Tuesday, 2 August 2016

आज के जाट बनाम नॉन-जाट का ऐतिहासिक परिपेक्ष्य!

1905 से 1910 तक रोहतक के डीसी रहे मिस्टर ई. जोसफ लिखित "कस्टमरी लॉ ऑफ़ रोहतक" पुस्तक की रिफरेन्स से "Women and Social Reform in Modern India" किताब के पेज नंबर 147 (कटिंग सलंगित) में Sumit Sarkar, Tanika Sarkar, क्वोट करके सत्यापित करते हैं कि जाट और मनुवाद दोनों भिन्न विचारधाराएं रही हैं|

उन्नीसवीं सदी के आथ्रोपोलॉजिस्ट लेखक R. C. Temple के बाद E Joseph की यह रिकॉर्डिंग्स पुख्ता करती हैं कि उत्तर भारत यानी जाट बाहुल्य इलाकों में मनुवाद नहीं बल्कि जाटवाद चलता आया है|

और यही वो मुद्दा है जब आज के दिन हरयाणा में मनुवाद को मौका मिला है जाटवाद पर हावी होने का| यह जाट बनाम नॉन-जाट, 35 बनाम 1 इत्यादि कुछ नहीं सिवाय मनुवाद की जाटवाद पर विजय पाने की कोशिशों के|
अत: जाट युवा/युवती खासतौर पर समझें कि जाटलैंड पर मनुवाद नहीं अपितु जाटवाद से सभ्यता चली है| मनुवाद बाकी के भारत में हावी रहा है परन्तु जाट बाहुल्य इलाकों में नहीं|

और यह भी प्रमाणित बात है कि जाटवाद से मनुवाद कहीं ज्यादा गुना तुच्छ सोच, अमानवीय व् मानव सभ्यता का अहितकारी रहा है| इसीलिए जाट को चाहिए कि वह इस मनुवाद से हर सम्भव अपने जाटवाद की रक्षा करे|
जाटवाद एक गणतांत्रिक थ्योरी रही है जबकि मनुवाद एक अधिनायकवाद थ्योरी रही है| दोनों में आइडिओलोजिकली और जेनेटिकली दिन-रात का अंतर है| एक जाट मनुवादी बनने की कोशिश तो कर सकता है, परन्तु उसका जीन उसको ऐसा बनने नहीं देता| इसलिए बेकार की कोशिशें करने और अपने ऊपर किसी और थ्योरी को कॉपी-पेस्ट मारने की व्यर्थ कोशिशों को छोड़ के वही बने रहें जो हैं और उसी का संवर्धन करके उसको और ज्यादा विकसित करें|

मेरी निजी सोध और अनुभव दोनों यह सत्यापित करते हैं कि मनुवाद को भारत से बाहर किसी भी थ्योरी से तुलना तक में भी नहीं रख सकते, जबकि जाटवाद का खाप सिस्टम डेवलप्ड देशों के सोशल जूरी जस्टिस सिस्टम का रॉ रूप है, जाटों की फोर्ट्रेस रुपी चौपालें डेवलप्ड कन्ट्रीज के सेंट्रल हॉल्स, सिटी हॉल्स के समान्तर रखी जा सकती हैं| जाटों का एक ही गौत में विवाह ना करने की परम्परा, यूरोप के कई देशो में पाई जाने वाली इसी प्रकार की व्यवस्था के समांतर बैठती है| जाटों के यहां नौकर-मालिक की जगह सीरी-साझी का कांसेप्ट होना, गूगल जैसी कंपनी के वर्किंग कल्चर के समान्तर बैठता है|

इसीलिए अपने पुरखों के इस पहले से ही ग्लोबल सोच के कल्चर को दुत्कारें नहीं, छोड़ें नहीं अपितु इसको सुधारें और विकसित करके आगे बढ़ाएं| अगर जाटवाद को थोड़े-बहुत मूलभूत सुधारों के साथ अमेंड करके लागू किया जाए तो यही वो थ्योरी है जो भारत कहो या खासकर जाटलैंड के सोशल स्टेटस को वर्ल्डक्लास का बना सकती है| जबकि मनुवाद कोरा मानवता का दुश्मन, इंसान को इंसान से भिड़ाने वाला, उसमें ऊंच-नीचता की मानसिकता भरने वाला तन्त्र है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक



Source: https://books.google.fr/books?id=GEPYbuzOwcQC&pg=PA160&lpg=PA160&dq=E+joseph+dc+rohtak&source=bl&ots=MeeUj_j7kv&sig=VbFhpfLq3f7TCp2cNL41FFa1DSA&hl=en&sa=X&ved=0ahUKEwjizaul_6LOAhXJthoKHdIaB_0Q6AEIHDAA#v=onepage&q&f=false

शॉट-पुटर इंद्रजीत सिंह सैनी का दूसरा टेस्ट भी पॉजिटिव, रियो जाना लगभग नामुमकिन - एनडीटीवी इंडिया!

भाई इंद्रजीत जी अगर आपको भी फटाफट न्याय चाहिए तो अपनी ओलिंपिक बर्थ को किसी जाट खिलाडी से ट्रायल के लिए चैलेंज करवा लो और फिर देखो झटका कि कैसे पी.एम.ओ. से ले के खेल-मंत्रालय तक दिन-रात एक कर देता है आपको कम-से-कम "बेनिफिट ऑफ़ डाउट" (और कोई ऑप्शन ना भी बचे तो) दिलवाने के लिए| और थोड़ा सा आपके खिलाफ हुई साजिश में किसी जाट के हाथ होने के एंगल का तड़का और लगवा लेना, अन्यथा यूँ इतनी सहजता से बात ना बनने वाली।

फूटी किस्मत आपकी, कि आपको किसी जाट ने ट्रायल के लिए चैलेंज नहीं किया और उधर पिछड़ों का स्वघोषित मसीहा राजकुमार सैनी भी आपकी सपोर्ट में अभी तक नहीं आया। और तो और भाई जी आपकी कम्युनिटी के तो इतने वोट भी नहीं पंजाब और यूपी में जिससे कि आने वाले इलेक्शन्स में माइलेज लेने हेतु मोदी महाशय पर्सनल इंटरेस्ट दिखाएं। बैड लक भाईजान।

फिर भी दिल से उम्मीद है कि जैसे नर सिंह यादव को न्याय मिला, उसी स्तर, तवज्जो और तीव्रता के साथ आपको भी मिले।

विशेष: यह नोट लिखते वक्त मैं बेहद सीरियस हूँ, क्योंकि अगर पीएम मोदी और खेल मंत्रालय सब खिलाडियों को एक समान मानता है और खेलो में जातिवाद की राजनीति नहीं करता तो जाहिर सी बात है भाई इंद्रजीत सैनी को भी "बेनिफिट ऑफ़ डाउट" दे के उनका रियो का रास्ता साफ़ किया जाए।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 1 August 2016

12 साल में तो कुरड़ी के भी भाग बहोड़ आते हैं!

