Sunday, 14 November 2021

3 दलित भाईयों के सवालों की वेदना कैसी शांत की - पार्ट 1!

"Decoding the 35 vs. 1" Series - 1, Chapter - 1


5 दिन पहले की मेरी पोस्ट में मैंने जिक्र किया था कि 3 दलित भाईयों ने मुझे बताया कि "दलितों को फंडियों ने नीचे-नीचे यह बात बोल के जाट के ज्यादा खिलाफ किया हुआ है कि जमीनें तुम्हारी क्यों नहीं हो सकती; या आज तक तुम्हारी क्यों नहीं होने दी; पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह जाट ही क्यों जमीनों के मालिक बने हुए आ रहे हैं| उन्होंने बताया कि इस पर नमक-मिर्ची यह लगाई जा रही है कि तुम्हारे पुरखों से यह जमीनें छीनी जाटों ने व् तुम्हें कभी उभरने नहीं दिया?

मैंने इन भाईयों को यूँ जवाब दे कर बात समझाई व् जाट समाज की उदारवादिता से परिचित करवाया| पार्ट 1 में सिर्फ सर छोटूराम ने क्या-क्या दिया ला रहा हूँ| पार्ट 2 में सन 1595 में लिखी गई "आइन-ए-अकबरी" पुस्तक में जाट-जमींदार बारे लिखित बातों से ले 1930 तक के दस्तावेजी तथ्य लाऊंगा; व् पार्ट-3 में 1947 की आज़ादी से आज तक के; ताकि फंडी के बनाए इस 35 बनाम 1 के जिंक को तोड़ने बारे भूमिका बंधे| तो पेश है पार्ट-1:

11 ऐसे कानून-अधिकार जो बाबा आंबेडकर से भी 12-14 साल पहले दलित-ओबीसी के हक में सर छोटूराम ने यूनाइटेड पंजाब में बना के लागू कर दिए थे:

वह दलित-ओबीसी भाई इस पर जरूर गौर फरमाएं जो फंडियों के झांसे में आ जाट के प्रति विरोध को बहुतेरी बार अंधविरोध तक ले जाते हैं| हो सकता है कि आपने यह तो सुना हो कि सर छोटूराम ने किसानों के लिए ताबड़तोड़ बहुतेरे कानून बनाए, भाखड़ा बाँध बनाया आदि; परन्तु दलित-ओबीसी के लिए भी बाबा आंबेडकर से भी 12-14 साल पहले इतना ज्यादा कर रखा है कि आप पढोगे तो आपको समझ आएगी कि जाटों बारे आपका गुस्सा कितना जायज है व् कितना नाजायज है| नीचे पढ़ें कि देश का सविंधान तो 26 जनवरी 1950 को कानून-रूप लेता है परन्तु यह 11 कानून 1936 से ले 1940 के बीच तब के यूनाइटेड पंजाब में कानून रूप ले चुके थे:

आधा-दर्जन कानून तो एकमुश्त 11/06/1940 को लागू किए गए, "Professional Labour Act" के तहत| और भारत में मजदूर के हक में (जो कि 90-95% दलित-ओबीसी क्लासों के होते आए) यह सब पहली बार सर छोटूराम ने अपनी स्टेट में लागू किए, जो कि निम्नलिखित थे:

1. सभी वर्किंग सेक्टर्स में Bonded Labour यानि बेगार प्रतिबंधित की गई|
2. Child labour below 14 years age प्रतिबंधित व् आपराधिक घोषित की गई|
3. First time in India working hours were fixed to 61 hrs a week, 11 hrs a day, 14 leaves per year; इससे पहले दिन-रात खटना पड़ता था; जैसे अब की वर्तमान सरकार ने फिर से ऐसी ही स्थिति ला दी है; 8 घंटे प्रतिदिन हटा के 12 घंटे तो कर ही दिया है; एक बार और सरकार आने दो 12 की भी हटाई जाएगी|
4. Sunday work off - कॉर्पोरेट व् दुकानों में इतवार ऑफ का कानून लाया गया ताकि मजदूर एक दिन सुकून का परिवार के साथ बिता सके|
5. छोटी सी गलती पर भी व्यापारी-दुकानदार तनख्वाह में कटौती मार लेता था, इस कटौती को "Auditing of salary deduction on every dollish mistake" के तहत auditable बनाया व् इस तरह मजदूरों पर व्यापारी-दुकानदार की मनमानी पर रोक लगाई|
6. पंचायती चुनावों में दलित-अछूतों को वोटिंग राइट दिया गया|
7. पंजाब के अछूतों को राजकीय नौकरियों में 5% आरक्षण दिया|
8. मुंशी व् जेलदार की पोस्टों पर विशेष आरक्षण दलितों को दिया गया|
9. 1938 में कृषि योग्य खाली पड़ी भूमि को दलितों में आवंटित करवाया| Biggest example was of Multan where 454625 acres of land was given on rate of Rs. 3 per acre on an interest rate of 25 paisa per year to be payable up to 12 years. Dalits rendered him the title of "Deenbandhu" on it.
10. वर्णवादी फंडियों के बहकावे में आ जिधर भी दलितों-अछूतों के अलग कुँए रखे जाते थे या कुँए खोदने ही नहीं दिए जाते थे; वहीँ सर छोटूराम के निर्देश पर भक्त फूल सिंह मलिक (खानपुर वीमेन यूनिवर्सिटी जिनके नाम पर है) ने गामों में दलितों के लिए कुँए खुदवाए| इसमें मोठ-लुहारी में कुआँ खुदवाने का किस्सा सबसे मशहूर है|
11. 1936 Mansukhi Bill: अंग्रेजों ने सैनी-खाती-छिम्बी जातियों (कुछ और भी जातियां थी इस लिस्ट में) को किसानी स्टेटस नहीं माना था, जो सर छोटूराम ने इस बिल के तहत दिया|

इस लेख से दलित भाइयों के, दो जवाब निकल के आते हैं: अब बताइए जो अपनी चलती में लाखों एकड़ की संख्या में दलितों को जमीनें बांटते थे, वह उनसे छीनने वाले कैसे हो जाएंगे; जैसा कि फंडी दलितों को भरमा रहा है? जो ओबीसी में आने वाली अपनी साथी जातियों को भी अंग्रेजों से लड़ के "किसानी स्टेटस" दिलाते थे; क्या वो दूसरों से छीन के जमीनें बनाएंगे?

तो जो भी वर्णवाद व् मिथकों से रहित दलित, ओबीसी व् जाट है; वह इन तथ्यों को 24 नवंबर 2021 सर छोटूराम के जन्मदिन तक सोशल मीडिया पर फ्लोट करके रखे| पूरी पोस्ट नहीं तो चाहे बेशक 11 कानूनी बिंदुओं को ही डालें; परन्तु इसको इतना जरूर फैलाएं कि अधिकतम दलित-ओबीसी तक यह बिंदु पहुंचें; तभी 35 बनाम 1 का आग्गा ले पाएंगे|

फंडियों का साइकोलॉजिकल वर्ड्स वॉर गेम (Psychologiccal Words War Game) ऐसी ही पोस्टें तोड़ पाएंगी| मैं इस जिंक को तोड़ने पर लग चुका हूँ; आप भी अपनी आहुति देवें|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Saturday, 6 November 2021

अरविंद शर्मा इंसान को इतना जल्दी अपनी पिछोका नहीं भूलना चाहिए!

आ जा तुम्हें बताऊँ कि जाट-जमींदारों जैसे सोच से कैसे शाही थे, हैं और रहेंगे; और तुम्हारे जैसे व् जिन उघाड़ों को साथ ले गलमठे पा रह्या थम कैसे चांडाल थे और रहोगे|

सबसे पहले तो आँख निकाल व् हाथ काट तेरे पुरखों के जो "किसान को राजाओं का राजा लिख-लिख मर गए"| किसानों की सबसे बड़ी बिरादरी जाट को "जाट जी" "जाट देवता" लिख-गा-बोल चले गए| सत्यार्थ प्रकाश उठा के पढ़ लेना|
फिर हाथ काट व् आँख निकाल तेरी दादियों-काकी-ताइयोँ की: जो सदियों से व् आज तलक भी जाट-जमींदारां की रसोई में रोटी-टूका बनाने व् बर्तन-भांडे साफ़ करने बदले में 4 रोटी पा गुजारा करते आए| मेरे बड़े नाना के यहाँ आती थी म्हारी एक मिश्राणी मामी; जिस दिन चाहिए उस दिन दे दूंगा गाम-नाम समेत सारी डिटेल| जा काट आईये उनके हाथ और काढ़ आईये उनकी आँख| परन्तु थारी तरह बेशर्म नहीं सैं हम, अपने कामगारों की भी इज्जत व् मर्यादा निभानी जाणैं सैं; इसलिए फ़िलहाल गाम-नाम समेत नहीं लिख रहा| और यह किस्से हर गाम गेल दे दूंगा; दिखां कितनों की आँख निकालेगा व् कितनों के हाथ काटेगा; जाट-जमींदारों के यहाँ से चूल्हे-चौके करने पे| थम इसलिए कुकाओ सो क्योंकि थारा यह जाट जैसा इतिहास नहीं| जाट-जमींदारों की हृदय-विशालता पर गुजारा करने वाले आज तू स्वघोषित स्वर्ण और शेर बनना चाहू सैं? थारे में से ही एक-दो की जुबानी सही में ठीक ही तेरे जैसों को आरएसएस वाले थारे ही गैर-हरयाणवी भाई, तुम्हें गंवार व् सबसे रद्दी कहवैं हैं| और जैसे जाट और बिरादरियों को दान देता आया, ऐसे तुम्हें तो सबसे ज्यादा ही दिया है|
जाट से इतना पा के जाट के ही नहीं हो सके; और लगे भी तो किनकी गेल, इन उघाड़ों गेल मिल कें आँख निकालोगे? और इन उघाड़ों के चक्रों में पड़ियों भी मत| "धोळी की जमीन की मलकियत खट्टर के हाथों थम खुसवाएं हांडो (म्हारे ही पुरखों से पाई थी, थारे पुरखों ने; जा पहले उनकी आँख निकाल व् हाथ काट) और कदे हाडों इनके फरसों से गर्दन बचाते और इनके साथ मिलके थम जग जितना चाहू सो? क्यों हंसा-हंसा पेट फाड़ै सै म्हारे|
और बोल कितना बोलेगा, जितने कह उतने पज पाडुं थारे तथाकथित आँख निकालूं व् हाथ काटुओं के|
जय यौधेय! - फूल मलिक





स्वघोषित कंधों से ऊपर मजबूतों की मजबूती तड़काता "किसान आंदोलन" पार्ट-2

आज रोहतक में रोहतक सांसद अरविन्द शर्मा तड़क गया और तालिबानी अंदाज में बड़बड़ाया "मनीष ग्रोवर के तरफ आँख उठेगी तो आँख निकाल लेंगे, हाथ उठेंगे तो हाथ तोड़ देंगे, छोड़ेंगे नहीं"|
अच्छा जी खट्टर ने थारी धोळी की जमीन खोस (छीन) ली, बिगाड़ लिया कुछ उसका? फरसे से काटने यह थमनें दौड़ लिए; फिर भी इतना याराना? दीन-ईमान-मान-अक्ल सब बेचें फ़िरों हो कती?
रै बावले ब्रह्मा-विंष्णु वालो अपनी लिमिट पहचानो, सामने शिवजी है तीसरी आँख खोले; नहीं जीत पाओगे यूँ आँख दिखा के तो कभी नहीं; थारे पुरखे कभी जीते हों इस अंदाज से तो थम जीतोगे|
मैं तो अक्सर कहता ही रहा हूँ कि इनका तथाकथित ज्ञान व् बुद्धि तभी तक survive करते हैं जब तक किसान/जमींदार मैदान में नहीं आन उतरते| किसानों ऐसे ही दादा महाराज सूरजमल की भांति शांति धारे धरना देते रहो; यह अरविन्द शर्मा तो ऐसे हवा होगा जैसे इसके पुरखे पूणे पेशवा सदाशिवराव भाऊ को पानीपत की तीसरी लड़ाई में दादा महाराज सूरजमल ने ऐसे ही बिना हथियार उठाये धूल चटवा दी थी| इनकी तरफ तो भर के आँख लखा दो इतना ही बहुत है| अब देख लो कल एक माफ़ी ही तो मंगवाई थी किलोई में, थर्र-थर्र काँप के लगे बड़बड़ाने|
अपने पुरखों के "तीसरी आँख खोले शांति धारे रूप की ताकत पर" भरोसा रखना; इहसे-इहसे तो इतने में ही बह जायेंगे| थारे पुरखों की उस पानीपत की तीसरी लड़ाई से स्थापित वह कहावत कभी मत छोड़ना जो कहती है कि "जाट को सताया तो ब्राह्मण भी पछताया"|
कुछ दिन पहले खट्टर, "लठैत तैयार करवाने की बड़बड़ा के" अपनी तथाकथित कंधे से ऊपर की मजबूती के घमंड का पलीता निकलवा चुका और आज यह इंसान भी|
आप लोग जीत चुके हो, इसका अंदाजा इसी बात से लगा लो कि जो लोग हरयाणा में 35 बनाम 1 रचने के पीछे रहे हैं व् कभी राजकुमार सैनी तो कभी रोशनलाल आर्यों जैसों को आगे करके स्वघोषित बुद्धिमान बनते रहे हैं आज आप लोगों के तप ने इनको एक-एक करके सबको बिलों से बाहर आने पर मजबूर कर दिया है| जरा ठहर के किसान वीरो, देखने दो अभी तो इनकी स्वघोषित कंधे से ऊपर की मजबूती पूरे विश्व को|
बाकी किसान वह कौम है जो अपने घर फूंक के चूहों के आँख कर दिया करे| अगर यह भी स्थिति आई तो पंजाब के सिख भाई भलीभांति बता देंगे कि उन पर 1984 करने वाले आज कितने बचे हैं पंजाब में|
और दूसरा अपनी गलती ठीक कर लो, इन फंडियों पे ऐसी लकीर मार दो कि फंडी बनाम नॉन-फंडी में घिर के रह जाएँ यह|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Monday, 1 November 2021

टिकैत साहब व् अन्य किसान नेता फिर से सरकार को खिला रहे हैं या?

यह दो कदम पीछे हटते दिखने का मतलब बड़ी तैयारी है या कोई झिझक?


तैयारी है तो चिंता ही नहीं परन्तु झिझक है तो उसके लिए तमाम संयुक्त किसान मोर्चा के नेता अपने पुरखों की नीतियों व् सोच का अध्ययन कर लें; झिझक स्वत: दूर होती चली जाएगी! ज्यादा पीछे के इतिहास में नहीं जाऊंगा, अन्यथा दर्जनों उदाहरण बादशाहों-राजाओं से कृषि अधिकारों की लड़ाइयों बाबत खापों व् मिशलों की तारीखों में विद्यमान हैं| हम अगर 20वीं सदी से भी शुरू कर लें तो पर्याप्त प्रेरणा व् मार्गदर्शन के उदाहरण मौजूद हैं:

1 - याद करें चाचा सरदार अजित सिंह जी को, जो गुलाम देश होते हुए भी सन 1907 में 9 महीने लगातार आंदोलन चला, अंग्रेजों से ऐसे ही काले बिल वापिस करवा के माने थे|
2 - याद करें सर छोटूराम को, जिन्होनें मुख्यत: तीनों धर्मों (हिन्दू-मुस्लिम-सिख) के किसानों को धार्मिक भावना की कमजोरी व् दब्बूपन से ऊपर उठा, तब के यूनाइटेड पंजाब में लगातार निर्बाध 25 साल निर्बाध सरकार चलाई| याद करें कि सर छोटूराम ने क्यों 1921 के असहयोग आंदोलन से खुद को वापिस हटा लिया था?
3 - याद करें, सरदार प्रताप सिंह कैरों को, कैसे तब फंडियों से लड़ के फंडियों के बीच बेख़ौफ़ सरकारें चलाई!
4 - याद करें, चौधरी चरण सिंह को, कैसे कर्तव्य-परायणता के आगे एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री तक को जेल में डालने से नहीं हिचके थे|
5 - याद करें, कि कैसे बाबा महेंद्र सिंह टिकैत ने शुक्रताल, मुज़फ्फरनगर की घटना में फंडी धर्मांधों को उनकी औकात दिखाई थी|

और अगर इतने भर से काम नहीं चलता और धर्म नाम की पीड़ में ना उलझ गए हों तो माइथोलॉजी ही याद कर लें कि कैसे इसमें किसान जाट को शिवजी भोले का रूप बताया गया है| उसी शिवजी भोले का रूप, जो जब ब्रह्मा व् विष्णु से जनता व् समाज अनियंत्रित हो जाते हैं (जैसे कि आज हुई पड़ी है) तो शिवजी तांडव पर उतर उसको आर्डर में लाते हैं| बस आप भी यही काम कर रहे हैं, कोई धर्महानि या धर्महीनता नहीं| बस धर्म वालों के आगे यह शिवजी भोले वाला तर्क पब्लिकली बोल के आगे अड़ा दें (इस एक लाइन से सम्पूर्ण फंडी काबू आ जाएगा), फिर देखें वह आपको कौनसे धर्म की हानि की दुहाई देंगे? अपितु ऐसे भावनाओं में उलझा कर ऐसे लोग ना सिर्फ किसान-मजदूर की हानि कर रहे हैं अपितु सम्पूर्ण मानवता के दुश्मन साबित हो रहे हैं|

यह जड़बुद्धि, कुबुद्धि, मूढ़मति व् स्वकेन्द्रित लोग हैं, इनको इतनी अक्ल नहीं है कि इनसे गलती हो गई है तो पीछे कदम खींच लें; इनको शिवजी भोले की भांति साइड करके, चीजें आर्डर में लानी होती ही हैं| अन्यथा यह यूँ उलटे नहीं हटेंगे चाहे इनको गद्दी ही क्यों ना गंवानी पड़े|

इसलिए बेझिझक आगे बढिये, व् अब असली अस्त्र यानि "आर्थिक असहयोग" को इस्तेमाल कीजिये व् अपना किरदार सार्थक कीजिए|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Friday, 29 October 2021

कोल्हू धोक-ज्योत (बड्डी गिरडी) व् गंडा (गन्ना) पाड़ दिवस - कात्यक मास की मौस (अमावस)!

छोटी-गिरडी व् बड्डी-गिरडी - गिरडी, खेतों में ढीम-डळे फोड़ने के काम आने वाला पत्थर का बना रोलर होता है|

कात्यक मास की मौस (अमावस) हरयाणवी-पंजाबी जमींदारी कल्चर में वह दिन होता आया है, जब किसान-जमींदार ईंख की पक चुकी खेती से सीजन का पहला गंडा पाड़, उसकी मिठास चेक करके; कोल्हू-क्लेशर लगाने का आगाज किया करते आए| कोल्हू-क्लेशर की सारी मशीनरी को धो के; कोल्हू में जुतने वाले बैलों को नहला-धो के उनके खुर-सींगों पर तेल व् गले में गांडली व् घंटियां बाँध के (बाकी गाय-भैसों को भी ऐसे ही सजाया जाता है) कोल्हू पीड़ने हेतु कोल्हू पर दिया जला के अपने फसली कारोबारी सीजन का आगाज किया करते थे| कृषक के साथ-साथ उधमी व्यापारी होने का अध्याय शुरू किया करते थे| खेतों में पके खड़े असली धन को गुड़-शक्कर बना के उसको बेचने-बिकवाने की प्रक्रिया शुरू किया करते थे तो सब जोश व् खुशियों से लबालब होते थे| यह थे थारे पुरखे जो तर्क आधारित त्यौहार मनाया करते थे|
अगर चाहते हो कि थारे बालक मिथकीय दुनिया के चमत्कारी तरीकों से मिल सकने वाली माया आदि के चक्कर में पड़ कर्म व् उधम से रहित व् पंगु ना बनें तो उनको बताईये यह अपने पुरखों के सही कांसेप्ट; जिनसे कि वास्तव में तिजोरी में माया आया करती है|
फंडियों ने नाजायज बाजारीकरण (मार्केटिंग तक समझ आता है परन्तु हर तथ्य-बात बाजार से जोड़ के चलाना, कोरी मूर्खता है) को बढ़ावा देने के चलते चेक कीजिए कि कहीं कर्म व् उधम से रहित तो नहीं हो गए?
जय यौधेय! - फूल मलिक

ऋषि दयानन्द की पुण्यतिथि पर विशेष!

अक्सर जाट से जलते-बलते-एंटी लोग कहते-बिगोते-रोते हैं कि जाट को मान-सम्मान नहीं करना आता|

आता है जी बिलकुल आता है, बशर्ते सामने वाला भी करना जानता हो व् उसके योग्य हो|
सबसे बड़ा उदाहरण: ऋषि दयानन्द, जाति से ब्राह्मण परन्तु जाट व् सहयोगी जातियों के सदियों पुराने "मूर्ती पूजा व् फंड-पाखंड से रहित दादा नगर खेड़ों" के सिस्टम को देख कर जिनको प्रेरणा मिली कि मुझे "मूर्ती पूजा रहित आर्य समाज" स्थापित करना चाहिए| व् ऐसा स्थापित किया कि आर्य-समाज की गीता यानि "सत्यार्थ प्रकाश" में ना सिर्फ जाट को बारम्बार "जाट जी" व् "जाट देवता" लिखा अपितु किसान की महत्ता को भी यह कह कर उसका यथायोग्य स्थान व् सम्मान संसार को समझाया कि, "किसान राजाओं का राजा होता है"| कहा कि, "सब जग जाट जी जैसा पाखंडमुक्त व् फंडमुक्त हो जाए तो फंडी-पाखंडी भूखे मर जाएँ"|
वैसे जाट को यह क्यों भूखे मारने, मारो इनके कर्मों के चलते अगर भूखे मरो तो; जाट तो "गाम-खेड़े में कोई भूखा-नग्न नहीं सोए" के दादा-खेडाई मानवीय सिद्धांत पालता आया|
खैर, अब देखें कि इस ब्राह्मण ने जब "जाट" बारे इतना खुल के लिखा तो जाट ने क्या किया? उसको इतना बड़ा बना दिया कि आज तलक भी उत्तर भारत में उससे बड़ा ब्राह्मण नहीं जाना जाता| यह है जाट की यारी, जाट का आदर-मान|
परन्तु यह उन मूढ़-मतियों को समझ नहीं आएगा, जो वर्णवाद की पीपनी बजाते रहते हैं|
और ऐसा भी मत मानिए कि ब्राह्मण था इसलिए इतना मान मिला; नहीं अपितु जाट एक ऐसी कौम है जो धर्म-जाति देखकर नहीं बल्कि इंसान हृदय व् दिलेरी देख कर उसको अंगीकार करती है| फिर चाहे वह ब्राह्मण दयानन्द ऋषि हो या सर्वखाप की 1398 की लड़ाई में तैमूरलंग से लड़ी सर्वखाप आर्मी के उप-सेनापति दादा धूळा भंगी हों| उस सर्वखाप आर्मी का जिसमें 80% जाट-सैनिक रहते आए, उसका उप-सेनापति होना कौनसे आदर-मान से कम है भला?
और जाट ऐसा इसलिए कर पाता है क्योंकि वह अवर्णीय रहा है, इसलिए उसने आर्य-समाज की भी खाप-खेड़ा-खेत की आइडियोलॉजी से मिलती हुई बातों को ही आगे बढ़ाया|
परन्तु आज एक स्पथ हर आर्य समाजी लेवे तो ऋषि दयानन्द को सच्ची श्रद्धांजलि होवे कि, "आर्य समाज में झूठे राष्ट्रवाद व् इतिहास के साथ माइथोलॉजी ले के घुसते चले आ रहे फंडियों को इनसे खदेड़ेंगे|" कोई भी धर्म-पंथ इसकी पवित्रता सहेजने को बलिदान मांगता ही मांगता है, इसलिए आर्य-समाज के गुरुकुलों में घुस चुके फंडियों के खिलाफ अपनी आवाज व् लामबंदी मजबूत करनी शुरू कीजिए|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Sunday, 24 October 2021

अब फंडी की नजर जमीन बाबत जमींदारों की लड़ाई लगवाने की भी है दलित-ओबीसी के साथ, कितने तैयार हो इससे बचने हेतु!

जिन जमींदारों ने अकबर के जमाने से तो कनफर्म्ड टैक्स दे-दे जमीनें बनाई, अब फंडी की नजर इसी जमीन बाबत उनकी लड़ाई लगवाने की है दलित-ओबीसी के साथ; क्या तैयार हो थम इससे निबटने के लिए?
फंडी भी वह जिसको तुम दान-चंदा दे के सर पर धरते हो व् जो कभी भी तुम्हारी तरह, तुम्हारे पुरखों की तरह हाड़तोड़ मेहनत करके जमीन-संसाधन नहीं जुटाता| उसका अगला टारगेट तुम्हारे दलित-ओबीसी से तुम्हारी टैक्सो, मालदरखासों के भरने के जरिए सदियों से कमाई जमीनों पर यह झगड़े लगाने की कवायद तैयार कर रहा है कि उनको बिना किसी ऐतिहासिक टैक्स रिकॉर्ड मेंटेनेंस के जमीनों की मलकियत चाहिए हो|
सनद रहे, यह फैक्ट्रियों, दुकानों, शॉपिंग-माल्स में दलित-ओबीसी की मलकियत का मुद्दा नहीं उठवाने जा रहा और ना ही धर्मस्थलों की आय-सम्पत्ति में हिस्सेदारी हेतु आवाज उठवाने जा रहा; परन्तु तुम्हारी जमीनों बारे उठवाने की शुरुवात जल्द कर रहा है|
क्या तैयार हो तुम, दलित-ओबीसी को इस मुद्दे पर इनके बहकावे में नहीं आने दे, दलित-ओबीसी को बल्कि धर्मस्थलों व् फैक्टरियों की प्रॉपर्टीज व् आमदनी में हिस्सा दिलवाने का उलटवार करने को?
अगर नहीं तो अपने तरकस कस लो वक्त रहते|
जय यौधेय! - फूल मलिक

या तो दलित-ओबीसी व् अपने बीच से फंडी को निकालो; या फंडी द्वारा तुम्हारे पर करवाया जा रहा दलित-ओबीसी बनाम तुम झेलते जाओ!

या तो दलित-ओबीसी के ऊपर छूत-अछूत, स्वर्ण-शूद्र, वर्ण की ऊंच-नीचता के नाम पर फंडी द्वारा किये जा रहे जुल्मों-भेदभावों को गाम गेल उठा के इनको फंडियों के जुल्मों से छुटकारा दिलवाओ, नहीं तो यह फंडी तुमसे पहले, तुम्हारे दलित-ओबीसी के साथ झगड़े लगवा तुम्हें यूं ही isolate राखेँगे| चॉइस थारी, थम इनको isolate कर दो या खुद को isolate करवाए रखो इनसे|

दलित-ओबीसी से थारा कारोबारी रिश्ता है यानि आपस में काम के बदले दाम-दिहाड़ी लेते-देते हो; और 99% थारे आपसी झगड़े व् मनमुटाव भी कारोबारी ही होते हैं| जबकि फंडी का दलित-ओबीसी से सिर्फ दान-चढ़ावा लेने का रिश्ता है बदले में देता है तो छूत-अछूत, स्वर्ण-शूद्र, वर्ण की ऊंच-नीचता के तमगे| अगर फंडी थारे कारोबारी रिस्तों की खटास को इतनी चौड़ी खाई बना देता है तो थम तो फंडी को इससे कहीं ज्यादा सहजता से अपने व् दलित-ओबीसी के बीच से निकाल बाहर फेंक सकते हो|
यह तरीका ना सिर्फ आपको दलित-ओबीसी के और नजदीक ले जाएगा अपितु सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक तमाम तरह के फायदे आपकी तरफ मोड़ेगा| तो उठा दो गाम गेल फंडी द्वारा दलित-ओबीसी पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज| अत्याचार क्या, किस तरीके का हो रहा है उसका आईडिया नहीं है तो मुझसे कांटेक्ट कर लो; इनके तो इतने अत्याचार हैं कि फंडियों को इतना उलझा सकते हो कि इनको गाम-गेल सांस नहीं आने का यह सोचते हुए कि यह क्या बन रही है थारी गेल| जिनको इतनी फुरसत, थारी निष्क्रियता ने दे रखी है कि वो तुमसे ही दान पा के तुमको ही isolate करवाते हैं; यह तरीका अपनाने के बाद जो इनसे इनकी isolation टूट पाए तो मुझे कहना|
पर इसके लिए थमनें, ग्रामीण-शहरी-एनआरआई तीनों स्तर पर आपस में सर भी जोड़ने होंगे व् अपनी महिला शक्ति को भी इसमें सहयोगी बनाना होगा|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Friday, 22 October 2021

सावधान: फंडी अपनी अनैतिक नीचता पर फिर से उत्तर रहा है!

किसान आंदोलन को कुचलने-दबाने-बिखेरने के मोदी-शाह से ले, बीजेपी-आरएसएस, बिग फिश-कॉर्पोरेट और सबसे बड़े कोर्ट तक में मुंह की खा चुके फंडी, घायल हुए बावले कुत्ते की तरह अपने शिकार पर निकल चुके हैं| व् अब इन्होनें जरिया बनाया है इस आंदोलन की अग्रणी कौम के खिलाफ एससी/एसटी एक्ट के एक्टिविस्टों को एक्टिव करके किसान-मजदूर के बीच आई मधुरता को तोड़ने का|

किसान-मजदूर कौम के हर युवा-बुजुर्ग-महिला समेत सामाजिक संस्थाओं जैसे कि खाप चौधरी या सामाजिक कार्यकर्त्ता तमाम से अनुरोध है कि जहाँ कहीं अपने गाम-गुहांड में ऐसा कोई मसला उभरता दिखे, तुरंत उसका हल करवाया जाए| बड़ी मुश्किल से इस किसान आंदोलन की वजह से ही 35 बनाम 1 जिन्न बोतल में बंद हुआ था| अब इनकी कोई और पार ना चलते देख, इन्होनें इस जिन्न को फिर से जगाया है| सावधान इनको इस फ्रंट पे अबकी बार मुंह की खिलवा दो|
सनद रहे, किसान-मजदूर के मसले इतने बड़े हो ही नहीं सकते कि हल ना होवें; धर्मस्थलों पर दलित को नहीं चढ़ने देना या वर्णवाद के नाम पर छूत-अछूत को चलाना, धर्मस्थलों पर दलित-ओबीसी की बेटियों को देवदासी बनाना आदि से बड़े तो बिल्कुल भी नहीं| इसलिए तमाम पंचायतियों से अनुरोध है कि अपने-अपने गाम-गुहांड की जिम्मेवारी लेवें इस फ्रंट पर| वरना आपकी चुप्पी, ना सिर्फ इनको खामखा का 35 बनाम 1 फिर से खेलने का मौका देगी वरन यह इसका इस्तेमाल आगामी चुनावों में भी करेंगे| इसलिए इस 35 बनाम 1 को दोबारा फण ना उठाने दिया जाए| नाक भींच दो अबकी बार फंडियों की तस्सल्ली से|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Thursday, 21 October 2021

35 बनाम 1 क्यों झेलना पड़ रहा है जाट समाज को!

इस पोस्ट का उद्देश्य: दलित-ओबीसी व् जाट को उन पहलुओं पर विचार करने को केंद्रित करना, जिसकी वजह से उनके बीच फंडी बेहोई दखलंदाजी किये हुए है|

हालाँकि 35 बनाम 1 अभी यह ढलान पर जा रहा है, परन्तु फरवरी 2016 में पीक पर था! तो क्यों हुआ ऐसा?
सबसे ज्यादा जाट के साथ रहने वाला, जाट से भाईचारा निभाने वाला दलित-ओबीसी क्यों छींटका जाट से?
कारण बड़ा सीधा है: जाट समाज की पिछली एक-डेड पीढ़ी ने (गामों से शहरों को सबसे तीव्र पलायन वाले दौर में, जिसको 1980 से 2010 तक का काल माना जा सकता है) ने पुरखों की वह अणख फंडियों के यहाँ गिरवी रख दी जिसके चलते पुरखे इन फंडियों को इनकी लिमिट व् जगह पर रखते थे| व् इनको वह मान-सम्मान देने पर ज्यादा केंद्रित हो गए जो पाकर फंडी अपने असली कमीनेपन पर आता है|
दूसरा, जाट समझता है कि फंडी जितना शराफत से उससे सन्मुख व्यवहार करता है; उतना ही उसकी पीठ पीछे करता होगा| जबकि है इसका विपरीत, इतना विपरीत कि जाटों के एक छोटे से छोटे दोष को दलित-ओबीसी के आगे विकराल दबंगई आदि बना के फैलवाता है व् यह बात लेखक व् उसके साथियों ने गांव में प्रैक्टिकल टेस्ट की है| जाट का इस तरफ ध्यान ही नहीं है कि जैसे आवारा जानवर से फसल की बाड़ करनी होती है, ऐसे ही इंसानों में आवारा नामक फंडी जानवर से अपनी नश्ल, सोशल आइडेंटिटी व् साख की रक्षा करनी होती है; जिसके लिए कि सरजोड़ के रखने होते हैं|
तो ऐसे में जब दलित-ओबीसी ने देखा कि जब यही इनके आगे अपने स्टैंड बदल गए हैं और इनका प्रभाव जाने-अनजाने मानने व् बढ़ाने लगे हैं तो फिर उसके साथ रहो ना जिसका समाज पर सबसे ज्यादा प्रभाव व् योगदान दीखता है| और ऊपर से फंडियों के दुष्प्रचारों से अपनी बाड़ करनी छोड़े देना, जो कि पुरखे बड़े अच्छे से करके रखते थे| और ऐसे बड़ी सहजता से दलित-ओबीसी, जाट से छींटका लिया गया; खासकर फरवरी 2016 में| वैसे इसकी असली शुरुवात मुज़फ्फरनगर 2013 दंगों से होती है; जहाँ जाटों ने इनको खुद ही यह स्कोप परोस के दे दिया|
2013 के बाद जून 2020 में पंजाब से ऊठे किसान आंदोलन ने वापिस वही अणख लौटाई है| यह इसी अणख का कमाल है कि मोदी-शाह, बिग फिश कॉर्पोरेट से ले सबसे बड़े कोर्टों के जजों तक के पसीने छुटे हुए हैं परन्तु किसानों को घेर नहीं पा रहे|
इन फंडियों को यूं आपके पुरखों वाली लिमिट में लेते जाओ; क्योंकि यह बात दलित-ओबीसी भी समझ चुके हैं कि समाज में बैलेंस तो किसान समाज ही रख सकता है| इस हद से ज्यादा बढ़ चली महंगाई हो, देश की संस्थाएं प्राइवेट को देने की गुस्ताखी हो या उलटे-सीधे कानून लाने की बेलगाम प्रक्रिया; इनको अंजाम तक ले जाने वाला विरोध, खुली चेतावनी व् प्रतिकार किसान समाज की अगुवाई में ही हो सकता है|
यह किसान आंदोलन ना सिर्फ काले कृषि कानून वापिस करवाएगा, अपितु फंडियों ने जो तथाकथित ज्ञानी, शरीफ, राष्ट्रवादी, सर्वहितैषी आदि-आदि होने का हुलिया आसमान में चढ़ाया हुआ था; उसको भी धराशायी करेगा| और यह हुलिया धराशायी होवेगा इन कानूनों को वापिस लेने से, यही फंडियों के गले की सबसे बड़ी फांस बनी हुई है|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Wednesday, 20 October 2021

खापलैंड की उदारवादी जमींदारी की एथिकल कैपिटलिज्म के "सीरी-साझी वर्क कल्चर" का "बार्टर इकोनॉमिक सिस्टम" मॉडल!

कभी सोचा है कि एक नाई, बाह्मण, लुहार, कुम्हार, खाती, छिम्बी आदि को उदारवादी जमींदारों के खेतों से जो 'एक गठड़ी तूड़ी' या 'एक मण या दो धड़ी अनाज' किस पैमाने के आधार पर मिला करता था या बहुतेरी जगहों पर आज भी लाते हैं?

इन्हीं सवालों के जवाब लिए आ रही है हमारी एक रिसर्च:
जो है खापलैंड की उदारवादी जमींदारी की एथिकल कैपिटलिज्म के "सीरी-साझी वर्क कल्चर" का "बार्टर इकोनॉमिक सिस्टम" मॉडल!
A research report on "Barter System Economic Model" of Ethical Capitalism of Udarwadi Zamindari of Seeri-Saajhi Working Culture of Khapland coming soon!
इस वीकेंड पर एक विस्तृत लेख आ रहा है जिसमें "Barter System Economic Model of Ethical Capitalism of Udarwadi Zamindari" पर विस्तृत शोध आ रहा है जो 1970-1985 तक सदियों से दुरुस्त लागू रहा|
इसमें बताया जाएगा कि एक नाई से ले लुहार, कुम्हार, खाती, छिम्बी, मिरासी, ब्राह्मण, रविदासी, कबीरदासी आदि को एक उदारवादी जमींदार के खलिहान में आई फसल का कितना हिस्सा मिलता था? यह इतना हिस्सा होता था कि इनमें से एक पर 30 जमींदार जजमान भी हुए तो इनकी कुल आमदनी एक सादे जमींदार के इर्दगिर्द ही पहुँच जाती थी|
यह रिसर्च बताएगी कि क्यों व् किनकी उदारता व् एथिकल सिस्टम की वजह से खापलैंड पर इंडिया में सबसे कम गरीब-अमीर का अंतर रहा है| क्यों यहाँ "आ जाट के", "आ नाई के", "आ ब्राह्मण के", "आ खाती के" बोल के casual सम्बोधन रहे हैं और अब इस खुलेपन को कैसे यह वर्णवाद खा गया|
यह रिसर्च हरयाणवी कल्चर व् सोशल इंजीनियरिंग की एक विशेषज्ञ हस्ती के साथ मिलकर निकाली गई है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 16 October 2021

किसान आंदोलन में धर्म क्यों है?

सबसे पहले: दलित सिख निहंग ने ही दलित सिख निहंग को मारा है गुरु की बेअदबी पर; सबसे पहले तो यही बात बता दो कुछ जातिवादी-जीवियों को|

और सुनो: थारे लागदार, पिछले 10 महीने से थमनें न्यूं लंगर छका थारी सेवा कर रहे हैं, ज्यूकर मामा के गया भांजा-भांजी या ससुराल गया बटेऊ छका करै, तो आंदोलन में हैं| थारे भतीज दिन-रात थारी सुरक्षा के लिए हैं ठीकरी पहरा देवें हैं तो आंदोलन में हैं| और वह भी बिना जाति-बिरादरी-धर्म देखे| आंदोलन को दिन-रात आत्मिक व् साहसिक बल देते हैं; युद्धों में ज्यों हल्कारे होते हैं; यूँ दिन-रात थारे हौंसले बुलंद करते हैं|
शुरू के पहले महीने तो सिंघु-टिकरी दोनों मोर्चों को जमाने में अग्रणी योगदान इन्हीं का था| जब आए थे रोड़ों पर से लावलश्कर के साथ, सब में भय निकालते व् आत्मविश्वास भरते हुए आए थे| तब से किसी ने नहीं कहा कि निहंगों को वापिस भेजो? 'गुरु-ग्रंथ साहब' की बेअदबी पर एक दलित निहंग ने दोषी दलित निहंग (जातीय पहचान जातिवाद-जीवियों हेतु लिखनी पड़ रही है) को मार दिया तो लगे सारे खालसे सारे निहंगों पर ऊँगली उठाने?
ये तथाकथित थारे वालों से करवा ली सेवा; जो सारे दिनों-महीने इनके लंगरों के रोट पाड़ लगे गरियाणे? थारे वालों में सिर्फ खापों के बूते लंगर हैं यहाँ, वरना कौनसा मठ-मंदर-डेरे वाला यूं बटेऊ-भांजा-भांजी ज्यूं जिमा रहा है तुम्हें यहाँ? कल को किसी खाप वाले से ऐसी हत्या हो जाएगी तो उसी में पूरी खाप लपेटने निकल पड़ोगे? गलत नहीं कहते लोग कि, "थम काटडे ज्यूँ अपने ही मारने वाले क्यों कहे जाते हो"|
शुक्र मनाओ यह मिसल-निहंग व् खापें हैं जो इस आंदोलन की नैतिक मोराल व् सुरक्षा-सेवा संभाले हुए हैं; वरना 10 महीने तो क्या 10 दिन भी नहीं बैठ पाते यहाँ|
और बाकी: अरे जिस दुश्मन से मुकाबला है कम से कम उन्हीं से सीख लेते? माना हत्या है, हत्या करने वालों ने कबूल कर सरेंडर भी कर दिया परन्तु क्या यह उन कश्मीर से ले सेंगर व् हाथरस दलित लड़की रेप में दोषियों के समर्थन में जुलूस निकालने वालों से भी घटिया हो गए? या यह उन फंडियों से भी बुरे हैं जो औरत को वरजसला अवस्था में व् दलित को अछूत-शूद्र कह के धर्मस्थलों में नहीं चढ़ने देते? या यह उन दलित-ओबीसी की बेटियों को देवदासी बनाने वालों से भी बुरे हैं?
लखीमपुर खीरी व् यह सिंघु बॉर्डर मामला, दोनों फंडियों के अंदर भय बैठाने वाले इंसिडेंट हैं कि हम पे गाड़ी चढ़ाते आओगे या गुरु की बेअदबी करते आओगे; बख्से नहीं जाओगे| क्या थम नहीं चुप्पी साधे चल रहे तुम्हारे वालों पे, अन्यथा अब तक तो तुमने एक-एक डेरे-मठ-मंदर वाले के दरवाजे खटखटा सवाल-जवाब ले लेने थे कि तुम क्यों नहीं सहयोग दे रहे? या सहयोग नहीं देने पर इनका खुल्ला बॉयकॉट कर चुके होते| जिनका धर्म साथ दे रहा है उनपे घुर्राने की बजाए अपने गिरेबां में झांको और हो सके तो जवाब लो इनसे| ज्यादा नहीं तो जब तक किसान आंदोलन है, तब तक इनके दान-चढ़ावे ही बंद कर दो| तब सवाल पूछना कि धर्म क्यों है किसान आंदोलन में|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 12 October 2021

वर्णवाद की थ्योरी कर्म आधार व् जन्म आधार दोनों पर ही फिट नहीं!

जन्म आधारित सही होती तो इसमें जन्मा कोई भी उच्च वर्ण वाला तथाकथित स्वर्ण दिहाड़ी-मजदूरी-रेहड़ी-रिक्शा पुल्लिंग आदि नहीं कर रहा होता और ना ही नीच कहे जाने वाला तथाकथित शूद्र वर्ण से कोई प्रोफेसर बनने का टैलेंट ले पैदा नहीं हो पाता|


कर्म आधारित सही होती तो स्वर्ण वर्ण में आने वाले तमाम दिहाड़ी-मजदूरी-रिक्शा पुल्लर, शूद्र कहलाते; जबकि वह आजीवन उसी वर्ण के कहलाते हैं जिसमें पैदा होते हैं|

सभ्य समाज पर सबसे बड़ा कटाक्ष व् मजाक है यह थ्योरी!

और इन तथाकथित कुलीनों का सुगलापन, हमने बड़े अच्छे से देखा है; भीड़ पड़ी में किसी का झूठा तक नहीं छोड़ते ये| घरों में मख्खियां भिनभिना रही होती हैं बाजे-बाजों के|

जय यौधेय! - फूल मलिक