Saturday 29 May 2021

उदारवादी जमींदारी कल्चर की धरती अडानी-अम्बानी जैसे कॉर्पोरेट्स को इतना क्यों आकर्षित कर रही है कि इसको हड़पने को येन-केन-प्रकेण से कृषि का नाम दे कर 3 काले कानून पास करवा लिए?

भूमिका: आज के दिन अडानी-अम्बानी जैसे बड़े-बड़े कॉर्पोरेट वालों को भी खेती करने का शौक चढ़ा है, 5000-5000 एकड़ के बड़े एग्रीकल्चर-फार्म बनाना चाहते हैं हरयाणा-पंजाब की धरती पर| एक तो आखिर पूरे देश में इनको यही धरती क्यों चाहिए? ऊपर से सोचो तुम्हें-हमें तो बचपन से यह तर्क दे कर बड़ा किया गया कि "पढ़ ले बेटा, कुछ नहीं धरा खेती में" या किसी का बालक नहीं पढता था तो कहते थे कि, "इसको दो-चार महीने खेतों में रगड़ा लगाओ खेती का, अपने आप पढ़ाई की कीमत समझ आ जाएगी"| अब पता नहीं यह हीन भावनाएं कौन लाता था समाज में, वह भी ऐसे धंधे बारे, जिसकी सबसे स्थाई इकॉनमी देने की क्षमता व् महत्ता किसान कम जानते थे व् यह बड़े-बड़े व्यापारी शायद ज्यादा जानते हैं जो किसान बनने को लालायित हुए जाते हैं?


परिवेश: इस बीच के भाग को पढ़ते हुए थोड़ी उबासी आना सम्भव है, परन्तु समस्या जड़ से समझनी है; तो खा जाओ एक-एक अक्षर को| बोर हो सकते हो परन्तु पढ़ के यही कहोगे कि पढ़ना व्यर्थ नहीं गया| तो आइए, समझते हैं उदारवादी जमींदारी को; और क्यों अडानी-अम्बानी इसको हड़पने को लालायित हैं:

1) वर्किंग कल्चर:
1.1) इस जमींदारी का "सीरी-साझी" वर्किंग कल्चर है| "सीरी-साझी" का मतलब है काम के साथ-साथ दुःख-सुख के पार्टनर; कोई नौकर-मालिक नहीं|
1.2) पुराने वक्तों से इसमें जब जमींदार, साझी को अपने यहाँ काम पर रखता है तो सालाना करारनामा घोषित होता है, जो कि पहले जमींदार अपने घर की बहियों में एक गवाह बीच में ले के लिखवाता आया है, आजकल पक्की रजिस्ट्रियां भी होने लगी हैं| इस करार के तहत साल की तय राशि यानि तनख्वाह का आधा साझी को सीर लिखे जाने की तारीख को देने का विधान रहा है व् आधा साल खत्म होने पर| इस तनख्वाह के अतिरिक्त तीन वक्त का फ्री खाना, सामर्थ्यानुसार कपड़ा-लत्ता, अनाज-तूड़ी-ईंधन का सहारा सीरी अपने साझी को लगाता आया है| आजकल महीना आधारित सिस्टम भी आ गया है| भीड़ पड़ी में सीरी, अपने साझी के घर के ब्याह-वाणे तक ओटता आया है| ब्याह-वाणे तो किसान से बंधे कारीगर बिरादरियों के घरों के भी ओटे जाते रहे हैं|
1.3) बंधुआ मजदूरी इस सिस्टम में नगण्य पाई जाती है अन्यथा कोई करता पाया जाता है तो उसको कभी प्रोत्साहित नहीं किया जाता अपितु हतोत्साहित ही किया जाता है|
1.4) इस कल्चर में साझी को नेग से बोला जाता है यानि दादा है तो दादा, काका-ताऊ, भाई-भतीजा है तो इस हिसाब से|
1.5) इस कल्चर में सीरी-साझी मिलके खेत कमाते हैं, दोनों खेत में खटते हैं|
1.6) वर्णवाद इस सिस्टम में वर्जित है, फिर भी कोई साझी ऐसा करता है तो उसको यथोचित स्थान व् आदर नहीं मिलता|
1.7) विश्व की Google जैसी बड़ी कम्पनी का वर्किंग कल्चर इसी "सीरी-साझी" सिद्धांत पर आधारित है|
1:8) यह एक "नैतिक पूंजीवाद" यानि "अर्थ प्लस मानवता" का सिस्टम है जो कहता है कि कमाओ और बराबरी के मौकों व् सम्मान से कमाने दो|
1.9) इसका मुख्यत: फैलाव हरयाणा-पंजाब-दिल्ली-वेस्ट यूपी, दक्षिणी उत्तराखंड व् उत्तरी राजस्थान में है|

2) आध्यात्मिक कल्चर:
2.1) युगों पुराना मूर्ती-पूजा रहित, परमात्मा के एकरूप को मानने वाला, धोक-ज्योत में औरत को 100% प्रतिनिधित्व देने वाला, वर्ण-जाति के भेदभाव से रहित, अवतारवाद को नहीं मानने वाला, ऊंच-नीच के बर्ताव से रहित, गाम में सबसे-पहले आ के बसने वाले पुरखों द्वारा स्थापित "दादा नगर खेड़े बड़े बीरों" का प्रकृति व् मानवता को सहेजने का आध्यात्मिक कल्चर होता है उदारवादी जमींदारी|
2.2) यहाँ ध्यान देने की बात है कि सन 1875 में बने आर्य-समाज में "मूर्ती-पूजा" नहीं करने, परमात्मा के एकरूप को ही मानने, अवतारवाद को नहीं मानने के जैसे सिद्धांत इस 1875 से सदियों पहले से विदयमान उदारवादी जमींदारी आध्यात्म से ही लिए गए हैं| और यही समानताएं सबसे बड़ी वजहें थी कि खापलैंड पर आर्य-समाज इतना अंगीकृत किया गया|

बोल नगर खेड़े की जय!

3) सोशल इंजीनियरिंग कल्चर:
इस कल्चर की सूत्रधार, कर्णधार खाप पंचायतें हैं| सर्वखाप (खाप/पाल) / मिसल की
3.1) निशुल्क व् वक्त पर न्याय देना,
3.2) मानवीय व्यवहार में सबका बराबरी से ख्याल रखना,
3.3) हर गाम में अखाड़ों के जरिये मिल्ट्री कल्चर पाल के "पहलवान तैयार" करने का सुरक्षा सिस्टम रखना (आजकल फ़ौज-पुलिस में सबसे ज्यादा सैनिक-सिपाही इन्हीं अखाड़ों की देन होते हैं; पहले इनके "पहलवानी दस्ते" होते थे, जो सर्वखाप या खाप की चिट्ठी के जरिये दी गई इमरजेंसी कॉल पे रातों-रात इकठ्ठे हो आर्मी जितना आकार ले लिया करते थे; जिसका कि एक नमूना 28 जनवरी 2021 की रात चौधरी राकेश टिकैत के आंसुओं पर "किसान आंदोलन" को बचाने हेतु रातों-रात जुटता आप सबने देखा; यह जींस में पीढ़ी-दर-पीढ़ी पलते आये "मिल्ट्री कल्चर" का ही परिणाम था),
3.4) छोटे किलानुमी परस/चौपाल/चुपाड़ के जरिये सामुदायिक सभायें/बैठकें कर गाम-प्रदेश-देश की हलचलों को सबमें पास करना; यह उदारवादी जमींदारी कल्चर के शीर्ष सोशल इंजीनियरिंग बिंदु हैं|
3.5) परस/चौपाल/चुपाड़ ग्रामीण भारत में सिर्फ खापलैंड (ग्रेटर हरयाणा) व् मिसललैंड (पंजाब) पर ही पाई जाती हैं|
3.6) गाम-खेड़े में कोई भूखा-नंगा नहीं सोना चाहिए की मानवता,
3.7) गाम की 36 बिरादरी की बेटी-बुआ-बहन, सबकी बेटी-बुआ-बहन, ब्याह-वाणे में गाम-गौत-गुहांड (एक गौतीय खेड़े में), गौत (बहु-गौतीय खेड़े में) छोड़ने का विधान, ऐच्छिक विधवा-विवाह, सति-प्रथा व् देवदासी कल्चर को वर्जित रखना, "खेड़े के गौत में लिंग-समानता से गाम का बसना", बेटी/धाणी/देहल की औलाद की सूरत में औलाद का गौत पिता की बजाए माँ का होना" "महिला-सुरक्षा" के तहत सर्वखाप पालती आई है|

4) आर्थिक कल्चर:
4.1) नैतिक पूंजीवाद (यानि कमाओ व् कमाने दो) जिसके तहत दैनिक वस्तुओं व् सेवाओं के विपणन की "बार्टर सिस्टम प्रणाली" यानि सेवा के बदले वस्तु या सेवा विधान आज भी चलन में हैं|
4.2) मुद्रा अधितकर पशु व् वाहन खरीद में ज्यादा उपयोग होती थी, आजकल दैनिक वस्तुओं व् सेवाओं में भी प्रयोग में चल चुकी है|

विवेचना: क्यों लालायित हैं अडानी-अम्बानी जैसे कॉर्पोरेट्स यहाँ खेती करने को?

एक तो इस ऊपर बताए उदारवादी सिस्टम की खूबी देखिये; देश में आमिर-गरीब का सबसे कम अंतर् इस सिस्टम की देन है| बिहार-बंगाल की तरह आज तक किसी दलित, ओबीसी को मात्र बेसिक दिहाड़ी कमाने को कभी मुंबई, हरयाणा, पंजाब नहीं दौड़ना पड़ा| खापलैंड व् मिसललैंड पर मुंबई-गुजरात की तरह बंगाली-बिहारी-आसामी प्रवासियों को भाषावाद, क्षेत्रवाद की व्यापक झिड़क व् मार नहीं झेलनी पड़ी| यह सब बातें, अडानी-अम्बानी जैसों को गारंटी की हद तक जा कर आकर्षित कर रही हैं|

इसके ऊपर जुल्म इनकी सामंती सोच यानि अनैतिक पूंजीवाद के "वो कमाए तुम जोड़ो", "वर्णवाद का भेद बरतो", "नौकर-मालिक" के सिद्धांत; जो कि उदारवादी जमींदारी के बिल्कुल विपरीत हैं| और इस सामंती सोच के लोगों को अपना सामंती सिस्टम यहाँ लागू करने को उदारवादी जमींदारी का ऊपर बताया कल्चर सेट नहीं चाहिए; यह सब हटाना है| आपका यह सारा वैल्यू सिस्टम, इकनोमिक सिस्टम हड़पना है| यानि आप इनको एक सहज टारगेट दिख रहे हो; इसलिए यह लालायित हुए चले आते हैं|

यह सब जान के क्या आप लुटने देना चाहेंगे, आपके पुरखों द्वारा व्यवस्थित व् स्थापित इस सिस्टम को? शायद नहीं ही जवाब होगा आपका? तो इन सामंतियों से छुटकारा पाना होगा| इनसे छुटकारा पाने को यह दो चोटें सबसे ज्यादा समझते हैं, पहली नोट की व् दूसरी वोट की| वोट की यह सह भी जाते हैं, जैसे अभी 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में सह गए, बंगाल की हार भी झुकाती नहीं दिखती इनको| तो ऐसे में कौनसी चोट सबसे कारक है; नोट की| व् यह कैसे सम्भव होगी? आर्थिक असहयोग से? परन्तु वह कैसे किया जाए; क्योंकि छोटा व् मंझला व्यापारी तो किसान के साथ है? इसका मध्यमार्गी तरीका होगा न्यूनतम 3 महीने के लिए खाने-पीने के सामान को छोड़ के 25000 रुपए से ऊपर की कीमत की कोई वस्तु-सेवा ना खरीदी जाए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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