यह एक हरयाणवी कहावत है जिसका मतलब है कि 12 साल में तो निकम्मे से निकम्मे या कहो कि निठ्ठले से निठ्ठले दिखने वाले इंसान की बुद्धि भी चलने लग जाती है अगर वो एक परिवेश स्थिर रहा हो तो, ठीक वैसे ही जैसे एक कुरड़ी (कूड़े का ढेर) भी 10-12 साल या तर्कसंगत काल में हरीभरी हो जाती है यानी उस पर अंकुर फूट आते हैं| वैसे अंकुर और हरियाली तो साल-छह महीने में भी उग आती है, फिर इस कहावत के साथ 12 साल क्यों जोड़ा गया, यह मेरे लिए भी खोज का विषय है|

र यही वह थ्योरी है जिसकी तहत बाबा-साधु लोग इतने सिद्ध बन जाते हैं कि उनकी प्रसिद्धि फैलने लगती है| वजह है इस थ्योरी का ऑब्जरवेशन कांसेप्ट| स्थिरता में बैठे हुए साधु-ध्यानी या आमसमाज के ध्यानी में आसपास के वातावरण व् समाज के माहौल का ज्ञान उसी गहनता व् गहराई से उसमें उतरता है जैसे खेती पर धीमी बूंदाबांदी के तहत पड़ने वाली बूँदें, जो कि पौधे में गहराई तक समाती हैं| इसलिए एक कूड़े के ढेर यानी कुरड़ी की भांति एक जगह जमा साधू का ज्ञान भी उसी तरह उभर के आता है जैसे एक दिन लम्बे समय से एक जगह पड़े उस कूड़े के ढेर पर हरियाली उग आती है|

परन्तु दुविधा यह है कि इनमें से जो सिद्ध बनते हैं वो मात्र 1% होते हैं और जो 99% सिद्धि तक नहीं पहुँच पाते उन पर वो थ्योरी लागू होती है कि "अधूरा ज्ञान, जी-जान का झँझाल, समाज का काल"। और शुरू कर देते हैं अपने अधूरे ज्ञान के साथ समाज को ठगना-लूटना, समाज में वैमनस्यता फैलाना और समाज को छिनभिन्न करना या एक ऐसी दिशा में ले जाना जो यह खुद कभी हासिल ही नहीं किये होते हैं| और ऐसे यह 99% वजह बनते हैं समाज में पाखंड-आडम्बर-ढोंग फैलाने और रचने की|

परन्तु यहां जो काम की बात है वो यह है कि समाज को इनको मोड्डा-पाखंडी-आडम्बरी-ढोंगी बोलने के साथ-साथ निठ्ठला बोलने से पहले इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि "12 साल में तो कुरड़ी के भी भाग बहोड़ आते हैं"| इसलिए अगर यह निठ्ठले बैठे हुए से भी प्रतीत होते हैं तो इनको निठ्ठला मत बोलो क्योंकि उस दौरान इन पर प्रकृति वही कृपा कर रही होती है जो एक कुरड़ी पर कर रही होती है| तो क्या पता इनमें से कोई ऐसा भी हो जो 1% की राह की ओर अग्रसर हो| इसलिए इनको ढोंगी-पाखंडी-आडम्बरी बेशक बोलो परन्तु निठ्ठला-निकम्मा मत बोलो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 30 July 2016

हिन्दू धर्म का यह सिस्टम जो दान तो लेता है, परन्तु हिसाब या विश्वास नहीं देता; अब लदवाना होगा!

हिन्दू धर्म में ही है अपने लोगों को जातिवाद और वर्णवाद के नाम पर बाँट के रखने की परम्परा, बाकियों में इन जैसा घिनौना रूप तो कम-से-कम नहीं:

1) ईसाई चर्च में इसलिए दान देते हैं क्योंकि उनको पता होता है कि चर्च वाले उनके दान को उनके धर्म को फैलाने, उनके इतिहास-संस्कृति को सहेजने, धर्म के लोगों पर किसी प्राकृतिक या कृत्रिम आपदा से निबटने व् धर्म के दुश्मनों से निबटने में लगाएंगे| अगर उनको पता चले कि उनका ही दान दिया पैसा उनके ही धर्म के अंदर हिन्दू धर्म की भांति जातिवाद व् वर्णवाद को बढ़ावा देने हेतु प्रयोग होगा या होता है तो वो अगले ही दिन पादरियों के मुंह नोंच लें| 1789 में हुई फ़्रांसिसी क्रांति इसी का उदाहरण थी जिसमें कि उद्योग और धर्म के पाखंडियों को मात्र 29 युवकों की टोली ने सीधा कर दिया था और ऐसा सीधा किया था कि आजतक नियम लागू है कि एक तो धर्म से सम्बन्धित कोई भी कार्यक्रम चर्च के परिसर से बाहर यानी गली-मोहल्लों में नहीं होगा और दूसरा धर्म के नाम पर दान आये पैसे का धर्म के ही अंदर वैमनस्य फैलाने में प्रयोग नहीं होगा|

2) मुस्लिम मस्जिद में इसलिए दान देते हैं क्योंकि उनको पता होता है मस्जिद में गए धन पर हिन्दू धर्म की भांति मात्र 2-4% लोगों का ही अधिपत्य नहीं होगा; बंटेगा तो सब धड़ों में बंटेगा वो भी बराबरी से अन्यथा नहीं| इनको पता होता है कि तुम पर मुज़फरनगर जैसी दंगे वाली स्थिति आएगी तो तुम्हारी मस्जिद-मदरसे अपने धन के भंडारों को तुम्हारी मदद के लिए खोल देंगे| और मुज़फरनगर दंगे के वक्त ऐसा देखा भी गया| इनको पता है कि ईसाईयों की भांति तुम्हारे धन को भी तुम्हारे धर्म को फैलाने, तुम्हारी इतिहास-संस्कृति को सहेजने, धर्म के लोगों पर किसी प्राकृतिक या कृत्रिम आपदा से निबटने व् धर्म के दुश्मनों से निबटने में लगाएंगे| भले ही दुश्मनों से निबटने के लिए यह लोग गोल-बारूद तक चले जाते हैं परन्तु धर्म के अंदर जाट बनाम नॉन-जाट जैसे अखाड़े खड़े करने में प्रयोग नहीं करते| शुक्र है कि मुस्लिम हो या ईसाई, हिंदुओं की भांति इनके अल्लाह व् ईसामसीह, अस्त्र-असला (गदा-तलवार-भाले-फरसे ईत्यादि) हाथों में धार के अपने ही अनुयायिओं पर अतरिक्त प्रेशर वो भी डर-भय वाला बनाने हेतु तो नहीं विरजवाये होते| और धर्म के अंदर करते भी हैं तो कम से कम इस तरह तो कतई नहीं कि समाज की एक जाति एक तरफ और बाकी सब एक तरफ| सिया-सुन्नी धड़े हैं इनके यहां, परन्तु बराबरी की संख्या में और आपस में विचारधारा के मतभेद पे| जाट बनाम नॉन-जाट वालों की भांति किसी के गौरव-स्वाभिमान को तोड़ने-झुकाने की भांति नहीं|

प्रेमचंद ने लिखा था - " यह बिलकुल गलत है, कि इसलाम तलवार के बल से फैला. तलवार के बल से कोई धर्म नहीं फैलता,और कुछ दिनों के लिए फ़ैल भी जाय ,तो चिरजीवी नहीं हो सकता. भारत में इस्लाम के फैलने का कारण , ऊंची जातवाले हिन्दुओं का नीची जातियों पर अत्याचार था. बौद्धों ने ऊंच नीच का ,भेद मिटाकर नीचों के उद्धार का प्रयास किया ,और इसमें उन्हें अच्छी सफलता मिली, लेकिन जब हिन्दू धर्म ने फिर ज़ोर पकड़ा ,तो नीची जातियों पर फिर वही पुराना अत्याचार शुरू हुआ ,बल्कि और जोरों के साथ. ऊंचों ने नीचों से उनके विद्रोह का बदला लेने की ठानी . ...यह खींच-तान हो ही रही थी कि इसलाम ने नए सिद्धांतों के साथ पदार्पण किया .वहां उंच-नीच का भेद न था .छोटे-बड़े ,उंच-नीच की कैद न .थी ....इसलिए नीचों ने इस नए धर्म का बड़े हर्ष से स्वागत किया,और गाँव केगाँव मुसलमान हो गए. जहाँ वर्गीय हिन्दुओं का अत्याचार जितना ही ज्यादा था, वहां यह विरोधाग्नि भी उतनी ही प्रचंड थी,और वहीं इसलाम की तबलीग भी खूब हुयी ...यह है इसलाम के फैलने का इतिहास, और आज भी वर्गीय हिन्दू अपने पुराने संस्कारों को नहीं बदल सके हैं......तो इसलाम तलवार के बल से नहीं ,बल्कि अपने धर्म-तत्वों की व्यापकता के बल से फैला."---प्रेमचंद( नवम्बर 1931)

3) सिख धर्म वाले गुरुद्वारों में इसलिए दान देते हैं क्योंकि उनको पता होता है कि तुम्हारा दान गरीब-मजलिस को खिलाने में प्रयोग किया जायेगा| तुम्हारे इतिहास व् इतिहास पुरुषों की गौरवगाथा के बखानों में प्रयोग किया जायेगा| धड़े इनके यहां भी हैं परन्तु हिन्दू धर्म की भांति हर धड़े को एक ही बिरादरी वाला हेड नहीं करता| उस धड़े को उसी समुदाय वाला हेड करता है और अपने हिस्से के दान के पैसे को अपनी निगरानी में बरतवाता है|

4) बुद्ध धर्म, अपने धर्म के अंदर शांति और एकलास रखने वाला सबसे बुद्धिजीवी धर्म| इस धर्म के दान और अध्यात्म की ताकत का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि जापान जैसे सबसे अगड़ी श्रेणी की टेक्नोलॉजी इंनोवट करने वाले देश इस धर्म के अनुयायी हैं|

5) ऐसे ही कई सारे अन्य धर्म, जैसे कि जैन इत्यादि जो अपने धर्म के अंदर कभी भी इतने व्यापक स्तर का जातिवाद और वर्णवाद नहीं होने देते, जितना कि हिन्दू धर्म में है|

6) हिन्दू धर्म वाले कहते मिलेंगे अजी हम तो बड़े ही शांतिप्रिय धर्म हैं, आज तक का हमारा इतिहास उठाकर देख लीजिये, हमने किसी पे हमला नहीं किया, विदेशों में लूटपाट करने नहीं गए| इसकी वजह इन्हीं की थ्योरी में है| और वो है कि आपने दूसरों की तरह अपने धर्म के अंदर एकलास जो बना के नहीं रखा? जब आपने धर्म के अंदर ही जातिवाद और वर्णवाद बना के खड़ा कर दिया तो आपको इसकी फुर्सत कहाँ से मिलेगी कि आप किसी बाहर वाले पे आक्रमण करें? आप तो अपने धर्म के अंदर ही कभी दलितों पर, कभी पिछड़ों पर आक्रमण करते रहे हैं| जो धर्म के अंदर काबू का नहीं होता जैसे कि जाट, उनके खिलाफ साजिशें, षड्यन्त्र रचते रहे हैं| आपको इनसे फुर्सत ही कब मिली जो आप धर्म के बाहर जा कर हमले या लूटपाट करने की सोचते भी? बल्कि धर्म के अंदर इन चीजों में उलझे रहे, इसीलिए तो विदेशी आ के आपकी 1100 साल तक बैंड बजाये हैं| और इस 1100 साल के लम्बे इतिहास से सीख भी कुछ नहीं ली, वही ढाक के तीन पात, चौथा होने को ना जाने को| बाजी-बाजी 68 साल की आज़ादी हुई नहीं कि खोल दिए वही धर्म के अंदर ही कांट-छांट के अखाड़े जिनके चलते उस वक्त गुलाम हुए थे| सबसे बड़ा उदाहरण जाट बनाम नॉन-जाट का अखाडा सबके सामने है|

उद्घोषणा: मैं इसी विषय पर खुली बहस चाहता हूँ| इस विषय के इर्दगिर्द तमाम तथ्य सुनना और सीखना चाहता हूँ| हो सकता है कि इन तथ्यों को रखते हुए मैं गलत भी होऊं| परन्तु मैं बहुत ही सीरियस हूँ इस मुद्दे को लेकर, क्योंकि धर्म के नाम पर मेरे से (जाट से) ही पैसा लेकर मेरे ही खिलाफ जाट बनाम नॉन-जाट रचते हैं| मेरे को जाट बनाम नॉन-जाट का अखाडा कोई मुस्लिम आतंकवादी आ के नहीं थमा गया, या कोई ईसाई आ के नहीं मुझे इस घिनौनी बाँटने और काटने के षड्यन्त्र में डाल गया अपितु मेरे ही धर्म का होने के दावे करने वालों वालों ने मुझे इसमें डाला है| जिसमें कि अगर मैं नहीं पड़ा होता तो गणतांत्रिक खाप थ्योरी के मेरे अपने "जाट-पुरख" सिद्धांत में शांति और सम्मान से जी रहा होता| इसलिए मैं चाहता हूँ कि मैं उस जड़ को ही खत्म कर दूँ, उस परम्परा को ही खत्म कर दूँ जिसको कहते हैं कि "दिए हुए दान का हिसाब नहीं माँगा जाया करता!" या कहते हैं ही "गुप्तदान, सर्वोत्तम दान!" हाँ, भाई सर्वोत्तम बोल के एक झटके में हिसाब देने से जो पिंड छूट जाता है, तो सर्वोत्तम तो अपने आप ही होगा|

मैं चाहता हूँ कि अब यह सिस्टम जो दान तो लेता है, परन्तु हिसाब नहीं देता; लदवाना होगा| जो दान लेता है और सिर्फ 2-4% बिरादरी वाले एक समुदाय के आधिपत्य में ही जमा हो के रह जाता है, फिर वो उसको जाट बनाम नॉन-जाट रचने में लगाएं, दलित उत्पीड़न में लगाएं या जहां मर्जी लगाएं, कोई पूछने वाला ही नहीं|
इसलिए इस पोस्ट पर और इसके मर्म को ना समझते हुए सिर्फ गाली गलोच करके ना जावें, कोई तर्क-वितर्क की बात हो तो रख के जावें| वरना आपकी गाली, आपका गुस्सा आपके सर-माथे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 29 July 2016

भक्ति और अंधभक्ति में फर्क!

भक्ति बिना ढिंढोरे की:
ताऊ देवीलाल और लालू प्रसाद यादव ने दिल्ली स्थित अपने एम.पी. आवासों पर भी 3-3, 4-4 गायें रखी।

अंधभक्ति खाली छिछोरेपन की:
1) ताऊ देवीलाल और लालू यादव द्वारा गाय पालने पर यही अंधभक्तों के आका बिरादरी नाक-भों सिकोड़ के ताने दिया करती थी कि इनके एम.पी. निवासों पर तो गोबर की बदबू फैली रहती है।

2) गौभक्तों के सफेदपोश एम.पी. तो छोडो, उनकी तो बात ही क्या करनी; क्या जो भगमापोश गंगा किस सफाई तक का मंत्रालय सम्भालने वाली उमा भारती, बात-बात पर कभी पाकिस्तान भेजने की बात करने वाले, कभी मुल्लों के जितने बच्चे पैदा करने वाले साक्षी महाराज, साध्वी प्राची, योगीनाथ इत्यादि क्या इन तक के भी एम.पी. आवासों पर है एक बछिया भी बंधी?

इसीलिए हरयाणा में और खासकर जाटों के यहां इन बड़बोलों का एक ही इलाज होता आया है और वो है लठ। पहुंचे हुए जाट अच्छे से जानते हैं कि यह सिर्फ बातों के भूत हैं, जिनका इलाज सिर्फ लठ है। और जो पहुँचे हुए नहीं होने की नौटंकी करते हैं वो इन बहरूपियों के यहां पानी भरते हैं और अपनी दुर्गति के साथ-साथ समाज का बंटाधार किये रहते हैं।

सबसे बड़ा अवरोध है यह भारतीय समाज की तरक्की का। एक इकलौते यही हैं बस जो धर्म के नाम पे लोगों को अपना बताते हैं (हिन्दू) और उन से धर्म के नाम पे जो पैसा मिलता है उसको इन्हीं हिंदुओं को बाँट के रखने पे बहाते हैं। उदाहरणतः हरयाणा-राजस्थान में जाट बनाम नॉन-जाट, गुजरात में पटेल बनाम नॉन-पटेल, यूपी-बिहार में यादव बनाम नॉन-यादव।

क्या कभी देखा है ईसाई, बुद्ध या मुस्लिम धर्म के धर्मगुरुवों को धर्म के नाम पे लिए पैसे को अपने ही अनुयायियों में चीर-फाड़ मचाने हेतु इस वाहियात तरीके से प्रयोग करने में जैसे यह हिन्दू वाले करते हैं? कोई ईसाई-बुद्ध-सिख-मुस्लिम धर्म के नाम पर दान देता है तो उसको पता होता है कि उसका धन उसकी संस्कृति-इतिहास-मान-सम्मान के संवर्धन में लगाया जायेगा। परन्तु यह हिंदुत्व के नाम पर खाने वाले, इनका सबको पता है कि तुम्हारी ही ऐसी-तैसी करने में यह इस पैसे को प्रयोग करेंगे और फिर भी फद्दू बनके इनको चढ़ाते रहते हैं।

मेरे ख्याल से इससे बड़े उदाहरण नहीं हो सकते, पर फिर भी लगता है कि लोगों को इस अंधभक्ति नामक गुलामी की जंजीरों प्यार हो चला है। लोगों को समझना होगा कि अंग्रेज-मुग़ल काल के अलावा एक गुलामी से छुटकारा पाना और बचा है और उसका नाम है यह अंधभक्ति और इसके रचियता।

विशेष: अब कृपया करके मुझे कोई यह कहते हुए मत आना कि तुम हिंदुत्व के पीछे पड़े रहते हो, कभी मुल्लों पर क्यों नहीं लिखते। तो ऐसे लोगों को बता दूँ ही यूनियनिस्ट मिशन में हर धर्म का सदस्य है और अपने धर्म की बुराईयों पर रोशनी डालने का काम हमारे यहां उस धर्म से सम्बन्धित सदस्य का है। इस मामले में हम अपने घर की सफाई पहले और पड़ोसी की बाद में वाले सिद्धांत के अनुसार चलते हैं। हमारे मिशन के मुस्लिम सदस्य उनके धर्म के यहां की बुराईयों पर पटाक्षेप करते रहते हैं। परन्तु कोई भी दूसरे के धर्म में घुस के उनके यहां का गन्द नहीं देखता, यह उस धर्म वाले का घर है; अतः उसकी जिम्मेदारी है कि वो ही इसका पटाक्षेप करे और यह अच्छे से किया जा रहा है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"साम्मण उतरया - म्हारे हो आंगणा"


टेक: 'बादळ उठ्या री सखी, मेरे सांसरे की ओड़'

साम्मण उतरया - म्हारे हो आंगणा, घटा मतवाळी छा रही|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||
बादळ उठें उमडें-घुमडें, रुक्खां कै गळ-मठ्ठे घालैं,
प्यछ्वा के झ्यकोळए चालैं, ओळए-बोळए-सोळए चालैं|
मोराँ के पिकोहे गूंजें, स्यमाणे अर अम्बर झूमैं,
नाचण के हिलोरें पड़ें, गात्तां म्ह डयठोरे डटैं।।
सुवासण ज्यूँ हरियल खेती, जावै चढ़ी-ए-चढ़ी|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||

कोथळीयाँ के लारें पडैं, शक्कर और पारे घूटें,
द्य्लां म्ह हुलारे फुटटें, भाहणां के रे हिया छूटें|
पींघां की च्यरड़-म्यरड़, सास्सुवां के नाक टूटें,
माँ के जाए कद आये न्यूं, नैनां म्ह तें अश्रु फूटें||
मुखड़ा द्य्खा दे रे बीरा, बाट मैं जोह करड़ी रही|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||

बाग्गां से फूल जडूं, फून्द्याँ आळी पोंह्ची बनूं,
छ्यांट-छ्यांट रंग धरूं, बीरे की कलाई भरूँ|
मूळ तें हो सूद प्यारा, भतिज्याँ के लाड लड़ूं,
माँ-बाप्पां से भाई हो सैं, किते छिक्कें किते टांड धरुं||
हे री ना चहिये मैंने चांदी-सोना, बस माँ के ज्यायां की हो उम्र बड़ी।
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||

नगरां के प्यटारे हो सें, भक्ति के भी लारे हों सें,
दादे-खेड़े के द्वारे धोकूं, जो पुरख्यां के मान हो सैं।
सासु-पीतस नैं श्याल उढ़ाउं, ससुर-पितसरे की खेस्सी ल्याऊं,
फुल्ले-भगत नयुँ-ए-हांडै रूळदा, तैने तो बस ठोसयां जळाऊँ।
जहर हो पीणा, भोळे जिह्सा जीणा, घड़ी बख्त की गा रही|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||
साम्मण उतरया - म्हारे हो आंगणा, घटा मतवाळी छा रही|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||

जय यौद्धेय!

लेखक: फूल कुमार मलिक!

Wednesday, 27 July 2016

जाट जातिवादी नहीं होता, जाट को ऐसा बताने वालों की नियत में द्वेष होता है!

ग्रेटर हरयाणा (वर्तमान हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-उत्तरी राजस्थान) के हर दस किलोमीटर पर एक गुरुकुल, हर दूसरे डिस्ट्रिक्ट सिटी में एक जाट कॉलेज और एक जाट स्कूल मिलता है| गुरुकुल अधिकतर जाटों की दान की हुई भूमि पर बने हुए हैं|

बात करता हूँ जाति के नाम पर बने हुए जाट स्कूल व् कॉलेजों की, इनमें किसी में भी यह नियम नहीं कि सिर्फ जाट का बालक ही इनमें पढ़ेगा, या इनका टीचिंग से ले नॉन-टीचिंग स्टाफ सब सिर्फ जाट ही होगा|

परन्तु इसी हरयाणा में दो कॉलेज तो मैं निजी तौर पर जानता हूँ, जिनके नाम भी ब्राह्मण जाति के महापुरुषों पर हैं और टीचिंग व् नॉन-टीचिंग पूरा स्टाफ सिर्फ ब्राह्मण होगा, इस कंडीशन के साथ यह कालेज चलते हैं| शायद इनमें पढ़ने वाले भी कम से कम 90% तो ब्राह्मण हैं ही, शायद हों इससे ज्यादा भी| और यह कॉलेज हैं कुरुक्षेत्र में पड़ने वाला परशुराम कॉलेज और जींद जिले के रामराय में पड़ने वाला एक संस्कृत महाविद्यालय|
परन्तु फिर भी अस्वर्ण हो या खुद स्वर्ण ही क्यों ना हो, इनको जातिवादी दिखेगा या यह जातिवादी बताएँगे तो जाट को|

क्या वक्त नहीं आ गया है कि अब ऐसे तमाम जाति-विशेष के स्टाफ और स्टूडेंट दोनों स्तर पर आरक्षित स्कूल-कालेजों को या तो सबके के लिए खुलवाया जाए, अन्यथा इन पर ताले लगवाए जाएँ?

विशेष अनुरोध जाट समाज से: दो चीजें दुरुस्त कर लो:

1) गाँव से जब भी अपने बच्चे को कुछ बड़ा बनने के लिए शहरों में भेजो तो उसको यह कदापि मत कहो कि खेती छोटा काम है, दुखदायी काम है, घाटे का काम है, यहाँ जीवन नहीं; बल्कि यह कहो कि तुम्हें अपनी जाति-संस्कृति-गाँव-खेड़े का नाम रोशन करने के साथ-साथ वापिस मुड़ के इनके सम्मान और सम्पदा को बढाने और बचाने में योगदान देना है| पहले वाला कारण देते रहे बुजुर्ग इसलिए मेरे पिता वाली पीढ़ी (आज के 45 से 65 साल का ग्रुप) में 90% जाट वापिस गाँवों की तरफ मुड़े ही नहीं| और यही वजह है कि शहरी चकचौंध को ही संस्कृति मान बैठे और रम गए जगराते-भंडारे-चौकी इत्यादि की संस्कृति में| यह घर के अगले दरवाजे से कमा के लाते हैं और इनकी तथाकथित आधुनिकता में चूर औरतें घर के पिछले दरवाजे से अधिकतर कमाई ढोंगी-पाखंडी-सत्संगी-पूछा पाडू-बाबों इत्यादि के नल में उतरती रहती है और राजी हुई रहती हैं कि तुमसे बड़ी कलावंती ना कोई हुई ना होगी| सच कह रहा हूँ 90% शहरी जाटों की जिंदगी इससे ज्यादा कुछ नहीं कि मर्द अगले दरवाजे से कमा के लाएगा और घर की औरतें उसको पिछले दरवाजे से पाखंडियों को पूजती रहेंगी| और यह पाखंडी भी तो कौन है; सिर्फ और सिर्फ मंडी-फंडी|

2) मेरे दादा जी वाली पीढ़ी अपने दान के पैसे को अपने हाथों से लगाती थी, इसलिए अंधाधुंध स्कूल-कालेज-गुरुकुल बनवाये| और मेरे पिता वाली पीढ़ी ने यह ठेका अपनी घर की औरतों के जरिये थमा रखा है इन ढोंगी-पाखंडियों को, इसलिए सिर्फ और सिर्फ मंदिर-धर्मशालाएं बन रही हैं| और बाकी के पैसे से जाट बनाम नॉन-जाट के दंगल फाइनेंस हो रहे हैं|

इसलिए और कृपया आप मेरे पिता की पीढ़ी वालों से अनुरोध है कि कृपया हम आपके बच्चों को समझें, हमारा साथ देवें, हम अपने दादाओं की भांति हमारी कमाइयों के दान से स्कूल-कालेज बनवाना चाहते हैं, जाट भवन व् हैबिटेट सेंटर्स बनवाना चाहते हैं; मात्रा और मात्र मंदिर या धर्मशालाएं नहीं| मंदिर-धर्मशालाएं जरूरत के हिसाब से बनें परन्तु इतनी बेहिसाबी भी नहीं कि ऊपर बैठे हमारे दादे-पड़दादे हमारे को कोसते हों|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 24 July 2016

जातिगत द्वेष की राजनीति का इससे वाहियात और घिनौना रूप शायद ही भारतीय इतिहास में पहले कभी देखने को मिला हो!

11 जुलाई को ही नरसिंह यादव का डोपिंग टेस्ट फ़ैल हो चुका था, पोल खुलने के भय से उसको दबाया जा रहा था| 23 जुलाई तक इंतज़ार किया गया कि किसी तरह डोपिंग का इफ़ेक्ट खत्म हो जाए, परन्तु नहीं हुआ| और 23 जुलाई को फिर से किये गए टेस्ट में फिर से फ़ैल पाये रिजल्ट को पब्लिक करना इस बात के मद्देनजर इनकी मजबूरी हो गई थी कि रियो में डोपिंग टेस्ट से हो के गुजरना ही होगा| और वहाँ जानते-बूझते हुए वो एक डोपिंग में फ़ैल खिलाड़ी को नहीं भेज सकते, वर्ना भारत को अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक एसोसिएशन से भारी पेनल्टी झेलनी पड़ती| - खबर एक दम अंदर के विश्वस्त सूत्रों से हासिल हुई है|

ऐसे में सवाल यह उठता है कि 17-18 जुलाई को जब रियो टीम की लिस्ट रियो भेजी गई तो उसमें जानते-बूझते हुए एक ऐसे खिलाडी का नाम क्यों भेजा गया जो डोपिंग टेस्ट में फ़ैल हो चुका था? क्या भारत में जातीय-द्वेष की राजनीति इतना गन्दा रूप ले चुकी है कि इन लोगों के लिए देश का मान-सम्मान तक मिटाना कोई बड़ी बात नहीं रह गई? क्या जब 11 जुलाई को ही नर सिंह यादव डोपिंग टेस्ट फ़ैल कर चुका था तो सुशील कुमार को नहीं बुलाया जा सकता था?

और यह हालत इस देश की तब है जब राष्ट्रवाद का दम भरने वालों की सरकार है| हिन्दू एकता और बराबरी के नारे लगाने वालों की सरकार है| क्या इनका यही राष्ट्रवाद है कि बस एक जाति विशेष का खिलाड़ी आगे नहीं जायेगा, बेशक देश का कोटा खाली चला जाए, बेशक देश की नाक कट जाए?

इससे भी बड़ा दुःख इस बात का है कि यह भार केटेगरी ऐसी केटेगरी थी जिसमें मैडल आने की सबसे प्रबल दावेदारी थी| एक दो बार का ओलिंपिक मेडलिस्ट हैट्रिक लगाने की कगार पर था, जो कि लगती तो भारतीय ओलिंपिक इतिहास में अनूठा कीर्तिमान होता|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

मनुवाद पर श्राप है जाट का!

मनुवाद को परमात्मा का श्राप है कि वो जाट की आत्मा दुखाये या जाट से सीधे टकराने की सोचे, तो उसमें हमेशा मुंह की खायेगा| मेरी इस बात को सत्यापित करती कुछ ऐतिहासिक तारीखें:

1) "हिस्ट्री ऑफ़ हरयाणा" पुस्तक के लेखक सर के.सी. यादव अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि मनुवाद ने बुद्ध बने जाटों पर कहर बरपाया, जिसकी वजह से जब जाट ने मनुवाद को ललकारा तो ऐसा ललकारा कि उनके जौहर और विजय शैली से प्रभावित हो अरब के खलीफा ने गठवाले जाटों को तो उनके यहां की सर्वोच्च उपाधि "मलिक" दे, अपने बराबर का माना|

2) सातवीं सदी में जब राजा चच और उसके पुत्र दाहिर ने सिंध में जाटों पर अत्यधिक अत्याचार किये तो किये, साथ ही अरब के व्यापारियों से पंगा ले बैठा और इस पर मोहमद बिन कासिम ने सिंध पर आक्रमण कर उसको हरा दिया| क्योंकि दाहिर ने जाटों पर कानून लगा रखा था कि जाट ना ही तो घोड़े की सवारी कर सकते और ना ही तलवार उठा सकते तो ऐसे में जब बिन कासिम आया तो जाट जैसी भीतरी ताकत उसी के कानून के चलते उसके साथ ना आ सकने की वजह से वो हार गया| यानि जाट की आत्मा दुखाई तो परमात्मा ने सीधी चोट मारी|

3) पानीपत की तीसरी लड़ाई के वक्त पूना के पेशवाओं ने महाराजा सूरजमल को धोखे से बंदी बनाने की सोची; उनके साथ विश्वासघात किया तो जाट जैसी ताकत पानीपत में साथ ना होने की वजह से मनुवाद ने ऐसी शिकस्त खाई कि कहावत चली, "बिन जाट्टां किसने पानीपत जीते!"
 

4) सर छोटूराम के साथ मिलकर किसान-दलित-पिछड़े के लिए कार्य करने की बजाये मनुवाद हमेशा उनकी राह में रोड़े अटकाता रहा परन्तु फिर भी सर छोटूराम यूनाइटेड पंजाब में लेनिन-मार्क्स-चे ग्वेरा से भी अव्वल दर्जे का समाजवाद लागू कर उसको सफल बना के गए| और यह लोग सिर्फ खड़े देखते रहने के सिवाय कुछ नहीं कर पाये|
 

5) सरदार भगत सिंह को फांसी तुड़वा के गांधी जैसे मनुवादियों ने उनके प्रभाव को कम करना चाहा, परन्तु उनकी लाख कोशिशों के बावजूद भी सरदार भगत सिंह भारत के तो सबसे बड़े देशभक्त कहलाते ही हैं, साथ-साथ विश्व में उनके नाम की अलग पहचान है|

6) फरवरी 2016 में जाटों को एकमुस्त ताकत के साथ दबाने और कुचलने की कोशिश की गई, परन्तु मुंह की खानी पड़ी|

7) ऐसा ही कुछ जाट खिलाडियों के साथ किया जा रहा है, परन्तु जिधर भी यह जाट खिलाडियों के दिल दुखा रहे हैं, वहीँ-वहीँ यह श्राप इनका पीछा करता है|

इसलिए मनुवाद को यह बात समझनी चाहिए कि तू दलित-पिछड़े यहां तक कि राजपूतों तक पर राज कर सकता है, उनको अपने वशीकरण में रख सकता है; परन्तु साथ ही यह मत भूल कि जाट के मामले में तुझे सीधा परमात्मा का श्राप है| जाट को तू परेशान जरूर कर सकता है, परन्तु पराजित नहीं| जाट को तू सिर्फ मूल शंकर तिवारी उर्फ़ महर्षि दयानन्द बनके, सत्यार्थ प्रकाश में "जाट जी" बोल जाट की स्तुति करके तो जीत सकता है, परन्तु जाट की आत्मा दुखा के या उसको आँखें दिखा के नहीं|

विशेष: इन तारीखों को पढ़ के जाट आश्वस्त हो कर हाथ-पे-हाथ धर कर ना बैठे, अपितु इन तारीखों से प्रेरणा लेवें और वर्तमान जाट पर चल रहे मनुवाद के दमनचक्र और जाट को अपनी भाईचारा बिरादरियों से अलग करने के इनके षड्यंत्रों को तोड़ने हेतु जागरूकता फैलाते रहें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 22 July 2016

फसल बीमा की उगाही लाइफ-इंस्योरेंस और व्हीकल-इंस्योरेंस की तर्ज पर परन्तु भुगतान सरकारी मुआवजा तर्ज पर!

पीएम मोदी की फसल बीमा योजना कहती है कि यह बीमा यूनिट में मिलेगा, यूनिट यानि एक गाँव; मतलब बीमा भुगतान के तरीके वही सरकारी मुआवजा देने वाले परन्तु लेने का तरीका लाइफ-इंस्योरेंस और व्हीकल-इंस्योरेंस वाला|

मतलब बिजली का तार गिरने से या किसी भी वजह से एक गाँव की अगर 100-50 एकड़ जमीन की फसल जल गई तो बीमा नहीं मिलेगा| यानि बीमा लेना है तो या तो पूरे गाँव की फसल को आग लगाओ नहीं तो खुद फांसी पे लटक जाओ|

दूसरा अगर आपके गाँव में आपके खेतों से निकलते नदी-नहर-रजवाहे से पानी टूट गया और इस टूटन के आसपास के 100-50-500 एकड़ की फसल बहा ले गया, तो भी आपको बीमा नहीं मिलेगा| ऐसी हालत में उस बहाव को रोकने की बजाये इंतज़ार करो कि इतना फैले कि सारे गाँव यानि पूरी यूनिट की फसलों को लील जाए, तभी आपको बीमा मिलेगा|

पीएम मोदी, आरएसएस से अपील है कि "हिन्दू एकता और बराबरी" के सिद्धांत को या तो सही से अप्लाई करो, यानि जब तक पूरे एक शहर या कॉलोनी की कारों का एक्सीडेंट ना हो जाए, तब तक किसी एक कार वाले को इंस्योरेंस नहीं मिलेगा; या फिर किसी शहर-कॉलोनी-गाँव में कोई एक व्यक्ति मर जाए या उसकी दुर्घटना हो जाए तो उसको बीमा का लाभ नहीं मिलेगा; वो तभी मिलेगा जब या तो उस यूनिट यानि गाँव-शहर-कालोनी वाले सारे मर जाएँ या दुर्घटनाग्रस्त हो जाएँ| या फिर किसानों की फसलों का बीमा भी सिंगल कार और सिंगल लाइफ पैटर्न पर ही मिले, यूनिट के आधार पर नहीं|

पहले तो सरकारी मुआवजा मिलता था तो मान लिया जाता था कि चलो यह बीमा थोड़े ही है जो सिंगल एकड़ पर मिलेगा, परन्तु अब तो इसको बीमा का रूप बन दिया गया है तो फिर भी इसकी उगाही तो लाइफ-इंस्योरेंस और व्हीकल-इंस्योरेंस की तर्ज पर परन्तु भुगतान वही पुराने सरकारी मुआवजा वाली तर्ज पर?

परन्तु मुझे अहसास है और दुर्भाग्य है कि इन चिकने घड़ों पर इन व्याख्यानों का कोई असर नहीं होने वाला| इनके सिर्फ दो ही इलाज हैं एक तो 2019 में वोट की चोट और दूसरा इनकी दृष्टताएं यूँ ही बढ़ती रही और यही सिर्फ बातों के बोलों से ही पकाते रहे तो फिर इनके साथ "रैलियों में सीधे विरोध" के मोर्चे; जैसे कि अभी रोहतक में होने वाली सैनी की रैली के लिए जाटों ने बोल दिया कि या तो समस्त पिछड़ों की रैली करे, अन्यथा ऐसे सत्ता (कॉर्पोरेट और आरएसएस मेरी खोज के मुताबिक) के इशारे पर समाज को बाँटना बंद करे|

यानि इससे पहले यह लोग इस प्रकार के भेदभाव की जोंक आमजन पर चपेट-चपेट के आपका खून चूस डालें, इनको इनकी हैसियत दिखा दो| परन्तु इस हैसियत दिखाने की अवस्था तक एक असरदार तरीके से पहुंचना है तो 'अजगर' समूह के साथ-साथ तमाम किसान बिरादरी पहले एक होवे और सैनी-आर्य-यादव-राव-कम्बोज जैसे किसान जातियों से होते हुए भी किसान जातियों को बांटने वालों और धनखड़-बराला जैसे किसान जातियों को गुमराह करने वालों के मुंह थोबने यानि बंद करने से किसान वर्ग ही इसकी शुरुआत करे|

क्योंकि यह लोग अब हालात उस स्तर तक ले जाने पर आमादा हैं कि चुप रहे तो मर और बोले तो मर| तो जब इन्होनें किसान को मारना ही ठान लिया है तो बेहतर है कि आवाज बुलंद करके मरो, ताकि आपकी आगे वाली पीढ़ी तो सचेत हो जाए| समाज के वो तबके तो सचेत हो जाएँ, जो किसान के प्रति जिंदादिली रखते हैं, सौहार्द रखते हैं, श्रद्धा रखते हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

अपराध में मास्टरमाइंड को फ्री छोड़ता हमारा सुप्रीम-कोर्ट!

राहुल गांधी को डांटते हुए सुप्रीम कोर्ट कहता है कि "गोडसे के अपराध के लिए आरएसएस को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं!"

यह तो वही बात हो गई कि 26/11 मुंबई अटैक के लिए सिर्फ कसाब को दोषी ठहराया जाए, इसके मास्टरमाइंड संगठन/गिरोह, हाफिज सईद या पाकिस्तान को नहीं?

क्या हो गया है हमारे कोर्टों तक को? यानि यह साफ़ इशारा है कि मास्टरमाइंड सामने मत आओ, बस गुर्गों से अपराध करवाओ और गुर्गे को ही दोषी ठहराओ और मास्टरमाइंड आजीवन मलाई मारते रहो?

यानि किसी भी प्रकार के साम्प्रदायिक-सामाजिक अपराध-दंगे के मास्टरमाइंड गुंडों को खुला रास्ता होने का सीधा इशारा सुप्रीम कोर्ट से मिल रहा है कि तुम लोग देश में कितने ही दंगे-फसाद करवाओ, तुम्हारे ऊपर कोई आंच नहीं आएगी; बस तुम्हारे गुर्गों को दोषी ठहरा के तुम्हें साफ निकाल दिया जाया करेगा|

यह बहुत ही घातक परिपाटी ईजाद की है सुप्रीम कोर्ट ने जो कि देश को अवसाद की अवस्था में ले जा के खड़ी कर देगी|

बाकी नत्थूराम गोडसे का आरएसएस से क्या कनेक्शन था इसपे सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद काफी मटेरियल प्रिंट व् सोशल मीडिया पर आ ही चुका है; जिसके अनुसार ना ही तो गोडसे ने कभी आरएसएस से इस्तीफा दिया और ना ही आरएसएस ने गोडसे को गांधी को मारने के कारण संघ से बाहर किया|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 21 July 2016

जाट की पौराणिक उत्पत्ति में देखें कितना बड़ा विरोधाभाष है!

वर्ण-व्यवस्था आधारित जन्म की ब्राह्मण थ्योरी कहती है कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य उदर यानि पेट से और शुद्र पैरों से पैदा हुए?

अब वैसे तो आजतक यह लोग जाट का वर्ण ही नहीं बता पाए, फिर भी ब्राह्मण तो कहता है कि जाट शुद्र हैं, परन्तु कई खामखा के घमण्ड में और खुद को इस वर्ण-व्यवस्था के ऊपरली भाग में जोड़ने के लोभ वाले जाट कहते हैं कि वो क्षत्रिय हैं। जबकि एक थ्योरी यह भी कहती है कि जाट इस वर्ण-व्यवस्था का हिस्सा ही नहीं या कहो कि जाट अलग से पांचवा वर्ण माना जाता है। और एक थ्योरी यह भी कहती है कि क्योंकि खेती करने वाले समुदाय को वैश्य माना गया तो जाट वैश्य है। खैर जो भी है क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शुद्र हो; इसके आगे की घचल-मचल वाली सुनो।

शिवजी की जटाओं से जाट की उत्पत्ति वाली थ्योरी कहती है कि जाट शिवजी की जटाओं से उत्पन हुआ है? जबकि सब जानते हैं कि जटाओं से जूं के अलावा एक चींटी भी उत्पन नहीं हो सकती।

हाँ एक तथ्य जरूर निकल के और आया है कि शिवजी भगवान् जाटों के सीथियन ओरिजिन वाली थ्योरी के इनके अपने पूर्वज राजा दादा ओडिन - दी वांडर्र हैं|

खैर, बाकी बातों की बात तो फेर की बात, फिलहाल मुझे कोई यह समझा दे कि जाट ब्रह्मा की भुजाओं से पैदा हुआ तो फिर शिवजी की जटाओं से कैसे हुआ? और अगर शिवजी की जटाओं से हुआ तो क्षत्रिय कैसे हुआ, क्योंकि क्षत्रिय तो सिर्फ वो हैं जो ब्रह्मा की भुजाओं से पैदा हुए?

मेरा अवलोकन तो यही कहता है कि जाट ना ब्रह्मा से पैदा हुआ और ना शिवजी से, परन्तु हाँ शिवजी जो हैं वो जाट के सीथियन ओरिजिन वाली थ्योरी के दादा ओडिन जरूर हैं। और इन्हीं के चरित्र को कॉपी करके भारत में इनका रूप बदल के शिवजी की माइथोलॉजी घड़ दी गई है।

विशेष: इस थ्योरी में किसी की आलोचना या बुराई जैसा कुछ नहीं, कोरे तार्किक सवाल हैं; भावनाओं में बहकर बहस करने वाले कृपया इस पोस्ट से दूर रहें।

जय यौद्धेय! - जय दादा ओडिन उर्फ़ शिवजी महाराज! - फूल मलिक

यह है मनुवाद यानी मंडी-फंडी की कमाई का शिकंजा!

वो कैसे वो ऐसे: मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने कहा है कि उनके यहां के जिला सिहोर में किसान आर्थिक तंगी से नहीं अपितु भूत-प्रेत बाधाओं के चलते कर रहे हैं आत्महत्या|

वाह क्या लॉजिक है सीएम साहब, भूत के चलते किसी का हार्ट-अटैक होते सुना था, या किसी को भूत ने मार डाला यह सुना था; अब भूतों की वजह से किसान आत्महत्या भी करने लगे? वैसे यह भूत सूदखोर कब से बन गए, क्योंकि किसान आत्महत्या तो अधिकतर सूदखोरों से तंग हो के ही करते है?

क्या किसान-पिछड़ा-दलित समझे कि एक मुख्यमंत्री के स्तर के आदमी के मुख से, एक ऐसे आदमी के मुख से जिसके जिम्मे समाज से ढोंग-पाखंड-आडम्बर हटवाने की जिम्मेदारी है वो ही समाज को ढोंग-आडम्बर में क्यों धकेल रहा है?

अजी नेक्सस है पूरा, मुख्यमंत्री यह बात कहेगा तो भोले लोगों को बहम होयेगा कि कहीं वाकई में तो भूत-प्रेत का चक्कर नहीं? ऐसे में वो किसके पास जायेगा? किसी काले-भगमे बाणे वाले तबीज-गण्डे वाले पाखंडी-ढोंगी के पास| फिर वो पाखंडी-ढोंगी उस केस को किसको रेफेर करेगा? अपने नाम की उसकी जेब काट के उससे ऊपर वाले के पास? वहाँ भी बात नहीं बनेगी तो उसको तीर्थयात्रा, फलानि यात्रा, सवामणी, जगराता, भंडारा आदि-आदि करने को बोलेगा|

उससे क्या होगा? उससे मंडी में बैठे इन फण्डियों के भाईयों की दुकानों का सामान बिकेगा| वहाँ से इनको कमीशन आएगा और इस तरह किसान एक ऐसे कुचक्र में फंसा दिया जायेगा कि मंडी-फंडी मुफ्त की रोटी तोड़ेंगे और किसान के पास सिर्फ इतना छोड़ेंगे कि उसके सिर्फ प्राण चलते रहें और इनके हांडे से पेट दिन-भर-दिन बढ़ते ही बढ़ते रहें|

पता नहीं देश किस गर्त के रसातल में जा रहा है| इन तथाकथित राष्ट्रवादी नेताओं से देश का जितना जल्दी पिंड छूटे, देश को उतनी ही राहत मिले; क्योंकि जहां राष्ट्रवाद आ गया समझो वहाँ अधिनायकवाद आ गया और अधिनायकवाद नाम है सर झुकाये बिना सवाल-जवाब किये अनुसरण करते रहना| भेड़चाल चलते रहना|

पगड़ी संभाल किसान्ना, दुश्मन पहचान किसान्ना!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक