Thursday, 8 December 2016

"खापद्वारा" - जाट या किसानी जातियां जो भी धर्म-कर्म या सामाजिक कल्याण हेतु ईमारत बनाएं/बनवाएं, उसके नाम में "खापद्वारा" शब्द जोड़ने पर जरूर विचारें!

और इसमें कुछ-कुछ क्या-क्या कैसे हो सकता है, उसकी बानगी इस प्रकार समझी जा सकती है|

कल बिड़ला मंदिर वाली जो पोस्ट निकाली थी, उसके जवाब में कई भाईयों के तर्कसंगत रेस्पॉन्स आये कि जाट-मंदिर बनाओ; इस पर इतना ही कहना चाहूंगा कि हमें किसानी जातियों के यौद्धेयों के फॉर्मेट के हिसाब से मंदिर+गुरुद्वारा के कॉम्बिनेशन का स्ट्रक्चर शुरू करना चाहिए, जिसका नाम "खापद्वारा" रखा जा सकता है| इसके अंदर हमारी प्रचलित पद्दति के साथ खाप समाजों में हर कौम व् हर धर्म से जो भी यौद्धेय हो के गये हैं; उन सबकी गुरुवाणियां सुबह-शाम गाई जाएँ, ठीक वैसे ही जैसे सिख गुरुद्वारों में गाई जाती हैं|

वैसे भी आज के दिन ना ही तो कोई मन्दिर, ना आरएसएस, वीएचपी जैसे संगठन किसी भी महान जाट, खाप या किसानी जातियों के यौद्धेयों की ना ही तो कोई जयंती मनाता, ना उनकी वाणियां गाता, ना उनका कोई किसी भी लिखित/मौखिक फॉर्मेट में जिक्र करता|

इसलिए हमें अपने यौद्धेयों, हुतात्माओं के साथ अपनी कल्चर-सभ्यता-मान-मान्यताओं को जिन्दा रखना है और आगे की पीढ़ियों को पास करना है तो इसका सबसे बढ़िया विकल्प "खापदवारे" हो सकते हैं|

जिन खापों के पास पहले से ही अपने "खाप-भवन" या "खाप-इमारतें" हैं वह भी इनका नाम खापद्वारा रखने पर विचार करें| जैसे कि गोहाना में मलिक खाप का "मलिक भवन" है, रोहतक में नांदल खाप का "नांदल भवन" है व् ऐसे ही और भी काफी सारी खापों के पास अपनी-अपनी इमारतें हैं; वह इनमें "भवन" शब्द को खापद्वारा" शब्द से रिप्लेस करने को विचार देवें और जाट-धर्मशालाओं को "जाट- सर्वखापद्वारा" नामकरण पर विचारें| और इस श्रृंखला में "सर्वजातीय-सर्वखापद्वारा" सर्वजातीय सर्वखाप के हेडक़्वार्टर सोरम में बनवाया जा सकता है या फ़िलहाल जो वहाँ चौपाल है उसको यह नाम दिया जा सकता है व् आगे चलकर आवश्यकानुसार इसका विस्तार किया जा सकता है।

और इन खापदवारों में अपने यहां हो के गए तमाम हुतात्माओं-क्रांतिकारियों-पुण्यात्माओं की वाणियां व् पाठ सुबह-शाम करवाने शुरू करें| साथ ही अपने कल्चर-सभ्यता इत्यादि पर भी पठान-पाठन होवै तो कसम से सुवाद सा आ जावे|

परन्तु हाँ, अभी तक जितने मंदिर जाटों ने बनवाये हैं; उनके नाम अवश्य "जाट-मंदिर" टाइप में करवाये जाने चाहियें, या जिसने वो मंदिर बनवाया उसके नाम पर या उसके पुरखों के नाम पर| जैसे कि जींद का रानी-तालाब वाला मंदिर का नाम फुलकिया जाट मंदिर या जाट मंदिर या जींद का शाही मंदिर (शाही क्योंकि जींद रियासत ने इसको बनवाया) होना चाहिए|

अपील: आपके नजदीकी यथासम्भव खाप चौधरी-चौधरानियों को यह सुझाव पहुंचाने के लिए आपका धन्यवाद|

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 4 December 2016

जाट अगर इस जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े को पलक झपकते समेटवाना चाहते है तो यह करें!

जाट मर्द खुद भी और अपने घर की औरतों से भी यह कह दें कि हमारे घरों-दरवाजों-गलियों-चौराहों पर मन्दिर-गौशाला-जगराता-भंडारा आदि के नाम पर हर दान मांगने आने वाले, हर दान की पर्ची काटने वाले को यह कहो कि जा के पहले यह जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े बंद करवाओ और फिर दान ले जाओ।

मैं जानता हूँ कि इन्हीं में से किसी-किसी के इशारों पर चलने वाले इन जाट बनाम नॉन-जाट रुपी अखाड़ों वाले यह बड़े भोले बनते हुए कहेंगे कि अजी हमने कौनसा इनको ऐसा करने-रचने-बोलने को बोला है।

तो जवाब देना कि हमने कब कहा है कि आपने रचने-करने-बोलने को बोला है परन्तु हम इतना जानते हैं कि आपके कहने से यह चुप बैठ जायेंगे और समाज का भाईचारा बचा रहेगा और सबका भला हो जायेगा।

और जो यह ढीठ बनते हुए यह कह दें कि अजी हमारी नहीं सुनेंगे तो जुबानी तीरों से इनको थपड़ाने के लहजे (ध्यान रहे हाथों से नहीं थपडाना, मेरी दादी वाले स्टाइल में सिर्फ जुबान-जुबान में ही टाकलना है) में जवाब देना कि जब तुम्हारी कोई सुनता ही नहीं तो हम क्यों सुनें? जाओ कोई और दरवाजा देखो।

देखना जब आगे से ऐसे दो-टूक जवाब मिलेंगे, बिना दान के जब भूखे मरते पैर कूटेंगे और पेटों में इनके मरोड़े लगेंगे तो यह तो क्या सीधा मोहन भागवत और शंकराचार्य तक ना राजकुमार सैनी, रोशनलाल आर्य और अश्वनी चोपड़ा जैसों के मुंहों पे "तोड़े-से-भी-ना-टूटे" वाले फेविकॉल चिपका दें तो।

मैंने तो यह नियम बना लिया है और मेरे घर-रिश्तेरदारों में इसको फैला रहा हूँ; आप भी यह काम शुरू कर लें तो देखो कितना जल्दी घर बैठे जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े सिमटते हैं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

बनियों से सीखो कि धर्म के नाम पर इन्वेस्ट किये से एक-एक पाई कैसे वापिस कमाते हैं!

धर्म के नाम पर दान का हिसाब नहीं लिया-दिया जाता, दान गुप्त होता है, दिया गया दान वापिस नहीं होता, दान स्वेच्छा से होता है; आदि-आदि जुमले उन्हीं को सुहाते हैं जिनको धर्म में इन्वेस्ट करके इससे कमाना नहीं आता या कमाने की इच्छा नहीं रखते या इसको कमाना गलत मानते हैं|

एक बात बताओ बिड़ला मंदिर किसके नाम या उपनाम से बने हैं देश में? बिड़ला कोई भगवान था या कोई से भगवान् का उपनाम है यह? सिंपल बनियों के उपनाम यानि गोतों यानी गोत्र में से एक गोत्र ही तो है ना?

अब देखो, इसको कहते हैं मार्केटिंग और वो भी "गुड वर्ड ऑफ़ माउथ" वाली मार्केटिंग| जो-जो भी मन्दिर में जायेगा, बिड़ला औद्योगिक घराने के लिए उसके मन में अच्छी भावना पैदा होगी और बिना सवाल किये इनके हर उत्पाद खरीदेगा; खरीदते हो कि नहीं?

अब एक उदाहरण जाटों का ले लो| जींद के रानी तालाब वाला भूतेश्वर टेम्पल, जींद के महाराजा ने बनवाया था, वो भी अमृतसर हरमिंदर साहिब की तर्ज पर, तालाब के बीचों-बीच; और वो भी एक सिख जाट होने के बावजूद? सब जानते हैं कि जींद-नाभा-पटियाला रियासतें इनके संस्थापक (फाउंडर) सरदार चौधरी फूल सिंह सन्धु जी के नाम से फुलकिया जाट रियासतें बोली जाती हैं? तो फिर इस मन्दिर का नाम फुलकिया मन्दिर या सन्धु मंदिर क्यों नहीं होना चाहिए?

और वैसे भी यह तो बना भी जाटों के श्रेष्ठ आराध्य शिवजी महाराज उर्फ़ स्केडेनेविया के राजा ओडिन - दी वांडर्र महाराज के नाम पर है| तो जब मंदिर बनवाया जाटों ने, उसमें भगवान् जाटों का बैठा तो यह भूतों का ईश्वर नाम किसने दिया इसको?

मेरी बातें सहज सबके पल्ले नहीं पड़ती, परन्तु जिनके पड़ती हैं वो फिर इन ढोर-डंगर टाइप ढोंगी-पाखंडियों के चंगुल से छुटकारा पा के, उन्मुक्त वाणी बोलने लग जाते हैं|

तो जब मन्दिर में जाना ही है, इनको पूजना ही है तो फिर क्यों नहीं जो-जो आपने या आपके बाप-दादाओं ने बनवाए हैं उनके नाम भी बिड़ला मंदिर सीरीज की भांति आपके ही पुरखों के नाम पर रखे जाएँ? आप जाट हो, कोई दलित नहीं कि पुजारी भीतर ही ना घुसने दे; कहो पुजारियों से कि जो मंदिर जाटों ने बनवाये हैं; उनके नाम भी जाटों के नाम पर होने चाहियें|

अब या तो बिड़ला मंदिरों के नाम भी भगवानों के नाम पर हों नहीं तो जाटों के मंदिर जाटों के नाम से ही हों|
इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि यह जो जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े खड़े किये हुए हैं यह सब खत्म हो जायेंगे, क्योंकि जब लोग देखेंगे कि जिन मंदिरों में हम जाते हैं; यह तो अधिकतर जाटों के ही बनवाये हुए हैं, तो वह साफ़ समझ जायेंगे कि यह जो जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े रचने वाले हैं यह वही अहसानफरामोश लोग हैं जो जाटों से ही सबसे ज्यादा दान-चन्दा ढकारते हैं और इन्हीं पे खुद भी जहर उगलते हैं और हम में से किसी को रोशनलाल आर्य तो किसी राजकुमार सैनी तो किसी को अश्वनी चोपड़ा बना के जहर उगलवाते हैं|

लॉजिक है कि नहीं बात में? सीधी सी बात है प्रचार में रहोगे तो कोई नहीं घुर्रा पायेगा; लेकिन इनको ऐसे ही पाथ-पाथ बिना इनपर अपना नाम लिखवाये मंदिर बना के देते रहोगे तो यूँ ही जाट बनाम नॉन-जाट झेलोगे| सबसे ज्यादा मंदिर बनवाओ तुम, इनमें दान दो तुम और फिर जाट बनाम नॉन-जाट भी तुम ही झेलो, बावली गादड़ी ने पाड़ राखे हो के?

कि मैं गलत बोल्या, हो दस्सो क्या मैं गलत बोला?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 3 December 2016

मुझे इन उपदेशो पर मेरे सवालों के जवाब चाहियें, कोई ज्ञानी-ध्यानी अगर दे सके तो आगे आये!

उपदेश 1: अतीत में जो कुछ भी हुआ, वह अच्छे के लिए हुआ, जो कुछ हो रहा है, अच्छा हो रहा है, जो भविष्य में होगा, अच्छा ही होगा. अतीत के लिए मत रोओ, अपने वर्तमान जीवन पर ध्यान केंद्रित करो , भविष्य के लिए चिंता मत करो

मेरा सवाल: इंसान कोई रोबोट नहीं जो अगत-पिछत देखे बिना, सिर्फ वर्तमान में लगा रहे| पिछत यानी अतीत यानी इतिहास जब तक नहीं जानोगे तब तक वर्तमान के कर्म कैसे तय करोगे? पीछे की असफलताओं को ध्यान नहीं रखोगे तो फिर से वही असफलताएं करने से कैसे बचोगे? बिना भविष्य के प्लान के वर्तमान में कोई कैसे कार्य कर सकता है? इंसान कोई जानवर थोड़े ही कि गाड़ी या हल में जोता और उसके आगे पीछे के वक्त में सिर्फ खाता और सोता रहे? इंसान को कर्म करने के लिए प्रेरणा चाहिए, लाभ-हानि का कैलकुलेशन चाहिए|

उपदेश 2: जन्म के समय में आप क्या लाए थे जो अब खो दिया है? आप ने क्या पैदा किया था जो नष्ट हो गया है? जब आप पैदा हुए थे, तब आप कुछ भी साथ नहीं लाए थे| आपके पास जो कुछ भी है, आप को इस धरती पर भगवान से ही प्राप्त हुआ है| आप इस धरती पर जो भी दोगे, तुम भगवान को ही दोगे| हर कोई खाली हाथ इस दुनिया में आया था और खाली हाथ ही उसी रास्ते पर चलना होगा| सबकुछ केवल भगवान के अंतर्गत आता है?

मेरा सवाल: कोई भी इंसान ना ही तो खाली आता और ना ही खाली जाता| यह सबसे बड़ी गपैड है कि वो खाली आता है और खाली जाता है| यह सिर्फ जनमानस को धन से खाली रखने का षड्यन्त्र है, ताकि इस उपदेश का हवाला देकर गुप्त-दान-चन्दे-चढ़ावे के नाम पर उसकी जेबें झड़वाई जा सकें| गर्भ पड़ते ही उसका वर्ण निर्धारित हो जाता है, जाति निर्धारित हो जाती है, धर्म-देश-राज्य-जिला निर्धारित हो जाता है; डीएनए निर्धारित हो जाता है; यहां तक कि वो छूत कहलायेगा या अछूत यह तक निर्धारित हो जाता है| देखो जब वो गर्भ से निकलता है तो कितना कुछ साथ लिए आता है या आती है| और जाते वक्त हर कोई अपने कर्मों की पूँजी अपने साथ ले के जाता है, अपना नाम साथ ले के जाता है| सरदार भगत सिंह मरने के एक सदी बाद भी याद किया जाते हैं जो साबित करता है कि जब वो धरती से गए तो अपने साथ भारत के सबसे बड़े देशभक्त होने की पूँजी ले गए|

उपदेश तीन: आज जो कुछ आपका है, पहले किसी और का था और भविष्य में किसी और का हो जाएगा| परिवर्तन संसार का नियम है|

मेरा सवाल: बिलकुल झूठ, मेरी कमाई रेपुटेशन-इज्जत-नाम-ओहदा आज भी मेरा है और कल मेरे जाने के बाद भी मैं इसी से जाना जाऊंगा| यह मुझसे कोई नहीं छीन सकता| वर्ना ऐसा होता तो न्यूटन के तीन लॉ आज भी न्यूटन के ना बोले जाते, आइंस्टाईन के अविष्कार आइंस्टाईन के ना बोले जाते| महाराजा सूरजमल के जौहर महाराजा सूरजमल के ना बोले जाते| सच्चाई तो यह है कि यह वाक्य इसलिए घड़ा गया है ताकि यह रॉयल्टी और इतिहास के चोर महाराजा सूरजमल आदि जैसे महापुरुषों का क्रेडिट या तो भुलवा के उसको अपने अनुसार घड़ देवें या किसी और के खाते-बट्टे चढ़ा देवें| पश्चिम में ऐसा होने का कोई खतरा नहीं, क्योंकि वहाँ ऐसे उपदेश नहीं चलते|

उपदेश चार: आत्मा अजन्म है और कभी नहीं मरता है| आत्मा मरने के बाद भी हमेशा के लिए रहता है| तो क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो? आप किस बात से डर रहे हैं? कौन तुम्हें मार सकता है?

मेरा सवाल: आत्मा अजन्म है तो यह 70 साल पहले भारत की जो जनसँख्या 35 करोड़ कुछ थी वो आज 125 करोड़ कुछ कैसे हो गई? यह 90 करोड़ नई आत्माएं कौनसी फैक्ट्री से बनके आई?

उपदेश पांच: केवल सर्वशक्तिमान ईश्वर के लिए अपने आप को समर्पित करो| जो भगवान का सहारा लेगा, उसे हमेशा भय, चिंता और निराशा से मुक्ति मिलेगी|

मेरा सवाल: लॉजिकल बुद्धि से बड़ा कोई भगवान नहीं| जो लॉजिक्स से चलता है वो अपना भगवान खुद है| बुद्ध से बड़ा कोई भगवान नहीं| बुद्ध यानी आपकी अपनी बुद्धि|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 30 November 2016

एक महान देशभक्त - आर्यन पेशवा - पीटर पियर प्रताप - मुरसन नरेश 'राजा महेंद्र प्रताप जी ठेनुआ'

एक महान देशभक्त - आर्यन पेशवा - पीटर पियर  प्रताप - मुरसन नरेश 'राजा महेंद्र प्रताप जी ठेनुआ' को उनके जन्मदिवस (1 दिसम्बर, 1886) पर सत-सत नमन!

First President of Provisional Government of India (1-12-1915),
1932 Nobel Prize Nominee,
Decorated with German’s Order of Red Eagle,
Founder of ‘Executive Board of India’ in Japan,
Founder of ‘World Federation Magazine’ in Japan,
Founder of ‘Prem-Dharm’ (Religion of Love),
Conferrer of ‘Jatav’ title on ‘Chamar’ Community to eliminate untouchability,
Ex. P.M. Atal Bihari Vapayee lost his deposit in front of Raja ji in 1957 from Mathura

Please read the attached poster for more details on Raja Saheb!

Jai Yauddhey! - Phool Kumar Malik


Saturday, 26 November 2016

छोल के कलम बना लो लठ की, इब लड़ना कागजी शेरों से!

लड़ाई नहीं आहमि-स्याहमी की, होगी इशारों के फेरों से,
छोल के कलम बना लो लठ की, इब लड़ना कागजी शेरों से।

सूरजमल से टकराया था मनुवाद, पानीपत की चढ़त में,
दिल्ली जीती तो देंगे मुग़लों को, जाट नहीं म्हारी लिखत में।
ऐसी आह लगी जाट की, दिल्ली मिली ना पानीपत सुख में,
मनुवादी पेशवाओं के दम्भ हुए चूर, काले आम्ब की जड़ में।।
उन दिल्ली ना देने वालों को, फर्स्ट-एड दिखी मिलती सूरजमली चौबारों से।
छोल के कलम बना लो लठ की, इब लड़ना कागजी शेरों से।

एक छोटूराम ने कलम ऐसी फटकती चलाई थी,
सूदखोरों की लूट की, बाँध गठड़ी सी बगाई थी।
जिद्द पे धर जब जाट ने, कानूनी जंग मचाई थी,
नारंग-चोपड़े-शादीलालों की, हुई हवाएं-हवाई थी।
'बावन बुद्धि बणिया, पर छप्पन बुद्धि जाट चली' के चर्चे चले घर-घेरों से।
छोल के कलम बना लो लठ की, इब लड़ना कागजी शेरों से।

जगदेव सिंह सिद्धान्ती ने शास्त्री ज्ञान उधेड़ दिए सारे,
एक तरफ अकेला जट्टा, दूसरी तरफ ग्रन्थि-शास्त्री न्यारे|
एक-2 के ज्ञान की चणक सी जब तोड़ी, तो सारे लगे झल्लाने,
पंडताई झाड़ी जब महाज्ञानी ने तो, चले ब्राह्मण जहर पिलाने||
पर हाकिम नामिसद्दीन की दवा के आगे, पार हुए ना इरादे चोरों से।
छोल के कलम बना लो लठ की, इब लड़ना कागजी शेरों से।

चौधरी कबूल सिंह, हुए सेक्सपियर जाटों के,
रख गए साहित्य-इतिहास की, एक-एक पाती सम्भाल के।
सोरम की गलियों में पाते, जवाब हर उलझे सवाल के,
खाप-इतिहास और सभ्यता, पढ़ लो दिलों को बाळ के।।
लगा दो मजमा, चला दो कलमाँ; ज्यूँ जगमग हो ज्यां ढारे से।
छोल के कलम बना लो लठ की, इब लड़ना कागजी शेरों से।

"फुल्ले-भगत" दिनरात बळै सै, अमर-ज्योत ज्यूँ गात जळै सै,
अलख-उल्हाणे नगर-निडाणे, जगत-जगाणे की चीस पळै सै।
कलम के बिना ठिकाणा नहीं सै, घाघ-घुनों से पार पाणा यही सै,
शक्ति-वाहिनी हो या छद्म-छाँटणी, इनपे भारी जाट-गजटी चासणी।।
न्यू चढ़ा दो कढाहे इस चासणी के, ज्यूँ फुस्स हो ज्या अरमां भंडेरों के।
छोल के कलम बना लो लठ की, इब लड़ना कागजी शेरों से।

लड़ाई नहीं आहमि-स्याहमी की, होगी इशारों के फेरों से,
छोल के कलम बना लो लठ की, इब लड़ना कागजी शेरों से।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक (फुल्ले भगत)

Thursday, 24 November 2016

हस्तकला का अजब नमूना हरियाणवी फुलझड़ी!

मित्रों, फुलझड़ी हरियाणवी लोककला का ऐसा सतरंगी नमूना है जो हरियाणवी महिलाओं की हस्तकला को प्रतिनिधित्व प्रदान करता है। लोक कला का यह नमूना हरियाणवी लोकजीवन में महत्वपूर्ण रहा है। लड़की की विदाई के समय महिलाएं हस्तकला के अनेक विषय वस्तुओं को ससुराल पक्ष के लोगों के लिए देने की परंपरा रही है। इसमें कोथली, पोथिया, गिन्डू, बोहिया, फुलझड़ी अनेक ऐसी विषय वस्तुएं रही हैं जो हरियाणवी महिलाओं के हस्तकला को प्रदर्शित करती रही है। फुलझड़ी भी उसी तर...ह का एक हस्तकला का नमूना है। इसे बनाने के लिए सरकंडे का प्रयोग किया जाता है। सरकंडे को सबसे पहले वर्गाकार रूप में जोड़ लिया जाता है। जोडऩे के पश्चात जब इसकी आकृति पिंजरे जैसी बन जाती है तो उसके उपर रंगीन कपड़ों को तिरछे आकार में लपेटा जाता है। वर्गाकार सभी सरकंडे रंगीन कपड़ों से लपेट दिए जाते हैं। इसके साथ ही उसके पश्चात घोटा तथा पेमक चढ़ाकर इन सरकंडों के वर्गाकार स्वरूप को कलात्मक स्वरूप प्रदान किया जाता है। इसके साथ ही फुलझड़ी के ऊपरी सिरे पर जिसे बंधने वाला सिरा भी कहा जाता है पर कपड़ों से बना हुआ तोता बांधा जाता है। इसके वर्गाकार ऊपरी कोनों पर भी छोटे-छोटे तोते बांधने की परंपरा है। इसके पश्चात वर्गाकार स्वरूप में धागे की लडिय़ां लटकाई जाती हैं। इन लडिय़ों में तिकोने रंगीन आकार के कागज पुर दिए जाते हैं। ये छोटी-छोटी मोतियों जैसी लडिय़ों की अनेक लटकनें फुलझड़ी की शोभा को बढ़ाती हैं। इसके साथ-साथ रंगीन कपड़ों से ढ़ककर बीच-बीच में माचिश भी बांधी जाती है जिनमें अनाज के दाने ड़ाल दिए जाते हैं। इसके साथ ही फुलझड़ी की सभी लडिय़ों के निचले हिस्से तथा आखिरी छोर पर बल्ब तथा रंगीन कपड़ों के बने हुए छोटे गोलाकार गिन्डू बांधने की परंपरा भी रही है। फुलझड़ी की सतरंगी आभा इतनी अनोखी तथा आकर्षक होती है कि वह सबको अपनी ओर आकर्षित करती है। नववधु को दूसर यानि के दूसरी बार ससुराल में जाते समय हस्तकलाओं के अनेक नमूने ले जाती है। उसमें से फुलझड़ी भी एक है। फुलझड़ी को घर के दालान में शहतीर के बीच में लगे हुए कड़े पर बांधने की परंपरा है। कौन बहु कितनी सुंदर फुलझड़ी लाती थी इसकी चर्चा आस-पड़ोस में अवश्य होती थी। इसके साथ ही फुलझड़ी नववधु के जेठ द्वारा बांधी जाती है। नववधु की फुलझड़ी बांधने के बदले में ज्येष्ठ कुछ राशि के रूप में इनाम भी नववधु से लेता है। जेठ द्वारा बहु की फुलझड़ी बांधना लोकजीवन में गर्व एवं गौरव का हिस्सा रहा है। नववधु, ससुर, देवर, जेठानी, ननद सभी के लिए कुछ न कुछ हस्तकला का नमूना लेकर आती रही है। फुलझड़ी बांधना तथा संदूक उतरवाना जेठ के हिस्से में आता है। वर्तमान में फुलझड़ी बनाने की परंपरा लुप्तप्राय हो चली है। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय रत्नावली समारोह में फुलझड़ी बनाने की प्रतियोगिता को शामिल किया गया है। उसी की एक झलक आप लोगोंं से सांझा कर रहा हूं।

Author and Content: Mahasingh Poonia, Mahasingh Poonia

21 दिनों के बौद्ध विपासना मैडिटेशन के 21 सूत्र!

रहबर-ए-आजम दीनबंधु चौधरी सर छोटूराम जी की जन्म-जयंती व् अहीरवाल के सबसे बड़े यूनियनिस्ट रहे राव मोहर सिंह जी की पुण्यतिथि पर विशेष!

1) सामाजिकता, धर्म और राजनीति दोनों की जननी व् पोषक है; इसलिए सामाजिक व्यक्ति धर्म और राजनीति दोनों से ऊपर है| सामाजिक व्यक्ति को चाहिए कि वह धर्म और राजनीति का गुलाम ना बने, अपितु इन दोनों का निर्देशक बना रहे| ऐसे मूढ़मतियों को समर्पण ना किया जाए जो भावनाओं का सौदा कर,आपके अंदर उनका पोषक होने की भावना की जगह, उनका पिछलग्गू या भक्त होने की भावना भरते हैं||
2) दादा नगर खेड़ा सभ्यता ही असली मुक्ति का मार्ग है; अर्थात मूर्तिउपासक बना जाये, मूर्तीपूजक नहीं| क्योंकि यही इकलौते ऐसे धाम हैं, जिनपर दान करने वाला; खुद या समूह में मिलकर सार्वजनिक तौर पर निर्धारित करता है कि उसका दिया दान या प्रसाद किसको जायेगा, उसका क्या किया जायेगा| क्योंकि यही वो आध्यात्म के इकलौते व् मूर्तिरहित धाम हैं जिनपर धर्म का मिडलमैन नहीं बैठता| क्योंकि यही ऐसे धाम हैं जो आये हुए दान का ऑडिट भी करते हैं|
3) युद्ध क्रांति, सामाजिक-क्रांति, हरित क्रांति, श्वेत क्रांति के सिलसिले में अब लेखन-क्रांति जोड़ी जाए और ग्रेटर हरयाणा (Greater Haryana comprises of Current Haryana, Delhi, West U.P., Northern Rashthan, South-Western Uttrakhand, South-Western Punjab) की धरती के हर घर से लेखनी निकल के आगे आये| क्योंकि आप भारत में रहते हैं, इंग्लैंड में नहीं, कि जहां बिना लिखे सविंधान के देश चलाया जा सकता हो|
4) हरयाणवी सभ्यता ग्लोबल सभ्यता है, इसलिए अपनी सोच भी ग्लोबल विज़न की हो; मात्र हरयाणा या भारत तक सिमिति ना हो| भारत में हरयाणा सा स्वर्ग नहीं, मानवीय सभ्यता नहीं| यही वो धरती है, जिस पर मनुवाद के जातिवाद और वर्णवाद से ग्रसित व् पीड़ित लोग ट्रेनें भर-भर रोजगार और सुख की जिंदगी की आस लिए चले आते हैं| इसलिए खुद इनमें पड़ के अपने राज्य-सभ्यता को जाने-अनजाने में उल्टी गंगा बनने की ओर धकेलने से बचा जाए|
5) देश-राज्य के साधन-संसाधनों-सिस्टम पर कब्जा बनाने, जमाये रखने और बढ़ाने हेतु सवर्ण जातियों का एक मिनिमम कॉमन एजेंडा है, ऐसे ही किसानी व् दलित जातियां भी अपना मिनिमम कॉमन एजेंडा बनावें|
6) भारत में सबसे ज्यादा औरत के अनुरूप व् ममतामयी कोई सभ्यता है तो वह हरियाणवी सभ्यता है| इस पर गर्व हो, इसका प्रचार हो|
7) मनुवाद सबसे बड़ा वंशवाद (परिवारवाद) है| अपने घरों को इससे जितना हो सके उतना बचाया जाए, अन्यथा वंशवाद और परिवारवाद की राजनीति का उलाहना ना दिया जाए|
8) मंडी-फंडी आपके इर्दगिर्द आइडेंटिटी का दायरा खींचने दौड़ता है, आपकी सामाजिक पहचान की लेबलिंग करता है| अगर आप उनके फेवरेट वर्ग से नहीं हैं, परन्तु उम्दा नेता या समाज-सुधारक हैं तो वह आपके चारों ओर आपकी जातीय एथनिसिटी का दायरा खींच, आपको उसमें बाँध; आपको सर्वसमाज का, सम्पूर्ण राष्ट्र-राज्य का शुभचिंतक व् कार्यकर्ता होने जोड़ने से रोक देते हैं; ताकि राष्ट्रभक्ति, मानवता, सभ्यता जैसे शब्द यह सिर्फ इनके फेवरेट लीडरों, सुधारकों के लिए रखे रहें| इससे बचा जाए, जहां ऐसा होता दिखे उसका खण्डन किया जाए और हो सके तो उस दायरे में उसको ही जकड़ दिया जाए| अपनी जाति के नेता-अभिनेता-सन्त-कार्यकर्ता को खुद अपनी जाति का बता के उसका दायरा सिमित ना किया जाए| वरन जो वर्ग ऐसा करते हैं, उसके यहां के अग्रणी लोगों को इस लेबलिंग में बाँध दिया जाए| अपने वालों को देश-राष्ट्र-मानवता-सभ्यता जैसे शब्दों से जोड़ के प्रचारित किया जाए| इस समस्या से छुटकारा पाने का सबसे प्रभावकारी सूत्र है अपने समाजों को कारोबार व् मान-मान्यता के आधार पर एक करना; उनको आगे बढ़ाना, बढ़ने देना और खुद भी बढ़ना|
9) इस बिंदु का मूल पांचवें बिंदु में ही है| एकता जाति-सम्प्रदाय के नाम पर ना की जाए; जीवन शैली, सभ्यता व् कारोबार के आधार पर की जाए| जैसे कि किसानी जातियां, खुद को किसान वर्ग में बांधे या किसानी से सम्बन्धित व्यापार वर्ग में, लेकिन जातीय अभिमान में खुद कभी ना बांधें व दूसरे जो बांधे उनको उल्टा इसी में बाँध दिया जाए| परन्तु हाँ, कौमी स्वाभिमान इस तरीके से पोषित रखा जाए कि खुद की पहचान मिटे नहीं और दूसरे की आपके द्वारा खण्डित हो नहीं|
10) घर का झगड़ा गली में नहीं दिखाया जाता, अत: खुद के समाज का द्वेष-मनमुटाव सोशल मीडिया पर ना फैलाया जाए| इससे जगहंसाई और दिग्भ्र्मिता के सिवाए कुछ हासिल नहीं| घर के मसले घर में ही बैठ के सुलझते हैं; इनको गली में लाये तो इनके सुलझने की बजाये इनमें फिकरे और तंज और जुड़ जाते हैं|
11) कौम-जमात के खसम बना जाए, जमाई नहीं| यानि यह मत सोचो कि कौम की भलाई का सिर्फ तुम्हारा ही तरीका सर्वोत्तम है; बस यह लेकर चला जाए कि तुम्हारा तरीका कितना साधक है| समाज-सेवा की स्वस्थ प्रतियोगिता हो, नूरा-कुश्ती नहीं|
12) जातीय-कौमी भाई से उसके सहयोग का कम्पटीशन हो, द्वेष-घृणा-नफरत-आलोचना व् नूराकुश्ती का कम्पटीशन सूदखोर और फ़ंडी-पाखंडी से हो|
13) कल्चर पेशे से आता है, भाषा से नहीं| अत: एग्रीकल्चर ही असली कल्चर है| विश्व में संस्कृति गाँव से शहर को जाती है| भारत को छोड़ कहीं भी ऐसा नहीं जहां संस्कृति शहर से गाँव को आई हो| अत: इस उलटी गंगा में ना बहा जाए|
14) खुद को जाने बिना, जग नहीं जाना जा सकता; इसलिए बुद्ध विपसना मैडिटेशन को जीवन में जरूर उतारा जाए| अपने भय से लड़ा जाए, भागा नहीं|
15) मंडी के सूदखोर से नफरत करो, धर्म के फ़ंडी और पाखंड से नफरत करो| पाप की सम्भावना को भी मिटाया जाए और पापी को भी|
16) आपके इर्दगिर्द का 70 साल से ऊपर का कोई बुजुर्ग (फिर वो महिला-पुरुष हो या जिस भी जाति-बिरादरी का हो) ऐसा नहीं बचना चाहिए, जिसके पास बैठ आपने उनसे न्यूनतम 150 साल तक का तो (70 साल का उनका और 80 साल का उनके पिता-दादा का आँखों देखा उनको बताया) आँखों देखा इतिहास उनकी जुबानी कलमबद्ध ना किया हो|
17) मंडी-फंडी का पोषक है प्रतिक्रिया, यह बंद कर दी जाए; मंडी-फंडी विलुप्त हो जायेगा|
18) मंडी-फंडी के आगे बचाव और आक्रामक दोनों मुद्राओं से बचा जाए; इनके अंदर दीमक की भांति घुसने की कोशिश की जाए; तभी इनसे अपने हक़ बचाये रखे जा सकते हैं|
19) सहयोगी साथी को आर्थिक रूप से सबल करने में मदद की जाए| एक दूसरे के रोजगार-कारोबार को आगे बढ़वाया जाए|
20) आपका उद्देश्य आपकी और आपके लोगों की परचेजिंग पावर (purchasing power) बढ़ाने और बढ़वाने का हो| देश-सरकार-सिस्टम के साधन-सांधनों-दान-चन्दे के जरियों पर अपने सवैंधानिक आधिपत्य का हो| लोगों और जमात को काबू करने मत दौड़ो, साधन-संसाधन-दान-चन्दे को सवैंधानिक तरीके से हासिल करने को दौड़ो| जिनका इन पर कब्जा है, लोगों का वहीँ लगता मजमा है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 26 October 2016

गाँधी से पहले महाराजा सूरजमल बरतते थे, "अपराध का जवाब अपराध नहीं" की थ्योरी!

महाराजा सूरजमल जी की जिंदगी से मुझे जो सबसे बड़ा सबक मिलता है वो यह कि कुटिलता-शियारी-षड्यन्त्र का उतना ही विरोध करो जितने से आपका बचाव हो सके| कुटिल के रास्ते से हट जाओ, इससे उसके दो हश्र होंगे; या तो उससे भी शातिर से टकरा के ध्वस्त हो जायेगा या फिर अपनी ही कुटिलता में कुढ़-कुढ़ मर जायेगा| और आपके दो फायदे होंगे, एक तो आपकी ऊर्जा बची रहेगी, दूसरी आप उसी शातिर को बाद में उस पर अहसान कर उसको दोहरी मार मारने के काबिल रहोगे|

पूना के पेशवा बाजीराव के छोटे भाई व् सदाशिवराव भाऊ की महाराजा सूरजमल को अब्दाली के खिलाफ "जाट-मराठा अलायन्स" बना के लड़ने की बात की आड़ में वार्ता के लिए बुला के बन्दी बनाने और फिर पूरी जाट-सेना को पानीपत में इस्तेमाल करने की इनकी कुटिलता को जाट-सुरमा पल में भांप गया था| परन्तु उस अफलातून ने इसका विरोध करने की बजाये, चुप्पी खींचना बेहतर समझा| अपनी ताकत को पेशवाओं की महत्वाकांक्षा की पूर्ती का साधन नहीं बनने दिया| उस सुजान के धैर्य और सन्तोष का परिणाम यह हुआ कि उसको बन्दी बनाने का सपना लेने वाले, पानीपत में घायल व् पराजित हो, उसी के दर पर फर्स्ट-ऐड पाए| और इस तरह पीढ़ियों-सदियों-शताब्दियों तक अपनी जमातों को उस जाट का ऋणी खुद ही बना गए|

आज के दिन, ठीक ऐसी ही रणनीति पूना के पास ही के नागपुरी राष्ट्रवादियों के साथ करने का वक्त आया है| आरएसएस/बीजेपी लाख उकसावे परन्तु उकसना मत; बल्कि इनके लिए अब्दाली का इंतज़ार करना| और अब्दाली अबकी बार भारत में ही है, इनकी जातिवाद और वर्णवाद की नीति में ही है| वो धीरे-धीरे विकराल रूप ले रहा है और इनको डंसने की ओर अग्रसर है; परन्तु यह उसको "जाट बनाम नॉन-जाट" के रूप में आपकी तरफ मोड़ने की फिराक में हैं; बच के रहना| संयम धारे रहना|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

अश्वनी चोपड़ा जैसे लोग पहले पंजाब में यूज (प्रयोग) हुए, अब हरयाणा में हो रहे हैं!

इनके बहकावे में आने से पहले आम हरयाणवी समझे इसको अच्छे से|

सबसे पहले समस्त हरयाणावासियों से एक अपील:

सलंगित अख़बार की कटिंग में न्यूज़ वाले जैसे लोगों ने (जिनमें इन महाशय के दादा जगत नारायण चोपड़ा का नाम टॉप में आता है) ने पहले पंजाब को तबाह करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी और अब ये हरियाणा के लोगों के भाईचारे में आग लगाकर हरियाणा बर्बाद करना चाहते हैं| इसलिए सभी हरियाणा वासियों से विनम्र अपील है कि हरियाणा को बचाने के लिए पंजाब केसरी अखबार का बायकाट करें।

अब बात कि कैसे अरोड़ा/खत्री समुदाय इसके लीडरों के जरिये (क्योंकि आम अरोड़ा/खत्री शांतिप्रिय है, इसलिए इस लेख में बात भी सिर्फ अश्वनी चोपड़ा जैसे लोगों पर ही होगी) आरएसएस द्वारा दूसरी बार फिर से यूज किया जा रहा है:

अश्वनी चोपड़ा जैसे लोग, खुद को पंजाब में "हिन्दू अरोरा-खत्री" लिखवाते हैं, और पंजाब के बाहर जैसे कि हरयाणा, यहां पंजाबी लिखवाते हैं| इनके (हालाँकि खेलती आरएसएस है इनके जरिये, परन्तु यह इसको इनकी ढेढस्यानपट्टी मानते हैं) खेल को समझें| तो ये ऐसे लोग हैं, जो जब आग लगेगी तो हरयाणा छोड़कर खुद तो गुजरात या नागपुर भाग जायेंगे (क्योंकि अश्वनी चोपड़ा जैसों की हरकतों ने जब पंजाब में आतंकवाद सुलगाया था तो पंजाब के पंजाबियों ने ही या तो इनको वहाँ से खदेड़ दिया था या यह खुद भाग आये थे और हरयाणा में शरण ली थी) और पीछे रह जायेगा नफरत की आग में जलता-धधकता हरयाणा| लेकिन इसका जो अंजाम भुगतना पड़ेगा वो एक आम भोले-भाले अरोड़ा/खत्री को। ये लोग आरएसएस के हाथों में खेलते हैं, जबसे आरएसएस बनी है तब से उसकी कठपुतली रहे हैं| आरएसएस इनको ले के हरयाणा में एक्सपेरिमेंट कर रहा है| आरएसएस चाहता है कि पंजाबी शब्द को ले के हरयाणवी और पंजाबी के बीच विवाद पैदा किया जाए|

यह, अश्वनी चोपड़ा महाशय, कभी कहता है कि "सभी गैर -जाट एक हो जाओ, वर्ना जाट दबा लेंगे", तो कभी कहता है कि सभी पंजाबी एक हो जाओ| कभी कहता है कि अगर हरयाणा में पंजाबी राज लाना है तो सारे पंजाबी एक हो जाओ| कभी फेंकता है कि पाकिस्तान से आ कर हमने मेहनत से सब जमाया| कभी दूसरों को नसीहत देता है कि मांग के नहीं, मेहनत से खाओ; जबकि खुद बैंको के सैंकड़ों करोड़ जब्त किये बैठा है| लेकिन जो यह नहीं कहते वो यह कि सब हरयाणवी एकता और बराबरी के साथ रहो| क्योंकि यह अभी तक भी खुद को पाकिस्तान से ही आया हुआ मान रहे हैं, क्यों भाई आपकी माता श्री ने आपकी डिलीवरी पाकिस्तान के हॉस्पिटल में करवाई थी या भारत में?

इस बात को मेरे दिल्ली वाले मित्र मान साहब के तजुर्बे से, इस तरीके से समझाना चाहूंगा:

किस्सा मित्र की जुबानी: ईस्ट UP/बिहार का उदाहरण लेते हैं| दिल्ली में इनकी पापुलेशन काफी है| जिनको हम migrants from ईस्ट UP /बिहार बोलते हैं| इनको पूर्वांचली भी बोला जाता है| इनको ले के दिल्ली और मुंबई में खूब राजनीति होती है| और इसी चक्कर में राज ठाकरे जैसे गुंडे पैदा होते हैं| मेरी बात कुछ बिहारियों से हुई| वो बड़े खुश हुए कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी जीती| मेरे को बोले कि देखो बिहारियों ने कमाल कर दिया, बिहार से आके दिल्ली में कितने सारे MLA बन गए| मैंने कहा सही बात है, 10-12 MLA बने होंगे| वो बड़े खुश थे| मैंने उन् बिहारियों से पूछा कि बिहार में तो जातिवाद बहुत ज्यादा है? वो बोले जी बिलकुल है| मैंने उनसे उनकी कास्ट पूछी कि तुम कौनसी कास्ट के हो | तो 1 ने बताया कि मै पासवान हूँ, एक ने कहा में यादव हूँ, एक ने कहा में कुर्मी हूँ, आदि -आदि मतलब सब के सब दलित या OBC थे| मैंने उनको कहा चलो अब मतलब की बात करते हैं| ये बताओ की दिल्ली में जो MLA या MP बने हैं, वो किस कास्ट के हैं, माना की बिहारी हैं| उनकी कास्ट तो होगी? अच्छा चलो ये बताओ की तुम्हारी कास्ट का कोई बिहारी MLA बना क्या? कोई बिहार का यादव, पासवान, कुर्मी या कोई और MLA बना क्या? एक दम से बोले नहीं | मानो एक दम से उनकी बत्ती जल गई, मुझे ऐसा लगा| तो फिर ये किस कास्ट के लोग है जो बिहारी तो है लेकिन तुम्हारी कास्ट के नहीं हैं? वो एक दम से चुप| मानो उनके अंदर का बिहार जाग गया हो, मतलब उनके अदर का जातिवाद जाग गया हो| मैंने कहा चलो मैं तुम्हें बताता हूँ कि उनकी कास्ट क्या है| 1 - झा, 2 - त्रिपाठी, 3 - तिवारी, मिश्रा, उपाध्याय, शर्मा, त्रिवेदी, चौबे आदि-आदि| अब मैंने उनको बताया कि ये लोग बने है MLA दिल्ली में| अब बताओ ये कौन हैं बिहारी या तथाकथित सवर्ण? एक दम से बोले कि ये तो सवर्ण होते हैं| वही सवर्ण ना जिनके जुल्मों के चलते, तुम लोग इधर जाटलैंड पर रोजगार और सुखचैन ढूंढने आते हो? बोले हाँ| चलो माना कि ये भी बिहारी हैं| तो इनके साथ -साथ अगर 1 पासवान, 1 यादव, 1 कुर्मी आदि भी MLA बन जाता तो किसी का क्या जाता? लेकिन इनको तो बिहार का तो छोडो, हरयाणा का योगेंद्र यादव तक रास नहीं आया| वो मेरी बातें सुनकर एक दम से shocked थे| मैंने कहा ये वो ही सवर्ण हैं तुम्हें बिहार में जुत्ते मारते हैं और दिल्ली में आ के तुम लोग इन्ही को बिहारी के नाम पर वोट करके MLA बनाते हो| ये यहाँ MLA बनकर खूब पैसा कमाते हैं और अपने बच्चो को पढने के लिए विदेश भेजते हैं| मैंने कहा ये लोग दिल्ली /बिहार में छेत्रवाद की राजनीति करते है| मुंबई में इन्हीं लोगों ने तुम्हारे पीछे राज ठाकरे नामक गुंडा इस काम के लिए छोड़ रखा है| उलटे-सीधे काम ये करते हैं और बाद में पिटते तुम हो| अगर ये लोग मुंबई में भी जातपात/क्षेत्रवाद की राजनीति न करे तो राज ठाकरे को मौका न मिले ये सब करने का| बोले कि हमने तो आज तक ये सोचा ही नहीं| मैंने कहा ये बिहारी, पंजाबी, गुजराती आदि-आदि सब झूठ है| सचाई सिर्फ तुम्हारी जाति है| बाकी सब झूठ है| सच सिर्फ इतना है कि तुम सिर्फ दलित हो, OBC हो| बाकी ये सब बिहारी, बंगाली, पंजाबी वर्ड का इस्तेमाल शातिर जातीय लोग धडल्ले से करते हैं| एक दलित चाहे वो बिहारी हो या बंगाली पूरे देश में दलित ही होता है| मैंने कहा इन् लोगो ने दिल्ली /मुंबई में पूर्वांचल प्रकोष्ठ बना रखे है | पुवांचल सभाए बना रखी है | इनका मकसद सिर्फ पोलिटिकल होता है| ये पूर्वांचल के नाम पर पोलिटिकल पार्टियों से टिकेट लेते हैं और MLA/MP बन जाते है| तुम्हें रोजगार तो स्थानीय हरयाणवी या दिल्ली वाले से मिलता है ना? बोले कि अधिकतर| तो बताओ या तुम्हारे किस काम आ रहे हैं? सब सोचने की मुद्रा में आ गए| दिल्ली में 1996 से एक MP बनता है आ रहा है | सबसे पहले तिवारी बना, फिर मिश्रा बना और अब फिर से तिवारी बना| ये तुम्हारी कास्ट को टिकट क्यों नहीं देते हैं? या सिर्फ तुम लोग खाली वोट करने के लिए बने हो? इन्होनें तुम्हें मारने के लिए बिहार में सेनाएं बना रखी हैं| और फिर दिल्ली में आकर तुम इन्हीं के लिए वोट करते हो?

दोस्त का बताया किस्सा समाप्त|

तो यही किस्सा अश्वनी चोपड़ा जैसे लोगों का है| आरएसएस के इन शियारों द्वारा फैलाये जा रहे जातिवाद से आम अरोड़ा/खत्री को क्या मिलता है?

अब अरोड़ा/खत्री समुदाय को एक सन्देश के साथ निचोड़ की बात:

क्योंकि पंजाब, हरयाणा , वेस्ट यूपी, दिल्ली में जाटू-सभ्यता के चलते मनुवाद कभी भी ज्यादा प्रभावशाली नहीं रहा और आरएसएस के मनुवादी लोग इस बात को अच्छे से जानते हैं| इसीलिए इन्होनें रामबिलास शर्मा जैसे नंबर वन सीएम पद के दावेदार होते हुए भी एक खत्री को हरयाणा का CM बनया है| क्योंकि मनुवादी हरयाणा के ब्राह्मण को सबसे नीचे दर्जे का ब्राह्मण मानता है, इसलिए उन पर विश्वास नहीं करता कि एक हरयाणवी ब्राह्मण इनके समाज को जातिवाद व् वर्णवाद में तोड़ने के एजेंडा को अच्छे से लागू कर पायेगा कि नहीं| अत: यह एक सोशल एक्सपेरिमेंट है| अगर जाटलैंड में रिएक्शन होगा तो मनुवादी सेफ रहेंगे| इस आग में लपेटे जायेंगे अरोड़ा/खत्री, ठीक वैसे ही जैसे पंजाब में लपेटे गए थे; वहाँ से पंजाबियों द्वारा ही खदेड़े गए यह मेरे वीर हरयाणा में शरण लिए थे| शायद वो अरोड़ा/खत्री जिनको ये पता भी नहीं होगा कि उन्हीं के लोग उनको राजनीती की भेट चढ़ाना चाहते हैं| इसके पीछे आरएसएस की सोची समझी रणनीति है, जो पंजाब के बाद अब दोबारा से हरयाणा में प्रयोग कर रही है और यह बड़े चाव से हो भी रहे हैं|

इसलिए बीजेपी/आरएसएस बार-बार जाटों को उग्र करने की कोशिश करता रहता है, ताकि जाट रियेक्ट करें| इसीलिए लिए ऐसे ब्यान जान-बूझकर और सोच समज कर दिलवाए जा रहे हैं|

चलते-चलते: मैं नहीं मानता कि अरोड़ा/खत्री समुदाय इन सब बातों को समझता नहीं होगा, वो मजाकिया जरूर होते हैं, परन्तु ऐसे अंधे कभी नहीं कि अश्वनी चोपड़ा जैसों के हाथों अपने समाज को गैरों के हितों के लिए प्रयोग होने देवें| साथ ही दो साल से जाटों द्वारा अभी तक जो संयम बरता गया है, इसको आगे भी जारी रखें; क्योंकि इस हरयाणा को हरा-भरा समतल व् इस लायक कि यहां मुनवाद से पीड़ित दूसरे राज्यों के दलित-ओबीसी भी ट्रेनें भर-भर रोजगार करने आते हैं; किसी ने बनाया है तो वो सबसे ज्यादा आपके पुरखों ने स्थानीय दलित-ओबीसी के साथ मिलके बनाया है| अत: आपकी जिम्मेदारी सबसे ज्यादा बनती है, अपनी "दूध-दही की संस्कृति में डूबे भाईचारे" को किसी की नजर न लगने देने से बचाने की|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"ब्लाउज-पेटीकोट" भारतीय साड़ी पहनावे का हिस्सा नहीं, अपितु ब्रिटिशर्स से इस ड्रेस में लिया गया है!

ठीक वैसे ही जैसे चड्ढीधारियों (ताज़ा-ताजा बने पैंटधारी) का टोपी-शर्ट-चड्ढी (पेंट)-जूते-जुराब कुछ भी भारतीय नहीं परन्तु फिर भी चौड़े हो के खुद को राष्ट्रभक्त कहते नहीं कुढ़ियाते|

वैसे बिना ब्लाउज-पेटीकोट की साड़ी दक्षिण-पूर्वी व् मध्य भारतीय पहनावा है; उत्तर-पश्चिम भारत खासकर पंजाब -हरयाणा में कुरता-दामण व् सलवार-सूट पहनावा रहा है|

तो हुआ यूँ कि गुरु रविन्द्र नाथ टैगोर के भाई सत्येंद्र नाथ की बीवी बिना ब्लाउज-कोटीपेट के, स्तनों पर सिर्फ साड़ी का पल्लू ढाँप के कलकत्ता के ब्रिटिश क्लबस में एंट्री पे रोक दी गई| तब गुरु रवीन्द्रनाथ ने कहा कि अब नंगी छाती और नंगी पीठ के पहनावे नहीं चलेंगे और साड़ी के नीचे ब्रिटिशर्स की शर्ट, टी-शर्ट की भांति ब्लाउज और पेटीकोट पहनो| और तब से ऐसे शुरुवात हुई दक्षिण-पूर्वी व् मध्य भारतीय समाज में साड़ी के नीचे ब्लाउज व् पेटीकोट पहनने की|

तो जो औरतें या मर्द महानुभाव 'आज की साड़ी ड्रेस' को शत-प्रतिशत शुद्ध भारतीय पहनावा मानके इनको पहनती हैं, वह जानें कि इसमें सिर्फ साड़ी आपकी संस्कृति की है, ब्लाउज और पेटीकोट ब्रिटिशर्स के हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"खेड़े के गौत" की लिंग-समानता की थ्योरी, जाटू-सभ्यता को "समगौत भाईचारे" की थ्योरी से भी ऊपर ले जा के बैठाती है!

आजतक यूरोप-इंग्लैंड-फ्रांस-भारत-मिडिल-ईस्ट, यहां तक कि अमेरिका-कनाडा-ऑस्ट्रेलिया तक की भी; गौत यानी गोत्र यानि उपनाम के प्रयोग बारे जितने भी सिद्धांत व् चलन जानने में मिले, 'जाटू-सभ्यता' के 'खेड़े के गौत' वाली लिंग-समानता की परिपाटी किसी में नहीं दिखी| नहीं दिखी, विश्व की किसी भी अन्य सभ्यता में यह सभ्यता जो औलाद का गौत सिर्फ पिता के गौत के आधार पर ही नहीं वरन माता के गौत के आधार पर भी रखने का निर्बाध-निर्विरोध-सर्वमान्य विकल्प देती हो|

क्या कभी सुना है कि फलाने का उपनाम (गौत, गोत्र) उसके पिता की बजाये उसकी माता के उपनाम पर है?
"जाटू-सभ्यता" में यह कांसेप्ट है, यह खुलापन है जहां औलादों के गौत पिता के गौत के साथ माता के गौत के आधार पर भी जाने जाते हैं| और यह मानवीय-मूल्यों और संस्कारों की पराकाष्ठा की अनुभूति "जाटू-सभ्यता" का "खेड़े के गौत" का कांसेप्ट देता है|

"खेड़े के गौत" का कांसेप्ट कुछ समान्तर सम्भावनाओं के साथ मूलतः इस सिद्धान्त पर बना हुआ है कि गाँव में गांव के बेटे की औलाद बसे या बेटी की, दोनों सूरतों में उनकी औलादों का उपनाम "खेड़े का गौत" चुनना सर्वोत्तम रहता है| गाँव की बहु व् गाँव के जमाई का गौत पीछे छूट जाते हैं या कहें कि द्वितीय हो जाते हैं|

ग्रेटर हरयाणा व् पंजाब (जाटू सभ्यता बाहुल्य इलाके) के लगभग हर गाँव-नगरी में 2-4 से ले 10-20-50 तक ऐसे घर मिलते हैं जिनको "धाणी की औलाद" (पंजाब-हरयाणा के बॉर्डर के साथ लगते एरिया में), "ध्याणी की औलाद" (जींद-हिसार-भिवानी क्षेत्रों में), "देहल की औलाद" (रोहतक-सोनीपत-झज्जर-दिल्ली क्षेत्रों में), "बेटी की औलाद" (पश्चिमी यूपी क्षेत्रों में) इत्यादि बोला जाता है|

मेरी (लेखक की) जन्म नगरी निडाना, जिला जींद, हरयाणा में करीब 40 घर ऐसे हैं जो "ध्याणी की औलाद" कहलाते हैं| यानि 3-4 पीढ़ी पहले हमारी कोई बुआ अपने पीहर यानी हमारे गाँव में बस गई थी, और तब से उस बुआ की औलादों का गौत "मलिक" यानी "निडाना के खेड़े" का गौत बजता है, फूफा का गौत पीछे छूट गया था| और यह कांसेप्ट क्या जाट, क्या धानक, क्या चमार; गाँव की हर जाति अनुसरण करती है|

तो जब कभी आपको "समगौत" जैसे मुद्दों पर किसी ऐसे बजरबटटु से जिरह करनी पड़ जाए जो आपकी संस्कृति को तुच्छ दिखाने की कुचेष्टा रखता हो, तो उसके साथ डिफेंडिंग मोड में ना आवें; अपितु इस खुली मानवता के पहलु के साथ उसको "समगौत" से भी आगे "खेड़े के गौत" तक ला के समझावें और बतावें कि कैसे पूरे विश्व में इकलौती सिर्फ जाटू-सभ्यता है जिसमें औलाद का उपनाम उसकी माँ का उपनाम भी हो सकता है| और लगे हाथों उससे यह प्रश्न भी दाग दें, कि बता तेरे यहां क्या फंडा है इस पहलु पर?

हमारे पुरखे इंग्लैंड की आदतों के रहे हैं, जैसे उन्होंने कभी अपना सविंधान, मान-मान्यताएं नहीं लिखी ऐसे ही जाटों ने नहीं लिखी| और जो हिन्दू धर्म के शास्त्र-ग्रन्थों के लेखक है वो तो आजतक भी "जाटू-सभ्यता" को "एंटी-ब्राह्मण" बोलते आये हैं, तो इसलिए इन्होनें भी इनकी डॉक्यूमेंटेशन पर विशेष ध्यान नहीं दिया| परन्तु अब जिस वाहियात व् कबीलाई तरीके से जाट-खाप-हरयाणा के पीछे यह लोग पड़े रहते हैं, ऐसे माहौल में इनको समझाने व् दिखाने हेतु, यह चीजें लिखित रूप में उतारनी जरूरी हो गई हैं| वर्ना यूँ ही चलता रहा तो बहुत जल्द ही यह लोग औरों की तो छोडो खुद जाटों के बीच से ही "जाटू सभ्यता" को समेट देंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

पश्चिमी यूपी + उत्तराखंड यानि पूर्वी हरयाणा में यह साड़ी पहनने का रिवाज कब से, कहाँ से और क्यों आया?

यह दुर्लभ चित्र देखिये, दोनों पुण्यात्माएँ पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के आदरणीय माता-पिता हैं| इसमें दादी जी का घाघरा इतना घुंघराला है कि पश्चिमी हरयाणा के घाघरे की बनवाट से मेल खाता है|

तो इसको देखते ही अचानक विचार आया कि तो आज के दिन जो पूर्वी हरयाणा की औरतें साड़ी या कुरता व् स्कर्ट जितने कपड़े का नीचे तक का जो स्कर्ट पहनती हैं यह कब से, कहाँ से और क्यों आया?

सनद रहे 1857 से पहले पूर्वी हरयाणा, पश्चिमी हरयाणा और सेंट्रल हरयाणा सब एक मिला के ग्रेटर हरयाणा होते थे और पूरे इलाके की "सर्वखाप हरयाणा" होती आई जो कि आज भी है और जिसका मुख्यालय सोरम में है|

इस हिसाब से मोटा-मोटा अंदाज लगाऊं तो क्या बीसवीं सदी की शुरुवात तक पूर्वी व् पश्चिमी यानी यमुना के आर और पार के दोनों तरफ के हरयाणा की औरतों की वेशभूषा एक जैसी होती थी और इसमें फर्क तब से पड़ा जब से पूर्वी हरयाणा को अवध यानी यूपी में मिला दिया गया?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Photo Courtesy: Ch. Jasbir Singh Malik

Comments Received:

1) Dharmvir Padha हरियाणा और पश्चिमी हरियाणा यानि सम्पूर्ण हरियाणा की वेष भूसा एक समान थी । हमारे यहां सूट सलवार का चलन तो अब 1970 के बाद से पंजाबी कल्चर के कारण आया । अंतर केवल घाघरे के भारी और हल्के का था । यमुना पार हल्का घाघरा था यहंा भारी का रीवाज था । उसको बावन गज तक का बनवा लिया था । उसके ऊपर ओढना था जो घुटने से लेकर सिर तक ढकता था ।
कमोबेश साड़ी का भी तरीका वही है । उसमे पेटीकोट कहा जाता है जो हलका घाघरा होता है और ओढ़ना बड़ा हो जाता है जो साड़ी कहलाता है ।

2)  Satish Kaler Saree with Petikot (skirt) and blouse was a brainchild of a British woman, before that Saree was draped without petikot n blouse.- http://www.bbc.com/news/magazine-30330693
3) Vishal Jat Salkalan Ye sahi बात है ।
पश्चिम यूपी का east व् मिडिल यूपी के साथ मिला होना इसकी कल्चर को काफी प्रभावित क्र रहा है।

4) Adarsh Singh Trar भाई अभी बात करके मालूम चला
मेरी दादी भी घाघरा पहनती थी पर हमने कभी देखी नही क्योकि जब तक हम हुए तब तक साडी पहनने लगी थी
घाघरे के साथ दिक्कत यह थी कि वो भारी होते थे , उन्हे धोने मे भी दिक्कत थी तथा काम करने मे comfortable नही होते थे इसलिए घाघरो के गज
कम होते चले गए ।
तो हरियाणा जो कि पंजाब के संपर्क मे था यहां पंजाब का कल्चर अपनाया गया
दुसरा यह कि हरियाणा मे महिलाए खेत मे ज्यादा काम करती थी और पश्चिम युपी मे महिलाए खेत मे काम कम करती है
इसलिए हरियाणा मे सूट पर जोर रहा क्यो सूट साडी से ज्यादा comfortable था
और पश्चिम यूपी ने पूर्व के पहनावे को अपनाया जबकि हरयाणा ने पंजाब के ।

5) कुँवर विजयन्त सिंह बैनिवाल मेरी दादी जी जीवन के अंतिम क्षणों तक कुर्ता घाघरा पहनती थी।
घाघरे का दूसरा रूप गरारा भी है, घाघरे मे कपडा ज्यादा लगता था, गरारे में थोडा कम