Sunday, 22 December 2019

79 जातीय आधारित हरयाणवी कहावतों में 64 ऐसी हैं जिनमें "जाट" मौजूद है!


यह प्रस्तुति दूसरे जाटरात्रे यानि 24 दिसंबर के उपलक्ष्य में इस रात्रे का शीर्षक "कहावतों, आम बोलचालों व् राजकीय-राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय साहित्य में जाट" विषय के तहत है|

दूसरे जाटरात्रे को मनाने का थीम है - "जाट किसे-नैं घी-दूध खुवावैगा, तो गळ म रस्सा डाल कें"|

मुख्य मंथन क्या करें - "किसी जाति या मानव-समूह का उससे संबंधित कल्चर-कस्टम-लोक्कोक्ति-लोकवाणी-साहित्य-संवाद में कितना स्थान होता है, स्थानीय कहावतें-बातें-मुहावरे उसको जानने का सबसे बढ़िया जरिया होते हैं| जिस समाज का इनमें जितना ज्यादा स्थान वह समाज उतना अग्रणी-सम्मानित-स्थापित-टिकाऊ व् भरोसेमंद होता है"|

अब इन 79 जातीय आधारित हरयाणवी कहावतों में ही देख लीजिये, 64 ऐसी हैं जिनमें जाट जरूर है| हो सकता है कुल संख्या 79 से ज्यादा हो शायद 100 हो, 120, 150 या 200 भी होंगी तो इतना मानता हूँ कि जैसे 64/79 = 81% कहावतों में जाट है तो 200 भी हुई तो इतना अंदाजा है कि जाट न्यूनतम 50% में तो जरूर मिल जायेगा| तो एक जाट के तौर पर आपका-हमारा द्वितीय जाटरात्रे का मकसद यह होना चाहिए कि यह समझा-समझाया जाना चाहिए कि जिन पुरखों की वजह से यह कहावतें हैं, उनके क्या कर्म-सोच-साइकोलॉजिकल थ्योरियां रही होंगी जो "जाट" शब्द को इतना प्रचुर मात्रा में इनमें स्थान मिला|

एक अनुरोध है: जाट बारे अच्छी हैं तो अच्छी लिखी हैं और बुरी हैं तो बुरी परन्तु लिखी हैं ज्यों-की-त्यों, और ऐसे ही बाकी जिस भी बिरादरी की हैं ज्यों-की-त्यों वह लिखी हैं; मकसद सिर्फ कल्चरल हेरिटेज को 'किनशिप' कांसेप्ट के तहत अगली जनरेशन को पास करना है; तो कोई भाई/बहन खामखा सर मत हो जाना मेरे|

इन्हीं शद्बों के साथ प्रस्तुत हैं 79 कहावतें 2 भागों में, पहले में 64 जिनमें "जाट" शब्द जरूर है व् दूसरे में 15 जो साथी बिरादरियों बारे हैं:

Part 1:
1. जाट किसे-नैं घी-दूध खुवावैगा, तो गळ म रस्सा डाल कें|
2. जाट रांडा मरे वो दुर्भागा, ब्राह्मण भूखा मरे वो दुर्भागा|
3. अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, अर पढ़या जाट खुदा जैसा!
4. मति मरी जाट की, रांगढ़ राख्या हाळी; वो उसनै काम कहे, ओ दे उसने गाळी!
5. ओच्छा बाणिया, बोराया जाट, मरूं-मरूं करदा बाह्मण, गोद लिया छोरा, ओच्छे की प्रीत, बाल्लू की भींत; कदे सुख ना दें!
6. कविता सोहै भाट की, खेती सोहै जाट की!
7. काटे जाट का, सीखै नाई का!
8. काळा बाह्मण, धोळा चमार, तिलकधारी बाणीया अर कैरे जाट तें बच कें रहणा चहिये!
9. खेती जट्ट की, बाजी नट की!
10. खागडा की लड़ाई म्ह, भेड़िये की चतराई म्ह अर जाट की बुराई म्ह कदे नी फहना चाहिए!
11. गूमड़ा अर जाटडा, बंधे ही भले!
12. गुज्जर के सौ, जाट के नौ (अनाज-दलहन आदि) और माळी के दो किल्ले (फल-फूल-सब्जी) बराबर हो सें|
13. जाट बाहरने (दर) पै आये के घर तक बसा दे!
14. जाट ने हारया तब जाणिये, ज्ब कह पुराणी बात!
15. जाट छिक्या अर राह रुक्या!
16. जाटडा अर काटडा, आपणे नै ऐ मारें!
17. जाट-जाट का दुश्मन, ज्यांते जाट की 36 कौम दुश्मन!
18. जाट-जाट के साठे करदे, घाले-माले!
19. जाट जब तक साथी, हाथ म्ह होवै लाठी!
20. जाण मारे बाणिया, पिछाण मारे जाट!
21. आग्गम बुद्धि बाणिया, पाच्छ्म बुद्धि जाट!
22. बावन बुद्धि बणिया, छप्पन बुद्धि जाट|
23. जाट बलवान जय भगवान!
24. जाट कै लागी हंगाई, म्हास बेच कै घोड़ी बिशाई!
25. जाट अर सांप म्ह तै पहल्यां किसने मारे, सांप नै जाण दे अर जाट नै समारे!
26. जाट, बैरागी, नटवा, चौथा राज-दरबार, यें चारों बांधे भले, खुल्ले करें बिगाड़!
27. जाट जब दुश्मन पिछानना अर मंत्रणा करणी शुरु कर दे, तै सब काहें नै कूण म्ह धर दे!
28. जाट एक समुन्दर सै अर जो भी दरिया (जाती) इसमै पड़ती है वाः समुन्दर की बण ज्या सै!
29. जाट एक दमड़ी पै लहू-लुहान, बाणिया सौ पै भी ना खींचा-ताण!
30. जाट जितना कटेगा, उतना ही बढ़ेगा!
31. जाट सोई पांचों झटकै, खासी मन ज्यों निशदिन अटकै!
32. जाट जाट को मारता यही है भारी खोट, ये सारे मिल जायें तो अजेय इनका कोट!
33. जाट नै मरया जद जाणिये जब उसकी तेरहँवी हो ले|
34. जाट नै कै तै जाट मारै अर नहीं तै भगवान (जाट को मारै जाट या फिर करतार)
35. जाट तैं यारी अर शेर की सवारी - एक बात हो सें|
36. जाट ठाणे जो मरोड़, भला कौन दे तोड़|
37. जाटनी कदे विधवा ना होती (प्राचीन विधवा-विवाह प्रचलन की वजह से)|
38. जाट कै तो खा कै मरेगा कै बोझ ठा कै मरेगा|
39. जाटां का बुड्ढा, बुढापे मै बिगड़या करै|
40. जाट नाट्या अर कर्जा पाट्या|
41. जाट रै जाट, खड़ी करदे तेरी खाट - बीज खोस ले बोण नी दे, सोड़ खोस ले सोण नी दे, डोग्गा मारै रोण नी दे|
42. दो पाटा के बचाल्ये साबत बच्या ना जाट!
43. नट विद्या आ जावै पर जट्ट विद्या कोनी आवै|
44. पात्थर म्ह घुणाई कोन्या, जाट म्ह समाई कोन्या!
45. बिन जाटां किसने पाणीपत जीते!
46. ब्राह्मण खा मरे, तो जाट उठा मरे!
47. बणिया हाकिम, ब्राह्मण शाह, जाट मुहासिब, जुल्म खुदा।
48. भूरा चमार, काला जाट अर कानी लुगाई, काले भीतर आले बताये!
49. भरा पेट जाट का, हाथी को भी गधा बतावे!
50. भरा पेट जाट का, अम्बर म्ह मओहरे करे!
51. माँगे तो, जाट दे ना गंडा भी, ब्यन मांगे दे दे भेल्ली|
52. मकौड़ा, घोड़ा और जठोड़ा पकड़ने पर कभी छोड़ते नहीं!
53. जाट मर्द साठा ते पाठा|
54. एक नट की कला की गहराई मापी जा सकती है लेकिन एक जाट की बुद्धि की कभी नहीं|
55. मिट्टी के बर्तन म्ह धरया घी, हिन्दू की दाड़ी, कई बेटियों वाले पिता और जाट को दिए कर्ज का कभी भरोसा नहीं करना चाहिए|
56. जाटां का समूह, अळसु-पळसु बाताँ का ढूह|
57. जाट जब आप्पे तैं बाहर हो ज्या तो खुदा-ए उसनें थाम सकै|
58. जाट की हांसी आम आदमी की पसली चटका दे|
59. निरे सफ़ेद कपड़े पहनने वाले और मांस (चिकन) खाने वाले जाट की ऋणदेन पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए|
60. ऐकले जाट कै फसियो ना, इनकी पंचायत तैं डरियो ना!
61. जाट रे जाट, सोलह दूनी आठ!
62. जाट रे जाट, तेरे सर पे खाट, तेली रे तेली, तेरे सर पर कोल्हू|
63. जाट जब तक साथी, हाथ में होवै लाठी|
64. जाटड़ा और काटड़ा, अपने को मारे|

Part 2:
1. कुम्हार गधे पै फल्लारे मारै|
2. जै बाणिया बणज्या हाक्क्म, तो गजब खुदा!
3. इह्सा भाज्दा हंडे सै, ज्यूँ गहण म चूड़ा!
4. काश की खेती,साँस की ब्यमारी, बीर तैं बैर अर हीर तैं यारी कदे ना निभै!
5. चूड़ा रग देख कें लठ मारया करै|
6. देखी भाळी डूमणी, गावै औल-पचौल!
7. नयी-नयी मुसल्लमानणी, अल्लाह-ए-अल्लाह पुकारै|
8. नाईयां के ब्याह म्ह होक्का कूण भरे|
9. न्यूं बोअळा होया हाँडै जाणु बिगड़े ब्याह म नाई!
10. परहेज पुगाण बाणिया सबतें पक्का बताया अर बाह्मण, नाई अर लुगाई सबतें कच्चे बताये|
11. ब्राह्मण भूखा भी बुरा तो धापा भी बुरा!
12. बीर, बाणिया, पुलय्स, ड्रेवर, बच्छ्यु, सांप, गव्हेरा, जिसकै मारैं डंक गात में, दीखे घोर अँधेरा|
13. भूले ब्राह्मण भेड़ खाई, अर फेर खाऊं तो राम-दुहाई!
14. लोभ लाग्या बाणीया, चून्दें लाग्या गौका (गाय), रुकें तै रुके रहं ना तै चाल्ले-ए-जाँ!
15. गाम बसाये बाणीये,पार पड़ै तो जाणिए|

उद्घोषणा: लेखक सर्वसमाज-सर्वधर्म का पैरोकार है जब तक बात समाज को एक सामूहिक परिवार की भाँति चलाने की आती है तो| यह लेख घर के भीतर के एक सदस्य को उस घर में उसके योगदान-सहयोग-सम्पर्ण आदि बता उसकी हस्ती को जिन्दा रख एक 'किनशिप' के नियम के तहत अगली पीढ़ी को पास करने की कवायद भर है| इसके अलावा घर के जिस सदस्य के लिए यह लिखा जा रहा है यानि "जाट" वह हमेशा यह बात सबसे ऊपर रखेगा कि समाज रुपी इस सामूहिक परिवार में उसके साथ 36 बिरादरी व् सर्वधर्म रहते हैं| इसलिए इस लेख में बताई गई बातों को खुद की हस्ती बारे जागरूकता तक ही प्रयोग करेगा| कहीं भी, किसी भी हालात में यह लेख कोई भी द्वेष-घमंड-अहम्-तुलना पालने या उसका प्रदर्शन करने का जरिया नहीं बनाया जाए| ऐसा करने वाले असली "जाट के जाम" नहीं माने जायेंगे| लाजिमी है कि ऐसी मति को ठीक करके ही इस लेख को पढ़ें, तभी इसका मंतव्य समझ आएगा, इसको पढ़ने में लुत्फ़ आएगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 21 December 2019

कल से शुरू हो रहे 18 जाटरात्रों को मनाने की विधि!

एक उद्घोषणा: लेखक सर्वसमाज-सर्वधर्म का पैरोकार है जब तक बात समाज को एक सामूहिक परिवार की भाँति चलाने की आती है तो| यह लेख घर के भीतर के एक सदस्य को उस घर में उसके योगदान-सहयोग-सम्पर्ण आदि बता उसकी हस्ती को जिन्दा रख एक 'किनशिप' के नियम के तहत अगली पीढ़ी को पास करने की कवायद भर है| इसके अलावा घर के जिस सदस्य के लिए यह लिखा जा रहा है यानि "जाट" वह हमेशा यह बात सबसे ऊपर रखेगा कि समाज रुपी इस सामूहिक परिवार में उसके साथ 36 बिरादरी व् सर्वधर्म रहते हैं| इसलिए इस लेख में बताई गई बातों को खुद की हस्ती बारे जागरूकता तक ही प्रयोग करेगा| कहीं भी, किसी भी हालात में यह लेख कोई भी द्वेष-घमंड-अहम्-तुलना पालने या उसका प्रदर्शन करने का जरिया नहीं बनाया जाए| ऐसा करने वाले असली "जाट के जाम" नहीं माने जायेंगे| लाजिमी है कि ऐसी मति को ठीक करके ही इस लेख को पढ़ें अन्यथा यहीं तक पढ़ के छोड़ दें|

यही मौसम सबसे प्रयुक्त क्यों?: सर्दियों का मौसम, खेतों में तमाम तरह की बुवाई-बहाई हो चुकी है| बस फसलों को पानी देना या गन्ना (गंडा) छोलना मुख्यत: यही दो काम रहते हैं| सर्दी शिखर पर होती है तो क्या गाम वाला क्या शहर वाला, हर कोई गूदड़ों में दुबका रहना पसंद करता है| यानि अधिकतर कुणबा घर में ही होता है| छोटे-बड़े लगभग फुरसत में होते हैं| स्कूली बच्चों की भी कहीं क्रिसमस की, तो कहीं सर्दी की तो कहीं नए साल की छुट्टियाँ होती हैं| संयोग यह भी है कि इन्हीं रात्रों के दौरान न्यूनतम 5 सिर्फ जाट ही नहीं अपितु हिंदुस्तान की महानतम हस्तियों में सुमार हस्तियों के जन्म अथवा बलिदान दिवस भी आते हैं| तो ऐसे में मौका है कि घर व् आसपड़ोस के बड़े, बच्चों व् जवानों समेत एक साथ बैठें व् 18 अध्यायों में रोज एक अध्याय की भाँति 18 जाट-रात्रों के जरिये कुछ यूँ अपनी "किनशिप" को आगे की पीढ़ियों को पास करें, 'किनशिप' को डेवेलोप करें:

पहला जाटरात्रा -
दिन - 23 दिसंबर
खास बात - बड़े चौधरी साहब का जन्मदिवस
इस रात्रे का शीर्षक "जाट वास्तुकला-स्थापत्यकला-भवन-हवेली निर्माण रुचि-गाम-खेड़े सरंचना-आर्ट व् कला"|
इसको मनाने का थीम - "अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, पढ़ा जाट खुदा जैसा"|
मुख्य मंथन क्या करें - "विचारें कि हमारे पुरखे 99% ग्रामीण व् अक्षरज्ञान में नगण्य होते हुए भी सत्यार्थ-प्रकाश जैसे ग्रंथों में "जाट जी" व् "जाट देवता" कहला गए और आप-हम उसके विपरीत "35 बनाम 1" या "जाट बनाम नॉन-जाट" झेल रहे?"

उत्सव स्वरूप क्या चर्चा करें?: आपस में बताएं कि जाट समाज कैसे परस-चौपाल-चुपाड़, कुँए-जोहड़ों व् उनपे बुर्ज-बुर्जी, दादा नगर खेड़ों के मात्र एक कमरा आकार के धोक-ज्योत के धाम, हवेलीयों आदि के निर्माण में कैसी नक्कासी आदि प्रयोग करता रहा है| क्यों पुरखों की हवेलियां बाई-डिफ़ॉल्ट गर्मियों में ठंडी व् सर्दियों में गर्म रहती थी| बताएं कि जाटलैंड जहाँ तक है इंडिया में कम्युनिटी गैदरिंग की परस-चौपाल सिर्फ वही तक मिलती हैं; इस हद के बाहर इनका नामो-निशां मिलता है तो फिर सीधा इंडिया से बाहर यूरोप-अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया में ही मिलता है| कैसे यह मिनी फोर्ट्रेस परस-चौपाल हर प्रकार के धार्मिक व् राजनयिक स्थल से उच्च स्तर की इंसानियत पालती आई हैं, आदि-आदि|

इसी से संबंधित कुछ फोटोज इस पोस्ट के साथ लगा रहा हूँ| तो कल बड़े चौधरी साहब की जीवनी समेत, "जाट वास्तुकला-स्थापत्यकला-भवन-हवेली निर्माण रुचि-गाम-खेड़े सरंचना-आर्ट व् कला" बारे आपस में बताएं-पूछें-जानें-समझें| बच्चों को इस पोस्ट की फोटोज भी दिखा सकते हैं शेयर कर सकते हैं| वैसे भी इन फोटोज को नेशनल-स्टेट आदि लेवल का कोई ही पाठ्यक्रम शायद कवर करता हो, जाट के नाम से तो छोडो "हरयाणवी कल्चर" के नाम तक से नहीं| इसलिए यह करना और भी लाजिमी हो जाता है|

मैंने यहाँ "जाट" की बजाये "हरयाणवी" इसलिए बोला है कि "हरयाणवी कल्चर" अकेले जाट से नहीं बनता; 36 बिरादरी व् सर्वधर्मों के गठबंधन से बनता है| इसलिए यह "जाट-रात्रे" मनाते वक्त सिर्फ अपनी हस्ती का अनुभव करें, किसी भी अलगाव या तुलना का नहीं| क्योंकि यह परस-चौपाल आदि तक में सम्पूर्ण हरयाणवी समाज का सहयोग है| ऐसा होते हुए भी इस विषय को पहला जाट-रात्रा इसलिए चुना क्योंकि हरयाणवी समाज में जाट-समाज का इसमें सबसे अधिक सहयोग व् रुचि रही है शायद न्यूनतम 50 से ले 80% तक| परस-चौपाल के रखरखाव के लिए सरकारी ग्रांट्स मिलना आजकल की कहानी है अन्यथा मुख्यत: जाट-समाज समेत अन्य बिरादरियों के दान-सहयोग से ही यह इमारतें बना करती थी, आज भी अधिकतर ऐसे ही बनती हैं|

इसी तरह अगले 17 रात्रों पर एक दिन एडवांस में 17 रात्रों बारे बताता जाऊँगा| अगर लगा कि दैनिक व्यस्तताओं के चलते वक्त की कमी है तो शायद उस दिन बाकी बचे रात्रों बारे ब्रीफ में एक ही पोस्ट भी निकाल दूँ| सम्पूर्ण जाट-रात्रों की सूची जरूर आज ही डाल रहा हूँ, यह रही इंग्लिश में:

1 - 23 December - Art & Construction Heritage of Jats (Paras-Chaupal-Kuen-Burj-Habitation Structure)
2 - 24 December - Proverbs, Slangs and Literature of Jats (All folk sayings around jats)
3 - 25 December – the Princely States of Jats (All global to domestic prince states of Jats)
4 - 26 December – Spirituality of Dada Nagar Kheda / Dada Bhaiya / Gaam Kheda / Baba Bhoomiya / Jathera – A system of statueless priestless worshipping of ancestors and nature as a prime power. Along with the Jat spiritual leaders.
5 - 27 December – Gender Sensitivity, Gaut and Kheda System and Humanity in Jats and Khaps
6 - 28 December – Basics and Golden Belief System, Barter Distribution and Partner Working Culture of “Udarvadi-Jamindari”
7 - 29 December – Military Culture of Akhadas under Sarvkhap Social Security and Safety System, their contribution in World War 1 & 2 and present-day official defenses of India
8 - 30 December – Social Engineering Legend of Sarvkhaps to maintain Brotherhood and Justice in the society and traditional Lhaas system
9 - 31 December –Custom-Costume-Culture-Folklores-Art and Music-Legendary Kissas of Jats and Khaps
10 - 1 January – History and Legends of Khaps and Yauddheyas ( a brief note)
11 - 2 January – History and geography of vishal Haryana (a brief note)
12 - 3 January – Languages of Jats and Khaps – special focus on “Haryanvi is a language and not a dialect” along with Punjabi, Urdu, Hindi, Marwadi, Sanskrit, English etc.
13 - 4 January – Agriculture, Businesses, and Ecosystem of Jats and Khaps
14 - 5 January – Vishal Haryana- United Punjab as an epic abode of Jats and Khaps and India as their motherland
15 - 6 January – Jat and World to Indian and various State Politics
16 - 7 January – Ancient (Bagad) and modern-day RWAs, Bureaucracy, Judiciary and Civil Societies of Jats and Khaps
17 - 8 January – Environment Purity & Safety, Greenary Management, Society Hygiene System and role of Jats and Khaps in Green and White Revolutions
18 - 9 January – Global Analogical Study of Jats and Khaps as Human Race and Civilization with the rest of the world

Photos Sources:
1 - Sir Ranbir Phaugat
2 - Sir Rajkishan Nain
3 - Sir Rajkumar Siwach
4 - Sir Rohnit Phore
5 - Myself
6 - Many friends

जय यौद्धेय! - फूल मलिक



































Friday, 20 December 2019

ए री जाटणियो सुणियो री: जाटरात्रे (यह नवरात्रों से अलग हैं) शुरू हो रहे हैं 23 दिसंबर से 9 जनवरी तक!

23 दिसंबर - भारत की राजनीति के असली चौधरी यानि पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह जी का जन्मदिवस (23/12/1902)|
25 दिसंबर - "एशियाई ऑडीसुस", "जाटों के प्लेटो" महाराजा सूरजमल सुजान का बलिदान दिवस (25/12/1763)|
1 जनवरी - सन 1670 की आधुनिक भारत की सबसे बड़ी "उदारवादी जमींदार क्रांति" के जनक व् नायक सर्वखाप यौद्धेय गॉड गोकुला जी महाराज का उनके ताऊ व् भतीजे समेत शहादत दिवस (1/1/1670)|
9 जनवरी - उत्तर भारत में आधुनिक जमींदारी-मजदूरी-व्यापारी की नींव रखने वाले सर छोटूराम जी का देहावसान दिन (9/1/1945)|
9 जनवरी - 1857 की क्रांति के नायक वल्लभगढ़ नरेश राजा नाहर सिंह का उनके दो साथियों समेत बलिदान दिवस (9/1/1858)|


इस उपलक्ष्य में 23 दिसंबर से 9 जनवरी तक जाट-खाप-हरयाणा-उदारवादी जमींदारी - दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर जैसे विषयों के कल्चर-हेरिटेज-ट्रेट्स-मान-मान्यता-आध्यात्म आदि पर रोज एक विषय चुनकर उस पर स्पेशल पोस्ट लाने की कोशिश करूँगा और साथ ही यह बताने की कोशिश होगी कि क्यों यह 18 दिन जाटरात्रों के रूप में मनाने शुरू किये गए| हालाँकि काम-जिंदगी की अन्य व्यस्तताओं के चलते किसी दिन मिस हुआ तो एडवांस में माफ़ी|

ज्यादा बड़ी वजह नहीं है बस 19 से 22 फरवरी 2016 ने यही सीख दी है कि भाड़ में गया सबकुछ, दुनियाँ को अपना दीन-धन-सहूलियत-सिद्द्त भी लुटा दोगे तो कोई ना तुम्हारे मरे पे सर नीचे गोड्डा देवे| बल्कि उलटे 35 बनाम 1 व् जाट बनाम नॉन-जाट और झिलवायेंगे, इसलिए अपने लिए भी जियो, बेबाक हो के जियो|

विशेष: जिसको इस पोस्ट में निरे जातिवाद की बू आती हो, वह अपनी नाक-भों सिकोड़ के पिछली गली से निकल सकता/सकती है अपनी सेहत पर फर्क नहीं पड़ता तुम्हारे बड़बड़ाने-बिदकने या भौंकने से| जाटरात्रे तो यूँ ही मनेंगे| और यह इसलिए मानेंगे क्योंकि जब-जब किसी भी बिरादरी-कल्चर-स्टेट-जाति वाले के जो-जो त्यौहार आते हैं, जाट ही सबसे ज्यादा भागीदारी व् सौहार्द से मनाते-मनवाते हैं तो क्या बदले में हम इतनी भी अपेक्षा ना रखें कि कोई "जाटरात्रे" ना मनाये तो हमारे द्वारा मनाने पर कम-से-कम नाक-भौं ना सिकोड़े, राइट?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 13 December 2019

हरयाणा सरकार अगर वाकई "हरयाणा एक, हरयाणवी एक" के नारे को गंभीरता से मानती व् पालती है तो पहले झटके CAB को मना करे!

अन्यथा शरणार्थियों को बसाने की जिम्मेदारी मंदिर-मठ-अखाड़ों वालों की लेनी चाहिए व् इनकी जमीनों पर व् इनको जनता जो धर्म के नाम पर दान-चंदा देती है उस खर्चे से इनकी बसासत होवे अगर होवे भी तो| तभी वाकई में तथाकथित हिन्दू-हिंदुत्व की रक्षा भी होवेगी व् बुलंदी भी|

नहीं तो यह तथाकथित CAB कोरा हाड-तोड़ मेहनत से बनाई व् सदियों-सदियों तक की विभिन्न सरकारों-राजाओ-बादशाहों को भरे टैक्स-मालगुजारी से कायम करके रखी किसान-जमींदार की जमीनें हड़पने के षड्यंत्र से ज्यादा कुछ नहीं| आज के स्थानीय दलित-ओबीसी को 100-100 गज के प्लॉट्स मिलते हैं, उनसे जाओगे वह अलग से| जमीन व् प्लाट तो प्लाट सारा कल्चर-भाषा-वातावरण नष्ट हो जायेगा वह अलग से|

हरयाणा-एनसीआर में तो वैसे ही हद से ज्यादा जनसंख्या आ चुकी है, अब क्या हमारी ड्योढ़ियों पर बसायेंगे यहाँ इनको? आवाज उठा लो वक्त रहते वरना आगे खतरा बहुत बड़ा है| हरयाणा सरकार अगर वाकई "हरयाणा एक, हरयाणवी एक" के नारे को गंभीरता से मानती व् पालती है तो पहले झटके CAB को मना करे|

1761 में पानीपत के मैदान में अब्दाली से हारे शरणार्थी यहाँ हमने बसाये| आधे पुणे-महाराष्ट्र भी हमारी ही सुरक्षा में महाराजा सूरजमल के राज में हरयाणवियों ने ही छुड़वाए|
1947 में पाकिस्तान से आये भाई-बंधु सबसे ज्यादा यहाँ बसाये व् स्थानीय लोगों ने जी भर के मदद करी|
1984 में पंजाब में आतंकवाद हुआ तो जो 5% हिन्दू वहां से खिसका वह हरयाणा ने अपनी छाती पर ओटा|
1990 में कश्मीर में आतंकवाद छिड़ा तो सबसे ज्यादा कश्मीरी पंडित को हरयाणा वालों ने शरण दी|
1990 में बाल ठाकरे जैसों ने उत्तर भारतीय के नाम पर बिहार-बंगाल वालों को महाराष्ट्र-गुजरात से पीट कर भगाया तो उनको हरयाणा-पंजाब सबसे सुरक्षित लगा व् तब से बिहार-बंगाल-पूर्वोत्तर से आने वाले कामगारों को यहाँ रोजगार समेत आसरा मिलता रहा|

अब और क्या इस छोटे से क्षेत्र में पूरा विश्व बसाओगे? जनसंख्या डेंसिटी से ले जल-प्रदूषण, धरती दोहन, वातावरण प्रदूषण क्या-क्या नहीं झेल रहा है स्थानीय हरयाणवी? आखिर इसके स्वास्थ्य से ले आत्मिक शांति के लिए कुछ बचेगा या नहीं?

इसलिए बायकाट कीजिये इस CAB को|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

यह पेशवाओं का "चौथ" क्या होता था जिस पर महाराजा सूरजमल बेख़ौफ़ "चोथ" करते थे?

यह "चौथ" क्या होता था जो महाराजा सूरजमल नहीं दिया करते थे पेशवाओं को? इस "चौथ" पे महाराजा जी "चोथ" क्यों करते थे भाई? मतलब "चौथ" पर "चोथ" करना बढ़िया चीज होती थी क्या? फिर क्या घंटा पेशवाओं ने तथाकथित लाहौर-पेशावर तक का इंडिया जीता था, जब जाट तो इनको चौथ ही नहीं दिया करते थे यानि इनका आधिपत्य मानते ही नहीं थे| ऐसी-ऐसी बातें दिखाने के लिए "पानीपत" मूवी वालों का धन्यवाद भी करो यारो, निरा विरोध भी किस काम का| क्योंकि ऐसी बातें 100 जाट लेखक भी मिलके इंडिया को नहीं समझा सकते थे कि, "जाट घंटा नहीं इनका आधिपत्य मानते थे" जो इस मूवी वाले ने एक झटके में कन्वे कर दी| वैसे आधिपत्य नहीं मानने वाले पॉइंट पर आज वाले भक्त भी जरा गौर फरमाएं कि जब तुम्हारे पुरखों ने ही कभी इनकी भक्ति नहीं स्वीकारी तो तुम्हें क्यों-कैसे हुई यह बीमारी; जो नागपुरियों की कर रहे चाटुकारी?

और बहुत हुआ इस पानीपत मूवी का विरोध, इसको छोड़ अब CAB के विरोध पर आ जाओ, पूर्वोत्तर की भाँति| कमाल है जहाँ सबसे ज्यादा शरणार्थी पड़ा है यानि दिल्ली-एनसीआर, वहाँ इस पर आवाज ही नहीं उठ रही| अरे किधर गए 75% नौकरियां स्थानीय हरयाणवियों के लिए सुनिश्चित करने वाले? CAB जैसे अति-गंभीर मुद्दों पर चुप रहने से सुनिश्चित होंगी क्या यह 75% नौकरिया? तुम्हारी सामलात की बची जमीनों पर जब शरणार्थी बसा दिए जायेंगे तो मुंह खोलोगे? या छोटे मोदी साबित होवोगे कि जुमलेबाजी करके हरयाणवी यूथ के वोट लिए और खिसक लिए? देख लेना मैंने "साबित होवोगे" कहा है फ़िलहाल "साबित हो गए नहीं" कहा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

CAB कानून खा जायेगा स्थानीय सेड्यूल्स कास्टस के 100-100 गज के प्लॉट्स व् बाकी बची सारी सामलात की जमीनें!

आं रै हरयाणवियो, जब थारी बची-खुची सामलात की जमीनों पर भी मोदी-शाह शरणार्थियों को बसा देंगे तो तब जा के मुंह खोलोगे क्या CAB जैसे स्थानीय लोगों के अस्तित्व को ही खत्म कर देने वाले इस कानून पर? और स्थानीय शेड्यूल कास्टस को कहाँ से मिलेंगे फिर 100-100 गज के प्लॉट्स, अगर शरणार्थी यहाँ बसा दिए तो? अचरज है कि हरयाणवी सेड्यूल्स भी इसपे चुप हैं या इसकी गंभीरता को समझा नहीं शेड्यूल अभी तक? पूर्वोत्तर राज्यों वालों के साथ इस विरोध में सुर क्यों नहीं मिला रहे हो? और किधर गए 75% नौकरियां स्थानीय हरयाणवियों के लिए सुनिश्चित करने वाले? CAB जैसे अति-गंभीर मुद्दों पर चुप रहने से सुनिश्चित होंगी क्या यह 75% नौकरिया? या छोटे मोदी साबित होवोगे कि जुमलेबाजी करके हरयाणवी यूथ के वोट लिए और खिसक लिए? देख लेना मैंने "साबित होवोगे" कहा है फ़िलहाल "साबित हो गए नहीं" कहा|

बोल पड़ो क्यों सोये पड़े हो? थारे 100-100 गज के प्लॉट्स और सामलात तो क्या थारे, लाल-डोरे तक में घुसा देंगे इनको यह और खट्टर इसकी तैयारी भी कर रहा है| बाहर आ जाओ यह धर्म या राष्ट्रवाद जिस किसी भी अफीम में बेहोश हुए पड़े हो अगर| पहले ही जमीनें-प्लॉट्स नहीं रही, छोरों के ब्याह तक ना हो रहे| खट्टर के भरोसे मत बैठना, वह तो नागपुर वालों का गुलाम है; चुसकेगा भी नहीं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 12 December 2019

पानीपत में युद्ध करने आये थे या पिकनिक मनाने; जो बीवी-बच्चे साथ लाये थे?

शायद ही कोई ऐसी लड़ाई सुनी हो दुनियाँ में जिसमें बीवी-बच्चे साथ लेकर गए हों, सिर्फ पानीपत की तीसरी लड़ाई को छोड़कर| सुसरो, युद्ध करने सिंगरे थे या पिकनिक मनाने? पानीपत ना हो गया कोई Sea-beach या Hill-station हो गया| मूवी में वजह भी बेहूदी सी बताते हैं बीवी-बच्चे साथ लेकर चलने की कि कहीं आप भी कोई मस्तानी ना ले आएं, इसलिए हम साथ चलेंगी| यानि इनकी लुगाईयों को ना तो इन पर भरोसा था और ना चरित्रवान बने रहने को इनको और कुछ सिखाया जाता था? कैसे यह प्रेमी थे व् कैसे थे यह वीर, जो साल-छह महीने के बिछोह में खुद पर संयम नहीं रख सकते थे?

और उस पर स्थानीय राजाओं से दिल्ली की गद्दी पर बैठने की मंशा छुपाने का यह ढोंग कि पानीपत जीते तो दिल्ली पर तो हम शाहजहाँ-3 की ताजपोशी करेंगे[ अच्छा तो दिल्ली में तुम्हें रहना नहीं था, ताजपोशी भी किसी हिन्दू की जगह मुसलमान की करनी थी (वह भी बावजूद हिन्दुओं को मुस्लिमों से डरा के ही, "हिन्दुओं को एक होने के लिए हिंदुत्व व् छद्म राष्ट्रवाद के घड़ियाली लेक्चर पिला के"?) तो फिर बीवी-बच्चे क्यों मरवाये?

इसीलिए तो हरयाणवी औरतों की जुबानी भाऊ की बजाये "हाऊ" कहलाये यानि अपनी सनक में अपने ही बीवी-बच्चों का कत्ले-आम करवाने वाले, हरयाणवी में कहूं तो, "अपने ही हाथों, अपनी कुणबाघाणी करवाने वाले"| यह तो शुक्र रहा जाट महाराजा सूरजमल, जाट खापों समेत आम हरयाणवियों का कि इनको शरण दे दी, वरना अब्दाली ने कोई औरत-बच्चा ना छोड़ना था इनका| सदाशिवराव भाऊ को हुड्डा खाप सांघी में आ के शरण मिली बताते हैं; व् ऐसे ही बहुतों को अन्य जाट-खापों में शरण मिली बताते हैं यानि इन राजे-रजवाड़ों से तो जाट-खाप ही इतनी ताकतवर हुआ करती थी कि अब्दाली के दुश्मन को पनाह देते हुए अब्दाली का खौफ भी नहीं माना करती?

फिर भी जलकंडपना नहीं जाता इनका| इसीलिए तो जाट बनाम नॉन-जाट रचवाते हैं, खापों पर अटैक करवाते हैं ताकि जाटों से इतनी नफरत करवा दी जाए आम जनता को कि वह जाटों की इन मानवताओं व् महानताओं को जानने की इच्छा-भर भी ना करें| इसीलिए तो यह वर्णवाद खत्म करने की बजाये जातिवाद ही टारगेट करते हैं, ताकि जाट जैसी जातियों के इन पर किये अहसानों के किस्से ही खत्म हो जाएँ| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

Wednesday, 11 December 2019

"अहसान करने से दुश्मन मर जाता है" - भ्रम भरी कहावत है यह; "पानीपत" मूवी इसका साक्षात् उदाहरण है!

अहसान करो तो सिर्फ मानवता पालने के लिए बेशक कर देना, इस बहम में कभी मत करना कि किसी के भीतर का दुश्मन मार दिया या मर जायेगा|

वह राजपूत जो पेशवाओं के लिए सदियों-सदियों इतनी लड़ाइयाँ लड़े, इतने समर्थन दिए; आज भी समाज में इनके सबसे कड़े समर्पित राजपूत ही जाने जाते हैं| फिल्म में क्या दिखाया उनके बारे? सबको यह बोलते हुए कि, "काट लो सर इनका?" ऐसे लोगों का अपना कहलाने का मतलब है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी इनके आगे झुके रहो तो ही तुमको सराहा जायेगा, अपना बताया जायेगा|

जाट महाराजा का उपहास तो खैर उड़ाना ही था, यह तो अपेक्षित ही था| क्योंकि जाटों ने पेशवाओं को कभी इस तरीके से लीडरशिप लेने ही नहीं दी विशाल-हरयाणा की धरती पर जैसे मराठाओं ने इनको महाराष्ट्र में दे रखी थी या आज भी दी हुई है; ताजा-ताजा फडणवीस-पंवार एपिसोड जैसे अपवादों को छोड़ के| और यही वह बिंदु है जिस मामले में जाट, मराठाओं से भी ज्यादा मर्द सोच का माना जाता है| इसलिए तो मराठा, जाट को मिलता है तो कहता है "जय हरयाणा" और तब जाट भी प्रतिउत्तर में बोलता है कि, "जय महाराष्ट्र"; मराठे जानते हैं कि एक जाट ही हैं जो पेशवाओं के बुद्धि-बल के छलावों में कभी नहीं आये; 21वीं सदी के भक्त नामक अपवाद छोड़ दो तो| 

अभी एक साथी ने मेरा "फंडी का डांगर मैनेजमेंट" लेख पढ़ के पूछा कि भाई तो महाराजा जी फंडी की किस केटेगरी में आये? भाई वह "फंडियों का फूफा" वाली केटेगरी में आते हैं| एक वह हैं, दूसरा बड़ा उदाहरण सर छोटूराम हैं| दोनों के किरदार एक ही शिक्षा देते हैं कि सबसे पहले फंडी के चपल उवाचों से अपना बचाव करना सीखो, फिर चाहे फंडी "हिन्दू एकता व् बराबरी" समेत "राष्ट्रवाद" के राग क्यों ना अलाप रहा हो| इनसे बच गए मतलब जीवन पार तर गए, अपना इनसे उन्मुक्त नाम कर गए| जैसे महाराजा सूरजमल व् सर छोटूराम ने किया| एक ने इन पेशवाओं की हेकड़ी निकाली थी और दूसरे ने फंडियों समेत सूदखोरी-जमाखोरी व् कालाबाजारी करने वालों की भी|

इसलिए इनको मारना आवे या ना आवे, इनको परास्त करना आवे या ना आवे; परन्तु इनसे बचना-बचाना जरूर आना चाहिए| क्योंकि अपने धन-बुद्धि-बल का इनके द्वारा प्रयोग नहीं होने देना इनको असली परास्त करना है जैसे महाराजा सूरजमल जी ने पेशवाओं को किया| आमने-सामने की इनकी हेकड़ी निकालने को तो अब्दाली जैसे बहुत मिल जायेंगे, उनको अड़ाते चलो इनके आगे|

देखा ना कि पानीपत की तीसरी लड़ाई में अब्दाली से पिटे-छिते घायल मराठा-पेशवाओं की मरहमपट्टी पर 1761 के जमाने में 10 लाख खर्च कर देने के बाद भी महाराजा सूरजमल इनके भीतर की दुश्मनी-जलन-द्वेष नहीं मार पाए? मदद वाले किस्से में इस मूवी में कुछ दिखाया या नहीं परन्तु उपहास उल्टा खूब उड़ा दिया| इसलिए अहसान करने से कोई दुश्मन-वुष्मन नहीं मरा करते| इंसानियत के लिए करो अहसान, किसी अपेक्षा में कभी मत करना|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

फंडी का डांगर मैनेजमेंट!

आपने गाय-भैंसों के पाळी/चरवाहे सुने होंगे? आईये आपको इंसान रुपी डांगर के चरवाहों से मिलवाता हूँ, उन पालियों/चरवाहों का नाम है फंडी|

इस लेख में आपको जानवरों के बाड़ों/अस्तबलों की भाँति उन ठाणो/ठोरों/खोरों/खूँटों से भी मिलवाता हूँ, जिनमें फंडी आपको आपकी योग्यता के अनुसार बाँध के रखता है या रखने की कोशिश करता है| लेख के अंत में किसी को अगर खुद के जानवर होने का अहसास होवे और फंडी द्वारा हाँके जाने का आभास होवे तो मुझे गाली मत देना| हालाँकि मैं वह उन्मुक्त इंसान हूँ जो वाकई में खुद को इंसान कह सकता है क्योंकि फंडी मेरे जैसों के नाम से ही कन्नी काटते हैं| सनद रहे उन्मुक्त-स्वछंद इंसान ही वह है फंडी का भी फूफा होता है, इसलिए जो फंडी का फूफा है वह बेख़ौफ़ होकर लेख को पढ़े और जो इनके खूंटे बंधा पड़ा है वह मुझे कोसते हुए भी पढ़ेगा तो चलेगा|

बाकी हँसोगे भी बहुत अगर उदारवादी जमींदारी को वाकई में समझने वाले व् उस परिवेश के हुए तो| सोचोगे कि यह फंडी भी क्या गजब चीज है कि जिन थ्योरी-प्रिंसिपल्स के आधार हम जानवरों को पालते हैं, फंडी ज्यों-के-त्यों फंडे इंसान रुपी जानवरों पर लगाते हैं बशर्ते वह पालतू जानवर अगर हों तो| क्योंकि जंगली जानवर यानि स्वछंद व् ताकत वाले इनके काबू भी नहीं आते; इसलिए जो इनके काबू नहीं आता उसको फंडी जंगली-आतंकी के नरेटिव में सेट करके फैलाते हैं और जो पालतू बन जाते हैं, उनको यह "भक्त", "निष्ठावान पुरुष", "मर्यादित पुरुष", "आस्थावान" आदि-आदि के टाइटल से नवाजते हैं| तो आइये जरा ज्यादा नहीं बस थोड़े से ही विस्तार से जान लेते हैं कि क्या नरेटिव्स हैं फंडी नामक पाळी के इंसान रुपी डांगर पर:

बल के आधार पर चार ठाण हैं फंडी के पास पालतू इंसान (जंगली व् इनके फूफे टाइप्स को छोड़ के) को बाँधने के:
1) बाहु-बली - फंडी इसके बाहुबल को इतना प्रमोट करता है कि यह इसको इसी में उलझा के मार देता है|
2) धन-बली - धन वाले की तब तक फंडी स्तुति करेगा जब तक अगले का पीतल ना निकल जाए|
3) बुद्धि-बली - बुद्धि वाले के इमोशनल नर्व पर फंडी जा के बैठता है व् उसको इमोशंस के जरिये मारता है|
4) शौहरत-बलि - समाज की लिहाज-शर्म-गैरत में सर तक डुबो कर मारता है| 

लिंग-वर्ण-नश्ल के आधार पर तीन ठाण हैं:
1) लिंगवादी - किसी घर में मर्दवाद हावी है तो उसको बदनाम करने का भय दिखा के अपने खूंटे बढ़ने की कहता है, और अगर स्त्रीवाद हावी है तो स्त्री को घर के नफे-नुकसान-जेठानी-देवरानी से जलन-असुरक्षा-भय के जाल में  फँसा के अपने खूंटे बांधता है| 
2) वर्णवादी - छूत-अछूत-ऊँच-नीच के सारे तन्त्रम इस खूँटे पर होते हैं| जो इसमें आन बँधा समझो सदियों-जमानों के लिए गया|
3) नश्लवादी - धर्म-पंथ का गहरा कुआँ| इतना गहरा कि उस कुँए से निकालने वाला गैर-धर्मी भी हुआ तो ऊपर आ के उसको ही कुँए में धकेलोगे कि जैसे उसने ही इसमें धकाया था|

कर्म के आधार पर:
1) फंडी के भीतर के ठाण - यह वह केटेगरी है जहाँ फंडी की खुद की खोरें तय की जाती हैं| ऊंच जाति के यहाँ तू चरेगा और नीच के यहाँ तू| ज्यादा पैसे वाले के तू जायेगा, कम वाले के वह| ज्यादा पढ़े-लिखे के घर तू जायेगा और अनपढ़ के घर तू| ज्यादा शौहरत वाले के तू जायेगा और सामान्य के तू| 
2) व्यापार - इसका व्यापार बिगड़ने-बिगाड़ने के भय दिखाकर या इसका कारोबार बढ़वाने का लालच देकर इसको इस खूँटे बांधता है| 
3) जमींदार - सामंतवादी जमींदार इस खूँटे का सबसे बड़ा लागू होता है| उदारवादी जमींदार अगर वर्ण के खूँटे से बंधा होगा तो इसमें वह भी काउंट होता है अन्यथा उदारवादी जमींदार ही पालतू की बजाये सबसे ज्यादा जंगली व् फंडी का फूफा केटेगरी में आता है| 
4) कामगार - यानि कर्मचारी व् मजदूर| यह लोग फंडी का सबसे सहज शिकार होते हैं|

मनोविज्ञान के आधार पर:
1) भावुक
2) नाजुक
3) चाबुक
4) स्वार्थी
5) कपटी
6) डरपोक
7) द्वेषी
8) क्लेशी

इन आठों खूँटों में जिसमें जिस खूंटे की जितनी गुंजाइस, उसकी फंडी द्वारा उसी खूंटे से जोर-आजमाइश|

इस तरह बल-नश्ल-कर्म-मनोविज्ञान यह चार ठाण हैं, इनके नीचे की सब-केटेगरी वह खूँटें हैं जिनपर फंडी एक-एक इंसान को जानवर की भांति बाँधने की कोशिश करता है| हाँ, इन खूँटों पर बँधता वही है जो पालतू किस्म का हो, जंगली व् फंडियों का फूफा केटेगरी वाले इसमें नहीं आते|

इन खूँटों को विस्तार से एक अन्य लेख में लिखूंगा कभी फुरसत में| फ़िलहाल आप कौनसे ठाण व् खूँटे बंधे हैं खुद मिलाप कर लें व् कोशिश करें उस ठाण व् खूँटे से खुद को खुलाने की|

और जो फंडियों के इन खूँटों पर बंधे जानवरों को खोलकर आजाद करना चाहते हैं वह पहले हर खूंटे पर बंधे जानवर के खतरों को अच्छे से जांचना-मापना-समझना सीख लें; वरना याद रखिये पालतू जानवर सबसे पहले उसको खोलने आने वाले अनजान से ही बिदकता है, जबकि फंडी चाहे उसका खूँटा बदले या ठाण वह उसको अपना ही लगता है|

तो फंडियों के खिलाफ लड़ाई इतनी सहज नहीं है| यह एक बहुत कॉम्प्लिकेटेड मनोविज्ञान है| यह लड़ाई लठ से कम व् मनोविज्ञान से ज्यादा लड़ी जानी है| इसलिए जो भी जंगली कहलाता हो या फंडियों का फूफा कहलाता हो, उसके लिए लाजिमी है कि वह लठ से पहले मानसिक तौर पर इतना मजबूत कम-से-कम जरूर होवे या खुद को करे कि इन ऊपर बताये ठाणो व् खूँटों के इर्दगिर्द मजमा जानता/जानती हो| क्योंकि कौन किस खूँटें से बँधा है उस खूँटें का मजमा क्या है; वह जानोगे तभी पालतू इंसान को फंडी के ठाण से खोल पाओगे और अपने साथ भी ले पाओगे| 

नोट: या तो कमेंट करें नहीं और करें तो इस लेख में जो मान-मर्यादा की दीवार बरकरार रखी गई है उसी स्टाइल में कमेंट करें| वैसे भी मैं साइलेंस को किल करने के लिए लिखता हूँ, बोलते हुए को चुप करवाने के लिए नहीं| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

Tuesday, 10 December 2019

इतिहासकारों की दृष्टि में महाराजा सूरजमल कैसे थे और उनकी क्या उपलब्धियाँ थीं?

इस बारे में दो साल पहले एक आलेख पोस्ट किया था। उसी आलेख को दुबारा पोस्ट कर रहा हूँ।​ ​फ़िल्म-निर्माता हक़ीक़त की बज़ाय फ़साने को तरज़ीह देता है। महाराजा सूरजमल के असली स्वरूप को जानने के लिए ये आलेख पढ़िए।

महाराजा सूरजमल: एक शूरवीर एवं स्वाभिमानी शासक
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जन्म: 13 फरवरी 1707 

ताजपोशी: 22 मई 1755, डीग में

वीरगति: 25 दिसम्बर 1763

अट्ठारवीं शताब्दी को भारतीय इतिहास की सबसे अस्थिर, उथल-पुथल से भरी और डांवाडोल शताब्दी माना जा सकता है। इस शताब्दी के जिस रियासती शासक में वीरता, धीरता, गम्भीरता, उदारता,सतर्कता, दूरदर्शिता, सूझबूझ, चातुर्य और राजमर्मज्ञता का सुखद संगम सुशोभित था, वह था महाराजा सूरजमल। मेल-मिलाप और सह-अस्तित्व तथा समावेशी सोच को आत्मसात करने वाली भारतीयता का वह सच्चा प्रतीक था। 

भरतपुर जहां स्थित है, वह इलाका सोघरिया जाट सरदार रुस्तम के अधिकार में था। यहां पर सन 1733 में भरतपुर नगर की नींव डाली गई। सन 1732 में बदनसिंह ने अपने 25 वर्षीय पुत्र सूरजमल को डीग के दक्षिण-पश्चिम में स्थित सोघर गांव के सोघरियों पर आक्रमण करने के लिए भेजा। सूरजमल ने सोघर को जीत कर वहाँ राजधानी बनाने के लिए किले का निर्माण शुरू कर दिया। भरतपुर में स्थित यह किला लोहागढ़ किला (Iron fort) के नाम से जाना जाता है। यह देश का एकमात्र किला है, जो विभिन्न आक्रमणों के बावजूद हमेशा अजेय व अभेद्य रहा। बदन सिंह और सूरजमल यहां सन 1753 में आकर रहने लगे।

भरतपुर के किले का निर्माण- कार्य शुरू करने के कुछ समय बाद बदनसिंह की आंखों की ज्योति क्षीण होने लगी। अतः उसने विवश होकर राजकाज अपने योग्य और विश्वासपात्र पुत्र सूरजमल को सौंप दिया। वस्तुतः बदनसिंह के समय भी शासन की असली बागडोर सूरजमल के हाथ में रही। 

मुगलों, मराठों व राजपूतों से गठबंधन का शिकार हुए बिना ही सूरजमल ने अपनी धाक स्थापित की। घनघोर संकटों की स्थितियों में भी राजनीतिक तथा सैनिक दृष्टि से पथभ्रांत होने से बचता रहा। बहुत कम विकल्प होने के बावजूद उसने कभी गलत या कमजोर चाल नहीं चली। उसने यत्न किया कि संघर्ष का पथ अपनाने से पहले सब शांतिपूर्ण उपायों को अवश्य आज़माया जाए।
नवजात जाट राज्य की रक्षा करने और उसे सुरक्षित बनाए रखने के लिए उसने साहस तथा सूझबूझ का परिचय दिया।

रण-कौशल और चतुराई में अव्वल:

1.बागड़ू की लड़ाई

सन 1743 में जयपुर-नरेश सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद राजगद्दी पर आसीन होने के मसले पर उसके पुत्रों ईश्वरी सिंह और माधो सिंह में भ्रातृघाती युद्ध हुआ। माधो सिंह की मां उदयपुर की होने के कारण मेवाड़ के राणा ने अपने पद और प्रभाव का प्रयोग करके अपने भांजे के लिए प्रबल समर्थक जुटा लिया। मराठों तथा जोधपुर, बूंदी और कोटा के शासकों ने भी माधोसिंह का साथ दिया। केवल भरतपुर के सिनसिनवार बदन सिंह ने जयसिंह को दिए अपने वचन को निभाते हुए ईश्वरी सिंह को सक्रिय सहयोग प्रदान करने के लिए अपने वीर पुत्र सूरजमल को जयपुर भेजा। सूरजमल ने दस हज़ार घुड़सवार ,दो हज़ार पैदल सैनिक और दो हज़ार बर्छेबाज को साथ लेकर कुम्हेर से जयपुर की ओर कूच किया। उसकी सेना में जाट, गुर्जर, अहीर, राजपूत और मुसलमान थे। ईश्वरी सिंह ने सूरजमल को बराबरी का सम्मान देते हुए उसका स्वागत किया।

ईश्वरीसिंह और माधोसिंह की सेनाओं का आमना- सामना 21 अगस्त 1748 को जयपुर से 18 मील दूर दक्षिण-पश्चिम में स्थित बागड़ू में हुआ। बेशक युद्ध बेमेल था। माधोसिंह के पक्ष में शामिल नामी योद्धाओं में मल्हारराव होलकर, गंगाधर टांटिया ,मेवाड़ के महाराणा, जोधपुर नरेश तथा कोटा व बूंदी के राजा थे। उसकी सहायता करने के लिए महाराणा, राठौड़, सिसोदिया, हाड़ा, खींची व पंवार सब शासक शामिल थे। ईश्वरी सिंह के साथ लड़ने वाला सूरजमल अप्रसिद्ध- सा था। सूरजमल के सैनिक संख्या में अवश्य कम थे, परन्तु भली -भांति प्रशिक्षित थे। उनका सेनापति सूरजमल परखा हुआ शूरवीर था। ईश्वरी सिंह की सेना के अग्र भाग का नेतृत्व संभालने वाला सीकर का सरदार शिव सिंह युद्ध के दूसरे दिन युद्ध के मैदान में ढेर हो गया। तब तीसरे दिन हरावल (अग्रभाग) का नेतृत्व सूरजमल को सौंपा गया। मराठा सरदार मल्हारराव होलकर ने गंगाधर टांटिया को एक शक्तिशाली सैन्य दल के साथ ईश्वरी सिंह की तैनाती वाले सेना के पृष्ठ भाग पर अचानक धावा बोल देने के लिए भेज दिया। युवा सूरजमल ने आगे बढ़ते हुए शत्रु-सेना के पार्श्व भाग पर धावा बोल दिया। दो घंटे तक भीषण युद्ध हुआ। अंत में गंगाधर को पीछे धकेल दिया। सूरजमल ने छिन्न-भिन्न पृष्ठभाग को फिर व्यवस्थित किया। उस घोर संकट के समय सूरजमल ने लड़ाई में जबरदस्त शौर्य दिखाया। सूरजमल की वीरता ने हारती बाजी को पलट दिया। ईश्वरीसिंह को राजगद्दी पर आसीन करवाने में वह सफ़ल हो गया। रण-भूमि में इस जीत ने सूरजमल को विख्यात कर दिया। 

"सूरजमल की नेतृत्व शक्ति और उसके सैनिकों के पराक्रम की ख्याति तेजी से फैल गई, और देश के उच्चतम शासकों की ओर से बार-बार उसके पास सैनिक सहायता की मांग आने लगी।"( गंगासिंह, यदुवंश ,पृष्ठ 156)

2 . मुगलों से मुकाबला

20 जून 1749 को जोधपुर नरेश महाराजा अभयसिंह की मृत्यु के बाद महाराजा की गद्दी पर आसीन हुए रामसिंह को उसके मामा बख़्त सिंह ने चुनौती दी। रामसिंह ने आमेर के तत्समय राजा ईश्वरीसिंह से सहायता मांगी। मुगल सम्राट अहमदशाह ने बख़्त सिंह का समर्थन करते हुए नवंबर में मीर बख्शी सलाबतजंग को 18000 सैनिकों के साथ उसकी सहायता के लिए भेजा। मीर बख्शी ने जाट राजा के अधीन मेवात के रास्ते जोधपुर जाने का निश्चय किया। योजना यह थी कि मीर बख्शी जाटों से आगरा और मथुरा सूबे के उन भागों को भी वापस छीन लेगा, जिन पर उन्होंने कब्जा कर लिया था। जाटों से निपटने के बाद मीर बख्शी को मारवाड़ पहुँचकर बख़्तसिंह से जा मिलना था।

मीर बख्शी ने जाट-राज्य में मेवात को लूटा और नीमराना के मिट्टी से बने किले पर 30 दिसम्बर 1749 को अधिकार कर लिया। अभिमान से चूर हो चुके मीर बख्शी ने सूरजमल को सबक सिखाने की ठान ली और सराय शोभचंद आ धमका। सूरजमल ने अपने छ हज़ार सैनिकों का नेतृत्व करते हुए सन 1750 के नववर्ष के दिन मुगल-सेना को चारों ओर से घेर लिया। सूरजमल के साथ जाट सरदार थे। मीर बख्शी चारों तरफ से घिर गया था। आक्रमण में सैनिकों के साथ दो प्रमुख मुगल सेनाध्यक्ष अली रुस्तम खां और हकीम खां भी मारे गए। मीर बख़्शी अब सूरजमल के वश में था। तीन दिन बाद उसने लड़ाई की जिद्द छोड़कर सूरजमल से संधि की याचना की। सूरजमल ने संधि के लिए निम्नलिखित चार शर्तें रखीं और मीर बख्शी ने इन्हें स्वीकार कर लिया:

1. सम्राट की सरकार पीपल के वृक्षों को न कटवाने का वचन देगी;
2. इस वृक्ष की पूजा में कोई बाधा नहीं डालेगी;
3 . इस प्रदेश के हिंदू मंदिरों का अपमान या नुकसान नहीं करेगी;
4. सूरजमल अजमेर प्रांत की मालगुजारी के रूप में राजपूतों से 15 लाख रुपए लेकर शाही खजाने में दे देगा, बशर्ते मीर बख्शी नारनोल से आगे न बढ़े ...। 

इस सफलता से सूरजमल और जाटों में नया आत्मविश्वास भर गया। जाटों का सैनिक सामर्थ्य प्रमाणित हो गया। इस संधि की शर्तों में स्पष्ट रूप से ब्रज- मंडल में भरतपुर के शासकों की उत्कृष्ट स्थिति को मान्यता दी गई थी, जिससे 'बृजराज'उपाधि का औचित्य सिद्ध होता है। सूरजमल के अलावा दूसरा कोई राजा नहीं हुआ जो ऐसी शर्तें मुस्लिम शासकों से मनवा सका।

3. दिल्ली में सूरजमल की धमक

सन 1748 में मुगल सम्राट मुहम्मदशाह की मृत्यु के बाद शहज़ादा अहमदशाह शाहंशाह और अवध का सूबेदार सफ़दरजंग वजीर बना। मुगल दरबार में आपसी कलह से घोर अव्यवस्था का दौर शुरू होना लाज़िम था। सफदरजंग को उसकी निजी जागीर बल्लभगढ़ व रुहेलखंड में विद्रोह का सामना करना पड़ा। इनमें से पहले संग्राम में सूरजमल ने उसका विरोध किया और दूसरे में उसका समर्थन किया। मुगल दरबार में सफदरजंग के काफी शत्रु थे और रुहेलों ने भी उसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया। ऐसी स्थिति में उसने सूरजमल का नाम अपने विरोधियों की सूची में जोड़ना ठीक नहीं समझा। दोनों में हुए समझौते के तहत झगड़ा खत्म हो गया। रुहेले जब सफदरजंग के प्रभुत्व को खुली चुनौती देने लगे तो बंगश पर चढ़ाई करने के अभियान में सफदरजंग के साथ सूरजमल था। उसने अहमद बंगश की राजधानी फर्रुखाबाद पर अधिकार कर लिया।

रुहेलों के विरुद्ध संग्राम में जाटों ने जो सराहनीय वीरता दिखाई उससे बल्लभगढ़ की समस्या का हल सूरजमल ने अपनी इच्छा के अनुकूल करवा लिया। रुहेलों का दमन करने के लिए दूसरी बार प्रस्थान करने से पहले सफदरजंग ने मराठों से मैत्री- संधि कर ली। जाट और मराठा सैनिकों ने रुहेला प्रदेश को तहस-नहस कर डाला। दिल्ली लौटकर सफदरजंग ने रुहेलों के विरुद्ध अपने दो संग्रामों में सूरजमल द्वारा दी गई सहायता को कृतज्ञतापूर्वक याद रखा। 20 अक्टूबर 1752 को जब वज़ीर सफ़दरजंग के साथ सूरजमल दरबार में उपस्थित हुआ तो सम्राट ने सूरजमल को 'राजेंद्र' की उपाधि देकर 'कुंवर बहादुर' और उसके पिता बदनसिंह को 'महेंद्र' की उपाधि देकर 'राजा' बना दिया। 

कालांतर में मुग़ल दरबार में कलह का खेल कुछ ऐसा चला कि सफदरजंग और सम्राट के बीच तनातनी चरम पर पहुंच गई। सम्राट ने सफदरजंग को पदच्युत कर उसकी जागीरें ज़ब्त कर लीं। सफदरजंग ने अपने अहसान फ़रामोश बादशाह को सबक सिखाने के लिए दिल्ली पर घेरा डाल दिया और सूरजमल से सहायता की गुहार की। मार्च से नवंबर 1753 तक दिल्ली में गृह- युद्ध के हालात बने रहे। सफदरजंग की पुकार पर सूरजमल मई के पहले सप्ताह में विशाल सेना तथा 15 हज़ार घुड़सवार लेकर दिल्ली जा धमका। तत्कालीन नवाब गाजीउद्दीन( इमाद ) से जोरदार लड़ाई लड़ी। 9 मई और 4 जून1753 के बीच जाटों ने पुरानी दिल्ली में अपनी मनमर्जी चलाई। 16 मई को तो उन्होंने वहाँ खूंखार तरीके से उधम मचाई। बादशाह की सेना लाचार बनी रही; कुछ नहीं कर सकी।

'तारीख़-ए- अहमदशाह' के लेखक ने यह लिखा है: "जाटों ने दिल्ली के दरवाजे तक लूटपाट की ; लाखों- लाख लूटे गए; मकान ढहा दिए गए; और सब उपनगरों ( पुरों ) में और चुरनिया और वकीलपुरा में तो कोई दीया ही नहीं दीखता था।" उसी समय से 'जाट- गर्दी' शब्द प्रचलन में आया। परंतु यह भी याद रखना होगा कि इसके तत्काल बाद अहमदशाह अब्दाली की 'शाह-गर्दी' और मराठों की 'भाऊ-गर्दी' के सामने सूरजमल के सैनिकों द्वारा की गईं ज्यादतियां फीकी पड़ गई थीं।

सूरजमल ने जब तक अपनी तलवार म्यान में रखने से इंकार कर दिया जब तक कि उसके मित्र सफदरजंग को अवध और इलाहाबाद के उपराजत्व वापस न दे दिए जाएं। अंत में इन शर्तों पर संधि हो गई। सूरजमल ने सफ़दरजंग से मित्रता-धर्म निभाते हुए उसे विनाश से बचा लिया, चाहे इसके कारण उसे गाजीउद्दीन की कट्टर शत्रुता मोल लेनी पड़ी। दिल्ली की हार का बदला लेने एवं सूरजमल को डराने के लिए नवाब गाजीउद्दीन (इमाद ) ने दक्षिण से मराठा मल्हारराव होलकर को सूरजमल पर आक्रमण करने के लिए न्योता दिया।

4. मुग़ल-मराठा संयुक्त सेना से मुकाबला

सूरजमल सतर्क एवं चतुर पुरुष था। वह संघर्ष के रास्ते पर आगे बढ़ने से पहले सब शांतिपूर्ण उपायों को आजमाए जाने के पक्ष में रहता था। वह अपने पांव रखने से पहले जमीन को जांच लेता था। साहस और धैर्य दोनों ही गुण उसमें थे। मराठों के विपरीत, सूरजमल अपनी चादर से बाहर पांव पसारने या अपने सामर्थ्य से अधिक जिम्मेदारी अपने सिर लेने से बचता था। 

सूरजमल मराठों के साथ तनातनी से बचने का प्रयास करता रहा। परंतु मराठों के मन में संधि नहीं, लूट का लालच भरा था। फलता-फूलता जाट- राज्य उनकी खीझ व लोभ का कारण बन गया था। मराठों द्वारा सूरजमल को नीचा दिखाने की कुटिल चालें चली जा रहीं थीं। सन 1753 के दिसंबर के अंत में खांडेराव ने दिल्ली में मुगल सम्राट तथा इमाद के सम्मुख यह बात स्पष्ट कर दी थी --'मैं अपने पिता के आदेश से यहां सूरजमल के विरुद्ध आपके अभियान में सहायता देने आया हूं... ।'

सूरजमल के राज्य के केंद्र में स्थित सामरिक महत्व के कस्बे कुम्हेर में मुगल- मराठा की सम्मिलित सेना ( 80 हजार से अधिक सैनिक जिनमें जयपुर-नरेश द्वारा मल्हारराव के साथ भेजी गई छोटी-सी सेना भी शामिल थी। ) ने जनवरी 1754 में घेरा डाल दिया। कुछ समय बाद मीर बख्शी अर्थात मुग़ल सम्राट की सेनाओं के प्रधान सेनापति गाजीउद्दीन खां शाही सेनाओं के साथ मराठों की सहायता के लिए आ पहुंचा। इस विशाल सेना के सम्मुख भी सूरजमल ने हिम्मत नहीं हारी और उसने मई 1754 तक चार माह तक डटकर मुकाबला किया।

सूरजमल संकट और संग्राम की स्थिति में काल और परिस्थिति के हिसाब से चाल चलने में माहिर था। कुम्हेर पर चढ़ाई के दौरान मल्हारराव का रूपवान वीर पुत्र खंडेराव जाटों की एक हल्की तोप के गोले से 15 मार्च 1754 को मारा गया। खाँडेराव का पिता मल्हारराव 'शोक से बिल्कुल पागल सा हो गया और उसने प्रतिज्ञा की कि वह इसका बदला जाटों का समूल नाश करके लेगा।' 

मल्हारराव ने आक्रमण का दबाव बढ़ाया। सूरजमल की सहायता के लिए कोई नहीं आया। रानी हंसिया ने मराठा शिविर की फूट और गुटबंदियों की जानकारी प्राप्त कर जियाजीराव सिंधिया के पास एक पत्र भिजवाया। सिंधिया और सिनसिनवार शासकों के मध्य हुए इस संपर्क के समाचार का पता चलते ही मल्हारराव होल्कर के हौसले टूट गए। उसने परिस्थितियों का मूल्यांकन करते हुए 18 मई 1754 को सूरजमल से संधि कर ली। इस घेरे की समाप्ति के समय सूरजमल का राज्य ज्यों का त्यों था और उसकी प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई। 

"सूरजमल की धाक इस घेरे के दिनों में और भी बढ़ गई थी और सारे हिंदुस्तान भर छा गई थी; अब उसे यह यश और प्राप्त हो गया कि वह उन दो सरदारों से, जो अपनी -अपनी सेनाओं में उसके पद के समकक्ष थे, सौदेबाजी करने में और उनसे अपनी मनचाही शर्तें मनवाने में सफल हुआ।"( फ़ादर वैन्देल , और्म की पांडुलिपि ) 
कुम्हेर के घेरे से सूरजमल के कुशल और अक्षत बच जाने में चरित्र बल एवं सौभाग्य के साथ-साथ रानी हंसिया के साहसपूर्ण प्रयत्न और उनके सुयोग्य सलाहकार/विश्वसनीय मंत्री रुपाराम कटारिया के संधि वार्ता कौशल से भी बहुत सहायता मिली।

5. अहमदशाह अब्दाली से मुकाबला:

18 वीं शताब्दी के मध्य में मुगल साम्राज्य दुर्बलता, अराजकता और दरिद्रता की चपेट में आ चुका था। अफगानी आक्रांता अहमदशाह अब्दाली ने सन 1756 में पंजाब को जीतकर दिल्ली की ओर कूच कर दिया। 27 जनवरी 1757 को अब्दाली आतंक मचाने की नीयत से दिल्ली के बाहरी अंचल में आ धमका। 29 जनवरी को मुगल सम्राट आलमगीर द्वितीय अब्दाली के समक्ष नतमस्तक हो कर उपस्थित हो गया। क्रूर स्वभाव के लिए कुख्यात अब्दाली ने एक महीने तक दिल्ली में आतंक मचाए रखा। 22 फरवरी 1757 को 'दिल्ली में अपना काम निपटा कर और आलमगीर द्वितीय को उसका राजसिंहासन दुबारा देकर अहमदशाह दुर्रानी ने जाट राजा से राज-कर वसूल करने के लिए दक्षिण की ओर कूच किया'।( जदुनाथ सरकार, 'फॉल ऑफ द मुगल एंपायर', खंड 2 पृष्ठ 80 )

अब्दाली के मन में उस समय हिंदुस्तान में सबसे धनी शासक सूरजमल का धन हड़पने की इच्छा बलवती हो चली। उसने सूरजमल के पास संदेश भिजवाया कि वह राज-कर देने के लिए उसके पास हाजिर हो, उसके झंडे के नीचे रहकर सेवा करे और जिन इलाकों को उस ने हाल ही में हथियाया है, उन्हें लौटा दे। सूरजमल ने इस बुलावे की परवाह नहीं की। मथुरा की रक्षा का भार अपने पुत्र जवाहर सिंह को सौंपकर वह डीग लौट गया। जवाहरसिंह ने उतावलापन दिखाया। फरीदाबाद और बल्लभगढ़ के आसपास लूटमार कर रही एक अफ़ग़ान टुकड़ी पर आक्रमण कर उसे हरा दिया। यह सुनकर अब्दाली का गुस्सा और फूट पड़ा। उसने अपने वरिष्ठ सेनापति अब्दुस्समद खां को जवाहर सिंह पर घात लगाकर हमला करने का आदेश दिया। परन्तु जवाहर सिंह मामूली सा नुकसान उठाकर किसी तरह बच निकला और बल्लभगढ़ पहुंच गया।

जब अब्दाली ने जाट इलाके की ओर प्रस्थान किया, तब सम्राट आलमगीर ने उसे विदाई दी। 25 फरवरी को वह बदरपुर में था; वहां अब्दुस्समद खां ने उसे बताया कि जवाहर सिंह बच निकला है। अब्दाली ने बल्लभगढ़ के घेरे का संचालन ख़ुद करते हुए कत्लेआम किया परन्तु राजकुमार जवाहर सिंह वहाँ से चकमा देकर निकल चुका था।

क्रोध से तिलमिलाए अब्दाली ने नजीबुद्दौला और जहान खां को बीस हज़ार सैनिकों के साथ जाट-राज्य में अलग भेजकर यह हुक़्म दिया: "उस अभागे जाट के राज्य में घुस जाओ; उसके हर शहर और हर जिले को लूटकर उजाड़ दो। मथुरा नगर हिंदुओं का तीर्थ है। मैंने सुना है कि सूरजमल वहीं है। इस पूरे शहर को तलवार के घाट उतार दो। जहां तक बस चले, उसके राज्य में और आगरा तक कुछ मत रहने दो; कोई चीज खड़ी नहीं रह पाए ।"( के. आर. कानूनगो , 'हिस्ट्री ऑफ द जाट्स',पृ.99)

अब्दाली के आदेशों को क्रियान्वित करने में नजीब और जहान खां ने अति उत्साह दिखाया परंतु मथुरा पहुंचने से पहले उन्हें इस नगर से आठ मील दूर उत्तर की ओर चौमुहां में दस हज़ार लड़ाकू जाटों का सामना करना पड़ा। प्रसिद्ध इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ने इसका वृतांत इन शब्दों में प्रस्तुत किया है:

'' यह सत्य है कि दिल्ली- आगरा प्रदेश और यमुना के परले किनारे के दोआब को तीन बरस तक बुरी तरह चूसते रहने के बाद मराठे भाग गए थे। इन पवित्रतम वैष्णव तीर्थों की रक्षा में एक भी मराठे का खून नहीं बहा। परंतु जाट किसानों ने दृढ़ निश्चय किया था कि विनाशकारी लुटेरा उनकी लाशों के ऊपर से गुजर कर ही ब्रज की पवित्र राजधानी तक पहुंच सकेगा।'' (जदुनाथ सरकार, फॉल ऑफ द मुगल एम्पायर, खंड 2 पृ.82 )

महान प्रामाणिक लेखक नीरद सी .चौधरी ने चौमुहां की लड़ाई पर प्रकाश डालते हुए लिखा है :

''सन 1757 में अफगानिस्तान के शाह अहमदशाह अब्दाली ने मथुरा पर चढ़ाई की और आदेश दिया--- 'मथुरा नगर हिंदुओं का पवित्र स्थान है। इसे तलवार के घाट उतार दिया जाए। आगरा तक एक भी इमारत खड़ी न रहने पाए।'

अफगानों की शक्ति को भली -भांति जानते हुए भी ब्रजभूमि के किसान, राजकुमार जवाहर सिंह (सूरजमल का पुत्र) के नेतृत्व में रास्ते में अड़ गए। मथुरा से आठ मील दूर चौमुहां में दस हज़ार जाट नौ घंटे तक लड़े जब तक कि वे पराजित न कर दिए गए।'' ( नीरद सी. चौधरी, 'द कॉन्टिटेंट ऑफ सर्स् पृ.101 )

राजपुताना व अन्य राज्यों के राजा अपनी रियासतों में ही बैठे रहे, तुनुक मिज़ाजी और निठल्लेपन में डूबे हुए; रखैलों और सनकी लोगों से घिरे; दिन में मदिरा में मदमस्त और रात्रि में श्रान्त- क्लान्त।

1 मार्च 1757 को मथुरा की जो लाज लुटनी शुरू हुई, उससे दूसरी रियासतों के शासकों को कोई वास्ता ही नहीं था। पुजारियों से भरे नगर की नींद तोपों की गर्जन की आवाज से खुली। दो दिन पूर्व संपन्न होली के उत्सव पर मथुरा में हिंदुस्तान के सभी भागों से तीर्थयात्री आए हुए थे। वे सब नजीब और जहान खां की तोपों के शिकार हो गए। एक विभत्स रक्त-रंजित होली खेली गई। यह था अफगानी आक्रांताओं की पाशविकता तथा उग्रता का एक नमूना।

अफगानी लुटेरों ने 6 मार्च को अपना रुख वृंदावन की ओर किया और वहां भी कत्लेआम मचाया। उसके बाद अब्दाली की सेनाएं आगरा की ओर बढ़ी। अब्दाली ने पहले आगरा में लूटमार करके सुरजमल के किलों-- भरतपुर ,डीग या कुम्हेर-- को जीतने की योजना बना ली थी। वह सूरजमल से बड़ी राशि भेंट के रूप में ऐंठने का ख़्वाब देख रहा था। 21 मार्च को जहान खां ने 15 हज़ार घुड़सवारों के साथ आगरा पर धावा बोल दिया और निर्दयता से लूट मार की। इसी दौरान हैजे की महामारी की चपेट में आने से अब्दाली के सैकड़ों सैनिक मौत के मुँह में समाने लगे। सूरजमल को पत्र भेजकर अब्दाली ने धमकी दी कि यदि वह कर ( नज़र ) देने में आनाकानी करता रहा तो इसके परिणाम भयंकर होंगे। उसने पत्र में संकेत किया था कि भरतपुर, डीग और कुम्हेर के किलों को भूमिसात कर दिया जाएगा। सूरजमल ने दृढ़ता के साथ चतुराई का,अप्रतिम साहस के साथ खिझाने वाली स्पष्टवादिता का, अभिमान के साथ विनय का मिश्रण दर्शाते हुए बड़ी धीरता से भरा पत्र अब्दाली को भेजा, जिससे अब्दाली को यह बात समझ में आ गई कि सूरजमल अकर्मण्य राजा नहीं है। मार्च 1757 में सूरजमल द्वारा लिखे पत्रों का उल्लेख दिल्ली के तत्कालीन वज़ीर इमाद ने अपनी पुस्तक 'तजि्करा-ए-इमादुल्मुल्क' में किया है। इतिहास की अमूल्य धरोहर इस पत्र में राजमर्मज्ञ सूरजमल ने यह लिखा था:

" ...यह अचरज़ की बात है कि इतने बड़े दिलवाले हुज़ूर ने इस छोटी-सी बात पर विचार नहीं किया और इतनी सारी भीड़ और इतने बड़े लाव-लश्कर के साथ इस साधारण तुच्छ-से अभियान पर स्वयं आने का कष्ट उठाया। जहाँ तक मुझे और मेरे प्रदेश को कत्ल करने और बरबाद कर देने की धमकी-भरे आदेश का प्रश्न है, वीरों को इस बात पर कोई भय नहीं हुआ करता। सभी को मालूम है कि कोई भी समझदार व्यक्ति इस क्षण-भंगुर जीवन पर तनिक भी भरोसा नहीं करता। जहाँ तक मेरी बात है, मैं जीवन की पचास सीढियां पहले ही पार कर चुका हूँ और अभी कितनी और पार करनी बाकी हैं, यह मुझे कुछ पता नहीं। मेरे लिए इससे बढ़कर कोई वरदान नहीं हो सकता कि मैं शहादत/बलिदान के अमृत की घूंट का पान करूँ--यह देर-सवेर बहादुर सैनिकों को युद्ध के मैदान में करना ही पड़ेगा--और यादगार के रूप में युग के इतिहास के पृष्ठों पर मेरा और मेरे पूर्वजों का नाम रह जायेगा कि एक साधारण किसान ने एक इतने बड़े शक्तिशाली सम्राट से, जिसने बड़े -बड़े राजाओं को जीतकर अपना दास बना लिया था, उससे बराबरी से लड़ा और लड़ते- लड़ते वीर-गति को प्राप्त हुआ। ऐसा ही शुभ संकल्प मेरे निष्ठावान अनुयायियों और साथियों के हृदय में विद्यमान है...

मेरे इन तीन किलों (भरतपुर ,डीग और कुम्हेर ) के बारे में, जिन पर हुज़ूर का रोष है और जिन्हें हुज़ूर के सरदारों ने मकड़ी के जाले- सा कमजोर बतलाया है, सच्चाई की परख असली लड़ाई के बाद ही हो पाएगी। भगवान ने चाहा तो वे सिकंदर के गढ़ जैसे हीअजेय ही रहेंगे ।"

प्रोफेसर गंडासिंह ने अहमदशाह अब्दाली की सूरजमल हुई समझौता- वार्ता की चर्चा का संक्षिप्त विवरण इन शब्दों में प्रस्तुत किया है:

" धन से भरपूर राजकोष, सुदृढ़ दुर्गों, बहुत बड़ी सेना और प्रचुर मात्रा में युद्ध- सामग्री के कारण सूरजमल ने अपना स्थान नहीं छोड़ा और वह युद्ध की तैयारी करता रहा। उसने अहमदशाह अब्दाली के दूतों से कहा, 'अभी तक आप लोग भारत को नहीं जीत पाए हैं... अगर आपमें सचमुच कुछ दम है, तो मुझ पर चढ़ाई करने में इतनी देर किसलिए?" 

अब्दाली जितना समझौते की कोशिश करता गया, उतना ही सूरजमल का अभिमान और धृष्टता बढ़ती गई। उसने कहा," मैंने इन किलों पर बड़ी धनराशि खर्च की है। यदि अहमद शाह अब्दाली मुझसे लड़े तो यह उसकी मुझ पर कृपा होगी, क्योंकि तब दुनिया भविष्य में यह याद रख सकेंगे कि एक बादशाह बाहर से आया था और उसने दिल्ली जीत ली थी, पर वह एक मामूली से जमींदार के मुकाबले में आकर लाचार हो गया।" 

सूरजमल के अभेद्य किलों की भनक मिलने पर अब्दाली वापस कंधार लौट गया। इस प्रकार अब्दाली का संग्राम सैनिक दृष्टि से असफल रहा। सूरजमल ने बाजी जीत ली थी। उसके किलों को हाथ तक नहीं लगाया गया। दोआब में उसे नगण्य से राज्य-क्षेत्र की हानि हुई। चौमुंहा में सूरजमल के पुत्र जवाहर सिंह ने जो वीरता दिखाई, उससे यह साबित हो गया कि हिंदुस्तान में केवल भरतपुर के जाट ही ऐसे लोग हैं, जो अपने धर्म-स्थानों की रक्षा के लिए प्राण न्योछावर करने को उद्यत रहते हैं।

जनवरी 1760 के प्रथम सप्ताह में अहमदशाह अब्दाली दिल्ली फिर पहुंच गया और सम्राट- विहीन तथा वजीर- विहीन राजधानी का मालिक बन बैठा। 14 जनवरी को उसने सूरजमल तथा राजपूताना के अन्य राजाओं को पत्र भेजकर राज-कर देने और उसके सामने पेश होने का फ़रमान भिजवाया। सूरजमल की टालमटोल की चालों से विचलित हो उठे अब्दाली ने फरवरी के शुरू में डीग पर घेरा भी डाला परंतु सूरजमल की कूटनीतिक चाल के कारण घेरा उठाकर उसने अपना ध्यान मराठों की ओर फेर लिया।

6. सूरजमल और पानीपत की तीसरी लड़ाई

पानीपत की तीसरी लड़ाई 14 जनवरी 1761 को मराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच हुई। सदाशिव भाऊ इस लड़ाई के मैदान में बिना किसी गैर- मराठा हिंदू राजा या जागीरदार की सहायता के उतर गया। पेशवा ने राजपूताना के प्रत्येक प्रमुख शासक के पास दूत भेजे परंतु सभी राजपूत राजाओं ने टालमटोल के उत्तर दिए और यह तय किया कि "वे तटस्थ रहकर दोनों पक्षों का खेल तब तक देखते रहें ,जब तक की किसी बड़ी लड़ाई में यह सिद्ध न हो जाए कि दोनों शक्तियों में से कौन- सी निश्चित रूप से अधिक प्रबल है।"(जदुनाथ सरकार, 'फॉल ऑफ द मुगल एंपायर', खंड 2, पृष्ठ 171) राजपूत राजा पानीपत की इस लड़ाई में बिल्कुल तटस्थ रहे। अतीत का भावुकतापूर्ण स्मरण ही उनका प्रधान मनोरंजन रहा।

सूरजमल की धार्मिक सहिष्णुता की अनुपम मिसाल:-

महाराजा सूरजमल के व्यक्तित्व में गुरुत्व था। वह शासन चलाने में अपनी सहायता के लिए अच्छे और योग्य व्यक्तियों का चयन करता था। वह अपने विलक्षण राजनीतिक सलाहकार व दक्ष मंत्री पंडित रुपाराम कटारिया और सुयोग्य खज़ाना/वित्त मंत्री मोहनराम बरसनियां पर पूरा भरोसा करता था। रुपाराम कटारिया बरसाना का बुद्धिमान, सुसंस्कृत तथा निष्ठावान कटारा ब्राह्मण था।

महाराजा सूरजमल उतना धर्मनिरपेक्ष था जितना उस काल में हो पाना संभव था। उसने मस्जिदे नहीं तोड़ी और बिना भेदभाव के मुसलमानों को ऊंचे पदों पर नियुक्त किया। वह विवादों का फैसला बातचीत और समझौते के जरिए करना पसंद करता था न कि इस बात से कि ' किसकी तलवार ज्यादा लंबी है।'

महाराजा सूरजमल का हर निर्णय दूरदर्शितापूर्ण एवं मेलजोल की भारतीय संस्कृति के अनुरूप होता था। वह भाऊ से मिलने मराठा- शिविर में गया और आगरा से मथुरा तक वे दोनों साथ ही आए। वहां भाऊ की दृष्टि नबी मस्जिद पर पड़ी और झल्लाहट में उसने सूरजमल को ताना दिया-- "आप हिंदू होने का दम भरते हैं, फिर आपने इस मस्जिद को इतनी देर खड़ा क्यों रहने दिया?" किसी छिछले मूढ़ व्यक्ति के सिवाय और कौन ऐसी नासमझी का प्रश्न कर सकता है? भाऊ भूल गया था कि कुछ समय पूर्व जब अब्दाली के धर्मांध सैनिकों ने मथुरा पर आक्रमण किया था तब उसकी रक्षा करने के लिए हजारों जाटों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी। उस समय तो उस मराठा सरदार भाऊ ने कुछ नहीं किया था। सूरजमल व्यावहारिक और परिपक्व राजमर्मज्ञ था, उसने नपे-तुले शब्दों में शिष्टाचारपूर्वक अर्थगर्भित उत्तर दिया:

" बहुत समय से हिंदुस्तान की राजलक्ष्मी वेश्या की भांति बहुत चंचल रही है। आज रात वह किसी की बाहों में है, तो कल किसी और के आलिंगन में बंधी होती है। यदि मुझे यह पक्का भरोसा होता कि मैं जीवन भर इन प्रदेशों का स्वामी बना रहूंगा, तो मैंने इस मस्जिद को कभी का मिट्टी में मिला दिया होता। पर यदि मैं आज इस मस्जिद को ढहा दूँ और कल मुसलमान आकर बड़े-बड़े मंदिरों को तोड़े और एक ही जगह चार मस्जिदें बना दें, तो उसका क्या लाभ? अब आप हुजूर इस ओर आए हैं, तो यह मामला आपके ही हाथों में है।" भाऊ ने डींग हांकते हुए कहा --"इन अफ़ग़ानों को हराने के बाद मैं सब जगह मस्जिदों के खंडहरों पर एक- एक मंदिर बनवा दूंगा।"

अब्दाली के भयंकर आक्रमण के बाद जिनके पास माया और मान कुछ खोने के लिए था, वे भाग कर भरतपुर आ गए। उस समय भरतपुर पीड़ित हिंदू और मुसलमान, हर जाति वाले के लिए शरणस्थली बन गया। सूरजमल ने किसी भी शरणार्थी को उसने घर की ड्योढ़ी से वापस नहीं मोड़ा। यहां तक कि उसने अपने सबसे बड़े शत्रु इमाद- उल -मुल्क गाजीउद्दीन, जो कि मुग़ल सम्राट का वज़ीर था, को भी शरण दी, जब वह सम्राट आलमगीर द्वितीय और इन्तिज़ाम की नृशंसतापूर्वक हत्या करवाने के बाद अपने कुछ आश्रितों और घुड़सवारों के साथ भागकर सूरजमल के पास चला आया। इस प्रकार उसने महान मुग़लों का वजीर होने का अपना गौरव जाटों को अर्पित कर दिया।

उदारमना:

पानीपत की तीसरी लड़ाई में उदार हृदय सूरजमल ने सैनिक तथा आर्थिक साधन भाऊ की सेवा में प्रस्तुत कर दिए थे, परंतु उन्हें ग्रहण करने की बजाय उसने उनके प्रति तिरस्कार प्रकट किया। उसने सूरजमल की बुद्धिमतापूर्ण सलाह को अनसुना किया और अपने उजड़ बरताव द्वारा उसे अत्यधिक रुष्ट कर दिया। अयोग्य एवं सामरिक कला से अनभिज्ञ सेनानायक भाऊ और उसकी सेना की पानीपत की तीसरी लड़ाई (14 जनवरी 1761) में शर्मनाक शिकस्त हो गई। मराठों के एक लाख सैनिकों में से आधे से ज्यादा मारे गए। यह पूरी पराजय थी और युद्ध से बचे हुए मराठा सैनिक बिना वस्त्र, बिना वस्त्र और बिना भोजन सूरजमल के राज्य- क्षेत्र में पहुंचे। सूरजमल और रानी किशोरी ने उन्हें शरण दी व उन्हें आतिथ्य प्रदान किया। घायलों की तब तक देखभाल की गई जब तक कि वे आगे यात्रा करने योग्य हो गए। उल्लेखनीय है कि एक और तो घायल और पीड़ित मराठों को सूरजमल हर संभव मदद कर रहा था, दूसरी ओर आमेर के माधोसिंह और मारवाड़ के विजयसिंह आदि राजा थे, जो विदेशी आक्रांता अब्दाली की विजय का स्वागत कर रहे थे।

सर जदुनाथ सरकार के अनुसार मराठा शरणार्थियों की संख्या 50 हज़ार थी ,जबकि वैन्देल ने यह संख्या एक लाख लिखी है। शरणार्थियों के साथ सूरजमल के बर्ताव के बारे में इतिहासज्ञ ग्रांट डफ ने यह लिखा है---"जो भी भगोड़े उसके राज्य में आए ,उनके साथ सूरजमल ने अत्यंत दयालुता का बरताव किया और मराठे उस अवसर पर किए गए व्यवहार को आज भी कृतज्ञता तथा आदर के साथ याद करते हैं।" 
(ग्रांट डफ़,'ए हिस्ट्री ऑफ द मराठाज'पृ. 30 )

वैन्देल कहता है---" जाटों के मन में मराठों के प्रति इतनी दया थी कि यदि सूरजमल चाहता, तो एक भी मराठा लौटकर दक्षिण नहीं जा सकता था। लोग शायद कहें कि भाग्य को इस जाट पर असाधारण कृपा करने में आनंद आता था।"

सदाशिवराव अगर महाराजा सूरजमल से छोटी सी बात पर तकरार न करके उसे भी पानीपत की तीसरी लड़ाई में साझेदार बनाता, तो आज भारत की तस्वीर कुछ और ही होती।

7. आगरा पर अधिकार:

पानीपत की तीसरी लड़ाई में हुए महाविनाश ने हिंदुस्तान की लगभग प्रत्येक महत्वपूर्ण शक्ति को नष्ट कर डाला था। सूरजमल इसका एक मात्र अपवाद था। अब्दाली के सामने उसने न तो सिर झुकाया, न ही घुटने टेके। दोआब इलाक़े में अपना दबदबा क़ायम करने की नीयत से महाराजा सूरजमल आगरा-किले पर कब्ज़ा करना चाहता था। 3 मई 1761 को सूरजमल की विशाल सेना ( चार हज़ार जाट सैनिक) आगरा की ओर बढ़ी। लक्ष्य था आगरा का लाल किला। यह सचमुच ही शानदार इमारत है। एक महीने के घेरे के बाद 12 जून 1761 को आगरे का लाल किला जाटों के कब्ज़े में आ गया तथा यह सन 1744 तक भरतपुर-शासकों के अधिकार में रहा। इससे सूरजमल को नई शक्ति और प्रभुत्व प्राप्त हो गया तथा वह अब यमुना के इलाक़े का शासक हो गया। 

जाटों के लिए आगरा पर अधिकार भावुकता भरा क्षण था। लगभग 90 वर्ष पहले इस किले के फाटक से कुछ ही दूर गोकला की बोटी- बोटी काट कर फेंकी गई थी। अब उसका बदला ले लिया गया था। सूरजमल का स्वप्न था कि ब्रज तथा यमुना प्रदेश के जाटों को पंजाब के जाटों से मिलाकर एक कर दिया जाए। इस स्वप्न को साकार करने के लिए सूरजमल ने हरियाणा और दोआब की ओर जाने वाली सेनाओं की कमान क्रमशः जवाहर सिंह और नाहरसिंह को सौंपी। जवाहरसिंह के अधिकार में रिवाड़ी, झज्जर और रोहतक एक के बाद एक आते गए। फर्रुखनगर में मसावी खां बलोच से कड़ा मुकाबला हुआ। आखिकार 12 दिसम्बर 1763 के असपास फर्रुखनगर पर भी जाटों ने कब्जा कर लिया। फर्रुखनगर में मसावी खां की हार और उसके बाद उसे भरतपुर में कैद किए जाने का मामला पराकाष्ठा पर पहुंच गया। अब नजीब के सामने सूरजमल को चुनौती देने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा था। सूरजमल की विजय-यात्रा के अंतिम दौर में उसकी सुविचारित सावधानी और अभ्यास द्वारा अर्जित लचीलापन ग़ायब हो गया।

8. वीर-गति: 

वीर की सेज़ समर भूमि होती है। जब आगरा से लेकर दिल्ली के नजदीक तक सूरजमल की तूती बोलने लगी तो वह दुस्साहसी और महत्वाकांक्षी हो गया। उस समय शक्तिहीन मुगल सम्राट का सरंक्षक उसका शक्तिशाली रुहेला वजीर नजीबुद्दौला था, जिसे अहमदशाह अब्दाली का भी समर्थन प्राप्त था। सूरजमल ने कुछ घुड़सवारों के साथ शत्रु सेना के क्षेत्र में घुसने का दुस्साहसपूर्ण कदम उठाया। 25 दिसंबर 1763 को क्रिसमस के दिन शाहदरा में हिंडन नदी (यमुना की एक सहायक नदी ) के किनारे मुग़ल सेना के नवाब नजीबुद्दौला की सैन्य टुकड़ी के साथ मुठभेड़ में महाराजा सूरजमल 56 वर्ष की आयु में वीर-गति को प्राप्त हुआ। एक विवरण के अनुसार सूरजमल अपने कुछ घुड़सवारों के साथ युद्ध-स्थल का निरीक्षण कर रहा था कि अचानक शत्रु सेना से घिर गया। एक अन्य वृत्तान्त के अनुसार सूरजमल को थोड़े से आदमियों के साथ खड़ा देखकर सैयद मुहम्मद खां बलोच, जिसे लोग 'सैयदु' नाम से अधिक जानते थे, व उसके सैनिक सूरजमल पर टूट पड़े। शव का क्या हुआ, किसी को निश्चित जानकारी नहीं। जवाहरसिंह ने कृष्ण की पवित्रभूमि गोवर्धन में अपने पिता की प्रतीकात्मक अंत्येष्टि की। इसके लिए रानी ने सूरजमल के दो दांत ढूंढ निकाले थे। अंतिम संस्कार की रस्म पूरी करने के बाद जवाहरसिंह राजगद्दी पर बैठा।

9.मूल्यांकन

"जाट जाति की आंख और ज्योति महाराजा सूरजमल अपने काम को अधूरा छोड़कर जीवन के रंगमंच से लुप्त हो गया। वह एक महान व्यक्तित्व और एक लोकोत्तर प्रतिभाशाली पुरुष था, जिसे 18 वीं शताब्दी के प्रत्येक इतिहासकार ने श्रद्धांजलि अर्पित की है।"( के .आर .कानूनगो, 'हिस्ट्री ऑफ द जाट्स', पृष्ठ 153)

मुगलों व अफगानों के आक्रमण का प्रतिकार करने में उत्तर भारत मे जिन राजाओं की प्रमुख भूमिका रही है, उनमें भरतपुर के महाराजा सूरजमल का नाम बड़ी श्रद्धा एवं गौरव से लिया जाता है। ब्रज के जाट राजाओं में सूरजमल सबसे प्रसिद्ध शासक ,कुशल सेनानी, साहसी योद्धा, कुशल प्रशासक, दूरदर्शी व कूटनीतिज्ञ था। उसने जाटों में सबसे पहले राजा की पदवी धारण की थी। सूरजमल और उसके पिता बदन सिंह शुरू में सिनसिनी और थून के मामूली जमींदार थे। महाराजा सूरजमल की उपलब्धि थी कि उसने आपस में लड़ने वाले जाट- गुटों में मेल-मिलाप करवाया। उसने जाटों के रक्त एवं धन का न्यूनतम नुकसान करके विस्तृत भू भाग पर जाट- राज्य खड़ा किया। उसका राज्य विस्तृत था, जिसमें डीग, भरतपुर के अतिरिक्त मथुरा, मेरठ, आगरा, धौलपुर, मेवात, हाथरस, अलीगढ़, ऐटा, मैनपुरी,गुड़गांव, रोहतक, रेवाड़ी,बल्लभगढ़, झज्जर, फर्रुखनगर जिले थे। एक ओर यमुना से गंगा तक और दूसरी तरफ चंबल तक का सारा प्रदेश उसके राज्य में सम्मलित था। जिस दौर में अन्य राजा तो मुग़लों से अपनी बहन-बेटियों के विवाह करके रियासतें व जागीरें बचा रहे थे, उस दौर में महाराजा सूरजमल अकेला मुग़लों से लोहा ले रहा था।

18 वीं शताब्दी के इतिहासकारों तथा वृत्तांत लेखकों ने महाराजा सूरजमल की विशिष्ट योग्यता, प्रतिभा तथा चरित्र की दृढ़ता को स्वीकार किया है। सैयद गुलाम नक़वी ने अपने ग्रंथ इमाद-उस-सादात में लिखा है :
"नीतिज्ञता में और राजस्व तथा दीवानी मामलों में प्रबंध की निपुणता तथा योग्यता में हिंदुस्तान के उच्च पदस्थ लोगों में से आसफ़ज़ाह बहादुर, निजाम के सिवा कोई भी उसकी बराबरी नहीं कर सकता था। उसमें अपनी जाति के सभी श्रेष्ठ गुण-- ऊर्जा, साहस, चतुराई, निष्ठा और कभी पराजय स्वीकार नहीं करने वाली अदम्य भावना सबसे बढ़कर विद्यमान थे। परंतु किसी भी उत्तेजनापूर्ण खेल में, चाहे वह युद्ध हो या राजनय, वह कपटी मुगलों और चालाक मराठों को समान रुप से मात देता था। संक्षेप में कहें तो वह एक ऐसा होशियार पंछी था जो हर एक जाल में से दाना तो चुग लेता था पर उसमें फंसता नहीं था।"

महाराजा सूरजमल 18 वीं शताब्दी के हिंदुस्तान में व्याप्त उन पतनकारी दुर्गुणों से पूर्णतय मुक्त था जिन्होंने बड़े -बड़े राजपूत घरानों को बर्बाद कर दिया, स्वास्थ्य और बल को नष्ट कर दिया और बुद्धि को क्षीण कर दिया। राजनीतिक कौशल, संगठन ,प्रतिभा और नेतृत्व के गुणों की दृष्टि से सिर्फ शिवाजी और महाराजा रणजीत सिंह ही सूरजमल से बढ़कर थे।
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Sunday, 8 December 2019

क्या हासिल हुआ दो दिन पानीपत मूवी के ऊपर इतनी पोस्टें निकाल के, चलते-चलते पेशे-ख़ाक है एक छोटा सा एनालिसिस!

अपना सिर्फ वैचारिक ओपिनियन, वैचारिक अभियान था, जिससे जिसको जो लाभ मिल सकता था वह जरूर ले गया होगा; जिस सवाल का उत्तर मिलता दीखा होगा, जरूर पाया होगा| आपा ने जो किया उसको कहते हैं एक चीज के बहाने अपनी युवा-पीढ़ी को पुरखों का इतिहास तरोताजा करवाने के मौके का लाभ उठाना; देखें इस फिल्म के बहाने क्या लाभ किये हैं सोसाइटी को अपनी पोस्टों के जरिये:

1) कितने % हरयाणवी समाज की आज की 10 से ले 20 साल की पीढ़ी को "हाऊ" बारे पता था या बताया गया था? शहरी हरयाणवी तो शायद ही बहुत कमों को, गामों में तो फिर भी अभी कहीं-कहीं बचा हुआ था शायद|
2) जब आपका यूथ या अन्य जो कोई भी यूथ ऐसी फ़िल्में देखकर आता है तो बहुत से सवाल जेहन में लिए आता है| उत्तर ढूंढता है, तो मेरी पोस्टों ने वह उत्तर काफी हद तक प्रोवाइड करवाए हैं|
3) जब यूथ को अपने ही समाज के लोगों से अपने ही समाज बारे अपने सवालों के जवाब मिलते हैं तो उसकी अपने समाज बारे आस्था टिकी भी रहती है और बढ़ती भी है| यानि उसका इमोशनल कनेक्शन सस्टेन कर जाता है, वही इमोशनल कनेक्शन जिसको तोडना ऐसी फिल्मों का मकसद होता है|
4) साथी समाजों के लोगों में भी बहुत सारी भ्रांतियां दूर करने-होने में मदद मिलती है खासकर ऐसे लोगों की जो वाकई में आपका पॉजिटिव सोचते हैं|
5) यूथ को समझने में मदद की कि कैसे यह लोग तो इन्हीं के छद्म राष्ट्रवाद व् हिन्दुवाद की खुद ही पोल खोल गए, इसी मूवी में| शाहजहाँ-3 की ताजपोशी वाला सीन|

मेरे फेसबुक के दोनों प्रोफाइल्स पर 12000 फ्रेंड्स एंड फोल्लोवेर्स हैं कुल मिला के| बहुतेरे दोस्तों ने व्हट्स-एप्प व् फेसबुक वाल्स पर भी पोस्टें शेयर की हैं| अगर डायरेक्ट रीडिंग व् फॉरवर्ड की हुई रीडिंग इस 12000 का 10% भी रेट ले गई होगी तो 1000-1200 ने तो पढ़ी? 70% से ज्यादा 15 से ले 25 साल के युवा बैठे हैं फेसबुक पर| तो हुआ ना फायदा| तुम ज्यादा-नफा नुक्सान मत तोला करो जो लॉजिकली ठीक लगे कर दिया करो| नार्मल माहौल में ऐसी पोस्टों की रीडिंग रेश्यो सोचो कितनी होती है और ऐसे बने-बनाये माहौल में कितनी?

कोई कहा रहा है कि विरोध ना करो, पब्लिसिटी होगी इनकी; कोई कह रहा है समाज का बुद्धिजीवी वर्ग गलत दिशा दे रहा है चीजों को| ओ भाई जिन्होनें जितने की यह फिल्म बनाई है ना उसका डबल बजट तो इसकी पब्लिसिटी पर लगा चुके हैं; तुम्हारी-हमारी पोस्टों से घंटा पब्लिसिटी होएगी इसकी| तुम पोस्टें नहीं भी करते तो आज की मार्केटिंग इतनी एडवांस है कि फैब्रिकेटेड विरोध की खबरें चलवा कर भी कर लेते फिल्म वाले इसकी पब्लिसिटी| और गलत दिशा तो तब होती जब यह पोस्टें ऊपर गिनाये 5 बिंदुओं का मकसद पूरा ना करती|

और अब इसी पोस्ट के साथ इस फिल्म पे मेरा एनालिसिस भी खत्म, रिव्यु भी खत्म| और पोस्टें भी खत्म| हाँ बस एक इस छोटी सी पोस्ट को छोड़कर जो मैं बीच-बीच में डालता रहूँगा -

"आं रै रलदू न्यू समझ नहीं आई भाई कि शाहजहाँ-3 इन पुणे-पेशवाओं का फूफा लगता था या जीजा जो यह दिल्ली पर किसी हिन्दू राजा की ताजपोशी की बजाये उसकी ताजपोशी करने चले थे? वैसे मैं सर छोटूराम अनुयायी हूँ मुझे सब धर्मी प्यारे, दो टूक बात भाई| आपा किसी धर्म-इंसान-समाज का या तो विरोध किया नहीं करते और करते हैं तो इन पेशवों की भाँति तो करते ही नहीं कि जिनके खिलाफ समाज को डराकर हिंदुत्व-राष्ट्र्वाद का हवाला देकर लेक्चर पेलो, फिर बाद में उन्हीं की ताजपोशी करते मिलो| ऐसे लोग दुनिया के सबसे अविश्वसनीय व् ब्रेन-वाश करने वाले होते हैं; इनसे 10 फुट दूर हट के चलो|"

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 7 December 2019

कौनसा हिंदुत्व है यह और कौनसा राष्ट्रवाद है यह?

"एशिया का Odysseus" व् "जाटों का Plato" कहलाते हैं महाराजा सूरजमल सुजान इंटरनेशनल जगत में|

ऐ नादाँ बजरबट्टूओं, यह महाराजा सूरजमल है जो इराक-ईरान-तुर्की से ले पूर्तगीस-डच-फ्रेंच व् लन्दन की ब्रिटिश लाइब्रेरी तक के दस्तावेजों में कहीं "जाट प्लेटो - Plato" तो कहीं "एशियाई ओडीसूस - Odysseus" के नाम से दर्ज है; कोई पेशवा या तुम्हारी मनघढ़ंत माइथोलोजी का किरदार नहीं है| यूँ फिल्मों में उनका अपमान करके, तुम्हारे द्वारा उनकी "लो" कम करने से कम ना होने वाली| फिर भी बहम हो तो पूरी दुनियाँ के बुद्धिजीवी व् इतिहासकारों में सर्वे करवा कर देख लो, रेसर्चेज-रेफरेन्सेस खंगाल के देख लो; इतने रेफरेन्सेस तो तुम्हारे किसी पेशवा या किसी तथाकथित मैथोलॉजिकल करैक्टर तक के नहीं मिलने जितने सूरजमल सुजान भरतपुर वाले जाट के मिलेंगे|

समझ नहीं आती कि लोग फिर भी इनके कौनसे वाले हिंदुत्व एकता व् बराबरी के राग में उलझ जाते हैं जबकि यह हिन्दू समाज की इंटरनेशनल स्तर पर स्थापित इतनी बड़ी हस्ती तक का यूँ फिल्मों में मजाक बना उड़वा देते हैं? कौनसा हिंदुत्व है यह और कौनसा राष्ट्रवाद है यह? कोई इनका अंधभक्त बना जाट ही समझा दे मुझे; समझा दे मुझे कि यही वह हिंदुत्व है क्या जिसके लिए इनके पीछे पागल बने घूमते हो? यह वह राष्ट्रवाद है क्या जिसमें तुम्हारे समाज-धर्म से आने वाले इंटरनेशनल स्तर पर सबसे शक्तिशाली कहलाये महाराजा का उपहास-मजाक उड़ाया जाता हो? पूछो हर अंधभक्त से व् जाट अंधभक्त से तो खासतौर से पूछो|

पानीपत फिल्म का डायरेक्टर आशुतोष गवारिकर वही है जो "जाटों के किरदार" निभा-निभा फ़िल्मी कैरियर की सीढ़ी चढ़ा है| 1980 के दशक में आई हरयाणवी फिल्म "जाट" का हीरो यही है जिसमें "कोठे चढ़ ललकारूं" वाला फेमस सांग है| आज इसको जाटों से क्या चिढ हो गई या नागपुरी-पेशवों का पानी लग गया? खैर साबित बजरबट्टू ही हुआ, "महाराजा जी के मजाक से ज्यादा, पेशवाओं के ही छद्म राष्टवाद व् हिंदुत्व की पोल खोल गया" उस वाले सीन में जिसमें सदाशिव राव बोलता है कि, "दिल्ली पर तो हम शाहजहाँ-3 की ताजपोशी करेंगे"| भाई लगते-लारे यह और बता देता कि शाहजहाँ-3 पेशवों का फूफा लगता था या जीज्जा? समझ जाओ इसी से कि यह जिन मुस्लिम का भय दिखा के तुम पर इनके छद्म हिंदुत्व व् राष्ट्रवाद का प्रभाव जमाते हैं, हकीकत में उन्हीं की दिल्ली में ताजपोशी करते रहे हैं| इसलिए इनके उकसावे पर किसी मुस्लिम भाई से नफरत मत करना कभी| मुस्लिम कहीं अधिक तुम्हारा है इनसे तो खासकर| और यह मैं नहीं बल्कि इन्हीं की पानीपत की हिस्ट्री व् आज पानीपत पर बनाई फिल्म तुम्हें-हमें चिल्ला-चिल्ला बता रही है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

इन हाऊओं से मत डरियो रे, यह हरयाणवी ब्राह्मण के ही नहीं; तेरे कहाँ से रे?

हाऊ यानि महाराष्ट्र के चितपावनी ब्राह्मण जो पेशवे कहलाते हैं| जो एक ही जाति-वर्ण के होते हुए भी हरयाणवी ब्राह्मण को दलित बराबर समझते हैं|

दलित बराबर समझते हैं तभी तो दोबारा उसी को मुख्यमंत्री बना दिया जिसने "भरी सभा में एक वयोवृद्ध हरयाणवी ब्राह्मण नेता को फरसा दिखा गला काटने की धमकी दी"| यहाँ तक कि माफ़ी तक नहीं मंगवाई है आज तक|

दलित बराबर समझते हैं तभी तो हरयाणा के हर मंदिर में हरयाणा से बाहर के ब्राह्मण पुजारी बैठाये जा रहे हैं|

चिंता मत करियो अगर पानीपत फिल्म में महाराजा सूरजमल का अपमान किया है तो, इससे ज्यादा तो यह हरयाणवी ब्राह्मण का रोज-रोज कर रहे हैं, करवा रहे हैं और होता देख चुप भी हैं| हरयाणवी ब्राह्मण की रोजी-रोटी भी छीन रहे हैं और सारा दान-पुन-चढ़ावा यहाँ से महाराष्ट्र-गुजरात ले जा रहे हैं|

और हाँ, मैं इस मुद्दे को लेकर अति-गंभीर रहा हूँ शुरू से; बेशक हरयाणवी ब्राह्मण से जुड़ा हुआ हो| इस मामले में हरयाणवी पहले हूँ, बाकी कुछ बाद में|

और जो नादाँ यह समझता हो कि इन नागपुरी-पुणे पेशवों की शय व् इशारे के बिना "पानीपत" फिल्म बनी है तो समझो उसे तो भारतीय राजनीति की अभी एबीसी भी नहीं मालूम|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक