Saturday, 13 June 2015

यह सब सिर्फ जाट ही क्यों थे?


(स्वछंद मति की थ्योरी बनाम निर्देशित मति की थ्योरी)

एक जाति-विशेष ने उनके खुद के इतिहास में ऐसे जंगी-विजयी रिकॉर्ड जैसे कि जाटों के इतिहास में अलंकृत हैं नहीं होने के अकाल से ग्रस्त और कुंठित हो इसकी कुछ अप्रत्याशित सी कमी पूरी करने हेतु अब जाटों को अपना वंशज कहना शुरू कर दिया है| भरतपुर से ले पटियाला, लाहौर से ले जींद, धौलपुर से ले कुचेसर, हर्षवर्धन से ले कनिष्क, पोरस से ले चन्द्रगुप्त, दादा बाला से दादा रामलाल, दादा जाटवान से दादा हरवीर, नाहर सिंह से ले बाबा शाहमल तोमर, गॉड गोकुला से ले सूरजमल, जवहारमल से ले पीटर प्रताप मतलब एक भी तो जाट को यह जाट नहीं छोड़ रहे, सभी को तो लपेट लिया अपनी जाति में|

कुंठा रे कुंठा, कभी दूसरों की निर्देशित मति पे चलने की बजाये जाटों की स्वछंद मति की तरह कार्य किये होते तो यूँ जाटों सी वीरता पाने को जाटों के वीरों पे दावे ना ठोंकने पड़ते| जलते-भुनते कभी जाटों की स्वछँदता से तंग आकर जाटों को खुद के एंटी बोलने वाले आज जाटों से वीरता उधार लेने को घूम रहे|

और आगे बढ़ने और इनके दावों को तार्किक तरीके से खारिज करने से पहले मैं इस जाति-विशेष की कुंठा पर दो मार्मिक शब्द कहना चाहूंगा कि देखो आप लोग किस हद तक जाटों से वीरता और उनकी विजयी कहानियां गिरवी लेने को लालायित हो| आप और आपकी रॉयल्टी तो आप और आपके तथाकथित मार्गदर्शकों द्वारा अपने मुंह-मिया मिठ्ठू बनने वाली ही रही; जबकि जाट को तो अंग्रेज और मुसलमानों ने भी रॉयल माना| वो इतिहास में साफ़ लिख के जा चुके हैं कि जाटों से आप हो सकते हो, जाट आपसे नहीं|

अब आता हूँ आपके दावों को ख़ारिज करने की थ्योरी पे| सारा भारतीय इतिहास का साहित्य साक्षी है कि आप लोगों ने एक जाति विशेष द्वारा लिखा हुआ इतिहास ही माना| उस जाति ने जो लिख दिया उसको प्रमाण और सत्यवचन माना| उस जाति ने जो किले-रजवाड़े सर पे बिठा दिए वही आपके अनुसार रॉयल कहलाये| उस जाति ने जिस साधारण इंसान को भी महानायक बना दिया, आप लोगों ने उसी को मान्यता दे दी| यहां ध्यान दीजियेगा कि आप लोगों ने मान्यता दी, जाट या अन्य सभी जातियों ने भी दी हो ऐसा मैंने नहीं कहा| और ना मैं यहां आपकी जाति का नाम लेने वाला और ना उस जाति का जिसने ऊपर लिखित सारे कार्य किये| इस लेख में जाति के नाम से तो सिर्फ जाट का ही नाम लूँगा| इसकी वजह भी साफ़ है मुझे आपके दावों को ख़ारिज करना है आपका अपमान नहीं| और जब आपके दावे ख़ारिज होंगे तो आप खुद भी जान जाओगे कि यहां जाट के अलावा और कौनसी जातियों का जिक्र हो रहा है| चिंता ना करें और ना ही इस लेख को पढ़ते हुए उत्तेजित होवें क्योंकि जाट जाति का गौरवान्वित अंश होते हुए जानता हूँ कि ऐसे संवेदनशील मामलों में जातीय शब्द की हिंसा और अनादर ना दिखाते हुए कैसे ऐसे दावे करने वालों को निरस्त करना होता है|

तो अब बढ़ता हूँ आपके दावों को ख़ारिज करने पे| बड़े सिंपल लॉजिक्स के साथ आपकी बातों का खंडन करूँगा|

1) आप लोग कहते हो कि महाराजा हर्षवर्धन जाट नहीं अपितु आपकी जाति के थे| तो मान्यवर अगर ऐसा था तो हर्षा ने 643 में खाप सिस्टम को वैधानिक मान्यता कैसे दे दी? क्योंकि आपकी मार्गदर्शक जाति ने जो निर्देशित कर दिया, उससे बाहर जाने का तो आपका इतिहास नहीं| और खाप-सिस्टम ठहरा टोटली उसके एंटी? तो ऐसे में फिर हर्षा आपकी जाति का होते हुए यह उददण्डता करने की जुर्रत कैसे कर गए कि उन्होंने वरन सबके परन्तु मूलरूप से जाट लोकतान्त्रिक थ्योरी के खाप सिस्टम को वैधानिकता दी? हर्षा तो अनुयायी भी बुद्ध धर्म के थे, उसी बुद्ध धर्म के जिसके विरुद्ध कार्य करने का आपका इतिहास रहा है| ध्यान दीजियेगा ऐतिहासिक तथ्य प्रमाणित करते हैं कि दसवीं सदी के इर्द-गिर्द माउंट आबू के ऐतिहासिक यज्ञ से आपकी उतपत्ति बताई जाती है| फिर भी आपकी बात का मान रखते हुए कहूँगा कि एक पल को अगर हर्षा जाट बेशक ना भी थे परन्तु आपकी जाति के तो कदापि नहीं थे| क्योंकि आपकी जाति के होते तो आपका इतिहास लिखने वालों ने आज उनको भी सर्वोच्च राजाओं की श्रेणी में रखा होता| राणाओं के राणा, महाराजाओं के महाराजा बताया होता, क्योंकि उनका इतिहास ही इतनी उपलब्धियों भरा है|

2) आप लोग कहते हो कि 1024 में महमूद ग़ज़नवी से सिंध के मैदानों में सोमनाथ मंदिर से उसका लूटा हुआ खजाना लूटने वाली खाप आर्मी और उस आर्मी के लीडर ‘दादावीर बाला जाट जी महाराज’ भी आपकी ही जाति से थे| तो मान्यवर आपने अभी तक उनके बुत क्यों नहीं लगवा दिए शहरों-गाँवों के चौराहों पर? अभी तक उनकी कोई जयंती क्यों नहीं मनाने की परम्परा सुनी मैंने आपके यहां?

3) आप लोग कहते हो कि 1206 में मोहमद गौरी को घेरने वाली खाप आर्मी और गौरी को मारने वाले ‘दादावीर रामलाल जी खोखर महाराज’ भी आपकी जाति से थे, तो अभी तक इतना मत्वपूर्ण आदमी आपके इतिहास की किताबों से गायब कैसे रह गया? अब ऐसा तो नहीं हो सकता कि जो आपका इतिहास लिखने वाली जाति रही है उसकी नजरों से इतना महत्वपूर्ण नायक छूट गया हो? उसकी अनुशंषा, प्रशंसा, महानता में कुछ घड़ा ही ना गया हो?

4) आप लोग कहते हो कि पृथ्वीराज के शासन के पतन के तुरंत बाद मोहम्मद गौरी के सेनापति कुतबुद्दीन ऐबक को 1193 में नाकों चने चबाने वाले ‘दादावीर जीवन जाटवान जी गठवाला महाराज’ भी आपकी जाति से थे? तो जनाब अभी तक उनको प्रथम हिन्दू धर्म-रक्षक के नाम से क्यों नहीं जाना गया? क्यों नहीं आपका इतिहास लिखने वाली जाति ने आजतक उनको अपनी लेखनी में स्थान दिया?

5) 1669 में औरंगजेब की जड़ें हिलाने वाले 'गॉड गोकुला' भी आप ले लोगे यार तो फिर जाटों के पल्ले छोड़ोगे क्या? कहो तो हम लोग शाक्का कर लेवें? वैसे माँ कसम हमने शाक्के कभी नहीं किये, हमने तो जहाँ भी हमारी चली हमारी औरतों तक को नहीं करने दिए| असल में गलती आपकी नहीं है क्योंकि आपके जो गुरुलोग हैं उनको हमेशा से दो ही चीजें आई हैं एक तो दूसरों के क्रेडिट पे डाका मारना और दूसरा डाके से नहीं मिलता तो छीना-झपटी पे उतरा आना| अब उनकी सोहबत का इतना प्रभाव तो लाजिमी है ना|

6) आप दावे करते हो कि जींद-पटियाला का जाट राजघराना आप लोगों का वंशज है, तो जनाब क्यों जींद के दोनों किले गिरवा दिए गए? क्यों आप वालों की तरह उनपे भी रख-रखाव लगवा के पर्यटन नहीं कमाया गया? क्यों नहीं जींद रियासत को भी वही मान-सम्मान मिला जो इससे भी कहीं निम्न दर्जे की रियासतों को मिला हुआ है? मतलब महाराजा ने आपकी जाति से भाईचारा दिखाने हेतु कुछ कह भी दिया होगा तो क्या, मतलब पूरी रियासत ही अपनी जाति की लिखने लग जाओगे क्या?

7) आप दावे करते हो भरतपुर वाले भी आपके हैं? ……. जा के कभी भरतपुर की धरोहरों की हालत देखी है? अगर यह आप वालों के होते तो उसी तरह चमक-दमक रहे होते, जैसे आपके चमक रहे हैं| क्योंकि फिर जो सरकारी धन आप वालों की तरफ मोड़ा गया है उसका कुछ हिस्सा इनकी तरफ भी मुड़ता|

नादान जाटों सुध ले लो अपनी इन धरोहरों की, और नहीं तो पर्यटन के बहाने ही सही, भरतपुर देख के आया करो| दावा करता हूँ ब्रिटेन के बकिंघम पैलेस और फ्रांस के वरसाई पैलेस में खड़ा हो के भी वो गरूर नहीं आता जो उन दीवारों पे खड़ा हो के आस्मां निहारने में आता है जहां से जाटों के दो छोरों ने गौरों के नौ-नौ कमांडरों को धूल चटा, ब्रिटिशराज का सूरज थामा था|

तो आगे बढ़ता हूँ| जब यह तर्क दिए जाते हैं और कुछ जवाब नहीं बनता है तो शायद चिड़न व् कुंठावश आप तथाकथित सभ्यों का असभ्य व् लीचड़ तर्क आता है कि जाट तो हमारी नाजायज औलाद हैं| जो औरतें हमारे यहां विधवा हो जाती थी जाट उनसे ब्याह करते थे और उन्हीं से फैले या पैदा हुए, जो भी तर्क आप देते हैं| तो तर्कों के धनी तर्काधीश्वरो फिर यह भी आप ही बता दो कि आपके दावेनुसार वो प्रथम विधवा कौन थी जिन्होनें जाट से ब्याह किया? और वो सर्वप्रथम विधवा से शादी करने वाला सर्वप्रथम जाट कौन था? और अगर वो पहले से मौजूद था तो फिर वो आपसे कैसे पैदा हुआ?

मतलब आप कहना चाहते हैं कि आपकी विधवा औरतों ने आपके शाक्कों का विरोध किया होगा और जब जान बचाने हेतु पनाह ढूंढी होगी तो जाटों ने उनको संभाला होगा, क्योंकि एक सामान्य परिस्थिति में तो आप उसको सति होने वाली चिता से उठ के जाने देने से रहे| और आप जाने भी देते होंगे तो आपको मार्दर्शन देने वाले तो जरूर ऐसा करने से रोकते होंगे| कम से कम फ्रांकोइस बर्नियर की डायरी तो यही कहती है| तो भाई जीवनदान के लिए भाग के आये को शरण देने का काम तो पुण्य का काम हुआ ना, मानवता का काम हुआ ना, तो इससे जाट भला कैसे पीछे हट जाते| बल्कि यह तो उल्टा जाटों की स्वछँदता ही साबित करता है कि जिनके निर्देशन से आप लोग ऐसा करते रहे होंगे उन्हीं के निर्देशन को ताक पे रख के मानवता की चादर ढूंढ रही औरतों को चादर ओढ़ाई|

वैसे कमाल है विधवाओं पे काम करने के लिए खासतौर पर गाये गए और उठाये गए राजा राम-मोहनरॉय की नजर और अनुशंषा से वो प्रथम जाट या ऐसे तमाम जाट कैसे बच गए? मैंने तो आजतक यही पढ़ा और जाना कि उन्नीसवीं सदी के इस नायक से पहले किसी ने विधवाओं का कोई उद्दार नहीं किया? धन्य हो आप लोगों का जो ऐसे पुण्य कार्य सर्वप्रथम जाटों ने किये थे ऐसा कहने की हिम्मत और निष्पक्षता रखते हो| वर्ना तो जिन्होनें राजाराम मोहनरॉय को लिखा, उन्होंने जाटों को तो इस फ्रंट पे भी हमेशा की तरह दरकिनार ही रखा|

वैसे जाटों के यहां तो स्वेच्छा के बिना कोई विधवा होती ही नहीं, क्योंकि उसको पुनर्विवाह की आज्ञा है| और होती भी है तो अपने पति की घर-सम्पत्ति में ठाठ से बसती है| यह विधवाओं को समाज से बाहर कर और उनको आश्रमों में भेजने की रीत तो आपके यहां रही है, हमारे यहां थोड़े ही| ना औरत की शाक्का करने वाली रीत हमारी बनाई हुई थी, ना ही नवजन्मा को दूध के कड़ाहों में डूबा के मारने की रीत हमारी बनाई हुई थी| यह भी आप और आपके गुरुलोगों की ही समाज को अनोखी देन रही हैं (ना यकीन हो तो शाहजहाँ और औरंगजेब के फ्रांसीसी डॉक्टर फ्रांकोइस बर्नियर की डायरी खोल के पढ़ लो)| अत: आप लोग इस दावे से क्या साबित करना चाहते हो या फिर यह औरतों के प्रति अपने ऐतिहासिक क्रूरतम रवैये को जाटों को स्थांतरित करना चाहते हो? ऐसे थोड़े ही होता है महानुभाव| कृपया अपना क्रेडिट अपने पास रखिये, हम हमारे वाले से खुश हैं|

जाटों को नीचे दिखाने का अगला तर्क आप देते हो कि जाट तो हमारे यहां नौकर रहे हैं| जनाब मेरी हरयाणा तरफ की धरती पे तो मामला उल्टा है| यहां तो आप वाली जाति वाले मेरे यहां नौकर रहते आये हैं| ना यकीन हो तो मेरे गाँव में बसने वाली और आपकी बिरादरी की होने की कहने वाली जाति से साक्षात मिलवा भी दूंगा| तो यह तर्क तो यहीं पर उत्तर-कैतर यानी न्यूट्रल हो गया|

अब आप ऐसा ही एक और घटिया दावा उठा के लाते हो कि तुम्हारी औरतों को तो मुग़लों ने कुचला| उदाहरण देख लो कलानौर रियासत का| अब यह तो कुछ ज्यादा ही हो जायेगा| यह तो वही बात हो गई कि सिख को यह कहा जाए कि तुम सिख क्यों बने? बाई गॉड सिख जो भी जवाब देगा उनमें एक यह भी देगा कि हिन्दू औरतों (ध्यान दीजियेगा वो जाती-विशेष की नहीं वरन तमाम हिन्दू औरतों की बात करता है) पे विदेशी आक्रान्ताओं के जुल्मों के चलते वो हिन्दू से सिख बना| और मुझे कहने की भी जरूरत नहीं कि आधे से ज्यादा सिख भी जाट ही है| और हमने सिख ना बनते हुए भी कलानौर जैसी रियासत तोड़ के मूल-जाट रहते हुए कौम-हित के काम किये, तो इसमें उलाहना या कटाक्ष कैसा?

कुंठा की भी तो कोई हद होती है ना, क्योंकि आप लोगों ने किसी ऐसी रियासत को तोडा हो तो सामने वाले का बलिदान और क़ुरबानी समझ आवे| वैसे मुस्लिम कोई निशानी करके हिन्दू औरतों से बदसलूकी नहीं करते थे| जैसा कि अभी ऊपर कहा वो 36 कौम की हिन्दू औरतों से बदसलूकी करते थे| हाँ परन्तु इस मामले में एक बात में हम तुमसे फिर भी ऊपर हैं| जाटों के राजघरानों ने कभी मुग़लों को औरतें नहीं दी, बल्कि उल्टी उनकी ब्याही| उदाहरण स्वरूप गढ़-ग़ज़नी की बेगम से लव-मैरिज करने वाले गठवाला जाट दादा मोमराज जी महाराज; महमूद ग़ज़नवी की बहन से शादी करने वाले साहू जाट, अहमदशाह अब्दाली की नाक तले दिल्ली को हरा संधि स्वरूप दिल्ली की राजकुमारी का ब्याह स्वीकारने वाले महाराजा जवहारमल जी, और ऐसे ही बहुतेरे उदाहरण|
गठवाला (मलिक) जाटों की तो वो टोर होती थी कि मुस्लिमों ने कभी उनकी बारात के धौंसे (तुरई-टामक और नगाड़े बजते जाया करते थे पुराने जमाने की बारातों में) नहीं रोके, फिर उनसे कोले पुजवाने की तो बात दूर की है| हाँ 1620 में गठवालों की बेटी की डोली रोकने की हिमाकत करी थी कलानौर वालों ने तो ऐसी धूल में मिलाई थी पूरी रियासत कि आजतक इतिहास में मोटी स्याही में तारीख मौजूद है|

अब देखो यार बाल की खाल तो मुझे निकालनी आती नहीं| ना ही तुम्हारी तरह वो हमारी हरयाणवी कहावतानुसार 'चूचियों में हाड टोहने (ढूंढने)' आते| फिर भी अगर इससे भी तुम्हारा पेट्टा नहीं भरा यानी संतुष्टि नहीं हुई हो तो इतिहास की वो तारीखें और निकाल के तुम्हारे सामने रख दूंगा, जब बार-बार जाटों ने तुम्हारी आन और इज्जत बचाई (वैसे वैसी कुछ तारीखें तो इस लेख में दे दी हैं, जैसे गौरी को मारने वाली)|

तो ऐसा है बंधू हमें आपकी वीरता से स्नेह है, क्योंकि हम उन ब्रिटिशों के विजयरथ रोकने वाली कौम होते हैं जिनके बारे तारीखों ने कहा कि ब्रिटिशराज का सूरज कभी छिपा नहीं करता, इसका रथ कभी रुका नहीं करता| अब यार 1804-05 में भरतपुर में इनके रथ को 4 महीने तक रोक के रखने और फिर इनसे ‘treaty of equality and friendship’ sign करवाने वाले तो कम से कम आप नहीं हो सकते| पीछे के इतिहास में तो लाख झोलमेल-घालमेल करने की कोशिश करके तुम किसी को भी किसी का वंशज बताओ, परन्तु इसपे तो तुम कम से कम दावा नहीं ठोंक सकते| और जिन्होनें अंग्रेजों से बराबरी का सम्मान पाया हो, वो तो कम से कम तुम से ना तो बहादुरी में कम हो सकते और ना रॉयल्टी में|

अरे हमने तो ब्रिटिश ही क्या आपका मार्गदर्शन करने वालों के निर्देश पर सजी एक लाख की आर्मी को मात्र 9000 गठवाले जाटों में से सिर्फ 1500 गठवाले जाट कुर्बान कर हराया था| साहस और शौर्यता का यह अदम्य करिश्मा देख कर तो हमें अरब के खलीफाओं के प्रतिनिधियों तक ने उनके यहां रॉयल्टी की सबसे उच्च पदवी 'मलिक' बराबरी के स्थान के साथ नवीस की थी| ना यकीन हो तो अपने इतिहासवेत्ताओं व् मार्गदर्शकों से पूछवा लो|

सही कहा ना, अगर ऐसे कार्य आप लोगों के भी नाम रहे होते तो आप लोगों ने इसपे ग्रन्थ के ग्रन्थ लिखवा दिए होते| तो निराधार बातें छोड़िये और इस तथ्य को समझिए कि जाट आपसे तो कम से कम नहीं हैं|
अपने आपको बहादुर कहलाते हो, रॉयल भी कहलाते हो तो रोयलों जैसा ही बर्ताव करो| या फिर जो आपको मार्गदर्शन देते हैं उनको छोड़ के अपनी मति से कार्य करना शुरू करो; तब शायद पहचान सको कि जाट औरों से अपेक्षाकृत इतना गौरवशाली इतिहास कैसे लिए हुए है| और जाट से बड़ा आपका मित्र भी कोई नहीं हुआ इतिहास में| परन्तु पहले उनको छोडो जो आपका कन्धा प्रयोग करके आपको जाट से भिड़ाते हैं, तब जा कर यह बातें समझ आएँगी| जाट तो वो किंगमेकर रहे हैं जिन्होनें आज़ादी के बाद भी आपके दो-दो किंग बनाये और आप जाटों से ही घृणा रखते हो| नहीं मेरे भाईयो इसको त्यागो| और जो धारणा जाट के प्रति आप लोग रखते हैं जाट बिलकुल उसके विपरीत आपके लिए साबित हुए हैं|

चलते-चलते भावावेश और आवेश में बह के सोशल मीडिया पर तैरने वाले जाट-युवानों से एक निवेदन है कि आप लोग इन बेकार के तर्कों में उलझने से पहले, जितना हो सके उतना अपने इतिहास का अध्यन करो| मैडिटेशन और मनन करो| और सच कहूँ तो इन दावा करने वालों से ज्यादा यह लेख मैंने आप लोगों के लिए लिखा है| आलोचना करने वाले को जवाब देने की कला का अभ्यास करो| और हो सके तो इस लेख को दूर-दूर तक शेयर करना, इतना शेयर करना कि हर जाट को इन कुतर्कों की वजह से न्यून ना देखना पड़े| और ऐसे झूठे दावे करने वाले समझ जाएँ कि उनके दावे कितने खोखले हैं; उनकी भाषा कितनी असभ्य है और उनका व्यवहार कितना कुंठित और मनोरोगी है|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

अधिपत्य सिद्धता की राजनीति बनाम राज-कर्तव्यता की राजनीति!


(जाट का धर्म के लिए नहीं अपितु देश-कौम व् मानवता के लिए हथियार उठाने का इतिहास रहा है)

विगत दो सालों के इतिहास को छोड़ दो तो जाट-कौम के इतिहास में ऐसी अंधभक्ति की कोई काली तारीख नहीं, जब उसने धर्मांद व्यभिचारियों व् पाखंडियों के मंसूबे सधवाने हेतु हथियार उठाये हों| इससे पहले जाट ने जब भी हथियार उठाये वो सिर्फ और सिर्फ देश-कौम और मानवता की रक्षा के लिए उठाये थे| और इस परम्परा का इतिहास वहाँ तक जाता है जब ईसा-पूर्व दूसरी सदी के पुष्यमित्र सुंग से ले शशांक और दाहिर जैसे राजाओं ने जाटों के साथ सामाजिक संधि तोड़ी थी|

मैं हिन्दू धर्माधीसों को अक्सर कहा करता हूँ कि या तो बुद्ध को हिन्दू धर्म का नौवां अवतार कहना छोड़ दो, अन्यथा मुझे बुद्ध की उपासना करने दो| इसको मैं हिन्दू धर्म का दोगलापन कहूँ, मौकापरस्ती कहूँ, स्वार्थ कहूँ या क्या कहूँ, कि एक तरफ तो पुष्यमित्र सुंग, शशांक और दाहिर से बुद्ध अनुयायिओं के मठ-लाइब्रेरी (नालंदा और तक्षिला की लाइब्रेरियां बुद्ध धर्म के साहित्य संग्रहालय थी) तुड़वाये, इस धर्म को भारत से खत्म करने हेतु जितने हो सकते थे उतने जुल्म करवाये और दूसरी तरफ उसी बुद्ध को हिन्दू धर्म का नौवां अवतार भी बना लेते हैं| आखिर एक धर्म का यह कैसा अवतार हुआ कि उसी धर्म की किताबों-ग्रंथों-मठों-शंकराचार्यों की जुबानों तक के अनुसार वो उस धर्म का नौवां अवतार कहा जाता है और उसी धर्म के लोग उसकी उपासना करें तो उनको मौत के घाट उतरवा दिया जाता रहा है?

मुझे शायद ही किसी जाट राजा का ऐसा इतिहास पढ़ने को मिलता है जिसने राजा बनते ही एक जाति-विशेष के खिलाफ उसको मिटाने-झुकाने-तोड़ने अथवा बर्बाद करने के बिगुल बजाये हों| परन्तु इन तीनों राजाओं का यही इतिहास रहा| जो इनके बारे जानता है वो इनका इतिहास भी जानता है, जाति भी और इनके कुकर्म भी| कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि इन राजाओं ने जो काल जाटों को दिए, ऐसा ही बड़ा (छोटे-मोटे तो और भी रहे हैं) चौथा काल अब चल रहा है| और यह तब-तब हुआ है जब-जब जाट हद से ज्यादा इनके अंदर घुसे हैं, इनसे गलबहियां डालने की भूलें की हैं या इनके अंधे या धक्के के प्रभाव में आये हैं|

पुष्यमित्र सुंग और शशांक की हरकतों का जहर चढ़ता-चढ़ता जाटों में तब सहिषुणता का बाँध तोड़ गया जब दाहिर ने भी राजा बनते ही जाटों के खिलाफ प्रताड़ना शुरू कर दी, इससे जाटों ने उदासीनता ओढ़ ली और इनकी राज-कुशलताओं और दक्षताओं को देखने की नियति पे ही चलना धारण किया| क्योंकि यह जाट की गुणवत्ता का सबसे बड़ा उत्कृष्ट गुण रहा है कि अपनों द्वारा ही जब-जब देश की शांति भंग करने की परिणति उठी, उसने उस परिणति को तोड़ने और देश की शांति को बरकरार रखने के बीच देश की शांति को चुना है|

यह लोग ऐसे व्यवहार करते रहे हैं जैसे कोई बच्चा उससे किसी ऐसी चीज जो चलानी-संभालनी उसके बस की ना होते हुए भी उसको सिर्फ अपने अधिपत्य में रखने हेतु रुदन मचाने लग जाता है| और इतिहास में खाई बार-बार चोटों ने इनको ऐसा ही साबित किया| निश्चय ही ऐसी थ्योरी के तहत बने या बनाये राजा वही होंगे जो राज को सिर्फ अपना अधिपत्य सिद्ध करने को चलाते हों| और यही हुआ इन ऐतिहासिक मौकों पर:

1) अरब के व्यापारियों के साथ दाहिर के राजदरबारी व् व्यापारियों ने बदसलूकी कि तो अरब के खलीफा ने मीर कासिम को सिंध भेजा| और क्योंकि यह सिर्फ अधिपत्य सिद्ध करने को सत्तारूढ़ होते आये तो जो युद्ध-राज कला में सबसे निपुण जाट जाति इन्होनें जाट से अपने दुर्व्यवहार के कारण अलग कर दी थी, इस संकट की घड़ी में उसका समूचा साथ ना मिलने की वजह से दाहिर मीर कासिम से हार गया| अब जाहिर सी बात है जो किसी के साथ राज्य का बासिन्दा होते हुए भी दुश्मन सा व्यवहार करेगा तो भीड़-पड़ी में उसका साथ कैसे पा लेगा? और इस तरह मुग़लों का आगमन भारत में शुरू हुआ| लेकिन इतिहास के पन्ने साक्षी हैं कि बाद में अरबों को नकेल डाली जाटों ने ही|

2) यह कोरी अधिपत्य साबित करने की थ्योरी के दुष्परिणाम के सिवाय कुछ भी नहीं था कि महमूद ग़ज़नवी को खुद भारतीय धर्म की अधिपति जाति के ही कुछ लोग उसके सेनापति बन उसको भारत पे हमला करने को बुलाते हैं और वो सोमनाथ के मंदिर की तरफ मुड़ जाता है| और जनता को सिर्फ मौखिक गपेड़ों से काबू करने के आदि बन चुके लोगों के उस दावे को धत्ता बताते हुए कि इस मंदिर में सेना घुसी तो अंधी हो जाएगी, उसी सेना ने सोमनाथ को जी भरकर लूटा| लेकिन देश-कौम पर बात आती देख, सिंध के जाटों ने दादा जी महाराज बाला जी जाट के नेतृत्व में खाप-आर्मी ले गजनवी लुटेरे के अधिकतर कारवां को लूट लिया| यह ठीक वैसी ही साइकोलॉजी है कि बस अब बहुत हुआ, तुम्हारी राजकुशलता बहुत देखी, अब बात देश-कौम की गरिमा पे आन खड़ी हुई है तो हमें आगे बढ़ना ही होगा|

3) यह कोरी अधिपत्य साबित करने की थ्योरी के दुष्परिणाम के सिवाय कुछ भी नहीं था कि पृथ्वीराज चौहान द्वारा मोहम्मद गौरी को हरा, बंधी बना लिए जाने के बाद भी राजदरबार के सलाहकारियों ने उसको मुक्त करवा दिया और उसका प्रतीकात्मक परिणाम यह हुआ कि गौरी फिर से चढ़ आया और पृथ्वीराज को बंधी बना ले गया| पूरे विश्व में यह अनोखी थ्योरी हमारे भारत में ही देखने को मिलती है कि एक खतरनाक युद्धबंदी को छुड़वाया गया हो, वरना रोमनों से ले हूण, मंगोलों से ले पर्सियन किसी के इतिहास में ऐसे लाजवाब समझ से परे के किस्से नहीं मिलते| फिर भी यह राजकुशलता देख रहे जाटों ने ही अंत में पृथ्वीराज के कातिल को मारा, क्योंकि बात देश-कौम की अस्मिता पे जो आन डटी थी|

इस बीच बहुत से अन्य युद्ध-यौद्धेय होते गए और देश के काम आते रहे| ऐसे चलते चलते काल आया औरंगजेब का|

4) यह कोरी अधिपत्य साबित करने की थ्योरी के दुष्परिणाम के सिवाय कुछ भी नहीं था कि औरंगजेब ने जब तक अन्य जातियों के साथ-साथ धर्म ध्वजा वाली जाति पर भी जजिया कर नहीं लगाया तो इन्होनें औरंगजेब को कुछ नहीं कहा| परन्तु जैसे ही यह कर लगा, इन्होनें रूदन मचाने शुरू कर दिए| और उधर इनकी राज-कुशलताओं पर नजर रखे हुए जाट-समाज को भी अहसास हो गया कि अब सहनशीलता की सीमा आ चुकी है| तो तब जब सम्पसम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार और गिद्ध चील उड़ते दिखाई देते थे, धुंए के बादल और लपलपाती ज्वालायें दिखाई देती थी, राजे-रजवाड़े झुक चुके थे; फरसों के दम भी दुबक चुके थे, ब्रह्माण्ड के ब्रह्म-ज्ञानियों के ज्ञान सूख चुके थे, हर तरफ त्राहि-त्राहि थी, ना धर्म था ना धर्म के रक्षक| तब निकला उमस के तपते शोलों से एक शूरवीर, तब किरदार में अवतारा था वो यौद्धेयों का यौद्धेय "समरवीर प्रथम हिन्दू धर्म-रक्षक अमर-ज्योति 'गॉड गोकुला' जी महाराज"|

और इसके बाद जाटों ने अपनी राजसत्ता और दक्षता को फिर से उसी स्तर का अमली-जामा पहनाने की ठानी जो कि महाराजा हर्षवर्धन, कनिष्क और पोरस काल में हुआ करता था| और चले तो ऐसे चले कि मुग़ल हों या अंग्रेज सबकी तलवारों की धार ऐसी परखी कि कूटनीति-राजनीती और युद्धकौशलता के लिए एकछत्र डंका बजाने वाले महाराजा सूरजमल, महाराजा रणजीत सिंह पंजाब, महाराजा जवाहर सिंह, महाराजा रणजीत सिंह भरतपुर दिए| जहां अधिपत्य हेतु राजनीति करने वाले आज भी हारे हुए राजाओं-रजवाड़ों को ही फिल्मों-नाटकों में सर्वोत्तम दिखाते हैं वहीँ जाटों ने वो राजे निकाले जिनका लोहा मुग़लों ने भी स्वीकारा, अंग्रेजों ने भी और दबी जुबान में इन खुद अधिपत्य-मात्र की राजनीति करने वालों ने भी| और कुछ एक की बेचैनी का तो यह आलम है कि आज इन जाट राजाओं को ही अपने ही वंश का बता के जाट की शौर्यता को भी अपनी बताते हुए आम सुना जा सकता है|

5) पानीपत की तीसरी लड़ाई में जब पेशवा महाराजा सूरजमल की सलाह को नकारते हुए उनको दरकिनार कर पानीपत लड़ने चढ़े तो मुंह की खा के लौटे| फिर उन्हीं अहमदशाह अब्दाली के सेनापति नजीबुद्दीन पर रणचंडी बन महाराज जवाहर सिंह नाचे तो अब्दाली भी मूक-दर्शक बन गया और दिल्ली में लगे चित्तोड़ के अष्टधातु दरवाजे समेत, मुस्लिम राजकुमारी से ब्याह और युद्ध खर्च की संधि पर ही वापिस लौटे|

6) 1857 की क्रांति में अपने-अपने इक्का-दुक्का हीरो को सबसे अग्रणी साबित करने में लगे रहने वाले बड़े सहज ही यह भूल जाते हैं कि वह आप नहीं अपितु जाट और खाप थे जिनकी वजह से अंग्रेजों को कलकत्ता से दिल्ली में राजधानी शिफ्ट करनी पड़ी, 1857 के भोगने स्वरूप जाटलैंड की यमुना के आर और पार दो फाड़ करनी पड़ी| क्या इससे बड़ी कोई परिणति है उस इतिहास की जो यह साबित करती हो कि 1857 का झंडा किसके हाथ रहा?
क्या यह ईसा-पूर्व दूसरी सदी में जाटों से सामाजिक संधि तोड़ने वालों ने यह संधि फिर से स्थापित की है, क्या जाटों को इसको तोड़ने बारे इसको तोड़ने वालों ने कोई माफ़ी या पछतावा पत्र लिखा है? जब यह लिखा ही नहीं तो ऐसे गलबहियां किस काम और उद्देश्य-सिद्धता की? इतिहास गवाह है कि यह संधि टूटने पर भी जाट जहां खुद को बचाने में सफल रहा वहीँ इनसे जो इतिहास की तारीखें बिगड़ी उनको भी संगवाता यानी सुधारता आया| लेकिन हर विद्या-दक्षता का धनी जाट जब तक अपनी धर्म और धन की इन अधिपत्य की राजनीती करने वालों से रक्षा हेतु कड़ी नीति नहीं अपनाएगा, तब तक दुविधा और उहापोह खत्म नहीं होगा| मानवीयता के मापदंडों पर बेहद लचीले जाट को अपनी खुद की धार्मिक मान्यताओं जैसे कि "दादा नगर खेड़ा" और अपने धन यानी फसलीय उत्पाद का मूल्यनिर्धारण का हक़ अपने हाथों में लेना ही होगा| और इनसे भी पूछना होगा कि पहले पुष्यमित्र सुंग की तोड़ी संधि को जोड़ो, और फिर किसी एकता और बराबरी की बात करो| वरना तो जाट इस टूटी हुई संधि की वेदना पर ही चलते हुए, समाज के हर फर्ज को पूरी तल्लीनता से निभाते आये हैं और निभाते रहेंगे; उसके लिए जाट को किसी धार्मिक कटटरता से जुड़ने या बहकने की जरूरत नहीं|

चलते-चलते एक गौर फरमाने की बात कहूँ, इतिहास में पहली बार इन लोगों ने जाट-राजनीति पर चलते हुए किसी गैर-धार्मिक प्रतिनिधत्व समुदाय के मनुष्य को पीएम बनाना पड़ा है| परन्तु जाट से संधि को आज भी तैयार नहीं| लगता है ताऊ देवीलाल की अधिपत्य-सिद्धि से रहित उस राज-कर्तव्यता की राजनीती से ही प्रेरणा लेकर इन्होनें यह कदम उठाया है जिसके तहत ताऊ जी ने खुद पीएम नहीं बन, दो-दो राजपूतों (श्री वीपी सिंह व् श्री चंद्रशेखर) को पीएम बनाया था|

लेकिन यह इतना भर तो ऊँट के मुंह में जीरे के समान है| असली राज-कर्तव्यता और देशपालना तो उस दिन बन-निकलेगी जब ईसा पूर्व दूसरी सदी की टूटी इस संधि को जोड़ने हेतु कदम उठाए जायेंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 12 June 2015

धर्म के नाम पर इन्वेस्ट करना है तो!


धर्म को चलाने वाला रिटर्न में रोजगार और सम्मान दोनों पाता है|

धर्म में इन्वेस्ट करने वाला व्यापारी रिटर्न में व्यापार पाता है|

परन्तु धर्म के नाम धन-दान, ताकत-बल, भावना-जज्बात तीनों को एक साथ इन्वेस्ट करने वाला रिटर्न में सिर्फ जेल, रोते-बिलखते परिवार, दंगों की भेंट चढ़े आग में जले उजाड़ घर पाता है, अलगाव और पछतावा पाता है|

वह धर्म नहीं हो सकता जो किसी के उजड़ने-बरबाद होने व् जेल जाने का सबब बने| वह कोरी राजनीति होती है सिर्फ और सिर्फ राजनीति| कोई समझे तो समझे, ना समझे तो ना समझे; माने तो माने, ना माने तो ना माने|
धर्म में हाथ डालना है तो पहले इतने प्रो-रिलिजन बनो कि या तो रिटर्न में रोजगार ही पाओ, या आय ही पाओ या सम्मान तो कम से कम जरूर पाओ| जो इस इन्वेस्टमेंट से एक भी रिटर्न नहीं निकालता वो मानव-योनि में पैदा हुआ चलता-फिरता वो जानवर है, जिसको धर्म के नाम पर पशुओं की भांति कोई भी किधर भी किसी भी दिशा में हाँक सकता है|

धर्म के नाम पर इन्वेस्ट करना है तो एक वक्त में एक ही चीज करो, या तो धन-दान इन्वेस्ट करो या ताकत-बल इन्वेस्ट करो या भावना-जज्बात इन्वेस्ट करो| तीनों एक साथ इन्वेस्ट किये तो समझ लेना खुद भी वेस्ट हो जाओगे| एक वक्त में एक चीज इन्वेस्ट करोगे तो इस बात पर बराबर नजर रहेगी कि रिटर्न क्या आएगा या आने वाला है या आया| और नहीं आया तो क्यों-क्या नहीं आया| धर्म में तीनों एक साथ डालना, समझो शरीर से पत्थर बाँध कर झील में कूद जाना|

और कोई माने या ना माने, परन्तु अगर धर्म में वित्तीय रिटर्न ना हो तो ना तो कोई धर्मालय खोल के बैठे और ना ही कोई व्यापारी इनको बनवाने हेतु इनमें इन्वेस्ट करे| तो जब यह दोनों ही वित्तीय रिटर्न को सामने रख के इन्वेस्ट करते हैं तो किसान-कमेरे-दलित भी वित्तीय रिटर्न को सामने रख के ही इनमें इन्वेस्ट करें|

अन्यथा मन की शांति और आध्यात्म की तृष्णा-तृप्ति हेतु तो अपने पारिवारिक देई-द्योते बहुत हैं| धर्म की वो शास्वत परिभाषा ही बहुत है जो कहती है कि तर्कशील बुद्धि से तार्किकता और विवेचना के आधार पर लिया गया निर्णय और मार्ग ही इंसान का धर्म है| इसलिए अगर वित्तीय रिटर्न की जगह धार्मिक रिटर्न ही चाहिए तो अपने आपको तर्कशील बनाने में इन्वेस्ट किया जाए|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

मंडी (व्यापारी) दान के नाम पर अधिकतर मंदिर ही क्यों बनवाता है?


क्योंकि मंदिर बनवाना भी उसके लिए एक इन्वेस्टमेंट होता है| जितनी बड़ी इन्वेस्टमेंट, उसमें उतनी बड़ी फंडों की मण्डली, जितने बड़े फंड उतने अंधभक्त, जितने ज्यादा अंधभक्त उतना बड़ा रिटर्न| रिटर्न कैसे? अरे भाई फंड रचने के लिए जो सामान चाहिए वो कहाँ से खरीदोगे, वापिस व्यापारी की दुकान से ना?

यानी दानी-धर्मात्मा होने का नाम हुआ सो हुआ और रिटर्न का रिटर्न| यह जितने भी लोग ऐसा कहते हैं ना कि व्यापारी अपने पाप धोने के लिए ऐसे मंदिर बनवाते या दान देते हैं, वो अपना भरम दूर कर लें| व्यापारी सिर्फ और सिर्फ इन्वेस्ट करता है| पाप धोने को मंदिर बनाया, यह तो उसकी स्ट्रेटेजी होती है बन्दों को उन्हीं मंदिरों में बुलवा, अंधभक्त बनवा अपना सामान बिकवाने की|

मैंने वैसे तो भारत के कई हिस्सों, परन्तु हरयाणा तो खूब घूम के देखा है| व्यापारियों की धर्मशालाओं से बड़ी तो किसानी जातियों की धर्मशालाएं मिल जाती हैं| यहां तक कि मेरे जींद में तो दलित समाज की धर्मशाला तो इतनी बड़ी है कि उसी की अटालिका पूरे जींद की धर्मशालाओं में सबसे ऊँची टक्कर देती है| कारण साफ़ है किसान या दलित धर्मशाला बनाता है शुद्ध धर्म-पुण्य के लिए या फिर इनको व्यापारियों जैसी चालाकी नहीं आती| जबकि व्यापारी धर्मशाला बनाएगा तो वो भी सिर्फ छोटी सी, क्योंकि धर्मशाला से रिटर्न थोड़े आना है|

वो धर्मशाला की बजाये मंदिर में इन्वेस्ट करता है| क्योंकि पता है वहाँ से रिटर्न आएगा ही आएगा| You know its a cyclic business process, invest there (temple), get return here (shop)!

अरे किसानो-दलितों और नहीं तो कम से कम धर्मपुण्य के जरिये भी कमाना सीख लो| अपने दादा खेड़ों के इर्द-गिर्द बड़े पार्क-बाड़े-स्मृति अथवा प्रेरणा स्थल बनाने सीख लो| आपके खुद के हुए योद्धेयों के किस्से-गाथाएं गानी-गुवानी सीख लो| कम से कम और नहीं तो उनमें देवता तो आपके अपने बैठे हैं| कमाई नहीं भी होगी तो पुरखों की बड़ाई और पहचान तो हो जाएगी समाज-संसार में|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 11 June 2015

क्या जब धर्म-वालों ने गौरक्षा के झंडे नहीं उठाये थे तब गऊ की रक्षा नहीं होती थी?

मुखड़ा ही याद है, पर मेरी दादी और घर की औरतें एक लोकगीत कुछ इस तरह गाया और सुनाया करती थी, "मैं सूं हरफूल जाट जुलानी का, कित लुकेगा तेरै गुडैकी मारूंगा| गौहत्था चलावणिये बाज आ जिए, ना आरे पर को तारूँगा|"

मेरी दादी जी बड़े गर्व से दादावीर हरफूल जी की महानता के किस्से ऐसे लोकगीतों और कहानियों के माध्यम से सुनाया करती थी और बताया करती थी कि कैसे दादा जी का नाम सुनते ही गौहत्यारों की पिंडियाँ काँप जाया करती थी| कैसे दादा जी ने गोहाना और टोहाना से ले तमाम उत्तरी भारत के बहुतेरे गौहत्थे तोड़े थे| और हजारों-हजार दूधिये (दूध के रंग के यानी गाय) जानवरों की जानें बचाई थी|

याद करो दादावीर हरफूल जाट जुलानी वाले का जमाना| वह ठीक उसी काल में हुए, जब आरएसएस बना था, हिन्दू परिषद बनी थी| क्या कोई मुझे बता सकता है कि दादावीर हरफूल जाट को इनमें से किसने आ के गौरक्षा हेतु प्रेरित किया था या यहां तक कि इनका साथ तक दिया हो? या जब अंग्रेजों ने इनको फांसी दी तो किसी तथाकथित राष्ट्रवादी ने इनकी रक्षा की हो अथवा इनका पक्ष लिया हो? श्रद्धेय दादावीर की मृत्यु भी चालीस के दशक में हुई जब इन संगठनों को बने हुए दशकों बीत चुके थे, परन्तु मुझे इतिहास से इनका कोई ऐसा पन्ना नजर नहीं आता जब इन्होनें उस जमाने में कभी गौ की सुध भी ली हो|

हरयाणा कहो या मीडिया की भाषा वाला जाटलैंड अथवा खापलैंड पूरे देश में सबसे बड़ी व् प्राचीन गौशालाएं इस धरती पर हैं| बचपन में जबसे सोधी संभाली तब से देखता आया हूँ, मेरे घर से हर साल गौशाला धड़ौली के लिए, गौशाला शादीपुर के लिए अनाज की बोरियां और तूड़े की ट्रॉलियां बराबर जाती रही हैं| बल्कि जब मैं कॉलेज स्टूडेंट हुआ करता था तो खुद अपनी निगरानी में यह सामान गौशालाओं में पहुंचा के आया करता था| बंधा हुआ सिस्टम रहता था कि गौशाला का इतना अनाज और इतना तूड़ा हर साल जायेगा और जाता रहा| अब भी जब भी इंडिया जाता हूँ तो पहले झज्जर गुरुकुल की गौशाला में गौओं को गुड़ खिलाते हुए मेरी नगरी जाता हूँ|

तो मुझे समझ यह नहीं आ रहा कि यह तथाकथित राष्ट्रवादी एक हरयाणवी को कौनसे वाली गौरक्षा या गौसेवा का पाठ पढ़ाना चाहते हैं? लेकिन अब लगने लगा है कि अगर ऐसे बहरूपिये भी गौसेवा के लेक्चर देने लग गए हैं तो मैं गौसेवा छोड़ कुछ नया पुण्य करने की शुरुआत क्यों ना करूँ|

और कमाल है यह इस बात की उम्मीद भी कैसे कर लेते हैं कि मानवता और धर्म पर यह लोग पाठ पढ़ाएंगे और हरयाणवी इनसे पढ़ के मार्गदर्शन पाएंगे? यह लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि हम हरयाणवी होते हैं जो स्वछँदता से मन में आये तो वो जाट वाली भेल्ली भी दे देवें ना तो देवें ना पोरी भी? परन्तु आज सब कुछ संशय में हैं, क्योंकि शहरी हरयाणवी कुछ ज्यादा ही धार्मिक हुआ टूल रहा है; इसलिए ज्यादा सटीक इसपे दावा भी नहीं कर सकता| परन्तु इसको इस बात का पैमाना तो ले ही सकता हूँ कि जरूर मूल हरयाणवी दिशाहीन हो चुका है, उसकी मानवता और स्वछँदता घिर चुकी है|

उत्तरी भारत में मंदिर जितने छोटे, गौशालाएं उतनी बड़ी; दक्षिण भारत में मंदिर जितने बड़े, गौशालाएं उतनी छोटी, फिर भी यह लेक्चर हरयाणा में ही ज्यादा पढ़ाये जा रहे हैं? हरयाणा तो सबसे बड़ा मुस्लिम बहुल राज्य भी नहीं, केरल-आंध्र-तमिलनाडु में हमसे कहीं ज्यादा मुस्लिम हैं| तो ऐसे में अगर इसको इसी हिसाब से समझूँ कि इन राष्ट्रवादियों को गौरक्षा के मुद्दे के बहाने मुस्लिमों से ही कुछ हिसाब-किताब बराबर करना है तो वहाँ क्यों नहीं इस स्तर के ऐसे अभियान सुनने में आ रहे?

शायद हरयाणवी जाट वाली मानवता और स्वछंद स्वमति से प्रेरित धर्म पालना का क्रेडिट डकारना है| जो गौसेवा इनकी तुंगभद्रा टूटने से सदियों पहले से हरयाणवी करता आ रहा है उसपे ही इनको हरयाणवी को भरमाना है कि देखो तुम गौसेवा करो| इन अनाड़ियों को इतनी सी बात कौन समझाए कि एक मास्टर भी जब किसी बच्चे को ऐसी बात पे लेक्चर देवे जो वो पहले से ही दुरुस्त्ता से कर रहा हो, तो बच्चे को चिड़ होती है| बच्चा बोर होने लगता है, उस अध्यापक से कन्नी काटने लगता है| यही नहीं बल्कि उस टीचर को सबसे बड़ा फद्दु भी समझने लगता है| परन्तु इन धक्के के स्वघोषित व् प्रैक्टिकल-विहीन कुंठित टीचरों को यह बात पता नहीं कब भेजे में घुसेगी कि जिन धर्म-पुन की तुम थ्योरी मात्र रटते हो, मूल हरयाणवी बाइडिफ़ॉल्ट उसका प्रैक्टिकल करते हैं| इसलिए हमें मत पकाया करो|

और गाय तो गाय हरयाणवी ने तो तीतर-बटेर-सूअर तक मारने वालों को कभी आदर-मान नहीं दिया| तीतर-बटेरों को मारने के लिए भी जब शिकारी खेतों का रूख करते हैं तो पहले देख लेते हैं कि कोई जाट-जमींदार-किसान आसपास तो नहीं है; वरना क्या मूड हरयाणवी का कि उसका लठ लगा तो खुद की टंगड़ी तुड़वा बैठें| हरयाणवी के लिए सिर्फ गाय ही नहीं, सब जानवरों का मर्म-दर्द स्पर्शीय रहा है| हरयाणवी इनके प्रति संवेदनशील रहा है| परन्तु इन संवेदनहीन लोगों को एक यही बात पल्ले नहीं पड़ती| वही बात जब ऐसे-ऐसे मूढ़ भी धर्म-पुण्य का प्रैक्टिकल करने चले हैं तो हरयाणवी को तो कुछ और ही पुण्य ढूंढ लेना होगा, कम से कम मुझे तो ऐसा ही महसूस होता है|

और अचरज तो मुझे इस बात का हो रहा है कि हरयाणवी युवा दिशाहीन प्रतीत होता है| निसंदेह हरयाणा के बड़ों की चुप्पी इसके पीछे बहुत बड़ी वजह है, जो अपने बच्चों को ऐसे-ऐसे तथ्य नहीं बताते| नहीं बताते कि 70% गौ-मांस का व्यापार करने वाले बड़े कारखाने खुद हिन्दू व्यापारियों के हैं| नहीं बताते कि शिक्षा के गुरुकुलों की तरह हर दस कोस पे खापों व् तमाम हरयाणवी समाजों ने गौशालाएं भी खोली हुई हैं और वो भी आज से नहीं, तब से जब आपकी तथाकथित राष्ट्रवादी विचारधारा का तो अंकुर भी नहीं फूटा था|

निसंदेह बैठे-बिठाए क्रेडिट ले उड़ने वाले और जिंदगी के तीन चौथाई हिस्से कल्पनाओं में बिताने की आदत से लाचार, इन घाघों से अपनी मति की रक्षा करना लाजिमी है| हरयाणवी युवानों सम्भलो और अपनी दिशा व् दशा सम्भालो| गौ-रक्षा तो क्या हर जानवर की रक्षा आपके खून में स्वत: ही नीहित है| कम से कम यह जानवर रक्षा के पाठ तो इनसे सीखने की जरूरत नहीं|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 9 June 2015

सभ्रांत भाषा सिखाने का अंग्रेजी स्लेव सिंड्रोम!

ये आजकल की माएं जब अपने बच्चों को 'आप-आप' करके बोलती हैं तो बड़ा नकलीपन लगता है, ना कोई घर-प्यार की फीलिंग आती| ऐसा लगता है कि बच्चा कहीं नर्सरी में पल रहा हो|

असली प्यार तो वो होता था जब माँ की एक बात का रेस्पोंस ना दो तो लखानी की हवाई चप्पल सर-सर करती हुई झन्न से सीधी मुंह या पीठ पे आ के लगती थी|

वो होता था असली सॉलिड वाला प्यार| सीधी ताबड़-तोड़ भाषा, ना कोई लाग ना कोई लपेट; और हम झट से रेस्पोंस देते थे|

परन्तु आज वाले को तो ऐसा गूगा बना देते हैं कि बच्चे के मुंह हमेशा फूले हुए गुब्बारे बने रहते हैं| एक दम प्रतिक्रियाहीन बोरिंग चेहरे, ना कोई हंसी ना खिलखिलाहट|

सच भी है कोई तो रिश्ता ऐसा भी होना चाहिए जिसमें कोई फॉर्मेलिटी ना हो| परन्तु लगता है ये आधुनिकता के भूत माँ के रिश्ते को भी बोरिंग बना के छोड़ेंगे|

Even in France, no one uses 'vous' (आप) in personal, familiale, known relations and among friends, it is 'tu' (तू), 'toi' (तुम), 'ton' (तेरा) 'tes' (तुम्हारा). Vous is used in case of professionals or strangers only. And even then French language is called and known as the best cultural language worldwide.

लेकिन यही तू-तड़ाक जब हमारी हिंदी में उतरता है तो पता नहीं कैसे असभ्य हो जाता है और वो भी औरों से पहले खुद हिंदी ही बोलने वालों के लिए| लगता है अंग्रेजी गुलामी का मॉडर्न-कीड़ा नामक सिंड्रोम इतनी आसानी से निकलने वाला नहीं हमारे में से|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

मेरी 15 पीढ़ियां और मेरी निडाना नगरी (गाँव)!


फूल मलिक > चौ. राममेहर सिंह > चौ. फ़तेह सिंह > चौ. लक्ष्मण सिंह > चौ. शादी सिंह > चौ. गुरुदयाल सिंह (हरयाणवी में दादा गरद्याला जी, हमारे ठोले का नाम इनके ही नाम पर है) > चौ. डोडा सिंह > चौ. दिशोधिया सिंह > चौ. थाम्बु सिंह > चौ. संजय सिंह > चौ. रोहताश सिंह > चौ. सांजरण सिंह (इनके नाम पे मेरे पान्ने का नाम है और मेरे ब्लॉग का भी इन्हीं के नाम पे http://sanjrann.blogspot.fr/ है) > चौ. करारा सिंह > चौ. रायचंद सिंह > चौ. मंगोल सिंह गठवाला दादा जी महाराज, जिन्होनें सन 1600 ईस्वीं में अपने साथी दादाश्री मीला धानक व् अन्यों के साथ मोखरा नगरी, जिला रोहतक से आ के मुस्लिम रांघड़ों के डेरे पे अपना खेड़ा निडाना नगरी जिला जींद बसाया| गाँव के सबसे पुराने जोहड़ (तालाब) मंगोलवाला का नाम आप पर ही रखा गया है|

औसतन 24-25 साल में नई पीढ़ी जन्म ले लेती है, इस हिसाब से मेरी 15 पीढ़ियां निडाना नगरी में हो चुकी हैं, जिनका कुल काल निकाला जाए तो 375 साल बैठता है| मैं शादी करने में लेट हूँ और बीच में मेरे पिता भी तब हुए थे जब मेरे दादा तकरीबन 43 साल के थे| तो ऐसे कुल मिला के यह काल सटीक मेरे गाँव की स्थापना के समय से मेल खाता है|

It was just like coffee time in office and all revolved in mind and I just wrote, nothing special effort put!

जय दादा नगर खेड़ा! जय निडाना नगरी!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 8 June 2015

मुझे हिन्दू धर्म के ज्ञाता-प्रणेता एक बात बताएं!


जब रामायण काल में एक दलित महर्षि शम्बूक की सिर्फ इस बात पे क्योंकि उन्होंने शास्त्रार्थ किया, शास्त्रों का अध्ययन और शिष्यों व् जनता में प्रवचन किया, राजा राम द्वारा उनकी हत्या करवा दी जाती है| तो ऐसे में यह कैसे सम्भव हो गया कि एक दलित बाल्मीकि इतना शास्त्रार्थ भी कर गए कि वो ना सिर्फ महर्षि बन गए वरन उनकी लिखी पूरी रामायण को भी धर्माधीसों ने मान्यता दे डाली? और इससे भी बड़ी बात उनको रामायण लिखने भी दी गई, वो भी निर्विरोध|

और जब उस काल में एक दलित का शास्त्रार्थ करना, अध्यापक बनना वर्जित था, वो भी इस हद तक वर्जित कि ऐसा दुःसाहस करने पर सीधी राजा द्वारा उनकी हत्या करवा दी जाती थी तो फिर महर्षि बाल्मीकि कौन थे, क्या वो वाकई दलित थे?

Such loop-holes make me to consider these creations as mythology i.e. the work of fiction (imagination) only. Such work is similar to America’s Disney and France’s Asterix character work. Only difference is that American and French are honest and sincere in accepting and admitting the work of imagination as imagination, history as history and then religion as religion; whereas ours, I think in front of examples like above, I don’t need to comment further.

Though curious to get my query clarified if any religious guru could make me understand on such a blunderous contradiction cited above.

Jai Yoddheya! - Phool Malik

Sunday, 7 June 2015

क्या इतना ही काफी नहीं है समझने को?


ओ दाऊद, ओ शकील, ओ पास्कल, ओ राजन, ओ दुबई के शेख, ओ लादेन और ओ आईएसआईएस तुम तो इंसानों का अपहरण करते हो, यह देखो हमारे तेलंगाना के पुजारी, इन्होनें तो सीधा भगवान का ही अपहरण कर डाला| अपनी तनख्वाह और सुविधाओं की मांगे मनवाने को डाक्की के चेल्लों ने पूरे तेलंगाना के अढ़ाई हजार के करीब मंदिरों पर ही ताले जड़ के सीधा भगवान का ही अपहरण कर लिया| कुछ सीखो इनसे|

पता नहीं इनका भगवान कैसा है, दिन-रात उसकी आरती करते हैं, माला जपते हैं और उसके डायरेक्ट ए...जेंट कहलाते हैं और फिर भी अपनी सुविधाओं की भरपाई के लिए इंसानों के मुंह तकते हैं| वैसे जनता तो चंदा भी देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती|

बाकी जनता मुझे एक बात बताये, जिस भगवान का अपहरण हो जाए, जो अपनी कैद ना छुटा पाये, वो भला इंसान की क्या रक्षा करेगा? क्या इतना ही काफी नहीं है समझने को कि भगवान के नाम पे दुकानें चलती हैं, भगवान चलता तो हिम्मत थी क्या कि यह उसके आगे ताला जड़ देते?

इनको तो भगवान का मजाक बनाते हुए भी शर्म नहीं आती, फिर आम इंसान को तो कठपुतली बनाने से क्या बाज आएंगे| क्या इससे मर्यादित तरीका ही नहीं मिला मांगें मनवाने का?

वैसे पूरे विश्व के धार्मिक इतिहास में भी ऐसा पहली बार हुआ होगा कि भगवान का ही अपहरण हो गया| गॉड-अल्लाह-वाहेगुरु-धम्म-पैगंबर धन्य हो तुम और तुम्हारे लोग जो तुम्हारी इतनी मर्यादा तो रखते हैं कि तुम्हारा अपहरण नहीं करते| तुम्हारी शर्म और प्रतिष्ठा बनाये रखते हैं|

Phool Malik

Source: http://zeenews.india.com/news/telangana/telangana-priests-temple-employees-on-strike_1607414.html

आखिर आप अन्नदाता का कार्य करते हो, वह तुच्छ कैसे बताया जा सकता है?


जब एक ब्राह्मण कारोबार बदलता है तो वो कभी भी पंडिताई अथवा पुरोहिती को बुरा बताते हुए नहीं छोड़ता; वरन उसके प्रति सम्मान रखते हुए, उस कार्य की प्रतिष्ठा को बरकरार रखता है|

वैसे तो बनिया यानी व्यापारी वर्ग अपना कारोबार बदलता नहीं, परन्तु जब भी बदलता है तो उसकी भी यही कहानी रहती है कि वो उसके पुराने कार्य को सम्मान देते हुए उसकी प्रतिष्ठा को बरकरार रखता है|

ऐसे ही एक दलित उदाहरणतः एक मोची अगर मोची का कार्य छोड़ के नया पेशा करता है तो कभी भी मोची के कार्य की बुराई नहीं करता|

लेकिन जब एक किसान (मैं जाट किसान का बेटा हूँ तो मैंने जाट किसानों के यहाँ तो खूब देखा है) के बेटे को किसानी छोड़ कोई और कारोबार करने या सीखने की कहा जाता है तो हमेशा खेती के कार्य की बुराई करते हुए, उसकी कमिया-खामियां दर्शाते हुए उसको छुड़वाने या छोड़ने के लिए प्रेरित किया जाता है|

किसी भी कार्य को करने से पहले उसकी पूजा करने को कहा जाता है| जो कार्य करते हो उसमें आस्था और सम्मान रखना सबसे जरूरी बात बताई जाती है| लेकिन किसानों का अपने कार्य के प्रति यह कैसा रवैय्या है कि किसान अन्नदाता जैसे कार्य को भी छोटा कहने लगता है| वजह साफ़ है बाकी सब कार्यों में चाहे वो पुजारी का हो, व्यापारी का हो, मजदूरी का हो, या फेरीवाले का हो; हर कोई अपने सामान-उत्पाद-वस्तु की अपने मुताबिक कीमत पाता है| यानी जिस कीमत पे चाहे उसपे सामान बेचता है, इसलिए कभी भी इन कार्यों में आपको लागत-बचत की शिकायत नहीं मिलती| जितना लगन और शिद्दत से करोगे उतनी कमाई पाओगे| जबकि किसानी की एक तो सदियों पुरानी समस्या यह कीमत निर्धारण रही है जो हमेशा से गैर-किसान करते आये हैं, दूसरा इसकी वजह से फिर किसान का स्वार्थी रवैय्या हो जाता है और इसी रवैय्ये की वजह से गाँव से शहरों को पलायन कर जाने वाले किसानों के बच्चे गाँव की तरफ वापिस तो मुड़ते ही नहीं हैं, साथ ही किसानी के उनके पुरखों के धंधे के पक्ष में भी नहीं बोल पाते हैं|

इससे होता यह है यह कि किसान के यहां से जो जनरेशन पढ़-लिख के इस काबिल बनी कि वो किसानी को ना सही कम से कम उसकी संस्कृति को तो शहरों में संभाले रखे, वो यह भी नहीं कर पाती है| क्योंकि उससे खेती से दूर होने की वजह स्वाभिमानी नहीं अपितु हीनकारी यानी हीन भावना वाली बताई जाती है| और इसी हीन भावना की वजह से किसान वर्ग आज भी झंझावतों में उलझा डोल रहा है|

किसान वर्ग को अपने बच्चों को खेती से बाहर निकलने की वजह बताने के तरीके बदलने होंगे, कृषि के कार्य की मर्यादा उनके आगे बनाये रखनी होगी| आखिर आप अन्नदाता का कार्य करते हो, वह तुच्छ कैसे बताया जा सकता है?

इस मुद्दे पर विस्तार से कभी फुरसत में लिखूंगा, फ़िलहाल इतना जान पाया हूँ कि किसान को यह अपनी औलादों से पेशे बदलवाने के तौर-तरीके बदल के, खेती की प्रतिष्ठा कायम रखनी होगी, और इसका सम्मान बनाये रखना होगा| हो सके तो किसान अब अपनी फसलों के मूल्य निर्धारण का अधिकार कैसे लेवें इसपे मंथन करने शुरू कर दें, जो कि इन सारी कार्य-संबंधी, संस्कृति के संकट संबंधी समस्याओं की जड़ है|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 5 June 2015

धर्म के नाम पर विधवा-आश्रमों में फेंक दी जाने वाली विधवाओं का पालनहार कौन?

मेरा बस चले तो मैं खाम्खा के दंगों में इस्तेमाल किये जाने वाले नादान जाट युथ के गुस्से का मुख इन विधवा आश्रमों को तोड़ने की ओर मोड़ दूँ| जिनमें हजारों-हजार विधवाएं धर्म के नाम पर ढोंगभरे नारकीय जीवन की वेदना पर रेंगने को पिछले कर्मों के पाप-कर्म भोगने के नाम पर झोंकी गई हैं|

वाराणसी में 38000 विधवाएं धर्म की क्रूरता का शिकार हैं| औसतन 3000 वृन्दावन में रहती हैं| इसके अलावा मथुरा, गोवर्धन, बरसाना, राधाकुंड, गोकुल और अब तो सुना है करनाल में भी विधवा आश्रम खुल गया है| धुर हरिद्वार से ले हुगली तक तो गंगा के किनारे-किनारे लगभग हर शहर खासकर धर्मनगरी में तो खैर विधवा-आश्रमों की पूरी श्रृंखला ही है|

जहाँ एक तरफ जाटों ने सदियों से अपने यहां विधवाओं को पुनर्विवाह की स्वेच्छा दे रखी है, वहीं जब जाटबाहुल्य खापलैंड पर इन विधवा आश्रमों की सुनता हूँ तो खून दिमाग में चढ़ने लगता है| मन उद्वेलित हो उठता है कि अभी जाऊं और जैसे दादावीर हरफूल जाट जुलानी वाले गोहत्थों के बाड़े तुड़वाते थे, ऐसे ही इन विधवाओं के बाड़ों को तोड़, इन सब औरतों को मुक्त करवा, इनके पति के घरों में इनके प्रॉपर्टी राइट्स दिलवा दूँ| और जैसे अंग्रेजों ने सति-प्रथा के खिलाफ कानून बना के रोक लगाई, ऐसे ही सरकार से कानून बनवा दूँ कि जो भी विधवा को आश्रम भेजेगा उसको सीधा कालापानी भेजेंगे|

अंदर कहीं टीस है कि जिन जाटों और खापों की वजह से धर्म की क्रूरतम प्रथाएं जैसे कि नवजन्मा बच्ची को दूध के कड़ाहों में झोंकने की प्रथा (याद रहे यह प्रथा सर्वप्रथम राजस्थान से शुरू हुई थी, 'ना आना लाडो इस देश' टीवी सीरियल में बदनाम करने के मकसद से दिखाई गई जाटलैंड से नहीं), देवदासी, सतीप्रथा और विधवा आश्रम पलायन इनकी लाख कोशिशों के बावजूद भी जाटलैंड अथवा खापलैंड पर उस स्तर तक पैर नहीं पसार पाये, जिस तक कि आज इक्कीसवीं सदी में पहुंच जाने पर भी यह देश के अन्य कोनों में मौजूद हैं; उन्हीं की धरती पर इन चीजों के पैर-पसरने लगे हैं|

जाटों की ऐसी ही मानवधर्म की स्वछंद पालना के समक्ष कई बार वेद-पुराणों की परिभाषानुसार निर्धारित चार वर्णों के अतिरिक्त पांचवा वर्ण कहा गया| यहाँ जोड़ता चलूँ कि वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने आर.एस.एस. द्वारा हरयाणा को अपनी प्रैक्टिकल लैब बनाने पे हरयाणा को land of reckless people (स्वछंद मति) का कहा तो उनका इशारा भी इसी स्वछँदता की ओर था| लेकिन उन्हीं जाटों की नजर तले आज विधवा आश्रम बढ़ते जा रहे हैं और यह नादान उलझे हुए गैर-जरूरी दंगों और आडंबरों में|

मीडिया भले ही जाटों को लाख औरत और दलित विरोधी बता ले, परन्तु अगर कभी किसी दलित की बेटी खापलैंड पर देवदासी नहीं बन पाई तो वो इन्हीं जाटों के इस स्वछंद साये की वजह से| कोई जाटनी तो क्या यहां तक कि खापलैंड की गैर-जाटनी भी विधवा होने पे विधवा आश्रम नहीं जा पाई तो इन्हीं जाटों की मानवधर्म पालना की प्रेरणा और प्रभाव से| काश जाट और इनका युवा अपने इस मानवीय धर्म को पहचान के औरतों के प्रति इस क्रूरतम सोच वाले तबके के चंगुल से निकल के अपनी ऊर्जा को जाटलैंड पर पसरते जा रहे इन विधवा आश्रमों को उखाड़ फेंकने में लगाए|

लेकिन इन मुद्दों पर आज जो उदासीनता पसरी पड़ी है उसी से अंदाजा लगा सकता हूँ कि जाट-समाज की स्वछँदता को दिन-प्रतिदिन घुण लगता जा रहा है| तभी तो छद्मज्ञानी लुटेरे धर्म की आड़ में अपने प्रवचन और पाखंड की दुकानें बढ़ाते ही जा रहे हैं|

कहीं जाट को जाति की बहस में उलझा रखा है तो कहीं वर्ण की तो कहीं धर्म की| और जिसने औरतों के लिए ऐसी क्रूर प्रथा और रूढ़ियाँ बनाई वो समाज में जाति की उंचता और नीचता के सर्टिफिकेट बाँटते हैं| इसलिए इन बातों पे बहस करने से पहले मैं यह सोचता हूँ कि यह जाति-वर्ण-धर्म के प्रति कट्टरता के सर्टिफिकेट ले भी लूँगा तो क्या समाज की विधवा औरतों को विधवा आश्रमों में भेजने के लिए, अथवा नवजन्मा बच्चियों को दूध के कड़ाहों में झोंकने के लिए अथवा दलितों की बेटियों को देवदासियां बनवाने में सहयोग देने के लिए? मुझे लगता है कि इंसान को इंसान की सोच का स्तर और मुद्दा देख के बहसों में उलझना चाहिए|

धर्मभीरु सियार आन चढ़े हैं धरती पे तेरी ओ जाट, सोच-समझ के न्याय करवाना,
पुरखों ने तेरे, नारी को सति-देवदासी-विधवा ना बनने दिया, प्रण निष्ठां से पुगाना|
जाट-देवता यूँ ही ना कहलवाया, ऐसे भीरुओं के मुंह मोड़े तब यह सम्मान कमाया,
बहुत हुआ शरणार्थियों की शर्म में, स्व-संस्कृति भूलने का आत्मघाती अफ़साना||
धार ले धरा के धर्म को अब, तुझे मंदिर-मस्जिद नहीं, मानवता को है बचाना||

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Source:
1) वृन्दावन – स्वर्ग की सीढ़ियों पर नरक की परछाइयाँ - www.hastakshep.com/hindi-news/khoj-khabar/2015/06/02/वृन्दावन-स्वर्ग-की-सीढ़ि?
2) वाराणसी में रह रहीं 38 हज़ार विधवाओं की ज़िंदगी में बदलाव की उम्मीद - http://khabar.ndtv.com/video/show/news/widows-of-varanasi-369201

Wednesday, 3 June 2015

क्या कभी सुना है कि किसी भारतीय रियासत का खजांची एक दलित हुआ हो?


जी हाँ, जहाँ दूसरी जातियों के राजा-रजवाड़े वर्ण व् जातिव्यवस्था के परिचायक धर्माधीसों के प्रभाव के चलते ऐसा करने की कभी सोच भी नहीं सके होंगे या सकते थे, वहीँ विश्वप्रसिद्ध भारतवर्ष की एक मात्र अजेय-अपराजेय रियासत भरतपुर ने यह साहस किया था और एक दलित को अपने राज्य के खजाने की देखरेख का मुखिया बनाया था|

धर्मनिरपेक्षता व् जातिनिरपेक्षता का यह अदम्य उदाहरण एशिया के ओडीसियस व् जाटों के प्लूटो कहे जाने वाले आजीवन अपराजित अमर प्रतापी महाराजा सूरजमल सिनसिनवार जी ने अपने राज्य में एक गुज्जर को सेनापति, एक दलित को खजांची, जाटों व् अन्यों को राज-सलाहकार समिति में रख के स्थापित किया था|

वहीँ मुग़लों से आजीवन लोहा लेने व् उनसे आजीवन अपराजित रहने पर भी, ‘जाट कौम के इंसानियत धर्म’ को सब मानव स्थापित धर्मों से सर्वोपरि रखते हुए स्व-राज्य में मंदिरों के साथ-साथ स्व-राजधानी में अपनी देखरेख में मस्जिद का निर्माण भी करवा अपनी धार्मिक सहिष्णुता का भी परिचय दिया था| और सिद्धांत स्थापित किया था कि किसी से आपका राजनैतिक, सामरिक, आर्थिक झगड़ा अथवा मतभेद हो सकता है, परन्तु धार्मिक नहीं|

क्या पुरखे थे मेरे, क्या अदम्यता थी, क्या साहस था, क्या शौर्य था और क्या न्यायकारी थे; और यही जाट धर्म (जाट को जाति ना बोल के इसीलिए धर्म बोलता हूँ क्योंकि इसने इंसान के बनाये धर्मों से भी सदा इंसानियत के धर्म को सर्वोपरि रखा) की सबसे बड़ी पूंजी रही है| जो दूरदर्शी, सच्चा और पहुंचा हुआ जाट हुआ, उसने इंसानियत धर्म से बड़ा ना कोई धर्म पाला और ना ही सत्ता| और इसीलिए ऋषियों-साधुओं के मुख से 'जाट-देवता' कहलाया और कहलाया कि, 'अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, और पढ़ा हुआ जाट खुदा जैसा|' जाट अगर रूढ़िवादी जातिव्यवस्था और वर्णव्यवस्था के बहकावे में ना पड़े तो इससे बड़ा मानवीय धर्म रक्षक व् पालक कोई नहीं|

जाट इतिहास बताता है कि जाट ने इंसानियत के आगे ना किसी धर्मगुरु की सुनी ना राजगुरु की और ना सत्ता अथवा शक्ति की| फिर भले ही इस पालना हेतु लाख अपनों के ही हमले, उजड़ने, तान्ने व् बिखरने सहे हों| और यह सिलसिला धुर जाट के आदिकाल से चल जाट महाराजा हर्षवर्धन बैंस से होते हुए खापों और जाट शासकों से होता हुआ, आधुनिक युग के जाट राजनीतिज्ञों जैसे कि सर छोटूराम, सर फजले हुसैन, सर हिज्र खाँ तिवाना, चौधरी चरण सिंह, सरदार प्रताप सिंह कैरों, ताऊ देवीलाल और बाबा महेंद्र सिंह टिकैत तक अविरल चलता आया|

हाँ बाबा टिकैत के जाने के बाद से समाज इस परम्परा का अपना नया उत्तराधिकारी ढूंढ रहा है| ऐसा उत्तराधिकारी जो सर्व-समाज को इन नए-नए उभरे तथाकथित धर्म और राष्ट्र के स्वघोषित राष्ट्रवादियों के गिद्दी इरादों से बचा; वर्ण, जाति, नश्ल व् धार्मिक द्वेष से निकाल इंसानी धर्महीनता पर ला, इंसानी धर्म पे चला सके|

जिससे कि फिर कोई दादावीर धूला भंगी जी तैमूरलंगी जंग में सर्वखाप-सेना का उपसेनापति बन सके, फिर कोई दादावीर मोहर सिंह बाल्मीकि जी 1529 में चित्तौड़गढ़ की रक्षा हेतु सर्वखाप-सेना का सहायक सेनापति बन राणा सांगा की मदद को सर्वखाप-सेना ले जावे, अथवा फिर कोई दादावीर मातेन बाल्मीकि जी की तरह सर्वखाप आर्मी का राष्ट्रीय मल्लयुद्ध प्रशिक्षक नियुक्त होवे| कम से कम मेरे जैसे कौम के जागरूक तो ऐडी उठा-उठा भविष्य के गर्भ में झाँक बाट जोह रहे हैं कि कब फिर से कोई बाबा टिकैत के स्टेज से 'अल्लाह-हू-अकबर' नारा गूंजे और भीड़ 'हर-हर महादेव' दहाड़े; स्टेज से हल्कारा आवे 'हर-हर-महादेव' तो भीड़ 'अल्लाह-हू-अकबर' से आस्मां गूंजा दे|

मेरे उन तेजस्वी-ओजस्वी पुरोधाओं की ओर देखता हूँ तो आज के समाज की हालत देखकर सिहर जाता हूँ| कहाँ तो वो लोग थे जो दुश्मन को भी इस तरह खुद में रमा लेते थे कि अल्लाह बोलो या महादेव कोई फर्क ही नहीं पड़ता था और कहाँ यह आज वाले कि वो उसकी मस्जिद की अरदास सुनके भड़के तो वो उसके मंदिर की आरती पे बिफरे| आखिर राष्ट्रवादिता यह तो नहीं हो सकती जो अपनी ही जनता में अविश्वास, अराजकता, आंतक, घृणा व् द्वेष के जहर डाल उसको ना सिर्फ धार्मिक वरन जातीय मतभेद की भट्टी में झोंकवा दे?

दलित हो या जाट, मुस्लिम हो या हिन्दू, दोनों एक बार खाप और जाट के साथ आपके इतिहास में झाँक के देखें तो पाएंगे कि इतनी गलबहियां डाल के रणभूमियों से ले रैलियों में वीर-रस और आल्हे दूसरी कौमों ने ऐसे आपस में मिलके शायद ही कभी गाये हों, जैसे आप लोगों ने गा रखे हैं| इसलिए:

मत बनने दो नए नागौर और अटाली,
दे मारो राष्ट्रवादियों के सर पे टाल्ली|
यह इतिहास ले जाओ बीच अपनों के,
वर्ना धर्म के अंधे, घरों बुला दें रुदाली||


अंत में स्टार न्यूज़ का कोटि-कोटि धन्यवाद! आपने पहली बार मीडिया में भारत की सबसे गौरवशाली रियासत बारे प्रशंसनीय डाक्यूमेंट्री पेश करी है| और सही मायनों में यही डॉक्यूमेंट्री इस लेख की प्रेरणा बनी, आप भी एक बार जरूर देखें|

Link: https://www.youtube.com/watch?v=sfyFIK_D2hs&sns=fb

लेख-सार: किसी से आपका राजनैतिक, सामरिक, आर्थिक झगड़ा अथवा मतभेद हो सकता है, परन्तु जातीय व् धार्मिक नहीं|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Video of Star News Report:

 

जितनी संस्कृति थम टूरिज्म में देखो, इतनी तो हम मामा के हांड आने में छान-आवां!


एक भाई बोला मलिक साहब, ये जाटों का टूरिज्म में इंटरेस्ट ना होता क्या?

मैं बोल्या मखा बावले, टूरिज्म की जरूरत उनको पड़ा करै जो गाम की गाम या घर की घर में रिश्ते करते हों| पडोसी को पडोसी और भाई को भाई ना जानता हो| मखा आड़े तो रिश्ता ही एवरेज 60-100 किलोमीटर तैं घाट नजदीक ना करते| तो टूरिज्म की हमने के जरूत, आड़े तो मामा के जा के आना भी टूरिज्म होवै|

ना मलिक साहब, फेर भी इतिहास और संस्कृति का ज्ञान तो घूमने से ही होवै|

मखा सुन, मेरे बाबू का ब्याह ठेठ बागड़ में हो रखा, और हम खुद बाजैं खादर के| मेरे गाम और मेरे ननिहाल के बीच तीन शहर और 27 गाम पड़ें; चार रूट बनें जाने के; जोणसे से मर्जी आओ-जाओ| बता तेरे गाम की गाम या घर की घर में रिश्ता करने वालों को होती है क्या इतने शहरों और गाँवों की जानकारी, वो भी सिर्फ एक रिश्ते के माध्यम से?

मखा ऐसा है, इतना तो व्यापारी व्यापार के चक्कर में ना हांडता और साधू साध्पने में, जितना हम रिश्ते-सगार के कारण हांड लेवें सैं| तो और इसतैं फ़ालतू टूरिज्म के इब तू हमनें घुमन्तु कबीले और खानाबदोश बना के छोड़ेगा?

और मखा बात सुन, थाईलैंड-मलेशिया की जानकारी से पहले जरूरी होवै अपने शहर-गाम-प्रदेश की जानकारी; और म्हारे बुजुर्गों ने इस एंगल को म्हारे रिश्ता-सिस्टम में इसी वास्ते इंड्यूस कर रखा, वो भी सदियों से|

और मखा जा के देख हरयाणा में, सिर्फ जाट ही नहीं, किसी भी जाति का नेटिव, अनपढ़ से अनपढ़ हरयाणवी भी, राजनीति से ले आधी से ज्यादा स्टेट की जानकारी तो म्हारे इस रिश्ता सिस्टम के आउटपुट के तहत ही पा लेता है| इसलिए म्हारे आले अखबार से ज्यादा खुद चलते-फिरते अखबार होवें| गाम की बुग्गी-बुर्जी पे बैठा अनपढ़ भी तेरे से ज्यादा देश-प्रदेश की राजनीति और संस्कृति का ज्ञान सुना देगा तुझे|

और हरयाणा वालों की हाजिर-जवाबी का राज सुनना चाहता हो तो सुन, उसका राज भी यह ऐसे ही रीती-रिवाज हैं हमारे| क्योंकि ज्ञान के लिए घूमना एक अभिन्न आवश्यकता है और वो म्हारे पुरखों ने हमारे रिश्ता सिस्टम में इंट्रोड्यूस करके मेट दी थी, सदियों पहले ही|

इब बाकी वही बात तेरे थाईलैंड तो फेर तू जाने ही है लोग वहाँ संस्कृति देखने कम और संस्कृति फैलाने ज्यादा जावें| बाकी शिक्षा-रोजगार के लिए तो जो जिधर जा रहा वो धरा के उस कोने में जा ही रहा| बेमतलब हमनें टाकणे तुड़ाने सीखे ना और ना म्हारी संस्कृति ने सिखाये|

हम ना बोलें तो ये सच्ची में ही अपने को छद्म ज्ञानी समझ लेवें हैं|

जय योद्धेय! - फूल मलिक