Sunday, 26 July 2020

त्रिपुरा के मुख्यमंत्री की जाट व् सिख सरदारों पे कही बात को Ethical Capitalism बनाम Unethical Capitalism के पहलु से समझा जाए!



Ethical Capitalism: यानि उदारवादी जमींदारी, जहाँ खेत में फसल उठने से पहले सब देनदारों का निर्धारित करार के तहत हिस्सा खलिहान से ही बाँट के उसके बाद खसम फसल घर ले जाता रहा है, फिर चाहे उसमें बढ़ई का हिस्सा रहा हो, मिटटी के बर्तन बनाने वाले का, कृषि के औजार बनाने वाले का, बाल बनाने वाले का, सीरी-साझी आदि का रहा हो| यह जमींदारी वर्णवाद-जातिवाद-धर्मवाद से रहित, सीरी-साझी के वर्किंग पार्टनर कल्चर की एथिक्स की होती है, कि अपनी पूँजी बनाओ जितनी चाहे उतनी बनाओ परन्तु दूसरे का हक मत खाओ व् अमानवीयता मत अपनाओं| और जहाँ-जहाँ तक जाट व् सिख सरदार बहुलयता में बसते आये हैं, वहां-वहां 5-10% को छोड़ के यही Ethical Capitalism प्रैक्टिस होता आया है|

Unethical Capitalism: यानि सामंती जमींदारी, जहाँ खलिहान में फसल बंटने का कोई कांसेप्ट नहीं होता, बल्कि बेगारी और होती है| सीरी-साझी की जगह नौकर-मालिक का कल्चर रहता आया| वर्णवाद-जातिवाद-धर्मवाद प्रकाष्ठा की नीचता के स्तर का होता है| और इनकी इस नीचता की बानगी ही है ये कि इनके यहाँ दलित-ओबीसी मात्र बेसिक दिहाड़ी कमाने तक को इन्हीं जाटों-सरदारों की धरती पर दशकों से आ रहे हैं| तो ऐसा है बिप्लब देब तेरी बुद्धिमत्ता उस दिन मानूं जिस दिन तू हमारी तरह तेरे यहाँ के वर्णवाद-जातिवाद-धर्मवाद के प्रताड़ितों को रोजगार देना तो छोड़, तू तेरे यहाँ वालों के ही रोजगार के बंदोबस्त कर दे तेरे यहाँ|

और अगर तेरे यहाँ से बिकने वाली बेटियों (जो हरयाणा-पंजाब में बहुओं के रूप में आने से पहले कोलकाता के सोना-गाछी, हैदराबाद, मुंबई, दुबई आदि में वेश्यावृति के लिए बेची जाती रही हैं) की बिक्रियां बंद करवा दे तो तुझे वाकई अकलवान इंसान मानें हम| लोग बड़े चौड़े हो के थू-थू करते हैं कि बंगाल-बिहार से बहुएं लाते हैं हरयाणा-पंजाब वाले, अरे यह देखो किन बच्चियों को ला के अपने घरों की शान बनाते हैं, उनको जो हरयाणा-पंजाब में आने से पहले कोठों पर बेचीं जाती रही हैं| और भाई सुन, तू बंगाली है ना? तेरा अहसान होगा अगर यह वृन्दावन के विधवा आश्रम को उठा के तेरे त्रिपुरा या बंगाल में ले जाए तो क्योंकि यह जमा जाट बाहुल्य धरती पर रखा है जबकि इसमें 90% विधवाएं बंगालन बैठी हैं जो प्रोफेशनल वेश्याओं से भी बदतर जीवन जीने को मजबूर हैं और तथाकथित धर्म के मोड्डे-फलहरी ही इनका जीना मुहाल रखते हैं| बोंडेड-वेश्याओं जैसी जिंदगी चलती है इनकी| उस दिन मानूं तेरी अक्ल जिस दिन तेरी इन बंगालन विधवाओं (सही मायनों में बोंडेड-वेश्याएं) के गले की फांस काट दे|

पर मुझे इतना भी पता है कि क्योंकि तू Unethical Capitalism के सिस्टम की उपज है, तो चिकने घड़े की भांति तू यह नोट पढ़ भी लेगा तो सकपका के नजरें झेंपने के अलावा कुछ कर ले तो| तो जिनकी कोई एथिक्स ही ना हों, उनको एथिक्स पर चल के पूँजी बनाने वाले कम दिमाग के लगें, इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं| लिखने को बहुत-कुछ है, 20 पन्ने जितना लेख छाप सकता हूँ परन्तु वक्त की कमी हो रखी है आजकल| इतने से ही समझ जाना कि अगर जाट-सरदार एथिक्स पे रहते हुए भी इतने ताकतवर हैं तो जिस दिन तेरी तरह Unethical हो गए तो तुम्हारा क्या होगा; सबसे पहले तुम ही फिर "लुटेरे" लिखते-लिखवाते-बिगोते-बड़बड़ाते हांडोगे|

अंतिम सुन ले, पूरे इंडिया में जाट-सरदार ही इकलौते Ethical Capitalism वो पैरोकार हैं जो इंडिया के बाद अमेरिका-यूरोप आदि वालों में ही मिलती है| तुमसे तो रीस तो छोड़, तकदीस भी ना होवे जाट-सरदारों की|

नोट: कुछ प्रोफेशनल-सोशल असाइनमेंट्स में बिजी था, इसलिए रिप्लाई लाने में लेट हो गया; हो सके तो पहुंचा दीजियेगा महाशय को यह लेख, वैसे तो पढ़ेंगे ही नहीं फिर भी दिमाग के किसी कोने में कोई बात चौंध जाए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 4 July 2020

दादा नील्ले खागड़ हो!

मेरे बचपन के, मेरे निडाणे के दादा नीले खागड़ की याद में समर्पित मेरी यह हरयाणवी कविता पढ़िए:

दादा नील्ले खागड़ हो, तैने आज भी टोहन्दा हांडु हो|
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूजा हो||

बुड्डे खागड़ का बदला तैने, लिया खेड़े आळी लेट म,
ड्यंग पाट्टी नही बैरी पै, ज्यब धरया तैने फटफेड़ म|
रुक्का पाट्या तेरी रहबरी का, दूर-दूर की हेट म,
आंडीवारें गाम की गाळैं, रहन्दा रात्याँ खेत म||
मिटटी-गारे की भरी मांग माथे म, किते सूरज, किते चंदा हो!
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

रोज सांझ नैं आया करदा, जाणू कोए सिद्ध-जोगी हो,
गाळ म आ धाहड्या करदा, जाणू अलख की टार देई हो|
ले गुड़ की डळी मैं आंदा और तू चाट-चाट हाथ खांदा हो,
गात पै खुर्रा फेरूँ, इस बाबत फेर पूंजड़ बारम्बार ठांदा हो||
जब मिटदी खुश्क खुर्रे तैं, तू अकड़दा ज्यूँ को बड़बुज्जा हो|
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

दो पल भिक्षा की बाट देखण की तैनें, मर्याद कदे तोड़ी नहीं,
दादी बरसदी म्हारे पै, जै टेम पै टहल तेरी मोड़ी नहीं|
दूसरा दर जा देख्या तन्नै, जो बार माड़ी सी हुई नहीं,
पर देहळ की सीमा-रेखा, तैने कदे लांघी नहीं||
सब्र-संतोष व् आत्मीयता की, अजब था तू धजा हो!
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

खागड़ सून्ने राह न्यडाणे की, भोत-ए-भोत चढ़े,
तू ए बताया जिसनें सबके मोर्चे खूब-ए-खूब अड़े|
एक-एक खैड़ तेरी, गाम की गाळा नैं सरणा ज्यांदी,
स्याह्मी आळे खागडाँ की, जोहडाँ बड़ें ज्यान छूटदी||
पाणी जांदे पाटदे जोहडां के, ज्यूँ चढ़ के चली को नोक्का हो,
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

उत्तराधिकारी नैं ब्यरासत सोंपणी तन्नें खूब स्य्खाई,
ज्यब नया बाछड़ा हुया तैयार, तू गाम की गाळ त्यज जाई|
सांझरण आळी पाळ बणी डेरा, तैनें जग-मोह तैं सुरती हटाई,
माणस भी के जी ले इह्सी, बैराग ज्यन्दगी तैनें लई प्रणाई||
सुणी ना भकाई मेरी एक भी, दे धर देंदा ठा सींगा हो!
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

आज भी तरी तस्वीर मग्ज म न्यूं की न्यूं धरी, ओ गाम के मोड़ हो|
गाम का दयोता, गाम का रुखाळा, तू था गाम का खोड़ हो|
लियें तासळा दळीये का हांडू, न्यडाणे के काल्लर-लेट हो,
फुल्ले-भगत की भेंट स्वीकारिये, नहीं आगै करूँ को अळसेट हो|
बुड्ढे खागड़ तेरी सोहबत, मैंने देवै रिश्तों का जज्बा हो,
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

दादा नील्ले खागड़ हो, तैने आज भी टोहन्दा हांडु हो|
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

लेख्क्क: फूल कुंवार म्यलक

Sunday, 21 June 2020

2016-18 के इर्दगिर्द परशुराम जयन्तियों के मुख्यतिथि रहे राजकुमार सैनी के मुखमंडल से सुनिए ब्राह्मण समाज व् उनकी रचनाओं बारे राय!

Note: See the attached video, before reading this post!

यह महाशय वही हैं जिनको 35 बनाम 1 की फायरब्रांड बनाया गया था| अब इस्तेमाल किये जाने के बाद अपनी वास्तविकता पर आख़िरकार आ ही गए|
ऐसे ही तमाम अन्य नेताओं को ध्यान रखना चाहिए कि जाट समाज में अगर यह जज्बा व् माद्दा है कि वह आध्यात्म से ले इकॉनोमी व् सोसाइटी से ले पॉलिटिक्स तक में अपने हिस्से बराबरी से सुनिश्चित रखता आया है तो इससे जलो मत|
1) आध्यात्म में दादा नगर खेड़े, आर्यसमाज, बिश्नोई, बैरागी व् कई डेरों के मालिक होने के साथ-साथ सिखिज्म व् मुस्लिम धर्मों के अगवा होने जरिये, जाट समाज ने अपना हिस्सा सुनिश्चित रखा|
2) इकॉनमी में कृषि-डिफेंस-खेल में लीडिंग के साथ और व्यापार व् नौकरियों में अग्रणी समाजों में रह के, जाट समाज ने अपना हिस्सा सुनिश्चित रखा|
3) सोसाइटी में सोशल इंजीनियरिंग व् समाज-सुधार के नाम की थ्योरी यानि खापोलॉजी, जो विश्व की सबसे प्राचीन सोशल जूरी सिस्टम है, के साथ जाट समाज ने अपना हिस्सा सुनिश्चित रखा|
4) पॉलिटिक्स में राजशाही (महाराजा हर्षवर्धन से होते हुए महाराजा रणजीत सिंह व् महाराजा सूरजमल आदि) से ले लोकशाही (सर छोटूराम-चौधरी चरण सिंह - सरदार प्रताप सिंह कैरों - ताऊ देवीलाल व् अन्य बहुत से स्टेट लेवल लीडर्स की लिगेसी) के साथ अपने हिस्से आध्यात्म-इकॉनमी-सोसाइटी-पॉलिटिक्स में सुनिश्चित रखे|
इस वीडियो में देखिये राजकुमार सैनी समेत तमाम ओबीसी या दलितों के हक किसने मारे, यह जनाब खुद अपनी जुबानी बता रहे हैं| इनके अनुसार जिन्होनें इनके हक़ मारे, जाटों ने तो उन तक को "धौली की जमीनें" दान में दे-दे अपने यहाँ बसाया हुआ है| और वह समाज भी तब चुप रह गया जब 35 बनाम 1 उछला, एक भी यह कहने को आगे नहीं आया कि हमें मत काउंट करो इसमें, 34 बनाम 2 समझो अगर ऐसे ही करना रास्ता बचा है तो| किसी समाज ने नहीं बाँट रखी जमीन जैसी बेशकीमती दौलत इस समाज को जिस अनुपात में जाटों ने दी| और कमाल देखो 35 में काउंट हुए खटटर बाबू ने ही इनसे इस जमीन की मल्कियत छीनी, जो मल्कियत इनके नाम भी चौधरी भूपेंद्र सिंह हुड्डा जैसा जाट करके गया था|
और अंदरखाते राजकुमार सैनी जैसे इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि दिमाग और लठ दोनों की ताकत के बैलेंस वाली जाट कम्युनिटी ही वह कम्युनिटी है जिसके साथ अगर दलित-ओबीसी मिलके रहे तो उसके हक-हलूल दलित-ओबीसी सबसे जल्दी हासिल कर सकते हैं| परन्तु राजकुमार सैनी जैसे नेता ही इन चीजों को हासिल होने देने में बाधा हैं| बल्कि इनकी हरकतें देख कर कई सारे तो जाट भी विचलित हो जाते हैं कि क्या वाकई में मेरा समाज या मेरे पुरखे इतने गलत रहे, जितने राजकुमार सैनी, रोशनलाल आर्य, मनीष ग्रोवर, अश्वनी चोपड़ा या मनोहरलाल खट्टर जैसे फरवरी 2016 पे आग झोंक कर या मूक रह कर समाज को जतलाते दिखे?
खैर, किसी द्वेष-क्लेश के चलते यह पोस्ट नहीं लिखी है और ना ही 35 बनाम 1 का कोई रश्क मुझे| अच्छा है हमारी स्थापना और दृढ ही करके गया फरवरी 2016| जिस प्रकार 1984 के बाद सिख पहले से भी बेहतर बन के उभरे, जाट समाज भी उभरेगा| परन्तु दलित व् ओबिसियों के सैनी जैसे नुमाइंदे औरों की बजाये इन्हीं की राहों के रोड़े ज्यादा साबित होते हैं| जो जनाब की इस वीडियो से झलक भी रहा है|
होंगी जाट समाज में भी कमियां, परन्तु यह कोई तरीके नहीं होते कि तुम 35 बनाम 1 करके अपना गुबार निकालो; बस आपसी कम्पटीशन के इन असभ्य तरीकों से असहमति है अपनी तो| तुम भी इन तरीकों से गुबार तो नहीं निकाल पाते, उल्टा अपना थोबड़ा सा झिड़कवा के बैठ जाते हो; परन्तु बहुतों के दिलों में खामखा की टीस जरूर बैठा जाती हैं ऐसी हरकतें|
बाकी इससे बड़ी विडम्बना व् भंडाफोड़ क्या होगा कि एक वक्त जो व्यक्ति कुरुक्षेत्र का सांसद रहा हो, वही व्यक्ति महाभारत व् कुरुक्षेत्र दोनों को काल्पनिक बता रहा है| ना जाने ब्राह्मण सभाएं अब क्या हश्र करेंगी एक वक्त परशुराम जंयन्तियों के चीफ-गेस्ट रहे सैनी साहब का|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Monday, 15 June 2020

कुंडलिनी की ऊर्जा का वैमनस्य!

जब यह ऊर्जा वैमनस्य यानि शारीरिक हिंसा, व्यभिचार में बदल जाती है तो वासना कहलाती है| और यह लड़का-लड़की दोनों की समस्या रहती है| समाज गलती यह करता है कि वयस्कों को इसको ऊर्जा के रूप में बताता ही नहीं, सीधा इसको वासना का नाम दे देता है जिससे दिग्भर्मिता फैलती है और वयस्कों में इसको ले कर उलझन| जबकि जिंदगी में अगर सबसे सहज (सीरियस तो बिलकुल भी नहीं) लेने की कोई चीज होती है तो वह यह कुंडलिनी की ऊर्जा ही होती है|
क्योंकि वासना को पाप बताया/फैलाया गया है और कुंडलिनी की ऊर्जा को पहले ऊर्जा की तरह समझाने की बजाये सीधा वासना के नाम से बता दिया जाता है तो वयस्कों में आत्मग्लानि भाव भरता है, असुरक्षा का भाव भरता है, चरित्रहीन हो जाने का भय भरता है और इसको कण्ट्रोल (मैनेज) करने की इच्छाशक्ति ही मारी जाती है|
ऊपर से समाज में फैली/फैलाई गई ऐसी भ्रांतियां कि, "इस उम्र में नहीं करोगे तो तब करोगे", "यह चीजें होती ही एन्जॉय करने के लिए हैं" टाइप की पंक्तियाँ बच्चों को इस ऊर्जा के व्यर्थ व्यय की ओर तल्लीनता से धकेलती हैं| और ऐसे अपनी ही अच्छी खासी शारीरिक ऊर्जा के वयस्क दुश्मन बन, खुद को मानसिक-शारीरिक परिपक्क्वता तक पहुंचने ही नहीं देते|
इसलिए वयस्कों को इसको पहले झटके वासना मत बताएं, इसको शारीरिक ऊर्जा बताये व् इसको मैनेज करना सिखाएं| क्योंकि यह सत्य है कि अगर बच्चों ने यह नहीं सीखी तो वह अपने जैविक अस्तित्व की बुलंदी को कभी नहीं छू पाएंगे|
इसलिए निम्नलिखित कारकों को अपने वयस्कों के इर्दगिर्द से हटाइए, या ईमानदारी से सही-सही बताईये:
1) कुंडलिनी की ऊर्जा को वासना का नाम देना बंद करें| इसको ऊर्जा बता के उनको इसको मैनेज करने को प्रेरित करें|
2) चरित्रप्रमाण पत्र जारी करने की जल्दबाजी ना करें, पहले उनको चरित्र होता क्या है यह सही से समझा दिया, इसको पुख्ता करें|
3) किसी भी प्रकार की ब्रह्मचर्यता (खुद की हो सकने वाली बीवी या बीवी के अलावा विश्व की सब औरतों को अपनी बहन मानना व् गलतख्याली से दूर रहना) या जट्टचर्यता (सिर्फ गाम-गौत-गुहांड वालियों को बहन मानना व् गलतख्याली से दूर रहना) वयस्कों पे थोंपने की जल्दबाजी ना करें|
4) सबसे पहले अपने बच्चों को फॅमिली पॉलिटिक्स से प्रोटेक्ट कीजिये| क्योंकि फॅमिली पॉलिटिक्स चाहे पॉजिटिव हो या नेगेटिव अगर आपका बच्चा उसका शिकार हुआ तो वह इस ऊर्जा को कभी सीरियस नहीं लेता और फिर इसको कभी शौक-स्टैण्डर्ड-शोऑफ के चक्कर में बरबाद करता/करती है तो कभी शरीर में कोई कुछ अजीब उभार ना देख ले इस चक्कर में बर्बाद करता/करती है|
5) शारीरिक मैनेजमेंट मामले में बच्चों को कभी भी दिल से काम लेना ना सिखाएं, हमेशा आत्मा की इच्छाशक्ति से दिमाग को काबू रखते हुए, एक मानवीय विज़न दे के उसके मद्देनजर इसको मैनेज करना सिखाएं|
6) शारीरिक रिलेशन एक जरूरत है, स्वाभविक क्रिया है; उसको प्यार-व्यार समझने की भूल से बच्चों को बचाएं| प्यार एक जिम्मेदारी का नाम होता है, मस्ती/हंगाई/गधे के अढ़ाई दिन के अखाड़े का नहीं|
7) मोरल पोलिसिंग से पहले पर्सनल पोलिसिंग सिखाएं|
8) बताएं कि इच्छा-शक्ति हर किसी के शरीर की बॉस होती है, जिसको दोनों आँखों के मध्य माथे के बीच की संवेदना यानि तीसरी आँख संचालित करती है| इच्छाशक्ति-आत्मिक सवेंदना के नीचे दिमाग को रखें और दिमाग के भी नीचे दिल को| और उन लोगों-माहौलों को अपने बच्चों का दुश्मन मानें जो उनको इस हायररकी के उल्टा चलने को प्रेरित या बाधित करते हैं|
फिर बेशक वो किसी भी धर्म के नाम पे ज्ञान-प्रवचन वालों की शिक्षा ही क्यों ना हों| ऐसी शिक्षा धर्म नहीं होती, अपितु दिग्भर्मिता होती है, फंडियों का फंड होती है|
9) बच्चों को सोशल इंजीनियरिंग व् इकनोमिक इंजीनियरिंग में सहयोगी व् दुश्मन सामाजिक समूहों की सही-सही ईमानदारी से जानकारी दें| खामखा के थोथे भाईचारे पे चलने के सबब पढ़ाने से कन्नी काटें| यहाँ बिना रोये माँ दूध नहीं पिलाती, तुम भाईचारा-भाईचारा चिल्ला के काका से ककड़ी लेने चल देते हो| दी है आज तक किसी ने काका कहने मात्र से ककड़ी, जो तुमको मिलेंगी? यह भी वजह रहती है शारीरिक ऊर्जा को वासना समझने की|
10) अपने परिवार-कुल के सर्वश्रेष्ठ आध्यात्म व् सम्मान, एथिकल वैल्यू सिस्टम, कल्चर-इतिहास से बच्चों को जरूर अवगत व् प्रेरित करवाएं (सीधा वह जो पुरखों से आता है, फंडियों का फैलाया तो वह बाहर से वैसे ही जान लेंगे, क्योंकि वह तो प्रचारित ही इतना हद से आगे तक मिलता है समाज में), अन्यथा उनको इनका ही नहीं पता होगा तो उनको कुंडलिनी की ऊर्जा वासना ही फबेगी और वह इसको यूँ ही बेवक्त-बेवजह बर्बाद करेंगे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 11 June 2020

नारनौंद के मल्हाण पान्ने की विहंगम परस!


ऐसी मिनिफोर्ट्रेस-नुमा परस (चौपाल/चुपाड़) 1857 से पहले के प्राचीन विशाल हरयाणा (वर्तमान हरयाणा, वेस्ट यूपी, दिल्ली, उत्तरी राजस्थान, दक्षिणी उत्तराखंड) व् पंजाब के हर गाम-पिंड की कहानी हैं| और खास बात यह, कि यह कम्युनिटी गैदरिंग का अजब सिस्टम, इंडिया में इस क्षेत्र से बाहर नहीं मिलता; फिर मिलता है तो सीधा अमेरिका-यूरोप-ऑस्ट्रेलिया के डेवेलप्ड देशों में मिलता है|

और यह सिस्टम देन है वर्णवाद रहित नेग-नात की सीरी-साझी वर्किंग कल्चर वाली उदारवादी जमींदारी (उज़्मा) सिस्टम की; जिसको सींचती है
  1. विश्व की सबसे पुरानी वैधानिक मान्यता प्राप्त सोशल जूरी व् सोशल इंजीनियरिंग की सर्वखाप व्यवस्था
  2. मूर्ती-रहित, मर्द-पुजारी रहित व् 100% औरत की धोक-ज्योत की लीडरशिप वाली दादा नगर खेड़ों/दादा नगर बईयों/भूमिया खेड़ा/गाम खेड़ा/बाबा भूमिया/दादा बड़े बीरों के आध्यात्म वाली वह आध्यात्मिकता कि जो आर्य-समाज की मूर्ती-पूजा रहित आइडियोलॉजी का बेस सोर्स है
  3. गाम-गौत-गुहांड व् 36 बिरादरी की बेटी सबकी बेटी वाली नैतिकता
  4. खेड़े के गौत की लिंग समानता
  5. गाम-खेड़े में कोई भूखा-नंगा ना सोवे की मानवता व्
  6. पहलवानी अखाड़ों वाले मिल्ट्री कल्चर|
यह परस 1871 की बनी बताई जाती है| कमाल है अगर उस जमाने में लोगों के यह ब्योंत व् जीने के स्टाइल थे तो यह बातें झूठी हैं कि अंग्रेजों ने या अन्य प्रकार के प्रवासियों ने यहाँ लोगों को जीना सिखाया, या नहीं?  

अपने पुरखों की इस लिगेसी की किनशिप डेवेलोप करते चलिए, इन चीजों को सहेजते व् आगे की पीढ़ियों को पास करते चलिए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक



Friday, 5 June 2020

खुद की बजाए, जो कौम को लीडर बनाना चाहे, वह साथ आवे!

"खुद को लीडर बनाने की महत्वाकांक्षाओं" वालों के आदर्श "खुद की बजाए कौम को लीडर बनाने वाले सर छोटूराम" कैसे हो सकते हैं? उनके नाम पर अगर कौम की लीडरी चमकाने की बजाये खुद की चमकानी है तो भला हो, घर बैठो| क्योंकि लीडर-मसीहा कोई खुद के घोषित करने से या प्रचारित करवाने से नहीं बना करते| यह लीडरी तो वह गाज़ी है जो उन्हीं के सर सजा करती है जो "कौम को लीडर" बनाने को टूरदे होवें| उदाहरण: यूनियनिस्ट पार्टी की यूनाइटेड पंजाब में 25 साल की सरकार में सर फ़ज़्ले हुसैन से ले सर सिकंदर हयात खान व् मलिक हिज्र खान टिवाणा तक कोई वह ताजपोशी नहीं पा सका जो सर छोटूराम इन तमामों के कार्यकालों में मंत्री रहते हुए पा गए यानि "रहबर-ए-आज़म सर छोटूराम"| इसलिए सर छोटूराम को आदर्श मानते हो तो खुद के जज्बे-नीत-नियत-विज़न पर यकीं रखते हुए यह त्याग भी करना सीखो कि खुद को औरों पर थोंपना नहीं अपितु चुपचाप काम करते जाना है; इस सिद्द्त से करते जाना है कि फिर बेशक हिन्दू महासभा सर छोटूराम को पंजाब छुड़वाने के प्रोपेगंडा के तहत जम्मूकश्मीर का प्राइम-मिनिस्टर बनवाने का लालच भी देवे तो भी बंदा अपना कॉल-करार अपनी कौम, अपनी जमीन के साथ ना तोड़े और वहीँ जमा रहे, उसी लाइन पर चला-चले| तब जा कर मिलती है मसीहा या रहबर की खलीफाई|

और इस जल्दबाजी में रहते हो कि खुद को लीडर बनना है, तभी भटकन बनी हुई है और अपनी ही स्ट्रैटेजियों में घिर रहे हो| कौम की सोचो कौम की, क्योंकि अपनों के हाथों मारे जाने वाले तो ईसाह मसीह भी, अपनों द्वारा उठा लिए जाते हैं भले अपनों के ही हाथों मारे जाने के बाद ही| इसलिए अपनों के हाथों मरने का खौफ ना खा, बुलंदी लिख और सूली चढ़; तेरे कौल-करार की टीस सच्ची हुई तो सूली पे टंगा-टंगा भी ईसाह मसीह कहलाएगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

उस जमाने के "खट्टर खान" से आज वाले "खट्टर" तक!

सर सिकंदर हयात खान खट्टर, यूनियनिस्ट पार्टी की तरफ से अविभाजित पंजाब के प्राइम-मिनिस्टर साहब का आज जन्मदिन है (5 June 1892)| दिवंगत प्राइम-मिनिस्टर साहब के जन्मदिन की आप सभी को शुभकामनायें|
ऐसे मसीहाई इंसानों को रहती दुनियाँ की कायनात तक हर वह जमींदार-मजदूर-व्यापारी याद करेगा जिनको अविभाजित पंजाब में 25 साल तक वह स्थाई राज व् कानून मिले जो आज तक भी भारत-पाकिस्तान के दोनों तरफ के पंजाब के लोगों के जीवन का शबब हैं| कहने की बात नहीं कि इन 25 सालों में यूनियनिस्ट पार्टी के कितने ही अन्य नामी-गिरामी प्राइम मिनिस्टर बने, परन्तु इन सब के दौर में जो एक नाम स्थाई तौर से सत्ता में जम के जमींदारों की जून संवारता रहा, वह था "खालिस-अलाही-आला-ए-पंजाबियत रहबर-ए-आजम दीनबंधु चौधरी सर छोटूराम ओहल्याण"| सलंगित फोटो दोनों हस्तियों की है|

"खट्टर" शब्द नोट किया खान साहब के नाम में? 'वाह', मुल्तान-पाकिस्तान की प्रसिद्ध खट्टर फेमिली के चिराग थे खान साहब| एक "खट्टर" वो थे और एक ... | क्या यह संगत का फर्क है कि वो खट्टर खान, एक चौधरी के साथ मिले तो जमींदारों को पुख्ता-तौर पर जमींदार शब्द पर जमा गए और एक यह वाले "खट्टर" हैं जो फंडियों के साथ मिल के जमींदार को उल्टा जमींदार से किसान बनाने को आतुर दीखते हैं? खटटरो और चौधरियो, पहले की तरह एक रह लो; चौधरी तो आज भी उसी लाइन पर हैं परन्तु आप किधर से किधर जा चुके, जरा देखो "खट्टर खान" से ले आज वाले "खट्टर" की जर्नी तक| आप एक रहो तो ना सितंबर 1947 होवे, ना जून 1984 और ना फरवरी 2016| जिन फंडियों के चक्करों में आप रहते हो इन्हीं की वजह से हमारी धरती को 1947, 1984 व् 2016 देखने पड़े हैं; मत पड़िये इनके चक्करों में| क्योंकि यह तो आपको-हमको लड़ा के फिर से साफ़ बच निकलते हैं| और हम-आप जब तक 30-35 साल में पीछे वाली खाई पाटते हैं जैसे 1947 से 1984 (37 साल), 1984 से 2016 (32 साल) तब तक यह कुछ ना कुछ और ऐसा करवा जाते हैं कि हम फिर अगले 30-35 साल यही खाई पाटने में खपा देते हैं| क्या यह सिलसिला बंद नहीं हो सकता? कहने की बात नहीं कि 1947, 1984 व् 2016 भुगता सर्वसमाज ने परन्तु सबसे ज्यादा व् बड़े स्तर के भुग्तभोगी खट्टर व् चौधरी ही रहे, कि मैं झूठ बोल्या?

नोट: इन दोनों वर्गों को उनका इतिहास याद दिलवाने की इस पोस्ट को कोई जातिवाद का चश्मा मत पहनाना प्लीज| और हो सकता है यह अपील अनसुनी जाए, परन्तु कल मुझे यह संतुष्टि रहेगी कि मैंने ऐसी अपील की थी| दिल खुले रखिये, क्या पता इससे दिमाग भी मिल जाएँ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 3 June 2020

आर्य-समाज क्यों महान है, देखिये उसकी बानगी - भाग 1

नीचे जो लिख रहा हूँ इसमें बस एक कसर रहती है कि जिन खाप-खेड़ा-खेतों से यह विचार सबसे गहन समानता में मिलते हैं, वह रेफरेन्सेस इसमें शामिल हो जाएँ तो "सोने पे सुहागा" हो जाए| जानिये क्या हैं वो बातें|
आर्य-समाज की गीता कही जाने वाली पुस्तक "सत्यार्थ प्रकाश" के ग्यारहवें समुल्लास अनुसार निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान दीजिये (संबंधित पन्नों की कटिंग सलंगित हैं):

1) तीन सलंगित कटिंग में से एक के अनुसार: मूर्ती-पूजा जैनियों की देन है यानि महर्षि दयानन्द के कथनानुसार सिर्फ हिन्दू धर्म का आर्य-समाजी पंथ ही नहीं अपितु सनातनी पंथ भी भूतकाल में मूर्तिपूजा नहीं करने वाला माना जाए, क्योंकि सनातनियों से भी पहले तो मूर्तिपूजा जैनी करते थे| तो फिर सनातनियों ने यह मूर्तिपूजा कब व् क्यों पकड़ी जैनियों से? इसका दूसरा आशय यह भी हुआ कि मूर्तिपूजा नहीं करने वाला आर्यसमाजी ही असली व् पुराना हिन्दू है, सनातनी तो मूर्तिपूजा नहीं करने वालों में से निकली हुई एक शाखा हुई इस मायने से; या नहीं?

मेरी विवेचना: और यही मूर्तिपूजा रहित आध्यात्म तो उदारवादी जमींदारी की आध्यात्म की थ्योरी यानि "दादा नगर खेड़ों / दादा भैयों / बाबा भूमियाओं / गाम खेड़ों" के माध्यम से अनंतकालीन है?

2) तीन सलंगित कटिंग में से एक के अनुसार: मंदिर में जाने से दरिद्रता बढ़ती है| मंदिर में जाने से स्त्री-पुरुषों में व्यभिचार, लड़ाई-झगड़ा बढ़ता है| मंदिर में जाने को ही पुरुषार्थ मान के इंसान मनुष्य जन्म व्यर्थ गंवाता है| पुजारी लोग एकमत को तोड़कर विरुद्धमत में पड़कर देश का नाश करते हैं| महर्षि दयानन्द के अनुसार पुजारी लोग दुष्ट होते हैं| बाकी इस पेज पर पूरी पढ़ लीजिये|

मेरी विवेचना: इतनी अति तो मैं नहीं करता किसी के विरोध की जितनी यहाँ महर्षि दयानन्द कर गए, परन्तु हाँ इतना मानता हूँ कि धर्म-धोक में मर्द का आधिपत्य नहीं होना चाहिए| और इस नहीं होने की सबसे सुंदर बानगी हैं हमारे मूर्ती-पूजा रहित, मर्द-पुजारी रहित, 100% औरत की धोक-ज्योत की लीडरशिप वाले प्रकृति-परमात्मा से ले तमाम पुरखों को एक धाम में नीहीत मानने के कांसेप्ट पर बने "दादा नगर खेड़े/ दादा भैये / बाबा भूमिये / गाम खेड़े"| हमें महर्षि दयानन्द के मतानुसार मर्दों को अपने धोक-ज्योत की चाबी/लीडरशिप देने से ना सिर्फ परहेज करना चाहिए अपितु यह दुरुस्त करना चाहिए कि यह चाबी/लीडरशिप हमारी औरत के ही हाथ में रहे| गर्व है मुझे मेरे पुरखों के इस आध्यात्म पर, जिसको महर्षि दयानन्द ने भी माना, भले इसकी रिफरेन्स सही जगह नहीं जोड़ी; जो कि हमें जोड़ने की जरूरत है|

3) तीन सलंगित कटिंग में से एक के अनुसार: आर्यसमाज में मूर्तिस्वरूप कोई है तो वह हैं जीते-जागते 1 - माता-पिता, 2 - शिक्षक, 3 - विद्वान्-सभ्य-अहानिकारक अतिथि, 4 - पति के लिए पत्नी व् 5 - पत्नी के लिए पति|

मेरी विवेचना: यानि पत्थर वाली मूर्तिपूजा नहीं करनी चाहिए| मूर्ती के रूप में पूजना है तो उपरलिखित 5 प्रकार के मनुष्यों को पूजें| यह है वो सबसे उत्तम बात जो "उदारवादी जमींदारी" में होती है| अपनी दादी-काकी-ताई में देखो, कितनियों के गले में विवाहिता के पट्टे स्वरूप मंगलसूत्र-सिंदूर आदि होते हैं; यह आज-कल वाली तथाकथित मॉडर्न जरा ध्यान देवें इस बात पर| और इस पर भी कि यह मर्दों को खामखा झाड़ पे टांगने के "करवाचौथ" तुम्हारी सास-पीतस-दादस कितनी करती थी या करती हैं? खामखा द्वेष-जलन की मॉडर्न व् एडवांस दिखने वाली देखा-देखी की पर्तिस्पर्धा में दे रही मर्दवाद को बढ़ावा व् खुद बनती जा रही शॉपीस|

लौटो अपनी इन जड़ों पर| यह विश्लेषण सिद्ध करता है कि आर्य-समाजी विचारधारा सनातनी विचारधारा से भी पुरानी है| 1875 में यह "आर्य-समाज" के रूप में लिखित अवस्था में आई और उससे पहले यह "दादा नगर खेड़ों" के रूप में युगों-युगों से अलिखित अवस्था में मौजूद रही|

विशेष: हमें नवीनता हेतु आर्य-समाज में इस बात पर मंथन करना चाहिए कि आर्य-समाज की मूल थ्योरी का आधार खाप-खेड़े-खेत इसमें जोड़ा जाए ताकि इसकी जड़ें 1875 से पहले व् अनंतकाल तक स्थापित की जा सकें|
लेख संदर्भ: 1882 व् 2000 के "सत्यार्थ-प्रकाश" के संस्करण| कटिंग्स 2000 वाले वर्जन की हैं जो मेरे पास है| यह मेरे बड़े भाई-भाभी को उनके फेरों के वक्त भाभी जी के आर्यसमाजी आचार्य सगे दादा जी, जिन्होनें दोनों के फेरे करवाए थे उन्होंने दी थी| यहाँ यह भी मिथ्या तोड़ें अपनी कि ब्याह-फेरे कोई जाति विशेष वाला ही करवा सकता है| 35-40 साल से ऊपर वाले आर्य-समाजियों में झांक के देखो, 50% से अधिकतर के फेरे ऐसे ही उनकी ही जाति-परिवार वाले के करे मिलेंगे जैसे मेरे बड़े भाई-भाभी के हुए थे| भाई-भाभी के पास 4 साल तो न्यूतम रही यह पुस्तक, उन्होंने कितनी पढ़ी पता नहीं परन्तु फ्रांस आते वक्त मैं इसको साथ उठा लाया था| 1882 का वजर्न यौद्धेय भाई विकास पंवार से चीजों को क्रॉसचेक करने हेतु चर्चित किया गया कि 1882 और 2000 के संस्करणों में क्या-कितना अंतर् व् समानता है|

आगे है: "आर्य-समाज क्यों महान है, देखिये उसकी बानगी - भाग 2" में ला रहा हूँ कि कैसे महर्षि दयानन्द ने "अवतारवाद" का खंडन किया है| यानि उनके अनुसार जितने भी अवतारी भगवान-देवता हुए हैं यह सब मिथ्या हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक




Sunday, 31 May 2020

एथिकल पूंजीवाद के धोतक अमेरिका का नश्लभेद व् अनएथिकल पूंजीवाद के धोतक इंडियन वर्णवाद का नश्लभेद!

It is about the justice sensitivity in Ethical Capitalism of USA versus Unethical Capitalism of Indian Varnvad.

अमेरिका में एक गौरे Donald Trump की सरकार होते हुए, एक गौरा पुलिस वाला Derek Chauvin एक ब्लैक George Floyd की लगभग 27 मिनट पैरों तले कुचल के हत्या कर देता है या कहिये उससे हो जाती है परन्तु यह अमेरिकी कोर्ट ने कन्फर्म किया है कि हत्या की है| 25 मई 2020 को हत्या हुई, 27 को गिरफ्तारी कर केस FBI को (आम पुलिस को नहीं), और 29 मई 2020 को Derek को कोर्ट से सजा कन्फर्म सुना दी जाती है| 4 दिन में ताबड़तोड़ तरीके से प्रोसेस कम्पलीट| पूरा मामला खुलने पर पब्लिक जबरदस्त हंगामा करती है इतना कि Donald Trump व् उसका परिवार हाई सिक्योरिटी के तहत बंकरों जैसी सुरक्षा में डालना पड़ता है; यह होता है जागरूक व् आत्मनिर्भर पब्लिक का रूतबा व् रौब|

रंगभेद-नश्लभेद का यह मामला बना है, अमेरिका में एक ऐसा केस बर्दास्त नहीं और अपने इंडिया में चतुर्वर्णीय व्यवस्था का फंडियों (जो धर्म के सच्चे मानवीय पथ के अनुयायी हैं वो फंडियों में नहीं आते) ने जो मकड़जाल बुन रखा है कि बहुतेरे तो इस मानसिक गुलामी में जीने को ही संस्कृति-सभ्यता मान के जिए जाते हैं| और इसको कायम रखने के लिए फंडियों ने सरकारों से ले प्रसाशन तक ऐसा तंत्र बना-बुना हुआ है कि 4 दिन तो क्या 4 दशक तक भी फैसला हो ले किसी केस का तो गनीमत| केस हो ले, अरे चिमयानन्द स्वामी व् उन्नाव वाले एमएलए बाबू तो इन वर्णवादी फंडियों की शय पर ऐसे खुल्ले सांड हैं कि बलात्कार के आरोप लगाने वाली लकड़ियों समेत उनके परिवारों तक को पाताललोक पहुंचवा देते हैं| जम्मू-कश्मीर में एक गुज्जर लड़की के गैंग-रेप व् हत्या के आरोपियों के पक्ष में तथाकथित धर्मरक्षक आन खड़े होते हैं| यूँ ही थोड़े इंडिया के कोर्टों में 3.5 करोड़ केसों का ढेर लगा हुआ है, सब इन वर्णवादियों की मेहरबानी है| क्योंकि इस अनएथिकल पूंजीवाद की मानसिकता में पोषित हैं 90% जज-वकील| एंडी के चेले काम ही करके नहीं देते, फोकट की सैलरी व् वीआईपी सुविधाएँ फोड़ते हैं पब्लिक के टैक्स पे| इनको यह लगता है कि तुम कोर्ट में नहीं किसी धर्मस्थल में बैठे हो कि जनता तुमको चढ़ावा चढाती रहे और तुम बस जीमते रहो| और यह बिना काम किये, बिना हाथ-पैर हिलाये कमाई का सिस्टम यूँ ही चलता रहे इसलिए समयबद्ध-क्रमबद्ध-न्यायबद्ध जस्टिस डिलीवरी पे ध्यान ही मत दो| और 90% प्रतिशत इंडियन इस तथ्य से सहमत है परन्तु चतुर्वर्णीय व्यवस्था के मकड़जाल बुद्धि-चेतना पर ऐसे पड़े हैं कि चुसकते ही नहीं| ठाठी के चेले उल्टा इसी को कल्चर-सभ्यता के नाम पर ओढ़े टूरदे हैं|

यह फंडी 36 बिरादरी के भाईचारे की पीपनी भी बजायेंगे तो अपने सुर की, ऐसे थोथे तो इनके भाईचारे के लहरे हैं| और जो भाईचारे के असली पैरोकार हैं वह इन थोथे लहरों में ऐसे झूमते हैं कि जैसे भाईचारा शब्द सुना ही पहली बार हो| बोर और बड़ाई के भूखे-बावले ना हों तो|

अमेरिका-यूरोप जैसे देशों की ऊपरवर्णित पहले पहरे वाली सोच से मिलती एथिकल पूंजीवाद वाली न्यायप्रियता इंडिया में सिर्फ उदारवादी-जमींदारी व्यवस्था में रही है, जिसने दोषियों को सजा देते वक्त ना वर्ण देखे, ना रंग (1-2% अपवादों को छोड़कर| परन्तु इन फंडियों ने उन्हीं को इतना बदनाम कर दिया तालिबानी-रूढ़िवादी आदि-आदि शब्दों के साथ कि आज के दिन वह भी विचलित से चल रहे हैं| इनको जरूरत है तो इस वर्णवादी सामंती व्यवस्था से हट के अपने पुरखों की वर्णवाद से रहित ईजाद की हुई उदारवादी जमींदारी की फिलॉसफी को अंगीकार कर, उसका प्रचार करने की| कम-से-कम एनआरआई तो कर ही सकते हैं, अगर इंडिया में वर्णवादियों के हद से ज्यादा बढ़ चुके मकड़जाल के चलते चीजें अभी इतनी आसान नहीं लग रही फिर से बहाल करनी तो? तो इसके लिए आप सर-जोड़िये व् इंडियन धरातल के अपने घर-कुणबे-ठोले-समाज को ऐसा करने की कहिये|

फंडियों की पीठ तोड़ने का मंत्र: यह फुकरे प्रशंसा के बहुत भूखे होते हैं| तुम्हारा लाचारी भरा चेहरा इनके चेहरे की सबसे बड़ी मुस्कान व् शरीर की खुराक होती है| इसलिए लाचारी-बेबसी सा चेहरा बना के इनको ताड़ पे चढ़ाये रखा करो और देने-दुने को यानि दान के नाम पे लाचारी दिखाते रहा करो| और नीचे-नीचे अपनी कार्यवाही बिठाते जाओ और एक सटीक वक्त आने पर मारो उलाळ के इनके सिंहासनों समेत ऐसे कि बस यही कहने तक का वक्त मिले इनको कि "यह क्या बनी"|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 29 May 2020

छोटा-मोटा कैपिटलिस्ट (Capitalist) मैं भी हूँ परन्तु एथिकल कैपिटलिस्ट हूँ मैं!

बचपन से बाप-दादा को मुनीम के जरिये मेरे घर में काम करने वाले सीरियों (वर्णवादयुक्त सामंतवादी जमींदारी में जिसको नौकर कहते हैं, हमारी वर्णवादमुक्त उदारवादी जमींदारी में उसको सीरी कहते हैं), के सीर बही में चढ़वाते देखते हुए जो बड़ा हुआ वो छोटा-मोटा कैपिटलिस्ट हूँ मैं; परन्तु एथिकल यानि नैतिक व् मानवीय कैपिटलिस्ट हूँ मैं| क्योंकि जो बही में रकम लिखी सिर्फ उतना नहीं बल्कि सीरी का तीन जून का खाना, वक्त-वक्त पर अपने खेतों का हरा चारा, लकड़ी, बणछटी, तूड़ा, अनाज, दूध तक से अपने सीरी के परिवार को सहारा देना सीखा और आज भी दस्तूर जारी है| भीड़ पड़ी में सीरियों की बहन-बेटियों के ब्याह-वाणे अपनी सगियों जैसे निबटवाने का दस्तूर है मेरे कैपिटलिज्म में| दरअसल यह जो कैपिटलिज्म खापलैंड के ग्रामीण आँचल का है मेरा परिवार तो उसको बताने का एक जरिया मात्र है अन्यथा खापलैंड का 90% उदारवादी जमींदार (10% वर्णवादी बुद्धि से ग्रसित वालों के लिए अपवाद स्वरूप छोड़ रहा हूँ) ऐसा ही कैप्टिलिस्ट होता है| सीरी तो सीरी बाप-दादाओं के वक्तों में तो घर के कुम्हार-लुहार-नाई-खाती-तेली-झीमर आदि तकों की बेटियों के ब्याह-वाणे ओटदे रहे उन उदारवादी जाट-जमींदारों के कल्चर का एक छोटा सा चिराग हूँ मैं| यह 35 बनाम 1 व् जाट बनाम नॉन-जाट तो 2016 की कहानी हैं, इससे पहले न्यूतम 2016 सालों से जो एथिकल कैपिटलिज्म पालता आया वह पिछोका है मेरा|

बचपन से जो अपने यहाँ पूर्वांचल-बिहार-बंगाल-झारखंड-नेपाल तक से मजदूर गेहूं कटाई, धान रोपाई, डंगर चराई व् वेस्ट यूपी से अधिकतर मुस्लिम मजदूर गंडा (गन्ना) छुलाई के लिए आते देखे, वह सब आते वक्त भी एडवांस पेमेंट ले के आते देखे और जाते वक्त भी एडवांस पेमेंट ले के जाते देखे| बाप-भाई रेलवे स्टेशंस पर से लाते देखे तो खैर-ख्व्वहा-खैरियत से रेलों में बैठा के भी आते देखे| एक-दो बार खुद लाने व् छोड़ने गया हूँ| सीजन खत्म होने पे वापिस जाते वक्त गाड़ी में बैठते हुए बिहारी मजदूर यह कहते हुए कि "बाबू जी, अगली बार किसी और टोली को मत बुलाइयेगा, हम ही आएंगे आपके यहाँ" कहते हुए मुझको यह तसल्ली देते हुए दिखे कि हमने हमारे कैपिटलिज्म को बड़ी नैतिकता यानि एथिक्स से निभाया तभी इन्होनें आगे की एडवांस बुकिंग की हमारे ही यहाँ की हमसे हाँ भरवाई|

यहाँ बता दूँ कि 100% दिहाड़ीदारप्रवासी मजदूर वहां के वर्णवादी सामंती जमींदारों के अत्याचार के सताये हुए आते हैं| मेरे घर आने वाली हर टोली से व्यक्तिगत रिसर्च के आधार पर कह रहा हूँ, सबने यही कहा कि हमारे यहाँ भूमिहार ब्राह्मण-ठाकुर हमें इज्जत से हमारा जायज भी कमाने दे तो हम क्यों आवें यहाँ; हमारे यहाँ क्या पानी की, नदियों की, उपजाऊ जमीन की हरयाणा-पंजाब से कमी है? कमी है तो इंसानियत की जो कि धरती की सबसे घटिया वर्णवादी व्यवस्था हमारे यहाँ पनपने नहीं देती| कहते थे मुझे सीधे की आप जाट-जमींदार बेशक खूंखार हो परन्तु इंसानियत में लाजवाब हो; बाबू जी अपनी इस इंसानियत को इन वर्णवादियों की चपेट से बचाये रखना, आपकी धरती यूँ ही पूरे इंडिया की सबसे सम्पन्न व् समृद्ध धरती रहेगी| वरना जिस दिन इन वर्णवादी गिद्दों की गिरफ्त यहाँ बढ़ी, समझ लेना बिहार-बंगाल से भी बड़ा उज्जड-बियाबाँ बना छोड़ेंगे ये यहाँ|

खैर, आज भी घर में कभी दो, कभी तीन सीरी रहते हैं, सब मुस्लिम हैं और वेस्ट यूपी के हैं; परन्तु बरतेवा इनसे भी एथिकल कैपिटलिस्ट्स वाला है|

मैं खुद छोटा-मोटा डिजिटल मार्केटिंग का बिज़नेस कर लेता हूँ, इससे पहले दो साल इ-कॉमर्स की वेबसाइट चलाई; जितनी भी दो-चार-पांच-सात वर्कफोर्स की जरूरत या रहती आई, सबको यही ट्रीटमेंट दिया जो घर-आंगन से पुरखों से सीखा यानि एथिकल कैपिटलिस्ट वाला|

बाबा नानक ने जो सच्चा सौदा 1469 में किया था मेरे कल्चर के पुरखे यह सच्चा सौदा "गाम-गुहांड में सर्वधर्म-सर्वजाति का कोई इंसान भूखा-नंगा नहीं सोना चाहिए" के नियम के तहत कईयों 1469 सालों से पालते आये; इसीलिए जब भी बाबा नानक बारे सोचता हूँ तो यही पाता हूँ कि सिख बनने से पहले बाबा जी जिस भी परिवार-कल्चर से रहे होंगे जरूर मेरे वाले इस "एथिकल कैपिटलिज्म" वाले कल्चर जैसे ही रहे होंगे|

अभी हरयाणा के पांच-छह कोनों से, गामों व् दोस्तों से फीडबैक लिया कि हमारे यहाँ से कितना परदेशी मजदूर पलायन करके गया है कोरोना के चलते? तो जवाब आया कि उदारवादी जमींदार को छोड़ के कोई नहीं जाने वाला, 70% यहीं है हमारे पास| जो गया है वो शहरी फैक्ट्रियों-इंडस्ट्री वालों का गया है|

जानकर अहसास हुआ कि यूँ ही नहीं उदारवादी कहला गए मेरे कल्चर के पुरखे| पैसा जोड़ने के मामले में इतने बड़े कैपिटलिस्ट सोच के कि उनके पैसे जोड़ने के तरीकों के आगे मूंजी से मूंजी व् कसाई से कसाई भी शर्मा जाए| परन्तु फिर भी कभी जिंदगी में ऐसा मंजर नहीं दिखाया हमारे एथिकल कैपिटलिज्म ने खेतों के सीरियों से ले प्रवासी मजदूरों व् कॉर्पोरेट वर्कफोर्स को, जैसा यह वर्णवादी सामंती मानसिकता से ग्रसित अनएथिकल यानि अनैतिक-बेगैरत कैपिटलिज्म दिखा रहा है कि जो इनके घर-आंगन सींचने-पोछने से ले फैक्टरियों को चलाने वालों के लिए ना इनके पास इनको घर लौटने को देने हेतु पैसे हैं, ना साधन, ना सरकारों के नाक में डंडा कर इन लाचारों के लिए इनके घरों तक जाने का सुखद इंतज़ाम करवाने की कूबत तक उठाने का मर्म, 99% में नहीं|

दुनियां का सबसे खून-चूसने वाला कैपिटलिज्म है सामंती वर्णवादी मानसिकता वाला अनएथिकल कैपिटलिज्म| यह जितना जल्दी खत्म हो उतना इंडिया का उद्धार होगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 24 May 2020

चंद्रप्रकाश कथूरिया का भाजपा से 6 साल के लिए निलंबन अत्याचार है उन पर!

पहले 498A यानि एडलट्री की कानूनी धारा तुम खुद हटाते हो और तो और समलैंगिक प्रेम की धारा 377 तक तुम लागू करते हो| बल्कि इन दोनों को लागू करने बारे, पब्लिक में छीछालेदार भी हुए हो| जब इतनी छिछालेदारी सहन करी और फिर कोई कथूरिया जैसा शरीफ इंसान उसका पालन करे तो पार्टी से निकाल बाहर करते हो, किस आधार पर? चरित्रहीनता के आधार पर या क्राइम के आधार पर? दोनों ही लागू नहीं होते बंदे पे| यह दोगलापन क्यों फिर?

और ऐसे ही ना वह औरत दोषी है, जिसकी वीडियो वायरल की गई है| भला क्यों, जब तुम खुद कानून बना के "एक्स्ट्रा-मेरिटल-अफेयर" को कानूनी वैधता दिये हो तो करने दो लोगों को उसका पालन|

अन्यथा वो "900 चूहे खा के बिल्ली हज को चली" तर्ज पर इतनी मोरल पोलिसिंग का शौक चढ़ा है तो फिर यह 498A पुराने रूप में ही रहने दो और 377 को बंद कर दो|

ओ हो शुक्र मनाओ यह तो भाजपा ने निलंबित किया! तमाशा तो तब देखते जब अगर कोई जाट खाप पंचायत टाइप बॉडी ऐसे ही किसी अवैध-संबंध वाले को "गाम निकाला दे देती" या "हुक्का-पानी बंद कर देती" या "समाज से गिरा देती"| यही मीडिया में बैठे पिलुरे क्या-क्या तोड़ पाड़ देने वाले शब्द ढूंढ-ढूंढ कर लाते, "तालिबानी लोग", "क्रूर-निर्दयी इंसानियत के दुश्मन, गंवार जाहिल लोग, "कंगारू कोर्ट्स चलाने वाले रूढ़िवादी-तकियानूसी" पता नहीं क्या-क्या फूट पड़ता इनकी जुबान व् कलम दोनों से|

वो मेरी दादी वाली बात, "ऐ जाओ ना उठाईगीरों" देखी तुम्हारी आधुनिकता और खुलापन; दो मर्जी से प्यार करने वाले नहीं सुहाते तुम्हें, वह भी तुम्हारे बनाये कानूनों पर चलते हुए|

चिंतन कीजिये: क्या तो उस औरत की वीडियो वायरल करने से होगा और क्या कथूरिया को पार्टी से निलंबित करने से होगा? करना है कुछ, माथा मारना है तो बोलो इन कानून बनाने वालों को कि 498A पुनर्बहाल हो व् 377 खत्म हो| 498A हटा के जो गदर मचाने का हक तुमने खुद दिया हुआ है मैरिड-कपल्स को इतना गदर तो वेस्टर्न कंट्रीज में भी नहीं है; जिनको अक्सर तुम तुम्हारे कल्चर-वैल्यू सिस्टम को बिगाड़ने की तोहमद रखते रहते हो| यहाँ मैरिड आदमी हो या औरत, ब्याहता के अलावा किसी के साथ दिख भी जाता है तो मात्र इस बात पे भी तलाक हो जाते हैं यहाँ| और इसीलिए ज्यादा तलाक होते हैं यहाँ| तुमसे-हमसे तो ज्यादा चरित्रवान फिर यह लोग हुए, या नहीं हुए?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 22 May 2020

ना आर्यसमाज का सम्पूर्ण विरोध व्यवहारिक है और ना ही अंधसमर्थन!

सम्पूर्ण विरोध करना, पुरखों की करी-कराई मेहनत उनको सौंप देना है जो गिद्द की भाँति आर्य समाज की लैंड-प्रॉपर्टी पर नजर गड़ाए बैठे हैं बल्कि घुसे भी हुए हैं| यह लैंड-प्रॉपर्टी रोज-रोज खड़ी नहीं हुआ करती| ऐतराज है मुझे भी इससे कि इसके अंदर फंडी व् सनातनी यानि मूर्ती-पूजक घुस आये हैं जिनको इनसे बाहर होना ही होना चाहिए| मंत्रणा इस पर होनी चाहिए कि इनको कैसे बाहर किया जाए और चीजों को अपने नियंत्रण में ले कर वह ठीक किया जाए जो आज के दिन इसमें गलत है, या इसको अपनाने के वक्त इसमें डाला नहीं गया या आगे की 100-50 साल की रणनीति क्या होनी चाहिए| किसी को इस नाम से ही दिक्कत है तो उसका भी सलूशन है कि पहले नियंत्रण में लें, उसके बाद गुड़गांवां का गुरुग्राम बनाना या गुड़गाम्मा, तुम्हारे हाथ की बात रहेगी| यह बिना दार्शनिकता का विरोध या तो असमर्थ किया करते हैं या विज़न से रहित किया करते हैं या परिस्तिथि को और ज्यादा तहस-नहस करके, लोगों को कंफ्यूज करके; बंदर की भांति गुड़िया को ऐसे तोड़मोड़ देते हैं कि ना तो वह किसी के काम की रहती अपितु गिद्दों के मंसूबे पूरे करने में और सहायक होती चली जाती है|

अंधसमर्थन करने से पहले:
1 - आर्यसमाज में कुछ ऐसी बातें हैं जो एक हांडी में दो पेट वाली तर्ज पर रही हैं, जैसे शहरों में डीएवी होना, गांव में गुरुकुल; डीएवी इंग्लिश मीडियम से होना, गुरुकुल संस्कृत व् हिंदी, डीएवी में कोएजुकेशन होना, गुरुकुल में लड़कों का अलग, लड़कियों का अलग| इसको ठीक किया जाए|
2 - आर्यसमाज की विचारधारा से ले इनकी लैंड-प्रॉपर्टी में सनातनियों की मूर्ती-पूजा कौन डाल रहा है, आर्य समाज के मूर्ती-पूजा रहित समाज के बेसिक कांसेप्ट के विरुद्ध? है किसी के पास इनको इन घुसपैठियों से बचाने का प्लान? सनद रहे सनातनी वो जो मूर्ती-पूजा करे, आर्यसमाजी वो जो मूर्तिपूजा ना करे|
3 - आर्यसमाज में स्थापना के वक्त नहीं डाली गई चीजें ठीक की जावें: जैसे मूर्तिपूजा रहित हमारा समाज 1875 से पहले भी था, उसका सबूत दादा नगर खेड़े, दादे भैये हैं हमारे| इसलिए अंधसमर्थक जो यह स्तुति करने लगते हैं कि आपके समाज में ज्ञान-विकास 1875 के बाद ही आई, वह अपनी नियत ठीक रखें अपने पुरखों के आध्यात्म के प्रति| यह वो गलती थी ऋषि दयानन्द की जिसका जहाँ क्रेडिट बनता था वह नहीं दिया, जबकि कांसेप्ट मूर्ती-पूजा रहित का दादा खेड़ों से चुपके से उठा लिया; कौन इंकार करेगा इससे? बात इस मिसिंग कनेक्शन को जोड़ने की होनी चाहिए व् साथ ही हमारा समाज सिर्फ मूर्तिपूजा रहित ही नहीं मर्द-पुजारी सिस्टम रहित भी रहा है, इसको जोड़िये यहाँ| 100% औरत को धोक-ज्योत का अधिकार जो समाज देता आया उसमें मर्द पूजा-पदाधिकारी घुसाने का इल्जाम तो है आर्यसमाज पर| कैसे ठीक करेंगे इसको या इसका कोई मध्यम रास्ता निकालेंगे, इसपे बात की जाए|
4 - जो लोग यह कहते हैं कि आर्यसमाज ने उनको मानवता सीखा दी, या सभ्यता बता दी; वह यह ना भूलें कि जब आर्यसमाज स्थापित हो रहा था जाट जैसा समाज "धौली की जमीन" के तहत जमीनें दे-दे ना सिर्फ ब्राह्मणों को रैन-बसेरे-रोजगार के साधन कर रहा था अपितु दलित से ले ओबीसी हर जाति को अपने यहाँ बसा रहा था और उससे बहुत पहले बसाता आया है, "दादा नगर खेड़े के खेड़े के गौत" के नियम के तहत| 95% जाट बाहुल्य गामों को यही कहानी है, किसी को बहम हो तो बात कर ले| यहाँ तक दर्जनों तो बनियों को जानता हूँ मेरे आज के सर्किल में, जिनके दुकान-फैक्ट्री जाटों के यहाँ से लिए उधार या कर्जे पे बसे-बने-चले| बेशक आज वो अरबो-कऱोड़ोंपति हों; परन्तु हर चार में से एक बनिये की यह कहानी मिल जानी है, आज की पीढ़ी में नहीं तो दो-चार-पांच पीढ़ी पहले| इसलिए रहम कीजिये अपने पुरखों में मानवता-सभ्यता डालने का सारा क्रेडिट आर्यसमाज को देने बारे| यहाँ ऐसे-ऐसे साहूकार जाट रहे हैं जिनके घरों में पंडतानी ब्राह्मणी औरतें रसोई का रोटी-टूका-बर्तन करने आती रही हैं| इसमें पहला उदाहरण तो खुद मेरा बड़ा नानका रहा है| चाटुकारिता व् स्वभिमानहीनता की हद पर मत उतरिये|
5 - इस बात में कोई दो राय नहीं कि आर्यसमाज जाटों को सिखिज्म में जाने से रोकने हेतु मनाने हेतु लाया गया था, वरना यह गुजरात-महाराष्ट्र-बॉम्बे में क्यों नहीं फैला, जहाँ के कि खुद ऋषि दयानन्द थे? यह उसी इलाके में क्यों फैला जहाँ सिखिज्म बढ़ रहा था और जाट उसमें जा रहे थे?

अत: यहाँ इस बात को इस अहम-डिग्निटी से जोड़ के देखिये कि वह ब्राह्मण जो धोक-पूजा की मोनोपोली में किसी को ऊँगली भी नहीं धरने देता, उसने इसमें जाटों की हिस्सेदारी स्वीकार की| स्वीकार ही नहीं की अपितु ब्राह्मण की सनातनी परम्परा के समानांतर जाट की मूर्ती-पूजा रहित दादा नगर खेडाई (1875 के बाद आप इसको आर्य-समाज कह सकते हैं) स्वीकारी| यह डिग्निटी थी हमारे पुरखों की कि यहाँ रहे भी तो इस डिग्निटी के साथ कि ब्राह्मण हमारे धोक-पूजा-कर्मकांड-हवन-यज्ञ में दखल नहीं देगा| जिसमें कि आज के दिन हद दर्जे से ऊपर तक जा के हो रहा है|

अगर खुद को अपने पुरखों से स्याना-बेहतर-जागरूक व् क्रांतिकारी समझते हो तो इसको रोकने पर व् पुरखों की वह डिग्निटी यानि अणख कायम रखवाने पर काम होना चाहिए| जिसपे मैं और मेरे जैसे बहुत से भाई चुपचाप दिनरात लगे रहते हैं| और गजब देखिये हमारी पोस्टों पर कभी ऐसे विरोधाभाष भी नहीं होते, हम इस स्टाइल से काम कर रहे हैं| क्योंकि हमें काम करना है, हमें जो चाहिए वो पाना है| आप भी हासिल पे ध्यान दिजिये, मात्र हस्तक्षेप पर नहीं; बल्कि हस्तक्षेप करने वाले तो आर्यसमाज से बाहर निकालने हैं या निकलवाने हैं| ऐसे ही और बिंदु है इस लेख के शीर्षक के दोनों भागों के लिए, वह फिर कभी|

और हाँ 1937 के आर्य मैरिज एक्ट में सिर्फ इतना है कि आप अंतर्जातीय व् अंतरधर्म विवाह कर सकते हो, उसमें यह कहीं नहीं लिखा कि आप एक गाम या एक गौत में भी ब्याह कर सकते हो| ऐसा होता तो उस वक्त सर छोटूराम की सरकार थी यहाँ वह नहीं होने देते| इतना भरोसा रखिये अपने उस पुरखे पर| समझ नहीं आती कि अपने बेसिर-पैर के प्रोपगैण्डे आगे करते-करते कब उसी व्यक्ति के राज में हुई चीजों (यह आर्य मैरिज एक्ट इस केस में) पर ही उँगलियाँ उठाने लग जाते हैं जिसको अपने मिशन का फिगर व् आइडियल पुरुष बना कर चले हुए हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 20 May 2020

आज मेरे पास एक अजीब प्रश्न आया: क्या यौद्धेय-लोग नास्तिक होते हैं? क्या यूनियनिस्ट मिशन नास्तिक है?

मैं: आपको क्यों लगा?
प्रश्नकर्ता: जब देखो, फंडियों के खिलाफ पोस्टें, फंडियों की आलोचना|
मैं: धर्म की आलोचना या धर्म के खिलाफ तो पोस्टें नहीं देखी होंगी?
प्रश्नकर्ता: एक-आध की पोस्टों में फंडी विरोध की इतनी अति हो जाती है कि ऐसा ही प्रतीत होने लगता है कि आप यौद्धेय तो धर्म के ही विरुद्ध हैं|
मैं: नहीं ऐसा नहीं है| अगर ऐसा किसी की पोस्ट से प्रतीत भी होता है तो उसको सटीक बैलेंस्ड शब्दों का चयन करना सीखने के अभ्यास की जरूरत है|
प्रश्नकर्ता: तो फिर धर्म पर आप लोगों का सही-सही स्टैंड क्या है?
मैं: वैसे तो हर यौद्धेय, अपने-अपने हिसाब से अपनी व्याख्या रखने को स्वतंत्र है; परन्तु मोटे-तौर पर जिस प्रकार के धर्म-आध्यात्म पर यौद्धेयों में सहमति देखी गई है, वह है पुरख पूजा व् प्रकृति की पूजा|
प्रश्नकर्ता: और जिस पर सहमति नहीं है, वह?
मैं: माइथोलॉजी को हम नहीं मानते|
प्रश्नकर्ता: क्यों?
मैं: जिसके नाम में ही मिथ है वह नाम से ही बोल रही है कि मैं सच नहीं हूँ, तो कैसे मानें उसको?
प्रश्नकर्ता: पुरख पूजा व् प्रकृति पूजा से आशय?
मैं: दोनों की शक्ति का एक धाम, जो जेंडर सेंसिटिव (मर्द देखरेख व् सुरक्षा देखता है, औरत धोक-ज्योत व् बच्चों को इनके माध्यम से अपने पुरखों, प्रकृति, इतिहास व् ह्यूमैनिटी से जोड़ती है; मर्द पुजारी सिस्टम प्रतिबंधित है) भी है और ह्यूमैनिटी सेंसिटिव (कोई जाति-धर्म-वर्ण प्रतिबंध या भेदभाव नहीं) भी है यानि मूर्ती-पूजा रहित "दादा नगर खेड़े"| इसमें मर्द-पुजारी सिस्टम नहीं होने से समाज के बच्चे नशे-पते से बचे रहते हैं व् औरतें, 99% पुजारियों (1% अच्छे भी होते हैं, परन्तु 1% के लिए 99% को समाज को गंदा करने की इजादत देना, सामाजिक तंत्र को अपने हाथों दिया-सलाई दिखाने जैसा है) की गंदी सामंती व् वासनायुक्त नजरों से| दादा नगर खेड़े को खापलैंड पर क्षेत्र व् हरयाणवी-पंजाबी-मारवाड़ी भाषाओं की बोलियों के अनुसार "दादा भैया", "गाम खेड़ा", "जठेरा", "पट्टी खेड़ा", "बड़ा बीर", "बाबा भूमिया", "भूमिया खेड़ा" आदि बोला जाता है| इस कांसेप्ट के सबसे नजदीक लगता है "आर्य समाज", जिसमें सुधार करके फंडियों को आर्य-समाज की तमाम संस्थाओं-इमारतों से बाहर निकाल इनको शुद्ध करने के पक्षधर हैं यौद्धेय; क्योंकि आखिरकार आर्य-समाज की यह तमाम प्रॉपर्टी खासकर ग्रामीण आँचल की तो विशेष-तौर से हमारे पुरखों की दी हुई जमीन व् धन से बनी हुई हैं| इसलिए इन पर पहला और आखिरी हक वंशानुगत, लीगल व् वैचारिक हर तौर पर हमारा बनता है|
प्रश्नकर्ता: तो आप मूर्तिपूजा नहीं मानते तो घरों में पुरखों की, बच्चों की, ब्याह-शादियों की फोटोज क्यों रखते हो?
मैं: क्या हम उनको यादगार हेतु रखते हैं या पूजने हेतु? मेरे ख्याल से फंक्शन्स वाली यादगार हेतु व् पुरखों की उनकी स्मृति को जिन्दा रख उनकी सीखों से मिलने वाली प्रेरणा को तरोताजा रखने हेतु?
प्रश्नकर्ता: हम्म, यह बात जंची कुछ|
मैं: बस तो फिर|
प्रश्नकर्ता: हम्म्म तर्कसंगत है|
मैं: जी!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक