Wednesday, 29 March 2017

साइंस में पूरे विश्व में इनका ही रिवर्स गियर क्यों लगा?

सलंगित अख़बार की कटिंग में दिखाई ईमानदारी के लिए यह प्रसंशा के पात्र हैं, कम-से-कम कुँए से बाहर निकल दावे करने तो शुरू किये| परन्तु भारत से बाहर इन बातों को मनवाने के लिए इनको अमेरिका-यूरोप-जापान जैसे देशों से प्रतियोगिताएं करनी होंगी| वर्ना अपने मुंह मियां मिठठू बनने वाली बात ना हो जाए कहीं|

अमेरिका-यूरोप-जापान इत्यादि वालों ने जो भी साइंटिफिक रिसर्च करी हैं, उनकी सब तारीखें-स्थान सम्भाल के रखे हुए हैं| इनको सबसे बड़ी बाधा तो यही तारीखें व् स्थान साबित करने में आनी है और उससे भी बड़ी हास्यसद्पद स्थिति तब बनेगी जब इनसे पूछा जायेगा कि 1947 से ले जितने भी सालों पुराने इन अविष्कारों के दावे किये जायेंगे, उनका लाभ भारत हजारों-हजार साल क्यों नहीं ले पाया, यह इनको आगे जारी क्यों नहीं रख पाए| जब विदेशी लुटेरों ने भारत पर आक्रमण किये तो तब यह रॉकेट, हवाई जहाज व् न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी इस्तेमाल क्यों नहीं किये?

माना भारत शांतिप्रिय देश था, कभी अपनी सीमा से बाहर किसी मुल्क पर आक्रमण करने नहीं गया; परन्तु जब रामायण-महाभारत (क्योंकि यह आपस में ही लड़ के ही, भाई-को-भाई से लड़वा के ही विश्व विजेता बन लिया करते थे) में इन सारे औजारों का प्रयोग हुआ बताया जाता है तो विदेशी लुटेरों के वक्त क्यों नहीं किया? रावण ने राम की सीता उठा ली तो इसी बात पे राम ब्रह्मास्त्र निकाल के खड़ा हो गया था, तो जब विदेशी लुटेरे आये तब कहाँ थे यह सब यन्त्र-आविष्कार?

ऐसी क्या फिरकी फिरि थी इन आविष्कारों की कि दुनिया में आजतक कोई भी साइंस रिवर्स गियर में नहीं चली, तो फिर इनकी साइंस को ऐसा क्या उल्टा गियर लगा कि सब मलियामेट हो गया? साइंस में पूरे विश्व में इनका ही रिवर्स गियर क्यों लगा?

बस अंत में घूम-घुमा के कहीं इन दावों को साबित करने में भी कोई हिंदुत्व मत घुसा लाना कि तुम तो कम से कम इनको हिन्दू होने के नाते सपोर्ट करो, तुम ही नहीं करोगे तो कौन करेगा? उम्मीद है कि यह लोग इन दावों को साइंस के हिसाब से सिद्ध करेंगे, ना कि धर्म के नाम पर इन बातों को सच मानने का समर्थन कैंपेन चला देंगे|
विश्व के पट्टल पर इनको साबित करो, सबसे ज्यादा प्रचार मैं करूँगा| वर्ना विश्व अक्ल ले चुका, तुम भी ले लो कि धर्म को साइंस में और साइंस को धर्म में नहीं घुसाया करते|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 28 March 2017

जाट समाज में पाई जाने वाली "विधवा-पुनर्विवाह" की प्रथा स्वेच्छा है बाध्यता नहीं!

उद्घोषणा: इस पंक्ति को पढ़ के मुझे घोर जातिवादी बताने वाले इस पोस्ट से दूर रहें, क्योंकि जब इस प्रथा की कमियों की बात आती है तो इसकी कमियां बतलाने वाले इसको जाटों की प्रथा बता के कमियां गिनवाते हैं, और यह मुझे जातिवादी कहने वाले उस वक्त बिलकुल नहीं बोलते कि यह तो हमारी भी प्रथा है; तो फिर मैं इसकी खूबियां भी इसको मुख्यत: जाटों की बता के क्यों ना गिनवाऊँ?

अब विषय की बात: अस्सी के दशक में एक हरयाणवी फिल्म आई थी "सांझी" जो "विधवा-पुनर्विवाह" को बाध्यता बना के दर्शाती है| जो इस फिल्म में दिखाया गया है वह मुश्किल से 5-7% मामलों में होता है, जबकि इस फिल्म ने जो 90-95% मामलों में होता है वह तो दिखाया ही नहीं था| वह आपको मैं बताता हूँ| लगे हाथों बता दूँ कि हरयाणा में "विधवा पुनर्विवाह" को "करेवा" या "लत्ता ओढ़ाना" भी बोलते हैं|

विधवा-पुनर्विवाह औरत की स्वेच्छा होती है बाध्यता नहीं: इसके 4 उदाहरण खुद मेरे परिवार-कुनबे के देता हूँ|

उदाहरण एक: काकी सम्भल (व्यक्तिगत प्राइवेसी के चलते बदला हुआ नाम) काका की बहु| काका गुजरे तो काकी की उम्र 35-40 वर्ष के बीच रही होगी| सिर्फ दो बेटियां थी| छोटा काका कुंवारा था, उसका लत्ता ओढ़ने का ऑफर हुआ| तो काकी ने छोटे काका के सामने कुछ टर्म्स एंड कंडीशन्स रखी| बात नहीं बन पाई तो काकी दिवंगत काका यानि अपने दिवंगत पति से (पति के बाद पत्नी उसकी चल-अचल सम्पत्ति की बाई-डिफ़ॉल्ट मालकिन होती है, वैसे होती तो जीते-जी भी है परन्तु वकीलों-रजिस्ट्रारों की मोटी फीसों व् खर्चों के चलते कागजी कार्यवाही कोई-कोई ही करवाता है) नियम के तहत अपनी दोनों बेटियों के साथ ख़ुशी से रहने लगी| थोड़े दिन बाद पीहर में जा बसी और आज दोनों बेटियां पढ़ा-लिखा के ब्याह दी|

उदाहरण दो: काकी सिद्धा (व्यक्तिगत प्राइवेसी के चलते बदला हुआ नाम) काका की बहु| काका गुजरे तो सिर्फ तीन बेटियां थी| विधवा होने के वक्त उम्र 30-35 वर्ष के बीच रही होगी| जेठ का लत्ता ओढाने का ऑफर हुआ, क्योंकि पति के सभी भाई ब्याहे जा चुके थे| काकी ने मना कर दिया और अपने दिवंगत पति की चल-अचल सम्पत्ति पे स्वाभिमान से मेहनत कर तीनों बेटियों को पढ़ाया लिखाया व् ब्याह दिया|

उदाहरण तीन: काकी सुजीत (व्यक्तिगत प्राइवेसी के चलते बदला हुआ नाम) काका की बहु| काका गुजरे तो सिर्फ दो बेटे थे, काकी की उम्र भी 30 साल से कम, M.A. पास| छोटा देवर कुंवारा था, परन्तु करेवा करवाने से मना कर दिया| अपने दोनों बच्चों को पढ़ा-लिखा रही है, working from home woman (वर्किंग फ्रॉम होम वीमेन) है| खेत भी सम्भालती है और प्राइवेट नौकरी भी करती है|

उदाहरण चार: सुदेश बुआ (व्यक्तिगत प्राइवेसी के चलते बदला हुआ नाम), 30 साल की उम्र में विधवा हो गई, सिर्फ दो बेटे थे| पीहर में रहती हैं, परन्तु एक बेटा दादा-दादी के पास छोड़ रखा है और एक खुद के पास| कोई चक-चक नहीं अपनी मर्जी से जीवन जीती है| दोनों लड़के कॉलेज गोइंग हो चुके हैं|

तो यह है जाट समाज में पाई जाने वाली "विधवा-पुनर्विवाह" की प्रथा|

इस प्रथा की कमियां: कई बार जमीन-जायदाद के लालच में, औरत को अपने काबू में रखने के चक्कर में, विधवा के पुनर्विवाह के वक्त उसकी मर्जी नहीं पूछी जाती| ऐसे 5-7% मामले हैं; परन्तु उन समाजों के सिस्टम से तो लाख गुना बेहतर सिस्टम है यह, जहां औरत को विधवा होते ही उसकी उम्र देखे बिना, उसको उसके दिवंगत पति की चल-अचल सम्पत्ति से बेदखल कर, आजीवन विधवा आश्रमों में सड़ने व् गैर-मर्दों की वासनापूर्ति का साधन बनने हेतु फेंक दी जाती हैं| यह विधवा-आश्रम सिस्टम गंगा के घाटों पर खासकर पाया जाता है| इस अमानवता व् पाप का एक बड़ा अड्डा वृन्दावन के विधवा-आश्रम भी हैं|

जाटों में इस प्रथा के होने को राजस्थान के कुछ स्वघोषित उच्च समाज इसको जाटों का पिछड़ापन व् नीचता मानते हैं और इसको जाटों से नफरत करने के मुख्य कारणों में एक गिनते हैं (अब इसके कारण किसी की नफरत के पात्र जाट बनें तो फिर इस प्रथा की अच्छाइयों का श्रेय जाट अपने सर क्यों न धरें?)| पता नहीं यह कैसे उच्च हैं जो नारी को सम्मान का जीवन देने को भी नीचता कहते हैं|

चलते-चलते बता दूँ कि हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी-दिल्ली में सिर्फ जाट ही नहीं वरन यहां की सम्पूर्ण जातियां इस प्रथा को गर्व से फॉलो करती हैं|

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 27 March 2017

परजीवियों से सत्ता चलवाओगे तो मनवांछित फल कहाँ से पाओगे?

जिसने सदा संसार से मांग के खाया, उसको सीएम तो क्या पीएम भी बना दो, उसमें उम्रभर खिलाने वाले किसान का कर्ज माफ़ करने की बुद्धिमत्ता कदापि नहीं आ सकती| वो एक परजीवी की तरह पला होता है तो दाता कहाँ से बन जायेगा?

यह उनके लिए है जो यूपी की योगी सरकार से किसानों के कर्जमाफी हेतु मुंह धोये बैठे थे; आखिर इतना ज्ञान तो अपने पुरखों के इतिहास से सीख लो तुम परन्तु तुम्हें यह भी तो बहुत बड़ी बीमारी है ना कि अपने बताये पुरखे की बात से इन नौसिखियों के जुमले ज्यादा पसंद आते हैं|

उधर देखो पंजाब में एक राजाई गद्दी के किसान-पुत्र की सरकार ने कर्जा उगाही के लिए किसानों की जमीन की कुर्की नहीं होने का आते ही कानून बना दिया और कर्जमाफी पर भी जल्द ही फैसला आने वाला है, क्योंकि कर्जमाफी कमेटी स्टडी पे बैठा दी थी आते ही|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 26 March 2017

भारत डार्क ऐज में पुनः जा रहा है!

यूरोप में एक जमाने में चर्च इतना ताकतवर था कि वह राजा तक की परवाह नहीं करता था l एक बार राजा से कोई गलती हो गई और वो पोप को मनाने के लिए दो दिन तक चर्च के बाहर खड़ा रहा लेकिन पोप ने राजा को घास तक नहीं डाली l चर्च जिसे दिल चाहता था उसे जन्नत का परवाना बना देता था जिसे दिल चाहता जादूगर कह कर जिन्दा जला दिया जाता था l 1610 में जब टेलिस्कोप का आविष्कार हुआ और मनुष्य दूर तक देखने में सक्षम ...हुआ और गैलिलीयो को यह एहसास हुआ कि पृथ्वी universe का केंद्र नहीं बल्कि यह तो खुद सूर्य के चारों ओर चक्कर लगा रही है जो बाइबल के दर्शन के बिल्कुल विपरीत था l

गैलिलीयो को चर्च की अदालत में तलब कर लिया गया और गैलिलीयो को अदालत में जान बचाने के लिए माफी मांगनी पड़ी l पादरियों ने ज़ूरदानो ब्रूनो को यह कहने पर ज़िंदा जला दिया था कि पृथ्वी सूर्य के चारो ओर घूमती है। बाइबिल कहती है कि पृथ्वी universe का केंद्र है।

इसी घुटन भरे वातावरण में चर्च के अंदर से ही विद्रोह हुई l मार्टिन लूथर ने चर्च की इस एकाधिकार को चुनौती दी l यूरोप में इसे दौर को डार्क- ऐज कहा जाता है l एक लंबी जद्दोजहद के बाद यूरोप ने चर्च को राज्य मामलों से अलग कर दिया और यहीं से उनका विकास शुरू हुआ, लोकतंत्र आया, जुडिशल सिस्टम बने लेकिन आज भी यूरोप इस पीरियड पर शर्मिंदा है और हजार साल के पीरियड को डार्क -ऐज कहते हैंl

अब हमें यह फैसला करना है कि हमने अपनी सोसाइटी को आगे की ओर ले के जाना है या फिर हमारी आने वाली नस्लों को हमारा किया भुगतना पड़ेगा , जैसे मुस्लिम मज़हबी मुल्को में आज की नस्लों को भुगतना करना पड़ रहा है।

Courtesy: Sir Dayanand Singh Chahal

Thursday, 23 March 2017

सरदार भगत सिंह चालीसा!

देशभक्ति के भगवान (God of patriotism) शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह और राजगुरु व् सुखदेव को राष्ट्रीय शहीदी दिवस पर कोटि-कोटि नमन!

शहीद-ए-आज़म की शान में प्रस्तुत है "सरदार भगत सिंह चालीसा":

जय भगत सिंह, देशभक्ति के सागर,
जय सरदारा, तिहुँ लोक उजागर!

किसान-पुत्त, अतुलित बल धामा,
विद्यावती पुत्र, बंगे पिंड जामा!

महाबीर बिक्रम बसन्त-रंगी,
कायरता उखाड़, वीरता के संगी!

किसान कर्म, विराज खटकड़-कलां का,
सर पर पगड़ी, मूछें जबर सा!

हाथ इंकलाब और बसन्ती ध्वज विराजे,
काँधे फटका किसान का साजे!

संधू सुवन किशन सिंह नन्दन,
तेज प्रताप महाजंग वन्दन!

विद्यवान गुनी अति चातुर,
देश काज करिबे को आतुर!

सरदारी चरित्र पढ़िबे को रसिया,
लेनिन-सराबा-खालसा मन बसिया!

रूप बदल धरि, केश कटावा,
अंग्रेजन को चकमा दे जावा!

इंकलाबी रूप धरि, सांडर्स संहारे,
धरती-माँ के काज सँवारे!

बनाये बम, असेंबली बजाए,
पर प्राण किसी के ना जाए!

भारत किन्हीं बहुत बड़ाई,
तुम मम प्रिये आमजन सहाई!

सहस मुल्क तुम्हरो यश गावे,
ऐसा-कही माँ कण्ठ लगावे!

संकाधिक मजदूर-मुनीसा,
किसान-जवान सहित महीसा!

तुम उपकार लाजपत कीन्हा,
मार सांडर्स सम्मान बचीना!

तुम्हरो मन्त्र गांधी माना,
अंग्रेज भये सब जग जाना!

67 रोज भूख हड़ताल ठानूँ,
अंग्रेजन को झुका के मानूँ!

धरती-माँ मेहर, मन माही,
फांसी झूल गए, अचरज नाहीं!

दुर्गम काज जगत के जीते,
भगता तुम गजब के चीते!

देशभक्ति द्वारे तुम उजयारे,
जुमला से ना हुए गुजारे!

आपका तेज सम्हारो आपही,
तीनों लोक ना दूजा कोई!

भूत-पिशाच निकट नाही आवे,
जो भगत सिंह नाम सुनावे!

नासे रोग हरे सब पीड़ा,
जपत निरन्तर भगत सिंह बीरा!

पंगुता से भगत सिंह छुडावे,
गाम-गौत-गुहांड जो पुगावे!

चारों युग प्रताप तुम्हारा,
है प्रसिद्ध जगत उजियारा!

किसान-मजदूर के तुम रखवारे,
मंडी-फ़ंडी निकन्दन, अजीत दुलारे!

देशभक्ति रसायन, तुम्हारे पासा,
सदा रहो देशभक्ति के बाहसा!

संकट कटे-मिटे सब पीड़ा,
जो सुमरै भगत सिंह शेरा!

जय जय जय भगत सिंह शाही,
अवतारों फिर, बन नई राही!

जो यह पढ़े भगत सिंह चालीसा,
होये निर्भय सखी दुर्गा भाभी-सा,

फुल्ले-भगत सदा भली तेरा,
कीजे सरदार हृदय में डेरा!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 22 March 2017

क्या है 20 जनवरी 1934 को सीकर में शुरू हुए बीसवी शताब्दी के सबसे बड़े महायज्ञ का सच?

देशी और विदेशी इतिहासकारों ने लिखा है कि 20 जनवरी से 26 जनवरी तक चलने वाले इस यज्ञ के अंतिम दिन जाट यज्ञपति हुकमसिंह काे हाथी पर सवार कर जुलूस निकालना चाहते थे किंतु पूर्व रात्रि को ही सीकर ठिकाने ने इस उद्देश्य के लिए लाए गए हाथी को चुरा लिया। इससे जाट आक्रोशित हुए और उन्होंने हाथी की सवारी के बिना यहां से न हटने का फैसला कर लिया। 3 दिन तक भयंकर तनातनी और उत्तेजना का माहौल बना रहा। दीनबंधु छोटूराम ने जयपुर महाराजा के पास सूचना भिजवाई कि एक भी जाट के साथ अगर कुछ गलत घटित हो गया तो पूरे देश में ईंट से ईंट बजा दी जाएगी। जयपुर पुलिस के इंस्पेक्टर जनरल एफ. एस. यंग स्थिति का जायजा लेने के लिए स्वयं हवाई जहाज से सीकर आए और यज्ञ स्थल के ऊपर हवाई जहाज उड़ाया। स्थिति के विकराल रुप धारण करने के बाद अंततः सीकर ठिकाने को झुकना पड़ा और दसवें दिन इस शर्त पर जुलूस निकालने के लिए स्वयं सजा सजाया हाथी प्रदान कर दिया कि हाथी पर सवारी यज्ञपति हुकमसिंह नहीं बल्कि उनके स्थान पर यज्ञ के पुरोहित पंडित खेमराज शर्मा करेंगे किन्तु जुलूस के समय जाटों ने पंडित खेमराज शर्मा के साथ सरदार हरलाल सिंह (झुंझुनू के प्रसिद्ध जाट नेता) के पुत्र नरेंद्र को हाथी पर बैठा दिया।

वास्तव में यह यज्ञ 7 दिन तक ही चला था और हाथी चुराने की घटना यज्ञ की पहली रात्रि को ही हो गई थी, जिसका प्रमाण मैं इस पोस्ट के कमेंट बॉक्स में समकालीन समाचार पत्रों की कतरन के रूप में दे रहा हूं। 7 दिन तक चले इस यज्ञ में लगभग 3 लाख लोगों ने भाग लिया और अंतिम दिन के जुलूस में 1 लाख इकट्ठा हुए।
क्यों किया गया यह यज्ञ - आर्थिक और सामाजिक रुप से प्रताड़ित यहां के किसान (जो मुख्य रूप से जाट थे) संगठित होना चाहते थे किंतु राजनीतिक और आर्थिक समस्या के समाधान के लिए सीकर ठिकाना उनको एकत्रित होने की अनुमति नहीं दे सकता था। इसलिए उन्होंने धर्म का सहारा लेकर जातिगत यज्ञ करने का निर्णय लिया। धार्मिक मामला होने के कारण सीकर ठिकाना किसानों को संगठित होने से रोक नहीं पाया। यज्ञ के दौरान लाखों लोगों के इकट्ठा होने से किसान स्वयं को संगठित करने का सपना साकार करने में सफल रहे।-------
इतिहासकार अरविंद भास्कर की शानदार पोस्ट।


Saturday, 18 March 2017

भारत में परिभाषाओं का यह घालमेल भारतीय सभ्यता के लिए शुभ संकेंत नहीं!

बचपन से योग की एक ही परिभाषा सिखाई गई कि योग वह व्यक्ति धारण करता है जो संसार की मोहमाया, सत्ता-सुख, लोभ-लालच से ऊपर उठना चाहता हो| अब जिसने यही तपस्या पूरी नहीं की हो वह संसार का क्या ख़ाक भला करेगा?

वैसे चलो अगर योग धारण करके भी इनसे सांसारिक मोहमाया से पार नहीं हुआ गया और संसार में वापिस लौटते भी हैं तो कम से कम इनको योग के वस्त्र को उसी तरह वापिस त्याग के समाज में एंट्री लेनी चाहिए, जैसे योग धारण करते वक्त सांसारिक वस्त्र त्याग के योग के धारण किये थे|

आखिर कहीं ना कहीं समाज को भी तो अपनी श्रेष्ठता धरने दोगे या नहीं? आखिर जो गृहस्थ चलाते हैं उनके योग का भी तो कोई वजूद होगा? या जिधर देखो जब चाहो तुम हर जगह घुस जाओगे और वेशभूषा भी नहीं बदलोगे?
योगी बना भोगी,

तू क्यों बावली होगी!
चलती जा रंडापे की राह,
कभी तो तू भी जोगन होगी!

गुरूद्वारे से निकल कर ना सिख ग्रन्थी सत्ता में आता है|
मस्जिद से निकल कर ना मौलवी सत्ता में आता है|
चर्च से निकल कर ना पादरी सत्ता में आता है|
ना ही मठ से कोई बौद्ध भिक्षुक सत्ता का रूख करता है|

तो फिर इन भगवा बाणे वालों को ऐसी क्या तलब रहती है कि योगी हो के भी 'सांसारिक मोहमाया, सत्ता-सुख, लोभ-लालच' नहीं त्याग पाते और वापिस सांसारिकता में नियत लगाने को आतुर हुए रहते हैं? यह जब योग ही नहीं निभा पाते तो संसार को क्या मार्ग दिखाएंगे?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 15 March 2017

जब रंग-नश्ल भेद, छूत-अछूत जातीय आधार की अपेक्षा वर्ण आधार पर होता है तो फिर कौनसे जातीय अभिमान से ऊपर उठने की बात की जाती है?


जाति नश्लभेद का आधार नहीं है, अपितु वर्ण है| क्या एक दलित जाति वाले चमार को दूसरी दलित जाति वाले धानक से रंग-नश्ल भेद पर नफरत करते देखा है? क्या एक यादव को एक गुज्जर से रंग-नश्ल भेद पर नफरत करते देखा है? क्या एक गौड़ ब्राह्मण को एक मराठी ब्राह्मण से रंग-नश्ल भेद पर नफरत करते देखा है? क्या एक सिसोदिया राजपूत को कुशवाहा राजपूत से रंग-नश्ल भेद पर नफरत करते देखा है? क्या एक अग्रवाल बनिये को गर्ग बनिये से रंग-नश्ल भेद पर नफरत करते देखा है? क्या पांचवें वर्ण कहे जाने वाले जाटों में देशवाली जाट व् बागड़ी जाट में रंग-नश्ल भेद पर नफरत करते देखा है?

लेकिन वर्ण आधार पर देखा है| ब्राह्मण के लिए दलित अछूत है तो व्यापारी के लिए किसान निम्न है| तो खत्म करने हैं तो वर्ण खत्म करो, जाति नहीं| जाति तो इंसान का डीएनए बताती है, उसका इतिहास बताती है, उसकी पहचान बताती है| नहीं बताती हो तो बता दो? क्या कभी सुना है व्यापारी वर्ण का इतिहास, दलित वर्ण का इतिहास या क्षत्रिय वर्ण का इतिहास? लेकिन राजपूत जाति का इतिहास, जाट जाति का इतिहास, बनिया जाति का इतिहास, ब्राह्मण जाति का इतिहास, चमार जाति का इतिहास आदि-आदि खूब सुनते हैं|

इसलिए इन जातीय अभिमान या स्वाभिमान से ऊपर उठने वालों को बोलो कि ऊपर उठना है तो वर्ण अभिमान या स्वाभिमान से उठो| जातियों में कोई लोचा नहीं है, इनमें सब ठीक है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

पेशे की राजनीति भला करती है, जाति-धर्म-वर्ण की राजनीति हमेशा बरबादी-बदहाली लाती है!

जैसे कि मोहनदास कर्मचन्द गांधी व् लाल लाजपतराय ने व्यापारी व् पुजारी वर्ग के पेशे के हितों की राजनीति करी, कामयाब रहे|

सर छोटूराम, सरदार प्रताप सिंह, सर फज़ले हुसैन व् चौधरी चरण सिंह ने किसान-मजदूर पेशे के की राजनीति करी, कामयाब रहे|

बाबा साहेब आंबेडकर ने हिन्दू धर्म में वर्णित शुद्र वाला पेशा करने वालों के पेशे के हितों की राजनीति करी, कामयाब रहे|

फिर आया ताऊ देवीलाल का दौर, गाँधी-सर छोटूराम-बाबा अम्बेडकर से भी बड़े राजनेता बनने की राह पर थे, परन्तु मंडी-फंडी से गच्चा खा गए और जातीय राजनीति की राह पर धकेल दिए गए| मण्डल कमीशन का विरोध करवाने हेतु अजगर गठबंधन में पेशे से एक जाट समाज से इसका विरोध करवा दिया| और ऐसे हुआ किसान-मजदूर राजनीति का पतन शुरू|

ताऊ देवीलाल ने "लुटेरा और कमेरा" का नारा दिया तो था शायद सर छोटूराम के "मंडी-फंडी" की नकल करते हुए, परन्तु वह इन शब्दों की शक्ति और बर्बादी नहीं पहचान पाए| किसी को लुटेरा कहना उसको चुनौती जैसा लगता है, जबकि फंडी कहना उसको अपराधबोध करवाता है| तो ताऊ ने जिनको लुटेरा कहा था, उन्होंने भी फिर जिद्द सी पकड़ ली थी कि चलो तुम्हारी सत्ता लूट के दिखाते हैं और वही हुआ| आप किसी को अपराधबोध करवाने की बजाए चैलेंज पे धरोगे तो वो भी तो फिर आपको चैलेंज पे धरेगा?

बाबा महेंद्र सिंह टिकैत ने जब तक किसान यूनियन के मंचों से हर-हर महादेव और अल्लाह-हु-अकबर दोनों के नारे बराबर लगवाए भारतीय किसान यूनियन बढ़ती ही चली गई, परन्तु जिस दिन अकेला जय श्रीराम का नारा लगवाया, तब से भारतीय किसान यूनियन ग्रहण में चल रही है|

एक मसीहा के तौर पर मैं इन दोनों हस्तियों की पूजा करने के स्तर तक इज्जत करता हूँ, परन्तु बड़ों से अनजाने में हुई गलती का जिक्र नहीं करूँगा तो आगे की पीढ़ियों को सजग कैसे कर पाउँगा|

ताऊ देवीलाल और बाबा टिकैत से जो हुआ वो अनजाने में हुआ, उनको इसके परिणाम का अहसास नहीं था कि यूँ उनके कदम से अजगर बिखर जायेगा और हिन्दू-मुस्लिम की धर्म की बजाये पेशे के आधार पर साझी किसान यूनियन गहती ही चली जाएगी| और जातीय राजनीति चल निकलती भी और चलती भी रहती परन्तु अगर इसमें जातीय जहर की राजनीति नहीं उतारी जाती तो| और यह करिश्मा किया मुलायम सिंह यादव व् बहन मायावती जी ने|

1996 में रक्षा मंत्री बनते ही मुलायम सिंह यादव ने सबसे पहला जातीय बहस दिखाने का जो कार्य किया वो था जाट रेजिमेंट में जाट रिक्रूटमेंट घटाने का काम| उसके बाद मुस्लिम को जाट से तोड़ के यादव से जोड़ने का काम| जबकि इनके राजनैतिक गुरु चौधरी चरण सिंह ने मुस्लिम के साथ तमाम हिन्दू किसान जातियों को जोड़ के किसान-मजदूर के पेशे की राजनीति की थी| परन्तु इन्होनें उसको सिकोड़ के जातीय जहर की राजनीति पर उतार दिया| और यह 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगों में तो अपने उस उच्चत्तम घटिया स्तर तक पहुंची कि पश्चिमीं यूपी के जाट किसान ने सिर्फ इस बात पे बीजेपी को वोट दिया क्योंकि सपा की दंगो के बाद एकतरफा कार्यवाहियों से जाटों को जहां पहले बीजेपी-सपा दोनों शामिल दिखती थी, बाद में अकेली सपा में दोष दिखा| हालाँकि मुलायम को जाटों ने हराया हो ऐसा नहीं है, मुलायम को हराया महाशय के नफरत भरे कर्मों ने| बोये पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से होये?

आशा है कि जाट को बीजेपी से आशानुरूप व्यवहार मिले और कम से कम मुज़फ्फरनगर दंगों के वक्त से जेलों में पड़े जाट बालक बाहर आवें, उनके उजड़े परिवारों को उचित मुवावजे मिलें और पूरे यूपी की आर्थिक धुर्री कहे जाने वाले वेस्ट यूपी का चहुमुखी विकास जरूर हो|

यही हश्र दलित राजनीति को जातीय राजनीति बना देने वाली मायावती का हुआ| एक तो मैडम के हरयाणा में आ-आ के गैर-जाट सीएम बनाने की घोषणा करने के किस्से, ऊपर से दलितों में भी चमार उर्फ़ जाटवों (जाटव नाम इनको मुरसन नरेश राजा महेंद्र प्रताप जी ने दिया था) को ज्यादा तवज्जो देना और तीसरा पेशे की राजनीति से छिंटक के पुजारी वर्ग को रिझाने में मशगूल हो जाना|

बाकी यह मत सोचो कि मुलायम और मायावती के हारने से जातीय राजनीति खत्म हो गई, यह तो खत्म होगी उस दिन जिस दिन हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट की राजनीति करने वाली बीजेपी को भी जनता यूपी जैसा ही जवाब देगी; तब मानना कि वाकई जातीय जहर की राजनीति के दिन लद चुके|

लेकिन जाति से भी खतरनाक राजनीति तो अब शुरू हुई है| यह वही राजनीति है जो अंग्रेज और मुग़लों के भारत में आने से पहले चलती थी, और जिसकी वजह से देश गुलाम हुआ था| सर छोटूराम व् बाबा आंबेडकर ने दलित व् किसान वर्गों के धार्मिक शोषण से छुटकारा पाने हेतु जो पेशे की राजनीति चलाई थी आज के लोग उसको भूल कर, वापिस उसी खाई में जा गिरे हैं, जिससे इनको फिर से निकालने हेतु नए छोटूराम व् आंबेडकर को आना पड़ेगा| तब तक राजनीति में पेशे के ऊपर धर्म को चुनने वाले यूँ ही बिरान रहेंगे, बर्बाद व् पथभृष्ट रहेंगे|

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 14 March 2017

माला तुर्क पछाड़याँ, दे दोख्याँ सर दोट; सात जात (गोत) के चौधरी बसे चाहर की ओट!


संवत 1324 विक्रम (1268 ई.) में कंवरराम चाहर व कानजी चाहर ने नसीरुद्दीन शाह के वारिस बादशाह गियासुद्दीन बलवन (1266 -1287) को पांच हजार चांदी के सिक्के एवं घोड़ी नजराने में दी। बादशाह बलवान ने खुश होकर कांजण (बीकानेर के पास) का राज्य दिया। 1266 -1287 ई तक गयासुदीन बलवन ने राज्य किया। सिद्धमुख एवं कांजण (बीकानेर के पास) दोनों जांगल प्रदेश में चाहर राज्य थे।

राजा मालदेव चाहर - जांगल प्रदेश के सात पट्टीदार लम्बरदारों (80 गाँवों की एक पट्टी होती थी) से पूरा लगान न उगा पाने के कारण दिल्ली का बादशाह खिज्रखां मुबारिक (सैयद वंश) नाराज हो गए। उसने उन सातों चौधरियों को पकड़ने के लिए सेनापति बाजखां पठान के नेतृतव में सेना भेजी। खिज्रखां सैयद का शासन 1414 ई से 1421 ई तक था। बाजखां पठान इन सात चौधरियों को गिरफ्तार कर दिल्ली लेजा रहा था। यह लश्कर कांजण से गुजरा। अपनी रानी के कहने पर राजा मालदेव ने सेनापति बाजखां पठान को इन चौधरियों को छोड़ने के लिए कहा. किन्तु वह नहीं माना। आखिर में युद्ध हुआ जिसमें मुग़ल सेना मारी गयी. इस घटना से यह कहावत प्रचलित है कि -

माला तुर्क पछाड़याँ दे दोख्याँ सर दोट ।
सात जात (गोत) के चौधरी, बसे चाहर की ओट ।

ये सात चौधरी सऊ, सहारण, गोदारा, बेनीवाल, पूनिया, सिहाग और कस्वां गोत्र के थे।

विक्रम संवत 1473 (1416 ई.) में स्वयं बादशाह खिज्रखां मुबारिक सैयद एक विशाल सेना लेकर राजा माल देव चाहर को सबक सिखाने आया। एक तरफ सिधमुख एवं कांजण की छोटी सेना थी तो दूसरी तरफ दिल्ली बादशाह की विशाल सेना।

मालदेव चाहर की अत्यंत रूपवती कन्या सोमादेवी थी। सोमादेवी जितनी ख़ूबसूरत थी उतनी ही बलिष्ठ भी थी। कहते हैं कि आपस में लड़ते सांडों को वह सींगों से पकड़कर अलग कर देती थी। बादशाह ने संधि प्रस्ताव के रूप में युद्ध का हर्जाना और विजय के प्रतीक रूप में सोमादेवी का डोला माँगा था। जाट शिरोमणि स्वाभिमानी मालदेव ने धर्म-पथ पर बलिदान होना श्रेयष्कर समझा। चाहरों एवं खिजरखां सैयद में युद्ध हुआ। कहते हैं इस युद्ध में सोमादेवी भी पुरुष वेश में लड़ी। युद्ध में दोनों पिता-पुत्री एवं अधिकांश चाहर शहीद हुए।

Monday, 13 March 2017

टीवी में वृन्दावन में सफ़ेद साड़ी में विधवाओं को होली खेलते हुए दिखाया गया है!

काहे के एक दिन के रंग? किसको बहलाने या बहकाने के लिए? साल के सारे दिन इनको अपनी पसन्द के रंग के कपड़े पहनने की इजाजत क्यों नहीं दी जाती?

कमाल की बात तो यह है कि यह पाप का गढ़ उस हरयाणवी सभ्यता के लोगों की धरती पर गाड़ रखा है जो विधवा को अन्य सामान्य औरत की भांति जीने के अधिकार और चॉइस देते हैं|

यह 100% विधवाएं गैर-हरयाणवी सभ्यता की हैं| बेचारियों को सबको इनके पतियों की प्रोपर्टी से बेदखल कर यहां नारकीय जीवन जीने को विवश किया गया है| इनमें 100% ढोंगी-पाखंडियों की वासना का शिकार बनती हैं और उसपे एक दिन का स्वांग करते हैं इनको होली खिलाने का|

और ख़ास बात तो यह है कि यह बेचारी उन राज्यों से आती हैं जिनके यहाँ से राष्ट्रीय मीडिया के एंकर-पत्रकार हैं और जिनके यहां कि गोल बिंदी गैंग वाली महिला अधिकारों की एनजीओ चलाती हैं|

हर वक्त हरयाणवी सभ्यता की खापों को डंडा दिए रहने वाले एंकरो और गोल बिंदी गैंग वालियों, हो औकात और हिम्मत तो आज़ाद करा के दिखाओ इन तुम्हारे ही राज्यों से आई पड़ी और यहां सड़ रही विधवाओं को, तब मानूँ तुम कितने औरत के अधिकारों और सुख-चैन की पैरवी करने वाले हो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 12 March 2017

1826 में मैसन ने पहली बार हड़प्पा में बौद्ध स्तूप ही देखा था!

1826 में मैसन ने पहली बार हड़प्पा में बौद्ध स्तूप ही देखा था , बर्नेस (1831) और कनिंघम (1853) ने भी। राखालदास बंदोपाध्याय ने भी 1922 में बौद्ध स्तूप की खुदाई में ही सिंधु घाटी की सभ्यता की खोज की थी। राखीगढ़ तो हाल की घटना है, वहाँ भी सिंधु घाटी की सभ्यता बौद्ध स्तूप की खुदाई में ही मिली है - सिंधु घाटी सभ्यता का विशाल स्थल!

इसलिए सिंधु घाटी की सभ्यता की खुदाई में बौद्ध स्तूप नहीं मिला है बल्कि बौद्ध स्तूप की खुदाई में सिंधु घाटी की सभ्यता मिली है। मगर इतिहासकारों को सिंधु घाटी की सभ्यता के इतिहास को ऐसे लिखने में जाने क्या परेशानी है, जबकि सच यही है कि सिंधु घाटी की सभ्यता बौद्ध सभ्यता है।

Source: Rajendra Prasad Singh

किसानी जातियों का मिनिमम कॉमन एजेंडा!

किसान जातियों को "मिनिमम कॉमन एजेंडा" बना के चलने का दौर आन पहुँचा है| ना अब अकेला जाट-जाट चिल्लाने से चलने वाला, ना ब्राह्मण-ब्राह्मण चिल्लाने से, ना यादव-यादव से, ना राजपूत-राजपूत से, ना गुज्जर-गुज्जर से और ना ही किसी अन्य किसानी जाति द्वारा ऐसे ही चिल्लाने से| अगर वाकई में भारतीय किसानी के प्रारूप को बचाने और किसान को आर्थिक रूप से सम्पन्न रखने को ले कर कटिबद्धता पर चलना है तो अपने-अपने जातीय अभिमानों-स्वाभिमानों-गौरवों को आपस में आदर देते हुए, साइड रखते हुए; अब सबको मिनिमम-कॉमन-एजेंडा के प्रारूप पर काम करना होगा|

वर्ना यह सरकार यहां कॉर्पोरेट खेती लाने ही वाले हैं, फिर करते रहना बंधुआ मजदूरी, कॉर्पोरेट खेतों में| यह सरकार बेचने की राह पर है, तुम्हारे किसानी स्वाभिमान को बेचने की राह पर है, तुम्हारी किसानी बेचने की राह पर है| किसी को नहीं देखने वाले यह, ना ब्राह्मण किसान को, ना पंजाबी किसान को, न जाट किसान को और ना ही किसी अन्य जाति के किसान को|

सिर्फ एक शब्द है जो आपकी किसानी को, आपकी जमीनों को बचा सकता है - 'किसानी जातियों का मिनिमम कॉमन एजेंडा'!

और हाँ चलते-चलते, भाजपा को जिसने यूपी में जिताया वह कोई लहर नहीं अपितु आपके अंदर भर दी गई या भरी हुई धर्मान्धता व् मुस्लिमों के प्रति भय ने जितवाया है| आज यूपी के परिदृश्य से मुस्लिम निकाल के देख लो, तो पता लगेगा कि इनको वोट करने का 90% कारण तो अकेला यही है; बाकी EVM गड़बड़ी तो जो सुर्ख़ियों में है वह है ही|

मुद्दों पर जीतती बीजेपी तो कहीं तो किसान का, मजदूर का, छोटे व्यापारी का कोई तो मुद्दा नजर आता? चुनाव से पहले तो अमितशाह तक जाटों के आगे वोटों के लिए गिड़गिड़ा रहे थे, इतनी लहर होती तो एक प्रधानमंत्री स्तर के बन्दे को यूँ विधासभा चुनावों के लिए गली-गली उतरना पड़ता क्या?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 10 March 2017

पहले दालें, फिर गेहूं और अब चीनी, भारत जितने इतने आयात-पे-आयात फ्रांस में हो जाएँ तो किसान शॉपिंग मॉल्स में पशु बाँध दें!

सार: विकसित देशों के किसान से सीखना होगा भारत के किसान को!

विगत साल फ्रांस में जर्मनी-पॉलैंड की तरफ से बेहताशा सब्जियां आयात करने से फ्रांस के किसान की सब्जियां सड़ने लग गई थी| तो ऐसे में फ्रांस के किसान ने अपना क्रोध जाहिर करने हेतु, स्ट्रॉसबर्ग शहर के शॉपिंग मॉल्स में गायें भर दी थी और पॉलैंड-जर्मनी से आने वाले रोड्स को जाम कर दिया था| उनका फ्रांस की सरकार और व्यापार जगत को साफ़ सन्देश था कि अगर तुम अपने ही किसान को मार्किट में नहीं रहने दोगे तो हम भी तुम्हारे शॉपिंग मॉल्स में पशु बाँध देंगे| तब जा के फ्रांस सरकार जागी और जर्मनी-पॉलैंड की तरफ से सब्जियों का आयात कुछ का बिलकुल बन्द किया और कुछ का लिमिट किया|

वैसे तो इंडिया में आज हालात यह हो रखे हैं कि जैसे ही भारत का किसान शॉपिंग मॉल्स में गाय-भैंस बाँधने चलेगा, भांड मीडिया सरकार और व्यापारियों से भी पहले उसको किसान की दबंगई, गुंडागर्दी कह के बड़बड़ाने लगेगा| और उसमें जातिवाद का तड़का लगा देगा वो अलग से| कि मान लो किसान हरयाणा का हुआ तो किसान नहीं बोलेंगे, बल्कि बोलेंगे कि अड़ियल जाटों का व्यापारियों के शॉपिंग मॉल्स पर कब्ज़ा, गुजरात में बोलेंगे कि दबंग पटेलों का व्यापारियों पर हमला आदि-आदि|

लेकिन सच तो यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने भारतीय किसान की कमर तोड़ने के तमाम रास्ते अपनाये हुए हैं| खुद के देश में कोई फसल ना होती हो तो बात समझ आती है, या देश का किसान वह फसल उगाने में सक्षम नहीं हो तब भी समझ आती है; परन्तु हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी की बेल्ट का किसान तो वो किसान है जिसने हर प्रकार की फसल उगाकर देश को दो-दो हरित क्रांतियां दी हैं| इसके बावजूद भी मोदी सरकार कभी नाइजीरिया जैसे देश को दालें उगाने के लिए करोड़ों की सब्सिडी देती है, तो कभी देश के गादामों में बेपनाह गेहूं सड़ता हुआ होने के बावजूद भी गेहूं आयात कर रही है और अब तो और भी घातक कदम आ रहा है चीनी आयात का|

भाजपा वाले जिन कांग्रेस्सियों पर 70 साल देश को लूटने का इल्जाम लगाते हैं वो कांग्रेस ऐसा करती तो एक दो पल को बात कोई सुनता भी, परन्तु "भारत माता की जय" बोलने वालों का यह कैसा स्वाभिमान कि चाहिए तो देश के किसान की पैदावार को पहले से भी ज्यादा बाहर मार्किट में उतारे और यह लोग तो आयात पे आयात करके उल्टे अपने ही देश के किसान को मार रहे हैं?

निसन्देह यह जो जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े खड़े किये गए हैं यह इनके इन्हीं अपने ही किसानों के पीठ में छुरा घोंपने के मनसूबों को पार लगाने हेतु तो किये गए हैं| कि अच्छा है जो कौम किसानी हक सबसे मजबूती से लड़ सकती है उसको जाट बनाम नॉन-जाट में उतार दो; बाकी तो किसान चाहे राजपूत हो, यादव हो, गुज्जर हो, सैनी हो, कम्बोज हो यहां तक कि ब्राह्मण किसान भी हो तो भी इनमें से कोई नहीं चुस्कने वाला|

ऐसे में देश के किसान के आगे दो ही सूरत बचती हैं, या तो इस जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े के खत्म होने की बाट जोहता रहे या फिर इन चीजों को समझ के फ्रांस वाले किसानों की भांति जा बांधे दिल्ली-एनसीआर के शॉपिंग मॉल्स में अपने डंगर-ढोर|

परन्तु इसके सफल होने में भी सन्देह, क्योंकि इंडिया के नेता-व्यापारी तो छोडो मीडिया तक किसान को ले के इतना संवेदनहीन है कि नेता-व्यापारी से पहले यही लोग किसान को ही दोषी ठहरवा देंगे| कुछ पल तो ऐसा लगता है कि भारत को उस वाली फ़्रांसिसी क्रांति की सख्त जरूरत है, जिसने धर्म को तो गलियों से खदेड़ के चर्चों में बन्द करके बिठा दिया था और उद्योगों को किसानों के प्रति संवेदशील रहना सीखा दिया था|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 8 March 2017

विकसित व् विकासशील/अविकसित देश में क्या अंतर होता है!

विकसित देश में धर्म और विज्ञानं को अलग-अलग मानते हैं जैसे कि यूरोप-जापान-चीन-अमेरिका| जबकि विकासशील अथवा अविकसित देश में धर्म को ही विज्ञानं साबित करने की हठधर्मिता चरम पर होती है जैसे कि भारत|

विकसित देशों ने धर्म को चर्च व् मठों में बन्द किया होता है जबकि अविकसित देशों में धर्म के जगराते-भंडारे-जागरण-पर्ची वाले गली-गली चल रहे होते हैं|

विकसित देशों में गाय जैसे पशु को खाने के लिए पहले उसको माता नहीं बनाना पड़ता, जबकि विकासशील देश में पहले गाय को माता कहने की नौटंकी होती है और फिर सबसे ज्यादा उस बेचारी को माता कहने वाले खा रहे होते हैं, और उन्हीं के 90% गाय के कत्लखाने यानि बूचड़खाने चल रहे होते हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 6 March 2017

मौका मत चूकियो यशपाल मलिक जी!


दूसरा सर छोटूराम बनने की राह पर हो, परन्तु एक छोटी सी गलती उन्हीं अंधेरों में पहुंचा देगी जहां से आगे ना ताऊ देवीलाल उभर सके थे और ना बाबा महेंद्र सिंह टिकैत|

आप जाटों से दिल्ली में प्रदर्शन मत करवाओ, यह ऐसी जाहिल सरकार है कि जाटों पे तो गोलियां चलवा ही देगी, साथ ही साथ जिन संसाधनों में जाट दिल्ली में जायेंगे, उनको भी फाॅर्स से तुड़वा देगी| कहीं ऐसा ना हो जाए कि दुश्मन आपको दिल्ली में घेरने का चक्रव्यूह रचता रहा और आपको तब खबर हुई जब जाटों की लाशों के साथ-साथ जाटों के ट्रेक्टर-गाड़ियां तक भी तोड़ दिए गए| यह सन्देह मैं इसलिए नहीं जता रहा हूँ कि जाट कायर हैं, या मैं कायर हूँ बल्कि इसलिए जता रहा हूँ क्योंकि कौम के नफे-नुकसान की उसके शक्ति-प्रदर्शन से पहले सोचता हूँ| हो सकता है कि ऐसा ना भी हो, परन्तु इस रास्ते से मंजिल इतनी आसानी से मुहाल नहीं|

इसलिए आप जैसे आज दूसरे छोटूराम बनने की देहली पर जा पहुंचे जाट नेता (बल्कि किसान नेता) को एक अर्ज भरी दरखास कर रहा हूँ कि 20 मार्च को दिल्ली में जाने की बजाये, दो महीने के लिए खाने-पीने के सामान को छोड़ के सुई से ले के बड़ी-से-बड़ी मशीने खरीदने का अपने समाज से बहिष्कार करवा दीजिये| यकीन करिये अपने इस छोटे बालक का अगर जितना जाट समाज आज आपके नेतृत्व में हो रहे रहे धरनों पर जुट रहा है, इसके आधे ने भी आपकी बात मान ली तो यह व्यापारियों की सरकार आपको घर आ के आरक्षण दे के जाएगी|

छोटा मुंह और बड़ी बात, परन्तु आपकी जाट समाज द्वारा बिजली-पानी के बिल इत्यादि भरने बन्द करवाने के ऐलान पर सर छोटूराम जी का महात्मा गाँधी से हुआ एनकाउंटर याद आता है| जब महात्मा गाँधी ने 1922 में अंग्रेजों से असहयोग आंदोलन चलाया था तो सर छोटूराम ने गाँधी से जिरह की थी कि सिर्फ किसान और दलित ही नहीं अपितु पुजारी और व्यापारी से भी कहिये कि वह भी असहयोग करें| उन्होंने कहा था कि इस असहयोग की कीमत के ऐवज में आंदोलन के बाद में अंग्रेजों ने मेरे किसान पर टैक्स वगैरह बढ़ा दिए तो क्या वह पुजारी या व्यापारी भर देंगे या आप भर देंगे? तो गाँधी ने कहा था कि इस बात पर बाद में विचार कर लेंगे, फ़िलहाल आंदोलन चलने दीजिये| तो सर छोटूराम अपने सहयोगियों के साथ यह कहते हुए असहयोग आंदोलन से भी दूर हो गए थे और कांग्रेस भी छोड़े गए थे कि, "कब ईरान से सांप काटे की दवाई आई और कब सांप काटे का इलाज हुआ!'

इसलिए आपके जीवन के इस सुअवसर को पहचानिये और इसका सही फायदा उठाईये; यकीन मानिये निसन्देह दूसरे सर छोटूराम कहलायेंगे|

विशेष: अगर ऊपर बताये असहयोग आंदोलन का मन बने तो अपने इस बालक तो चाहे आधी रात याद कर लेना, न्यूनतम समय में आपकी और समाज की सेवा में हाजिर हो जाऊंगा| परन्तु इन अति में हो चुके प्रदर्शनों से डर लगता है साहेब; इसलिए नहीं कि कायर हूँ, अपितु इसलिए कि मुझे जाट समाज की एक जान भी, एक ट्रेक्टर भी जान से अजीज लगता है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

सर छोटूराम फार्मूला की स्टेप-बाई-स्टेप सीख:


1) दुश्मन पहचानना सीखो, सीख लिया!
2) बोलना सीखो, सीख लिया!
3) क्लेशी (लेखक) हो जाओ, हो गए!
4) गुस्से को पालना व् सही मौके पर उपयोग करना सीखो, अभी सीखना शुरू किया है!
6) गिव एंड टेक के जरिये काम निकालो और निकलवाओ, अभी सीखना है!
7) किसान इकनोमिक मॉडल बहाल करो, अभी करना है!


जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 5 March 2017

अपनी पहचान व् इतिहास को लेकर सबसे कन्फ्यूज्ड जाट वो हैं!

जो वैसे तो फण्डियों-पाखंडियों को इस बात के लिए गालियां देंगे कि उन्होंने जाटों को कहीं शुद्र तो कहीं चांडाल तो कहीं लुटेरा क्यों कहा/लिखा? हिन्दू चच/दाहिर के राज में उनकी पहचान कुत्तों को सुंघा कर क्यों करवाई जाती थी आदि जैसी बातें सच हैं भी कि नहीं? अभी हाल ही में जो जाट बनाम नॉन-जाट चल रहा है यह जाट बनाम नॉन-जाट ही क्यों हुआ, किसी और जाति बनाम अन्य-तमाम क्यों नहीं हुआ?

और दूसरी तरफ यही नादाँ जाट, जाट को शुद्र-चांडाल-लुटेरे लिखने-कहने वालों के लिखे इतिहास में बिना-सोचे समझे गर्व की अनुभूति सी दिखाते हुए ना सिर्फ अपना इतिहास ढूंढने लग जाते हैं, बल्कि गर्व से साझा भी करने चल पड़ते हैं| खासकर माइथोलॉजी की पुस्तकों पर तो ऐसे रीझ के पड़ते हैं कि जैसे पता नहीं यही अंतिम वाक्य हैं इनकी पहचान के|

ऐसे कन्फ्यूज्ड जाटों को समझाओ वो इस नादानी से बचें| इतिहास में जो भी लिखा है उसको साइकोलॉजी, सोशियोलॉजी व् आइडियोलॉजी पर जरूर तोलें| वास्तविकता तो यह है कि अरब-सिथियन-यूरोपियन-चाइनीज इतिहास को पढ़े बिना जाट इतिहास पूरा होता ही नहीं| तो फिर अकेले इनकी मैथोलोजिकल पुस्तकों से जाट इतिहास कैसे सम्पूर्ण हो जायेगा?

विशेष: कोई जाट लेखक भी है तो उसके लिखे को भी साइकोलॉजी, सोशियोलॉजी व् आइडियोलॉजी पर जरूर तोलें| दूसरी बात किसी भी लेखक की लिखी पुस्तक पर कितनी विवेचना व् चिंतन हुई है, यह बात भी उस पुस्तक की व् लेखक की सार्थकता को मापने का पैमाना रहती है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ओबीसी व् दलित भाईयो प्रैक्टिकल कारण समझो कि यह जाट बनाम नॉन-जाट ही क्यों हुआ?

पुजारी और फेरे, भारत की जाट बेल्ट्स को छोड़कर इन दोनों धंधों में ब्राह्मण का 100% मोनोपोली रहा है| जाट बेल्ट्स में जाट ने ढंग से ना सही परन्तु फिर भी इस मोनोपोली को तोड़ा है| आर्यसमाजी पध्दति से फेरे करवाना हो या ढेरों-मन्दिरों में पुजारी-महंत बनना; जाटों ने इस मोनोपली को तोड़ा है| इन धंधों से होने वाली आमदनी को ब्राह्मण से अपने लिए बंटवाया है|

और यही वो वजह है कि क्यों यह जाट बनाम नॉन-जाट ही बनाया गया, किसी और जाति बनाम सब अन्य क्यों नहीं उछाला गया| और यह बावजूद इसके है कि जाटों ने जिस भी ब्राह्मण ने उनको उचित सम्मान दिया है उसको प्रसिद्धि की प्रकाष्ठा तक ऊपर उठाया है, उदाहरणत: महर्षि दयानंद उर्फ़ मूलशंकर तिवारी|

इसीलिए दलित व् ओबीसी इस जाट बनाम नॉन-जाट के बहकावे में आने से पहले जरूर सोचें कि कहीं ना कहीं उनके यह कदम इनकी मोनोपोली को वापिस बहाल करवाने में ही मदद कर रहे हैं; कृपया ऐसी नादानी ना करें| जाटों से कोई मनमुटाव है तो सीधा बैठ के बात कर लें, बजाये इनके हाथों कठपुतली बनने के| जाट वो है जिसने फसल खलिहान में आते ही दलित-ओबीसी का हिस्सा पहले दिया है और बाद में अनाज अपने घर ले के गया है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 4 March 2017

आरएसएस कहती है कि जो मुस्लिम की लड़की ब्याह लाये वह महाहिन्दू कहा जाए!

आप लोगों ने योगी आदित्यनाथ, साक्षी महाराज, बजरंगदल, हिन्दू महासभा इत्यादि वालों को यदाकदा यह लाइन कहते हुए सुना तो होगा? और आप यह भी जानते हैं कि यह सब आरएसएस की विंग्स हैं?

पर भाई, हमारे गठवाले (मलिक) जाटों के दादा मोमराज जी महाराज आज से दसियों सदी पहले गढ़-ग़ज़नी की बेगम को दादा बाहड़ला पीर की मदद से भगा के ब्याह लाये थे, हमने तो कभी ना सुना इन आरएसएस वालों को मलिक जाटों को महाहिन्दू कहते हुए?

खापलैंड.कॉम वेबसाइट के प्रोविजनल लांच पर एक अति-विशिष्ट व्यक्ति ने व्यक्तिगत वार्ता में बताया कि तुम्हें दहिया, हुड्डा जाट (उन्होंने दो चार और जाट गोतों के नाम लिए थे) कभी मुस्लिम नहीं मिलेंगे? उनकी बात के तर्क से तर्क निकाला तो पूछा कि मुस्लिम तो कोई गठवाला जाट भी ना मिलता? हाँ, उल्टी गठवाला जाटों को बराबरी के सम्मान के साथ मुस्लिमों ने मलिक की उपाधि जरूर ऑफर की थी; जो कि हम आज भी इसी स्टेटस सिंबल से प्रयोग करते हैं कि मुस्लिम खलीफाओं ने हिंदुओं में किसी को अपने से ऊपर या बराबर माना था तो वह मलिक यानी गठवाले जाट रहे हैं|

अरे, सुन रहे हो क्या आरएसएस वालो, योगी आदित्यनाथ; बताओ कब मलिक जाटों का महाहिन्दू की भांति सम्मान कर रहे हो?

वैसे मुझे आजतलक यह बात समझ नहीं आई कि हिन्दू धर्म त्याग के जाट सिख भी बने, बुद्ध भी बने, ईसाई भी बने, जैन भी बने, बिश्नोई भी बने, मुस्लिम भी बने; तो फिर यह 'डर की वजह से बने' की पंक्ति सिर्फ मुस्लिम वाले मामले में ही क्यों जोड़ती जाती रही है?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 2 March 2017

'क्यूट जाटणी' व् 'लाल बाह्मणी' के मसले को सुलझवाने बारे लिखी मेरी पोस्ट्स में कायरता या दब्बूपना नहीं अपितु सभ्यता व् मर्यादा देखी जाए!

कई भाईयों के मैसेज आये कि जब इन्होनें पहले 'क्यूट जाटणी' निकाला और बाद में "लाल बाह्मणी' निकला तो हम ही क्यों शांति की पहल करें? कई तो यह तक बोले कि यही तो हैं पूरे हरयाणा में 35 बनाम 1 व् जाट बनाम नॉन-जाट खड़ा करने के मूल में|

आप सब भाईयों से यही अनुरोध है कि इस बात को समझा जाए कि किसी भी देश-सभ्यता-समाज-जाति के अस्तित्व का मूल उनकी स्त्रियों का सम्मान है, स्त्री की आबरू है| माना मासूम शर्मा ने 'क्यूट जाटणी' निकाल के इसकी अवहेलना करी| दुर्भाग्यवश कहो या संयोगवश कहो उधर से किसी जाट गायक ने 'लाल बाह्मणी' निकाल दिया| परन्तु यह बहस अब एक उस लेवल तक पहुंचने वाली थी जो 35 बनाम 1 वाले मामले से भी भयंकर रूप ले सकती थी| माना आप ताकत और संख्या में भी बड़े हो परन्तु समाज ताकत और संख्या से पहले सभ्यता और मर्यादा से चलते हैं| और जाट जीन्स का गहना ही औरत की मर्यादा और सभ्यता निभाना रहा है| जाट वो नहीं जो दलित-ओबीसी लाचार की बहु-बेटी को देवदासी बना के सार्वजनिक में उसका बलात्कार करें और उसमे आनंद लेवे; यह जाट का चरित्र नहीं|

और शांति व् सुलह करने की पहल करने से मैं कायर नहीं हो जाता, इससे यह बात नहीं मिट जाती कि ब्राह्मण ने सम्पूर्ण भारत में किसी को 'जी' लगा के बोला व् लिखा है तो सिर्फ जाट को "जाट जी" व् "जाट देवता" बोला है; जो कि उसने किसी भी अन्य, यहां तक कि सवर्ण क्लास जैसे कि बनिया-अरोड़ा/खत्री-राजपूत इत्यादि को भी नहीं बोला| तो ओहदे के हिसाब से जब खुद ब्राह्मण ने जाट को उससे बड़ा लिख दिया तो दब्बूपने की तो इसमें बात ही नहीं रहती, यकीन मानिये उस ओहदे से मैंने कोई छड़ेछाड़ नहीं की है|

अत: इस समझौता कहो या सुलह की पहल में अपने देवताई रूप को देखो, कायरता या दब्बूपने को नहीं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 1 March 2017

फूहड़ गानों की वजह से हरयाणा के दो अग्रणी समाजों में वर्तमान में चल रहे क्लेश का अंदेशा सर्वखाप के महामंत्री ने पण्डित नेहरू के आगे 1954 में ही जता दिया था!

बात तब की है जब 1954 में हरयाणा सर्वखाप के 28वें महामंत्री दादा चौधरी कबूल सिंह बाल्याण जी ने तब के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को बॉलीवुड फिल्मों में बढ़ती नग्नता व् फूहड़ता पर रोक लगाने हेतु कहा था कि, "इस नग्नता को रोकने के लिए समय रहते कदम उठाईये, नहीं तो समाज के नैतिक मूल्यों में पतन होगा, और आपसी इज्जत व् प्रेम घट के क्लेश की वजह बनेगा!"

उस वक्त पण्डित नेहरू ने उनकी बात को हल्के में लेते हुए कहा था कि, "आप जरूर जाट होंगे, जो ऐसा सोचते हैं?"

खैर, नेहरू ने उस महान दार्शनिक व् दूरदृष्टाता की बात को थोड़ा बहुत भी सीरियस ले लिया होता तो आज हरयाणा में यह हालात नहीं होते कि फूहड़ गानों की वजह से जाट और ब्राह्मण समाज आमने सामने खड़े हैं|
जाट में तो सहनशक्ति फिर भी होती है इसीलिए तो जब मासूम शर्मा ने "क्यूट जाटणी" गाना निकाला था तो किसी को पता तक भी नहीं लगा और गाने को नार्मल लिया गया| गाना आया और गया हुआ हुआ| परन्तु ब्राह्मण में सहनशक्ति नहीं होती, और जैसे ही "लाल बाह्मणी" गाना आया तो सब बिदक पड़े| इसी को कहते हैं खुद को लागे तो जाने, इन्होनें मासूम शर्मा ने जब "क्यूट जाटणी" निकाला था तभी उसको डाँट देते तो किसी को "लाल बाह्मणी" बनाने तक की नौबत नहीं आती| अब फिर रहे हैं भभकते|

ऐसे वक्त पर उन 'गोल बिंदी गैंग', 'लेफ्टिस्ट गैंग', "खापों पे केस करने वाले साहनी" जैसों को पकड़ कर पूछना चाहिए कि क्या यही वो आज़ादी थी जिसके लिए दिन रात खाप जैसी संस्थाओं को डंडा दिए रहते थे? उनसे भी पूछना चाहिए जो "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" उठाये फिर रहे हैं, कहीं औरतों के आदर की तख्तियां उठाये फिर रहे हैं कि क्यों नहीं खापोलोजी के उस वक्त के "गाम-गौत-गुहांड" के नियम सुहाए थे तुम्हें? तुम ही चले थे ना छत्तीस बिरादरी की बेटी को अपनी बेटी मानने के सिद्धांतों को कुचलते हुए, इन आज के हालातों तक समाज को पहुंचाने हेतु? क्यों नहीं तुमने सामाजिक संस्थाओं की एक भी बात टिकने दी? आते क्यों नहीं अब आगे, क्रेडिट लेने को कि हाँ, सामाजिक संस्थाओं को दरकिनार करवा के जिस खुलेपन के सपने हमने समाज को दिखाए थे, उसका एक घिनौना पहलु यह भी है कि आज दो समाज एक दूसरे के आमने-सामने खड़े हैं|

समाज के युवा को सन्देश: अपनी खाप व्यवस्था के "गाम-गौत-गुहांड" के नियम को पकड़ के रखो अगर चाहते हो कि समाज में तुम्हारी खुद की व् सर्वजात की बहु-बेटी की इज्जत बनी रहे| मत बहको इन भांडों के चक्करों में, सीखो अपने समाज के उस महान दार्शनिक दादा कबूल सिंह चौधरी से, जिसको नेहरू जैसे भी नहीं समझ पाए थे| अपनों की दार्शनिकता, दूरदृष्टता को कानों के ऊपर से मार के अनजानों के बहकावों में चलोगे तो यूँ ही खता खाओगे| बात इस बात की नहीं है कि कौन ताकतवर है और कौन शातिर; बात है जग-हंसाई की, इससे बच के चलने में ही इज्जत होती है|

गलत को गलत कहना शुरू करो, फ़िल्में-टीवी सीरियल्स खुदा नहीं; इनमें सही को सहेजो और गलत को ठोकर मारनी शुरू करो| आखिरकार हैं तो यह भी धंधेबाज ही, 10% सही दिखाते हैं तो 90% फूहड़ता भी यही परोसते हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक