Tuesday, 6 October 2020

आओ बच्चो, मीडियाई गुंडों से वर्णवाद व् जातिवाद सीखते हैं!

जरा यह सलंगित खबर पढ़ो, और सोचो क्या शिक्षा मिलती है इससे? 


मुख्यत: यही कि जिस पार्टी-संगठन में जिस वर्ण-जाति-सम्प्रदाय की बहुलयता हो, जिस वर्ण-जाति-सम्प्रदाय के लीडर्स की अधिकता हो; उसको उसी वर्ण-जाति-सम्प्रदाय की पार्टी-संगठन बोला करो; क्योंकि इस देश का कानून तो इन ऐसे मीडियाई वर्णवादी व् जातिवादी गुंडों की इन हरकतों का स्वत: संज्ञान लेता नहीं कभी| ऐसा भी नहीं है कि RLD ने अपने रजिस्ट्रेशन व् संविधान में ही खुद को एक जाति-वर्ण विशेष की पार्टी घोषित कर रखा हो, जो यह मीडियाई गुंडे इस खबर में RLD के संदर्भ में जाट शब्द को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं| 


दरअसल यह खुद को तुम्हारे ही धर्म, तुमको उनके ही धर्म के (मुस्लिम-सिख या ईसाई आदि नहीं) बताने-गाने-गिनने-लिखने वाले वर्णवादी कीड़ों की ऐसी सोच है कि जिन पार्टियों में जाट या ओबीसी या दलित वर्ग के लोगों व् नेताओं की बाहुलयता हो उनको ऐसे ही जाति संबंधित लिखो-दिखाओ-गाओ-फैलाओ| समझ में आई बच्चों, कि इस देश में सबसे बड़े वर्णवादी व् जातिवादी लीचड़ कौन हैं? 


अब इनका कुछ इलाज भी कर सकते हैं क्या? हाँ, क्यों नहीं कर सकते, यही तो असली जंग है; जिसमें यह हराने हैं| और इसके लिए क्या किया जाए? 

1) जो ब्राह्मण बाहुल्य या नेताओं की लीडरशिप की पार्टी-संगठन हैं, उनको ब्राह्मण पार्टी-संगठन कहना शुरू करो| जैसे कि बीजेपी ब्राह्मण बाहुल्य है, पूरे इंडिया में| कांग्रेस उत्तरी भारत में जाट, ओबीसी व् दलित जातीय बाहुल्य चल रही है पिछले लगभग डेड दशक से; इससे पहले इस बारे भी  ब्राह्मण पार्टी होने का टैग था| ऐसे ही आरएसएस ब्राह्मणों में भी चितपावनी ब्राह्मण बाहुल्य है, उन्हीं का आधिपत्य है| हरयाणा के ब्राह्मण को तो चितपावनी ब्राह्मण, ब्राह्मण समाज के दलित बोलता/मानता है; ऐसा मेरे कुछ हरयाणवी ब्राह्मण मित्रों ने ही बताया है| 


2) ऐसे ही जो राष्ट्रीय या राज्य स्तर का नेता है उसको सिर्फ उसकी जाति का बताया करो| जैसे कि महात्मा गाँधी, बनिया नेता; इंदिरा गाँधी ब्राह्मण नेता; अटल बिहारी वाजपेई, ब्राह्मण नेता; अमित शाह, जैनी नेता; मनोहरलाल खट्टर अरोड़ा/खत्री नेता आदि-आदि| 


उद्घोषणा: इस लेख का लेखक वर्णवाद व् जातिवाद से पूर्णत: रहित इंसान है; इसलिए इस अखबार वाली टाइप की बातों में बिलकुल यकीन नहीं रखता| परन्तु इन अखबार वालों की आखें खोलने हेतु, इससे दुरुस्त कोई मार्ग भी नहीं दीखता| तो मात्र शायद यह लेख पढ़ के ऐसे मीडियाई गुंडों की लीचड़-कीड़े पड़ी सोच में कुछ डले, इसके लिए यह लेख लिखा है| और जब तक यह "कलम के गुंडे" इनकी ऐसी हरकतों से बाज नहीं आते, "Tit for tat" के सिद्धांत के तहत ऐसा लिखते रहने का समर्थक हूँ| बल्कि अगर यह नहीं सुधरते हैं तो इसको एक मुहीम बनाने पे कार्य करने तक का समर्थक हूँ| देश का कानून भी संज्ञान लेवे इनका, अन्यथा कल को पता लगा कि हमें ही जातिवादी व् वर्णवादी के टैग डाल दिए गए| 


जय यौद्धेय! -  फूल मलिक




Monday, 5 October 2020

क्या फर्क है 1669 के औरंगजेब, 1943 के अंग्रेज व् 2020 के हिन्दू राजा में एक किसान के लिए?

1) सन 1669 में औरंगजेब द्वारा बढ़ाए गए कृषि टैक्सों के विरोध में गॉड गोकुला जी महाराज की अगुवाई में सर्वखाप आंदोलन किया करती थी| 7 महीने तक चले इस आंदोलन को दबाने हेतु औरंगजेब को खुद युद्ध करने आना पड़ा था| इस आंदोलन के ऐवज में 1 जनवरी 1670 को आगरा के फव्वारा चौक पर हजारों किसानों की बलि दी गई थी| फंडी सरफिरे तुम्हें इसमें धर्म का एंगल दिखाएंगे, तुम सिर्फ किसानी का ही देखना, वजह नीचे आ रही है| आज वाले सर्वखाप चौधरी भी तो शायद कुछ तो तैयारी कर ही रहे होंगे, किसान के हक में?


2) सन 1943 में अंग्रेज वायसराय लार्ड वेवल से गेहूं के उचित दाम लेने हेतु सर छोटूराम झलसे किया करते और किसानों को बोल दिया करते कि, "जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी, उस खेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो" अर्थात जिस खेत से किसान को ही रोजी के लाले पड़ें, उस खेत के हर तिनके को जला दो| तब जा के अंग्रेज झुकते थे और 6 रूपये प्रति मण की बजाए, मांगे गए 10 के भाव की जगह 11 का भाव अंग्रेजों के नळ में डंडा दे के लिया करते| और ऐसा नहीं कि जाति से जाट थे तो सिर्फ जाट या हिन्दू के लिए लिया करते; किसान चाहे ब्राह्मण हुआ, राजपूत,अहीर-गुज्जर-सैनी-खाती-छिम्बी-दलित किसी जाति व् सिख-मुस्लिम-बौद्ध किसी भी धर्म का हुआ, सबके लिए लिया करते| 


3) सन 2020 में एक हिन्दू शासक आया, नाम है नरेंद्र मोदी| 3 ऐसे काले कृषि कानून लाया कि 3 महीने से ज्यादा सारे देश का किसान त्राहिमाम कर रहा है पर मजाल है ठाठी का पट्ठा जो टस से मस भी हो रहा हो तो? यह भी नहीं देख रहा कि आंदोलन करने वाला 90% किसान हिन्दू है या जो यह तथाकथित राष्ट्रवादी ही यह कह के उछालते हैं कि सिख भी हिन्दू से निकले हैं तो हिन्दू हैं| अब ना इनको सिखों में हिन्दू दिख रहे और ना हिन्दू किसानों में हिन्दू दिख रहे| शायद मनुवादी व् वर्णवादी चश्मा पहन लिए हैं बाबू जी, जिसमें लड़ाई-दंगों के लिए लठैत-लड़ाके चाहियें तो किसान इनके लिए क्षत्रिय हो जाता है, सदाचार की शेखी बघारेंगे तो वैश्य हो जाता है और अब आंदोलनरत किसान तो पक्का शूद्र दिख रहे होंगे? 


तो अजी जनाब, भारत के किसान के लिए किस बात की आज़ादी आज 2020 में भी? शायद 1943 वाला अंग्रेज ही बेहतर था, प्रैक्टिकल उदाहरण ऊपर दिया है; लड़ के ही सही मान तो जाया करते अंग्रेज, कोई मना के ही दिखा दे इस हिन्दू राष्ट्र के प्रधानमंत्री को|  


जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 4 October 2020

"जब ऐसे ही जाट जी के से पुरुष हों तो पोपलीला संसार में ना चले" - गुजराती ब्राह्मण महर्षि दयानन्द उर्फ़ मूल शंकर तिवारी|

जयंत चौधरी पर लाठियां भंजवाने वाले योगी आदित्यनाथ को आर्य-समाज के सत्यार्थ-प्रकाश के ग्यारहवें सम्मुलास (एक पन्ना सलंगित है) का यह जाट जी और पंडा जी वाला चैप्टर पढ़वाया जाए| और उसको बताया जाए कि हमारे पुरखों और ब्राह्मणों के बीच 1875 में एक समझ लिखित में हुई थी कि ब्राह्मण जाट को "जाट जी" का आदर देगा और जाट ब्राह्मण को भाई का आदर देगा| पर मुझे लगता है कि यह बाबा बन के भी अपने अंदर का ब्राह्मण का बॉडीगार्ड यानि क्षत्रिय वाला किरदार निकाल नहीं पाया है और जाटों को ऐसे ट्रीट कर रहा है कि जैसे जाटों पे जुल्म दिखा के इसको अपने मालिकों को खुश करना हो|


ऐसा है क्षत्रिय जी, इस चतुर्वर्णीय व्यवस्था में तुम रहते होंगे, ओबीसी व् दलित भी मान लिया रहते होंगे; परन्तु जाट, "जाट जी" बन के रहते हैं वह भी तब जब ब्राह्मण तक जाट को "जाट जी" व् "जाट देवता" लिखते हैं| सबूत हाथों-हाथ दिया है| याद दिलाओ इस मोड्डे को कि हम जाट हैं, हम 4 में से किसी वर्ण में नहीं आते क्योंकि वर्ण बनाने वालों के लिए ही हम "जाट जी" होते हैं; इसलिए हम हैं अवर्ण| और योगीनाथ आपको कोई बहम हो गया हो कि जाटों को जैसे चाहो ट्रीट करो, ओबीसी व् दलित की भांति सिर्फ शिकायत करेंगे, कोसेंगे परन्तु यहीं पड़े रहेंगे तो अपना बहम दूर कर ले मोड्डे|

मत हम पर वही 1840 से ले 1875 तक के हालात लाओ, जब तुम्हारी इन्हीं परजीवी हरकतों से पैंडा छुड़वाने को कैथल-करनाल-सफीदों तक लगभग-लगभग गामों का जाट सिख बन गया था और फिर चिंता हुई थी ब्राह्मणों को कि जाट ही चला गया तो हमारे पास बचेगा क्या? और तब जा के जाटों की स्तुति में यह "जाट जी" का अध्याय लाया गया था 1875 में| हम दोबारा से धार्मिक पलायन करने में या खुद का धर्म घोषित करने में देर ना लगाएंगे; अगर दोबारा किसी भी जाट नेता या हस्ती पर कल जैसी जुर्रत करने की सोची भी तो| साले ना लगते थम म्हारे, तिरस्कार और धिक्कार का जूत सा मार के अलग छिंटक देंगे| मत भूलो, हम राजपूत-ओबीसी या दलित नहीं, जाट हैं हम| यह बात धर्म के ब्राह्मण समझा दें इस सरफिरे मोड्डे को, और लगे हाथों उस सेण्टर में बैठे बड़े ढाढे वाले बड़बुज्जे को भी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक



किसान और सरकार के बीच से बिचौलिये नहीं अपितु सरकार खुद निकल गई है!

मन की बात के लागदार जी, "3 नए कृषि बिलों के जरिए आपने किसान और सरकार के बीच से बिचौलिये नहीं निकाले अपितु सरकार निकाल दी है| और सरकार निकाल के किसान को बिचौलियों के बीच खुला डाल दिया है कि लो चूंट-नोंच लो इसको जितना चूंट-नोंच सको|"


अरे हे तथाकथित हिन्दू राष्ट्र के प्रहरी, हे तथाकथित राष्ट्रवाद के प्रणेता; आप राष्ट्रवाद तो छोडो धर्मवाद ही ढंग से निभाना सीख लो पहले? अपने ही धर्म के किसान पे कोई इतना जुल्म बरपाता है क्या कि उनकी आर्थिक सुरक्षा का कवच APMC ही हटाने चले हो? 


हे वसुधैव कुटुंभ्कम के तथाकथित धोतक, जरा वसुधा के किसी कोने में यह तो दिखा दो कि, "यह किसानों से बिना पूछे, बिना कंसल्ट किये" वाले कृषि कानून कौनसे फलाँ देश में लगे देखे, जो यह वसुधा के उस कुटुम्भ की बात यहाँ लागू कर रहे हो? ईसाई धर्म के किसी देश में देखी या थारे मोस्ट फेवरेट enemy religion वाले मुस्लिम देश में देखी?


कोई ऐसा मुस्लिम या ईसाई देश नहीं जिसमें क्रमश: मौलाना-मौलवी व् पादरी-पॉप, क्रमश: अपनी-अपनी मस्जिद या चर्च से बाहर निकल एमएलए/एमपी बनने को लालायित रहते हों| एक यह म्हारै वाले ही अनूठे हैं कि क्या मजाल जो इनका दीदा मंदिर-मठ-डेरे में बैठे टिक जाए| दो डोब्बे ज्ञान के क्या आ जावें इनके भेजे में कि लगें बंदर की तरह कूद-फांद करने कि अरे ओ समाज वालो, ो धर्म वालो तुम दूर हटो; तुमको हमने अपने धर्म का होने नाते मोल ले लिया है इसलिए हम ही तो धर्मस्थल संभालेंगे और हम ही सविंधानस्थल संभालेंगे| या फिर इनको संसदों-विधानसभाओं में बैठाते हो तो दो इनके डेरों-मंदिरों पर भी धरने| कुछ तो करो, या तो पूरे इस साइड चल लो या उस|  


भारत के किसान हों, मजदूर, व्यापारी या विधार्थी; तुम्हारी दुर्गति की सबसे बड़ी वजह ही यह है कि "वसुधैव कुटुंभ्कम" का नारा देने वाले, एक भी वसुधा के नियमों का पालन नहीं करते; जबकि बाकी सारे करते हैं; दो उदाहरण ऊपर दिए|


और यकीन मानना जब तक आप इस चक्र में रहोगे तब तक आप विश्व के सबसे पिछड़े समुदाय में हो (खुद मैं भी), और देश को तो विश्व का सबसे पिछड़ा देश यह बंदर आने वाले सालों में बना ही देंगे, अगर यूँ ही सत्ता रुपी बंदूक इन बंदरों को दिए रखी तो| अगर चाहते हो अपना भला और वाकई में विश्वगुरु बनना तो सबसे पहले इनको मंदिर-डेरे-मठों में बंद करो, ठीक वैसे ही जैसे ईसाईयों ने पादरी-पॉप कर चर्च तक सिमित कर रखे हैं और मुस्लिमों ने मौलाना-मौलवी मस्जिदों तक|


इनको सबको समझ है कि समाज का चौधरी समाज से होना चाहिए, बस एक हमें ही पता नहीं कब समझ आएगी, जो समाज से भागे हुए भगोड़ों व् जोग लिए हुओं से देश के विकास की उम्मीद करते हैं; किसान-मजदूर-विधार्थी के भले की उम्मीद करते हैं|


ग्राउंड वालों को क्या आएगी, अभी तो उन एनआरईयों को ही समझनी बाकी है जो ईसाई व् मुस्लिम देशों में बैठे हैं और यह ऊपर कही बातें प्रैक्टिकल में रोज देखते-बरतते हैे परन्तु फिर भी इन बातों पर गौर नहीं फरमाते? और तो और मूर्ती-पूजा नहीं करने वालों के वंशों वाले भी ना फरमाते|


जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 1 October 2020

"सांझी की सांझ - 2020" - जानें पहले दिन के क्रिया-कलाप दादीराणी फूलपति पहल की जुबानी!

सौजन्य: उज़मा बैठक| Video Credit: शोधार्थी शालू पहल|


वीडियो बारे: दादी फूलपति जी बता रही हैं सांझी की पहली सांझ को वह कैसे मनाया करती थी/हैं| क्या-क्या तैयारियां करनी होती हैं, क्या पकाया जाता है आदि-आदि| साथ में दादी जी ने सांझी का यह गीत भी सुनाया है, "ढूँगी सी डाब्बर रे, के फूलां की महकार; देखण चालो हे, सांझी के ननिहार"|
सांझी: दशहरा, दुर्गा पूजा, नवरात्रे, डांडिया, रामलीला के समानांतर 10 दिन मनाया जाने वाला हरयाणवी त्यौहार|

सांझी क्या है?: असल में तो सांझी ना कोई देवी है और ना कोई मायावी कल्पना; वरन प्रतीक है, "हरयाणवी कल्चर की रंगोली की 10 दिन की वर्कशॉप" के उन वास्तविक क्रियाकलापों का जिसके जरिये ब्याह की उम्र के नजदीक पहुँचती कुंवारी युवा लड़कियों (कुंवारी कन्याएं देवी नहीं होती) को ब्याह के बाद के 10 दिन कैसे बीतेंगे के बारे प्रैक्टिकल ट्रेनिंग दे; उनको मानसिक तौर उन दिनों के लिए सबल, सहज व् विश्वासयुक्त करना|

उज़मा बैठक बारे: हरयाणवी-पंजाबी-मारवाड़ी कल्चरों में धर्म-जाति-वर्ण से रहित पाई जाने वाली उदारवादी जमींदारी की "खेड़ा - खाप (मिसल/पाल) - खेत" की किनशिप को मेन्टेन करने का वैचारिक विजन| उदारवादी जमींदारी वह होती है जिसमें
1) "सीरी-साझी" का वर्किंग कल्चर;
2) गाम-गौत-गुहांड व् गाम की 36 बिरादरी की बेटी सबकी बेटी के सामाजिक रहते हुए असमय अनैतिक वासना से दूर रहने के सिद्धांत;
3) "दादा नगर खेड़ों" रुपी मर्द धर्मप्रतिनिधि व् मूर्ती-रहित आध्यात्म में औरत को धोक-ज्योत की 100% लीडरशिप;
4) सर्वखाप के रूप में सोशल सिक्योरिटी व् सोशल जूरी सिस्टम;
5) हर गाम में अखाड़ों के जरिये "मिल्ट्री कल्चर";
6) "खेड़े के गौत" के तहत "देहल-धाणी-बेटी की औलाद" के सिद्धांत के तहत माँ का गौत भी औलाद का गौत हो सकने का सिस्टम;
7) "सालाना नौ मण अनाज, दो जोड़ी जूती" के नियम के तहत तलाकशुदा औरत को गुजाराभत्ता" व् "स्वेच्छा से विधवा पुनर्विवाह" की जेंडर न्यूट्रैलिटी व् सेन्सिटिवटी का सिस्टम व् ऐसे कुछ अन्य स्वर्णिम पहलु होते हैं|

विशेष: उज़मा बैठक के काफी सदस्य "सांझी" बारे अपने-अपने स्तर पर इसके पूरे 10 दिनों के क्रियाक्लापों बारे शोध कर रहे हैं, जिनको इस पोस्ट की भांति 1-1 करके पब्लिश किया जाता रहेगा| उज़मा बैठक इस बार 25 अक्टूबर 2020 को ज़ूम प्लस फेसबुक के जरिये अंतराष्ट्रीय स्तर पर "सांझी की सांझ" मना रही है| आपसे भी आशा रहेगी कि आप इसका हिस्सा बनें या अपने स्तर पर "सांझी की सांझ" जरूर मनावें|

सौजन्य: उज़मा बैठक!
जय यौद्धेय!

Sunday, 20 September 2020

फंडियों ने 3 कृषि अध्यादेशों के जरिये किसान रुपी भारतीय नागरिकों के मूल अधिकारों का अंग्रेजों से भी जुल्मी तरीके से हनन किया है!

फंडियों ने 3 कृषि अध्यादेशों के जरिये किसान रुपी भारतीय नागरिकों के मूल अधिकारों का अंग्रेजों से भी जुल्मी तरीके से हनन किया है!

सविंधान के मूल-रूप से छेड़छाड़ पर, यह कानून लोकसभा-राज्यसभा में पास हो के भी सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज हो सकते हैं| नीचे समझिये कैसे?
जय यौद्धेय! - फूल मलिक



थाईलेंडियो, भारत छोडो!

आज जिस प्रकार से राज्यसभा में धक्काशाही करके दो कृषि बिल पास किये गए हैं, ऐसी धक्काशाही तो शायद गैरधर्मी होते हुए अंग्रेजों ने भी कभी शायद की हो; और यह तो खुद के धर्म वाले होने का दावा करते हैं जिनकी सरकार है| निसंदेह इनका सहधर्मी होने का दावा सिर्फ एक ढोंग है, फंड है, आडंबर है वरना ऐसा जुल्म कि खुद के धर्म का किसान रोड़ों-सड़कों पर विरोध कर रहा है और इनके कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही? कैसा धर्म है यह जिसकी सरकारें उसी के किसान से किसान से ही संबंधित विधेयकों पर ही राय-सुमारी करना तक जरूरी नहीं समझती? निसंदेह यह भी अंग्रेजों की तरह विदेशी ही होंगे यह भारतीय नहीं हो सकते| दो-तीन सालों से सोशल मीडिया पर इन बारे थाईलैण्डी, कम्बोडियाई, लाओसी व् वियतनामी होने के जो दावे लहराए जा रहे थे कहीं वो सच में ही ऐसा तो नहीं? अगर ऐसा है तो मुझे वह वक्त नजदीक आता दिख रहा है जब "थाईलेंडियो भारत छोडो" के मूवमेंट चला करेंगे|

दूसरा रास्ता शायद अब इन बिलों ने वह भी खोल दिया है जो 1850 का वह वक्त वापिस लाएगा धीरे-धीरे जिसके चलते लोग सिखिज्म में जाना शुरू हुए थे| अब या तो यह 1850 का दौर वापिस आएगा या कोई-ना-कोई नया धर्म जरूर जन्म लेगा; ऐसा प्रतीत हो रहा है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 18 September 2020

किसी भी राजसत्ता की जड़ में धर्म-कल्चर-इकॉनमी होती है और हरयाणवियों के तीनों बिचळे पड़े हैं!

हरयाणवी ग्रामीण परिवेश के लोग जब 1970-80 में ज्यादा वेग से गामों से शहरों में आये तो इनको शहरियों का औरत को दबा के रखने का धर्म का नुस्खा बहुत फबा| इस चक्कर में बावले अपने "दादा नगर खेड़ों" के औरत को 100% धोक-ज्योत में दी जाने वाली लीडरशिप को धर के ताक पे, चढ़ा दी कहो या चढ़ने दी कहो अपनी लुगाईयां उन धर्मस्थलों पर जहाँ 100% मर्द-धर्मप्रतिनिधि खड़े होते हैं और यह भी वही निर्धारित करते हैं कि औरत कब इन धर्म-स्थलों पर चढ़ेगी और कब नहीं| और तो और ये औरत भी फिर रिफली-रिफली जब भी गामों में जाती, जो इनके धोरै नए धार्मिक फंड बिगोने के अलावा दूसरा कोई काम होता तो, बिठा दी गाम आळी भी इन 100% मर्दवाद के अड्डों पे पढ़ण| अपने पुरखों की सभ्यता-हरयाणत के बिल्कुल विपरीत चलोगे तो यह तो देखना ही था जो आज हो रहा है, 3 कृषि अध्यादेशों के रूप में| अब इतनी सिद्द्त से 4-5 दशक लगा के अपनी सभ्यता का मलियामेट किया है तो इतनी जल्दी शक्ल सुधर भी कैसे जाएगी| हमें 100% मर्दवाद के धार्मिक स्थल वालों से ऐतराज नहीं, क्योंकि इनको तो आजीविका चलानी ही औरत को दोयम दर्जे पे रख कर आती है, परन्तु तुम क्यों बौराए इनके पीछे; जिनके यहाँ औरत इतनी लिबरल रही? बौराए और फिर भी 1990 से 2020 तक अखबारों-मीडिया में तालिबानी-तुगलकी भी तुम ही कुहाए? इसको कह्या करैं "ऊँगली कटा के शहीद होना"| अब भी आ जाओ अपने पुरखों की आध्यात्मिक स्वछंदता पर जिसमें 100% धोक-ज्योत औरत के हाथ में है, ना किसी मर्द-धर्मप्रतिनिधि का दखल ना कोई मूर्ती-पूजा के आडंबर यानि अपने "दादा नगर खेड़ों/भैयों/बैयों/भूमियों/जठेरों/बड़े बीरों" पर| स्मृति व् प्रेरणा हेतु घर में मूर्ती रखो पुरखों की, कौम में हुए अलाही मसीहाओं की; परन्तु वो मिलें न मिलें इन फंडियों की बिसाई दर्जनों मिल रही हैं आजकल|


यह आध्यात्म का एंगल सबसे पहले ठीक करना होगा, फिर कल्चर ठीक होगा और यह दोनों मिलके इकॉनमी को वापिस पटरी पर लाएंगे और तीनों मिलके राजसत्ता|

विशेष: हरयाणवी यानि वर्तमान हरयाणा, दिल्ली, वेस्ट यूपी, दक्षिणी उत्तराखंड, उत्तरी राजस्थान|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जब तक मुंह ना लावें, ना लावें, लावें तो खींच लें खाल तन तैं!

 मेरी हरयाणवी भाषा में रचित यह कविता पढ़िए:

यह सन 1355 में चंगेज खान के चुगताई वंश की सेना के चार कमांडरों को गोहाना से ले बरवाला के मैदानों के बीच दौड़ा-दौड़ा पीट-पीट के मारने वाली सर्वखाप आर्मी की यौद्धेया जिला जिंद की "दादिराणी भागीरथी कौर" के विलक्षण पराक्रम को दर्शाती है|

साथ ही यह उन नादानों के लिए भी एक ऐतिहासिक पन्ना है जिनको जाट-खाप-हरयाणा में 1980 से पहले नारी उत्थान, नारी किरदार के रूप में सिर्फ इनकी मनघड़ंत क्रूर-तालिबानी-निर्दयी खाप ही दिखती हैं| देखो कैसे थारी नजर में निर्दयी खापों में ही ऐसी यौद्धेयायें हो जाया करती थी कि जिन चुगताईयों को देख के तुम्हारी घड़ी वीरांगनाएं शायद सीधा जौहर करने को कूद पड़ें, म्हारी जाटणी उनकी ले सांटा-तलवारां खाल उतार लिया करती, चाम छांग दिया करती, रमाण्ड ले लिया करती| तो पेश-ए-नजर है May-2014 में लिखी मेरी यह कविता:

"जब तक मुंह ना लावें, ना लावें, लावें तो खींच लें खाल तन तैं!"

चंगेजों की उड़ी धज्जियाँ, जब चली रणचंडी चढ़ कें,
घोड़े की जब चापें पड़ें, धरती दहले धड़ाम धड़ कें|
सर्वखाप चले जब धुन में, दुश्मन के कळेजे फड़कें,
दिल्ली-मुल्तान एक बना दें, मौत नाचती चढ़ै अंबर म||
जब प्रकोप जाटणी का झिड़कै, दुश्मन पछाड़ मार छक जें,
पिंड छुड़ा दे दादीराणी तैं, मालिक रहम कर तेरे बन्दे पै|||

चालीस हजार की महिला आर्मी, खड़ी कर दूँ क्षण म,
जित बहैगा खून म्हारे मर्दों का, हथेळी उड़ै धर दे वैं|
वो आगे-आगे बढ़ चलें, हम पीछे मळीया-मेट पटमेळैं,
अटक नदी के कंटकों तक, दुश्मन की रूह जा कंब कैं||
खापलैंड की सिंह जाटणी सूं, तेरी नाकों चणे भर दूँ,
दुश्मन बहुत हुआ भाग ले, नहीं "के बणी" ऐसी कर दूँ|||

पच्चीस कोस तक लिए भगा के, दुश्मन के पसीने टपकें,
खुल्ला मैदान है तेरा भाग ले, विचार करियो ना मुड़ कैं|
पार कर गया तो पार उतर गया, वर्ना लूंगी साँटों के फटकैं,
चालीस हजार यौद्धेयायें नभ म, करें कोतूहल चढ़-चढ़ कैं||
सर्वखाप है यह हरयाणे की, बैरी नहीं लियो इसको हल्के हल म,
जब तक मुंह ना लावें, ना लावें, लावें तो खींच लें खाल तन तैं|||

प्राण उखड़ गए मामूर के, 36 धड़ी सिंहनी ने जब लिया आंट में धर कैं,
अढ़ाई घंटे तक दंगली मौत खिलाई, फिर फाड़ दिया छलणी कर क|
जट्टचारिणी दादीराणी म्ह फ्लाणों की दुर्गा-काळी, सब दिखी एक शक्ल म्ह,
दुश्मन भोचक्का रह गया, या के बला आई थी घुमड़ कैं||
हरयाणे की सिंहनी गर्जना तैं, मंगोलों के सीने फ़टे फड़-फड़ कर कैं,
"फुल्ले भगत" पे मेहर हो दादी, दूँ छंद तेरे पै निरोळे घड़-घड़ कैं||

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

बिचौलिया बनाम प्राइवेट सेक्टर और कृषि क्षेत्र!

बिचौलिये यानि आढ़ती सरकार और किसान के बीच होते थे, और सरकार किसान को MSP आदि के जरिये बिचौलिये से बचा के रखे; यही कानून सर छोटूराम "मंडी-एक्टस" में बना के गए थे| परन्तु फंडियों तुमने तो सरकार ही प्राइवेट को गिरवी रख के, मंडी की MSP वाली सिक्योरिटी लेयर हटा के प्राइवेट को किसान पे खुला छोड़ दिया|

कभी कम, कभी ज्यादा परन्तु MSP एक ऐसा हथियार है जो किसान कानूनी तौर पर आंदोलन करके भी सुरक्षित रखता आया है| परन्तु यह जो प्राइवेट सेक्टर लाया गया है इसको सर छोटूराम की तरह किसी MSP की कंडीशन में नहीं बाँधा गया है और SDM से ऊपर किसान की सुनवाई नहीं इसमें| लगता है जैसे इन्होनें देश का हर तरफ से भट्टा बैठाने की जिद्द सी लगा ली हो देश से कि अभी ताजा-ताजा आये GDP के आंकड़ों में यह जो मात्र कृषि-सेक्टर की +3.4% की ग्रोथ GDP आई है आखिर यह अकेली पॉजिटिव कैसे रह सकती है जब हमने बाकी सारी की -23.4% तक की डाउन ग्रोथ वाली तली निकाल दी तो इसकी भी निकाल के ही मानेंगे|

क्योंकि ऐसा प्राइवेट सेक्टर वालों में टैलेंट होता तो यह इनके सेक्टर्स की ग्रोथ -23.4% तक की डाउन ग्रोथ में जाने देते क्या? महानिकम्मे-महानाकारा लोग हैं प्राइवेट सेक्टर के; अच्छे-खासे खेती के सेक्टर का जो अगर 2 साल में भट्टा ना बैठा देवें तो देखना| सनकी लोगों का ईलाज पागलखाना है सिर्फ| भक्तो, तुह्मारे घर की टूम-ठेकरी जब तक नहीं बिक लेंगी, चुसकना मत|

चंगुल में भी तो उनके फंस चुके हो तुम, कि अगर कल को इन्होनें तुम्हारी बहु-बेटियां देवदासियाँ बना के नचा दी और सामूहिक भोग लगा दी तो इसमें भी तुमको धार्मिक पुन्य नजर आएगा| निकल लो वक्त रहते इस अंधभक्ति से वरना यह "hypnotism" यानि वशीकरण के इतने बड़े खिलाडी हैं कि यह तुम्हारी बेटियों की साउथ-इंडिया व् थाईलैंड की तरह देवदासियां बना रहे होंगे और तुम आत्मिक व् मानसिक बल से कमजोर खड़े-खड़े सिर्फ देख रहे होंगे| वशीकरण की हद तक जो चीज चली जाए, वह धर्म नहीं होता; वह उड्डंदता होती है, जो यह तुमको जल्द ही दिखा के छोड़ेंगे अगर यूँ ही पागल बने रहे तो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 15 September 2020

आप यह बात मत लिखा करो कि, "जिस दिन किसान ने खेती करनी छोड़ दी, उस दिन क्या करोगे, क्या खाओगे"?

ये जो उदारवादी जमींदारी परिवेश के किसान-जमींदारों के बालक हो ना, आप यह बात मत लिखा करो कि, "जिस दिन किसान ने खेती करनी छोड़ दी, उस दिन क्या करोगे, क्या खाओगे"? 

ऐसा है लाड़लो, यह वर्णवादी व्यवस्था की उस सामंतवादी जमींदारी के पैरोकार लोग हैं जो ओबीसी-एससी-एसटी से बिहार-बंगाल की तरह दलित से भी नीचे महादलित बना के बेगारी करवा के भी अपने लिए अन्न उगवा लेंगे| हाँ, बस फर्क यह होगा कि आप उदारवादी जमींदारी वाले सीन में नहीं होंगे| आपकी अनख वाली उदारवादी जमींदारी की जगह इनकी क्रूरता-अमानवता-घमंड वाली सामंती जमींदारी आ जाएगी और वही यह लाने को आमादा हैं इस 3 कृषि अध्यादेशों के षड्यंत्र के जरिये| तो आप इस "जिस दिन खेती करनी छोड़ दी" लाइन के जरिये इनको अपील कर रहे हो या डरा रहे हो तो ना इनको आपकी अपील का असर पड़ता और ना ये इससे डरते| क्योंकि इनको आपकी उदारवादी जमींदारी का हरयाणा-पंजाब-दिल्ली-वेस्ट यूपी का मॉडल जमता ही नहीं; इनको तो सामंती जमींदारी जमती है और इसके लिए यह तैयार बैठे हैं| 

तो बजाये इन स्टेटसों के उन लोगों को अपनी बात समझाईये जो आपकी साथी बिरादरी हैं, जैसे कि उदारवादी जमींदारी के तरीके से खेती करने वाले हरयाणे-पंजाब-दिल्ली-वेस्ट यूपी के जाट-बाह्मण-राजपूत-रोड़-बिश्नोई, ओबीसी व् एससी/एसटी| यह सारा झगड़ा ही आपका उदारवादी सिस्टम खत्म कर बिहार-बंगाल वाला वह सामंतवादी सिस्टम लाने की योजना है कि जिसके तहत 8 एकड़ वाला बिहार-बंगाल का जमींदार भी हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी के 2 एकड़ वाले के यहाँ आके जीरी लगाता है तब जा के उसका घर चलता है| कल को आपके साथ भी यही होगा| आज अभिमान करते हो ना कि बिहार-बंगाल तक के लोगों को रोजगार देते हो, अगर यह 3 कृषि अध्यादेश यूँ के यूँ लागू हो गए तो कल को तैयारी कर लो, ऐसे ही बाहर जा के मजदूरी करके परिवार पालने की| और इससे बचना है तो जगाओ उदारवादी जमींदारी के "सीरी-साझी" वर्किंग कल्चर के जाट-बाह्मण-राजपूत-रोड़-बिश्नोई, ओबीसी व् एससी/एसटी को कि आवें वह भी रोड़ों पर अन्यथा इसके बाद कुछ नहीं बचना| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

3 कृषि अध्यादेशों पर दो हरफी बात सै!

जैसे विभिन्न "व्यापार मंडलों/संगठनों" के जरिये पूरा "व्यापार/मैन्युफैक्चरिंग जगत" अपनी सर्विस या उत्पाद का "सेल्लिंग/सर्विस प्राइस" व् "प्रॉफिट मार्जिन" खुद निर्धारित करता है, यह कार्य अपने अधिकार क्षेत्र में रखता है; कोई किसान-पुजारी-मजदूर "एकल या संगठन" में भी इनके बीच दखल नहीं दे सकता|   

जैसे विभिन्न "पुजारी मंडलों/संगठनों" के जरिये पूरा "मठ-मंदिर-डेरा जगत" (मैं इस धर्म से संबंधित हूँ तो इनकी कहूंगा, आप किसी और से संबंधित हैं तो यहाँ आप वाले को समझें) अपनी सर्विस या उत्पाद यानि यज्ञ-हवन-कर्मकांड-पूजा-पाठ-आरती-दर्शन (सामान्य दर्शन, वीआईपी दर्शन, वीवीआईपी दर्शन) आदि का "सर्विस प्राइस" व् "प्रॉफिट मार्जिन" खुद निर्धारित करता है, यह कार्य अपने अधिकार क्षेत्र में रखता है; कोई किसान-व्यापारी-मजदूर "एकल या संगठन" में भी इनके बीच दखल नहीं दे सकता|   

जैसे विभिन्न "मजदूर/कर्मचारी मंडलों/संगठनों" के जरिये पूरा "मजदूर/कर्मचारी जगत" अपनी सर्विस का "सर्विस चार्ज" व् "प्रॉफिट मार्जिन" खुद निर्धारित करता है, यह कार्य अपने अधिकार क्षेत्र में रखता है; कोई किसान-पुजारी-व्यापारी "एकल या संगठन" में भी इनके बीच दखल नहीं दे सकता|   

ठीक ऐसे ही विभिन्न "किसान/जमींदार यूनियनों/मंडलों/संगठनों" को भी चाहिए कि वह भी अपनी पैदा की फसल व् सर्विस के "सेल्लिंग/सर्विस प्राइस" व् "प्रॉफिट मार्जिन" खुद निर्धारित करें, यह कार्य अपने अधिकार क्षेत्र में रखें; किसी भी व्यापारी-पुजारी-मजदूर "एकल या संगठन" को इसमें दखल देने तक की इजाजत नहीं होनी चाहिए| 

जिस दिन ऐसा होगा, उस दिन क्लेश काटेंगे किसान/जमींदारों के; अन्यथा यह अन्य तीन यूँ-ही चूंट-चूंट खाएंगे किसान-जमींदार को| इन 3 कृषि अध्यादेशों के बाद देश की तमाम "किसान/जमींदार यूनियनों/मंडलों/संगठनों" को मिलकर एक देशव्यापी मंत्रणा दौर चलाना चाहिए और यह समझना चाहिए कि धर्म अपनी जगह है और धंधा अपनी जगह| जब एक ही धर्म के होते हुए "व्यापारी-पुजारी-मजदूर" आपके हकों के लिए खड़े नहीं होते तो समझिये कि यह धंधे की बात है; यह आपको सह-धर्म वालों से झगड़ा-लड़ना करके भी लड़नी पड़ सकती है| और इसीलिए जरूरी है कि कोई सरकार अगर आपको आपकी आवाज उठाने हेतु धर्म के अस्तित्व का हवाला देवे या भावनात्मक रूप से धर्म की आड़ में आपके धंधे को लूटे तो हवाला दीजिये कि क्या "व्यापारी-पुजारी-मजदूर" यह खड़े हैं मेरे साथ? नहीं खड़े ना? तो स्पष्ट है धर्म और धंधा दोनों अलग हैं| ऊपर उदाहरण भी तो दिया, धर्म वाला अपनी सर्विस चार्ज करते वक्त आप पर रियायत करता है क्या, तो धंधे के वक्त किसान-जमींदार से रियायत की कैसी और क्यों उम्मीद? 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक    

सर्वखाप व्यवस्था में तलाक व्यवस्था!

भारत सरकार में जहाँ 2014 में आ कर तलाक पर स्पष्ट कानून बनता है, वहीँ सर्वखाप व्यवस्था में इसके लिए जमानों से निर्धारित प्रावधान रहे हैं; जिसको "साल का नौ मण अनाज, दो तीळ व् दो जोड़ी-जूती" गुजारा-भत्ता कहा जाता रहा है| हरयाणवी कल्चर में तलाक शब्द का स्थानीय शब्द है "छोड़ी हुई"| हर "छोड़ी हुई" औरत को "साल का नौ मण अनाज, दो तीळ व् दो जोड़ी-जूती" नियम के तहत तलाक देने वाले खसम से तब तक गुजारा भत्ता मिलता था जब तक:

1) पंचायत केस का पूरा फैसला नहीं कर देती थी|
2) जब तक लड़की दूसरी जगह नहीं ब्याह दी जाती थी|
3) इस अवस्था में बच्चे होते तो बच्चों के स्याणे (खाने-कमाने जोगे) होने तक लालन-पालन का सारा खर्चा पति के यहाँ से आता था|
4) स्याणे होने के बाद औलाद माँ के साथ रहेगी या पिता के साथ इसका फैसला औलाद पर छोड़ा जाता था|
5) हर अवस्था में पिता की प्रॉपर्टी में औलाद का हक़ फिक्स रहता था|
6) अगर छोड़ी हुई औरत आजीवन दूसरा ब्याह नहीं करने का फैसला करती थी तो उसको बाप-भाईयों की तरफ से रहने-कमाने के संसाधन-जायदाद सब दिया जाता था| अगर औलाद भी माँ के साथ माँ के पीहर यानि मामा के यहाँ ही आ कर बसती थी तो उनको पिता का गौत छोड़ माँ के खेड़े का गौत यानि माँ का गौत धारण करना होता था और वो गाम-ढूंग-खूंट के हिसाब से "देहल/ध्याणी/धाणी/बेटी की औलाद कहलाते थे/हैं" जो कि आज भी खापलैंड के लगभग हर गाम में देखने को मिल जाते हैं| "देहल/ध्याणी/धाणी/बेटी की औलाद" में दूसरी केटेगरी उनकी भी होती है जो पिता समेत भीड़ पड़ी में या किसी मजबूरी आदि में माँ के पीहर आ के बसते हैं| पिता की जगह माँ का गौत भी औलाद का गौत हो सकने का यह अद्भुत, अद्वितीय व् जेंडर सेंसिटिविटी/न्यूट्रैलिटी का नियम पूरे विश्व में बहुत ही कम गिनी-चुनी सभ्यताओं में देखने को मिलता है जिसमें "सर्वखाप" एक है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक