Sunday, 14 February 2016

जयचंद को अक्ल नहीं थी या स्वयंवर में चाचा-ताऊ को माला पहनाई जा सकती है?

पृथ्वीराज चौहान और जयचंद राठौड़ सगी बहनों के लड़के थे यानी कजिन ब्रदर यानी सगी मौसियों के लड़के, पहली बात|

संयोगिता, जयचंद की बेटी थी और इस नाते पृथ्वीराज चौहान संयोगिता का चाचा हुआ, दूसरी बात|

जब संयोगिता का स्वयंवर रचा गया और जयचंद को पता था कि उसकी बेटी पथ भटक चुकी है तो उसने स्वयंवर में लड़की के चाचा का पुतला यानी मूर्ती क्यों खड़ी करवाई, तीसरी बात|

जयचंद की नैतिकता क्या भैंस चरने गई हुई थी या वहाँ बैठे ब्राह्मणों-पुरोहितों में से किसी ने उसको सलाह नहीं दी कि लड़की का चाचा स्वयंवर में कैसे भाग ले सकता है जो उसकी मूर्ती खड़ी की जा रही है; या फिर इन्होनें स्वयंवर के नियम ही ऐसे बनाये हुए थे कि चाचा-ताऊ भी स्वयंवर में भाग ले सकते थे; या फिर ब्राह्मण-पुरोहित पृथ्वीराज और जयचंद के मजे लेने के मूड में थे?

पृथ्वीराज तो एक राजा होते हुए अच्छे-बुरे, ऊँच-नीच की अक्ल होते हुए भी भतीजी पे जो डूबा सो डूबा, पर यह जयचंद को भी कहाँ अक्ल थी, जो उसका पुतला ही खड़ा करवा दिया स्वयंवर में?
सच्ची कहूँ, मुझे तो यह किस्सा भी रामायण और महाभारत की तरह कोरी कल्पना लगता है| या पृथ्वीराज चौहान के चरित्र को दागदार करने की कथाकारों की एक साजिश, भला इतना समझदार और उंच-नीच का अंतर समझने वाला राजा, अपनी भतीजी पे डूबेगा? एक पल को कोई राह चलता सरफिरा ऐसी डुबाढाणी कर जावे तो मान भी लूँ, परन्तु एक राजा होते हुए पृथ्वीराज को इतनी अक्ल नहीं रही होगी, मुझे यकीन नहीं होता|

और अगर पृथ्वीराज ने फिर भी ऐसा किया तो भला हो पृथ्वीराज के शिक्षकों का जिन्होनें जब हिन्दू समाज के विवाह के रीति-रिवाज पृथ्वीराज को पढ़ाएं होंगे तो क्या आँख मूँद के सो गए थे, कि जो इतना भी नहीं बता पाये कि पिता और माता के वंश, परिवार की लड़की हमारे यहां बहन-भतीजी-बेटी मानी जाती है? उनसे इश्क नहीं फरमाये जाया करते, या तो राखियां बंधवाई जाती हैं या सर पर हाथ रख के आशीर्वाद दिए जाते हैं|

क्या बेखलखाना है ये, जब भी इस किस्से के बारे सोचता हूँ दिमाग घूम जाता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

हिमाचल के गवर्नर आचार्य देवव्रत जी 'आर्य-समाज में एक हांडी में दो पेट' क्यों?


आर्य-समाज की उपलब्धियों, आकाँक्षाओं व् प्रतिबद्धताओं को दोहराने हेतु "DAV संस्थाओं" (आर्य-समाज का शहरी वर्जन) द्वारा दिल्ली में एक विशाल कार्यक्रम आयोजित किया गया| इसमें आचार्य देवव्रत जिन्होनें ताउम्र आर्य-समाज के ग्रामीण वर्जन के गुरुकुलों में काम किया, वो जब प्रधानमंत्री के बराबर वाली कुर्सी पर इस DAV के कार्यक्रम में बैठे दिखे तो सवाल उठा और मन किया कि इनसे पूछूं:

1) आपने कभी भी आर्य-समाज के गुरुकुलों में DAV की तर्ज पर शिक्षा पद्द्ति क्यों नहीं लागू की? यह एक हांडी में दो पेट क्यों रहने दिए, इसको बदलने हेतु काम क्यों नहीं किया?

2) DAV में संस्कृत पढ़ना प्राथमिकता नहीं, अपितु अंग्रेजी-हिंदी पढ़ना प्राथमिकता है| यह प्राथमिकता गुरुकुलों में क्यों नहीं लागू करवाई आपने कभी? और यह उन वजहों में से एक बहुत बड़ी वजह है कि इन गुरुकुलों से निकलने वाले बच्चे अधिकतर शास्त्री बनने तक सिमित रह जाते हैं, जबकि DAV वालों की तरह बड़े-बड़े अधिकारी, अफसर या प्रोफेसर बनते बहुत कम देखे हैं| आखिर यह एक हांडी में दो पेट क्यों?

3) आर्यसमाज की गीता यानी 'सत्यार्थ प्रकाश' लड़की के सानिध्य को लड़के के लिए 'आग में घी' के समान बताती है, इसलिए वकालत करती है कि दोनों को अलग-अलग शिक्षा दी जावे, सहशिक्षा ना दी जावे? तो सवाल उठता है कि यह नियम गुरुकुलों पर ही क्यों लगाया गया, इन DAV स्कूलों और संस्थाओं में तो हर जगह सहशिक्षा यानी co-education है? आखिर यह एक ही विचारधारा रुपी हांडी में दो पेट कैसे?

हालाँकि आप यह मत समझियेगा कि मैं कोई जन्मजात आर्य-समाज का आलोचक हूँ, नहीं जी मैंने तो बहुत आर्य-समाजी मेलों में बढ़-चढ़ के भाग लिया है| बचपन में आर्य-समाज के प्रचारकों को खुद बुला के लाया करते थे, हमारे गली-मोहल्ले में प्रचार करने हेतु|

ऐसा भी नहीं है कि मैं गाँव में पढ़ा और फिर बाद में अक्ल आई, पहली से ले दसवीं तक आरएसएस के स्कूल में ही पढ़ा हूँ; और तभी से यह फर्क समझने लग गया था| कि जब आर्य समाज एक तो इसकी शिक्षण पद्द्तियां दो क्यों? गाँवों के बच्चों को गंवार रखने के लिए गुरुकुल और शहरों वालों को एडवांस बनाने के लिए DAV?

इन सवालों को उठाते हुए यह भी मत समझियेगा कि आज मेरी आस्था नहीं आर्यसमाज में; वो आज भी है| परन्तु इन सवालों का तो अब हल चाहिए ही चाहिए| आखिर यह एक हांडी में दो पेट क्यों?

मेरे साथी या आलोचक भी इन बातों पर गौर फरमावें कि एक जमाने में जो संस्कृत मनुवादी विचारधारा के लोग पिछड़े-शूद्र के लिए पढ़ना भी पाप समझते थे, संस्कृत के श्लोक बोलने पे उनकी जिह्वा कटवा दिया करते थे, सुनने पर उनके कानों में तेल डलवा दिया करते थे, तो अचानक इतनी मेहरबानी कैसे हुई कि यह संस्कृत सबके लिए खोल दी गई?

कहीं यह इसलिए तो नहीं किया गया कि इन गंवारों ने अगर अंग्रेजी पढ़ ली और उससे प्रेम हो गया तो तुम इनके दिमागों को संकुचित और सिमित कैसे रख पाओगे? अंग्रेजों को इनका दुश्मन कैसे दिखा पाओगे? इसलिए इन हर इस उस वक्त हिन्दू धर्म की बुराई करने वालों को तो गुरुकुलों के जरिये इन संस्कृत के श्लोकों को समझने में उलझा दो और खुद DAV के जरिये अंग्रेजी पढ़ के इनसे आगे रहो, इनको मुठ्ठी में रखो? मुझे तो आर्य-समाज के यह 'एक हांडी में दो पेट' गुरुकुल वालों के लिए किसी सजा से कम नहीं लगते|

अत: आपसे मेरी प्रार्थना है और क्योंकि आर्य समाज के संस्थापक दयानंद जी का भी यही मानना था कि मेरे स्थापित सिद्धांतों में समय के अनुसार परिवर्तन करते रहना होगा| चलो संस्थापक महोदय से जो गलती हुई सो हुई, परन्तु अब आपसे अनुरोध है कि इसको सुधरवाने हेतु कदम उठवाए जावें और DAV हो या गुरुकुल दोनों जगह सामान शिक्षा प्रणाली लागू करवाई जावे|

गुरुकुलों में पढ़ने वाले विद्यार्थी व् शिक्षक कृपया इसके ऊपर विचारना अवश्य प्रारम्भ करें| क्योंकि आज का ग्रामीण युवा और सोच अब इन चीजों को पकड़ने लगी है और आने वाले वक्त में आर्य-समाज में यह समानता लाने हेतु एक बड़ी आवाज उठेगी|

विशेष: मेरी कोशिश है कि मैं इन सवालों को इन जनाब तक पहुँचाऊँ| इनको देवव्रत जी तक पहुंचाने वाले का धन्यवाद| अरे हाँ देवव्रत ही क्यों बाबा रामदेव तक भी पहुँचाया जाए इन सवालों को|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 12 February 2016

इंसान को अछूत और गुलाम किया है, कैसा ये कर्म है, कैसा ये धर्म है!

मैं इस वीडियो को इसलिए साझा कर रहा हूँ ताकि जैसे दलित आज भी बाबा आंबेडकर और महात्मा फुले को अपना प्रेरणा स्त्रोत, दलित उत्थान और प्रगति की मंजिल ले के चल रहे हैं; वैसे ही किसान-जमींदार वर्ग भी सर छोटूराम और चौधरी चरण सिंह को ना भूलें|

हालाँकि मैं अब अपेक्षा करने लगा हूँ कि दलित संगठनों को सर छोटूराम को भी बाबा आंबेडकर और महात्मा फुले के साथ रखना बनता है क्योंकि उन्होंने जितने कार्य और कानून किसानों के लिए बनवाए, उतने ही दलितों के लिए भी बनवाए| यहां तक कि सर छोटूराम जी के नाम के साथ जो "दीनबंधु" सम्मान लगा हुआ है वह दलितों ने ही उनको उनके हितों के कार्य करने के सम्मान स्वरूप दिया था|

यूनियनिस्ट मिशन इस बात पर कार्य कर रहा है और काफी दलित संगठनों में अब सर छोटूराम जी का नाम भी बाबा आंबेडकर और महात्मा फुले के साथ लिया जाने लगा है, परन्तु अभी इस वीडियो जैसे कार्यक्रमों और गानों में इनका नाम आना बाकी रहता है|

मेरे लिए यह होना इसलिए अत्यंत आवश्यक है ताकि जब मंडी-फंडी जाटों को दलितों का दुश्मन बतावे तो दलित भाई याद रखें कि सर छोटूराम और चौधरी चरण सिंह जैसे ऐसे जाट देवता भी हुए हैं जिन्होनें जितने किसानों के कार्य किये, उतने ही दलितों के भी किये| इसलिए जाट उनके दुश्मन कैसे हो सकते हैं| अपितु उनके असली दुश्मन तो यह मंडी-फंडी ही हैं जो जाट को ढाल की भांति इस्तेमाल करके दलितों के आगे अड़ा देते हैं और खुद असली दुश्मन होते हुए साफ़-सुथरे बन जाते हैं|

सुनिए बहन शीतल साठे के इन धरातलीय सच्चाई को उधेड़ते स्वरों को - https://www.youtube.com/watch?v=CgDC2tFr3oM

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

वामपंथ हरयाणा में ज्यादा कामयाब क्यों नहीं हुआ?

क्योंकि इनके बंगाली आइडॉलॉजिकल गुरुज ने इनको हरयाणा में भी उसी प्रकार का सामंतवाद दिखाना चाहा जैसा बंगाल में था या अभी भी है| जब यह बंगाली वामपंथी नए-नए हरयाणा-पंजाब की धरती पर आये तो यहां के लगभग हर दूसरे किसान-जमींदार की बढ़िया-बढ़िया हवेलियां देखी जो कि बंगाल के गाँवों में इक्कादुक्का होती थी| तो इन्होनें सोचा कि हो ना हो यहां भी यह हवेलियां उसी तरह दलित-मजदूरों पर जुल्म करके बनाई गई होंगी, जैसे कि बंगाल के जमींदार करते हैं|

र खुद हरयाणवी वामपंथी, इनको गॉड्लाइक मानने के प्रभाव में यह ही नहीं समझा पाये कि यह सर छोटूराम की धरती है, यहां बंगाल की तरह जमींदार खेत के किनारे खड़ा हो के बंधुआ मजदूरी नहीं करवाता, अपितु बाकायदा मजदूर के साथ खुद भी खेत में कस्सी-क्सोला ले के खटता है और सीरी-साझी को बंधुआ नहीं अपितु बाकायदा एक साल के लिखित बही-खातों वाले कॉन्ट्रैक्ट पे रखता है|

यह बताने में फ़ैल रहे कि हरयाणा के मजदूर-दलित की वो समस्याएं नहीं है जो कि बंगाल वालों की हैं| वामपंथी विचारधारा तो ली, परन्तु बंगालियों की| सर छोटूराम वाली ले के चलते तो बहुत आगे पहुंच जाते| पर सर छोटूराम ठहरे जाट, उनको बंगाली स्वर्ण हरयाणवी वामपंथियों को कहाँ आइडियल मानने देते|

उल्टे, हरयाणा में जमने के चक्कर में यहां कि सभ्यता-संस्कृति-खाप सबकी छवि का मलियामेट करने में कोई कोर-कस्र नहीं छोड़ी| और इसीलिए यह लोग कभी भी हरयाणा में पैर नहीं जमा पाये|

आज जेएनयू के बहाने जब देखता हूँ कि अब यह लोग इनके एक्सट्रीम अपोजिट राइट वालों यानी आरएसएस-बीजेपी के सीधे निशाने पर आ गए हैं तो फीलिंग आ रही है कि "अब आया ऊँट, पहाड़ तले|"

इन्होनें अब तक सेंट्रल-लिबरल थ्योरी पे चलने वाले जाट-खाप के लत्ते उतारे थे, पता तो अब लगेगा इनको जब सुरड़ाई हुई सूरी की भांति सब कुछ नाक पे धर के चलने वाले एक्सट्रीम राइट्स से मोर्चा लेंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 11 February 2016

ये घटनाएँ मात्र संयोगवश नहीं हुई थी, ये बहुत कुछ कहती हैं!

1) ज्योतिबा फुले ने जब 1873 में सत्य का शोधन करने निकले तो विवेकानन्द ने 1875 में गाड़ी वेदों की ओर क्यों मोड़ी? राजकुमार सैनी से कोई पूछे इसपे, क्योंकि वो आजकल इन्हीं की पीपनी बनके जो बज रहे हैं!

2) बाबा साहब आंबेडकर ने 09 मार्च 1924 को बहिष्कृत हितकारिणी सभा बनाई तो सावरकर ने 1925 में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का गठन क्यों हुआ?

3) जब 1860-70 के दशकों में जाट एकमुश्त होकर सिख धर्म में जा रहे थे तो दयानंद सरस्वती ने 1875 में आर्य-समाज की स्थापना कर जाटों को 'सत्यार्थ प्रकाश' में 'जाट जी' क्यों लिखना पड़ा? क्या इससे पहले जाटों को नहीं पता था कि वो आर्य हैं? उनको पता था, फिर क्यों किया गया यह ड्रामा?
 

4) 1920 में चलाया गया असहयोग आंदोलन सर छोटूराम द्वारा सवाल उठाने पर क्यों 'चोरा-चोरी' का बहाना करके गांधी ने बंद किया? क्योंकि इनके आंदोलन की पोल-पट्टी खोल के रख दी थी सर छोटूराम ने| उन्होंने गांधी से आह्वान करवाया था कि असहयोग सिर्फ किसान-दलित-पिछड़ा ही क्यों करे, व्यापारी-पुजारी भी करे|
 

5) जिस साइमन कमीशन का महाराष्ट्र से बाबा साहेब आंबेडकर और पंजाब से सर छोटूराम ने स्वागत किया, उसका लाला लाजपत राय द्वारा विरोध करना संयोगमात्र नहीं था, इनको खतरा था कि सायमन कमीशन दलित-किसान-पिछड़े को जो हक देने आ रहा है, इससे इनकी जमानों से चली आ रही खुली लूटों और मनमानियों पर लगाम लगेगी।

क्या आपको अब भी समझ नहीं आ रहा है कि जो ड्रामे रच के यह तथाकथित राष्ट्रवादी आपका ध्यान भटकाना चाहते हैं वो कितने औचित्यहीन हैं एक किसान-दलित-पिछड़े के लिए? उस दौर के लोगों ने भी समझा, आप भी समझिये| जब जब आप रोहित -वेमुला जैसे मुद्दों पर पोलिटिकली और सोशली एक होंगे तब तब वैसे वैसे काउंटर अटैक होगा, पढ़ते रहिये उनको जो आपको समझाने, आपकी आँखे खोलने के लिए फेसबुक में दिन-रात एक किये हुए है और इन ऊपर बताये तर्कों पर तोलते रहिये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

हरयाणा के वीरों ने दिल्ली की सीम बचाई थी!

1857 की क्रांति के अमरप्रतापी सर्वखाप यौद्धेय दादावीर बाबा शाहमल तोमर जी महाराज की जन्म-जयंती 11 फरवरी 1797 पर विशेष!

1857 की क्रांति का जब-जब जिक्र होता है तो हरयाणा (उस वक्त वर्तमान हरयाणा, दिल्ली, उत्तराखंड और वेस्ट यूपी एक ही भूभाग होता था और हरयाणा कहलाता था) से दो यौद्धेयों का खास जिक्र आता है एक बल्लबगढ़ नरेश राजा नाहर सिंह और दूसरे दादावीर बाबा शाहमल तोमर जी महाराज| जहां दक्षिण-पश्चिमी छोर से बल्लबगढ़ नरेश ने अंग्रेजों को संधि हेतु सफेद झंडे उठवाए थे, वहीँ उत्तरी-पूर्वी छोर पर बाबा शाहमल जी ने अंग्रेजों को नाकों चने चबवाए थे और इस प्रकार हरयाणे के वीरों ने दिल्ली की सीम बचाई थी| वो तो पंडित नेहरू के दादा गंगाधर कौल जैसे अंग्रेजों के मुखबिर ना होते तो अंग्रेज कभी दिल्ली ना ले पाते|

आज बाबा जी की जन्म-जयंती है| उनकी शौर्यता के चर्चे दुश्मनों की जुबान से कुछ यूँ निकले थे:

डनलप जो कि अंग्रेजी फौज का नेतृत्व कर रहा था, को बाबा शाहमल की फौजों के सामने से भागना पड़ा| इसने अपनी डायरी में लिखा है, "चारों तरफ से उभरते हुये जाट नगाड़े बजाते हुये चले जा रहे थे और उस आंधी के सामने अंग्रेजी फौजों जिसे 'खाकी रिसाला' कहा जाता था, का टिकना नामुमकिन था|"

एक और अंग्रेजी सैन्य अधिकारी ने उनके बारे में लिखा है कि, "एक जाट (बाबा शाहमल तोमर जी) ने जो बड़ौत परगने का गवर्नर हो गया था और जिसने राजा की पदवी धारण कर ली थी, उसने तीन-चार अन्य परगनों पर नियंत्रण कर लिया था। दिल्ली के घेरे के समय जनता और दिल्ली इसी व्यक्ति के कारण जीवित रह सकी।

प्रचार-प्रसार और अपनों को याद ना करने की बुरी आदत का नतीजा यह होता है कि फिर हमें कागजी वीरों और शहीदों को गाने वालों की ही सच माननी पड़ती है| इससे बचने के लिए जरूरी है कि हम ना सिर्फ असली शहीदों और वीरों का प्रचार-प्रसार और उनको याद करें, वरन नवयुवा पीढ़ी तक यह बातें ज्यों-की-त्यों एक विरासत की भांति स्थांतरित हुई कि नहीं यह उनके बचपन से ही सुनिश्चित करें|

इसलिए इस भ्रमजाल से बाहर आईये कि 'जाट तो इतिहास बनाते हैं, लिखते नहीं' क्योंकि इतिहास बनाने के बराबर ही उसको लिखने और गाने की भी जरूरत होती है| वर्ना तो वही बात फिर कागजी वीर घड़ने वाले, असली वीरों को उनकी लेखनी से ढांप देते हैं|

1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के अमरप्रतापी सर्वखाप यौद्धेय दादावीर बाबा शाहमल तोमर जी महाराज की जन्म-जयंती पर दादावीर को कोटि-कोटि नमन!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

स्वतन्त्रता संग्राम के जाट वीर यौद्धा बाबा शाहमल सिंह तोमर की जयंती पर विशेष ।। शहीद बाबा शाहमल सिंह तोमर
बिजरौल गांव में 11 फरवरी 1797 को जन्मे बाब
शाहमल के पिता चौधरी अमीचंद तोमर किसान थे।
उनकी माता हेवा निवासी धनवंति कुशल गृहणी थीं।
बाबा शाहमल ने दो शादियां की थी। फिलहाल
बिजरौल गांव में उनकी छठी पीढ़ी को थांबा
चौधरी यशपाल सिंह, सुखबीर सिंह, मांगेराम,
बलजोर, बलवान सिंह, करताराम आगे बढ़ा रहे हैं।
मेरठ जिलेके समस्त पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी भाग में अंग्रेजों के लिए भारी खतरा उत्पन्न करने वाले बाबा शाहमल ऐसे ही क्रांतिदूत थे। गुलामी की जंजीरों को तोड़ने
के लिए इस महान व्यक्ति ने लम्बे अरसे तक अंग्रेजों को
चैन से नहीं सोने दिया था।
बाबा शाहमल 18 जुलाई 1857 को बड़का के जंगलों में
अंग्रेजों से लोहा लेते हुए शहीद हो गए थे।1857 की
क्रांति में अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिलाने वाले शहीद
बाबा शाहमल इतने बहादुर थे कि उनके शव से भी फिरंगी कांप उठे थे। बाबा को उठाने की हिम्मत न जुटा पाने वाले कई गोरों को उनकी ही सरकार ने मौत के घाट उतार दिया था।
अंग्रेज हकुमत से पहले यहाँ बेगम समरू राज्य करती थी.
बेगम के राजस्व मंत्री ने यहाँ के किसानों के साथ बड़ा
अन्याय किया. यह क्षेत्र १८३६ में अंग्रेजों के अधीन आ
गया. अंग्रेज अधिकारी प्लाउड ने जमीन का बंदोबस्त
करते समय किसानों के साथ हुए अत्याचार को कुछ
सुधारा परन्तु मालगुजारी देना बढा दिया. पैदावार अच्छी थी. जाट किसान मेहनती थे सो बढ़ी हुई मालगुजारी भी देकर खेती करते रहे. खेती के बंदोबस्त और बढ़ी मालगुजारी से किसानों में भारी असंतोष था जिसने 1857 की क्रांति के समय आग में घी का काम किया.इतिहासविदों के मुताबिक, 10 मई 1857
को प्रथम जंग-ए-आजादी का बिगुल बजने के बाद
बाबा शाहमल सिंह ने बड़ौत तहसील पर कब्जा
करते हुए उस समय के आजादी के प्रतीक ध्वज को
फहराया।
शाहमल का गाँव बिजरौल काफी बड़ा गाँव था .
1857 की क्रान्ति के समय इस गाँव में दो पट्टियाँ
थी. उस समय शाहमल एक पट्टी का नेतृत्व करते थे.
बिजरौल में उसके भागीदार थे चौधरी शीश राम और
अन्य जिन्होंने शाहमल की क्रान्तिकारी कार्रवाइयों का साथ नहीं दिया. दूसरी पट्टी में 4
थोक थी. इन्होने भी साथ नहीं दिया था इसलिए
उनकी जमीन जब्त होने से बच गई थी बडौत के लम्बरदार
शौन सिंह और बुध सिंह और जौहरी, जफर्वाद और जोट
के लम्बरदार बदन और गुलाम भी विद्रोही सेना में
अपनी-अपनी जगह पर आ जमे. शाहमल के मुख्य
सिपहसलार बगुता और सज्जा थे और जाटों के दो बड़े गाँव बाबली और बडौत अपनी जनसँख्या और रसद की तादाद के सहारे शाहमल के केंद्र बन गए.
१० मई को मेरठ से शुरू विद्रोह की लपटें इलाके में फ़ैल गई.शाहमल ने जहानपुर के गूजरों को साथ लेकर बडौत तहसील पर चढाई करदी. उन्होंने तहसील के खजाने को लूट कर उसकी अमानत को बरबाद कर दिया. बंजारा सौदागरों की लूट से खेती की उपज की कमी को पूरा कर लिया. मई और जून में आस पास के गांवों में उनकी
धाक जम गई. फिर मेरठ से छूटे हुये कैदियों ने उनकी की
फौज को और बढा दिया. उनके प्रभुत्व और नेतृत्व को
देख कर दिल्ली दरबार में उसे सूबेदारी दी.
12 व 13 मई 1857 को बाबा शाहमल ने सर्वप्रथम
साथियों समेत बंजारा व्यापारियों पर आक्रमण कर
काफी संपत्ति कब्जे में ले ली और बड़ौत तहसील और
पुलिस चौकी पर हमला बोल की तोड़फोड़ व लूटपाट
की। दिल्ली के क्रांतिकारियों को उन्होंने बड़ी
मदद की। क्रांति के प्रति अगाध प्रेम और समर्पण की
भावना ने जल्दी ही उनको क्रांतिवीरों का सूबेदार
बना दिया। शाहमल ने न केवल अंग्रेजों के संचार
साधनों को ठप किया बल्कि अपने इलाके को
दिल्ली के क्रांतिवीरों के लिए आपूर्ति क्षेत्र में बदल
दिया।
अपनी बढ़ती फौज की ताकत से उन्होंने बागपत के
नजदीक जमुना पर बने पुल को नष्ट कर दिया. उनकी इन
सफलताओं से उन्हें तोमर जाटों के 84 गांवों का
आधिपत्य मिल गया. उसे आज तक देश खाप की
चौरासी कह कर पुकारा जाता है. वह एक स्वतंत्र क्षेत्र
के रूप में संगठित कर लिया गया और इस प्रकार वह
जमुना के बाएं किनारे का राजा बन बैठा, जिससे कि
दिल्ली की उभरती फौजों को रसद जाना कतई बंद
हो गया और मेरठ के क्रांतिकारियों को मदद पहुंचती
रही. कुछ अंग्रेजों जिनमें हैवेट, फारेस्ट ग्राम्हीर,
वॉटसन कोर्रेट, गफ और थॉमस प्रमुख थे को यूरोपियन
फ्रासू जो बेगम समरू का दरबारी कवि भी था, ने अपने
गांव हरचंदपुर में शरण दे दी। इसका पता चलते ही शाहमल
ने निरपत सिंह व लाजराम जाट के साथ फ्रासू के हाथ
पैर बांधकर काफी पिटाई की और बतौर सजा उसके घर
को लूट लिया। बनाली के महाजन ने काफी रुपया
देकर उसकी जान बचायी। मेरठ से दिल्ली जाते हुए
डनलप, विलियम्स और ट्रम्बल ने भी फ्रासू की रक्षा
की। फ्रासू को उसके पड़ौस के गांव सुन्हैड़ा के लोगों ने
बताया कि इस्माइल, रामभाई और जासूदी के नेतृत्व
में अनेक गांव अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े हो गए है। शाहमल के
प्रयत्नों से सभी जाट एक साथ मिलकर लड़े और हरचंदपुर,
ननवा काजिम, नानूहन, सरखलान, बिजरौल, जौहड़ी,
बिजवाड़ा, पूठ, धनौरा, बुढ़ैरा, पोईस, गुराना,
नंगला, गुलाब बड़ौली, बलि बनाली (निम्बाली),
बागू, सन्तोखपुर, हिलवाड़ी, बड़ौत, औसख, नादिर
असलत और असलत खर्मास गांव के लोगों ने उनके नेतृत्व में
संगठित होकर क्रांति का बिगुल बजाया।
कुछ बेदखल हुये जाट जमींदारों ने जब शाहमल का साथ
छोड़कर अंग्रेज अफसर डनलप की फौज का साथ दिया
तो शाहमल ने ३०० सिपाही लेकर बसौड़ गाँव पर
कब्जा कर लिया. जब अंग्रेजी फौज ने गाँव का घेरा
डाला तो शाहमल उससे पहले गाँव छोड़ चुका था.
अंग्रेज फौज ने बचे सिपाहियों को मौत के घाट उतार
दिया और ८००० मन गेहूं जब्त कर लिया. इलाके में
शाहमल के दबदबे का इस बात से पता लगता है कि
अंग्रेजों को इस अनाज को मोल लेने के लिए किसान
नहीं मिले और न ही किसी व्यापारी ने बोली
बोली. गांव वालों को सेना ने बाहर निकाल दिया
शाहमल ने यमुना नहर पर सिंचाई विभाग के बंगले को
मुख्यालय बना लिया था और अपनी गुप्तचर सेना
कायम कर ली थी। हमले की पूर्व सूचना मिलने पर एक
बार उन्होंने 129 अंग्रेजी सैनिकों की हालत खराब कर
दी थी।
इलियट ने १८३० में लिखा है कि पगड़ी बांधने की प्रथा
व्यक्तिको आदर देने की प्रथा ही नहीं थी, बल्कि
उन्हें नेतृत्व प्रदान करने की संज्ञा भी थी. शाहमल ने
इस प्रथा का पूरा उपयोग किया. शाहमल बसौड़
गाँव से भाग कर निकलने के बाद वह गांवों में गया और
करीब ५० गावों की नई फौज बनाकर मैदान में उतर
पड़ा.
दिल्ली दरबार और शाहमल की आपस में उल्लेखित
संधि थी. अंग्रेजों ने समझ लिया कि दिल्ली की
मुग़ल सता को बर्बाद करना है तो शाहमल की शक्ति
को दुरुस्त करना आवश्यक है. उन्होंने शाहमल को
जिन्दा या मुर्दा उसका सर काटकर लाने वाले के
लिए १०००० रुपये इनाम घोषित किया.
डनलप जो कि अंग्रेजी फौज का नेतृत्व कर रहा था,
को शाहमल की फौजों के सामने से भागना पड़ा. इसने
अपनी डायरी में लिखा है -
"चारों तरफ से उभरते हुये जाट नगाड़े बजाते हुये चले जा
रहे थे और उस आंधी के सामने अंग्रेजी फौजों का जिसे
'खाकी रिसाला' कहा जाता था, का टिकना
नामुमकिन था."
एक सैन्य अधिकारी ने उनके बारे में लिखा है कि
एक जाट (शाहमल) ने जो बड़ौत परगने का गवर्नर हो
गया था और जिसने राजा की पदवी धारण कर ली
थी, उसने तीन-चार अन्य परगनों पर नियंत्रण कर
लिया था। दिल्ली के घेरे के समय जनता और दिल्ली
इसी व्यक्ति के कारण जीवित रह सकी।
जुलाई 1857 में क्रांतिकारी नेता शाहमल को पकड़ने के
लिए अंग्रेजी सेना संकल्पबद्ध हुई पर लगभग 7 हजार
सैनिकों सशस्त्र किसानों व जमींदारों ने डटकर
मुकाबला किया। शाहमल के भतीजे भगत के हमले से
बाल-बाल बचकर सेना का नेतृत्व कर रहा डनलप भाग
खड़ा हुआ और भगत ने उसे बड़ौत तक खदेड़ा। इस समय
शाहमल के साथ 2000 शक्तिशाली किसान मौजूद थे।
गुरिल्ला युद्ध प्रणाली में विशेष महारत हासिल करने
वाले शाहमल और उनके अनुयायियों का बड़ौत के
दक्षिण के एक बाग में खाकी रिसाला से आमने सामने
घमासान युद्ध हुआ.
डनलप शाहमल के भतीजे भगता के हाथों से बाल-बाल
बचकर भागा. परन्तु शाहमल जो अपने घोडे पर एक अंग
रक्षक के साथ लड़ रहा था, फिरंगियों के बीच घिर
गया. उसने अपनी तलवार के वो करतब दिखाए कि
फिरंगी दंग रह गए. तलवार के गिर जाने पर शाहमल अपने
भाले से दुश्मनों पर वार करता रहा. इस दौर में उसकी
पगड़ी खुल गई और घोडे के पैरों में फंस गई. जिसका
फायदा उठाकर एक धोखेबाज़ मुस्लिम सवार ने उसे
घोड़े से गिरा दिया. अंग्रेज अफसर पारकर, जो
शाहमल को पहचानता था, ने शाहमल के शरीर के टुकडे-
टुकडे करवा दिए और उसका सर काट कर एक भाले के ऊपर
टंगवा दिया.बाबा कि जासूसी करने वाला दलाल
बाद बाघपत नवाब बनाया और बाबा के पोते उस
धोखेबाज को नरक का रास्ता दिखा दिया।
डनलप ने अपने कागजात पर लिखा है कि अंग्रेजों के
खाखी रिशाले के एक भाले पर अंग्रेजी झंडा था और
दूसरे भाले पर शाहमल का सर टांगकर पूरे इलाके में परेड
करवाई गई. तोमर जाटों के चौरासी गांवों के 'देश'
की किसान सेना ने फिर भी हार नहीं मानी. और
शाहमल के सर को वापिस लेने के लिए सूरज मल और
भगता स्थान-स्थान पर फिरंगियों पर हमला करते
रहे.शाहमल के गाँव सालों तक युद्ध चलाते रहे.
21 जुलाई 1857 को तार द्वारा अंग्रेज
उच्चाधिकारियों को सूचना दी गई कि मेरठ से आयी
फौजों के विरुद्ध लड़ते हुए शाहमल अपने 6000 साथियों
सहित मारा गया। शाहमल का सिर काट लिया
गया और सार्वजनिक रूप से इसकी प्रदर्शनी लगाई गई।
पर इस शहादत ने क्रांति को और मजबूत किया तथा 23
अगस्त 1857 को शाहमल के पौत्र लिज्जामल जाट ने
बड़ौत क्षेत्र में पुन: जंग की शुरुआत कर दी। अंग्रेजों ने इसे
कुचलने के लिए खाकी रिसाला भेजा जिसने पांचली
बुजुर्ग, नंगला और फुपरा में कार्रवाई कर
क्रांतिकारियों का दमन कर दिया। लिज्जामल
को बंदी बना कर साथियों जिनकी संख्या 32
बताई जाती है, को फांसी दे दी गई।
शाहमल मैदान में काम आया, परन्तु उसकी जगाई
क्रांति के बीज बडौत के आस पास प्रस्फुटित होते रहे.
बिजरौल गाँव में शाहमल का एक छोटा सा स्मारक
बना है जो गाँव को उसकी याद दिलाता रहता है.



 

Wednesday, 10 February 2016

अरे क्यों कबूतर की तरह आँखें मूंदे समाज को बरगला रहे राजकुमार सैनी?

राजकुमार सैनी के अभी-अभी ताजा-ताजा आये प्रेसनोट में राजकुमार सैनी से मेरे सवाल-जवाब|

1. जाति बिशेष के लोगो के दबाब में आकर अपने राजनैतिक स्वार्थ को साधने के लिऐ हमेशा ही पिछड़ा वर्ग के अधिकारो से खिलवाड़ किया। - राजकुमार सैनी

मेरा सवाल-जवाब: आपके अधिकारों से खिलवाड़ तो पिछले 68 सालों से वो लोग कर रहे हैं जिनसे आप आज तक भी अपनी संख्या के अनुपात में आरक्षण नहीं ले पाये। जो पिछड़े वर्ग का बैकलॉग खाते हैं। आपको कौन समझदार, पिछड़ों का हितैषी कह देगा, जबकि आपको यह ही नहीं दीखता कि पिछड़ों का हक कौन खाए जा रहा है?

2. कभी राजधानी बंद, कभी हरियाणा बंद की धमकियां देने वालो को तिहाड़ जेल में बंद करो। बंद के नाम पर भय का महौल बनाने वाले इन दबंगो को तिहाड़ में बंद कर देना चाहीए। इन लोगो से निपटने के लिऐ सरकार भी अपना काम करेगी और पिछड़ा वर्ग 35 बिरादरी के लोग इनको मंहतोड जबाब देगें। - राजकुमार सैनी

मेरा सवाल-जवाब:
a) क्या हुआ आप तो पिछड़ा ब्रिगेड ले के मैदान में उतरने वाले थे? जाटों ने हरयाणा जाम करने भर का क्या कहा कि अब उनको तिहाड़ भिजवाने लगे? जब कोई साथ है ही नहीं तो क्यों समाज को बरगला रहे हो? इससे साबित होता है कि कोई पिछड़ा ब्रिगेड नहीं बन पाई आपसे, वर्ना मैदान में आते। सच भी है ऐसे समाज को सिर्फ नरफत के आधार पे बिखराने वाले का साथ भी कौन देगा, खुद पिछड़ा भी इतना तो समझदार है।
b)और कौनसी 35 बिरादरी श्रीमान? बिश्नोई-त्यागी-रोड़-जाट सिख-जाट मुस्लिम और आधे से ज्यादा दलित भाईयों तक का जाटों को समर्थन हासिल है। दलितों के कई गाँव तो ऐसे हैं जो गाँव-के-गाँव जाटों के समर्थन में आन खड़े हुए हैं। कर लो बात, खामखा मोदी का चेल्ला बन फेंकते घूम रहे हैं।
c) और बंद पे तो रोहित वेमुला को न्याय दिलवाने बारे पूरे देश का पिछड़ा भी सड़कों पे उतरा हुआ है, क्यों नहीं उनकी भी बोलती बंद करवा देते? स्पष्ट है आपको मंडी-फंडी ने जाटों के खिलाफ जहर उगलने मात्र को पठाया हुआ है|

3. पूर्व सीएम भूपेन्द्र सिंह हुड्डा और कांग्रेस ने झुठ के आधार पर जाटो को ओबीसी में शामिल किया| - राजकुमार सैनी

मेरा सवाल-जवाब: कांग्रेस और हुड्डा जी ने तो ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा-खत्री-राजपूत को भी स्पेशल क्लास बना के आरक्षण दिया था? इतना ही नकली और झूठ के आधार पे था तो अब तक जारी क्यों है वो स्टेट में? इससे साफ़ स्पष्ट है कि आपका एजेंडा न्याय की बात करना नहीं सिर्फ नफरत का जहर फैलाना है, वर्ना हरयाणा में तो और भी दबंगों को आरक्षण मिला हुआ है, उनका खत्म करवाने या उनको मिलने पे तो एक शब्द भी नहीं निकलता आपके मुंह से?

4. पिछड़ा वर्ग अब अपने हको और हक्कुक की लड़ाई लडने मे सक्ष्म व परी तरहं एकजुट है। हितो से खिलवाड़ करने वालो को करारा जबाब दिया जाऐगा। - राजकुमार सैनी

मेरा सवाल-जवाब: जी सैनी साहब निसंदेह आपको हक-हकूक की लड़ाई लड़नी चाहिए| चलिए मैं भी आपका साथ देने आता हूँ, उठाइये पिछड़ों के इन मुद्दों पर आवाज:
a) रोहित वेमुला बारे पूरे देश का पिछड़ा सड़कों पर है बीजेपी और आरएसएस के खिलाफ; चलिए आईये आप भी और मैं भी आता हूँ आपका साथ देने।
b) लालू यादव महीनों से चिल्ला रहे हैं कि जातिगत आंकड़े सार्वजनकि कर, पिछड़ों-दलितों की जनसंख्या सही-सही बताओ। चलिए आईये आप भी और मैं भी आता हूँ आपका साथ देने इस मुद्दे पर।
c) 68 साल से पिछड़ों को अपनी जनसंख्या के अनुपात का आधा ही आरक्षण मिल पाया है, चलिए आईये उठाइये संख्या के अनुपात में आरक्षण दिलवाने बारे आवाज और मैं भी आता हूँ आपका साथ देने।
d) 68 साल से मंडी-फंडी आपके वर्ग के आरक्षण का बैकलॉग खाए जा रहे हैं; चलिए आईये इस पर आवाज उठाते हैं, और मैं भी आता हूँ आपका साथ देने।

तोड़ की बात तो यह है सैनी साहब, पिछड़ा वर्ग को जाट से नहीं इन मंडी-फंडी रुपी बिल्लियों से बचाओ, जिनकी तरफ से आप कबूतर की तरह आँखें मूँद, 'कुम्हार की कुम्हारी पे तो पार बसावे ना, जा के गधी के कान मरोड़े" वाली तर्ज पे जाटों की तरफ मुंह किये हुए हो।

आप क्या समझते हो कि आज का पिछड़ा इतना पिछड़ा है जो यह भी नहीं समझेगा कि आप बोल कौनसी कूण में रहे हो? सब जानते हैं कि सिर्फ मंडी-फंडी की कठपुतली बने कूक रहे हो। खुद सैनी समाज के मेरे जितने मित्र हैं, वो ही आपसे असहमति जताते हैं।

क्या होगा कोई आप जैस मूर्ख आदमी, जिसको इतना भी भान नहीं है कि इन मंडी-फंडी का एजेंट बन भोंकने से आप जाटों का नहीं अपितु पिछड़ों का ही नुकसान कर रहे हो? क्योंकि जिस वक्त आपको "संख्या के अनुपात में आरक्षण", "बैकलॉग के मुद्दों" पे जहां आवाज उठानी चाहिए थी, उस वक्त आप जाटों के खिलाफ बोल उनको एक होने की जरूरत का कारण दिए जा रहे हो? अब भी सुधर जाओ जनाब, वर्ना पिछड़े ही आपको गाली दिया करेंगे, कि जब सत्ता दी थी तो सारा टाइम मंडी-फंडी की पीपनी बन के बजने में गँवा दिया। कुछ नहीं किया-धरा पिछड़ों के लिए। उलझाये रखा जाटों से नफरत करना सिखाने में।

वैसे जाट को लोग खाम्खा दबंग कहने पे तुले रहते हैं! बताओ जाटों से संयम वाला मिलेगा कोई, जो इन जनाब के लगातार एक साल से ज्यादा समय से हो रहे हमलों पर भी शान्ति खींचे हुए है। शायद जाट जानता है कि उनके ऊपर हरयाणा प्रदेश की शांति का भार है, इसके अभिमान और स्वाभिमान का भार है। सैनी साहब आप सिर्फ पिछड़ों का ही भार ढंग से उठा लीजिये, जाट कहीं ना आपकी 'झोटी खोलने को मरे जा रहे!'

विशेष: हालाँकि मैं भी कोशिश कर रहा हूँ, फिर भी इस नोट को राजकुमार सैनी तक पहुंचाने वाले का धन्यवाद!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 7 February 2016

वाह! अपनी माँ उर्फ़ गौमाता को तथाकथित गौ-रक्षक ही अब विदेशियों को काट के परोसेंगे!

क्या बेखळखाना है ये?

खटटर (आरएसएस ब्रांड का टॉप प्रोडक्ट) द्वारा यह जो विदेशियों के लिए बीफ खाने की स्पेशल क्लॉज़ लाई गई है, इसके तहत गायें हरयाणा में ही कत्ल की जाएँगी या बाहर? उन विदेशियों को परोसने वाले भी उनके साथ बैठ के खाएंगे या नहीं? अब कौन कच्छाधारी जायेगा विदेशियों को बीफ की पार्टियां देने वालों की खुद की प्लेटें चेक करने कि वो सिर्फ परोस रहे हैं या खुद भी गौमांस के चटखारे ले रहे हैं?

अरे छोड़ो जी छोड़ो, कच्छाधारियों की देशभक्ति, राष्ट्रभक्ति और गौमाता के प्रति इनका प्यार, 'गरीब की बहु सबकी भाभी' वाला मामला है; यह गली-सड़कों में गायों को ले जाते ट्रकों-छकड़ों तक को आग लगा सकते हैं बस, इन वेरी-वेरी आईपियों (VVIPs) की प्लेटें थाली चेक कर सकें, जहां इन वीआईपियों के लिए गायें कटेंगी, उन फैक्टरियों को आग लगा सकें, इतनी औकात नहीं इनकी|

इसीलिए तो कहता हूँ कि जो धर्म समानता से लागू नहीं किया जाता हो वो धर्म नहीं हुआ, कोरी राजनीति होती है राजनीति और ऐसे ही गाय एक राजनीति से ज्यादा कुछ नहीं, यह बीजेपी वालों ने खुद ही खुल के दिखा दिया| क्या जब यह विदेशियों को परोसने के लिए गायें काटेंगे, इनके हृदय नहीं जलेंगे? मनों में कचोटेँ नहीं काटेंगी? काटें तो तब ना जब सनातन कोई धर्म हो, कोरी राजनीति जो ठहरी| जो इस तथ्य को जितना जल्दी पकड़ गया समझो इनकी सोच से पार पा गया|

इसलिए तो इन छद्म राष्ट्रवादियों से तनिक भी प्रभावित नहीं हूँ| सारी दुनियां के भांड मरे होंगे, तब जाकर यह गाय को माँ कहने वाले, विदेशियों के आगे अपनी उसी माँ को काट के परोसने वाले पैदा हुए होंगे| अरे यह तो ठहरी गायमाता, इन्होनें तो अपनी खुद की माता तक का फरसे से गला रेत दिया था; फिर कौनसी काऊ और किसकी माता| कसम से वो मूल-हरयाणवी की औलाद नहीं जो अबकी बार इनमें से कोई गाय पे लेक्चर झाड़ने आवे और उसका मुंह थोब के वापिस ना खंदावे|

अंत में यही कहूँगा कि हे हरयाणवियों गौभक्त बनों तो हरफूल जाट जुलानी वाले जैसे बनों, जिसने ट्रक-छकड़े नहीं सीधे गौ वध की फैक्ट्रियां और हत्थे फूंक और तोड़ डाले थे; वर्ना क्यों अपनी वीरता और शौर्य पर दाग लगवाते हो कि जो एक तरफ तो गाय बचाने के नकली नारे उठाने वालों के बहकावों में टूलते हो और दूसरी तरफ खुद ही विदेशियों को गाय काट के खिलाने के दोषी बनते हो?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

चॉइस इज योअर्स!

कट्टर हिंदुत्व (सनातन) कट्टर इस्लाम से भी जहरीला है| कटटर इस्लाम तो आपको एक गोली या बम मार के पल में आर-पार करके परे होता है, परन्तु कट्टर हिंदुत्व तो मानसिक दासता का वो पिंजरा है कि जन्म लेते ही इसको बनाने वालों के दास बन जाते हो| ज्यादा लाचार और साधनहीन के यहां पैदा हुए तो दलित-शूद्र-पिछड़े में बाँट दिए जाते हो| और स्वछंद और लॉजिकल बातें करने वाले जाटों जैसों के यहां पैदा हुए तो ऐसे आइडेंटिटी क्राइसिस में डाल दिए जाते हो कि पूरा जन्म आपसे जाट बनाम नॉन-जाट का अखाड़ा भुगताया जाता है|

और दोनों में ही औरतों की दशा भी बहुत बुरी है| इस्लाम में कम से कम यह तो है कि औरत के साथ ब्राह्मण या दलित देख के व्यवहार नहीं होता; कि औरत दलित हुई तो भोग्य वस्तु बना के देवदासी बना लो, या ब्राह्मण हुई तो विधवा बना के विधवा आश्रमों में पहुंचा दो (वृन्दावन जैसे विधवा आश्रमों में 80% विधवाएं बंगाली-उड़िया-बिहारी मूल की ब्राह्मणियां हैं) या सति करवा दो| इस्लाम में औरत पे बुर्के का जोर है, सरिया जैसे कानून हैं परन्तु हैं सब औरतों के लिए समान; दलित-ब्राह्मण कुछ नहीं|

लेकिन अगर तीन दशक पहले के इराक-ईरान-टर्की की औरतों की तस्वीरें देखें तो कह ही नहीं पाएंगे कि यह पेरिस की औरतें हैं या इराक-ईरान-टर्की की; क्योंकि उस वक्त इस्लाम ने इतना कट्टरपना नहीं अपनाया था जितना अब अपनाये हुए है| इसलिए इस्लाम जितना सेक्युलर होता जाता है उसके यहां औरत भी आज़ादी पाती है, परन्तु हिन्दू या सनातनी के यहां इसके कोई चांस नहीं| हजारों सालों पहले भी विधवा होते ही इनकी औरतों को असल तो पति के साथ चिता में ही फेंक देते थे अन्यथा विधवा आश्रमों में तो आज भी भेजी जाती हैं| उदाहरण ऊपर दिया है| बाकी के हरिद्वार से ले हुगली तक गंगा के घाटों पे बने विधवा आश्रमों का तो पता नहीं, परन्तु यह जाटलैंड की छाती मथुरा में बना वृन्दावन का विधवा आश्रम मुझे बहुत अखरता है| कभी भगवान ने सामर्थ्य और संसाधन दिए तो इस आश्रम को उखाड़ इन औरतों को जरूर मुक्त करवाऊंगा|

धर्म नाम होता है मानसिक कमजोरियों से उभर के नए जीवन का सृजन करना, जन्मभर किसी का मानसिक गुलाम बना रहना नहीं| और हिंदुत्व यानी सनातन कैसे मानसिक गुलाम बनाते हैं, इसका सबसे बड़ा उदाहरण हिन्दू धर्म का वो समाज है जिसके वंशों को इस धर्म को बनाने वालों के एक अवतार ने 21-21 बार काट फेंका था, परन्तु वो बेचारे नादान फिर भी इनकी ही स्तुति करते हैं; जाट से बेशक लड़ लें, परन्तु क्या मजाल जो अपने 21-21 वंशो के पुरखों के अपमान का बदला लेने हेतु कभी अपने गुस्से और तलवार का मुंह इनकी तरफ मोड़ देवें| इसलिए इस धर्म में अगर आप स्वर्ण भी कहलाये तो रहोगे इनके नीचे ही| और मुझे धर्म के नाम पे किसी के नीचे रहना हरगिज मंजूर नहीं| धर्म बराबरी और सत्कार सिखाता है, दर्जा और दया का पात्र बनना नहीं|

तो सीधी सी बात है और हर नवयुवा को समझनी चाहिए कि जहां समानता और सत्कार ना हो, वो धर्म नहीं हुआ करता, कोरी राजनीति होती है राजनीति| इसलिए हिन्दू यानी सनातन धर्म सिर्फ और सिर्फ इसको घड़ने वालों द्वारा आप पर राज करने की राजनीति के सिवाय भी कुछ नहीं|

या तो दलितों की तरह फिर से बौद्ध धम्म में चले चलो अन्यथा जाट हो तो अपना जाट धर्म खड़ा करना होगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 5 February 2016

जाट, अपने इतिहास से जितनी दूरी बना के रखेंगे, उतने ज्यादा फुसलाये जाने की बिसात पर बैठे रहेंगे!

'जाट इतिहास लिखते नहीं हैं, बनाते हैं" और 'पुरानी बातों का क्या करना, इतिहास इतिहास होता है आज की सुध लो' इन दोनों पंक्तियों का जाटों को ही सबसे ज्यादा नुकसान हो रहा है| यह दोनों पंक्तियाँ मैं मेरे पिता की पीढ़ी के जमाने से सुनता आ रहा हूँ और इनका उद्देश्य और अर्थ अब आ के फलफूल रहा है| जब देखता हूँ कि जाट इतिहास का 'अ - ब - स' भी नहीं जानने वाले बालक, युवा यहां तक कि अधेड़ भी सहज ही अंधभक्ति में बहक रहे हैं और कह रहे हैं कि हजारों सालों से हमारा एक ही रंग का झंडा रहा है, यह तिरंगा तो अभी गांधी-नेहरू ने हमपे थोंपा|

खुद के पिछोके और इतिहास का ज्ञान ना होने का यही नुकसान होता है कि गधे जैसी अक्ल वाले भी आपको ज्ञान बाँट जाते हैं| मैं आपसे बस इतना ही कहूँगा कि जो आपको यह हजारों सालों से एक ही झंडा होने की गपेड हाँक के जाते हैं, उनसे पुछवाना जरा कि 1947 में भारत की 562 रियासतों को एक करके भारत बनाया गया था| इन रियासतों के हर एक के अपने झंडे और स्लोगन होते थे| 50 के करीब तो अकेली जाट रियासतें थी, भरतपुर, जींद, पटियाला, बल्ल्भगढ़, गोहद इत्यादि, क्या इन सबका झंडा एक था? राजपूत, मराठे, होल्कर इत्यादि क्या इन सबकी रियासतों के झंडे एक थे? हजार साल से ऊपर के काल में तो यह थे| उससे पहले भी चाहे जमाना अशोक का हो, या चन्द्रगुप्त का, हर्षवर्धन का हो या पोरस का, यहां तक कि महाभारत और रामायण जैसी काल्पनिक कहानियों में भी पूरे भारत में ना ही तो सिर्फ एक रियासत बताई गई है और ना ही एक झंडा|
अंधभक्तों की माया का कोई अंत नहीं| अरे मान लिया जाट इतिहास नहीं पढ़ा होगा, रामायण और महाभारत तो वह भी पढ़ा रहे हैं जो आपको अंधभक्त बनाते हैं? तो उससे भी कॉमन सेंस का प्रश्न नहीं उठता क्या, कि हजारों सालों से सारे भारत का एक झंडा कैसे?

समाजों को पथभ्रष्ट करने की बिसातें एक रात में नहीं हुआ करती, पहले इतिहास ना पढ़ने की आदत डाली, लोगों को इतिहास से रिक्त किया| और अब उनको यह घाघ लोग जो चिपका के जा रहे हैं, इतिहास की जानकारी ना होने के अँधेरे के चलते, उसी को सच मान रहे हैं| जाट का दूसरा नाम तर्क होता है, इतिहास की जानकारी ना भी हो तो तर्क तो इस्तेमाल कीजिये|

और आलम यह है कि 'पुरानी बातों का क्या करना' के हवाले दे के इतिहास पढ़ना या जानना छोड़ चुके लोग ही सबसे ज्यादा अंधभक्त बन रहे हैं और वो भी कौनसी बातों के हवाले पे, 'हजारों साल' के हवाले पे| अरे जब आपको सौ साल की पुरानी बात गंवारा नहीं, तो हजारों साल वाली की स्वीकृति किस आधार पे फिर?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 4 February 2016

कीट-क्रांति के पुरोधा स्वर्गीय डॉक्टर सुरेन्द्र दलाल जी को क्यों मिलना चाहिए 'भारत रत्न' या 'पद्म विभूषण' सम्मान!


किसान को भय-भ्रम से मुक्त करवाते थे स्वर्गीय डॉक्टर सुरेन्द्र दलाल। आप किसान को विश्व का पहला और मोस्ट इंटेलीजेंट साइंटिस्ट कहते थे। आपने "खाप-खेत-कीट पाठशाला" के जरिये किसानों में कीट ज्ञान की जो अलख जगाई, यह 'हरित-क्रांति', 'श्वेत-क्रांति' की भांति इतनी ही विशाल और क्रन्तिकारी 'कीट-क्रांति' है। इस वीडियो में आप देखेंगे कि कीट-कमांडो माननीय चौधरी मनबीर रेढू जी (Manbir Redhu​), कैसे उनके दिए ज्ञान से हरयाणा-पंजाब और तमाम भारत में जहां तक पहुंचा जा सकता है, वहाँ तक पहुँच-पहुँच कर 'कीट-क्रांति' को और प्रखर बनाने में जुटे हुए हैं। सलंगित वीडियो देखें कि कितनी बड़ी क्रन्तिकारी अलख जग के गए हैं डॉक्टर दलाल किसान जगत में।

इसलिए जैसे चिदंबरम सुब्रमण्यम को 'हरित-क्रांति' के लिए 'भारत-रत्न', वर्घेसे कुरियन को 'श्वेत-क्रांति' के लिए 'पद्म विभूषण' मिला, ऐसे ही स्वर्गीय डॉक्टर सुरेन्द्र दलाल को 'कीट-क्रांति' के लिए ऐसे ही सम्मान मिलने चाहियें।

Video Source: https://www.youtube.com/watch?v=YEQiW2oXquM

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 3 February 2016

भारत में भ्रष्टाचार की मूल-जड़!

ईसाई, बुद्ध, मुस्लिम, जैन, सिख कोई धर्म ऐसा नहीं जिसमें उसके संस्थापक, रचयिता शख्स या जमात अपने-आपको हर अपराध-गलती-ग्लानि से ऊपर बताता हो, किसी भी गंभीर से गंभीर अपराध में खुद को दोषी पाया जाना स्वीकार ना करता हो; सिवाय हिन्दू धर्म की मनुस्मृति के| जो कहती है कि एक वर्ग-विशेष चोरी करे, जारी करे, क़त्ल करे, लूट करे चाहे जो अपराध करे वो दंड का प्रतिभागी नहीं होता| वो हर सजा से ऊपर होता है| वो आपसे लूट के खाए, छीन के खाए, धोखे से खाए, वो उसका हक़ है|

दूसरा जो बड़ा अंतर है वो है दान का| हिन्दू धर्म में दान के प्रयोग और बाकी के धर्मों में दान के प्रयोग में जो मूलभेद है वो यह है कि बाकी के धर्मों में उसके तमाम अनुयायियों में बिना किसी पक्षपात के यह पैसा सिर्फ और सिर्फ समरूप तरीके से ना सिर्फ उस धर्म की बौद्धिक अपितु विश्व स्तर की शैक्षणिक योग्यता बढ़ाने पर खर्च किया जाता है| जबकि हिन्दू धर्म में उस पैसे का उपयोग सिर्फ और सिर्फ दान लेने वाले समुदाय के कल्याण हेतु किया जाता है, या फिर जातिपाती का जहर और दंगे बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है| उदाहरण के तौर पर हरयाणा का जाट बनाम नॉन-जाट का अखाडा या फिर दलित उत्पीड़न के बंदोबस्त|

और जब तक धर्म के नाम पर कब्ज़ा जमाये बैठी, इस दो बिन्दुओं पर केंद्रित यह थ्योरी हिन्दू धर्म और भारत देश से मॉडिफाई नहीं की जाएगी, भारत से भ्रष्टाचार युग-युगांतर तक भी खत्म नहीं होगा, चाहे कोई कितने ही अथक प्रयास कर ले|

इसका सीधा सा और मोटा उदाहरण न्यायव्यवस्था में बैठे जजों के मुकदमों को सुलझाने के रवैये से स्पष्ट समझा जा सकता है| हमारे देश के 90% से ज्यादा जज इसी वर्ग से आते हैं जो हर अपराध-गलती-ग्लानि-दोष-सजा से खुद को ऊपर मानते हैं| इससे होता यह है कि किसी मुकदमे में चाहे कितनी तारीखें लग जावें, चाहे कितने ही साल लग जावें, चाहे कोई पक्ष न्याय ना मिलने की वजह से या न्याय में देरी की वजह से आत्महत्या कर लेवे परन्तु इनको यह अपराधबोध कभी नहीं होता कि फलां व्यक्ति ने तुम्हारे द्वारा की गई देरी या विलंबता के चलते ऐसा किया| और यही वजह है कि आज देश में तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमे अटके अथवा लटके पड़े हैं|

भारत में जो न्याय व्यवस्था अंग्रेज छोड़ के गए थे जो कि गुलामों के लिए बनाई गई थी, वह मनुस्मृति के लिए यूँ की यूँ फिट बैठी और इन्होनें इसको मॉडिफाई करने में कतई रुचि नहीं ली| क्योंकि एक उपनिवेशिक यानी गुलाम के लिए न्याय की जो नीतियां उन गुलामों पे राज करने वाला बनाता और बरतता है, मनुस्मृति ठीक उसी की वकालत करती है| तो जाहिर सी बात है इसके सिद्धांतों के साये तले पल के देश के सिस्टम में चले जाने वाले लोग, देश को इसके ही अनुसार चलाएंगे और वही हो रहा है|

एक ऐसे देश में जहां एक दिहाड़ी मजदूर से ले फौजी तक की जवाबदेही होती है, एक मैनेजर से ले एक वॉचमैन तक की जवाबदेही होती है, वहाँ एक जज की कोई जवाबदेही नहीं| मुकदमा एक साल चले, दस चले, लटका खड़ा रहे, गवाह मरें, सबूत इधर-उधर हो जावें, कोई जवाबदेही नहीं; क्योंकि यह लोग इस मति से पाले गए होते हैं कि तुमसे तो कोई अपराध हो ही नहीं सकता| तुम तो अपराधी ठहराए ही नहीं जा सकते| जब तक इनके दिमागों से यह विचारधारा नहीं निकलेगी, देश में भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, भाई-भतीजावाद निरंतर चलता रहेगा|

यहां साथ ही मैं यह भी जोड़ दूँ कि भ्रष्टाचार के अनेक रूप हैं, हर देश, समुदाय समाज के हिसाब से भिन्न-भिन्न भी मिलते हैं| परन्तु भारत के भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी जड़ मनुस्मृति से निकलने वाली यह सोच है, जिसकी ऊपर व्याख्या की|

भारत देश से अगर इन बिमारियों को खत्म करना है और अगर हम वाकई में गुलामों वाली न्यायव्यवस्था में नहीं जीना चाहते हैं तो हमें अमेरिका-कनाडा-ऑस्ट्रेलिया-ब्रिटेन-फ्रांस की तर्ज पर 'सोशल ज्यूरी' सिस्टम लागू करना होगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 2 February 2016

मुझे हरयाणा में फैलाये गए जाट बनाम नॉन-जाट के जहर से जो इंसान निजात दिला दे मैं उसके चरण धो-धो पियूं!

मैं जातिवादी नहीं हूँ, ना ही मेरे घर की परवरिश ऐसी है| मेरे घर वालों ने कभी मुझे यह नहीं बताया कि यह ब्राह्मण है, नाई है, छिम्बी है, तेली है, धोबी है, राजपूत है, बनिया है, चमार है धानक है या डूम इत्यादि है| ना ही यह बताया कि यह हिन्दू है, यह मुसलमान है या यह सिख है|

मेरे घर वालों ने मुझे सिखाया तो बस इतना कि गाम-गुहांड की छत्तीस बिरादरी की बेटी-बुआ-बहन तेरी बेटी-बुआ-बहन है| तेरे खेतों में काम करने वाले चमार से ले के, दुकान पे सामान बेचने वाला बनिया और हवन-यज्ञ करने वाला ब्राह्मण, अगर गाम के नेग से तेरा दादा लगता है तो दादा बोल, ताऊ-चाचा लगता है तो ताऊ-चाचा बोल, भाई-भतीजा लगता है तो भाई-भतीजा बोल| उम्र में छोटा हो या बड़ा, तू नेग से बोलना नहीं छोड़ेगा| दादा, ताऊ-चाचा की पीढ़ी वाला उम्र में छोटा भी है तो नाम ले के नहीं अपितु नेग से ही बोलेगा|

एक लम्बे अरसे से विदेश में हूँ, परन्तु यह शिक्षाएं आज भी ज्यों-की-त्यों पल्ले बाँधी हुई हैं| गाम में जाता हूँ तो आज भी नेग के बिना किसी से नहीं बोलता| धानक के घर बैठ के चाय पीने से, चमार के घर बैठ के रोटी खाने से, कुम्हार के साथ आक में मिटटी के बर्तन लगवाने से, लौहार की भट्टी में आग झोंकने से, खाती-छिम्बी के यहां उठने बैठने से, डूम के साथ बैठ के आल्हे-छंद सुनने से आज भी परहेज नहीं करता| कभी किसी शरणार्थी दोस्त या उसके समुदाय को शरणार्थी या रेफ़ुजी नहीं बोला| कभी किसी दलित को जाति-सूचक शब्द नहीं बोले| और जो यह बात झूठ बोलूं तो मेरी लिस्ट में मौजूद मेरे गाम-गुहांड व् बचपन के साथी या बालक मेरे कान पकड़ लेवें| मेरे पिता ने, मेरे भाई-बहनों और मैंने, कभी किसी दलित का छुआ खाने से, उसका दिया पानी पीने से परहेज नहीं किया| तो फिर मैं क्यों झेलूँ यह जाट बनाम नॉन-जाट का जहर?

आखिर कौन लोग हैं यह जो मुझे इन ऊपर बताई मानवताओं से घसीट के जाट होने का अहसास करवा रहे हैं? हरयाणवी होने का अहसास करवा रहे हैं? मैं नहीं समझता कि मुझे जाट और हरयाणवी होने पे किसी को अहसास करवाने की जरूरत हो, यह तो मैं जन्मजात हूँ| तो क्यों यह लोग जाटों के इतने पीछे पड़े हैं कि मुझे जाटों के बारे सोचना पड़ता है? कौन लोग हैं यह जो मेरे अंदर, मेरे समाज के अंदर जाट बनाम नॉन-जाट के जहर के नाम पे गुस्सा और नाराजगी दोनों भर रहे हैं| आखिर क्यों?

मुझे निजात चाहिए ऐसे लोगों से और इनके इस जहरी माहौल से| कोई मुझे इससे निजात दिला दे तो मैं उसके चरण धो-धो पियूं|

विशेष: हरयाणा में दो तरह के गाम होते हैं, पहले एक ही गोत के बसाए हुए, इनमें छत्तीस बिरादरी की बेटी सबकी बेटी मानी जाती है और दूसरे बहुगोतीय यानी कई गोतों के बसाये हुए, इनमें गाम की गाम में ब्याह भी हो सकते हैं| इस नियम बारे ज्यादा विस्तार से इस लेख से पढ़ सकते हैं - http://www.nidanaheights.net/EH-gotra.html

जय यौद्धेय! - फूल मलिक