Thursday, 2 April 2020

सोचा रहा हूँ कि इस लॉक-डाउन में रामायण की तर्ज पर तो "खापायण" और महाभारत की तर्ज पर "खापरथ" लिख डालूं, क्योंकि!

1) फंडियों के कल्चर में अलसु-पलसु हो रखी, सेक्टरों में रह रही मेरी एक चचेरी भाभी बोली, "देवर जी देखना, अभी महाभारत में कृष्णलीला शुरू हो रही है|" मैंने पूछा, "हाँ री भावजराणी, टाइम पास के लिए देख रही हो या कृष्ण का कुछ फॉलो भी करती हो?" चामल के बोली, "अरे देवर जी, कृष्ण तो मेरे भगवान, ठाकुर, मुरारी सब कुछ हो चुके|" इसपे मैंने तो बस इतना क्या कहा, "फिर तो मुरारी को फॉलो करते हुए जैसे मुरारी ने उसकी बहन सुभद्रा को उसकी बुआ कुंती के लड़के अर्जुन के साथ लव-अफेयर में भगा दिया था, ऐसे ही आप भी अपने इकलौते लड़के को अपनी इकलौती ननंद की लड़की के साथ भगा सकती हो कोई प्रॉब्लम नहीं, ब्याह देना दोनों को? जैसे मुरारी ने ब्याही थी अपनी ही बहन अपनी ही बुआ के लड़के से?" उस दिन से मुंह फुलाएं हांडै सै मेरे तैं| व्हट्स-एप्प, फेसबुक सारै ब्लॉक मारे बैठी है| वजह पूछूं डायरेक्ट फ़ोन करके तो बोलती है, "क्यूँ-क्यूँ तुझे शर्म ना आई, ऐसी बात कहते हुए?" मैंने भी अबकी बार तो यह कहते हुए दबड़का दी, "मखा जब तुझे शर्म ना आती ऐसे-ऐसों को भगवान मानते हुए जो अपनी बहन, अपनी बुआ के लड़के के साथ भगाते हों तो मैं पुरखों के सिद्धांतो के विपरीत बात थारे भेजे में डालने तक का भी चोर? मुझे दिक्कत इससे नहीं है कि आप उनको भगवान मानती हो, मुझे दिक्कत इससे है कि उनका हवाला दे के आपको एक बात करने को कही तो आप उसी पे बिदक पड़ी? और मखा इन फंडियों की बेहूदगियों के चलते रूसै से तो 14 बै रूस्सी पड़ी रह| मनांदा मैं भी कोनी इब आगै|

एक और बात सोच रहा था, "अभी महाभारत में "गाम-गुहांड" की लड़कियों के साथ रासलीला करते हुए कृष्ण के एपिसोड्स आएंगे| सोच रहा था कि जिनके यहाँ ब्याह-शादी-प्रेम-लव का सिस्टम "गाम-गौत-गुहांड" के कालयजी सिद्धांत पर टिका है, वह क्या व् कौनसा अपना कल्चर बता के जस्टिफाई करेंगे इसको अपने बच्चों को?"

2) एक मुंह बोली बुआ डाइवोर्स लिए बैठी है, बोली, "बेटा रामायण वाले राम में तो कोई कमी नहीं है?" मखा अच्छा तो फूफा से डाइवोर्स क्यों ले रखा है, राम को मानती हो तो? राम की लुगाई ने तो तब भी ना डाइवोर्स की सोची थी जब वो बेवजह ही, वह भी गर्भवती होते हुए बनवास निकाल दी थी| और तेरे को फूफा सिर्फ इतना ही कहते थे कि घर में सिस्टम से रहो, कस्टम से रहो; मखा तेरे से अपने कल्चर-कस्टम तो फॉलो हुए ना, आई बड़ी राम की भक्तणी| तेरे को फूफा बोले कि सिर्फ तू अग्निपरीक्षा देगी? मखा उतर जाएगी आग में अकेली, बिना कोई सवाल करे फूफा से? उस दिन से जब भी फ़ोन करता हूँ तो "बुआ ठीक है के" का जवाब भी "हूँ-हूँ" में दे के फोन काट दे रही है|

सोच ली बस देख लिया| लानी ही पड़ेंगी अब तो रामायण की तर्ज पर "खापायण" और महाभारत की तर्ज पर "खापरथ"| क्योंकि यह पोस्ट यह तो साबित करती है कम-से-कम कि जैसे ही हम अपनी औरतों-बच्चों को अपने कल्चर-कस्टम की चीजें याद दिलाते हैं तो इनके भक्ति के भूत ऐसे उतर के भागते हैं जैसे किसी ने भूत उतरने का झाड़ा लगा दिया हो| अरे वाह, ये तो मैं बैठे-बिठाये फंडी नामक भूत भगवाओ बाबा बन गया| बोलो "फंडियों के फूफा फुल्ला भगत की, जय! जय हो, जय हो, जय हो|"

विशेष: राम हो या कृष्ण, यह पोस्ट दोनों के भगवान या इंसान जिस भी रूप में उनका अस्तित्व है उनको चैलेंज नहीं करती| यह पोस्ट सिर्फ तर्क व् अपने कल्चर-कस्टम्स की थ्योरियों का कम्पेरेटिव एनालिसिस करती है; और इसको उसी रूप में लिया जाए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

कभी पुजारी खुद सरकारों से मुआवजा मांगते हैं तो कभी खुद ही मना कर देते हैं!

बात, कोरोना के चलते पुजारियों द्वारा सरकारों से बेरोजगारी भत्ता मांगने के मद्देनजर है|

इस विषय पर हुड्डा सरकार में हुआ भनभौरी मंदिर प्रकरण याद होगा? भनभौरी मंदिर में पुजारियों को नौकरी पर रखने का विरोध कर, उस वक्त की हुड्डा सरकार से पुजारियों को सरकारी कर्मचारी पालिसी के तहत तनख्वाह पर रखने का फैसला किसने वापिस करवाया था? खुद पुजारियों ने? यह कहते हुए कि हमारे पास चढ़ावा बहुत आता है, वह हमको तनख्वाह से कहीं ज्यादा पड़ता है, तो सरकारी तनख्वाह के लिए इतना बड़ा चढ़ावा सरकार के हवाले कैसे कर दें, हम उसको नहीं छोड़ेंगे| तो अब क्या नौबत आ गई, जो सरकारी भत्ते चाहियें?

वैसे भी मंदिर में आया चंदा-चढ़ावा-पैसा-सोना कोई किसान की खुले आसमान में खड़ी सफल थोड़े है कि ओले-बारिश-तूफ़ान में सब बह गई? रिजर्व में पड़े होंगे? कोरोना जैसे संकट में खुद के धर्म की जनता की मदद हेतु तो इसको निकालोगे नहीं शायद तो क्या इससे अपने खुद के खर्चे भी नहीं चला सकते? तो फिर इस धन का करते क्या हो? वह कुछ फेसबुक वालों की फैलाये कयासों को सच मानें तो कहीं थाईलैंड या कम्बोडिया तो नहीं भेजते?

भनभौरी प्रकरण दरअसल, यह जाट की असीम दयालुता का प्रमाण है| ऐसी दयालुता यह जाट ही दिखाते हैं, वरना अब खटटर से हुड्डा (एक जाट) द्वारा "दान में मिली धौली की जमीनो" की मल्कियतें जो ब्राह्मणों के नाम की गई थी, और खटटर ने आते ही वह वापिस ही छीन ली, वह वापिस ही ले कर दिखा दो? बावजूद इसके दिखा दो कि आरएसएस व् बीजेपी की घर की सरकार है? बात बुरी है और डंके की चोट पर कड़वी है परन्तु कहूंगा जरूर कि जाट, धौली के नाम पर दान में जमीनें दे के भी 80% ब्राह्मण की निगाह में वह दर्जा नहीं पाता, जो खट्टर-बीजेपी-आरएसएस जैसे इनसे ही वोट ले के, इनकी ही धौली की जमीनें तक वापिस छीन के भी पा रहे हैं|" किसी से छुपी बात नहीं कि दोबारा बीजेपी की सरकार बनवाने में जिन समुदायों का अग्रणी योगदान है, उनमें एक आप भी हैं|   

बाकी मुझे क्या? यह तो एक बड़े ही शालीन ब्राह्मण मित्र ने ही मेरी इससे संबंधित एक पिछली पोस्ट पर सवाल खड़ा कर दिया तो भाई पढ़ ले यह भी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

गवर्नमेंट एडिड धार्मिक शिक्षण संस्थान, जिनमें आंशिक या पूर्ण रूप से धर्म की शिक्षाएं पढ़ाई जाती हैं!

मुस्लिम धर्म: मदरसे, इनके धार्मिक स्कूल फुल्ली या पार्शियली गोवेर्मेंट एडिड होते हैं|

ईसाई धर्म: इनके कान्वेंट धार्मिक  स्कूल फुल्ली या पार्शियली गोवेर्मेंट एडिड होते हैं|

सनातन धर्म (मूर्ती-पूजा आधारित): इनके गुरुकुल, संस्कृत विधालय, एसडी स्कूल सीरीज, विद्या भारती स्कूल सीरीज, गोपाल विद्या मंदिर सीरीज, शिशु भारती सीरीज, सरस्वती विद्या मंदिर सीरीज, महर्षि स्कूल सीरीज सब फुल्ली या पार्शियली गोवेर्मेंट एडिड होते हैं|

आर्य-समाज धर्म (मूर्ती-पूजा रहित): इनके गुरुकुल लगभग सब फुल्ली या पार्शियली गोवेर्मेंट एडिड होते हैं|

सिख धर्म: 100% खुद के फाइनेंस से चलाते हैं सब, सरकारों से कोई ऐड नहीं लेते|

जैन व् बुद्ध: यह शायद पार्शियली लेते हैं, मुझे खुद इस पर कन्फर्म करने की जरूरत है|

नोट 1: हिन्दू नाम का कोई धर्म दुनिया की किसी भी देश की सरकार द्वारा ऑफिशियली रेकग्नाइज़्ड नहीं, भारत द्वारा भी नहीं| बस एक हिन्दू मैरिज एक्ट है वह भी जीवन शैली के आधार पर है, धर्म के आधार पर नहीं|

नोट 2: इसपे वह भाई खुद को क्लियर कर लें, जो यह समझते हैं कि किसी एक विशेष को ही सरकारी मददें ज्यादा या कम मिलती हैं|

नोट 3: इसके अलावा खुद धार्मिक मंदिरों-चर्चों-मस्जिदों-गुरुद्वारों-तीर्थंकरों-मठों को किसको कितनी सरकारी मदद मिलती है या नहीं यह अलग शोध का विषय है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 31 March 2020

जैसे बिना अक्ल के ऊँट उभाणे, ऐसे ही बिना कल्चर के लोग निताणे!

लोग निताणे कैसे? एक तो खुद के कल्चर का ज्ञान नहीं, उसपे दूसरों के कल्चर पे दांत फाड़ना, व्यंग्य कसना|
उदाहरणार्थ: कितने हरयाणवियों (हरयाणा+दिल्ली+वेस्ट यूपी) व् पंजाबियों को पता है कि उनकी दादियां, जो आपस में खासम-खास सहेली होती थी वो जब एक-दूसरे के यहाँ आती-जाती थी तो अभिन्दन के स्वरूप आपस में 3 बार गले मिलती थी और प्यार में एक दूसरे के गाल से गाल भी टच करती थी? मेरी खुद की दादी का एक बार का (वैसे तो बहुत बार का) ऐसा वाकया तो मुझे याद है| म्हारा गुहांड है ढिगाणा, वहां की दादी की ख़ास ढब्बण होती थी| एक बार वह दादी से मिलने आई, तो पता है कैसे और क्या बोलते हुए दूर से हाथ फैला 3 बार गले मिली थी दोनों आपस में? यह बोलते हुए व् आलिंगन को बाहें फैलाते हुए कि "आइए ए मेरी शौकण, आइए ए मेरी बैरण, बड़े दिनां बाद चढ़ी मेरी देहल"| ना कोई हाथ मिलाया, ना नमस्ते करी सीधी गले मिली और कालजे में ठंडक पड़ने तक गले लगी रही|

यही फ्रांस में होता है औरतों के बीच आपस में जो खासमखास सहेलियां होती हैं| यहाँ 3 की बजाए दो बार गले गली मिलती हैं| गाल से गाल टच करती हैं|

और तो और वो तुम्हारा भारत मिलाप क्या है? जो अगर इतने चौड़े हो के बोलते रहते हो कि भारत में तो सिर्फ नमस्ते कल्चर रहा है? माइथोलॉजी ही सही, काल्पनिक ग्रंथ ही सही, परन्तु उसमें भरत मिलाप कैसे होता है, नमस्ते करके या बाहें फैला के आलिंगन करते हुए? ढोंगियों, थारी डैश-डैश बोलने को जी कर जाता है, तुम्हारे इन भोंडेपनों पे|

अब तुम तुम्हारे अंदर घुसेड़ी गई या खुद धक्के से घुसवाई तथाकथित आधुनिकता की बौर में चौड़ी हुई/हुए घूमो तो कैसे कल्चर जिन्दा रहेगा? ऐसे में तो बनेगी ही ना इस पोस्ट के शीर्षक वाली? असल में तुम्हारी गलती नहीं है, तुम दिन रात ऐसे फंडियों से जो घूंटी पीते हो जिनका काम ही तुम्हारे अंदर की सारी सीरियसनेस व् विजडम का कत्ल कर तुम्हें अक्ल-इंसानियत से पंगु बनाना होता है|

कोरोना के चलते, लोगों ने यहाँ फ्रांस में ऐसे गले मिलना बंद किया है| हाथ मिलाने की बजाए या तो हाई-फाई दे रहे हैं या खासमखास दोस्त हैं तो बंद मुठ्ठी आपस में टकरा के अभिन्दन कर रहे हैं|

अपने कल्चर को प्रॉपरली जानिये, रैशनल बनिए, वाइजर इंसान बनिए| ऐसे गधों के चंगुल में फंस के खुद के कल्चर से दूर ना जाएँ जिससे इस पोस्ट के शीर्षक वाली बने आपके साथ|

साथ लगे एक और कॉमन चीज बता दूँ, फ्रांस व् हरयाणवी/पंजाबी कल्चर की:

खासमखास मित्र के लिए फ्रांस में जो सम्बोधन प्रयोग होते हैं वह हैं Tu (यानि तू), Toi, Te, Ton यानि बिलकुल unformal जैसे हरयाणवी में होता है तू-तड़ाक-तुस्सी-तुवाड्डी| और जो आगंतुक या अनजान होता है उसके लिए फ्रेंच में सम्बोधन है vous (यानि आप) और हमारे यहाँ है थम, थामें या आप| फ्रांस वालों को तो नहीं लगता कि तू-तवा बोलने में कोई फूहड़पन, गंवारपन या पिछड़ापन है? बल्कि यह तो इस बात की निशानी है यहाँ कि बंदे पहले से एक दूसरे को जानते व् खासमखास या पारिवारिक मित्र या रिश्तेदार हैं| तो एक तुम हरयाणवी, पंजाबी या इंडियन ही कुछ ज्यादा ख़ास उतरे हो क्या धरती पे जो बच्चों को कल्चर की सच्चाई व् मधुरता सिखाने की बजाए घुसा देते हो आप-आप मात्र में उनको? असल में यह तुम्हारी आधुनिकता नहीं अपितु तुम्हारा पिछड़ापन, दब्बूपन व् खुद के कल्चर के प्रति खसना, अलगाव, नॉन-सीरियसनेस व् अज्ञान है|

इसको ठीक कर लीजिये, 50% फंडियों की दुकानें तो इतने मात्र से ही लद जानी, बंद हो जानी|

नाम व् उनके अपभृंषों से पुकारने के फ्रेंच-हरयाणवी कल्चर के कॉमन आस्पेक्ट्स का एक और उदाहरण: जब GE Healthcare, Paris में काम करता था तो वहां एक सीनियर क्लीग होती थी नाम था "Veronica"| उनका ख़ास मित्र-सहेलियों प्लस कलीग का एक ग्रुप था, जिसमें वक्त के साथ मैं भी शामिल हुआ| पता है उसको क्या बुलाते थे, "Hey Veero या Vero"| हरयाणवी में साउंड करो तो वीरो या वेरो बोला जाएगा| जब-जब कोई उसको Veronica की बजाए Veero या Vero बोलता तो मुझे या तो मेरी चचेरी बुआ बीरमति याद आती जिसको सब बीरो बोलते हैं या मेरी ताई बांगरों याद आती, उस ताई को भी सब बीरो बोलते हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 29 March 2020

"आटे दी चिड़ी" - पंजाबी फिल्म में मिले वो 67 शब्द जो पंजाबी-हरयाणवी भाषा में हूबहू हैं और हिंदी में या तो हैं ही नहीं या अर्थ दूसरे हैं!

"आटे दी चिड़ी" - पंजाबी फिल्म में मिले वो 67 शब्द जो पंजाबी-हरयाणवी भाषा में हूबहू हैं और हिंदी में या तो हैं ही नहीं या अर्थ दूसरे हैं:

चोऴ
अल्हड़
आळा
जोहटे
अल्ले-पल्ले
बैरी
राम नाळ 
वीर
डंगर
गुहांडी
गूढी
मेहरबानी
आळे
गिट्टे
सध्या
टुर्र
सोहरे
रूलदे
टब्बर
चादरे-कुडते
फुलकारी
न्याणे
चरीट
सुनक्खा
जिंद
जाण
बोरा - भोरा
खड़का
बीनती
कंडे - कांडे
उडारी
नहू
लंगर
जोगे
जामे-पळे
मशां
लंडू
विरसा
टक
गिट्टे
ठेह
जिवाक
बाड़ा
भतेरा
जमा
साम्भ
टोप्पे
नेड़े
दाणे
माड़ा
खड़क
कुत्तेखाणी
गंडा
डोक्के
भंभीरी
किते
टशन
बाज्जे
मर्र
रूळ
वरगा /बरगा
बळद
टाल्ली
खसम
रैपटा
खुर्क
पास्से

विशेष: हो सकता है कि एक-आध शब्द हिंदी से भी मेल खाता होवे, परन्तु अंत लब्बोलबाव यही है कि अधिकतर सिर्फ पंजाबी-हरयाणवी में ही मिलते हैं| आप भी कोशिश कीजिए कि जब भी कोई पंजाबी मूवी देखें तो साइड में नोटपैड खोल लेवें और नोट करते जावें व् ऐसे पोस्ट्स बना के डालें| एक पंथ दो काज इसी को बोलते हैं, मूवी की मूवी देख ली और रिसर्च की रिसर्च हो गई| 

निचोड़: यह बात एक प्रोपेगण्डे के तहत फैलाई हुई है कि हरयाणवी (वेस्टर्न हिंदी ग्रुप की बोली है) नहीं यह खुद में एक भाषा है और हिंदी से ज्यादा पंजाबी से मेल खाती है| और यह बात आगे हर देखने वाली पंजाबी मूवी में खोजता रहूँगा| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

मुस्लिम से नफरत करने का गजब तर्क देते हैं भक्त कि यह गैर-मुस्लिमों सबको काफिर मानते हैं| काफिर का मतलब होता है खुराफाती, उपद्रवी, उत्पाती!

अच्छा जी अगर इस लॉजिक से चला जाए तो तुम्हारे तो खुद वाले ही तुमको काफिर मानते हैं, वह भी दोहरे वाले काफिर|

1) तुम अपने हक-आवाज उठाओ, अपने ही धर्म के भीतर रहते हुए तो तुमको तालिबानी, नक्सली, देशद्रोही आदि-आदि बोलते हैं| 35 बनाम 1 करके कहो या जाट बनाम नॉन-जाट करके टारगेट करने वाले कौनसे मुस्लिम हैं? इनके इरादे देखे-समझे हों कभी तो तुम्हारी यह खुमारी उतरे कि तुमको मुस्लिम से खतरा हो या ना हो परन्तु जो यह तुम्हारे खुद के अंदर के पिस्सू-परजीवी बैठे हैं इनसे ज्यादा और कई गुना ज्यादा खतरा है| तुम्हारा कल्चर, तुम्हारी भाषा, तुम्हारा ईमान, तुम्हारी क्रेडिबिलिटी हर चीज को निगलने को सिंगरे हुए हैं ये| तुमको मुस्लिम कब मारने आएगा या नहीं आएगा उसका तो पता नहीं परन्तु यह तुम्हारे भीतर वाले तुम्हारे, उनसे पहले ठिकाने ना लगा दें तो कहना कि क्या बनी|

2) दूसरा काफिर जैसा सिस्टम तुम्हारे भीतर की वर्णवादी व्यवस्था व् मानसिकता, खासकर उनके लिए जो इसको मानते हैं|

तुम्हारे साथ तो वो बनी हुई है कि, "अपनी रहियाँ नैं ना रोंदी, जेठ की गइयाँ नैं रोवै"|

तुम तो महाभारत जैसे मैथोलॉजिकल विषयों पर बने टीवी शोज से भी यह अक्ल नहीं ले रहे कि कम से कम घर, जाति को तो पहले इन अपने ही धर्म रुपी घर-जाति वाले बड़े सामूहिक घरों से बचा लो| चले हैं मुस्लिमों से लड़ने| खामखा बहम में ग्याभण करके छोड़ रखे गलियों में फंडियों ने, अक्ल इतनी कोनी कि जाप्पा कौन घर करवाना|
ताज्जुब की बात तो ये है कि यह मुस्लिमों के नाम के चोड़के-ओढ़के-हव्वे उन कम्युनिटीज वालों को सबसे ज्यादा लगे पड़े जिनको पुरखों की खाप रही या राजघराने सबसे ज्यादा तो इनके मोर्चे लिए और सबसे ज्यादा अपने लोहे मनवाये| और जब मित्रता निभाने की बात आई तो वह भी प्रक्टिकली सबसे ज्यादा सर छोटूराम से ले सरदार प्रताप सिंह कैरों, चौधरी चरण सिंह जैसे इन्हीं के पुरखों ने प्रैक्टिकल साबित किये|

इसपे सितम यह कि यह चोड़के-ओढ़के-हव्वे इनको लगवाए भी किसके पड़े, उन्हीं के जो विगत मुग़लराज में मुग़लों के सबसे ज्यादा दरबारी थे और दोबारा ऐसा होवे तो फिर सबसे ज्यादा सबसे पहले दरबारी यही मिलने| क्यों भरमाओ हो खुद को, कुछ अपना पिछोका और पुरखों का ब्योंक भी टंड़वाल लो| निरे फंडियां के दिमाग के चले तो पागल और खाजले कुत्ते वाली एक साथ बननी है, जिनको दुनिया लठ-पत्थर मारने से ज्यादा किसी लायक नहीं समझती| वो पागल प्लस खाजले कुत्ते बना के छोड़ देंगे यह फंडी तुम्हें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 21 March 2020

मेरी जिंदगी की बहुत बड़ी कल्चरल कसक पूरी करती पंजाबी पीरियड फ़िल्में!

जिंदगी में जब-जब हिंदी (बॉलीवुड) फ़िल्में देखी, टीवी सीरियल्स देखे (देखे क्या धक्के से देखने के लारे लगने की कोशिश करी परन्तु नहीं लग पाया, क्योंकि इनमें हकीकत कम और काल्पनिकता, बौरायापन, भोंडापन ज्यादा भरा होता है) इन सबमें जिस चीज की कमी खलती थी वह आजकल आ रही पंजाबी पीरियड फिल्मों ने पूरी की है| मेरा मेरे कल्चर से अटूट लगाव, इसकी समझ व् इसको संजोते हुए अगली पीढ़ियों को पास करने की ललक मेरे परिवार-रिश्तेदारों से ले मित्र-प्यारों किसी से छुपी नहीं हुई है| और मुझे जिंदगी में किसी चीज ने कभी भटकाया भी है तो इस चिंता ने कि क्या-कैसे हो कि हरयाणवी कल्चर का जो वास्तविक व् पॉजिटिव रूप है वह ऊपर लाया जाए|

हरयाणवी कल्चर के अलावा बाकी नहीं कुछ भी गोळा जिंदगी मे| हंसते हुए परिस्तिथियों को गोला-लाठी करते हुए गुजरे हैं| यहाँ तक कि इस कल्चर प्रेम के चलते रिश्तेदार-मित्र प्यारों तक के लेक्चर सुने हैं वह भी पेरिस में बैठे| क्या पागलों की तरह लगा रहता है फेसबुक वगैरह पे, जब देखो हरयाणवी पोस्ट्स, हरयाणवी गाने, हरयाणवी वेबसाइट बना डाली; खापों-खेड़ों में घुसा रहता है| यही सब करना था तो पेरिस किसलिए गया या आया है आदि-आदि| परन्तु मैं क्या करूँ जब मथन बनाया ही परवर्तीगार ने ऐसा है तो? काम तक से निढाल हो के भी पड़ जाऊं खटोली में तो बेसुध दिमाग-होशो-हवास में कल्चर की कोंधनी चलती जरूर मिलनी|

ऐसा नहीं है कि मैं इसको बदल नहीं सकता, बिलकुल बदल सकता हूँ| परन्तु ऊपर वाले ने इस कोंधनी में एक प्रेरणा और डाल रखी है साथ में जो मुझे इसको बदलने नहीं देती| कहती है कि तुझे इन चीजों की समझ के साथ, चेतना के साथ धरती पे भेजा है तो मैंने भी तो कुछ विचारा ही होगा, वरना तुझे छह दिन के को तुझे पैदा करने वाली के साथ ही ना उठा लेता? तुझे अनखद खिलवाई हैं, इस कल्चर की अमीरी-प्यार-प्रेम-वातसल्य-उत्सव से अकेलापन-मायूसी-लाचारी-बिछोह झिलवाई हैं तो तुझे कुछ बड़ा करने को ट्रेंड करने के लिए ही किया है मैंने| यह सबके विरोध देख के भी, कोई विरला ही तेरे स्तर पर पहुँच कर भी, इस हरयाणवी कल्चर की पब्लिक में बात करता है| तुझे इसकी डंके की चोट पर बातें करने की निर्भीकता व् विश्वास दिया है तो मेरा भी कोई उद्देश्य है इसके पीछे| और जब दादा नगर खेड़े बड़े बीर की और मेरी ऐसी बातें होती हैं तो दादा को बोलता हूँ कि दादा अब तो 35 बनाम 1 भी हो लिया और कितनी बाट दिखवायेगा? मेरे जरिये मेरे कल्चर का जो भी सधवाना है अब सधवा भी ले?

और फ़िलहाल तो सधवाना इतना ही है कि जो कोई हरयाणवी बीर-मर्द ताउम्र हिंदी फिल्मों-नाटकों के नकलीपन व् इनमें परोसे जाने वाले हरयाणवी कल्चर के विपरीतपन से ऊब चुका हो और वास्तविक हरयाणवी कल्चर की हूबहू चीजें देखना-जानना-महसूस करना चाहता/चाहती हो, वह आजकल आ रही पंजाबी पीरियड फ़िल्में देखे| बस सिवाए भाषा के फर्क के डिट्टो यूँ-की-यूँ चीजें ला रहे हैं पॉलीवुड वाले वड्डे वीर, जो हम-आप देख-बरत बड़े हुए हैं| जिस दिन इनके हरयाणवी वर्जन आने शुरू हो गए, चाला तो उस दिन पाटैगा|

कोरोना वायरस के चलते लॉक-डाउन से मिले वेल्ले बख्त का यही प्रयोग करना है| मैंने नी इंटरनेट पे पड़ी एक भी पंजाबी पीरियड फिल्म छोड़नी, मैक्सिमम रफड देनी हैं| एक आधी तो ऐसी हैं कि कई-कई बार देख डाली परन्तु फिर भी जी ना भरता|

काश! शहरों में हंगाई उदारवादी जमींदारी की लुगाईयों को भी इन फिल्मों को देखने की प्रेरणा हो जाए तो उनको समझ आये कि तुम अपने पिछोके से बिदक कितनी दूसरों के कल्चर में डूबी आर्टिफिसियल कल्चर लाइफ जी रही हो और अपनी पीढ़ियों को जिलवा रही हो| यह अनुरोध औरत को इसलिए क्योंकि मेरे कल्चर में कल्चर व् आधात्यम का प्रतिनिधित्व औरत को ही दिया गया है| इसका सबसे बड़ा प्रमाण खुद मूर्तिओं रहित दादे नगर खेड़े हैं जिनपे औरत ही लीडरशिप के साथ स्वछंदता से धोक-ज्योत करती आई है, मर्द को करवाती है आई है, कोई मर्द पुजारी सिस्टम नहीं रहा इनपे कभी सदियों से| 100% औरत का आधिपत्य व् उसके मर्दों का सानिध्य, सुरक्षा व् इन खेड़ों की देखभाल|

लौट आओ री इन जड़ों की तरफ, इनकी तरफ लौटे बिना 35 बनाम 1 हो या भांड मीडिया व् सिस्टम की थारे कल्चर पे यदाकदा होती सॉफ्ट-टार्गेटिंग, कुछ नहीं थमने वाला| शहर आलियो थमनें देख, खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदले की तर्ज पर इन गाम्माँ आलियाँ कै भी 50% से ज्यादा को गधों वाले जुकाम हुए पड़े हैं| पड़े हुए हैं और इनको और तुमको अहसास भी नहीं हो पा रहा कि कैसे तुम तुम्हारे पुरखों के तुमको 100% दिए आधिपत्य के आध्यात्म से छिंटक मर्दवादी आध्यात्म की गुलाम होती जा रही हो और अपनी पीढ़ियों को बना रही हो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

लालडोरा रेगुलराइजेशन के लाभ चुटकी भर भी नहीं होने जबकि नुकसान बरोटा भर होंगे, क्योंकि!

लाभ:

मैंने लालडोरे के भीतर मेरे गाम-गुहांड में आजतक एक भी ऐसा केस नहीं सुना मकान-प्लाट का जो आपसी भाईचारे से ना सुलटाया गया हो और उसको कोर्ट-कचहरी देखनी पड़ी हों| असल तो इस सिस्टम की ब्यूटी यह रही कि 99% ऐसे केस बने ही नहीं, कहीं-कहीं 1% जितने बने भी तो भाईचारों में आपस में बैठ के सुलटा लिए जाते रहे| तो ऐसे में चुटकी भर भी लाभ नहीं होना लोगों को इसका, खामखा का खेचला होने के सिवाए|

नुकसान:

आर्थिक व् मानसिक परेशानी:
लालडोरे के बाहर लगभग एक चौथाई से ले आधोआध तक लोगों के खूंड बजते हैं| थानें-तहसीलें-कचहरियें चक्र बंधे रह सें, वो अलग| तो यह लालडोरे के भीतर की रेगुलराइजेशन इन झगड़ों को और ज्यादा बढ़ाने के अलावा, क्या लाभ देगी; सरकार ने विचारा भी है इसपे?

सदियों पुराने जांचे-परखे हरयाणवी कल्चर का मलियामेट:
सरकारों को चाहिए कि उदारवादी जमींदारी की खापोलॉजी के इस सिस्टम को ना छेड़ें| बल्कि ऐसी विचारधारा को पारितोषिक दें कि लोगों ने आपसी भाईचारे के कल्चर से यह चीजें मैनेज करके रखी, जिसके लिए किसी एडिशनल सिस्टम सरकार की जरूरत नहीं पड़ी|

अंग्रेज तक ने यह जरूरत मसहूस नहीं की थी तो इस सरकार को क्या फांसी फंसी हुई है जो शुद्ध हरयाणवी कल्चर के ऐसे सरोकारों को तहस-नहस कर, हरयाणवी जनमानस की स्वछंदता को खत्म करने को आतुर है? कच्छाधारियों के आदेश हैं क्या ये?

लालडोरे के भीतर के मकानों से माल-दरखास उगाहने में कोई दिक्क्त आ रही है? या चूल्हा टैक्स से ले बिजली बिल, पानी के बिल या कुछ भी ऐसी सरकारी एडमिनिस्ट्रेटिव कार्यवाही जो इसकी वजह से रूकती हो; कुछ तो वजह बताओ इस जरूरत की?

लोग भी नहीं पूछ रहे| लगता है फंडियों ने महाभारत सुना-सुना सबके आपसी भाईचारे बिखेर दिए हैं| क्या चाहते हो, सरकार से बोलते-पूछते क्यों नहीं इसपे?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 17 March 2020

"जय माँ काली हरयाणे वाली, दूध के बालट्ट भरने वाली" की टैग लाइन से मशहूर अखिल भारतीय झोटा-भैंस महासभा ने जारी किया भक्तों के खिलाफ अल्टीमेटम!

गाय के मूत और गोबर के नाम पर फंडी, भक्तों को चिपका रहे भैंसों का मूत व् गोबर| इस पर सारा भैंस महकमा भक्तों से नाराज| आपत्ति दर्ज करवाई कि जिस दिन हमें सर्वाइव करने के लिए फंडियों के हाथों हमारे मूत-गोबर का सहारा लेना पड़ेगा, उस दिन तो हम हमारे झोटे पतिदेव को बोल के सबकी यमलोक में एंट्री बैन करवा देंगी| अपनी पत्नियों/डब्बनों (भैंस) के मुंह से अपने लिए इतना भरोसा सुन के ठाणों में बंधे से ले गामी झोटों तक ने करी खुरी काटनी शुरू|

उधर म्हारे वाला झोटा मुझसे बोला कि "यमराज के भी फूफा मेरे मालिक महाराज" थारी आज्ञा हो तो मैं यमलोक में यमराज को यह अल्टीमेटम दे आऊं म्हारी पत्नी/डब्बनों का? वैसे तो यमराज की औकात नहीं कि मुझे आपके यहाँ से खोल के ले जाए; हर बार लठ दे के चलदा कर दो हो यमराज को| मैंने कहा कोई नी वीरे चला जा| और ऐसे सारे झोटे यमलोक के दरवाजे आगे इकठ्ठे होने शुरू हुए और यमराज की चौखट पर यूँ टक्कर मारनी शुरू करी जैसे हीट आई भैंस के लिए झोटा, उसके नोहरे-दरवाजे-हवेलियों के गेट्स को मार-मार खैड़ उनके चूले तोड़ दिया करते हैं, ऐसे यमराज को दिखाए जबरदस्त हूड|| इससे यमराज घबरा गया है| और किसी भी अंधभक्त या फंडी की यमलोक में एंट्री बंद करने हेतु यथाशीघ्र मीटिंग बुलाई है|

इस गहन आपत्ति के पीछे भैंसों ने तर्क दिया है कि मूत और गोबर तो हम अपने काटडे-काटडियों को ही नहीं पिलाते-खिलाते| हमारी अपनी भी एक सोशल ब्रांड है, जिम्मेदारी है| हरयाणवियों के लिए तो खासकर हम "ब्लैक-गोल्ड" कहलाती हैं| हरयाणवी इतना नाम तो "काली कलकत्ते वाली का नहीं लेते" जितना हमारा जयकारा यह कहते हुए करते हैं कि, "जय माँ काली हरयाणे वाली, दूध के बालट्ट भरने वाली"| हमारे दूध से ही जब ओलिंपिक मेडल्स लाने वाले पहलवान व् देश की सीमा पर दुश्मन की तोपों आगे छाती अड़ा देने वाले बहादुर बनते हैं तो हमें क्या पड़ी जो फंडियों को गाय के नाम पर हमारा घूं-मूत लोगों को पिलाने देंगी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 14 March 2020

आज, कुछ जाट की उस गजब की जजमानी उदारता की कहूंगा जिसको अक्सर ओबीसी से ले दलित तक दरकिनार करते हैं!

उदाहरण मेरे गाम निडाना का ही दूंगा| वह भी ऐसी बातों का जो शायद जाट बाहुलयता की छत्रछाया में ही मिल सकती हैं|

उद्घोषणा: इस लेख में जहाँ-जहाँ फंडी शब्द प्रयुक्त हुआ है उसको कोई किसी भी जाति-विशेष से जोड़कर ना पढ़े, क्योंकि फंडी हर जगह होते हैं फिर चाहे जो कोई धर्म हो जो कोई जाति हो|
1 - कल यानि 16 मार्च को सीली सात्तम है, हमारे कल्चर में इस दिन गुड़ के मीठे चावल (खासतौर से) व् अन्य पकवान बनते हैं व् कुम्हारों (ओबीसी ध्यान दियो) को धोक चढ़ाई जाती है "सीली सात्तम की मढ़ी" के जरिये| इस दिन जो प्रसाद (मीठे चावल समेत, अन्य मिठाई या बताशे वगैरह) चढ़ता है उस पर सम्पूर्ण अधिकार कुम्हारों व् उनके गधों का होता है| यानि जो साफ़-सुथरा-सूखा प्रसाद जैसे कि मिठाई वगैरह हो वह सारे का सारा कुम्हार खुद के लिए व् गीला-मिक्स प्रसाद उनके गधों के लिए ले कर जाते हैं| बुरा मत मानना, परन्तु सोचो इतना ऊंचा सम्मान व् प्रसाद रुपी मिठाई व् मीठे चावल, गधे तो क्या इंसानों तक को नसीब ना होने देवें जो अगर फंडियों का आधिपत्य होवे पर इस मढ़ी पर| यह है मेरे गाम में जाट-बाहुलयता की छत्रछाया की पहली उदारता|
2 - मेरे गाम में एक माता की मढ़ी है सुदूर पश्चिम वाली फिरनी पे| इसपे एक पत्थर की तख्ती लगी हुई है कि यह फलाने-फलाने नाई ने फलां वर्ष में बनवाई| और इसको गाम के जाट ही सबसे ज्यादा मानते हैं| बताओ एक नाई (ओबीसी वाले ध्यान दियो जरा) द्वारा बनवाई गई ऐसी चीज और उसको जाट सबसे ज्यादा मानने वाले? इसका प्रसाद व् चढ़ावा भी ओबीसी-दलित जमात ही लेकर जाती है| जो बैठा हो इसपे भी कोई फंडी, जाने देगा वो प्रसाद का एक दाना भी यूँ वो भी सीधा-सीधा दलित-ओबिसियों के कब्जे? परन्तु ओबीसी में बहुतेरों को यह उदारता समझ नहीं आती, भले कल को इस मढ़ी पे यहाँ कोई फंडी बैठा देवें और वह इस प्रसाद को, इनको ना लेने देवे तो यह उस फंडी को फिर भी भला बोलेंगे परन्तु जाट की छत्रछाया की उदारता नहीं जानेंगे|
3 - मेरे यहाँ "दादा मोलू जी जाट, खरक" वाले की ऐसी मान्यता है कि उनकी खीर बनती है हमारे यहाँ हर पूर्णिमा को| परन्तु जानते हो वह खीर किसको दी जाती है, धानक (दलित कबीरपंथी) बिरादरी को| और देने वाले कौन, जी, वही जाट जी| मेरे गाम में जिस किसी जाट के घर हर पूर्णिमा को खीर बनती है उसमें एक बेल्ला-थाली-डोंगा-लोटा खीर धानक की जरूर से जरूर होनी होती है| सोचो क्या बीतती होगी उस फंडी पर जो यह खीर पाने को क्या-क्या फंड-प्रपंच नहीं रचता; जबकि जाट यह आदर-सम्मान-हक देता है तो किसको, उसके ही घरों में सबसे ज्यादा सीरी का काम करने वाली धानक बिरादरी के भाईयों को| बताओ ऐसे में फंडी, जाटों से नफरत नहीं तो क्या धोक मारेगा उनकी? परन्तु जाट फिर भी नहीं घबराता, उसको मानवता व् सेक्युलरिज्म सर्वोपरि है वह फंडियों का रचाया 35 बनाम 1 भी झेल लेगा परन्तु सर्वबिरादरी के आदर की यह अनूठी उदारता नहीं छोड़ेगा|
4 - कुछ सदी पहले मेरे गाम में "चमारवा" डेरा होता था, जिस पर चमारों की देखरेख होती थी| और उसको सबसे ज्यादा धोकते कौन थे, जाट| हालाँकि उस डेरे में नशे-पते व् फंड-पाखंड बढ़ने की वजह से गाम ने उसको उजाड़ दिया था| ऐसा उजाड़ दिया था कि आज नामोनिशान नहीं मिलता उसका; बस बुड्डे-बड़ेरे जगह बता देते हैं कि यहाँ होता था, मंगोल वाले जोहड़ पर| "मंगोल वाला जोहड़" नाम निडाना को बसाने वाले प्रथम पुरखे "दादा चौधरी मंगोल जी गठवाला मलिक महाराज" के नाम पर है रखा गया है|
5 - एक बार अस्थल बाहर का भगवाधारी महंत आया निडाना में निडाना की यह ख्याति सुनके, लगभग एक-डेड सदी पहले की बात है| गाम के गोरे धूणा जमा के बैठ गया कि भिक्षा ले के उठूं| गाम वालों ने लत्ता-चाळ-रोटी-टूका दे दिया| परन्तु महंत बोला रूपये-पैसे का दान दो| बुड्डे-बड़ेरे आध्यात्म के इतने स्वछंद (आज वाले अंधभक्तों की तरह मूढ़मति नहीं थे वो) बोले कि, "बाबा, जोगी का रूपये-धेल्ले की मोहमाया से क्या काम? जोग इसी स्पथ के साथ लिया था ना कि आजीवन मोहमाया-दुनियादारी-धनदौलत से दूर रहूंगा?" बाबा बोला कि नहीं मैं तो धन का दान ले के उठूं| गाम वालों ने उसकी यह बात अनसुनी कर दी| महंत लगा फंड रचने, तीसरे दिन एक टांग पर खड़ा हो गया| जब देखा कि यह तो इससे भी नहीं घबराये तो हाथ जोड़ विनती की मुद्रा में आ गया और बोला कि, "रै चौधरियो, मैं इतने बड़े डेरे का महंत, मुझे एक रुपया दे कर ही विदा कर दो?" संत बिरादरी में बोर मार के आया हूँ कि मैं निडाने से धन का दान लाऊंगा|" पर चौधरी अपने आध्यात्म से मुड़े नहीं और बोले कि बाबा, जितने दिन रहना हो गाम में रह, दो वक्त की तेरी रोटी और तील-तागा गाम तुझे मूकने नहीं देगा परन्तु पैसा-पूसा भूल जा| मेरे दादा-दादी बताते थे कि तब महंत गाम को यह बोल के गया कि, "आज के बाद मैं, निडाना को साधुओं के नाम का सांड छोड़ता हूँ; इस गाम में मेरे बाद जो भी बाबा रेन-बसेरे रुके वह पिट के जावे"| पता नहीं निडानियों ने यह पट्टी क्या पकड़ी बाबा की, कि तब से आजतक का तो रिकॉर्ड चला आ रहा है कि जो भी बाबा रैन-बसेरे रुका और उसने धूणा-धुम्मा लगाया या जारी-चकारी तकनी चाही, वो आधी रात पिट के भागा गाम वालों से; आगे पता नहीं कब तक यह दस्तूर जारी रहेगा|
6 - मलिक जाटों की "कुलदेवी" एक मुस्लिम दादी है जिनको "दादी चौरदे" बोलते हैं| इनको गाम के सारे जाट धोकते हैं, क्योंकि एक तो यह मलिक जाटों के दादा पुरख मोमराज जी महाराज की मुंहबोली बहन थी, दूसरा इनको दादा मोमराज जी का आशीर्वाद था कि तू मेरे खूम की कुलदेवी कहलाएगी| इनकी मढ़ी, दादा नगर खड़े बड़े बीर के बगल में ही है| कहलाये भी क्यों भी नहीं, आखिर दादा को गढ़ गजनी के सुल्तान की कैद से छुड़वाने वाला जोड़ा दादी चौरदे व् उनके पति दादा बाहड़ला पीर जो थे| इनकी वजह से मलिकों का खूम आगे बढ़ा, वह वाकई में कुलदेवी कहलाने लायक है|
7 - दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर तो खैर है ही सर्वधर्म सर्वजातियों का| इस धाम पर धोक-ज्योत-प्रसाद का सिस्टम यही है कि कोई पुजारी नहीं होता, 100% औरतों का आधिपत्य रखा गया है| वह अपनी मर्जी से जिस किसी को चाहें प्रसाद देवें-लेवें| पीरियड्स आये हों या नहीं, जब चाहे धोक-ज्योत लगावें, बस नहा-धोकर आना होता है ज्योत लगाने, चयान्दन लगे किसी भी इतवार को| मर्दों का इसमें सिर्फ इतना दखल होता है कि वह इसकी इमारत की देखरेख करते हैं|

है ना गजब का सूहा, जहाँ रोजगार-कारोबार तो छोडो धर्म तक में जाटों ने ओबीसी से ले दलित व् मुस्लिमों तक को बराबर रखा है सदियों से!

आप भी ढूंढिए, अपने गाम के ऐसे किस्से; यूँ ही नहीं कटखाने स्तर तक की नफरत करता फंडी जाट से| जाट जहाँ बाहुल्य होगा, वह धर्म तक में सबका साझा उसी सम्मान से बनवा के रखता पाया जाता है, जिस सम्मान से वह उदारवादी जमींदारी में उसके वर्किंग कल्चर से ले सोशल इंजीनियरिंग तक में बरतता है| हाँ, फंडियों के प्रभाव में रहने वाले जाटों बारे मैं ऐसे दावे नहीं करता; क्योंकि जो फंडी के बहकावे चढ़ा समझो वह जिन्दे-जी सूली टंगा|

विशेष: मैंने इस लेख में एक जाति के पॉजिटिव पहलुओं का गुणगान किया है वह भी बिना किसी अन्य बिरादरी पर आक्षेप-द्वेष-क्लेश लगाए-दिखाए| अब ऐसे में भी किसी को इस पोस्ट में जातिवाद नजर आवे तो वही मेरी दादी वाली बात 14 बर आवे और ऐसे इंसान मेरे लेखे कुँए में पड़ो और झेरे में निकलो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

मीडिया के फंडी भांडों के रटे-रटाये रंग उभर आये हैं, उदाहरण "दीपेंद्र हुड्डा का राजयसभा के लिए नॉमिनेट होना"!

यूट्यूब देख लो या अखबार, क्या हैडिंग आ रहे हैं?: हुड्डा ने चलाया "जिसकी लाठी उसकी भैंस" का फार्मूला व् अड़ाया एक दलित नेता की टिकट में अड़ंगा|

उदारवादी जमींदारों, व्यापारियों व् मजदूरों की पीढ़ियां समझें इस फ़ंडी पॉलिटिक्स को:

इनको "जिसकी लाठी, उसकी भैंस" लिखना तब क्यों नहीं सूझता:

जब मोदी, अडवाणी-जोशी-सिन्हा सबकी घिस काढ़ के कूण में लगा देता है?
जब राजनाथ सिंह को दरकिनार कर, अमित शाह को गृह मंत्री बनाया जाता है?
जब कमलनाथ की सरकार हो या लालू की, अमितशाह अनैतिक तरीकों से गिरवाने की कोशिश करता है या गिरवा देता है?
जब उन्नाव रेपकांड जैसे अनगिनत रेपकांडों में, आरोपियों को जेल तक नहीं होती परन्तु पीड़ितों के परिवार के परिवार खत्म करवा दिए जाते हैं?
जब राणा कपूर जैसे लोग बैंक-के-बैंक डुबो देते हैं और लाखों लोगों का रुपया आया-गया कर देते हैं? ऐसे केसों में तो कायदे से इनको "जंगलराज" शब्द भी जोड़ना चाहिए, परन्तु नहीं यह जोड़ेंगे सिर्फ तब जब "लालू यादव" जैसों की सरकार होगी|

और तो और, इनको जो सूट करता है उनके बारे भी तब तक ऐसी लैंग्वेज प्रयोग नहीं करेंगे, उदाहरणार्थ:
चौधरी ओमप्रकाश चौटाला जी के साथ उनके परिवार व् पार्टी वालों द्वारा की जा रही नाइंसाफी| यह नाइंसाफी उस दिन देखना जिस दिन जजपा ने बीजेपी से अलायन्स तोड़ अलग चलने की कोशिश करी| यही भाडखाऊ देखना फिर क्या-क्या इनके बारे भी लिखेंगे|

निचोड़ यही है कि इनका एजेंडा जमींदार-किसान-मजदूर राजनीति को खत्म करना या खत्म बनाये रखना या इन वर्गों से आने वाले नेताओं को एक लिमिट से आगे नहीं बढ़ने देना है| ऐसा कोई नेता उभरता दीखता है तो इनकी भाषा का नीचतम स्तर उभर कर आता है जैसे दीपेंद्र हुड्डा को राजयसभा की टिकट मिलने पर आया| यही टिकट दीपेंद्र की जगह किसी इनको सूट करने वाले वर्ग वाले को मिलती तो इन्हीं की भाषा ऐसी-ऐसी सफाइयों भरी होनी थी कि मैडम सैलजा नहीं, फिर इनकी छोटी साली भी लगनी थी| कहते कि यह कांग्रेस की मजबूरी थी क्योंकि एक तो मैडम सैलजा पर सारे विधायक राजी नहीं थे और दूसरा क्रॉस-वोटिंग होने का खतरा था, जिससे सीट हाथ से निकल सकती थी व् बीजेपी के खाते जा सकती थी|

इनको सुना के भी क्या करना, बस युवापीढ़ी समझ ले कि भारतीय राजनीति में लड़ाई मैदान की जितनी है उसकी सौइयों गुणा कलम से हवा व् इमेज बनाने-बिगाड़ने की है| कलम से इमेज बनाने-बिगाड़ने की प्रैक्टिस करते जाओ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

पंजाबी फिल्मों में पंजाबी भाषा के जरिये बचे चल रहे हरयाणवी भाषा के भी शब्द!

पंजाबी फ़िल्में पहले भी बहुत देखता था, परन्तु पिछले दो-एक महीने में हर वीकेंड पे जितनी भी 8-10 फ़िल्में देखी हैं; एक खुशगवार आदत लग गई है| वह यह कि हर फिल्म में लगभग 100 के करीब या इससे भी ज्यादा ऐसे पंजाबी शब्द नोट किये जो हूबहू हरयाणवी भाषा में बोले जाते हैं परन्तु हिंदी में नहीं|

सोच रहा हूँ, आगे से हर पंजाबी फिल्म को देखते वक्त नोटपैड खोल के बैठ जाऊँ और प्रति पंजाबी फिल्म ऐसे शब्दों की लिस्ट बनाऊं| वह शब्द तक सुनने को मिलते हैं जो मेरे दादा-दादी-नाना-नानी बोलते थे और आजकल के बच्चों को सुनाओ तो या तो असल समझ ही नहीं आएंगे अन्यथा उर्दू बताएँगे या अरबी| वाकई में मेरे से पहले वाली व् मेरी हरयाणवी पीढ़ी में बहुत डाउन आया है| इस मामले में मेरे से पहले वाली पीढ़ी तो अगर बिलकुल सो गई थी कहूं और मेरे वाली को आधी सोई, आधी जगी तो अतिश्योक्ति ना होगी|

क्या हम आधी जगी, आधी सोई वाले हमारी अगली पीढ़ी को हरयाणवी भाषा को दादा-दादी-नाना-नानी वाले रूप में पास कर पाएंगे? अगर कर गए तो हमारी पीढ़ी का अति-विशेष स्थान रहना है आगे वाली पीढ़ियों में| इतना आनंद किसी हिंदी-इंग्लिश-फ्रेंच मूवी में नहीं आया जितना पंजाबी मूवीज में आ रहा है और वह भी ऊपर बताई वजह से तो डबल| इनको देखकर लगता है कि हरयाणवी अभी जिन्दा है और प्रैक्टिकल में जिन्दा है| बल्कि आजकल हिंदी फिल्मों से तो बोरियत भी होने लगी है, जबकि पंजाबी मूवी देखना शुरू करता हूँ तो बस खत्म होने पे ही पता चलता है; इतना आत्ममुग्ध हो जाता हूँ देखते-देखते|

यह एक्सरसाइज करनी शुरू करनी होगी, इससे पंजाबी-हरयाणवी और नजदीक आएंगे एक दूसरे के| आजकल कुछ फंडियों ने मुहीम चला रखी है कि हरयाणवी तो उर्दू-अरबी की उधारी बोली (भाषा भी नहीं कहते) है (पहले दुष्प्रचार करते थे कि लठमार है), और यह कह कर हरयाणवी से मोह छुड़वाया व् हिंदी (हिंदी सीखना/बोलना/लिखना कोई बुरी बात नहीं, परन्तु ऐसे दुष्प्रचारों को बारीकी से ऑब्जर्व करके समझते चलिए कि उनका प्रभाव किस्से अलगाव बनाता है व् किस से जुड़ाव) से जुड़वाया जा रहा है; जबकि उर्दू-अरबी से ज्यादा तो हरयाणवी के शब्द पंजाबी भाषा के साथ कॉमन हैं| निसंदेह हरयाणवी बारे ऐसी बातें ज्यादा-से-ज्यादा बाहर आनी चाहियें| जल्द ही किसी पंजाबी मूवी की रिफरेन्स समेत ऐसे शब्दों को लिस्ट पेश करूँगा|   

एक और ख़ास बात: अगर बॉलीवुड के बकवास व् बोरियत भरे टीवी सीरियल्स व् फिल्मों से उकता गए हो और अपने दादा-दादी-नाना-नानी के जमाने का प्योर कल्चर देखना चाहो तो आजकल आ रही पीरियड पंजाबी फ़िल्में देखिये| बस भाषा का फर्क है, यूँ-की-यूँ फिल्म की पंजाबी से हरयाणवी में डबिंग कर दो तो समझना शुद्ध हरयाणवी कल्चर की ही फिल्म देख ली| वैसे यह डबिंग शुरू करनी चाहिए, जितना जल्दी हो सके| देखें कब कौन आता है इस कारनामे के साथ| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 10 March 2020

हरयाणा में फरवरी 2016 के "35 बनाम 1" के रंग देखने के बाद से धर्म-बदलने की बात ऊठती रही है!

मेरे सामने जब-जब यह बात आई, इस बात को उठाने वाले/वालों से मैंने दो मुख्य पहलुओं पर जवाब मांगे; जिनका या तो किसी के पास हल नहीं मिला या मिला तो यह कैसे होगा इसका विजन नहीं दिखा अभी तक| क्या हैं वह दो पहलू?

पहलू एक:

35 बनाम 1 की समस्या से स्थाई निजात पाने का पहला हल आता है कि सिखिज्म में चलते हैं| मैंने कहा एक बात हो जाए तो सिख धर्म में चलने से बेहतर कुछ है ही नहीं| क्या बात हो जाए? आज मैं जहाँ-जिस स्थिति में जैसे भी हूँ वहां मेरी ऐतिहासिक विरासत की एक अच्छी खासी बानगी है, जो

"दादा नगर खेड़ा" के सर्वधर्म-सर्वजातीय जेंडर न्यूट्रल मानवीय आध्यात्म,
"उदारवादी जमींदारी" के सीरी-साझी वर्किंग-कल्चर,
"सर्वखाप" की डिसेंट्रल सोशल इंजीनियरिंग व् मिल्ट्री कल्चर के इतिहास,
"हरयाणवी/पंजाबी भाषा व् भेष" के कस्टम और
"भाईचारे" की सर छोटूरामी राजनीति व् महाराजा हर्षवर्धन से ले महाराजा सुरजमली शाहनीति

के पाँच आधारों पर बुनी हुई है| और यह भी कि इन पाँचों आधारों का जहाँ हूँ, जैसे हूँ, वहाँ के धर्म में भी हेय का, तुच्छ समझने का स्थान है; जिससे मैं उदास व् आशाहीन नहीं भी हूँ तो खुश भी नहीं हूँ| तो अगर सिखिज्म से बात की जाए और इन पाँचों आधारों को सिखिज्म में, उनकी गुरुबाणियों में बराबरी का स्थान दिया जावे तो मैं सबसे पहले दौड़ कर सिखिज्म अपना लूँ| अन्यथा अगर बिना इनको साथ लिए सिखिज्म में जाता हूँ तो यह सब ठीक वैसे ही बेवारसी हो जाती हैं जैसे 1469 से पहले के इतिहास बारे आज सिख बना सजातीय भाई उससे, उसके 1469 से पहले के इतिहास व् पिछोके बारे पूछने पर वह 90% मूक हो जाता है| तो कल को 2020 से पहले के इतिहास पर क्या मैं भी ऐसे ही मूक नहीं हो जाऊंगा, अगर इन 5 आधारों की विरासत को साथ लिए व् जायज स्थान दिलवाये बिना सिखिज्म में जाता हूँ तो? इस जायज स्थान का ही तो सारा मसला है और यह वहाँ जाने पर भी कायम रहा तो?

यह सवाल मैंने बार-बार बड़े-छोटे बहुत से साथियों के आगे उठाया है परन्तु अभी तक हल नहीं आया किसी की तरफ से|

पहलू दो:

आर्य-समाज का आधार है 35 बनाम 1 वाली कम्युनिटी| आर्य-समाज के 95 से ले 98% गुरुकुल, धाम, मठ सब हमारे पुरखों की दान दी जमीनों पर हमारे पुरखों के दान किये धन से बनी हुई हैं| और 70-80% से ज्यादा का संचालन तो आज भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से 1 वालों के ही पास है| और 2008-2012 के इर्दगिर्द आर्यसमाज की "एक हांडी में दो पेट" वाली दोगली नीतियों को क्रिटिसाइज करती मेरी पोस्टें आज भी सोशल मीडिया पर किसी न किसी रूप में उपस्थित हैं| उस वक्त एक-दो भाई ही होते थे जो ऐसी पोस्टें निकालते थे| यह इसलिए बोल रहा हूँ कि जिनको 2016-17-18-19 में इन पर लिखने की सूझी, उनमें से बहुतों की प्रेरणा हमारी एक-दो की लिखी 2008-2012 से चली पोस्टें रही हैं, जो कि बहुत से भाई मुझे खुद बताते भी हैं| तो यह दिखाता है कि मैं आर्यसमाज के मुद्दे पर ना तो इमोशनल हूँ, ना सॉफ्टकॉर्नर रखता हूँ और ना ही एक दम कटटर विरोध में जा खड़ा हुआ हूँ; मैं आर्यसमाज को लेकर कुछ हूँ तो "गंभीर चिंतन में लीन"| चिंतन में लीन कि कैसे फंडियों के कब्जे से आर्यसमाज को मुक्त करवाया जाए, कैसे इसमें से "एक हांडी में दो पेट" वाली बातें निकलवाई जाएँ व् कैसे इसमें ऊपर बताये 5 आधारों को सर्वोच्च स्थान दिलवाया जाए|

सिखिज्म या किसी अन्य धर्म या कहो कि अपना ही कोई नया धर्म स्थापित करने से पहले मैं पहलू दो की हरसम्भव हल की कोशिश करना चाहता हूँ और मैंने या कहिये कि हमने यह कोशिश की इसका हरसम्भव आर्यसमाजी को आभास हो| इस आभास होने तक पहुँचने के बाद भी चीजें नहीं बदलती हैं तो फिर मैं पहलु एक सिखिज्म के साथ ट्राई करना चाहूँगा| सिखिज्म पहलु एक को स्वीकारता है तो सिखिज्म में जाया जायेगा अन्यथा फिर इन 5 आधारों के साथ अपना खुद का धर्म स्थापित करना ही आखिरी रास्ता होगा|

इस विचार, इस स्ट्रेटेजी पर अपने विचार जरूर देवें, ताकि मुझे भी समझ आये कि मैं साथियों की सोच से कितना दूर हूँ और कितना करीब, यह सब जो लिखा यह कितना सम्भव है व् कितना असम्भव, कितना सही है व् कितना गलत| निसंदेह मैं हर दूर, हर असम्भव व् हर गलत को ठीक करने की जी-जान से कोशिश करूँगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक