Tuesday, 8 December 2020

फंडियों का लोगों को गुलाम बनाने का तरीका बनाम अंग्रेजों का गुलाम बनाने का तरीका!

फंडियों के जुल्मों की तुलना ना गोरों से करो ना औरों से, अंग्रेजों ने कम-से-कम हमारे कस्टम्स तो नहीं छेड़े थे बल्कि उनकी सुरक्षा व् संवर्धन के लिए उल्टा कस्टमरी लॉ बना के दिए थे|


यह वर्णवादी फंडी तो वह जोंक-केंचुएं हैं जो पहले लोगों के कस्टम्स-कल्चर-भाषा को तहस-नहस करके, फिर अपनी कस्टम्स-कल्चर-भाषा लोगों में डालते हैं और फिर लोगों की आर्थिक-संसाधनिक गुलामी शुरू करते हैं|

अंग्रेज आर्थिक-संसाधनिक रूप से गुलाम बनाने से शुरू करते थे और वहीँ तक रहते थे, कस्टम्स-कल्चर नहीं छेड़ते थे| इनका गुलाम बनाने का सिस्टम ही इसके विपरीत है, यह कस्टम्स-कल्चर-भाषा से शुरू करते हैं और फिर आर्थिक-संसाधनिक चीजें हथियाते हैं|

आज का किसान आंदोलन तो महज आर्थिक-संसाधनिक आज़ादी की लड़ाई है, इसके बाद तो कस्टम्स-कल्चर-भाषा की आज़ादी की असली लड़ाई लड़नी है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 25 November 2020

हर धर्म अपने बंदों को सोशल सिक्योरिटी व् इकनोमिक सिक्योरिटी देने को बना है, सिवाए इन तथाकथित अपने वालों के!

गुरुद्वारों की तरफ से 3 कृषि बिलों पर किसानों को पिछले 2.5 महीनों से सीधी धरणास्थलों पर लंगर की मदद की यह तो वजह है ही कि यह धर्म अपने फोल्लोवेर्स के प्रति सिद्द्त से ईमानदार है; इनसे लेना जानता है तो इनको देना और इनकी सेवा करना भी जानता है; परन्तु इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि इनकी मैनेजमेंट सीधी किसानों के ही हाथों में है और फंडियों की पैठ नगण्य है|

जबकि हमारे यहाँ इसका उल्टा है| मंदिरों-गुरुकुलों-गौशालाओं-मठों की मैनेजमेंट मुख्यत: है ही फंडियों के हाथों में| अब आर्य-समाज का ही उदाहरण ले लीजिये; इसकी शहरी ब्रांच DAV पे तो फंडियों का कब्ज़ा शुरू दिन से चला आ ही रहा है परन्तु आज के दिन यह ग्रामीण आँचल के गुरुकुलों-गौशालाओं-मठों में भी इतनी घुसपैठ बनाये हुए हैं कि वहां से भी कोई किसान बारे मदद की आवाज नहीं आ रही; जबकि ग्रामीण आँचल वाला आर्यसमाज चलता ही मुख्यत: किसान वर्ग के बूते पर है|
इस आंदोलन के बाद से ही आईये इनसे फंडियों की घुसपैठ खत्म करने बारे विचारें| साथ ही ग्रामीण परिवेश के सारे मंदिरों की मैनेजमेंट सीधे-सीधे अपने हाथों में लेवें| अन्यथा तो क्या पागल कुत्ते ने काट रखा है जो इनको पालते-पोसते हो खामखा में; धर्म के प्रति तुम्हारी ड्यूटी है तो धर्म की भी ड्यूटी होती है तुम्हारे प्रति? और यह दुरुस्त करने को अगर इनमें घुस आये गलत लोगों को इनसे बाहर करना पड़े तो कीजिये, अन्यथा तुम अपने खेतों-जमीनों से बाहर करवा दिए जाओगे, जिसमें इनकी मूक सहमति चिल्ला-चिल्ला कर बोल रही है आज के दिन|
इन अपने वालों को छोड़ कर नजर घुमा के देखा जाए तो चाहे सिख हो, ईसाई हों, मुस्लिम हों, जैन हों, बुद्ध हों; कौनसा धर्म नहीं वापिस मुड़ के अपने बंदों को सोशल सिक्योरिटी से ले इकोनॉमिक सिक्योरिटी देता? विचार कीजिये इस पर; यूँ खामखा के परजीवी तो हम अपने जानवरों के शरीरों पर नहीं छोड़ते जैसे कि चिचड़-खलीले-जोंक; तो इनको क्यों ढो रहे हैं, अगर यह कृषि बिलों पर किसानों को रशद-पानी व् कानूनी मददें उपलब्ध नहीं करवा सकते तो?
जय यौद्धेय! - फूल मलिक



Tuesday, 24 November 2020

"किसानों के साथ बदतमीजी" - कौनसा राष्ट्रवाद है यह?

किसानों के ट्रेक्टर कूच होते हमने पेरिस के Champs Elysee पर भी देखे हैं, बर्लिन-ब्रूसेल्स-लंदन में भी देखे हैं; यूरोपियन यूनियन के ब्रुसल्स हेडक्वार्टर के आगे तक देखे हैं; परन्तु उनको यहाँ की सरकारें शहर के बॉर्डर पर नहीं रोकती| शहरी नागरिकों का रवैया इतना सहयोग भरा रहता है कि पेरिस के Champs Elysee पर रहने वालों को किसानों को रषद-पानी देते तक देखा है| पुलिस तक को सिर्फ किसानों के ट्रैफिक को सुचारु रूप से सुनिश्चित करने की ड्यूटी होती है, उनको रोकना या बेरिकेड लगाना तो यहाँ सपनों तक में नहीं होता|

तो फिर कौनसी मानसिकता, कौनसा भय है जो इंडिया में किसानों के साथ ऐसा किया जाता है? यह है कोरा वर्णवाद व् इस देश को अपना नहीं समझने की मानसिकता| अपने ही देश के किसान को जब सड़क आना पड़े तो आम जनता से ले सरकारों तक के हृदय सम्मान में भर के चेत जाते हैं कि ऐसा क्या गलत हुआ जो हमारे किसान को खेतों से निकल सड़कों पर आना पड़ा| और एक ये तथाकथित थोथे राष्ट्रवाद को माथे धरे जो चल रहे हैं इनके तो माथे-त्योड़ी ही दुनियाँ जहान से भी अलग किस्म की पड़ती हैं कि जैसे यह कोई विदेशी आक्रांता हों और यहाँ के किसान इनके गुलाम| इसके ऊपर जुल्म इनकी वर्णवादी मानसिकता| हद दर्जे का कहर है यह| कौनसा राष्ट्रवाद है यह?
अब प्लीज यह कोरोना आगे मत अड़ाना| अभी-अभी बिहार चुनाव हो के हटे हैं, बंगाल चुनाव की तैयारी है| फंडी-पाखंडियों के मेलों-पंडालों से खड़तल-खुड़के बदस्तूर जारी हैं| इनसे ना फैलता कोरोना? और इनमें फ़ैल जायेगा, जो इम्युनिटी सिस्टम के हिसाब से देश के सबसे स्ट्रांग लोग हैं? और यह बात इस बात से भी सत्यापित है कि 10 सितंबर 2020 पीपली आंदोलन के बाद से किसान सड़कों पर ही बैठे हैं; 2.5 महीने कम नहीं होते, इनमें कोरोना फ़ैलना होता तो यह धरना-स्थल श्मशान बन चुके होते अभी तक|
पहचान लो, कि आप अभी भी गुलाम हो और विदेशी ही ताकतों द्वारा शासित हो जिनका ओरिजिन थाईलैंड-कम्बोडिया वाली थ्योरी से साफ़ सत्यापित होती दिख रही है| अगर ऐसा है तो यहाँ से नारा दे लो कि, "थाईलेंडियों, भारत छोड़ो! कम्बोडियाईओ, भारत छोडो!" ग़दर मचा दिया इन्नें तो कति| दुनियां में किते भी कोनी देख्या यह सिस्टम तो| इनका कोई कनेक्शन नहीं है आपके इमोशंस से, मुद्दों से| सर छोटूराम वाले तेवर अपनाने से ही राह निकलनी अब तो|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक



धर्म किसी को नहीं जोड़ सकता; ना आंतरिक तौर पर, ना बाह्य तौर पर!

1) अगर ऐसा होता तो एक मुस्लिम धर्म के, साथ-सीमा लगते 59 देशों की बजाए, यह इस हिस्से वाली पूरी धरती एक मुस्लिम राष्ट्र होती|

2) अगर ऐसा होता तो एक ईसाई धर्म के, साथ-सीमा लगते यूरोप के 32-35 देशों की बजाए, पूरा यूरोप एक ईसाई राष्ट्र होता|
3) अगर ऐसा होता तो एक बुद्ध धर्म के, साथ-सीमा लगते पूर्वी एशिया के 15-20 देशों की बजाए, पूरा पूर्वी एशिया एक बुद्ध राष्ट्र होता|
तो क्यों हैं यह देश, एक धर्म के होते हुए, साथ सीमा लगते हुए भी अलग-अलग?
वजह हैं, इनके अपने-अपने आर्थिक, कल्चरल, भाषीय, रिसौर्सेज व् एथिकल रूचियां व् समूह|
हजम करो तो करो, नहीं तो जब तुम अपने यहाँ तथाकथित एक धर्म का राष्ट्र घोषित कर लेते हो तो उसके अगला डिस्ट्रक्शन यही शुरू होगा, आज की 29 स्टेटस कल, न्यूतम 29 राष्ट्र होंगी|
तो ना यह बात सच कि धर्म आंतरिक विषमता मिटाते हैं और ना यह वाली बाह्य विषमता मिटाने की कि "मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना" या "हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, आपस में सब भाई-भाई"|
धर्म सिर्फ और सिर्फ उन चालाक लोगों का प्रोपगैंडा है जो समाज पे इकोनॉमि, रिसोर्सेस व् पावर पॉलिटिक्स पर कण्ट्रोल चाहते हैं| इसलिए अपना-अपना आर्थिक, कल्चरल, भाषीय, रिसौर्सेज व् एथिकल रूचियां समझो और इनको ठीक करने पे काम करो; यूनाइटेड अमेरिका की तरह डिसेंट्रलाइज्ड स्टेट का राष्ट्र बना के; जिसमें स्टेटस के अपने भी इंडिपेंडेंट राइट्स हों व् कुछ राष्ट्रीय स्तर के केंद्र के पास हों|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 6 November 2020

करवा फोटो सेशन और जाट-कल्चर का बिगड़ता रूप!

जिस करवाचौथ की खुद ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा-खत्री, यहाँ तक कि दलित-ओबीसी तक की लुगाइयों ने शायद ही कोई 2-4% ने फोटो डाली होंगी सोशल मीडिया पर; उसी की ऐसा लगता है कि न्यूनतम 70-80% फोटोज तो जाटणियों ने ही डाल रखी हैं; मरी-बटियाँ नैं इतना आंट दिया सोशल मीडिया| कुछ तो बावली-बूच कल्चर प्रमोशन के नाम पे चेहरा चमकाने को इतनी बावली हुई जा रही हैं कि फोटो सेशंस तक करवा रखे हैं| और ये 90% वो हैं जिनके मर्द 3 कृषि बिलों को लेकर या तो रोड़ों पर हैं या बैंक-देनदारों के कर्जे चुकाने के बोझ में हैं| रै और नहीं तो ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा-खत्री स्त्रियों की रीस ही कर लो; इस दिन ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा-खत्री की औरतें जहाँ इस कर्वे की कथा-कहानियां सुना के अपने घर भर रही थी, ये म्हारे वाली खामखा ही चामल-चामल के जेब झड़वा रही थी| जरा बताइयों कथा-कहानी कुहाणे वालियों में से ही कितनियों की करवा-क्वीन टाइप फोटो आई? ऐसा भी नहीं कि इतने छेछर कर कर के थम अपने ऊपर से 35 बनाम 1 होने से ही रुकवा लेती हो?

याद आती हैं पड़दादा दरिया सिंह जांगड़ की वह सारे ठोले की लेडीज की काउन्सलिंग क्लासेज लेना; जिनमें वो बताते थे कि कल्चर-कस्टम के नाम पर क्या हमारे लिए सामूहिक तौर पर सही है और क्या गलत| ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा-खत्री यह काउन्सलिंग आज भी कर रहे हैं बस ये एक जाट ही न्यारे उभरे हैं जिनको गधों वाले जुकाम हुए पड़े हैं| लुगाई तो लुगाई, इनके मर्दों को टोक लो तो ऐसे पाड़ के खाने को आवें, जैसे बस सारी दुनिया का तोड़ इस चौथ में ही आ लिया| रै मखा रोज सांप-बिच्छू-बघेरों के मुँहों में पैर धर के देश के लिए फसल उगाने वालो, थमनें भी मौतों के डर सताने लगे; रै क्यों गद्यां कैं जुकाम आळी कर रे हो?
35 बनाम 1, जाट बनाम नॉन-जाट, ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई चीज इनके असर ही नहीं कर रही| आर्य-समाज तक जैसे ताक पर धर दिया हो| इनको तो शहरों में रहते हुए तीज-त्योहारों के पीछे के इकनोमिक मॉडल्स तक नहीं पता, ना समझे आते और ना ही समझने की कोशिश करते दीखते; जो कि आज से 30 साल पहले मेरे पड़दादा दरिया सिंह जैसे बूढ़े इन मॉडल्स को इतना बारीकी से समझते थे कि उनकी तरह गाम के हर ठोले का बूढा अपने ठोले की औरतों की मासिक काउन्सलिंग किया करते| रै थम और तो छोडो अपने बूढ़ों की रीस कर लो जो अगर ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा-खत्री की नहीं भी होती तो थारे से|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 2 November 2020

तुमसे मरे पे पिंड-पितृ-दान करवाने वाले के पिंड-पितृ-दान कौन करता है, कभी सोचा है?

तुम्हारे यहाँ किसी के मरने पे आत्मा-पितृ-भगवान-भूत आदि की शांति-पुण्य-भय आदि के नाम तुमसे पिंड-पैसे आदि दान करवाने-लेने, हवन-भंडारे-जीमनवारे करवाने वाले फंडी के घर में जब कोई मरता है तो वह यही चीजें खुद के घर में किस से करवाता है, किसको पिंड-पैसे देता है; कभी सोचा, पूछा या पता किया है?

भली-भांति 10 फंडियों के घरों का गुप्त-सर्वे करवाया मैंने इसपे और पाया कि वह अपनी बिरादरी से बाहर तो छोडो, खुद की बिरादरी तक में किसी को नहीं जिमाता-पुजवाता-दान देता; अपितु जो देता है सिर्फ और सिर्फ अपनी बेटियों को देता है; चाहे उसके घर माँ मरे, बाप मरे, बीवी मरे, जवान मरे या बूढ़ा|
बताओ यह दोहरे मापदंड कैसे हो सकते हैं भगवान के; इसलिए जो भी जिस भी जाति-बिरादरी का इंसान ऐसे फंड रचता है फंडी कहलाता है| इनसे बड़ा सीखते हो ना, इनको बड़ा ज्ञानी-ध्यानी भी बताते हो; इसका मतलब यह जो खुद के मामले में बरतते हैं वही असली ज्ञान हुआ ना? तो करो लागू इसको ही अपने घरों में और घर में हर मरगत पे सिर्फ बेटी को दो या आपस में बांटों|
औरों की तो कहूं ही क्या, जिन 50-60-70 साल वालों के ब्याह-फेरे उनके घर के ही आर्य-समाजी बूढ़े-बड़ों ने करवाए थे, जो यह चीजें घर-खानदान-बिरादरी वाले से ही करवाए थे, उन व् उनकी औलादों तक को यह गधे वाले जुकाम हुए पड़े हैं| फिर कहते हैं कि अजी हमको कोई कंधे से ऊपर-नीचे के तंज क्यों कसता है, अजी यह 35 बनाम 1 हमारे ही साथ क्यों होता है| ना तो और बाबा जी गेल होवैगा? खुद की देखी-बरती पुरखों की कल्चरल लिगेसी थम माननी छोड़ चुके, औलादों को वह पास करनी तुम छोड़ चुके; तुमपे ही होंगी ऐसी बातें-वारदातें|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 1 November 2020

दिवाली के साथ-साथ अबकी बार पुरखों के "कोल्हू दिवस" को मनाएं!

धनतेरस पर दुकानदार की आप लोग शॉपिंग करवाते हो, तो दिवाली को उसके घर उस कमाई की लक्ष्मी आने की ख़ुशी में दिए जलाए जाते हैं|


परन्तु तुम किसान-जमींदारों की औलादों, तुम धनतेरस पर अपनी जेबें कटवा के आने वालो, तुम किस ख़ुशी में लक्ष्मी पूजन करते हो; तुम तो धनतेरस पे दुकानदार के यहाँ उल्टा लक्ष्मी लुटा के आए होते हो, अपनी जेबें फूंक के उनकी दिवाली मनाए आते हो? कभी सोचा-समझा है या एविं देखादेखी भेड़चाल बन चले हो?
आओ बताता हूँ कि उदारवादी जमींदारों के यहाँ कौनसी लक्ष्मी आती है जिसके चलते घी के दिए जलते आए हैं:

कातक की अमावस को वह दिन होता है जब 99% गन्ने (गंडे) की खेती पक के तैयार हो जाया करती है| जो आज भी गामों से जुड़े हो आपको पता होगा कि कहते हैं कि "कातक अमावस को पहला गंडा पाडना चाहिए"| तो पुरखे यह पहला गंडा पाड़ के यह चेक किया करते थे कि गंडे मीठे हो गए हैं तो चलो कोल्हू शुरू किये जावें| और कोल्हू शुरु होने का मतलब होता था जमींदार के यहाँ "कोल्हू इंडस्ट्री से गुड़-शक्कर-शीरा-खोई आदि का बनना शुरू होना" यानि गुड़-शक्कर-शीरा-खोई चारों ही वह औद्योगिक उत्पाद जो जमींदार को अगले छह महीने तक इंडस्ट्रियलिस्ट व् व्यापारी बनाए रखते थे|

इसी धन-आवक की बड़क में पुरखे अपने कोल्हू व् इनके औजारों को धोते-पोंछते व् घी-तेल के दिए लगा के इस इंडस्ट्री के शुरू होने की ख़ुशी में "कोल्हू दिवस" मनते|

इसलिए दिवाली के साथ-साथ अबकी बार कोल्हू दिवस भी मनाओ| ये माइथोलॉजी हमें-तुम्हें खाने को नहीं देती और ना इन मैथोलोजियों से निकले त्योहार देते, उल्टा लेते-ही-लेते हैं| जो देते आए वह त्यौहार मत बिगाड़ो, उनको जरूर से जरूर मनाओ| मनाओ अगर चाहो हो कि फिर से कोई 35 बनाम 1 ना होवे और कोई कंधे से ऊपर-नीचे की अक्ल के तंज ना कसे| और इन सबसे भी जरूरी, तुम्हारी, तुम्हारे पुरखों की हस्ती-शक्ति-लिगेसी बची रहे व् उसकी बुलंदी कायम रहे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 26 October 2020

“सांझी की साँझ” अंतराष्ट्रीय मेळा अर मुकाबला - 2020 के नतीजे इस प्रकार रहे!

“सांझी की साँझ” अंतराष्ट्रीय मेळा अर मुकाबला - 2020

के नतीजे इस प्रकार रहे:

पहला लंबर: सोनीपत सिटी टीम - नकद इनाम 5100 रपिए
दूजा लंबर: भालोठ, रोहतक टीम - नकद इनाम 3100 रपिए
तीज्जा लंबर: मेरठ सिटी टीम 1 - नकद इनाम 2100 रपिए
चौथा लंबर: गोहाना सिटी टीम - नकद इनाम 1100 रपिए
पांचमा लंबर: पिल्लूखेड़ा, जिंद टीम - नकद इनाम 1100 रपिए
छटा लंबर: सेक्टर 2, रोहतक टीम - नकद इनाम 1100 रपिए
सातमा लंबर: हैरो, लंदन टीम - नकद इनाम 1100 रपिए (पौंड राशि)
आठमा लंबर: गोच्छी, झज्जर टीम - नकद इनाम 1100 रपिए
नौमा लंबर: मूरपार्क, लंदन टीम - नकद इनाम 1100 रपिए (पौंड राशि)
दसमा लंबर: मुंडा खेड़ा, कुरुक्षेत्र टीम - नकद इनाम 1100 रपिए

यहाँ यह बता दें कि जो टीमें नेटवर्क अनुपलब्धता के चलते भाग नहीं ले पाई (उनकी पहले से भेजी हुई वीडियो देख के लंबर लगाए गए) या भाग लिया व् पहलड़े दसां म्ह लंबर नहीं आया या जिन टीमा नैं मुकाबले के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया व् एक भी वीडियो या फोटो अपनी सांझी की भेजी उन सबको 500 रपिए टोकन मनी दिया जाएगा| टॉप तीन लंबरों या पोजिशंस पर वही टीमें आ सकी, जिन्होनें लाइव परफॉरमेंस दी व् जूरी के सवालों के जवाब दिए|

इन सभी टीमों को E-Certificate भी दिया जाएगा|

UZMA Baithak Honorary Lifetime Membership Awards के नतीजे:
1) Khap Chaudhary Honour Award / खाप चौधरी हॉनर अवार्ड: दादा चौधरी नफे सिंह नैन, प्रधान बिनैण खाप व् सर्वजाट सर्वखाप
2) Art & Culture Honour Award /कला व् हरयाणत हॉनर अवार्ड: सर रघुवेन्द्र मलिक, वेटरन हरयाणवी एक्टर, कला व् हरयाणत के आदर्श
3) 3K (Kheda-Khap-Khet) Dedication Honour Award / 3 ख (खेड़ा-खाप-खेत) सम्पर्ण हॉनर अवार्ड: दादीराणी फूलपति पहल, वयोवृद्ध होते हुए भी ऊर्जा, लग्न व् प्रेरणा की प्रतीक

इन तीनों आदरणीय हस्तियों को 1 इ-प्रशस्ति पत्र (E-Certificate) व् 1100 रपिए या इसी कीमत की लोई या चादर या शॉल| व् UZMA Honrary Members Medical Help Bounty के तहत जीवन में किसी वजह से अकेला या अलग-थलग पड़ जाने व् कोई आर्थिक मदद नहीं होने की अवस्था में स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों में उज़मा बैठक द्वारा निर्धारित मानदंडों के तहत मेडिकल हेतु आर्थिक मदद|

E-Certificate of Honour: तमाम आदरणीय एंकर्स व् जूरी सदस्यों को|
सभी विजेता टीमों को उज़मा बैठक की तरफ से सांझी उत्सव की बधाईयों के साथ-साथ ढेरों बधाईयां व् स्नेह!

नोट: उज़मा बैठक आज से ही हर अवार्ड की मॉनेटरी अमाउंट को विनर्स के बैंक खातों में भेजने का कार्य शुरू कार रही है, जो कि न्यूनतम वक्त में पूरा कर दिया जाएगा| E-Certificate भेजने में 1 से 2 हफ्ते का वक्त लग सकता है|

E-Certificate भेजने के लिए अपना एक वैलिड ईमेल आईडी, उज़मा बैठक तक पहुंचा दें|

जय दादा नगर खेड़ा/भैया/भूमिया/जठेरा/बड़ा बीर!
जय यौद्धेय!

आप सभी के आपसी सहयोग, भागीदारी व् कामयाबी से अभिभूत,
एडमिन्स टीम के साथ-साथ तमाम उज़मा बैठक! - https://www.facebook.com/UZMABaithak

Friday, 16 October 2020

 पंजाबी-हरयाणवी कल्चर में "सांझी" का व्यवहारिक महत्व:


एक कहावत है हरयाणवी में, "गाम की 36 बिरादरी की बेटी सबकी सांझी होती है" यानि वह पैदा किसी भी बिरादरी में हुई हो, लेकिन बेटी वह सबकी होती है| यही कांसेप्ट पंजाब में है| यह बात इस बात से भी सत्यापित होती है कि गाम की बेटी का पति सिर्फ बेटी के घर-कुनबे या बिरादरी का नहीं अपितु पूरे गाम का जमाई कहलाता है| ऐसा उच्च दर्जे का आदर-मान-स्वीकार्यता रही है पंजाबी-हरयाणवी कल्चर में बेटियों की| हरयाणवी कल्चर का फैलाव वर्तमान हरयाणा, दिल्ली,वेस्ट यूपी, उत्तरी राजस्थान व् दक्षिणी उत्तराखंड तक जाता है| 


और इसी "सांझी" शब्द से "सांझी का त्यौहार" बना है| जिसके तहत 36 बिरादरी की बेटियां इकट्ठी हो, घर-गाम की बड़ी औरतों के सानिध्य व् निर्देशन में सांझी मनाती आई हैं| सांझी मूलत: एक रंगोली है जिसके तहत छोटी लड़कियों को आर्ट व् कल्चर सिखाया जाता है व् सुवासण यानि किशोर हो आई लड़कियों को इस 10 दिन की वर्कशॉप के जरिए शादी के बाद के 10 दिनों बारे मानसिक तौर से परिपक़्व किया जाता है| आठवें (कहीं-कहीं सातवें या नौवें दिन) दिन सांझी का भाई उसको लेने आता है| वह 2 दिन रुकता है व् यह ओब्सर्व करता है कि नए घर में मेरी बहन कितनी रची-बसी-घुली-मिली व् बहन के ससुराल वालों ने बहन को अपने कुनबे में कितना स्थान दिया| फिर बहन को ले के दोनों अपने घर आते हैं और भाई यह ओब्सर्वेशन रिपोर्ट अपने माँ-बाप को बताता है| और पहले जमाने में ऐसे ही सुनिश्चित किया जाता था कि बेटी ससुराल में कितनी रची-बसी या ससुराल वालों ने उसको कितना रचाया बसाया| 


सिर्फ ससुराल का घर ही नहीं अपितु पूरी ससुराल भी अपनी बहु के प्रति कुछ यूँ प्यार दिखाती है कि जब सांझी व् उसके भाई को जोहड़ों में तैराने जाया जाता है तो यह होड़ होती है कि सांझी को जोहड़ के पार नहीं जाने दिया जाता| उनका संदेश होता है कि हमें हमारी भाभी इतनी प्यारी है कि हम उसको गाम से बाहर नहीं जाने देंगे| 


कल से शुरू हो चुकी यह 10 दिन चलने वाली सांझी, पूरे पंजाब-विशाल हरयाणा में अगले 10 दिन तक मनाई जाएगी| यह पंजाबी-हरयाणवी त्यौहार अवधि दहशरे व् रामलीला, बंगाली दुर्गा पूजा, गुजराती गरबा व् नवरात्रों के ही समानांतर मनाया जाता है| इन सभी मैथोलॉजिकल त्योहारों का आदर करते हुए ख़ुशी-ख़ुशी वास्तविकता पर आधारित अपनी सांझी को भी मनाएं व् मनवाएं|  


व् इस बार उज़मा बैठक द्वारा खासतौर से इंटरनेशनल स्तर पर 25 अक्टूबर को ऑनलाइन मनाए जा रहे इस त्यौहार को ज़ूम व् उज़मा बैठक के इस फेसबुक पेज पर www.facebook.com/UZMABaithak लाइव देखना ना भूलें|


जय यौद्धेय! - फूल मलिक




Tuesday, 6 October 2020

आओ बच्चो, मीडियाई गुंडों से वर्णवाद व् जातिवाद सीखते हैं!

जरा यह सलंगित खबर पढ़ो, और सोचो क्या शिक्षा मिलती है इससे? 


मुख्यत: यही कि जिस पार्टी-संगठन में जिस वर्ण-जाति-सम्प्रदाय की बहुलयता हो, जिस वर्ण-जाति-सम्प्रदाय के लीडर्स की अधिकता हो; उसको उसी वर्ण-जाति-सम्प्रदाय की पार्टी-संगठन बोला करो; क्योंकि इस देश का कानून तो इन ऐसे मीडियाई वर्णवादी व् जातिवादी गुंडों की इन हरकतों का स्वत: संज्ञान लेता नहीं कभी| ऐसा भी नहीं है कि RLD ने अपने रजिस्ट्रेशन व् संविधान में ही खुद को एक जाति-वर्ण विशेष की पार्टी घोषित कर रखा हो, जो यह मीडियाई गुंडे इस खबर में RLD के संदर्भ में जाट शब्द को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं| 


दरअसल यह खुद को तुम्हारे ही धर्म, तुमको उनके ही धर्म के (मुस्लिम-सिख या ईसाई आदि नहीं) बताने-गाने-गिनने-लिखने वाले वर्णवादी कीड़ों की ऐसी सोच है कि जिन पार्टियों में जाट या ओबीसी या दलित वर्ग के लोगों व् नेताओं की बाहुलयता हो उनको ऐसे ही जाति संबंधित लिखो-दिखाओ-गाओ-फैलाओ| समझ में आई बच्चों, कि इस देश में सबसे बड़े वर्णवादी व् जातिवादी लीचड़ कौन हैं? 


अब इनका कुछ इलाज भी कर सकते हैं क्या? हाँ, क्यों नहीं कर सकते, यही तो असली जंग है; जिसमें यह हराने हैं| और इसके लिए क्या किया जाए? 

1) जो ब्राह्मण बाहुल्य या नेताओं की लीडरशिप की पार्टी-संगठन हैं, उनको ब्राह्मण पार्टी-संगठन कहना शुरू करो| जैसे कि बीजेपी ब्राह्मण बाहुल्य है, पूरे इंडिया में| कांग्रेस उत्तरी भारत में जाट, ओबीसी व् दलित जातीय बाहुल्य चल रही है पिछले लगभग डेड दशक से; इससे पहले इस बारे भी  ब्राह्मण पार्टी होने का टैग था| ऐसे ही आरएसएस ब्राह्मणों में भी चितपावनी ब्राह्मण बाहुल्य है, उन्हीं का आधिपत्य है| हरयाणा के ब्राह्मण को तो चितपावनी ब्राह्मण, ब्राह्मण समाज के दलित बोलता/मानता है; ऐसा मेरे कुछ हरयाणवी ब्राह्मण मित्रों ने ही बताया है| 


2) ऐसे ही जो राष्ट्रीय या राज्य स्तर का नेता है उसको सिर्फ उसकी जाति का बताया करो| जैसे कि महात्मा गाँधी, बनिया नेता; इंदिरा गाँधी ब्राह्मण नेता; अटल बिहारी वाजपेई, ब्राह्मण नेता; अमित शाह, जैनी नेता; मनोहरलाल खट्टर अरोड़ा/खत्री नेता आदि-आदि| 


उद्घोषणा: इस लेख का लेखक वर्णवाद व् जातिवाद से पूर्णत: रहित इंसान है; इसलिए इस अखबार वाली टाइप की बातों में बिलकुल यकीन नहीं रखता| परन्तु इन अखबार वालों की आखें खोलने हेतु, इससे दुरुस्त कोई मार्ग भी नहीं दीखता| तो मात्र शायद यह लेख पढ़ के ऐसे मीडियाई गुंडों की लीचड़-कीड़े पड़ी सोच में कुछ डले, इसके लिए यह लेख लिखा है| और जब तक यह "कलम के गुंडे" इनकी ऐसी हरकतों से बाज नहीं आते, "Tit for tat" के सिद्धांत के तहत ऐसा लिखते रहने का समर्थक हूँ| बल्कि अगर यह नहीं सुधरते हैं तो इसको एक मुहीम बनाने पे कार्य करने तक का समर्थक हूँ| देश का कानून भी संज्ञान लेवे इनका, अन्यथा कल को पता लगा कि हमें ही जातिवादी व् वर्णवादी के टैग डाल दिए गए| 


जय यौद्धेय! -  फूल मलिक




Monday, 5 October 2020

क्या फर्क है 1669 के औरंगजेब, 1943 के अंग्रेज व् 2020 के हिन्दू राजा में एक किसान के लिए?

1) सन 1669 में औरंगजेब द्वारा बढ़ाए गए कृषि टैक्सों के विरोध में गॉड गोकुला जी महाराज की अगुवाई में सर्वखाप आंदोलन किया करती थी| 7 महीने तक चले इस आंदोलन को दबाने हेतु औरंगजेब को खुद युद्ध करने आना पड़ा था| इस आंदोलन के ऐवज में 1 जनवरी 1670 को आगरा के फव्वारा चौक पर हजारों किसानों की बलि दी गई थी| फंडी सरफिरे तुम्हें इसमें धर्म का एंगल दिखाएंगे, तुम सिर्फ किसानी का ही देखना, वजह नीचे आ रही है| आज वाले सर्वखाप चौधरी भी तो शायद कुछ तो तैयारी कर ही रहे होंगे, किसान के हक में?


2) सन 1943 में अंग्रेज वायसराय लार्ड वेवल से गेहूं के उचित दाम लेने हेतु सर छोटूराम झलसे किया करते और किसानों को बोल दिया करते कि, "जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी, उस खेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो" अर्थात जिस खेत से किसान को ही रोजी के लाले पड़ें, उस खेत के हर तिनके को जला दो| तब जा के अंग्रेज झुकते थे और 6 रूपये प्रति मण की बजाए, मांगे गए 10 के भाव की जगह 11 का भाव अंग्रेजों के नळ में डंडा दे के लिया करते| और ऐसा नहीं कि जाति से जाट थे तो सिर्फ जाट या हिन्दू के लिए लिया करते; किसान चाहे ब्राह्मण हुआ, राजपूत,अहीर-गुज्जर-सैनी-खाती-छिम्बी-दलित किसी जाति व् सिख-मुस्लिम-बौद्ध किसी भी धर्म का हुआ, सबके लिए लिया करते| 


3) सन 2020 में एक हिन्दू शासक आया, नाम है नरेंद्र मोदी| 3 ऐसे काले कृषि कानून लाया कि 3 महीने से ज्यादा सारे देश का किसान त्राहिमाम कर रहा है पर मजाल है ठाठी का पट्ठा जो टस से मस भी हो रहा हो तो? यह भी नहीं देख रहा कि आंदोलन करने वाला 90% किसान हिन्दू है या जो यह तथाकथित राष्ट्रवादी ही यह कह के उछालते हैं कि सिख भी हिन्दू से निकले हैं तो हिन्दू हैं| अब ना इनको सिखों में हिन्दू दिख रहे और ना हिन्दू किसानों में हिन्दू दिख रहे| शायद मनुवादी व् वर्णवादी चश्मा पहन लिए हैं बाबू जी, जिसमें लड़ाई-दंगों के लिए लठैत-लड़ाके चाहियें तो किसान इनके लिए क्षत्रिय हो जाता है, सदाचार की शेखी बघारेंगे तो वैश्य हो जाता है और अब आंदोलनरत किसान तो पक्का शूद्र दिख रहे होंगे? 


तो अजी जनाब, भारत के किसान के लिए किस बात की आज़ादी आज 2020 में भी? शायद 1943 वाला अंग्रेज ही बेहतर था, प्रैक्टिकल उदाहरण ऊपर दिया है; लड़ के ही सही मान तो जाया करते अंग्रेज, कोई मना के ही दिखा दे इस हिन्दू राष्ट्र के प्रधानमंत्री को|  


जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 4 October 2020

"जब ऐसे ही जाट जी के से पुरुष हों तो पोपलीला संसार में ना चले" - गुजराती ब्राह्मण महर्षि दयानन्द उर्फ़ मूल शंकर तिवारी|

जयंत चौधरी पर लाठियां भंजवाने वाले योगी आदित्यनाथ को आर्य-समाज के सत्यार्थ-प्रकाश के ग्यारहवें सम्मुलास (एक पन्ना सलंगित है) का यह जाट जी और पंडा जी वाला चैप्टर पढ़वाया जाए| और उसको बताया जाए कि हमारे पुरखों और ब्राह्मणों के बीच 1875 में एक समझ लिखित में हुई थी कि ब्राह्मण जाट को "जाट जी" का आदर देगा और जाट ब्राह्मण को भाई का आदर देगा| पर मुझे लगता है कि यह बाबा बन के भी अपने अंदर का ब्राह्मण का बॉडीगार्ड यानि क्षत्रिय वाला किरदार निकाल नहीं पाया है और जाटों को ऐसे ट्रीट कर रहा है कि जैसे जाटों पे जुल्म दिखा के इसको अपने मालिकों को खुश करना हो|


ऐसा है क्षत्रिय जी, इस चतुर्वर्णीय व्यवस्था में तुम रहते होंगे, ओबीसी व् दलित भी मान लिया रहते होंगे; परन्तु जाट, "जाट जी" बन के रहते हैं वह भी तब जब ब्राह्मण तक जाट को "जाट जी" व् "जाट देवता" लिखते हैं| सबूत हाथों-हाथ दिया है| याद दिलाओ इस मोड्डे को कि हम जाट हैं, हम 4 में से किसी वर्ण में नहीं आते क्योंकि वर्ण बनाने वालों के लिए ही हम "जाट जी" होते हैं; इसलिए हम हैं अवर्ण| और योगीनाथ आपको कोई बहम हो गया हो कि जाटों को जैसे चाहो ट्रीट करो, ओबीसी व् दलित की भांति सिर्फ शिकायत करेंगे, कोसेंगे परन्तु यहीं पड़े रहेंगे तो अपना बहम दूर कर ले मोड्डे|

मत हम पर वही 1840 से ले 1875 तक के हालात लाओ, जब तुम्हारी इन्हीं परजीवी हरकतों से पैंडा छुड़वाने को कैथल-करनाल-सफीदों तक लगभग-लगभग गामों का जाट सिख बन गया था और फिर चिंता हुई थी ब्राह्मणों को कि जाट ही चला गया तो हमारे पास बचेगा क्या? और तब जा के जाटों की स्तुति में यह "जाट जी" का अध्याय लाया गया था 1875 में| हम दोबारा से धार्मिक पलायन करने में या खुद का धर्म घोषित करने में देर ना लगाएंगे; अगर दोबारा किसी भी जाट नेता या हस्ती पर कल जैसी जुर्रत करने की सोची भी तो| साले ना लगते थम म्हारे, तिरस्कार और धिक्कार का जूत सा मार के अलग छिंटक देंगे| मत भूलो, हम राजपूत-ओबीसी या दलित नहीं, जाट हैं हम| यह बात धर्म के ब्राह्मण समझा दें इस सरफिरे मोड्डे को, और लगे हाथों उस सेण्टर में बैठे बड़े ढाढे वाले बड़बुज्जे को भी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक



किसान और सरकार के बीच से बिचौलिये नहीं अपितु सरकार खुद निकल गई है!

मन की बात के लागदार जी, "3 नए कृषि बिलों के जरिए आपने किसान और सरकार के बीच से बिचौलिये नहीं निकाले अपितु सरकार निकाल दी है| और सरकार निकाल के किसान को बिचौलियों के बीच खुला डाल दिया है कि लो चूंट-नोंच लो इसको जितना चूंट-नोंच सको|"


अरे हे तथाकथित हिन्दू राष्ट्र के प्रहरी, हे तथाकथित राष्ट्रवाद के प्रणेता; आप राष्ट्रवाद तो छोडो धर्मवाद ही ढंग से निभाना सीख लो पहले? अपने ही धर्म के किसान पे कोई इतना जुल्म बरपाता है क्या कि उनकी आर्थिक सुरक्षा का कवच APMC ही हटाने चले हो? 


हे वसुधैव कुटुंभ्कम के तथाकथित धोतक, जरा वसुधा के किसी कोने में यह तो दिखा दो कि, "यह किसानों से बिना पूछे, बिना कंसल्ट किये" वाले कृषि कानून कौनसे फलाँ देश में लगे देखे, जो यह वसुधा के उस कुटुम्भ की बात यहाँ लागू कर रहे हो? ईसाई धर्म के किसी देश में देखी या थारे मोस्ट फेवरेट enemy religion वाले मुस्लिम देश में देखी?


कोई ऐसा मुस्लिम या ईसाई देश नहीं जिसमें क्रमश: मौलाना-मौलवी व् पादरी-पॉप, क्रमश: अपनी-अपनी मस्जिद या चर्च से बाहर निकल एमएलए/एमपी बनने को लालायित रहते हों| एक यह म्हारै वाले ही अनूठे हैं कि क्या मजाल जो इनका दीदा मंदिर-मठ-डेरे में बैठे टिक जाए| दो डोब्बे ज्ञान के क्या आ जावें इनके भेजे में कि लगें बंदर की तरह कूद-फांद करने कि अरे ओ समाज वालो, ो धर्म वालो तुम दूर हटो; तुमको हमने अपने धर्म का होने नाते मोल ले लिया है इसलिए हम ही तो धर्मस्थल संभालेंगे और हम ही सविंधानस्थल संभालेंगे| या फिर इनको संसदों-विधानसभाओं में बैठाते हो तो दो इनके डेरों-मंदिरों पर भी धरने| कुछ तो करो, या तो पूरे इस साइड चल लो या उस|  


भारत के किसान हों, मजदूर, व्यापारी या विधार्थी; तुम्हारी दुर्गति की सबसे बड़ी वजह ही यह है कि "वसुधैव कुटुंभ्कम" का नारा देने वाले, एक भी वसुधा के नियमों का पालन नहीं करते; जबकि बाकी सारे करते हैं; दो उदाहरण ऊपर दिए|


और यकीन मानना जब तक आप इस चक्र में रहोगे तब तक आप विश्व के सबसे पिछड़े समुदाय में हो (खुद मैं भी), और देश को तो विश्व का सबसे पिछड़ा देश यह बंदर आने वाले सालों में बना ही देंगे, अगर यूँ ही सत्ता रुपी बंदूक इन बंदरों को दिए रखी तो| अगर चाहते हो अपना भला और वाकई में विश्वगुरु बनना तो सबसे पहले इनको मंदिर-डेरे-मठों में बंद करो, ठीक वैसे ही जैसे ईसाईयों ने पादरी-पॉप कर चर्च तक सिमित कर रखे हैं और मुस्लिमों ने मौलाना-मौलवी मस्जिदों तक|


इनको सबको समझ है कि समाज का चौधरी समाज से होना चाहिए, बस एक हमें ही पता नहीं कब समझ आएगी, जो समाज से भागे हुए भगोड़ों व् जोग लिए हुओं से देश के विकास की उम्मीद करते हैं; किसान-मजदूर-विधार्थी के भले की उम्मीद करते हैं|


ग्राउंड वालों को क्या आएगी, अभी तो उन एनआरईयों को ही समझनी बाकी है जो ईसाई व् मुस्लिम देशों में बैठे हैं और यह ऊपर कही बातें प्रैक्टिकल में रोज देखते-बरतते हैे परन्तु फिर भी इन बातों पर गौर नहीं फरमाते? और तो और मूर्ती-पूजा नहीं करने वालों के वंशों वाले भी ना फरमाते|


जय यौद्धेय! - फूल मलिक