एमएलए गौतम जी की जुबान वाले किसान हैं| यह चिंतन हुआ महाराष्ट्र व् गुजरात के सनातनियों को| 1870 में टीम बनाई गई कि रिसर्च करो जाट को कैसे मनाया जाए व् कैसे रोके रखा जाए| जिम्मा मिला महर्षि दयानन्द व् टीम को| पांच साल की रिसर्च करके पुणे में 96 लोगों की कमेटी को रिपोर्ट दी गई कि जाट सबसे ज्यादा व् सर्वोत्तम दर्जे पर "दादा नगर खेड़ों" को पूजता है, जिनमें ना वह मर्द पुजारी बिठाता ना औरत पर प्रतिबंध लगाता, बल्कि धोक-ज्योत की लीडरशिप ही औरत को दे रखी है| तो इन खेड़ों से आधार बना "मूर्ती पूजा करने वालों ने" सिर्फ जाट को रोकने व् मनाने हेतु "मूर्ती पूजा रहित आर्य-समाज" स्थापित किया, जिसमें यह क्रेडिट भी छुपा दिया गया कि "मूर्ती-पूजा नहीं करने" का सिद्धांत कहाँ से लिया? साथ ही आर्य-समाज की गीता यानि "सत्यार्थ-प्रकाश" के ग्यारहवें सम्मुल्लास में "जाट जी" व् "जाट देवता" बोल के जाट की स्तुति की गई व् तब जा के आज का जो जाट इनके साथ है, वह यहीं रहा| भक्त बने जाट यह बात नोट कर लें कि उनके पुरखे 1875 में भी यहाँ रहे थे तो "मूर्ती पूजा नहीं करने" को सर्वोच्च मान्यता व् प्रचार मिलने पर| भले ही मूर्ती पूजा नहीं करने की रुट यानि जड़ यानि दादे खेड़े इनमें छुपा दिए गए थे परन्तु इतना तो जाट का ओरिजिनल शेयर व् होल्डिंग रखी गई कि जाटों के "मूर्ती पूजा" नहीं करने के सिद्धांत के साथ सनातनियों ने एडजस्ट किया| बताता चलूँ कि विशाल हरयाणा की धरती पर दादा खेड़े के पर्यावाची हैं "दादा भैया", "बाबा भूमिया", "गाम खेड़ा", "भूमिया खेड़ा", "जठेरा" आदि-आदि| और यही वह शेयर और होल्डिंग है जो आज स्टेक पर है व् मुझे उद्वेलित किये हुए है| आजकल माइथोलॉजी के धार्मिक सीरियल्स देख के इतने धार्मिक हुए पड़े हो शायद, तो सोचा वास्तवतिक धर्म भी दिखा दूँ तो और ज्यादा भावुक हो जाओ, नहीं?

1875 से 1945 (आर्य-समाज का दो विंग्स में बुलंदी फेज, एक DAV फेज व् दूसरा गुरुकुल फेज), 1945 से 1986 (आर्य-समाज का मेच्योर फेज, 1986 से 2000 (टीवी के जरिये माइथोलॉजी की एंट्री व् जाट-खाप-हरयाणा पर लेफ्ट विंग्स, एनजीओज, नेशनल मीडिया के जरिये सनातनियों की सॉफ्ट व् स्ट्रैट टार्गेटिंग), 2000 से 2016 (गाम-गाम गेल कहीं वैसे ही तो कहीं दादे नगर खेड़ों को ही मूर्ती-पूजा रहित की बजाये मूर्ती-पूजा सहित में कन्वर्ट किये जाने के प्रोपगेंडे, साथ ही आर्य-समाज के गुरुकुल-मठों में सनातनियों की सेंधमारी व् इन सब प्रयासों का अल्टीमेट लिटमस टेस्ट यानि 35 बनाम 1 का फरवरी 2016 दंगा) व् 2016 के बाद जाट समाज के बच्चों को वाजिब गैर-वाजिब जेल यातनाएं (सब 1984 के बाद जैसे सिखों के साथ हुआ था, वैसा)|

और अब इससे आगे क्या?: अगर इस लेख को ढंग से पढ़ लिया हो तो आगे है अपने पुरखों की उस अणख पर वापिस लौटना जिसकी वजह से "जाट जी" व् "जाट देवता" लिख के सनातनी आपके साथ ख़ुशी-ख़ुशी एडजस्ट होने को राजी हुए थे या कहिये मजबूर हुए थे| और उस लौटने का का आधार-बिंदु है ""धोक-ज्योत में 100% औरत की लीडरशिप वाले मर्द-पुजारी से रहित, मूर्ती से रहित अपने "दादा नगर खेड़े""| अन्यथा, अन्यथा तो वही बात "दुधारू गाय" बनने का शौक चढ़ा है तो चलते जाओ बावळे हुए| फिर तुम्हारा कोई रूखाळी नहीं, "दादा नगर खेड़ा", "दादा भैया", "बाबा भूमिया", "गाम खेड़ा", "भूमिया खेड़ा", "जठेरा" कोई भी नहीं, कोई रूखाळी नहीं तुम्हारा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 15 April 2020

कुळमाइयाँ - पंजाबी मूवी के पंजाबी-हरयाणवी में पाए जाने वाले 51 कॉमन शब्द जो हिंदी में नहीं मिलते|

यह इस सीरीज की तीसरी मूवी है, इससे पहले "आटे दी चिड़ी" व् "एक्कम" के बारे भी ऐसे शब्दों की लिस्ट बनाई जा चुकी है|
 
बगाना/बिगाना/बगानी/बिगानी
तोरणी/टोरणी
फिरणी
आळे
वरगी/बरगी
सोहणा
परै हो जा
झोळा
लंबियाँ ताणें/ लांबी ताणें
रोळा
ठंडडी हवा/ठंडी हवा
वधी/बधी
डंगर/डांगर
गेड़ा
भाग/किस्मत
ठा
कित्ते
लुकी/लको
फ़ोक्की
ऐकड/अकड़
कठ्ठे
रळ
लोगड़
हूँ-हाँ
डोबणा
साँ
अक
सरदा
कळपी
भाग्गां आळी
साम्भ
मिट्टी पलीद
चुन्नी
पल्ले
फोला
सूट
घोटे
कोक्के
उरे
माडा
साऊ
चुन्नी चढ़ा के
कदे
झोळी
भोत
धी
आपदी आई / आपणी आई
माड़ी-मोट्टी
कढ़या/काढ़या
देळही चढ़ण
कंजर

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 13 April 2020

खालसा दिवस, बैशाखी, मेख, जमींदार दिवस, इंटरनेशनल जाट दिवस, जलियांवाला बाग़ शहादत दिवस

मेरे घर पे पवित्र दीया प्रज्वलन 13 अप्रैल की पावन संध्या पर - खालसा दिवस, बैशाखी, मेख, जमींदार दिवस, इंटरनेशनल जाट दिवस, जलियांवाला बाग़ शहादत दिवस; एक ही दिने पड़ने वाली इन सब गरिमामयी तारीखों-त्योहारों-शहीदों की तेजोमयी महानता व् सुश्रुषा में!

Auspicious Diya Lightening at my residence on the eve of 13th April in remembrance of Khalsa Diwas, Baishakhi, Mekh, Jamindar Diwas, International Jat Diwas and Jaliawala Martyrs all falling on this one date!

Jai Yauddhey! - Phool Malik



एक्कम - पंजाबी मूवी में प्रयोग हुए हरयाणवी-पंजाबी भाषाओँ में बोले जाने वाले 81 कॉमन शब्द!

एक्कम - पंजाबी मूवी में प्रयोग हुए हरयाणवी-पंजाबी भाषाओँ में बोले जाने वाले 81 कॉमन शब्द:

जो हिंदी में नहीं पाए जाते या भिन्न अर्थों में होते हैं लेकिन हरयाणवी-पंजाबी में एक अर्थ के ही होते हैं|
इस रिसर्च सीरीज की मेरी यह दूसरी मूवी है, जो मैंने यह शब्द नोट करते हुए देखी है|
13 अप्रैल - खालसा दिवस - बैशाखी - मेख - इंटरनेशनल जाट दिवस - जमींदार दिवस - जलियांवाला बाग़ काण्ड शहादत दिवस पर इस मूवी को देखने से बेस्ट सेलिब्रेशन और क्या हो सकती थी, मूवी देख कर यही महसूस हुआ| यह रही 81 शब्दों की लिस्ट:

गेड़ा
खाण
किते
कौर
फाब्बी
सोखा
ओखा
जींस
धी
बड़का/बुड़का
कद/कदों
मत्त
आप्पा
कल्ले
टेकाँ
कढ़/काढ़
जी/मन
भलेखा/भळोखा
रोटिरूट्टी
पास्से
लवा/लुवा
ढिंग
पींघ
झूंटे/झोट्टे
वर्गे/बर्गे
ताह
सिरे
न्यणां/याणा
साम्भो
भड़तू/भड़ता
मड़ी/माड़ी
परवार
ड्योढ़ी
टिच्चरर
ब्याना
कक्ख
सज्जे
पेच्चा
गाढ़ी/गूढ़ी
डोब दी
पुरखे
सोहरे (बांगर हरयाणा में यही है)
वाक़फ़
माडा
कूक
कदे-कदे
परणा
चादरा
राजी
बाहरले/बाहरला
भालदे
लुक्क
पास्सा
दो टूक
कंध/कांध
खेडल/खेचळ
नूण
रौळा
काढ़ो/कढ़ो
संदूकड़ी/सन्दूखड़ी
पंड/पान्ड
टांडा
नंग
नेड़े/लोवे
घी-चौपड़
साग
रजा
जी/मन
ढूँगे
चोवा
चिमड़
बळद
गाळ/गलना
मोड़ना/वापिस देना
रूढ़ी
डोक्के
रळ
गरदा
टोरणा
दगा
नंबेड़

13 अप्रैल को पड़ने वाले इतने सारे दिवसों के साथ-साथ जलियांवाला के शहीदों को बारम्बार नमन!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक