Monday, 11 November 2019

नानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाणे सरबत दा भला! सतनाम वाहेगुरु!

इस धर्म की महानता का अंदाजा इसी से लगा लीजिये कि 1850 के आसपास हिन्दू जाट लगभग इसकी तरफ झुक गया था| तब हिन्दू जाट को सिखिज्म में जाने से रोकने के लिए, "जाट जी" व् "जाट देवता" लिख-लिख जाट की स्तुति भरा "सत्यार्थ-प्रकाश" लाया गया, जाट की मान-मान्यताओं को पहली बार ऑफिशियली स्वीकार कर, जाट के "दादा नगर खेड़ों" के "मूर्ती-पूजा" नहीं करने के कांसेप्ट पर आधारति "आर्य-समाज" 1875 में स्थापित करवाया गया व् इस तरह से सनातनियों के प्रति भरे पड़े जाट के गुस्से को शांत करते हुए जाट को सिखिज्म में नहीं जाने से मनाने में कुछ हद तक बात बनी| कुछ हद तक इसलिए क्योंकि करनाल-थानेसर-कैथल तक सिखिज्म फ़ैल चुका था, बस "आर्य-समाज" की वजह से यह आगे फैलने से रुका|

और यह बात 35 बनाम 1 रचने वाले आज फिर से भूले लगते हैं कि जाट तुम्हारे साथ है तो तुम्हारी अपनी बुद्धि की इसमें किसी करामात के चलते नहीं अपितु जाट को यथोचित "जाट जी" व् "जाट देवता" वाला सम्मान देने व् उसके "मूर्ती पूजा" नहीं करने जैसे बसिक सिद्धांतों को ग्रंथों में अंगीकार करने की वजह से| इसलिए यह 35 बनाम 1 के षड्यंत्र बंद ही कर दें तो अच्छा होगा अन्यथा जाट फिर से विमुख हुआ तो अबकी बार शायद ही रुके| यह 35 बनाम 1 रचने वाले वे लोग हैं जिनको जाट को सिखिज्म में जाते देख सबसे ज्यादा बेचैनी-छटपटाहट हुई थी कि हाय-हाय जाट ही चला गया तो हमारी दान-दक्षिणा रुपी इनकम कहाँ से आएगी| 

बाबा नानक के प्रकाश पर्व की सबनू वधाईयाँ जी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

Saturday, 9 November 2019

"दादा नगर खेड़ों" में क्यों तो मूर्ती नहीं होती, क्यों मर्द पुजारी नहीं होते और क्यों इनमे धोक-ज्योत की मास्टर-इंचार्ज औरते हैं?

आज दादा जी का बताया वह जवाब सबसे तर्कशील व्यवहारिक लगा, जिसमें मैं उनसे अक्सर पूछा करता था कि हमारे "दादा नगर खेड़ों" में क्यों तो मूर्ती नहीं होती, क्यों मर्द पुजारी नहीं होते और क्यों इनमे धोक-ज्योत की इंचार्ज औरते हैं; जबकि अन्य चाहे मंदिर देखो, मस्जिद या चर्च; मर्द ही कर्ताधर्ता, उसी का आधिपत्य है? मर्द ही भगवान के विराजमान होने का स्थान निर्धारित करता है जैसे इंसान का बाप भगवान ना हो अपितु इंसान, भगवान का बाप हो?

दादा यही जवाब दिया करते कि हमारे पुरखे इंसान की मंदबुद्धि, लालची प्रवृति व् नस्लीय द्वेष को बहुत गहनता से समझते थे| वह जानते थे कि भगवान/खुदा इंसान के दिमाग की उपज है और इंसानों के एक समूह को उससे लाभ नहीं होगा तो वह दूसरा घड़ लेगा, कल तीसरा, परसों चौथा और यह गिनती अनंत चलती जाएगी उदाहरणार्थ जिसको राम पसंद नहीं आया वह श्याम ले आया, जिसको दोनों ही पसंद नहीं आये वह शिवजी ले आया, जिनको शिवजी पसंद नहीं आया वह विष्णु-ब्रह्मा-हनुमान आदि ले आया| जिनको यह भी नहीं जमे वह विभिन्न प्रकार की माताएं ले आये| और सबके दावे यह कि अजी यह वाला ज्यादा महान, इसकी शक्तियां ज्यादा, यह आपका अपना वंशबेल का आदि-आदि| और इतिहास से वर्तमान तक में शैव-वैष्णव-ब्रह्मी-नाथ-दास आदि-आदि अनंत धड़े बने व् आपस में लड़े भी बहुत, आज भी मनभेद से ले मतभेद हैं इन धड़ों में|

तो पुरखों ने यह रोज-रोज के क्लेश खत्म करने को निर्धारित किया कि एक ऐसा कांसेप्ट लाया जाए जिसके अंदर यह सब समाहित हों; और विचार हुआ कि एक गाम-नगर को बसाना सृष्टि के नवनिर्माण जैसा होता है और इसको बसाने वाले प्रथम पुरुष-महिला साक्षात् भगवान का रूप| अब रोज-रोज ढोंग-पाखंडियों के नए-नए भगवानों-देवताओं-गुरुओं को कौन धोकता फिरेगा इसलिए हर गाम अपने गाम के प्रथम पुरखों समेत आपके वंश-इतिहास (जैसे गाम के प्रथम पुरखे कहाँ से आये थे, किस खानदान-वंश के थे; उन लेनों तक के पुरखे-महापुरुष आदि सब)में हुए तमाम अच्छे-बुरे सब पुरखों को एकमत समाहित कर धोकते चले जाओ, तब कांसेप्ट निकल कर आया "दादा नगर खेड़े" का|

इसीलिए मरने के बाद 13 दिन लोग बैठते हैं मरे हुए इंसान की अच्छाइयाँ ऊपर चर्चा करवा उसको पुरखों-शामिल करवाने को और संकेत देते हैं कि मरने वाला अच्छा था या बुरा था, हमारा अपना था, उसकी बुराइयाँ भुलाई जाएँ व् उसको पुरखों-शामिल माना जाए|

तब बात आई कि इनका कोई आकार रखा जाए? तो पुरखे बोले कि इनको निराकार रखो, ताकि इंसानों में इनके नाम के धड़े ही ना बंटे| इसलिए इनमें कोई आकार यानि मूर्ती ना रखी जाए| और देखो पोता इसीलिए इन खेड़ों में हर भगवान के मंदिर में जाने वाला एक-सहमति से ज्योत लगाने आता है; चाहे वह राम के मंदिर जाता हो, शिव के, कृष्ण के, हनुमान के या किसी अन्य के| यही इस कांसेप्ट की महानता है, कि यह अलग-अलग मंदिर जाने वाले भी "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत के वक्त एकमत रहते हैं क्योंकि इनका आधार बिंदु यह है कि इनमें सब पुरखे समाहित हैं, भले ही "धर्म-आध्यात्म को धंधा बनाने वालों ने इनके अलग-अलग मंदिर बना लिए हों" तो भी वह सब अंत में इनमें आकर एक-शामिल हो जाते हैं|

फिर दादा से पूछा कि मर्द पुजारी क्यों नहीं बैठाये? दादा बोले कि इंसान की नस्लीय द्वेष जैसे कि वर्णवाद की प्रवृति व् औरत के प्रति उसकी मर्दवादी सोच से इनको मुक्त रखने हेतु ऐसा नहीं किया जाता| विरला ही मर्द होता है जो गैर-बीर को मर्जी-बेमर्जी पाप की दृष्टि से ना देखे, उसको भोग्य वस्तु ना देखे| यह खेड़े विलासिता-भोग्यता के अड्डे ना बनें, देवदासी-बांदी टाइप चीजें दिमाग में ही ना आवें; इसलिए इनमें मर्द पुजारी नहीं बैठाये जाते|

तो औरतों को इनमें धोक-ज्योत का मास्टर-चार्ज क्यों है? क्योंकि औरत मर्द से ज्यादा सेंसिटिव, भावुक व् आध्यात्मिक होती है| वह परिवार की आध्यात्मिक सोच व् दिशा को मर्द से जल्दी भांप लेती है| वह अपनी कौम-बिरादरी-समाज पर पड़ने वाली बाह्य मुसीबतों को मर्द से ज्यादा संजीदगी से पकड़ लेती है| और इसी वजह से वह विचिलित भी बहुतायत होती है; क्योंकि यह सब विषमताएं उसको उसके परिवार-कौम-समाज पर खतरे नजर आती हैं| ऐसे में उसको कोई मार्गदर्शक छवि का ध्यान होने का मन होता है और वह इस मामले में अपने वंश-पुरखों से बड़ा स्मरण किसी का नहीं मानती| और उसका यह स्मरण सबसे प्रबल तरीके से उसके पुरखों के सानिध्य में बैठ पूर्ण होता है| इसीलिए वही "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत-धोक की मास्टर-इंचार्ज हैं| मर्द सिर्फ उसको इसकी व्यवस्था करके देते हैं, इसकी सुरक्षा-निरंतरता कायम रखते हैं|


"दादा नगर खेड़ों" में क्यों तो मूर्ती नहीं होती, क्यों मर्द पुजारी नहीं होते और क्यों इनमे धोक-ज्योत की मास्टर-इंचार्ज औरते हैं?:

आज दादा जी का बताया वह जवाब सबसे तर्कशील व्यवहारिक लगा, जिसमें मैं उनसे अक्सर पूछा करता था कि हमारे "दादा नगर खेड़ों" में क्यों तो मूर्ती नहीं होती, क्यों मर्द पुजारी नहीं होते और क्यों इनमे धोक-ज्योत की इंचार्ज औरते हैं; जबकि अन्य चाहे मंदिर देखो, मस्जिद या चर्च; मर्द ही कर्ताधर्ता, उसी का आधिपत्य है? मर्द ही भगवान के विराजमान होने का स्थान निर्धारित करता है जैसे इंसान का बाप भगवान ना हो अपितु इंसान, भगवान का बाप हो?

दादा यही जवाब दिया करते कि हमारे पुरखे इंसान की मंदबुद्धि, लालची प्रवृति व् नस्लीय द्वेष को बहुत गहनता से समझते थे| वह जानते थे कि भगवान/खुदा इंसान के दिमाग की उपज है और इंसानों के एक समूह को उससे लाभ नहीं होगा तो वह दूसरा घड़ लेगा, कल तीसरा, परसों चौथा और यह गिनती अनंत चलती जाएगी| उदाहरणार्थ जिसको राम पसंद नहीं आया वह श्याम ले आया, जिसको दोनों ही पसंद नहीं आये वह शिवजी ले आया, जिनको शिवजी पसंद नहीं आया वह विष्णु-ब्रह्मा-हनुमान आदि ले आया| जिनको यह भी नहीं जमे वह विभिन्न प्रकार की माताएं ले आये| और सबके दावे यह कि अजी यह वाला ज्यादा महान, इसकी शक्तियां ज्यादा, यह आपका अपना वंशबेल का आदि-आदि| और इतिहास से वर्तमान तक में शैव-वैष्णव-ब्रह्मी-नाथ-दास आदि-आदि अनंत धड़े बने व् आपस में लड़े भी बहुत, आज भी मनभेद से ले मतभेद हैं इन धड़ों में|

तो पुरखों ने यह रोज-रोज के क्लेश खत्म करने को निर्धारित किया कि एक ऐसा कांसेप्ट लाया जाए जिसके अंदर यह सब समाहित हों; और विचार हुआ कि एक गाम-नगर को बसाना सृष्टि के नवनिर्माण जैसा होता है और इसको बसाने वाले प्रथम पुरुष-महिला साक्षात् भगवान का रूप| अब रोज-रोज ढोंग-पाखंडियों के नए-नए भगवानों-देवताओं-गुरुओं को कौन धोकता फिरेगा इसलिए हर गाम अपने गाम के प्रथम पुरखों समेत आपके वंश-इतिहास (जैसे गाम के प्रथम पुरखे कहाँ से आये थे, किस खानदान-वंश के थे; उन लेनों तक के पुरखे-महापुरुष आदि सब)में हुए तमाम अच्छे-बुरे सब पुरखों को एकमत समाहित कर धोकते चले जाओ, तब कांसेप्ट निकल कर आया "दादा नगर खेड़े" का|

इसीलिए मरने के बाद 13 दिन लोग बैठते हैं मरे हुए इंसान की अच्छाइयाँ ऊपर चर्चा करवा उसको पुरखों-शामिल करवाने को और संकेत देते हैं कि मरने वाला अच्छा था या बुरा था, हमारा अपना था, उसकी बुराइयाँ भुलाई जाएँ व् उसको पुरखों-शामिल माना जाए|

तब बात आई कि इनका कोई आकार रखा जाए? तो पुरखे बोले कि इनको निराकार रखो, ताकि इंसानों में इनके नाम के धड़े ही ना बंटे| इसलिए इनमें कोई आकार यानि मूर्ती ना रखी जाए| और देखो पोता इसीलिए इन खेड़ों में हर भगवान के मंदिर में जाने वाला एक-सहमति से ज्योत लगाने आता है; चाहे वह राम के मंदिर जाता हो, शिव के, कृष्ण के, हनुमान के या किसी अन्य के| यही इस कांसेप्ट की महानता है, कि यह अलग-अलग मंदिर जाने वाले भी "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत के वक्त एकमत रहते हैं क्योंकि इनका आधार बिंदु यह है कि इनमें सब पुरखे समाहित हैं, भले ही "धर्म-आध्यात्म को धंधा बनाने वालों ने इनके अलग-अलग मंदिर बना लिए हों" तो भी वह सब अंत में इनमें आकर एक-शामिल हो जाते हैं |

फिर दादा से पूछा कि मर्द पुजारी क्यों नहीं बैठाये? दादा बोले कि इंसान की नस्लीय द्वेष जैसे कि वर्णवाद की प्रवृति व् औरत के प्रति उसकी मर्दवादी सोच से इनको मुक्त रखने हेतु ऐसा नहीं किया जाता| विरला ही मर्द होता है जो गैर-बीर को मर्जी-बेमर्जी पाप की दृष्टि से ना देखे, उसको भोग्य वस्तु ना देखे| यह खेड़े विलासिता-भोग्यता के अड्डे ना बनें, देवदासी-बांदी टाइप चीजें दिमाग में ही ना आवें; इसलिए इनमें मर्द पुजारी नहीं बैठाये जाते|

तो औरतों को इनमें धोक-ज्योत का मास्टर-चार्ज क्यों है? क्योंकि औरत मर्द से ज्यादा सेंसिटिव, भावुक व् आध्यात्मिक होती है| वह परिवार की आध्यात्मिक सोच व् दिशा को मर्द से जल्दी भांप लेती है| वह अपनी कौम-बिरादरी-समाज पर पड़ने वाली बाह्य मुसीबतों को मर्द से ज्यादा संजीदगी से पकड़ लेती है| और इसी वजह से वह विचिलित भी बहुतायत होती है; क्योंकि यह सब विषमताएं उसको उसके परिवार-कौम-समाज पर खतरे नजर आती हैं| ऐसे में उसको कोई मार्गदर्शक छवि का ध्यान होने का मन होता है और वह इस मामले में अपने वंश-पुरखों से बड़ा स्मरण किसी का नहीं मानती| और उसका यह स्मरण सबसे प्रबल तरीके से उसके पुरखों के सानिध्य में बैठ पूर्ण होता है| इसीलिए वही "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत-धोक की मास्टर-इंचार्ज हैं| मर्द सिर्फ उसको इसकी व्यवस्था करके देते हैं, इसकी सुरक्षा-निरंतरता कायम रखते हैं|

और पोता यही "मूर्ती-पूजा" नहीं करने का कांसेप्ट आर्य-समाज में लिया गया है; यही तो वजह है सबसे बड़ी कि क्यों हरयाण की उदारवादी जमींदारी व् सहयोगी जातियों में आर्य-समाज इतने कम समय में इतने व्यापक स्तर पर स्वीकार्य हुआ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 7 November 2019

पानीपत फिल्म का ट्रेलर!

"पानीपत की तीसरी लड़ाई" एक ऐसा ऐतिहासिक पहलु जिसके साथ कई ऐतिहासिक किस्से जुड़े हैं जो इस फिल्म में शायद ही देखने सुनने को मिलें:

1) भाऊ से उपजा शब्द हाऊ: आज भी ग्रेटर हरयाणा की औरतें बच्चों को बोलती हैं कि सो जाओ, वरना हाऊ आ ज्यांगे या गैर-बख़्त बाहर मत जाओ हाऊ खा लेंगे| यह सम्बोधन हरयाणा की औरतों ने निकाल दिया था, भाऊओं को बच्चों को डराने वाले हाऊ बना के; क्योंकि यह इतने ही क्रूर-निर्दयी बताये जाते थे कि इनसे अब्दाली डरा या नहीं पंरतु हरयाणा में औरतें बच्चों को आज भी डराने-धमकाने के लिए इस शब्द का प्रयोग करती हैं| किसी का भी चरित्र-हनन करने व् नेगेटिव मार्केटिंग का खुद को उस्ताद समझने वाला मीडिया जान ले कि जिस दिन हरयाणवी लुगाईयों के हत्थे चढ़ गए ना थारी सारी उल्टी-सीधी मार्केटिंग धो के धर देंगी| और तुम कब भाऊ से हाऊ बना दिए पता भी ना लगेगा|

2) बिन जाट्टां किसनै पानीपत जीते - काफी मशहूर कहावत है डिटेल्स जानते ही होंगे, इसका ओरिजिन इसी लड़ाई से हुआ था|

3) जाट दर पे आये के घर बसा दे, जख्म सुखा दे - अहम् में भरे पेशवे, जाटों के सहयोग का अपमान करते हुए जब अकेले पानीपत लड़ने चढ़े और अब्दाली ने हराये तो रण के थके-हारे-घायल पेशवाओं को अब्दाली के डर से कोई राजा-समाज शरण नहीं दे रहा था, तब महाराजा सूरजमल के आदेश पर जाटों ने इनकी मरहम पट्टियाँ कर जाट सेना की सुरक्षा में वापिस महाराष्ट्र छुड़वाए थे| तब जाकर ब्राह्मण पेशवाओं को जाटों का जिगरा और दरियादिली समझ आई थी| और पेशवाओं को महाराष्ट्र छोड़ने गई जाट सेना के सैनिकों संग अपनी बेटियाँ ब्याह उनको वापिस नहीं आने दिया अपितु वहीँ बसा लिया| नासिक के पास बसते हैं जाट, करीब 40 गाँव में, इनकी वहां की खाप को "खाप बाईसी" बोला जाता है| जाट कहीं भी जाए खाप साथ जरूर ले जाता है|

4) जाट को सताया तो ब्राह्मण भी पछताया - तीसरा पॉइंट में जो अपमान कर जाट का दिल दुखाया तो पानीपत की हार के बाद ब्राह्मण पेशवा बहुत पछताए थे|

यही वह लड़ाई है जिसके चलते फिर पेशवाओं-मराठों ने "जय हरयाणा" उछाला तो जाटों ने बदले में "जय महाराष्ट्र" उछाला| एलओसी जैसी फिल्म में यह पंच सुना ही होगा|

परन्तु जब इस फिल्म का ट्रेलर देखा तो काफी नीरस तो लगा ही वरन इन बिंदुओं को छुआ ही नहीं गया है| लगता है कि शायद फिल्म में भी ना छुए होंगे| संशय है कि कहीं फिल्म में इनके विपरीत या इनकी आदतानुसार कुछ ना कुछ निम्न करके ही दिखाया हुआ ना आये| खैर चलो देखते हैं फिल्म आने पर|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

हरयाणा विधानसभा चुनाव नतीजे, सर्वखाप व् आर्यसमाज के फ्यूचर कोर्सस!

जनादेश का संकेत साफ़ है कि हिन्दोस्तां में कहीं भी अधिनायकवाद चल सकता होगा परन्तु हरयाणा में नहीं चल सकता| यहाँ उदारवादी जमींदारी की सर्वखाप की "खापोलॉजी" व् "दादानगर खेड़ों" और आर्य समाज की "मूर्तिपूजा व् फंड-पाखंड से रहित" थ्योरियों पर अपने इनके दादाओं की पीढ़ी के वक्त तक कन्फर्म तौर पर कायम रहे पुरखे, बाप वाली पीढ़ी के वक्त कन्फ्यूज्ड हुए (टीवी के जरिये दिमाग में माइथोलॉजी फ़िल्में व् सीरियल्स के जरिये) समूहों की आज की पीढ़ी ने अपने दादाओं वाली चेतना में आते हुए वोट के जनादेश से हरयाणवी स्टाइल में सत्ता वालों को "पैंडा छोड़ो" कह दी है|

लेकिन इसके बावजूद इन्होने जेजेपी व् निर्दलीयों के समर्थन से सरकार बना ली है तो ऐसे में इस फ़िलहाल हुई वोटिंग के जरिये आये इस "पैंडा छोड़" संदेश के मतन को कायम व् और दुरुस्त रखने हेतु क्या कदम इन तबकों को उठाने होंगे? जैसे कि:

1) सर्वधर्म सर्वजातीय सर्वखाप द्वारा "खापलीला थिएटर ग्रुप" गठित कर, खापों के इतिहास को प्रचारित करने हेतु खाप-प्रचार मंडलियां बना "खापरात्रे" आयोजित करने का वक्त है|
2) आर्यसमाज संस्थाओं में घुस आई माइथोलॉजी व् ढोंग-फंड-पाखंड व् इनको घुसाने को घुसे हुए फंडियों को इन संस्थाओं से बाहर करने का वक्त है|
3) अपने समाज से बाहर से ना दान लेंगे और 100% फाइनेंसियल ट्रांसपेरेंसी के सर्वसमाज के हित के कार्यक्रमों के अलावा किसी को कहीं भी फूटी कोड़ी नहीं देंगे के विचार फ़ैलाने होंगे| और उनको तो कन्फर्म नहीं देंगे जो समाज को दान देने के नाम पर एक धेला नहीं देते जबकि लेने के नाम पर 90-99% खुद डकार जाते हैं| स्याने लोग कह कर गए हैं कि कोई दुश्मन बनाना हो तो फ्री का दे के बना लो; यह वही फ्री वाले दुश्मन बनाते हो ऐसे लोगों को दान देकर जिनकी ना समाज के प्रति कोई जवाबदेही है और ना दान के हिसाबकिताब की| और फिर ऐसे ही दानों से फरवरी 2016 जैसे जाट बनाम नॉन-जाट दंगे फाइनेंस होते हैं; जिसको इसका संज्ञान ना हो अच्छे से यह बात संज्ञान में ले लेवे|

अब प्रथम दो बिंदुओं पर थोड़ा विस्तार से:

"खापलीला थिएटर ग्रुप" क्या करे: सर्वखाप के वह गैर-राजनैतिक लोग, जो इस ग्रुप की संवेदना व् उद्देश्य के प्रति कटिबद्द हों, इस समूह में होवें| दिवाली-दशहरे के वक्त यह प्रचार 10-15 दिन का होवे| और खापलैंड के गाम-खेड़ों-शहरों में हर रोज खाप के इतिहास के एक अध्याय पर तारीखों के कर्म में थिएटर परफॉरमेंस होवें; कुछ-एक थिएटर प्ले इस तरह हो सकते हैं:
1. 1 - थिएटर प्ले नंबर एक: सर्वखाप द्वारा महाराजा हर्षवर्धन बैंस की बहन को दुश्मन की कैद से छुड़वाना व् उस राज में खापों को सवैंधानिक संस्थाओं का दर्जा मिलना| छटी सदी का अध्याय|
1.2 - थिएटर प्ले नंबर दो: सर्वखाप द्वारा पुष्यमित्र सुंग की बौद्ध जाटों को मारने आई 1 लाख की आर्मी को मात्र 9000 जाट यौद्धेयों द्वारा 1500 शहीदी देते हुए पछाड़ना व् "मार दिया मठ", "कर दिया मठ", "हो गया मठ" जैसी कहावतों की गिनती में इजाफे को वहीँ विराम लगाना| - इसका संदर्भ सर के. सी. यादव की पुस्तक "हरयाणा का इतिहास" में विस्तार से दिया गया है|
1.3 - थिएटर प्ले नंबर तीन: सर्वखाप द्वारा महमूद गजनी को लूटना| ग्यारहवीं सदी का अध्याय|
1.4 - थिएटर प्ले नंबर चार: सर्वखाप द्वारा पृथ्वीराज चौहान के कातिल मोहमद गौरी को मारना| बारहवीं सदी का अध्याय|
1.5 - थिएटर प्ले नंबर पांच: सर्वखाप आर्मी की गौरी के दिल्ली में रिप्रेजेन्टेटिव कुत्तबुद्दीन ऐबक से चौधरी जाटवान जी गठवाला के नेतृत्व में हांसी-हिसार के देपल के मैदानों में हुई भिंड़त और कैसे जीत कर भी ऐबक रोया| बारहवीं सदी का अध्याय|
1.6 - थियटर प्ले छह: जिंद की दादिरानी भागीरथी द्वारा चुगताई वंश के चार सेनापतियों समेत उनकी सेना को गोहाना से बरवाला तक दौड़ा-दौड़ा मारना|
1.7 - थियटर प्ले सात: सर्वखाप द्वारा राजा चौधरी देवपाल राणा जी के नेतृव्त में सेनापति दादा चौधरी हरवीर सिंह गुलिया बादली वाले द्वारा तैमूरलंग की टांग तोडने व् हिन्दोस्तां से भगाने का सन 1398 का किस्सा|
1.8 - थिएटर प्ले आठ: सर्वखाप द्वारा बाबर के खिलाफ राणा सांगा की मदद करने का किस्सा|
1.9 - थिएटर प्ले नौ: दादिरानी समाकौर के अपमान व् आक्रोश पर सर्वखाप द्वारा कलानौर रियासत को तोड़ डालना| सन 1620 का अध्याय|
1.10 - थिएटर प्ले दस: सर्वखाप द्वारा गॉड गोकुला के नेतृत्व में औरंगजेब के विरुद्ध हुई किसान विद्रोह की क्रांति| सन 1669 का अध्याय|
1.11 - थिएटर प्ले ग्यारह: 1761 में ब्राह्मण पेशवा सदाशिवराव द्वारा सर्वखाप को पत्र लिख पानीपत की तीसरी लड़ाई में मदद माँगना| देखना अभी जो पानीपत मूवी आ रही है उसमें इस किस्से का जिक्र तक भी आएगा या नहीं; यह जिक्र नहीं कर रहे इसीलिए तो खुद करने होंगे|
1.12 - थिएटर प्ले बारह: सर्वखाप द्वारा 1857 में हुई विशाल किसान क्रांति का नेतृत्व, जिसको प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का नाम दे दिया गया| इसमें दिखाया गया हो कि कैसे अंग्रेजों ने सर्वखाप के दो टुकड़े कर इसको 'यमुना आर' व् 'यमुना पार' में विभाजित कर दिया था|
1.13 - थिएटर प्ले तेरह: सर्वखाप द्वारा वक्त-वक्त पर की महापंचायतों के नियम-कायदों की पंचायत के विस्तार समेत फेहरिस्तों के अध्याय|
1.14 - थिएटर प्ले चौदह: सर्वखाप द्वारा वक्त-वक्त पर किये वह सामाजिक न्याय के अध्याय जिनकी वजह से गाम के गाम उजड़ने से बसे, भाईचारे बिछड़ने से बचे|
1.15 - थिएटर प्ले पंद्रह: सर्वखाप की अन्य नामीगिरामी हस्तियों, यौद्धेयों, मुख्यालयों, खाप-सरंचना व् इन द्वारा बनाये गए चौपाल-परस-एजुकेशन संस्थान व् गुरुकुलों की स्थापना के किस्से व् जानकारी इसमें हो|
जानता हूँ कि यह सब एक स्वपन जैसा है, खाप के अन्य तो क्या शायद खुद खाप वाले व् खाप मानने वाले ही इस पर यकीन ना कर पाएं| परन्तु इस बारे प्रचुर जागरूकता भी फैला दी जाए तो इन थिएटर प्लेज का होना मुश्किल या नामुमकिन भी नहीं| अभी फ़िलहाल तो लोगों में इन थिएटर प्लेज की जरूरत बारे प्रचार ही जोरो-शोरों से हो जायेगा तो करिश्मा हो जायेगा|

अब चलते-चलते आर्यसमाज के संभावित फ्यूचर कोर्स पर:

करतारपुर साहिब का खुलना आर्यसमाज को बहुत बड़ा संदेश देता है| संदेश देता है कि किन वजहों-मंशाओं से आर्यसमाज बना, वह सब चर्चित होता रहेगा, इसमें आई या शुरू दिन से रही या जानबूझकर डाली गई कुरीति व् बुराईयों को दूर कर लिया जायेगा पंरतु सबसे पहले इसको फंडी के ढोंग-पाखंड से मुक्त कर पुनः बहाल करवाया जाए| ताकि एक ऐसा प्लेटफार्म आर्यसमाजियों के हाथ में जरूर रहे जिसमें उनके पुरखों के खून पसीने से बनी इमारतें-जमीनें-संस्थाएं हैं, वह निरंतर इनके ही नियंत्रण में रहें| इन्हीं इमारतों-जमीनों पर कब्जा करने को फंडियों की निगाह गड़ी हुई है|

मूर्ती-पूजा नहीं करने का कांसेप्ट जो कि मूर्ती-रहित दादा नगर खेड़ों के आध्यात्म से उठाकर बिना इन खेड़ों को इसका क्रेडिट दिए आर्यसमाज में डाला गया था यह हर किसी को स्पष्ट किया जाए| सिखिज्म जैसे अपने पुरखों को ही अपना भगवान् मानता है ऐसे ही आर्य समाज भी अपने पुरखों को ही अपना भगवान मानता है; और इस आस्था की जड़ें जाती हैं पुरखों के स्थापित किये दादा नगर खेड़ों में, उदारवादी जमींदारी की थ्योरियों में| सिखिज्म जैसे माइथोलॉजी से दूर रहा है ऐसे ही आर्यसमाज भी माइथोलॉजी से दूर वैज्ञानिक तर्कों पर खड़ा है|
इनको खड़ा कर लीजिये, दुरुस्त कर लीजिये वरना आने वाली पीढ़ियाँ धिक्कारेंगी|

जिनको कीचड़ में खिलने वाले फूल चाहियें उनको कहिये कि अपने घरों-समाजों-वर्णों में भाई से भाई, वर्ण से वर्ण, जाति से जाति, इस बनाम उस आदि वाली द्वेष-नफरत-ईर्ष्या आदि वाला फैला के कीचड़ जितने चाहें उतने ऐसे फूल उगा लें; परन्तु हमसे यह उम्मीद ना रखें कि उनके ऐसे फूलों के लिए अपने घर-समाज-सम्प्रदायों में कीचड़ फैलाएंगे या फैलने देंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

सिर्फ दिल्ली ही क्यों पूरे प्राचीन विशाल हरयाणा-पंजाब के प्रदूषण की बात होनी चाहिए!

इससे पहले दिल्ली पॉल्यूशन का इलाज यह हो कि इसके पॉपुलेशन बोझ को कम करने हेतु इसको हरयाणा-वेस्ट यूपी के अन्य जिलों में फैलवाया जाए; स्थानीय हरयाणवी-पंजाबी आवाज उठानी शुरू कर लें कि "पूरा देश यही ला के बसाओगे क्या? यह फैक्टरीज-डेवलपमेंट उन राज्यों-जिलों में भी ले जाओ जहाँ इनकी सबसे ज्यादा जरूरत है और जहाँ लोगों को रोजगार नहीं|" माना एक देश एक कानून के तहत कोई कहीं भी रह कर रोजगार कर सकता है, बस सकता है; परन्तु कहीं तो कोई लिमिट होगी जो पूरे देश की निर्भरता पंजाब-हरयाणा-एनसीआर पर ही लादे जा रहे हो?

पता नहीं किस सनक व् संवेदनहीनता से भरे लोग हैं इस देश की सत्ता को चलाने वाले कि चाहे यह पूरा क्षेत्र प्रदूषण का डस्टबिन बन जाए परन्तु यह इसकी वजह से स्थानीय लोगों पर पड़ने वाली ना सिर्फ वायु प्रदूषण की मार वरन अन्य 70 तरह के प्रदूषण और जैसे कि कल्चरल प्रदूषण, हेल्थ-प्रदूषण, मानसिक तनाव, धरती-दोहन, जल-प्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण, स्थानीय युवाओं की नौकरियाँ जाना या मिलना ही नहीं आदि-आदि जो यहाँ लोग झेल रहे हैं; वह ना इनको दीखता और ना उसकी चिंता|

हरयाणा के एक-एक गाम-मोहल्ले-शहर में दर्जनों-सैंकड़ों-हजारों कैंसर से ले पता नहीं कौनसी-कौनसी गंभीर बिमारियों के बचपन से शिकार हो गए हैं, इसकी तरफ कौन ध्यान देगा? और स्थानीय लोगों को तो इनमें नौकरियाँ भी नहीं मिल रही तो क्या यह तथाकथित फैक्टरीज आदि हमारी छाती पर हमारे फेफड़े-गुर्दे-किडनी आदि खराब करने मात्र को आन धरी हैं बस?

ऊपर से हरयाणवी ऐसे, हरयाणा ऐसा, इनकी बोली लठमार, इनका व्यवहार तालिबानी आदि के तान्ने झेल-झेल मानसिक तनाव बढ़ावें हरयाणवियों का वह अलग से| ना कोई श्यान ना गुण|

अत: तमाम हरयाणवी व् पंजाबी सावधान हो जावें, यह दिल्ली का प्रदूषण का शोर यूँ ही नहीं है, इसके जरिये दिल्ली से निकाल आपके शहरो-गामों की ओर इस बोझ को टालने की तैयारी भी है| इससे पहले यह सब होवे, हर जिला-तहसील आदि में ज्ञापन-पे-ज्ञापन भर दो कि हमारे ऊपर से यह तमाम तरह के तनाव कम करने हेतु; नई फैक्ट्रियों को उन जिलों-राज्यों में ले जाया जाए जहाँ इनकी वाकई जरूरत है| जानता हूँ कि इन ज्ञापनों से भी इनके कानों पर शायद ही जूँ रेंगें परन्तु जब मामले कोर्टों में पहुंचेंगे तो यह ज्ञापन की कॉपीज ही काम आएँगी|

नोट: हरयाणा एनसीआर में दूसरे राज्यों से बसने वाले मित्र माफ़ करें; परन्तु मुझे विश्वास है कि इस जानलेवा प्रदूषण में रह के नौकरी करके तो आप भी ज्यादा से खुश नहीं ही होंगे| आपके पास तो इस से ब्रेक पा लेने को आपके गृहराज्य घूम आने का ऑप्शन है परन्तु आम हरयाणवी-पंजाबी क्या करे जिसके पास यह ऑप्शन भी नहीं| या फिर आप ही ऐसे उपाय बताएं, जिम्मेदारी लेने को आगे आवें जिससे यह तमाम प्रकार के प्रदूषण कम किये जा सकें|   

जय यौद्धेय! - फूल कुमार

Thursday, 31 October 2019

प्यौध!

साह ही सैय्याद थे, अन्यथा पैदा तो वो आबाद थे,
शाहों की शाहकारी, बिखेर गई प्यौध की क्यारी!

वहाँ प्यौध ही ना जमने दी गई बेचारी,
वरना फसल होनी थी भर-भर क्यारी;

सैय्याद का ही हिया ना जमा,
प्यौध को ही इधर-उधर घुमाये फिरा!

जमा देता वो प्यौध जो एक ठिकाने,
फसल ने भर देने थे, चौक-चौखाने!

प्यौध से तो अस्तित्व की ही लड़ाई ना सम्भली,
फसल कब बनी कब खिली, ना जान सकी कमली!

वो हाथ अनाड़ी ना कीज्यो हे बेमाता,
कि उगावनियो ही रहा, जगह-जगह जमा के आजमाता!

इधर जमे तो उखाड़ के उधर जमाने लग जाई,
क्यारी-क्यारी ऐसी घुमाई, कि फसल कब-क्या बनी समझ ना आई!

बंदर की बंदूक बनी, अनकहे भी टेक गए लाखों श्यान,
फुल्ले भगत, जगत का पानी, बहता जा लिखे की ताण!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 22 October 2019

और कितना चूँट-चूँट खाओगे जाट को ओ भाँडो; बस लेने दो? रै जाट तू क्यों इतना नरम है मानवता व् सामाजिकता के आगे?

Please see the attached screenshot to understand the context of this post!

1947 में पाकिस्तान से लूटी-पिटी हिन्दू कम्युनिटीज आई, जाट ने सबसे ज्यादा अपनी दरियादिली व् पुरुषार्थ से अपनी छाती पर बसाई, इतनी बसाई कि न्यूनतम समय में यह कम्युनिटीज बहाल हो गई| 1984 में पंजाब में आतंकवाद हुआ तो 1986 से 1992 तक कुछ कम्युनिटी विशेष हिन्दू (5%), का पंजाबी सिखों ने मार-मार भूत उतारा व् वहां से भगाया, वह भी  जाट ने सबसे ज्यादा अपनी छाती पर बसाया| 1990 के आसपास बाल ठाकरे ने मुंबई-महाराष्ट्र में उत्तर-पूर्व भारतीय के नाम पर बिहारी-बंगालियों को पीटना शुरू किया, साथ में मोदी-शाह के गुजरातियों ने यही गुजरात में किया तो उनको भी यही जाट-बाहुल्य धरती ने अपनाया| 1993 में कश्मीरी पंडित जब भागे तो उनको देख लो सबसे ज्यादा कहाँ शरण मिली हुई है, इसी जाट बाहुल्य धरा पर| सभी को ऐसा अपनाया कि आज तक धर्म-भाषा-क्षेत्रवाद की ऐसी कोई बड़ी चिंगारी नहीं भड़की, जैसे 1947, 1984, 1990, 1993 में भड़की|

तो मीडिया वालो मत डंडा दो, जाट है यह; "जितना बढ़िया फसल बोना जानता है, उससे अच्छे से काटना जानता है"| यूँ ही नहीं कहा जाता कि 'जाट को सताया को ब्राह्मण भी पछताया"| सन 1761 में पुणे के ब्राह्मण पेशवाओं ने पानीपत की तीसरी लड़ाई के वक्त जाट महाराजा सूरजमल का अपमान किया था, यह तंज मारते हुए कि, "दोशालो पाटो भलो, साबूत भलो ना टाट; राजा भयो तो का भयो रह्यो जाट-को-जाट| ऐसी हाय लगी थी पेशवाओं को उस जाट को सताये की कि 1761 की पानीपत की तीसरी लड़ाई के मैदान में दिन-धौळी हार गए थे| और फिर उन अब्दाली से लूटे-पिटे-छिते पेशवाओं को इसी जाट के यहाँ मरहम-पट्टियाँ मिली थी| तो कोई ना जाट तो ऐसा ही नरम है उसके तो अपमान के बदले भी कुदरत अपने ढंग से ले लिया करे| तुम्हें किस बळ सेधेगी इसका पानीपत की तीसरी लड़ाई वाले सदाशिवराव भाऊ की भाँति तब पता चलेगा जब वह हार चुका था और हरयाणे की लुगाईयों ने भाऊ की जगह 'हाऊ' कहना शुरू कर दिया था| और हाऊ बोल के बच्चों को डराबा बालकों को सुलाने का प्रतीक बना दिया था| तुम क्यों बदनाम करो, यह बदनामी करना जाट और उसकी जाटनी तुमसे बेहतर जानती हैं| जब आएंगे इस नेगेटिव मार्केटिंग पर तुम्हारी तो तुम भाऊ से हाऊ बना दिए जाओगे|

या फिर सिर्फ जाट का ही क्यों, बाकी सबका भी बता दो कि किस जात-बिरादरी ने किसको वोट दिया?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Thursday, 17 October 2019

इंडिया में जो बढ़ रहा है या युगों से रहा है इसको पूंजीवाद नहीं कहते, इसको वर्णवाद की लक्ज़री कहते हैं!

वही वर्णवाद जिसके बारे ग्रंथों के हवाले से सुनते हैं कि उच्च वर्ण कोई अपराध भी कर दे तो वह दंड का भागी नहीं| तभी तो जितने भी उच्च वर्ण वाले करोड़ों-अरबों के घोटाले कर देश छोड़ जो चले गए जैसे कि माल्या-मोदी-चौकसी आदि-आदि एक की भी धर-पकड़ नहीं की गई आज तक| जितने भी कॉर्पोरेट वालों ने कर्जे लिए एक से भी उगाही नहीं; बल्कि सुनते हैं कि लाखों-करोड़ों के एनपीए और माफ़ कर दिए इनके; क्या यह स्टेट-सिस्टम के मामा के लड़के हैं या बुआ के? यह इसलिए हुआ है क्योंकि इनमें 99% तथाकथित उच्च वर्ण के हैं|

पूंजीवाद तो अमेरिका-यूरोप में भी है, परन्तु ऐसी खुली छूट थोड़े ही कि आप बैंक से ले कस्टमर तक से फ्रॉड करो और आपको सिस्टम-स्टेट कुछ ना कहे? यहाँ फेसबुक वाले जुकरबर्ग की कंपनी के हाथों कस्टमर का डाटा लीक हो जाता है तो तुरताफुर्ति में ट्रिब्यूनल्स हाजिर कर लेते हैं जुकरबर्ग को; वह भी सीधी एक-दो तारीख में ही एक-दो महीने में ही फैसला सुना दिया जाता है; कोई तारीख-पे-तारीख नहीं चलती| मामला जितना पब्लिक सेन्सिटिवटी का उतना ताबतोड़ सुनवाई और फैसला|

सच्ची नियत व् नियमों से पूँजी बना पूंजीवादी कहलाना कोई अपराध नहीं, जैसे बिलगेट्स-जुकरबर्ग आदि| परन्तु आपराधिक-फ्रॉड तरीकों से पूँजी बना के हड़प कर जाना और सिस्टम-स्टेट का उनको धरपक़डने की बजाये हाथों-पर-हाथ धरे रहना; यह पूंजीवाद नहीं अपितु वर्णवाद की लक्सरी है| ध्यान रखियेगा यह आपको इसको पूंजीवाद बता के परोसते हैं परन्तु यह है वर्णवाद की लक्सरी|

और यह वर्णवाद की लक्सरी, दुनिया में जाने जाने वाले तमाम तरह के भ्र्ष्टाचारों की नानी है|

अत: यह जो कहते हैं ना कि जातिवाद को खत्म करो; इनको बोलो कि पहले वर्णवाद को खत्म करो| करवाओ खत्म इससे पहले कि यह तुम्हारी नशों में नियत-नियम बन के उतर जाए या उतार दिया जाए और तुम इसको ही एथिक्स समझने लग जाओ| साइंस उलटी प्रयोग हो तो विनाश लाती है और सोशियोलॉजी उलटी प्रयोग हो तो नश्लें व् एथिक्स सब तबाह कर देती है| यह वर्णवाद यही है जो आपकी-हमारी नश्लें व् एथिक्स ही नहीं अपितु विश्व पट्टल पर देश की छवि तक को तबाह कर रहा है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

बेबे हे ले-ले फेरे, यू मरग्या तो और भतेरे!

एक दोस्त बोला कि तुम्हारे हरयाणवी कल्चर में पति की लम्बी उम्र का कोई त्यौहार नहीं है क्या?

पहले इस लेख के टाइटल की व्याख्या कर दूँ| शुद्ध उदारवादी जमींदारी के हरयाणवी कल्चर में जब शादी होती है तो दुल्हन को पति की मौत या लम्बी उम्र के भय से यह कहते हुए बेफिक्र कर दिया जाता है कि चिंता करने की जरूरत नहीं, बेफिक्र फेरे ले, यह मर भी गया तो और भतेरे|

इस कल्चर में कहावत है कि, "रांड कौन, रांड वो जिसके मर जाएँ भाई"| इस कल्चर में पति मरे पे औरत राँड यानि विधवा नहीं मानी जाती| उसको विधवा-विवाह के तहत पुनर्विवाह का ऑप्शन रहता है अन्यथा नहीं करना चाहे तो भी विधवा-आश्रमों में नहीं फेंकी जाती; अपने दिवंगत पति की प्रॉपर्टी पर शान से बसती है| और इसमें उसके भाई उसकी मदद करते हैं| इसीलिए कहा गया कि, "रांड वह जिसके मर जाएँ भाई, खसम तो और भी कर ले; पर भाई कहाँ से लाये?"

ऊपर बताई व्याख्या से भाई को समझ आ गया होगा कि क्यों नहीं होता; हरयाणवी कल्चर में पति की लम्बी उम्र का कोई त्यौहार? फिर भी और ज्यादा जानकारी चाहिए तो नीचे पढ़ते चलिए|

जनाब यह बड़ा बेबाक, स्पष्ट व् जेंडर सेंसिटिव कल्चर (वह सेंसिटिविटी जो एंटी-हरयाणवी मीडिया ने कभी दिखाई नहीं और एडवांस्ड हरयाणवी ने फैलाई नहीं; फैलाये तो जब जब समझने तक की नौबत उठाई हो) है| इसमें शादी के वक्त फेरे लेते वक्त ही लड़की को इन पति की मौत और उसकी लम्बी उम्र के इमोशनल पहलुओं से यह गीत गा-गा भयमुक्त कर दिया जाता है कि "बेबे हे लेले फेरे, यु मरग्या तै और भतेरे"| फंडा बड़ा रेयर और फेयर है कि घना मुँह लाण की जरूरत ना सै| वो मर्द सै तो तू भी लुगाई सै|

मस्ताया और हड़खायापन देखो आज की इन घणखरी हरयाणवी औरतों का कि जिसने "बेबे हे लेले फेरे, यु मरग्या तै और भतेरे" वाले लोकगीत सुनती हुईयों ने फेरे लिए थे, वह भी पति की लम्बी उम्र के व्रत रख रही हैं| यही होता है जब अपनी जड़ों से कट जाते हो तो| जड़ों से तुम कट चुके, शहरों में आइसोलेट हुए बैठे और फिर पूछते हो दोष किधर है? 35 बनाम 1 के टारगेट पर हम ही क्यों हैं?

मैं यह भी नहीं कहता कि जिन कल्चर्स में पति की उम्र के व्रत रखे जाते हैं वह गंदे हैं या गलत हैं| ना-ना उनके अपने वाजिब तर्क व् नियम हैं| इसलिए मैं उनको इस त्यौहार पर बधाई भी दिया करता हूँ| उनका आदर करूँगा तभी तो मेरा आदर होगा| परन्तु तुम क्या कर रही हो? ना अपने का आदर करवा पा रही हो ना उसका स्थान बना पा रही? वजह बताऊँ? 'काका कहें काकड़ी कोई ना दिया करता"| खुद का मान-सम्मान चाहिए तो उन बातों पे आओ जिनपे चलके तुम्हारे पुरखे देवता कहला गए|

अरे एक ऐसा कल्चर जो फेरों के वक्त ही औरत को आस्वश्त कर देता है कि इसके मरने की चिंता ना करिये, यु मर गया तो और भतेरे; वह इन मर्द की मीमांसाओं व् मर्दवादी सोच को बढ़ावा देने वाले सिस्टम में चली हुई हैं? रोना तो यह है कि फिर यही पूछेंगी कि समाज में इतना मर्दवाद क्यों है?

हिम्मत है तो अपने दो त्यौहार औरों से मनवा के दिखा दो और वह तुमसे हर दूसरे त्यौहार मनवा रहे हैं| बिना पते की चिठ्ठियों कित जा के पड़ोगी; उड़ ली हो भतेरी तो आ जाओ अपने कल्चर के ठोर-ठिकाने|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

Saturday, 31 August 2019

कहाँ था हरयाणवी कल्चर और कहाँ जा रहा है, जरा एक झलक देखिये!

जेंडर सेंसिटिविटी, जेंडर इक्वलिटी, औरत के सम्मान व् फेमिनिज्म तक की बातें करने वाले तो ख़ासा ध्यान देना!

"हो बाबा जी तेरी श्यान पै 'बेमाता' चाळा करगी,
कलम तोड़गी लिख दी पूँजी रात-दिवाळा करगी!"


बचपन से यह रागनी सुनके बड़ा हुआ हूँ, जिसको जब भी सुनता था तो हरयाणवी कल्चर में फीमेल का क्या ओहदा है स्वत: ही समझ आती थी| वह 'बेमाता' शब्द के जरिये इंसान को घड़ने वाली कही जाती थी, वह एक औरत बताई गई| परन्तु अब बदल रहा है कुछ, कैसे:

"बटुआ सा मुंह लेरी, पतली कमर,
आम जी नैं छोड़ी कोन्या किते रै कसर"

'आम', की जगह असल में क्या है इस गाने को सुनने वाले समझ ही गए होंगे| मैं इस जगह जो असल है उसका एक मैथोलॉजिकल अवतार के तौर पर बहुत सम्मान करता हूँ और यह दुर्भाग्य ही है कि इस मुद्दे पर ध्यान दिलवाने हेतु इस बात को इस तरीके से रख रहा हूँ| क्योंकि सीधा नाम ले के इनसे जुडी लोगों की भावना नहीं दुखाना चाहता परन्तु बात रखनी भी जरूरी थी तो राखी|

आदरणीय लेखकों और गायकों; अगर आप वाकई हरयाणवी कल्चर के पैरोकार हैं तो क्या बेमाता का ओहदा 'आम' को शिफ्ट करना, एक कल्चर में औरत के सम्मान का जो ओहदा है वह मर्द पर शिफ्ट कर देना नहीं है?
एक तो नेशनल से ले स्टेट मीडिया तक वैसे ही हरयाणवी कल्चर को घोर मर्दवादी बताने पर दिन-रात पिला रहता है तो ऐसे में किस से उम्मीद करूँ इसमें औरत के सम्मान की जो धारणाएं-मान-मान्यताएं हैं उनको बचाने की?

फ्रांस में रहता हूँ, औरत को सम्मान देने के मामले में इनसे बेहतर कल्चर आजतक नहीं देखा| भारतीय परिवेश में इस तरह का इसके नजदीक लगता कोई कल्चर है तो उसमें मैं सिखिज्म व् हरयाणवी को बहुत आगे काउंट करता हूँ| इतना आगे तो जरूर कि अगर कोई कम्पेरेटिव स्टडी खोल के बैठे तो उनको इतना तो जरूर साबित कर दूँ कि हरयाणवी कल्चर औरत को सम्मान देने में अन्य किसी भारतीय कल्चर से इतना ज्यादा तो जरूर है कि वह 19 की बजाये 21 साबित होवे|

अत: इन कलाकारों, लेखकों से इतना अनुरोध करूँगा कि एक ऐसे वक्त में जब सामाजिक संस्थाओं से ले समाज के जागरूक लोग तक इन चीजों की बजाये घोर राजनीति में ही उलझे पड़े हैं तो ऐसे में इन चीजों को मेन्टेन रखने की आपकी जिम्मेदारी सबसे बड़ी है| कृपया इसको सिद्द्त व् जिम्मेदारी से निभाएं| हो सके तो इस नए गाने के लेखकों गायकों तक जरूर यह बात पहुंचाएं और बताएं कि ठीक है धन कमाना भी जरूरी है परन्तु जहाँ कल्चर की कात्तर-कात्तर बिखरती दिखें उस राह जाना पड़े, आप इतने भी कम टैलेंट के साथ नहीं ज्वाजे हो बेमाता ने|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

कल्चर बनाम संस्कृति!

वेस्टर्न वर्ल्ड में "कल्चर" शब्द "कल्ट" यानि "खेती" से बना है और हमारे यहाँ यह शब्द एक भाषा संस्कृत पर बना है जिसको बोलते ही मुश्किल से 1% लोग हैं| तो व्यापक स्तर पर जनसंख्या "कल्चर" शब्द में कवर हुई या एक सिमित दायरे में बोले जाने वाली भाषा वाले शब्द से? यह सवाल उन ज्ञानियों से है जो यह कहते हैं कि हमारी शब्दवाली ज्यादा उत्तम व् व्यापक है? इसका एक अर्थ यह भी है कि एक भाषा से इस शब्द को बनाने वालों के लिए बस उस भाषा को बोलने वाले ही कल्चर्ड हैं बाकी सब नगण्य| यह है वेस्टर्न वर्ल्ड के शब्दों की व्यापकता जो मेजोरिटी को कवर करते हैं, मात्र 1-2% को नहीं, फिर चाहे वह मेजोरिटी खेती करने वालों की हो या इससे उतपन्न अन्न से पेट भरने वालों की यानि 100% वह भी 100% दिन ऑफ़ लाइफटाइम| वह कल्चर शब्द से उस कृषक को भी आभार व्यक्त करते हैं जो ना हो तो जीवन में अन्न खाने को ना मिले जो कि हर जीवन का आधार है यानि पूर्णतया कृतज्ञ लोग व् कृतज्ञ सोच वाला कल्चर| भाषा तो वेस्ट वाले भी बोलते हैं परन्तु उन्होंने "कल्चर" के लिए "खेती से जुड़ा शब्द क्यों चुना", इनकी भाषा से ही जुड़ा चुन लेते? दोनों ही शब्दों से कोई बैर या हेय नहीं है, बस सवाल उठा तो पूछा; जिस महाज्ञानी के पास जवाब हो तो जरूर देवे| अन्यथा सोचिये इस पर, क्योंकि आपकी मानसिक गुलामी यहीं पर बंधी प्रतीत होती है|

बचपन से सुनते आये थे और तथाकथित हरयाणवी-कल्चर को कम जानने वाले व् इसका उपहास उड़ाने वाले पत्रकार अक्सर जब ताऊ देवीलाल से यह पूछते थे कि, 'बाकी सब तो ठीक है, पर आपका कल्चर क्या है?" तो वो म्हारा बुड्ढा, म्हारा पुरख इनको सही इंटरनेशनल स्टैण्डर्ड का जवाब दिया करता था कि, "म्हारा कल्चर सै एग्रीकल्चर"| और जो कोई भी हरयाणवी, हरयाणे के ग्राउंड जीरो से बाहर देश-स्टेटों के शहरों या विदेशों में आन पहुंचा है वह सहज ही उस म्हारे पुरखे की इस बात को समझेगा, इसके मर्म को समझेगा|

ईबी खुद को खेती से जोड़ने से शर्म आती हो जिसने, उसको यह लेख पढ़वा दियो|

विशेष: संस्कृत तीन साल पढ़ी है, 95-97/100 नंबर से कभी कम ना आये, संस्कृति शब्द भी सुनहरा है, इसका मान-सम्मान-ओहदा सब कायम है मेरी नजरों में और रहेगा; परन्तु बात वह होनी चाहिए जो व्यापकता को समाहित करती हो, तभी तो असली "वसुधैव कुटुंभ्कम" चरितार्थ होवेगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 17 August 2019

ओहो तो "नरसी के भात" वाला किस्सा यह है!

जिसको अक्सर ऑडियो केसेट्स के जरिये बचपन से कृष्ण से जुड़ा हुआ बता के फैलवाया गया है? यह फंडी भी ना मेरे बटे कति तैयार बैठे रह सैं कि समाज में आर्गेनिक तरीके से कुछ फेमस हुआ नहीं और इन्होनें जुट जाना उसपे अपनी स्टाम्प लगा के गाना-बगाना|


ऐसे ही "बाला जी जट्ट" जिन्होनें महमूद ग़ज़नवी से सोमनाथ मंदिर का लुटा हुआ खजाना वापिस लूट लिया था, उनको उठा के हनुमान जी से जोड़ दिया और "बाला जी" टेम्पल्स सीरीज ही चला दी| तो भाई "बाला जी जट्ट" कह के पुजवाने में क्या ऐतराज था आपको, फिर कहोगे कि जाट खार क्यों खाता है| तुम तथ्यों को ज्यों-का-त्यों बना के प्रचारित क्यों नहीं रखते हो, क्या कोई दान-चढ़ावे के जरिये धन की कमी रखता है जाट तुम्हें सही-सही प्रचार करने हेतु?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

My challenge to you: मुझे मेरी 17 पीढ़ियों के नाम पता हैं, आपको कितनियों के पता हैं?


1) फूल मलिक पुत्र 2) (राममेहर मलिक + माँ दर्शना प्रेमकौर) पुत्र 3) (स्व. फतेह सिंह + दादी खुजानी धनकौर) पुत्र 4) स्व. लछमन सिंह पुत्र 5) स्व. शादी सिंह पुत्र 6) स्व. गुरुदयाल (गरध्याला) सिंह पुत्र 7) स्व. बख्श सिंह पुत्र 8) स्व. दशोधिया सिंह पुत्र 9) स्व. थाम्बु सिंह पुत्र 10) स्व. शमाकौर सिंह पुत्र 11) स्व. डोडा सिंह पुत्र 12) स्व. इंदराज सिंह पुत्र 13) स्व. राहताश सिंह पुत्र 14) स्व. सांजरण सिंह पुत्र 15) स्व. करारा सिंह पुत्र 16) स्व. रायचंद पुत्र 17) स्व. मंगोल सिंह

Note: तीसरी पीढ़ी के बाद की दादियों के नाम और पता लगाने हैं|

दादा चौधरी मंगोल जी महाराज ने अपने सीरी भाई दादा श्री मिल्ला कबीरपंथी के साथ सन 1600 में मोखरा, महम रोहतक से आकर अपना "दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर, निडाना" बसाया था| दादा मंगोल जी के नाम पर ही निडाना के "मंगोल वाला जोहड़" का नाम है|

मोखरा से पहले गठवालों की लेन जाती है गढ़-ग़ज़नी से आ कासण्डा, गोहाना में "दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर" स्थापित करने वाले दादा मोमराज जी महाराज से| क्योंकि वह गढ़ ग़ज़नी की बेगम से लव-मैरिज करके लाये थे इसलिए कटटर टाइप हिन्दू, गठवालों को एक मुस्लिम लड़की से ब्याह करने के कारण "महाहिंदु" भी बोलते हैं| और इसी के चलते मुग़लों ने कभी गठवाले जाटों की बारातों में धौंसा बजते नहीं रोका, ना उनकी बारात रोकी| हाँ, एक बार सन 1620 में गठवालों की छोरी का डीघल, 'रोहतक गाम में दिया कलानौर से गुजरता डोला रांघड़ों (हिन्दू राजपूत से कन्वर्टड मुस्लिम को रांघड़ बोलते थे) ने रोकने की कोशिश जरूर की थी जिसका अंजाम सर्वखाप के झंडे तले "कलानौर रियासत को मलियामेट' करने के स्वर्णिम इतिहास के रूप में दर्ज है|

इस हमले को लीड किया था सर्वखाप सेनापति स्व. दादा धोला सिंह सांगवान (age 19 years) ने| जिसकी कि कलानौर रियासत तोड़ने के बाद में गलतफमियों के चलते हत्या कर दी गई थी व् इस पर गठवालों ने अफ़सोस जताते हुए यह फैसला लिया था कि जिस जगह सर्वखाप ने कलानौर रियासत तोड़ने हेतु पड़ाव डाल लड़ाई के लिए "गढ़ियाँ" (मॉडर्न भाषा में फौजी बंकर बनाये थे, वहां "गढ़ी टेकना मुरादपुर" नाम (मुरादपुर इसलिए क्योंकि यहाँ कलानौर रियासत तोड़ने रुपी मुराद पूरी हुई थी, टेकना इसलिए क्योंकि सर्वखाप ने यहाँ अपना पड़ाव टेका था रखा था और गढ़ी क्यों वह आप समझ ही गए होंगे ऊपर पढ़ के) से गाम बसेगा और इस गाम में अन्य बिरादरियों के साथ सांगवान गौत के जाटों का खेड़ा होगा (पहले जबकि प्रस्ताव मलिक जाटों के खेड़े का हुआ था क्योंकि इस लड़ाई का आयोजन मलिक जाटों के आहवान पर ही हुआ था) और गठवाले यानि मलिक जाट इस गाम को अन्य मलिक गांव की तरह भाईचारे के तहत मानेंगे व् इसलिए इस गाम से रिश्ते नहीं बल्कि भाईचारे निभाएगे; जो वीरवर दादा स्व. धोला सिंह सांगवान जी को श्रद्धांजलि स्वरूप आज तलक भी कायम हैं| इसलिए इस आदर-सम्मान स्वरूप इस गाम में मलिक ना छोरी ब्याहते और ना छोरा, बल्कि भाईचारा चलता है| जबकि अन्य गाम के सांगवान जाटों के यहाँ मलिक जाटों के ब्याह-शादी के रिश्ते ज्यों-के-त्यों चलते हैं| यह बात ख़ास तीन दिन पहले ही मुझे पता लगी है, घर से|

गाम के बालक दो-तीन दिन से गाम के ओरिजिन बारे जानकारी चाह रहे थे तो सोचा यह जानकारी देने के साथ-साथ, बाकी साथियों को अपनी पीढ़ियों के नाम गिनवाने का चैलेंज भी दे दूँ| तो दोस्तों बताओ आप आपकी कितनी पीढ़ी गिना/गिन सकते हो?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक