Tuesday, 6 September 2016

गलियों में उतरने से पहले हर यौद्धेय को, अपने घर-रिश्तेदारी से लड़ाई जीतनी होगी!

अपने-अपने घरों-रिश्तेरदारों के घर और दिमाग की दीवारों से अंधभक्ति और इसके प्रतीक मिटाने होंगे|
हर यौद्धेय को मिशनरी की तरह, बिना शोर मचाये अपने पास-पड़ोस में फैली पाखंड की स्याही मिटानी होगी।
किसी से लड़ो ना, झगड़ो ना, बस उनको समझाओ; समझो कि अगर उनको अपनी बात समझाने में कामयाब हो गए और आपके अपने आपके साथ हो गए तो दो तिहाई लड़ाई तो यूँ ही जीत ली जायेगी।

यह मत समझो कि मंडी-फंडी की तुम यौद्धेयों पर नजर नहीं है, उसकी नजर भी है और तुम्हारे घर-परिवार तक पहुँच भी। तुम्हें भान भी नहीं होगा कि किन-किन प्रपंचों से वो तुम्हें अपने घरवालों को अपनी बातें समझने/समझाने से रोक रहे होंगे, दिन-रात काम कर रहे होंगे।

बस इनकी यह पहुँच पहले अपने-अपने घरों से खत्म कर दो, फिर सड़कों पर उत्तर कर लड़ने की लड़ाई तो औपचारिकता मात्र रह जाएगी।

और इस पहुँच को खत्म करना है तो इसको बनाने के लिए प्रयोग किये जाने वाले भय-अविश्वास-लालच के इनके प्रपंच समझ के उनको काटना होगा। हर यौद्धेय को समझना होगा कि शस्त्र से ज्यादा बुद्धि की कुटिलता की लड़ाई है यह।

इसीलिए निरन्तर इन प्रपंचों की तहें उधेड़ने की ओर अग्रसर रहो। अपने-अपने घर-परिवार से इन पाखण्डों को उखेड़ने की कहानियां अपने यौद्धेय साथियों से साझी करते रहो।

दो तिहाई काम है ही यह, इसके बाद तो जो होगा, वो सड़कों पर होगा और सड़कों पर आने से पहले अपने-अपने घरों-रिश्तेदारियों-पड़ोसियों पर किया गया आपका यह होमवर्क ही आपको डिस्टिंक्शन के साथ सड़क वाली लड़ाई में उत्तीर्ण करेगा।

वैसे भी जब तक हमारे प्रमुख यौद्धेय साथी जेलों में हैं, तब तक अपने समय, सोच और ऊर्जा का इससे उचित उपयोग कुछ और शायद ही हो।

इंग्लिश सीखो, बोलो, समझो। उच्च-से-उच्च पढाई करो; जो यूनियनिस्ट से विपरीत विचारधारा का हो और अनजान हो उससे जिरह मत करो; बल्कि उसको पता भी मत लगने दो कि आप किस सोच का प्रतिनिधित्व करते हो। बस चुपचाप शांत चित से उसकी गतिविधियों और सोच को ऑब्जर्व करते रहो; ताकि फिर उसको सोच के इर्दगिर्द अपनी सोच की काट का जाल बुन उसको उसमें घेर सको।

कोई घरवाले या रिश्तेदार आपकी बात नहीं भी मानें तो उदास मत होना| एक मना पाए और दूसरा ना मना पाए तो आपस में उपहास मत उड़ाना; बल्कि उसकी परिस्तिथि और घरवालों की सोच को समझ के उसका मिलके हल निकालना।

समझ लेना जितने घर मंडी-फंडी की सोच और पहुँच से आज़ाद करा लिए, उतना ही सर छोटूराम जी की सोच वाली यूनियनिस्ट सत्ता की ओर कदम बढा लिए।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जाट, खुद अपनी कौम से हुए नेता को जाट नेता ना कहें, और कोई कहें तो उनको भी समझाएं!

मंडी-फंडी जानता है कि अगर कोई उनकी हेकड़ी ढीली कर सकता है या इतिहास में कर पाया है तो वो सिर्फ और सिर्फ जाट हैं। इसीलिए इनका खेल चलता है कि जाट को मार लो, तोड़ लो, डरा लो, भ्रमा दो; बाकी तो राजपूत तक इनके 21 पीढ़ियों के पुरखों को मारने पर भी हमारे पैरों में पड़े रहते हैं; तो जाट के अलावा बाकी किसकी बिसात?

और सच भी है जाट के अलावा उत्तर-भारत में किसान (मजदूर व् दलित की भी) की आवाज उठा उसके लिए बेइंतहा कानून बनाने वाले कोई और जाति-समुदाय से (दलितों की आवाज बाबा साहेब व् कांशीराम जी को छोड़कर) विरले ही लीडर हुए हैं। इसीलिए यह लोग बार-बार ऐसा प्रोपगैंडा चलाते हैं कि जाट कौम में पैदा हुए लीडर्स बस जाट कौम के ही बता के प्रचारित करवा दिए जाएँ और यहां तक कि कई भोले जाट भी इस प्रचार के बहाव में बह के उनको किसानी-मजदूरी कौमों के नेता बताने की बजाये सिर्फ जाटों के नेता बताते देखे जाते हैं।
जबकि सर छोटूराम जी से ले के, सर फज़ले हुसैन, सर सिकन्दर हयात खान, सरदार भगत सिंह, सरदार प्रताप सिंह कैरों, चौधरी चरण सिंह, ताऊ देवीलाल, चौधरी बंसीलाल व् बाबा महेंद्र सिंह टिकैत तक कोई भी जाट नेता ऐसा नहीं हुआ जिसने कि सिर्फ जाट किसानों के लिए ही कानून बनवाएं हो, उनके हक़-हलूल की लड़ाई लड़ी हों। वो लड़े तो तमाम किसान-मजदूर-दलित बिरादरी के लिए लड़े।

तो जाट समुदाय मंडी-फ़ंडी के इस ट्रैप को समझें और अपनी कौम में पैदा हुए नेताओं के उन कार्यों बारे औरों को बतावें, जिससे समस्त किसान-मजदूर-दलित समाज के लिए कानून बने और भला हुआ।

उदाहरण के तौर पर सर छोटूराम जी द्वारा सैनी-छिम्बी-खात्ती जातियों को अंग्रेजों से जमीन के मालिकाना किसानी हक दिलवाने हेतु "मनसुखी" बिल पास करवाना। दलितों-महिलाओं-किसानों को भारतीय इतिहास में सर्वप्रथम रोजगार आरक्षण देना।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

भगवान् की डिग्रडेशन और अपग्रडेशन कैसे होती है, समझें और समझाएं!

Degradation:
जब तुम कहोगे कि राम को समुन्दर पर पुल बनवाने की क्या जरूरत थी, हनुमान अपना शरीर बढ़ा के उस पर लेट जाते; बन जाता पुल; तो वो कहेंगे कि भगवान् के जरिये एक साधारण आदमी की जिंदगी को चरितार्थ करने हेतु यह सब लिखा गया (ध्यान देना लिखा गया बोल के यह अपनी पोल खुद ही खोल जाते हैं कि यह वाकई में माइथोलॉजी यानी काल्पनिकता की रचनाएँ हैं)।

जब तुम कहोगे कि कृष्ण को अर्जुन का सारथी बनने की क्या जरूरत थी, कौरव सेना को अपने सुदर्शन चक्र से एक ही वार में खत्म कर सकते थे, तो भी यह भगवान् के जरिये एक साधारण आदमी की जिंदगी को चरितार्थ करने का तर्क आगे रखेंगे|

Upgradation:
परन्तु जब मैं कहूंगा कि उस साधारण आदमी यानी कृष्ण जी की भांति ही एक आप पार्टी का दलित नेता रासलीला रचा लेता है तो यह यकायक ही कृष्ण और राम का स्टेटस अपग्रेड कर देते हैं कि नहीं-नहीं वो तो भगवान् थे, कुछ भी कर सकते थे; सन्दीप की क्या तुलना उनसे?

भगवान ना हो गया इनके बाब्बू की फैक्ट्री का प्रोडक्ट हो गया|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

असली लड़ाई कब शुरू होगी?

1) तब तक नहीं होगी जब तक तुम मंडी-फंडी की आलोचना मात्र में उलझे रहोगे।
2) तब भी नहीं होगी जब तक इनके द्वारा घड़े गए झूठे व् काल्पनिक चरित्रों/आदर्शों का मजाक बनाते रहोगे।

बल्कि
1) तब होगी जब अपने वालों को गले लगाना व् गाना या प्रमोट करना शुरू करोगे।
2) तब होगी जब इनसे विमुख हो के अपनी सामाजिक थ्योरी को उठाओगे।
3) तब होगी जब अपने पुरखों की सोशल इंजीनियरिंग पर कार्य करना शुरू करोगे।

तब यह लोग जब आप द्वारा चुपचाप बिना इनकी आलोचना में उलझे भी अपनों पे और अपनी सभ्यता पे कार्य करने लगोगे; तो बन्दर की भाँति आपका सर खुजाने या आपको छेड़ने आएंगे।

इसलिए असली लड़ाई तो अभी प्रारंभ का आगाज ही ढूंढ रही है। और आगाज यही है कि अपनों (महापुरुषों-हुतात्माओं-यौद्धेयों) को गले लगाना, उनके कार्य-बलिदान को पहचानना व् मान देना शुरू करो। जैसे अपने घर की बुरी बात, घर का बुरा मानस घर में ही खपा लिया जाता है ऐसे ही अपने कौमी-नेताओं की बुराईयों को उसी स्तर तक उघाड़ो जिससे कौम रुपी घर भी बना रहे और घर में उसकी बुराई हावी भी ना हो।

जब आगाज करो तो इतिहास के इस अध्याय को जरूर आगे रखना कि जब इतिहास में आपके पुरखे बुद्ध-भिक्षु बनके चुपचाप शांति से मठों में तप किया करते थे और इन्होनें वो मठ भी तोड़े और आपके पुरखे भी मारे; इतना भयंकर हहाकार मचाया कि आज भी जनमानस में "मार दिया मठ", "हो गया मठ", "कर दिया मठ" जैसी कहावतें चलती हैं। उस वक्त आपके पुरखों ने तपस्या छोड़ इनको जब तक मुहतोड़ जवाब दे, इनके थोबड़े नहीं तोड़े थे तब तक यह रुके नहीं थे।

लेकिन अबकी बार की शुरुवात में कुछ ऐसा हो कि यह ऐसी कोई हरकत ही ना कर पाएं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 23 August 2016

मुल्क़ का नाम लेकर भारतवर्ष में शहीद होने वाले वह पहले व्यक्ति राजा हसन खान मेवाती!

जब से मेवात गया था तभी से हसन खान मेवाती के बारे मे जानने की जिज्ञासा थी आज एक मित्र के माध्यम से ये जानकारी प्राप्त हुई तो सांझा कर रहा हूं जब बाबर काबुल में था, तो कहा जाता है कि राणा सांगा का उससे यह समझौता हुआ कि वह इब्राहीम लोधी पर आगरा की ओर से और बाबर उत्तर की ओर से आक्रमण करे. जब आक्रमणकारी ने दिल्ली और आगरा को अधिकृत कर लिया, तब बाबर ने राणा पर अविश्वास का आरोप लगाया. उधर सांगा ने बाबर पर आरोप लगाया कि उसने कालपी, धौलपुर और बयाना पर अधिकार कर लिया जबकि समझौते की शर्तोँ के अनुसार ये स्थान सांगा को ही मिलने चाहिए थे. सांगा ने सभी राजपूत राजाओं को बाबर के विरुद्ध इकठ्ठा कर लिया और सन 1528 में खानवा के मैदान में बाबर और सांगा के बीच युद्ध हुआ. उस समय मेवात के राजा हसन खान मेवाती थे. हसन खान मेवाती की वीरता सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध थी. बाबर ने राजा हसन खान मेवाती को पत्र लिखा और उस पत्र में लिखा "बाबर भी कलमा-गो है और हसन खान मेवाती भी कलमा-गो है, इस प्रकार एक कलमा-गो दूसरे कलमा-गो का भाई है इसलिए राजा हसन खान मेवाती को चाहिए की बाबर का साथ दे."
 
राजा हसन खान मेवाती ने बाबर को खत लिखा और उस खत में लिखा "बेशक़ हसन खान मेवाती कलमा-गो है और बाबर भी कलमा-गो है, मग़र मेरे लिए मेरा मुल्क(भारत) पहले है और यही मेरा ईमान है इसलिए हसन खान मेवाती राणा सांगा के साथ मिलकर बाबर के विरुद्ध युद्ध करेगा". सन 1528 में राजा हसन खान मेवाती 12000 हज़ार मेव घोड़ सवारों के साथ खानवा की मैदान में राणा सांगा के साथ लड़ते-लड़ते शहीद हो गये. मुल्क़ का नाम लेकर भारतवर्ष में शहीद होने वाले वह पहले व्यक्ति थे.
 
आज इतिहास की पन्नों में राजा हसन खान मेवाती को भुला दिया गया हुआ है. यदि ज्यादा विस्तृत रूप से पढ़ना चाहते है तो मेवात के ऊपर प्रसिद्ध लेखिका शैल मायाराम और इंजीनियर सिद्दीक़ मेव द्वारा लिखी पुस्तकों को अवश्य पढ़िये|
 
Courtesy: Pawan Poonia

Monday, 22 August 2016

यह देश के ही दोस्त नहीं, धर्म और जाट के तो तब होंगे!

Powder in daal-
NADA:- Member of rival Sushil Kumar’s entourage, Jithesh, spiked Narsingh’s daal
 *CAS:- Presence of substance because of methandienone tablets and not spiked daal

Drink spiked-
NADA:- Energy drink contaminated by Jithesh
CAS: Methandienone doesn’t dissolve, would have been visible.

Partner positive-
NADA:- Drinks of both athletes spiked similarly
CAS:- 12-20 hours difference between ingestion by Narsingh, his room-mate

*Court of Arbitration of Sport

Courtesy: Major Kulwant Singh

Clear Cut Conclusion: PM Modi and WFI President Brijbhushan to blame for thrashing India away from a Gold medal and its prospective like Sushil Kumar due to lopesided caste & vote politics.

थैंक गॉड, देश की झंडी तो पिटी मगर इन महामूर्खानंदों की डेड्सयानपट्टी की वजह से मामला CAS कोर्ट में पहुंचने की बदौलत भारतीय कुश्ती जगत के आदर्श भाई सुशील कुमार के ऊपर से इनके लगाए लांछन तो धत्ता साबित हुए| नहीं तो इन्होनें बना देना था अपने कोर्ट और अपने न्याय के साथ एक "भारत-रत्न" स्तर के खिलाडी को "भारत-कलंक"|

क्या ख़ाक बनाएंगे ये हिन्दू एकता और बराबरी का भारत या कहो हिंदुत्व; जाटोफोबिया और खापोफोबिया तो कभी दिमाग से उतरता नहीं इनके| अब भी वक्त है सम्भल जाओ, हिन्दू को मुस्लिम से नहीं बल्कि इन हिंदुओं के अंदर ही हिंदुओं के बैठे दुश्मन भेड़ियों से खतरा है| और इस दुश्मनी को निभाने के लिए यह किस तरह से देश के सम्मान तक को दांव पे लगा सकते हैं, अंतराष्ट्रीय मंच पर भारत की झंडी पिटवा सकते हैं, उसका इससे बेहतरीन उदाहरण नहीं होगा| कोई दोस्त ना हैं ये, यह देश के ही दोस्त नहीं, धर्म और जाट के तो तब होंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

रियो ओलिंपिक हमें ढोंग-पाखंड में वक्त-ऊर्जा और पैसा ना फूंकने की भी शिक्षा देता है!

1) बहन पी.वी. सिंधु के फाइनल में पहुँचने से पहले कोई हवन-यज्ञ-मन्त्रोचारण नहीं हुआ था, फाइनल के लिए हुआ और वो हारी।

2) भाई योगेश्वर दत्त के लिए तो पहली बाउट शुरू होने से पहले से ही बताया जा रहा है कि इतना हवन-यज्ञ-मन्त्रोचारण हुआ कि भाई के परिजनों ने दो घी के पिप्पे हवनवेदी में झोंक दिए थे और नतीजा क्या निकला, शिफर। छोरा उससे भी हार गया, जिससे कोई सपनों में भी उम्मीद नहीं किया होगा।

इन उदाहरण का यह भी मतलब नहीं कि हवन-यज्ञ-मन्त्रोचारण हुए तो यह हारे, परन्तु हवन-यज्ञ-मन्त्रोचारण करने से जीते भी तो नहीं?

तो फिर यह हवन-यज्ञ-मन्त्रोचारण होते किस लिए हैं? यह होते हैं फंडी को रोजगार देने हेतु और फंडी के फ़ंडों के माध्यम से मंडी का सामान बिकवाने हेतु। सीधी और सपाट बात, समझ में आती हो तो थारे बुद्धि रुपी घर में जचा लो और नहीं तो हांडे जाओ इन मोडडों के यहां अपने घर धकाते।

और गज़ब की बात तो यह है कि यह लोग बाद में इस बात का अहसान और अहसास भी नहीं मानते कि आपने हवन-यज्ञ करके इनको रोजगार दिया तो इनका घर चला, अपितु उसको भी उल्टा आपपे ही अहसान दिखाया जाता है। यानी इनको रोजगार भी दो और फिर इनसे दबे भी रहो। इनकी पंडोकली में घर भी उड़ेलो और फिर इनसे यह अहसान भी ना धरवाओ कि तुमने इनका पेट भर दिया। बल्कि यह अहसान धरवाओगे तो यह तुम्हें उल्टी लात और मारने लगते हैं। तू तो दुष्ट है पापी है, यह है वह है आदि-आदि।

दूसरा जो कांसेप्ट यह फंड-पाखंड साधते हैं वह है चढ़ते हुए को सलूट मार उसके ऊपर अपना ठप्पा लगा अपना बनाने का या अपने वाले का गैरजरूरी प्रचार कर समाज में उसकी मिथ्या छवि बनाने का। यानी सिंधु गोल्ड ले आती, तो उसपे यह फंडी हमने हवन-यज्ञ से जितवाया का फटाक से ठप्पा लगा देते; योगी को तो यह पहले से उठाये फिर ही रहे थे।

सफलता-शौहरत हासिल करने का कोई शॉर्टकट नहीं। परन्तु हाँ प्रचार और सलूट जरूर मारो, लेकिन हार-जीत की हर परिस्तिथि में स्थिर रहते हुए। चढ़ते को सलाम करना और हारे को दुत्कारना, यह भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की सबसे बड़ी जड़ें हैं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 21 August 2016

जाति, कौन नहीं ढूँढता इस देश में?

यह देखो जो खुद को सबसे अगड़े/सवर्ण बोलते हैं वो सबसे ज्यादा इस बीमारी से ग्रस्त हैं; यह देख लीजिये सबूत, नीचे सलंगित स्क्रीनशॉट्स में।

अब इनसे उत्साह और प्रेरणा पाकर मैं सच्चाई तो कह सकता हूँ ना कि साक्षी मलिक और पी.वी. सिंधु ही नहीं बल्कि इन दोनों के कोच क्रमश: कुलदीप मलिक जी / ईश्वर दहिया जी व् पुलेला गोपीचंद जी; पूरी टीम ही जाट है। साक्ष्य और तथ्य मैं पहले की पोस्टों में दे ही चुका। यार एक बात बताओ जब बहन पी.वी. सिंधु के ऑफिसियल फिजियो से सीधे-सीधे यह बातें कन्फर्म हो के आ चुकी हैं कि पीवी सिंधु और गोपीचंद पुलेला जी दोनों जाट (तेलुगु में कम्मा) हैं तो फिर कन्फ्यूजन कैसा?

खैर, बात इन दोनों स्क्रीनशॉट्स के कमैंट्स एंड क्लेम पे ही रखते हैं। तो इनको देखने के बावजूद भी जिसको प्रैक्टिकल और रियल समाज नहीं देखना; वो रहें आइडियलिज्म पे लेक्चर झाड़ते और आइडियल समाज का झुनझुना बजाते। भैया, समाज को जैसे अगड़े व् सवर्ण चलाते हैं उसको कम-से-कम ऐसी चीजों में तो इनके अनुसार (इनकी ऊंच-नीच वाले लीचड़ कीचड़ को छोड़ के) ही चलने दो; इससे पिछड़ों को अगड़ों में शामिल होने या उन जैसा बनने में आसानी रहेगी।

इसलिए जब यह खुलके सिंधु को क्लेम कर रहे, तो जाटों को सिंधु को जाट होते हुए भी जाट क्लेम करने में कैसा हर्ज और कैसा जातिवाद? किसी को नीचा तो नहीं दिखाया, किसी को गाली तो नहीं दी, जाट को जाट ही तो कहा है?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


 

Saturday, 20 August 2016

जब बदनाम करने की वजह पूछने गए तो थर्र-थर्र काँपने लगे जागरण अख़बार के फरीदाबाद ऑफिस वाले!

मौका था भारत के लिए दो जाट गर्ल्स (साक्षी मलिक व् पीवी सिंधु) द्वारा रियो ओलिंपिक में मेडल्स जीतने पर, आदत से मजबूर और अपनी संकीर्ण सोच से ग्रस्त दैनिक जागरण अख़बार द्वारा ऐसे मौके पर खुलकर खाप या जाट समाज को बधाई देने की बजाये, उनके बारे ऐसे मौके पर भी भद्दा लिखना|

भाई किसी ने धक्का किया था क्या आपके साथ, या कोई मजबूरी थी जो तुम सिर्फ "देश की बेटीयों ने देश का गौरव ऊँचा किया" जैसे शीर्षक से जाति-पन्थ रहित शुद्ध बधाईयों की खबर निकाल देते तो? और फिर भी जाट और खाप इसमें भी घुसेड़ने ही लगे थे तो कम-से-कम इस मौके पर तो थोड़ा बड़ा दिल करके शालीनता बरतते हुए बधाई दे देते?

या तुमने यह सोच लिया है कि "सिंह ना सांड, और गादड़ गए हांड!" की भांति खुले चरोगे? चर लिए अब जितने दिन चरने थे, समझ आ गया है स्थानीय हरयाणवी को कि दलीलों-अपीलों से तुम नहीं मानने वाले; इसीलिए आज जो हरयाणा के युवकों ने इस फोटो में तुम्हारे दफ्तर के आगे तुम्हारे अख़बार की प्रतियां जला के यह जो विरोध प्रदर्शन किया, बहुत अच्छा किया|

हरयाणवी युवक को इस जागरूकता के लिए बधाई| बस अब बहुत हुआ, इनको यही भाषा समझ आती है| जिस मित्र ने यह फोटो भेजी वो बता रहा था कि "भाई, पूरा ऑफिस का स्टाफ थर्र-थर्र काँप रहा था|"

मैंने कहा किसी को असली हरयाणवी टशन में तो नहीं लपेट आये? तो बोला नहीं भाई जी, सब कुछ पूरा लीगल वे में करके आये हैं| अबकी बार तो सिर्फ शांतिपूर्ण विरोध जता के आये हैं, अगली बार बाज नहीं आये तो लीगल नोटिस थमा के आएंगे और पुलिस में एफआईआर दर्ज करवाएंगे इनकी|

और मखा किसी को भाषावाद और क्षेत्रवाद की तो घुड़की नहीं खिला दी? बोला नहीं भाई जी, हम हरयाणवी हैं, मुम्बईया नहीं; हमें उतने तक पहुँचने की नौबत नहीं आएगी| बस आज एक ज्ञान और रौशनी जरूर मिली कि अगर हर हरयाणवी आज की तरह इनके दफ्तरों के आगे प्रदर्शन भर भी कर आये तो इतने में यह ठीक रहें| मखा भाई, चलो देखते हैं कितना असर होता है इनपे, इसका|

विशेष: एक ऐसा ही प्रदर्शन रोहतक सिटी में भी हो जाए तो इनको आँखें हो जाएँ|

Thanks dear Nitin Seharawat

जय यौद्धेय! - फूल मलिक



 

Friday, 19 August 2016

दोस्तों, नरसिंह जाधव (यादव) मामले के चक्कर में जाट-यादव भाईचारे को संभालना मत भूल जाना!

भारत के लीचड़ राजनीतिज्ञों ने नरसिंह यादव को एक मोहरे की भांति इस्तेमाल किया है, वैसे तो हर भारतीय इस पोस्ट में दिए तर्कों पर गौर फरमाये परन्तु जाट और यादव तो अवश्य ही फरमाएं; इनमें भी जो जाट और यादव आत्मीयता से आपस में जुड़े हैं वो तो जरूर से जरूर गौर फरमाएं, क्योंकि आप ही लोगों की वजह से आगे जाट-यादव भाईचारा कायम रहने वाला है| बात तथ्यों के आधार पर रखूँगा, कहीं भी तथ्यहीन लागूं तो झिड़क दीजियेगा:

1) नर सिंह यादव रियो बर्थ के लिए क्वालीफाई करते हैं, कुश्ती फेडरेशन के अध्यक्ष खुद उसी वक्त कह देते हैं कि बर्थ फाइनल हुई है खिलाडी नहीं| रियो नरसिंह जायेगा या सुशिल इसका फैसला ट्रायल से होगा| टाइम्स ऑफ़ इंडिया की उस वक्त की न्यूज़ गूगल करके पढ़ सकते हैं|

2) भारतीय कुश्तिजगत, इसकी परम्परा और इतिहास की थोड़ी सी भी समझ रखने वाला अच्छे से जनता होगा कि अगर सुशिल ट्रायल के लिए नहीं बोलते तो लोग कहने लग जाते कि या तो दम नहीं बचा होगा या फिर तैयारी नहीं कर रखी होगी; इसीलिए ट्रायल के लिए सामने नहीं आया|

3) भारतीय कुश्तिजगत की परम्परा और इतिहास कहता है कि ट्रायल यानी चुनौती को अस्वीकार करना अस्वीकारने वाले खिलाडी की हार के समान देखा जाता है| नर सिंह को चाहिए था कि वो ट्रायल स्वीकार करते; नहीं स्वीकारी तो भी कोई बात नहीं थी|

4) अखबारों से विदित है कि नर सिंह के क्वालीफाई करने के बाद भी भारतीय कुश्ती संघ पहलवान सुशिल कुमार को ट्रेनिंग पर भेजता रहा, जॉर्जिया भेजा| तो जाहिर था कि ट्रायल हो के ही खिलाडी जाना था, इसलिए दूसरे खिलाडी की भी ट्रेनिंग करवाई गई| अन्यथा पहले खिलाडी के रियो में क्वालीफाई करते ही दूसरे की ट्रेनिंग रुकवा दी जाती| इसी वजह से सुशिल को इसमें अपने साथ अन्याय लगा और वो कोर्ट चले गए| कोर्ट में क्या हुआ इससे सब वाकिफ हैं| सुशिल कुमार प्रधानमंत्री ऑफिस और हाईकोर्ट का रूख देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट में नर सिंह और अपना वक्त ज्याया करना ठीक नहीं समझे, इसलिए सुप्रीम कोर्ट नहीं गए|

5) फिर नर सिंह के डोप का जिन्न निकल आया, जिसको बीजेपी और आरएसएस ने वोट पॉलिटिक्स का मौका समझ, इस मामले को ऐसे प्रोजेक्ट करवाया गया जैसे यह दो जातियों (जाट और यादव) के स्वाभिमान की लड़ाई हो| खैर, यूपी इलेक्शन के मद्देनजर पीएम ने खुद अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए, नाडा से मनमाना निर्णय करवा के नरसिंह को रियो के लिए आगे बढ़वा दिया| यहां, गौर करने की बात थी कि नाडा चाहती तो नरसिंह को सिर्फ वार्निंग दे के छोड़ सकती थी और मामला रफा-दफा हो जाता; और नर सिंह चार साल के बैन से शायद बच जाता| जाहिर है पीएम जैसे पद वाले व्यक्ति को हर बात का पता होता है, परन्तु पीएम ने नर सिंह पर अँधेरे में तीर मारा कि चल गया तो नर सिंह को आगे अड़ा के यूपी में यादव वोट बटोरेंगे, नहीं चला तो भाड़ में जाए| और वाकई में हमारे देश की लीचड़ राजनीति ने हमारे एक महान खिलाडी को नाडा से क्लियर कर वाडा में भेज, भाड़ में भेज दिया|

6) वाडा की अपील पर CAS कोर्ट ने जाँच और सुनवाई की तो पाया कि नाडा के पास इसके कोई सबूत ही नहीं हैं कि खाने में मिलावट हुई है| जो साबित करता है कि कैसे कोरी सिर्फ पीएम की गलत दखलंदाजी और प्रभाव के चलते नर सिंह को आगे बढ़ाया गया| पीएम, एक जाति विशेष से नफरत के अतिरेक और दूसरी जाति के वोट लुभाने के लालच में इतना भी भूल गए कि यहां तो 'बेटी बाप के घर है", वार्निंग दे के उसको सुधारने का मौका दे दो; परन्तु नहीं चढ़ा दिया वाडा की बलि| जहां पर चार साल का बैन लगना ही लगना था|

इस तरह एक जातिगत नफरत में अंधे और जाति के आधार पर वोट पाने की फिरकापरस्ती वाले पीएम की अंधी मानसिकता ने भारत के एक स्वर्णिम खिलाडी से उसका कैरियर ही छीन लिया| इसलिए मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं कि देश की गन्दी पॉलिटिक्स ने नर सिंह का करियर लीला है ना कि ग्राउंड पर जीरो परन्तु इनके दिमाग में पुरजोर से चलने वाले किसी जातिवादी जहर ने|

इसलिए जाट और यादव समाज के बुद्धिजीवी भी इस मामले को नजदीक से विचार देवें और इसकी वजह से किसी भी प्रकार की बढ़ सकने वाली जातीय दीवारों को पाटने हेतु आगे आवें; और अगले चुनावों में ऐसी वर्ण व् जातिवाद से ग्रस्ति राजनीति को धूल चटावें| इसके साथ ही सोशल मीडिया पर बैठे हर समझदार जाट-यादव से गुजारिस है कि अपने-अपने समाज के बच्चों को गुस्से-नफरत या आपसी अलगाव की पोस्ट निकालने से ना सिर्फ रोकें, अपितु ऐसी पोस्टें ले के आवें जो दोनों कौमों को एक साथ बैठ के सोचने की ओर अग्रसर करें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 13 August 2016

राजकुमार सैनी के मामले में धैर्य से काम लेने वाला जाट समाज बधाई का पात्र है!

पिछले दो साल से आरएसएस/बीजेपी द्वारा (क्योंकि इनकी इजाजत या शय के बिना जो ऐसे कार्य करते हैं वो तुरन्त मोदी-शाह दरबार या आरएसएस के झण्डेवालां दरबार में हाजिर करके हड़का दिए जाते हैं) जाट बनाम नॉन-जाट की मंशा से समाज में जातिवाद का खुला जहर उगलने के लिए खुले छोड़े गए कुरुक्षेत्र सांसद राजकुमार सैनी को अब जनता ने खुद ही नकारना शुरू कर दिया है| कल कलायत में हुई बीजेपी की राज्य-स्तरीय रैली में जब महाशय बोलने के लिए उठे तो जनता ने इतनी हूटिंग करी कि बिना भाषण दिए ही सन्तोष करना पड़ा|

यह हरयाणा है बाबू, यहां काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ा करती| किसी सामाजिक या गैर-बीजेपी रैली में राजकुमार सैनी का विरोध होता तो कुछ भी बहाना मार के मामले को रफ-दफा किया जा सकता था| परन्तु बीजेपी की रैली में ही ऐसा होना, हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट की खाई पर सवार हो राज करने की आस पाली हुई भाजपा और आरएसएस को निसन्देह अब गहन चिंतन में डालने वाला है| क्योंकि इधर रोहतक में भी जाट बनाम नॉन-जाट के फार्मूला को भुनाने के उद्देश्य से 27 अगस्त को रखी गई रैली को जाटों द्वारा समर्थन मिलने से सैनी महाशय को रदद् करना पड़ा है| यानी एक के बाद एक दो सेट-बैक लगना कहीं राजकुमार सैनी को अब भाजपा और आरएसएस के लिए बुझे हुए कारतूस वाली श्रेणी में ना खड़ा कर दे|

खैर, बीजेपी, आरएसएस अब सैनी को ले के आगे क्या प्लान बनाएगी, इनको उलझा रहने देवें इसी में| काम की जो बात है वो यह कि जाट समाज के लिए अब और भी सावधान होने की आवश्यकता है; क्योंकि अगर राजकुमार सैनी को 2-4-5 रैलियों में और ऐसे ही जनता की हूटिंग या रैली रदद् करने जैसी परिस्तिथियों का सामना करना पड़ गया तो समझो सैनी बीजेपी/आरएसएस के लिए चला हुआ खस्ता कारतूस पक्के तौर से बन जायेंगे| और ऐसे में राजनीति का वो वाला घटिया स्तर देखने को मिल सकता है, जिसका मैं पीछे की पोस्टों में भी बहुत बार संशय जता चुका हूँ| यानी जाटों को जाट बनाम नॉन-जाट की बिसात पे अलग-थलग करने वाली बीजेपी/आरएसएस सैनी पर झूठ हमला करवाने या यहां तक कि महाशय को मरवा के उसका इल्जाम जाटों पर लगवाने तक का षड्यन्त्र खेल दे तो, मुझे तो कम-से-कम कोई ताज्जुब नहीं होगा| हाँ, यह यह हमला या मरवाने वाला काम हुआ भी तो 2019 चुनावों के अड़गड़े होगा, अभी तो सैनी को और चला के देखेंगे|

अंत में चलते-चलते जाट समाज को तहे दिल से धन्यवाद कि वो सैनी पर भड़का नहीं, वर्ना और निसन्देह बीजेपी/आरएसएस की जाट बनाम नॉन-जाट थ्योरी सफल हो जाती| अपने मूल डीएनए पर चलते हुए, इनकी इस चाल को इसकी गति (वो देखो उसके कर्मों की क्या गति हुई वाली गति) से मिलवाना; निसन्देह जाट समाज में स्थिरता, शांति और विश्वास को फिर से बहाल करेगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

रियो ओलिंपिक मैडल संख्या और धर्म की भीतरी स्थिरता का कनेक्शन!

सबसे ज्यादा मैडल ईसाईयों (अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, रूस आदि) के या बुद्दिस्म (चीन, जापान, कोरिया) को मानने वालों के आ रहे हैं| इनके बाद भीतरी अशांति से झूझते मुस्लिम देशो के मैडल आ रहे हैं| और सबसे बुरा हाल है हिन्दू धर्म (वैसे आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत अभी एक हफ्ते पहले ही लन्दन में कह चुके हैं कि हिन्दू नाम का कोई धर्म ही नहीं है| मीडिया में आया था कोई मित्र अगर इस न्यूज़ को मिस कर गया हो तो)।

हिन्दू धर्म में जरा सा भी आपसी सद्भाव नहीं, तभी तो सबसे ज्यादा कोरी राजनीति में वक्त गंवाते हैं| हमारे पास खेल तक भी ऐसा "नो-पॉलिटिक्स" जोन का कोई क्षेत्र ही नहीं है कि यहां तो सिर्फ देश को आगे रखना है, या ईसाई-बुद्ध वालों की तरह धर्म को आगे रखना है, देश-धर्म के लिए मैडल लाने हैं| इस तथ्य को अपने आपको नीचा देखने के लिए ना मानें, अपितु अपने अंदर झांकें और समझें कि धर्म के अंदर शांति, भाईचारा और सद्भाव कितना अहम् होता है और धर्म के अंदर वर्णवाद व् जातिवाद कितना घातक|

ईसाई-बुद्ध लोगों के यहां धर्म की मान्यताएं स्थिर हैं, कुछ हद तक सिया-सुन्नी के लफड़े को छोड़ दो तो मुस्लिम भी स्थिर हैं; सबसे बुरा हाल तो चार तो वर्ण, उसमें भी हर वर्ण में सैंकड़ों-हजारो जातियों वाले हिंदुत्व का है; जो वास्तव में है भी कि नहीं इसका खुद हिंदुत्व के रक्षक होने का दम भरने वाले सबसे बड़े संगठन आरएसएस प्रमुख तक को नहीं पता|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ब्राह्मण का ओरिजिन यूरेसियन नहीं अपितु कम्बोडियन या इंडोनेशियन है!

क्या कभी देखा है ब्राह्मण को यूरेसियन ओरिजिन के किसी देश की यात्रा करते हुए? जबकि विदेश गए या जा के आ चुके लगभग हर दूसरे ब्राह्मण के पासपोर्ट में कम्बोडिया की स्टाम्प जरूर लगी मिलती है।

वो क्यों, क्योंकि जैसे मुस्लिम के लिए मक्का, ईसाई के लिए जेरुसलम, सिख के लिए अमृतसर सबसे बड़ा धाम है, ऐसे ही ब्राह्मण के लिए कम्बोडिया वाला अयोध्या सबसे बड़ा धाम है। इसीलिए हर सफल व् विदेश जा सकने लायक ब्राह्मण जीवन में कम-से-कम एक बार कम्बोडिया जरूर जा के आता है।

कुरुक्षेत्र और अयोध्या शब्द भी भारत में कम्बोडिया से ही लाये गए हैं। कुरुक्षेत्र तो आज के दिन भी कोई आधिकारिक शहर तक नहीं है, जिसको हम कुरुक्षेत्र बोलते हैं वो वास्तव में "थानेसर" है। जिस रिहायसी क्षेत्र को कुरुक्षेत्र बोला जाता है, जरा देखें तुलना करके, कुरुक्षेत्र से पुराने व् पुरातन अवशेष तो थानेसर के हैं।

क्या किसी ने यूरेसियन देश में हाथी व् नारियल का पेड़ देखा या सुना है? जबकि कम्बोडिया-इंडोनेशिया में यह दोनों प्रचूर मात्रा में पाए जाते हैं। और यह दोनों ब्राह्मण की लिखी माइथोलॉजी और पूजा-पाठ में सबसे ज्यादा लिखे मिलते हैं। इसीलिए ब्राह्मण का ओरिजिन यूरेसियन नहीं अपितु कम्बोडियन ज्यादा तार्किक बैठता है।
यूरेसियन ओरिजिन का फंडा तो इन्होनें अंग्रेजों से अपनी नजदीकियां बढ़ाने के लिए खुद ही डेवेलोप किया था। जिसके बारे विस्तार से आगे की पोस्टों में लिखूंगा।

फ़िलहाल इतना लिख के आपके तर्क-वितर्क के लिए छोड़ रहा हूँ कि क्योंकि अंग्रेजों के यहां गाय एक डोमेस्टिक एनिमल है जबकि भारत में गाय एक जंगली एनिमल व् भैंस डोमेस्टिक एनिमल है। जब ब्राह्मणों देखा कि गाय के जरिये अंग्रेजों से नजदीकी बढ़ाई जा सकती है तो इन्होनें गाय को क्लेम करना शुरू कर दिया। वर्ना क्या कारण है कि यूरोप की गाय का दूध निकालते वक्त आपको उसकी टाँगें नहीं बांधनी पड़ती और ना ही आपको भारतीय भैंस की टांगें बांधनी पड़ती; जबकि भारतीय गाय की बांधनी पड़ती हैं? वजह यह है कि सदियों से भारत में कृषकों ने भैंस को जंगली से डोमेस्टिक एनिमल में कन्वर्ट रखा है और अंग्रेजों ने उधर की गाय को। जबकि भारतीय गाय डोमेस्टिक बनाई गई ही अंग्रेजों के आने के बाद से है वो भी पूरी तरह नहीं बना पाए। और कोई रामायण या महाभारत में गाय पाने का हवाला देवे तो मुझे समझावे कि अगर यह सत्य है तो आखिर भारत की गाय में ही ऐसा क्या है कि उसको जंगली से पालतू बनाने के बाद भी उसकी टाँगे बाँध के दूध दोहना पड़ता है जबकि यूरोप के देशों वाली गाय के साथ ऐसा नहीं?

विशेष: इस लेख को अपनी आस्थाओं पर हमला ना मानते हुए पढ़ें और तर्क-वितर्क देने हेतु पढ़ें हेतु। निरी आस्था पे हमला मानने के उद्देश्य से पढेंगे तो निसन्देह लेखक को गालियां देने का मन करेगा। परन्तु लेखक आपको आश्वस्त करता है कि उसकी इस पोस्ट का उद्देश्य सिर्फ तर्क-वितर्क है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक