Wednesday, 26 February 2020

क्या खूब ताकत पहचानी है अपनी; क्या गजब जागरण आया है!

तुम्हारा लोहा तो हमारे पुरखों ने बखूबी हुआ आजमाया है,
हमने तो बस आज की पीढ़ी को पिछोका याद दिलाया है|
हम पर क्यों रोते हो पोस्टों के जरिये सोशल मीडिया पर?
उधर जाओ फलानि माँ, धिमकाने धर्म-राष्ट्र ने तुम्हें बुलाया है||

युवा पीढ़ी को भी क्या खूब महाराजा सूरजमल सुजान समझ आया है,
उसका पानीपत में फंडी का गेम समझना, दिल्ली में उसकी खूमों ने दोहराया है
तभी तो पेशवों की भाँति, आज मिश्रों का हर उकसावा हुआ ज्याया है|
वाह, क्या खूब ताकत पहचानी है अपनी; क्या गजब जागरण आया है|

असर सर छोटूराम का भी नस-नस में चलायमान हुआ जाता है,
वो देखो, वो फंडी, क्योंकर बिन मौसम गला फाड़े जाता है|
वो मेहनत तो रंग लाई है, जिसकी हवा हमने 2016 से ख़ास चलाई है,
तभी तो फंडियों की दो दिन में ही दंगे रचने की हवा हुई हवाई है|

अब तरक्की की राह पर ही रहेगा, इतना जो भगत सिंह जंचा रहा ,युवा को,
इन फंडियों के उतार मुखौटे, युवा अब इनकी असलियत बता रहा इनको|
न्योंदे तुम हमारे घालोगे, हम से पा कर, हम पर ही घुरकी घालोगे?
फुल्ले-भगत जब अलख जगावे, फंडियों का असर दूर-लग खत्म जावे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ना देश में कोई विदेशी आक्रांता आया है!

ना देश में कोई विदेशी आक्रांता आया है,
ना देश में घुसा है कोई लुटेरा,
फिर कौन है यह भीड़, किधर से आई?
है कौन (कपिल मिश्रा, यह बिहार से यहाँ रोजी-रोटी कमाने आया है या मस्ताने?) इसका चेहरा?

सोचा, भूल गए हो तो इस सलंगित खबर के जरिये बता दूँ और इनका नाम है "फंडी", जिसका कपिल मिश्रा नाम का एक चेहरा लांच किया गया है| यह अपने धर्म के भीतर शांतिकाल में शांति नहीं रहने देते, धर्म से बाहर किसको चैन से जीने देंगे ये| और एक ख़ास बात, पूरे मुग़लकाल से ले अंग्रेजीकाल उठा के देखना, सबसे ज्यादा मुगलदरबारी हों या अंग्रेजदरबारी; यही मिलेंगे| और अगर वाकई में इतिहास की भाँति कोई मुग़ल-अंग्रेज फिर से घुस आये तो कुत्ता जैसे मालिक के धमकाने पर उसके पैरों में लौटने-चाटने लगता है ऐसे लौटते-चाटते हुए सबसे पहले दरबारी बनने भागेंगे ये फंडी, जो आज ना निचले टिक रहे, ना किसी को टिकने दे रहे| आये बड़े "ऑफ-सीजन" के धर्मभक्त व् राष्ट्रभक्त|

दंगे रुकवा या शांत ना करवा सको तो दूर रहिएगा इनसे| इनके बड़े ब्योंत, बड़े जुगाड़ हैं तो बड़ी बात होंगी ही| तुम-हम ठहरे महाराजा सूरजमल जी के कथन वाले मामूली से जमींदार, हमारे इतने ब्योंत कहाँ कि इतने बड़े पुवाड़े-पंगे रच सकें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


दिल्ली में शुरू हुए फंडी बनाम मुस्लिम दंगे!

दिल्ली में कपिल मिश्रा की अगुवाई में शुरू हुए फंडी बनाम मुस्लिम दंगों में जरा सम्भल कर हाथ डालें, कोई इनको "हिन्दू बनाम मुस्लिम दंगे" समझ कर तो इनमें अपनी पूंछ बिलकुल ना जलवाए, खासकर उदारवादी जमींदारी (इसको मानने वाले किसान-दलित-ओबीसी-व्यापारी-पुजारी-मुल्ला-मौलवी सभी) तो "मुज़फ्फरनगर दंगे" व् "35 बनाम 1 वाले हरयाणा दंगों" के इतिहास को देखते हुए दूर ही रहें इस सबसे| वैसे भी किसान-जमींदारों की औलादें, जिनमें 90% "हैड-टू-माउथ" कमा के खाने वाले लोग हैं, वह अपने घरों की तरफ जरूर देख लेवें| मिश्रा जैसों को कुछ हुआ तो धर्म से ले सरकारें तक करोड़ों के मुवावजे दे देंगी, और तुम्हें मिलेंगी तो सिर्फ जेलें या कभी ना खत्म होने वाले कोर्ट-केस या बाद में "मुस्लिम बनाम हिन्दू" में से "हिन्दू" गायब कर दिया जायेगा और इसकी जगह एक जाति विशेष चिपका (जैसे मुज़फ्फरनगर दंगों में किया था) के निकल लेंगे|

वैसे है ना कमाल, मुंबई में स्थानीय लोग दंगे करते हैं, गुजरात में स्थानीय लोग करते हैं, परन्तु विशाल हरयाणा (दिल्ली-आज का हरयाणा व् वेस्ट यूपी) में बिहार-बंगाल से आये मिश्रा जैसे लोग दंगे-फसाद करते हैं| जरूर यह महाभारत कोरी कपोल-कल्पना है, यहाँ स्थानीय लोग शांति-सद्भाव से रहने वाले हैं और वह ऐसे ही रहेंगे; इस महाभारत को उन्हीं को जमाने दो जिन्होनें यह घड़ी हुई है|

अगर आप इन दंगों को रोकने या शांत करवाने की भूमिका नहीं निभा सको तो आप इसमें न्यूट्रल भी रहेंगे तो कल को बहुत भला कहलाये जाओगे| यह दंगे धर्म या देशभक्ति से कुछ सरोकार नहीं रखते, अपितु सिर्फ-और-सिर्फ फंडी उनकी इकनोमिक ताकत व् ग्रिप बढ़ाने हेतु भिड़ रहे हैं देश की बाकायदा नागरिकता वाले माइनॉरिटी धर्म से|

सनद रहे, चाहे 1984 हो, 2013, 2016 या अब 2020; इन सबमे एक पक्ष स्थाई तौर पर चल रहा है और उसका नाम है सर छोटूराम का बताया हुआ "फंडी"; जंगली मेंटालिटी ना हो तो, जब देखो इनको झींगा-ला-ला-हुर्र-हुर्र करने को कोई ना कोई चाहिए| अबकी बार इनको खुद ही करने दीजिये, "झींगा-ला-ला-हुर्र-हुर्र"|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 21 February 2020

आजकल वाले इंडियन राष्ट्रवाद की परिभाषा बहुत ही सरल है!

तुमको, तुम्हारी जाति-बिरादरी को, तुम्हारे पेशे को, व् तुम्हारी सोच को राष्ट्रवाद से संबंधित तमाम शब्दों-विचारों-व्यवहारों से जोड़ दो; बस हो गया इंडिया का आजकल के राष्ट्रवाद का डेफिनिशन पूरा|

उदाहरण के तौर पर:
1) अगर तुम व्यापारी हो तो, सारा राष्ट्रवाद व्यापार के इर्दगिर्द घड़ लो| इसके हिसाब से जो बोले वह राष्ट्रवादी बाकी सब देशद्रोही; फिर बेशक बोलने वाला स्वधर्मी, सजातीय तक भी क्यों ना हो|
2) अगर तुम पुजारी हो तो, सारा राष्ट्रवाद पुजार के इर्दगिर्द घड लो| इसके हिसाब से जो बोले वह राष्ट्रवादी बाकी सब देशद्रोही; फिर बेशक बोलने वाला स्वधर्मी, सजातीय तक भी क्यों ना हो|

ऐसा है तभी तो कोई माल्या-मोदी-चौकसी हजारों-करोड़ लेकर देश को चूना लगाने पर भी राष्ट्रद्रोही नहीं कहलाता| तभी तो कोई चिमयानन्द, कोई आशाराम, कोई व्रजसला स्त्री को खाना पकाने पर अगले जन्म में कुत्ता बनेगी कहने वाला राष्ट्रद्रोही नहीं कहलाता| और इधर किसान को देखो 2-4 लाख कर्जा भी गबन कर दे तो क्या-क्या धारा नहीं लग जाती उस पर? कोई किसान सड़कों पर आकर हक मांग ले तो सीधा राष्ट्रद्रोह ठोंकते हैं|

अब तुमने अपनी ही गलतियों के चलते वह जमाने तो लाद दिए जब ऐसे फंडी-पाखंडियों के टकणों पर यह कहते हुए कि, "लातों के भूत, बातों से नहीं माना करते" लठ धरते हुए तुम्हारे पुरखे एक पल नहीं लगाया करते, लेशमात्र झिझक नहीं दिखाया करते| उनके जितनी औकात-बिसात तो जिस दिन वापिस पा लोगे तो बात ही कुछ और होगी परन्तु अभी भी किसान-फौजी-खिलाडी या मजदूर जब तक तुम इस तरह से अपने राष्ट्रवाद का जाल नहीं बुनते; तुम्हें सिर्फ एक काम रहेगा| भेड़ों की तरह इधर से उधर, उधर से इधर हाँकेँ जाओगे वह भी उन द्वारा जो राष्ट्रवाद की परिभाषा ऊपर बताई परिपाटी अनुसार घड़ के अपना हर हित साध अपने चौगरदे हर सुरक्षा बाँध चुके हैं|

क्योंकि तुम राष्ट्रवाद का समर्थन उसकी शहीद-ए-आजम भगत सिंह वाली देशभक्ति समझ व् फौजियों वाली परिभाषा समझकर करते रहोगे जबकि जो इसके झंडाबदार बने हुए हैं उन्होंने इसकी परिभाषा ऊपर कहे अनुसार मरोड़ी हुई है| इसलिए तुम समर्थन करके भी ठन-ठन गोपाल गोबर-गणेश बने रहोगे| और यह मरोड़ी हुई है इसका टेस्ट करना है तो कहो इनको जरा शहीद-ए-आजम वाली देशभक्ति से राष्ट्रवाद चलाने की; 99% के राष्ट्रवाद की साँप की भाँति केंचुली सामने पड़ी होगी और तुम्हारी अक्ल ठिकाने पे|

गोबर-गणेश नहीं बने रहना है तो फसलों के दाम नहीं मिलने पर चिल्लाओ-लिखो, किसान पर होते हर जुल्म पर चिल्लाओ-लिखो कि यह राष्ट्रद्रोह है और ऐसा करने वाले असली राष्ट्रद्रोही| जब तक तुमको राष्ट्रद्रोही ठहरा देने वाले को राष्ट्रद्रोही ठहरा देने के खुद के ओप्संस नहीं रखोगे और इन्हीं की भाषा वाला राष्ट्रवाद नहीं अपनाओगे तो "के तो नंगे नहाओगे और के निचोड़ोगे" वाली कहावत की तर्ज पर अपना खोसन ही उतरवाओगे| 

दिखने की कोशिश मत करो, जो हो वह बाई-डिफ़ॉल्ट दिखने दो| तभी वह देख पाओगे जो ऐसे लोग तुमसे छुपाते हैं| इसलिए:

3) अगर तुम किसान-जमींदार हो तो, सारा राष्ट्रवाद किसानी-जमींदारी के इर्दगिर्द घड लो| इसके हिसाब से जो बोले वह राष्ट्रवादी बाकी सब देशद्रोही; फिर बेशक बोलने वाला स्वधर्मी, सजातीय तक भी क्यों ना हो|
4) अगर तुम मजदूर-कर्मचारी हो तो, सारा राष्ट्रवाद मजदूरी-कर्मचारी के इर्दगिर्द घड लो| इसके हिसाब से जो बोले वह राष्ट्रवादी बाकी सब देशद्रोही; फिर बेशक बोलने वाला स्वधर्मी, सजातीय तक भी क्यों ना हो|

जब तक इंडिया में यह वाली राष्ट्रवाद की परिभाषा चलेगी, तब तक तुम भी यही परिभाषा अपना लो; जब यह थक जाएँ इससे तो तुम भी इसको छोड़कर शुद्ध सरदार भगत सिंह व् फौजियों वाली देशभक्ति की परिभाषा पर लौट आना| वरना तो नाकों चने चबाने को और तैयार कर लो खुद को|

उद्घोषणा विशेष: व्यापारी-पुजारी-किसानी-जमींदारी-कर्मचारी हर जाति-वर्ण-धर्म के लोग इन पेशों में हैं; कहीं अब जातिवाद के काटे हुए चूरणे चले आवें इस पोस्ट में जातिवाद ढूंढने|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 19 February 2020

राय बहादुर दादा चौधरी घासी जी मलिक के प्रकाशोतष्व पर आप सभी को शुभकामनायें!


आप हिंदुस्तान की सबसे बड़ी खाप मलिक (गठवाला) खाप के आजीवन निर्विवादित चौधरी रहे| आपकी न्यायप्रियता इतनी मशहूर हुई कि आपके सालों का एक ब्राह्मण से जमीनी-विवाद हुआ| फैसले के लिए आपके नाम की चिट्ठी पाड़ी गई| सालों ने सोचा कि गाम के गोरे पहुँचते ही जीजा की घोड़ी की लगाम पकड़ कर घर तक लाएंगे, दूध-नाश्ता करवा के परस में जाने देंगे तो जीजा और राजी होगा व् फैसला तुम्हारे हक में देगा| दादा चौधरी जैसे ही उनकी सुसराड़ पहुंचे तो साले-सपटों ने योजना मुताबिक करने की सोची| परन्तु दादा ने सालों के हाथ से घोड़ी की लगाम झटक दी और उनको उससे दूर रहने की कहते हुए कहा कि, "मैं इस वक्त सर्वखाप पंचायती बनके आया हूँ कोई मंगता-फंडी या थारा रिश्तेदार नहीं| गाम की परस में चालो| पहले फैसला होगा, उसके बाद अगर थम निर्दोष साबित हुए तो मैं और मेरी घोड़ी थारी देहल चढ़ेंगे|" दादा ने उनके सालों व् ब्राह्मण दोनों पक्ष सुने| सारी सुणके फैसला ब्राह्मण के पक्ष में हुआ|

यह साले सगे थे या चचेरे यह मुझे कन्फर्म नहीं, परन्तु बताते हैं कि उसके बाद दादा चौधरी की न्यायप्रियता की ख्याति बुलंदियों को छूने लगी थी| सलंगित पोस्टर में दादा चौधरी व् गठवाला खाप के स्वर्णिम इतिहास की कुछ बातें लिखी हुई हैं|

विशेष: 19 से 22 फरवरी 2016 की चार काली-स्याह तारीखें जिंदगी-जेहन में इस तरह छप चुकी हैं कि विगत चार साल से दादा घासी जी के प्रकाशोतस्व की बधाईयाँ भी आदान-प्रदान नहीं की थी| वजह थी उनका प्रकाशोतस्व इन्हीं तारीखों में से आज यानि 19 फरवरी को पड़ना| परन्तु वक्त के साथ सब साध के चलना होता है, इसलिए जहाँ एक तरफ यह चार तारीखें 35 बनाम 1 के ताँडव का कलंक याद दिलाएंगी, वहीँ इन्हीं तारीखों में पड़ने वाला दादा घासी जी प्रकाशपर्व यह राह देगा कि अगर भविष्य में दोबारा 35 बनाम 1 जैसी सॉफ्ट-टार्गेटिंग से बचे रहना है तो पुरखों की "किनशिप" को अगली पीढ़ियों को पास करते चलिए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Monday, 17 February 2020

आस्था और श्रद्धा!


आस्था और श्रद्धा - यार इन्नें ब्याह-ठयाह दयो, जिसके पल्ले की सें उन गेल खन्दा दयो| ये तो समाज के इहसी चिपका दी फंडियाँ नैं, ज्यूँ बाप कै कुँवारी कोलै लाग री हो| कर दो इनको विदा, जितना जल्दी हो सकता हो| भतेरी सुवासण हो ली और के कुँवार-कोठड़े चिनवाओगे इनके? इतने पक्के सबूत तो ऑफिसियल गजटियर से ले आर्कियोलॉजिकल फैक्ट्स तक मानने छोड़ दिए लोगों ने, जितना इनका नाम ले फैलाई-परोसी चीज नैं चिपकाएं हाँडै सै दुनिया| जमा जाम बना दिए लोग बुद्धि-सोधी दोनों से|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

इतिहास के झरोखे से: सन 1849 से पहले अधिकतर पंजाब का नाम "डेरा जाट" रहा है!

Imperial Gazetteer of India, v. 11, p. 270. के अनुसार आधे से ज्यादा आधुनिक पंजाब का लाहौर-अमृतसर से ले मुल्तान-सिरसा तक 525 गुणा 80 स्क्वायर-किलोमीटर का एरिया "डेरा-जाट" सल्तनत यानि स्टेट कहलाता आया है| 1849 में जब महाराजा रणजीत सिंह जी के मरणोपरांत उनके राज को ब्रिटिश राज में मिलाया गया तो तब इस भूभाग का नाम ऑफिसियल रिकार्ड्स में "डेरा जाट" दर्ज हुआ है|

इसको बसाने वाले थे मलिक शोहराब दोदाई जी जाट| Imperial Gazetteer of India, v. 11, p. 270. के अनुसार यह बात इतिहास में अमर-तौर पर दर्ज है, इस पन्ने की कॉपी पोस्ट में बतौरे-सबूत-पेशे-खिदमत है| यह सत्यापित करता है कि "डेरा जाट" असल इतिहास है, गंगा से ले जमना-राखीगढ़ी-सतलुज-झेलम-चिनाब-रावी से होता हुआ सुलेमान पर्वत तक बिखरा पड़ा है|

पगड़ी संभाल जट्टा, इतिहासां नूं खंगाल जट्टा,
किवें रुल्या जांदा ए, ओ कित्थे टूरया जांदा ए!
इतिहासां दे वेहड़े बोलदे, तेरे ही खेड़े बोलदे,
आजा संग मेली, झाँके इतिहासां दी राक्खां ते| 

विशेष: "कुत्ते को मार गई बिजली और मिराड़ को देखे और कुकावे-ही-कुकावे" की तर्ज पर "जातिवाद मत फैलाओ" की रट्ट लगाने वालो, यह बताओ मेरे पुरखों का यह स्वर्णिम इतिहास कहाँ छुपाऊं? और क्यों-किसलिए ना इसको आज की पीढ़ी को बताऊँ? क्या यह बताने भर से तुम मुझे जातिवादी कहोगे? यह इतिहास साबित करता है कि जाति के नाम से जब पूरी-की-पूरी स्टेट तक के नाम रहे हैं तो जाति तो कभी कोई मसला रही ही नहीं इतिहास में| यह तो अब जानबूझकर बनाई जा रही है ताकि ऐसे इतिहासों को छुपाकर, बदनीयती साधी जा सकें|

Source: https://dsal.uchicago.edu/reference/gazetteer/pager.html?objectid=DS405.1.I34_V11_276.gif

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Tuesday, 11 February 2020

आज मेरी एक फेसबुक फ्रेंडलिस्ट में 4402 फ्रेंड्स शो हो रहे हैं!

आज मेरी एक फेसबुक फ्रेंडलिस्ट में 4402 फ्रेंड्स शो हो रहे हैं (दूसरी प्रोफाइल पहले से ही 5000 की लिमिट पार कर 2900 फोल्लोवेर्स पर चल रही है):

4402 को देख, इस 4400 सीरीज से बचपन का कनेक्शन कुछ यूँ याद आया कि जिंद-गोहाना-सोनीपत, जिंद-ढिगाणा वाया निडाणा रुट पर हमारी स्टूडेंट लाइफ के वक्त चलने वाली लगभग तमाम बसों की नंबर सीरीज दिमाग में घूम गई|

जिंद-ढिगाणा वाया निडाणा रूट पर चलने वाली रोडवेज नंबर HR16 - 4408 याद हो आई| इसके ड्राइवर नेग से दादा लगते थे परन्तु भंडर उपनाम से फेमस थे, असली नाम महा सिंह था| इस बस की नाईट-ड्यूटी खुंगा-कोठी होती थी जबकि ढिगाणा में नाईट का बसेरा HR 16 - 4400 का होता था, ड्राइवर आते थे दादा भल्ले सिंह| इनकी ख़ास बात जो मुझे बहुत प्रभावित करती थी वह यह कि यह रोज सुबह बस के शीशे ऐसे धोते थे कि उनमें चमक ऐसे पलके मारती आती जितनी तो आप अपने वार्डरोब या बाथरूम के शीशों में ही ला सकते हो|

जिंद-गोहाना-सोनीपत रुट पर उन दिनों 4401, 4402, 4403, 4404 से ले 4410 व् 3881 से 3889 सीरीज की जिंद डिपो की बसें ख़ास चलती थी|

मुझे जिंद-ढिगाणा रुट का सबसे शरीफ व् नेक बालक होने का ख़िताब हासिल रहा रोडवेज व् जब प्राइवेट बस आई तो प्राइवेट ड्राइवर-कंडक्टरों से| मुंह पर नहीं कहते थे परन्तु एक बार छोटा भाई बसपास लेने गया तो कंडक्टर के पास उसको मेरा बसपास बना भी दिख गया (फोटो व् नाम देख के); तो बोला कि यह भी दे दो यह मेरे बड़े भाई का है| छोटा भाई स्टूडेंट लाइफ में थोड़ा नटखट रहा है, जिसके चलते कंडक्टर ने अचरज करते हुए कहा कि, "यह और तेरा भाई; कहाँ यह बस में सबसे शाँत व् सीधा रहने वाला और कहाँ तू बस की छत पर चढ़े बिना तेरा सफर पूरा नहीं होता और जब देखो तेरे हाथों में बिंडे-डंडे मिलते हैं'| यह किस्सा छोटे भाई ने खुद सुनाया था मुझे|

जब भी यह किस्सा याद आता है तो हँसी बन आती है चेहरे पर|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

केजरीवाल की तीसरी जीत का राज व् रवीश कुमार द्वारा स्थानीय हरयाणवियों की उदारता की तारीफ़!

स्थानीय हरयाणवी यानि दिल्ली-हरयाणा-वेस्ट-यूपी खासतौर से|

केजरीवाल दिल्ली में आये पूर्वोत्तर के दलित-महादलित-ओबीसी को यह बात समझाये रखने में कामयाब होते हैं कि बीजेपी-आरएसएस उन्हीं लोगों का समूह है, जिनके वर्णीय व् जातीय व्यवस्था के नश्लभेदी उत्पीड़न के चलते आप लोग मात्र बेसिक दिहाड़ी हेतु भी हरयाणा-पंजाब-दिल्ली-वेस्ट यूपी चले आते हो| इनको वोट देना मतलब उस व्यवस्था को यहाँ भी ले आना| मैंने अक्सर बहुत से हरयाणवी लीडर्स को भी यह बात कही है कि आप हरयाणा के पूर्वोत्तर के माईग्रेंट्स को यह बात समझाने में जिस दिन कामयाब हो गए, उस दिन बीजेपी-आरएसएस यहाँ एक सीट लेने तक को तो क्या किसी पोलिंग स्टेशन के आगे अपना बूथ लगाने तक को तरसेगी|

नोट कीजिये कि हरयाणा-पंजाब का कोई भी दलित-स्वर्ण मात्र बेसिक दिहाड़ी हेतु कभी इस क्षेत्र से बाहर गया हो, ढूंढें से भी ना मिले शायद| यहाँ पूर्वोत्तर के स्तर की वर्णीय व् जातीय ज्यादतियाँ कभी नहीं रही| यहाँ दलित हैं परन्तु महादलित नहीं| और यह सिर्फ इसलिए है क्योंकि पूर्वोत्तर में जमींदारी "सामंती यानि वर्ण-जाति भेद वाली चलती है" जबकि हमारे यहाँ खापों की खापोलॉजी के चलते जमींदारी उदारवाद वाली चलती आई, जिसमें "नौकर, नौकर नहीं बल्कि सीरी-साझी यानि काम का ही नहीं अपितु सुख-दुःख का भी पार्टनर माना जाता है, उसको नौकर नहीं अपितु नेग से बोला जाता है"| हाँ कुछ-एक प्रतिशत को यहाँ भी वर्णीय दम्भ का कीड़ा वक्त-बेवक्त डसता रहता है परन्तु ऐसे लोगों की संख्या कम है|

अब बात कल शाम रवीश कुमार, NDTV वाला की| वाले की जगह वाला इसलिए क्योंकि ज्यादा आदर इस इंसान को मैं दो वजहों से नहीं देता, एक तो खापों के बेवजह व् गैरजरूरी मीडिया ट्रायल्स की जब-जब बात आएगी, इस आदमी के प्रोग्राम्स ही सबसे ज्यादा मिलेंगे व् दूसरा इसलिए क्योंकि एक 1875 में आया था "जाट जी" व् "जाट देवता" कहता-लिखता गुजरात से; उसके इस सराहे का असर यह हुआ कि उसके पीछे-पीछे आज हर आर्य-समाजी गुरुकुल में कच्छाधारी गुर्गे घुस आये हैं| हो सके तो अपने पुरखों की दान की जमीनों पर उनके ही पैसों से बने गुरुकुलों से इनकी सेंधमारी रोकिये व् इनको आधुनिक स्कूल-कालेजों में तब्दील करवाने की मुहीम चलवाई जाए, ताकि यह अंधभक्ति-कटटरता-नफरत के अड्डे बनने से बचाये जा सकें|

खैर, रवीश कुमार यहाँ के स्थानीय लोगों (उसने सिर्फ जाट-गुज्जर का नाम लिया, जबकि यह उदारता यहाँ की सभी बिरादरियों में है) की जिस उदारता की बात कर रहा था वह इसी खापोलॉजी से आती है| अत: स्थानीय लोग प्रमोट करें अपनी इस उदारता को| मेरे जैसे कुछ-एक को तो दशक से ज्यादा हुआ इसको प्रमोट करते हुए; आप भी कीजिये|

और दूसरी उदारता जिसके चलते स्थानीय हरयाणवियों के यहाँ रवीश कुमार की बनिस्पद यहाँ के गामों तक में माईग्रेंट्स बेख़ौफ़ रहते-बसते हैं उसका मूल जिधर से आता है वह है खापों के पुरखों द्वारा, "धर्म-धोक-ज्योत" में पुरुष का प्रतिनिधित्व नहीं रखने से| हमारे पुरखों के बनाये "दादा नगर खेड़े" धाम देख लीजिये| वह पुरखे मानवता व् जेंडर सेंसिटिविटी के प्रति इतने उदार व् समझदार थे कि इन खेड़ों में मर्द-पुजारी का सिस्टम ही नहीं रखा और ना ही कोई मूर्ती रखी| धोक-ज्योत का 100% प्रतिनिधत्व औरतों को दिया जो कि आजतलक भी कायम है|

कई जगह प्रयास हो रहे हैं इन खेड़ों को मर्दवादी मर्द-पुजारी सिस्टम में ढालने के, कृपया इससे भी सावधान रहिये| औरत को जो 100% प्रतिनिधित्व दे धोक-ज्योत में ऐसी धार्मिक फिलोसोफी पूरे विश्व में सिर्फ और सिर्फ खापोलॉजी की उदारवादी व्यवस्था में ही देखने को मिली है मुझे आज तक| इसको बड़े ही अभिमान-स्वाभिमान व् आदर-मान के साथ सहेजे रखिये|

इसलिए इन दोनों उदारताओं यानि "उदारवादी जमींदारी के सीरी-साझी कल्चर" व् "दादा नगर खेड़ों की मर्द-पुजारी व् मूर्ती से रहित व्यवस्था" को जारी रखिये एक किनशिप की भाँति व् अग्रिम पीढ़ियों को इसको ज्यों-का-त्यों पास कीजिये| बल्कि अब इन दोनों कॉन्सेप्ट्स के चर्चे इतने व्यापक होने चाहियें कि कोई मस्ताया हुआ तो बेशक फंडियों के बकहावे में आवे परन्तु जानते-बूझते या नादानी में इनके फंडों में ना फंसे|

क्योंकि इस उदारता के साइड-इफेक्ट्स कभी ना भूलें:

साइड इफ़ेक्ट नंबर एक - पंजाब में हुआ जून 1984
साइड इफ़ेक्ट नंबर दो - हरयाणा में हुआ फरवरी 2016
साइड इफ़ेक्ट नंबर तीन - पुरखों की जमीनों पर बने गुरुकुलों में कच्छधारियों की घुसपैठ

इसलिए अपनी प्रसंशा सुनते रहिये परन्तु फिर सतर्क भी डबल रहिये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Delhi Assembly Polls Result 11/02/2020

यह दूसरों द्वारा बनाई गई नाम और ब्रांड की टैगिंग व् क्रेडिट चोरी करके खाने वाले लोग हैं, इसीलिए हमेशा मंजिल की आखिरी सीढ़ी (हरयाणवी में ऊपरला पैड़ा) तक पहुँचते ही लुढ़कते हुए धड़ाम तरले पैड़े पर आ पड़ते हैं| यह किसी और चीज का नहीं अपितु उसी नियत का इनको छलावा रहता है जिसके चलते यह लोगों को छल-छल कर सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ते जाते हैं परन्तु ऊपरले पैड़े पर चढ़ते ही वही ढाक के तीन पात| ना इनके पुरखे सुधरे ना इन्होनें सुधारना खुद को|

चोखा रांद कटी, नहीं तो इनकी जीत का जश्न 'जून 1984' व् 'फरवरी 2016' से भी क्रूर होना था| बदले की मानसिकता वाले लोग हैं यह, माफ़ करना नहीं जानते इसीलिए साफ़ हो जाते हैं खुद ही| बस इनको शिखर तक चढ़ने का मौका देना चाहिए| यह चढ़ना जानते हैं परन्तु ठहरना-जमना नहीं| शाहीन बाग़ इन्होनें इतना उछाला कि ज्यों महलों को छोड़ खुद ही चला हो "शाह-इन-बाग़" (जंगल) में बसने| अब इसके बाद इनकी ढलान ही ढलान चलेगी| मोहर हरयाणा-महाराष्ट्र ने लगा दी थी, उसपे सील आज दिल्ली ने लगा दी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 7 February 2020

लोकलस के ऊपर बाहरी ऑफिसर्स लगाना, गुलामों का कल्चर होता है!


आईएसएस व् आईपीएस सर्विस अंग्रेजों ने इसलिए शुरू की थी ताकि उनके बंदे ही इन पोस्टों पर बैठें व् हर जिले-नगर की कार्यवाही पर नजर रखते हुए, उनको रिपोर्ट करें| और यही मॉडल आज चल रहा है, जिला होगा पंजाब का और वहां अफसर लगा हुआ है गुजरात का; जिसको ना वहां के कल्चर की समझ ना लोगो के मिजाज की|

यहाँ, फ्रांस में रीजन, डिपार्टमेंट, अरोडिस्मों व् केंटन होती हैं; इंडियन सिस्टम से तुलना करो तो क्षेत्र-स्टेट-जिला-तहसील/थाना| यहाँ स्टेट लेवल ऑफिस में वह भी कल्चरल-एक्सचेंज के तहत 5% स्टाफ ही दूसरे राज्य या क्षेत्र का लाया जा सकता है और वह भी क्षेत्र व् स्टेट लेवल ऑफिस तक| अरोडिस्मों व् केंटन लेवल पर अगर उत्तर फ्रांस में साउथ फ्रांस का कोई बंदा लगा दिया जाता है तो विरोध कर देता लोकल एडमिनिस्ट्रेशन ही सबसे पहले| डिस्ट्रिक्ट-तहसील-थाना स्तर पर 100% स्टाफ लोकल यानि उसी जिले-तहसील का पैदा हुआ बंदा/बंदी होगा| यही मॉडल USA-Canada-UK आदि में है|

ना ही यहाँ सीधा आईएसएस व् आईपीएस का कोई एग्जाम होता| जो भी डीसी-एसपी बनेगा, वह विभाग के निचले पदों से प्रमोट होकर आएगा| यानि शुरुवात सबको कांस्टेबल लेवल से करनी होती है, उसके बाद क्रमवार स्क्रीनिंग्स से गुजरते हुए डीसी-एसपी की पोस्ट तक पहुंचा जाता है| और हमारे यहाँ आज भी आईएसएस व् आईपीएस का गुलामों वाला सिस्टम लागू है|

यह दोनों ही चीजें बंद होनी बहुत जरूरी हैं| जिस दिन यह होगा उसी दिन देश वाकई में USA, Canada, UK, France आदि वालों की तरह डेवलप्ड होगा|

अब देखना इस पोस्ट पर एकाध तो इन्हीं देशों में बसा हुआ एनआरआई ही इस पोस्ट को देशद्रोही पोस्ट बताने को दौड़ा चला आएगा, इस हद तक ब्रैनवॉश है बहुत से एनआरआईयों तक का| सुख-सुविधा इन देशों की भोग रहे हैं और इंडिया में इनको गुलामों वाला एडमिनिस्ट्रेशन ही भाता है|

दुआ है कि यह चीजें या तो स्वत:खत्म हो जाएँ अन्यथा आंदोलन करने होंगे ऐसी चीजों के खिलाफ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

शाहीन-बाग़ धरने को पूर्णरूपेण समर्थन!

फंडियों के बाप की जागीर नहीं है हिंदुस्तान|

और यह खासकर जो 35 बनाम 1 के दंगों के भुगतभोगी हैं यह अपने कन्फूजन दूर कर लें| हरयाणा में हुआ फरवरी 2016 काण्ड इतनी जल्दी भूल गए क्या कि कैसे पुलिस-फ़ौज ला अड़ाई थी 10 दिन से शांतिपूर्ण सड़कों पर बैठों पे? क्या मांग रहे थे तुम; अलग देश, अलग सविंधान, अलग धर्म या मात्र आरक्षण? और सितम्बर 2013 में कुर्बान हो कर भी देख लिया वेस्ट यूपी वालो; क्या मिला? खेतों के मजदूर छिन गए, कारीगर महँगे हो गए और बच्चे आजतक जेलों में सड़ रहे हैं वह अलग| तुम्हारी इकॉनमी की कीमत पर अपनी राजनीति से ले जंगले-बंगले चमकाने वाले लोग हैं यह| 

शाहीन-बाग़ धरने को समर्थन देने पंजाब से आये सिखों को साधुवाद| खापें भी झांकें अपने इतिहास में और हो सके तो समर्थन देवें शाहीन-बाग़ जाकर| याद कीजिये 1947 के वह दंगे जब वेस्ट यूपी के खाप चौधरियों ने दो टूक खबरदार कर दिया था कि यहाँ के मुस्लिम को किसी ने छेड़ा तो हमसे बुरा कोई ना होगा| याद कीजिये किसान-राजनीति की रीढ़ है मुस्लिम समाज| सर छोटूराम से ले सरदार प्रताप सिंह कैरों, चौधरी चरण सिंह व् ताऊ देवीलाल तक की किसान-राजनीति की एक धुर्री मुस्लिम ना होते तो कभी यह किसान-हस्तियां कोई प्रधानमंत्री, कोई उप-प्रधानमंत्री नहीं बनते|

मुस्लिमों के बिना दोबारा किसान राजनीति को उसी बुलंदी तक कोई खड़ा ही करके दिखा दे, इंडिया में जिस बुंदली तक यह ऊपर गिनवाए नाम खड़े कर गए| प्रवेश वर्मा दिखा दे, अनुराग ठाकुर दिखा दे, रमेश बिधूड़ी दिखा दे, जयंत चौधरी, दीपेंदर हुड्डा, दुष्यंत चौटाला, अखिलेश यादव, मायावती जी कोई भी दिखा दे|

अपनी आँखें खोलो, को सत्ता को तोलो| सर छोटूराम कह कर गए हैं, "धर्म से खून बड़ा होता है, धर्म तो इंसान दिन में चाहे तीन बदल ले; परन्तु जो नहीं बदलता वह है कौमी खून"| धर्म-कायदे-कानून आनी-जानी चीज हैं, खून सदियों-जमानों तक वही रहता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जब अलायन्स करके ही राजनीति करनी है तो सीधा लंदन वालों से करो!

आज़ादी से पहले इंडिया में लंदन के जरिये तीन चैनलों से राजनीति चलती थी| अगर तब के यूनाइटेड पंजाब व् उत्तरी भारत की खासतौर से बात करूँ तो यह थे:

नंबर एक - जैनी
नंबर दो - सनातनी (कांग्रेस-आरएसएस आदि)
नंबर तीन - उदारवादी जमींदार यानि सर छोटूराम व् यूनियनिस्ट पार्टी


इन तीनों में सबसे ज्यादा फायदा सर छोटूराम ने किया, अपने लंदन से सेट किये अलाइंस चैनल के माध्यम से हर वर्ग के इकनोमिक व् सिविल राइट्स मामलों में|

पहले दो चैनल आज भी खुले हैं, यूँ के यूँ चल रहे हैं परन्तु तीसरा चैनल जारी रखने की सर छोटूराम के बाद किसी ने ख़ास जेहमत नहीं उठाई| जबकि उन द्वारा किसान राजनीति की तैयार की गई बिसात पर स्टेट से ले नेशनल लेवल के बड़े-बड़े किसान-राजनीति के पुरोधा सब खेल गए|

आज के दिन इस चैनल को फिर से शुरू करने की सर छोटूराम के जमानों से भी ज्यादा जरूरत आन पड़ी है| क्योंकि आज़ादी के 70 सालों में किसान राजनीति व् इनकी सामाजिक संस्थाओं (जैसे कि खाप) की जो दुर्गति की गई है या हुई है इतनी तो 200 साल के राज में ना कभी अंग्रेजों ने करी और ना उनसे पहले 700 साल के राज में मुस्लिमों ने करी| उन्होंने यातनाएं दी जरूर परन्तु खापों जैसी संस्थाओं को इतना जलील कभी नहीं किया कि कोई खुद को खाप-परिवेश का बताने से ही कतराने लगे|

जब भी गहनता से सोचता हूँ कि क्या-कैसे सम्भव होगा दोबारा किसान राजनीति के दिन वापिस लाना? तो सबसे मजबूत चैनल सर छोटूराम वाला ही नजर आता है| सर छोटूराम की समझ को दाद देता हूँ कि जिसकी जिद्द सी थी कि, "अगर अलायन्स करके ही राजनीति करनी है तो, फंडियों की बजाये सीधा उनसे यानि अंग्रेजों से करूँ; जिनसे खुद फंडी भी अलायन्स में चलता है"| अंग्रेज, जो कम-से-कम तेरे कल्चर-कस्टम में दखल-अंदाजी नहीं करते, फंडी तो दुश्मन ही सबसे बड़ा कल्चर- कस्टम का होता है| फंडी आपकी इकॉनमी से पहले आपके कल्चर-कस्टम को नेस्तोनाबूत करने के माहौल बनाता है; आपको उससे नफरत करनी सिखाता है, उसको हेय दृष्टि से देखना सिखाता है| जबकि एक ख़ास बात और कि फंडी व् अंग्रेज आपस में नीचे-नीचे नफरत भी करते थे जबकि सर छोटूराम को अपनी कोई भी बात अंग्रेजों से मनवानी होती थी तो डंके की चोट पर मनवा लेते थे| याद कीजिये अंग्रेजों से गेहूं के भाव 6 रूपये मन की बजाये 11 रूपये मन करवा लेने का किस्सा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक