Saturday 2 April 2016

खाप का चबूतरा शुद्ध रूप से गैर-राजनैतिक व् गैर-आडंबरी रहा है!

जहां तक मैंने खाप इतिहास को पढ़ा और जाना है उसमें कहीं भी एक भी अध्याय ऐसा नहीं आता जहां यह पढ़ा गया हो कि कभी साधु-बाबाओं ने किसी खाप के नेतृत्व में लड़ी लड़ाई का नेतृत्व या यहां तक कि मार्ग-दर्शन भी किया हो| लड़ाईयों के मौकों पर तो यह ऐसे गायब होते रहे हैं जैसे गधों के सर से सींग, कम से कम उत्तरी भारत का तो यही किस्सा है|

साथ ही इन साधु-बाबाओं की जमात ने धर्म-शास्त्र और मनचाहे वीर और सूरवीर तो घड़े और लिखे परन्तु इन्होनें कभी भी खाप की किसी भी लड़ाई और उस लड़ाई के यौद्धेयों बारे दो शब्द तक नहीं उकेरे| फिर चाहे वो 1398 में तैमूरलंग का मार-मार मुंह सुजा भगोड़ा बन देने का किस्सा हो| या 1620 में कलानौर की रियासत कैसे तोड़ी थी उसका किस्सा हो| या 1669 में औरंगजेब के जमाने में गॉड-गोकुला और इक्कीस खाप यौद्धेयों की बलि हो| या सन 1857 की लड़ाई में कैसे खापों ने ही दिल्ली की रक्षा की थी इसकी वीरगाथा हो|

और तो और इन्होनें हिन्दू धर्म रक्षक के नाम पर भले ही दूसरे धर्मों के सूरमाओं तक के नाम लिखने पड़े हों, परन्तु खाप का कोई कितना ही बड़ा सुरमा हो के चला गया, इनकी कलम से उसके लिए एक अक्षर तक नहीं टूटा|

इनका तो साया और कहना भी इतना मनहूस होता है कि इनकी मान के तो बाबा महेंद्र सिंह टिकैत की राजनीति काल के ग्रास में समा गई थी| क्योंकि जब बाबा टिकैत का कद बढ़ता ही जा रहा था तो, अपनी रैलियों के मंचों से हर-हर महादेव और अल्लाह-हू-अकबर के नारे लगवा के रैलियों का आगाज करने की अपनी शैली से मशहूर बाबा टिकैत को इन पाखंडियों ने कहा कि आप अपने मंच से "जय श्री राम" के नारे लगवाओ| और जिस दिन बाबा टिकैत ने ऐसा किया वो दिन उनके जलवे की प्राकाष्ठा का आखिरी था, उसके बाद बाबा टिकैत कभी उस रौशनी और देदीप्यमानिता को नहीं छू पाये| चाँद पे लगे ग्रहण भांति गहते ही चले गए|

खापों के इतिहास की न्याय-समीक्षा करता हूँ तो यह भी एक बहुत बड़ा पहलु है कि खापों के चबूतरों पर कभी किसी बाबा-मोड्डे को पंच बन के चढ़ने नहीं दिया गया| वजहें साफ़ थी और आज भी हैं| और इसी लिए खाप-चबूतरों पर बैठ के न्याय करते वक्त, भगमा नहीं अपितु सफेद या गोल्डन रंग की पगड़ी बाँध के बैठने की परम्परा रही है| क्योंकि भगमा रंग झूठ-फरेब और अत्याचार का प्रतीक माना गया है|

पता नहीं खाप वाले कितना तो पढ़ते हैं और कितना अपने ही इतिहास पे विवेचना करते हैं, परन्तु अब यह भी इन बाबाओं की बहकाई में ऐसे चढ़े हुए हैं कि बस क्या कहने| पहले 25 नवंबर 2014 को आर्ट ऑफ़ लाइफ वाले धोल-कपडीये ने जींद में खापों के साथ पंचायत करी तो नतीजा आपके सामने है| और अब फिर आज 3 अप्रैल को सुना है कि कई खापों के कम-से-कम दर्जन-भर चौधरी इस रोहतक वाले कार्यक्रम में सिरकत करने वाले हैं| कितने करेंगे और कितने नहीं, यह देखने वाली बात रहेगी|

मेरा मानना है कि खापों को सद्भावना की पुकार लगानी ही थी या है तो क्या आप लोग जाट-आंदोलन के बाद से अपनी सभी छोटी-बड़ी पंचायतों के जरिए यह कार्य पहले से ही नहीं कर रहे थे? और अगर बड़े स्तर का ही करना था तो आपका तो विश्व में सबसे बड़ा ऐतिहासिक चबूतरा है, सब मिलके कर लेते| और इन ढोंगियों-पाखंडियों व् राजनीतिज्ञों से रहित कार्यक्रम करते|

खैर देखें, यह पेंचे कब तक चलेंगे| मुझे डर है कि कहीं यह इतने लम्बे ना चल जाएँ, कि खापों की गैर-राजनैतिक व् गैर-आडंबरी छवि को ही लील जाएँ| कोई नी जिसको जिस रास्ते चलना है वो चले, मैं तो आज भी उसी राह पे चलूँगा जो मेरी दादी जी सिखा गई थी कि "पोता', मुडैड़ की पंचायत म्ह, बहरूपिये की हाँसी में और किराड़ के बहकावे में कभी मत चढियो|"

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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