Thursday, 15 September 2022

हिंदी पढ़ो-पढ़ाओ या और कोई भाषा पढ़ो-पढ़ाओ, परन्तु अंग्रेजी सबसे पहले पढ़ाओ अपने बच्चों को!

यह जो हिंदी मध्यम से बच्चों को पढ़वाने का सगूफा फंडी अभी छोड़ रहे हैं, यह ऐसा ही है जैसे एक सदी पहले तमाम गुरुकुलों में संस्कृत लादी परन्तु उसी विचारधारा पर बने DAVs में इंग्लिश मीडियम पढ़ाया!


यह ढकोसला मंजूर करने से पहले, ना सिर्फ नेताओं अपितु धार्मिक प्रतिनिधियों तक के बच्चे, वो धार्मिक प्रतिनिधि जो तुम्हें दिनरात हिंदी व् संस्कृत से पकाते हैं; इन सबके बच्चे इंग्लिश मीडियम के वो भी बोर्डिंग व् पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं!

इसलिए, हिंदी हो ना हो, परन्तु इंग्लिश जरूर रखवाओ अपने नजदीक के तमाम सरकारी व् प्राइवेट हर तरह के स्कूलों में! चुप ना रहें, वरना यह फंडी तो तुम उत्तर भारत वालों को भी महाराष्ट्र में पेशवाओं द्वारा दलित-ओबीसी वालों की कमर में झाड़ू व् गले में थूकने की हांडी लटकाने तक ला के छोड़ेंगे! इनमें तुम्हारे बारे जो सोच है, वह कल भी ऐसी ही थी, आज भी व् आने वाले कल में भी ऐसी ही रहनी है! इसलिए सब कुछ बर्बाद करने की सोच तुम्हारे बीच फैलाने वालों के भरोसे मत छोडो!

और ग्रेटर हरयाणा वाले तो अब हरयाणवी भाषा लागू करने की मांग पे आओ, अगर अपने पुरखों व् किनशिप की बुलंदी चाहो तो!

जय यौधेय! - फूल मलिक

Saturday, 20 August 2022

विषय: जाटों व् उसकी मित्र जातियों में विधवा विवाह, वर्णवादियों द्वारा उसके बारे फैलाये नकारात्मक पहलु व् इस विवाह के विधान अनुसार इसके सकारात्मक पहलू!

विधवा विवाह का मूल अर्थ

1) विधवा महिला, एकल या एकल मां का जीवन या पुनर्विवाह के जीवन के बीच चयन करने के लिए हमेशा स्वतंत्र रही है!
2) उसके दिवंगत पति की संपत्ति नैसर्गिक रूप से बराबरी से उसकी भी होती है, जो पति के मरने के बाद उसको व् उससे उसकी औलादों को स्थान्तरित होती आई है!
वर्णवादी फंडी, इसके विरोध में कहते हैं कि
1) जाट (यहाँ वह बाकी मित्र जातियों को छोड़ के, सिर्फ जाट पे निशाना धरते हैं) लोग अपनी पारिवारिक संपत्ति की सुरक्षा के लिए ऐसा करते हैं! - हाँ, जैसे जाट तो बिहार-बंगाल के सामंतों व् स्वघोषित सवर्णों की भांति, विधवा को मनहूस घोषित कर या तो काल-कोठरियों में डाल देते हैं, या उनको हरद्वार से हुगली तक गंगा घाटों के विधवा आश्रमों में फिंकवा देते हैं, वह भी सर के बाल मुंडवा के, या उनको सफेद ड्रेस कोड दे देते हैं व् ब्याह-शादी में खड़ा होने तक पे भी पाबंदी लगा देते हैं|
2) जाट चाहते हैं कि उनकी महिला हमेशा उनके नियंत्रण में रहे, इसलिए वह ऐसा करते हैं! - हाँ, जैसे जाट तो अपनी माँ की हॉनर किलिंग करने वाले को भगवान बना के पूजते हैं|
3) फंडी अपने ग्रंथों में जाटों की विधवा-विवाह जैसी मानवताओं से जलते-भुनते जाटों को शूद्र व् मलिन ठहराने हेतु, इनके यहाँ विधवा विवाह किये जाने को भी एक वजह बताते होते हैं| - हाँ, जिन्होनें तमाम ग्रंथों में स्त्री को ही शूद्र लिखा हो, तो इनके अनुसार औरत की भलाई के लिए सोचने वाले तो शूद्र होंगे ही|
खैर, अब आते हैं विधवा विवाह के सकारात्मक पहलुओं पर:
1) विधवा विवाह स्वैच्छिक है, बाध्यकारी नहीं: खापलैंड व् मिसललैंड के हर गाम के कुनबों-ठोलों में ऐसी विधवाएं मिलेंगी जिनको विधवा विवाह ऑफर हुआ परन्तु उन्होंने मना कर दिया व् अपने दिवंगत पति की सम्पदा पर आजीवन बसती हैं| माँ हैं तो एकल माँ के तौर पर अपने बच्चों को बड़ा करती हैं व् समाज की हर सुख-सुविधा एक ब्याहता के बराबर ही भोगती हैं| खुद लेखक के ठोले में लेखक की 6 काकी-ताइयां हैं, जिन्होनें विधवा विवाह से मना किया व् एकल माँ का जीवन जीती हैं| हाँ, कहीं 100 में कोई 2-4 केस जोर-जबरदस्ती के हो जाते हैं, जो चाँद में दाग के समान दुनिया के हर पहलु में पाए जाने स्वाभाविक हैं और फंडी लोग सिर्फ इन्हीं 2-4% पे पूरी कहानी पाथ के फैलाने लगते हैं| ऐसा है फंडियों, बाज आ जाओ इन हरकतों से; वरना जिस दिन जाट इन चीजों को ले तुम्हारे पीछे पड़ गए तो हिन्द महासागर डूबें पैंडा छूटैगा थारा|
2) एक ही परिवार या कुल के पुरुष को पिछले पति से बच्चों के उचित पालन-पोषण को ध्यान में रखते हुए चुना जाता है। इन बच्चों की लगातार और स्वस्थ निष्पक्ष परवरिश सुनिश्चित करने के लिए उन्हें एक ही परिवार की देखभाल में रखना सबसे आवश्यक है। - हरियाणवी और बॉलीवुड अभिनेत्री सुमित्रा हुड्डा पेडनेकर जी का यह कथन है
3) महिला के लिए भी, नए परिवार में जाने की तुलना में एक ही परिवार में स्थापित रखना या समायोजन करना हमेशा आसान होता है। इस तरह उसकी बंदोबस्त अवधि, जद्दोजहद और ऊर्जा सब बच जाती है।
4) विधवा को द्विंगत पति की प्रॉपर्टी से तभी अलग किया जाता है अगर वह पीहर में बसने की कह दे अथवा उसका विवाह कहीं और गाम में होवे। वह भी उसकी स्वेच्छा से, बाध्यता इसमें भी नहीं है। मेरे गाम में कई बुआएँ ऐसी हैं जो विधवा हुई या पति को छोड़ के आ गई व् दूसरा ब्याह नहीं किया तो भी मायके में भाईयों के बराबर के हक में रहती हैं।
तो ऐसे चपडगंजु, जाटों व् उनकी मित्र जातियों को महिला सम्मान व् जेंडर सेंसिटविटी ना सिखावें, जो विधवा की परछाई से भी डरते हों, उसके दर्शन मनहूस मानते हों। होंगी हमारे यहाँ भी समस्याएं इससे संबंधित परन्तु तुम जितने गए-गुजरे गंवार-राक्षस तो फिर भी नहीं। हम चुप रहते हैं व् समाजों में ऐसी नुक्ताचिनियां नहीं निकालते तो इसका मतलब यह नहीं कि तुम सभ्याचार व् जेंडर सेन्सिटिवटी के संदेशवाहक बनोगे, वह भी जाटों व् इसकी मित्र जातियों के बीच।
जय यौधेय! - फूल मलिक

Friday, 19 August 2022

ठीक-ठीक लगा यार; क्यों पुरखों के कल्चर का बेखळखाना बनाने पे तुले हो?

अभी दो दिन पहले राखी मना के हटे हो, और आज उन्हीं बच्चों को रासलीला वाली ड्रेसेज पहना के BF-GF बना के मटकियां फुड़वा भी रहे हो? चाहते क्या हो अपने कौम-कल्चर से आप ऐसे लोग?

कृष्ण, ने उसकी बहन सुभद्रा, उसकी बुआ (जाटों में बुआ सगी हो या मुंहबोली, बरतेवा दोनों अवस्थाओं में सगी वाला करते हो या नहीं?) कुंती के लड़के अर्जुन के साथ भगाई थी; क्या चाहते हो कल को आपकी बहन-बेटियां भी आपको अपनी बुआ-बाहणों के लड़कों के साथ भगाणी हैं क्या?
जाटों में ऐसे उल्टे काम जो भी कर दे, जाट समाज उसको या तो समाज से बाहर कर देता है या उसको उसके हालातों पे छोड़ देता है; ऐसे लोगों को जाट सभ्यता आदर्श नहीं बनाती, ना मानती| अगर यह किसी अपने का ही पुरखा भी रहा है तो भी इसको इसके हाल पे छोड़ देने लायक है, सर पे धरने लायक नहीं| यह सिस्टम फंडियों में चलता है कि माँ की हॉनर किलिंग करने वाले को भगवान बना के रखते हों, म्हारे नहीं| म्हारे हॉनर किलिंग करने वाला हो या अपनी बहन को अपनी बुआ के लड़के के साथ भगाने वाला; वह समाज से या तो गिराया जाता है अथवा उसके हालात पे छोड़ दिया जाता है|
ठीक-ठीक लगा यार; क्यों पुरखों के कल्चर का बेखळखाना बना दिया या बनाने पे तुले हो? जाट वाली अणख बिलकुल मर ली क्या, यह फंडी ही रह गए क्या कि यह जो भी उल्टा-सुल्टा बोलेंगे; वही करते जाओगे? क्यों धक्के से शुद्रमती हुए जाते हो!
जय यौधेय! - फूल मलिक

भाभियों को बहन कहना व् देवर-जेठों को भाई साहब कहना; अति-मर्दवादी समाजों का कल्चर है हमारा नहीं!

ऐसे मर्दवादी समाज, जो माँ की हॉनर किलिंग करने वाले को भी भगवान मानते हैं; यह उन समाजों का कल्चर है| हॉनर किलिंग करने वाला जहाँ भगवान हो, वहां औरत कितनी दबा के रखी जाती है, इसी से अंदाजा लगा लो| 


यह लोग बेहद वासनाकृत लोग हैं, इनके यहाँ सगी बेटियों को देख संखलित हो जाने वाले उदाहरण होते हैं; इनके चलते इनकी औरतें बहुत शर्म व् डर महसूस करती यहीं| और उनमें इनके प्रति कुंठा भर जाती है| 


यह कुंठा फूट के कहीं बाहर ना निकल पड़े; इसलिए देवर-जेठ को "भाई साहब" बोल के उस कुंठा को कुछ हद तक शांत रखवाने के चोंचले हैं यह इन अति-मर्दवादी समाजों के| 


जाटों में, देवर-जेठ मतलब देवर-जेठ व् भाई-बहन मतलब भाई-बहन| 


हमारे यहाँ ना तो हॉनर किलिंग करने वाले को भगवान बनाते, ना बेटियों को देख संखलित होने वालों को व् ना ही अपनी बहन को अपनी बुआ के लड़के के साथ भगाने वाले को| कोई ऐसा हो भी जाता है हमारे समाजों में तो उसको या तो समाज से निष्काषित करते हैं या उसके हाल पे छोड़ देते हैं| 


कोई मेल ही नहीं है जी सोच से ले अचार-व्यवहार किसी का भी| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

Tuesday, 16 August 2022

जालौर घटना के लिए जितना जिम्मेदार रूढ़िवादी वर्णवाद है, उतने ही SC/ST व् OBC समाज से आने वाले IPS/IAS ऑफिसर्स व् फ़ौज के कमीशंड अफसर भी जिम्मेदार हैं!

जालौर जैसी घटना के पीछे दोष तो SC/ST व् OBC समाज से आने वाले उन IPS/IAS ऑफिसर्स व् फ़ौज में इन तबकों के उन कमीशंड अफसरों का भी है; जहाँ आम कांस्टेबल/थानेदार/फौजी उस लिफ्ट से नहीं जा सकते जिससे यह अफसर जाते होते हैं, उन मैस या बर्तनों में नहीं खा सकते जिनमें यह अफसर खाते हैं| 


जब इस स्तर पर जा के यह लोग, इन प्रोक्टोकॉलस को डिपार्टमेंट के अंदर सब के लिए बराबर नहीं कर/करवा सकते, तो किस SC/ST या OBC से उम्मीद करते हो इन चीजों को सुधारने की? उससे जो दो जून की रोटी अगले दिन कैसे कमानी है; आज की दिहाड़ी खत्म होते ही इस चिंता में जीवन जीता है? 


दरअसल, SC/ST व् OBC के अफसरों ने ना कभी इन विभागों के इस भेदभाव को खत्म करने को चिंता दिखाई और ना ही मिथक चरित्रों पर फंडियों द्वारा इनकी बना दी जाने वाली पहचान पर? 


ऐसे तो भाई, कितनी सदियां और निकाल लेना; नहीं निकल पाओगे फंडियों के वर्णवाद के चंगुल से| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

जालौर काण्ड हुआ वर्णवाद के चलते, दोष जातिवाद पे; करेक्शन करो यार!

जालौर में दलित बच्चे द्वारा मटके से पानी पीने पर मारने से उसकी मौत का कारण बनने वाला है, एक वर्णवादी; परन्तु दोष जातिवाद पर?


तुम्हारे दिमाग में कोई लोचा है क्या? वर्णवाद को वर्णवाद कहो ना? खामखा, रॉंग चैनल (wrong channel) पकड़े चल रहे दशकों से! वर्णवाद का शोर करो, फिर देखो नतीजा! वह वर्णवाद जो ना कर्म आधारित व्यवहारिक है और ना जन्म आधारित! थोथा सगूफा छोड़ रखा है, ना जाने कब से!

यह जन्म आधार पर सही होता तो ब्राह्मण वर्ण में सब अध्यापक, वाचक ही पैदा होते; दिल्ली -एनसीआर में रिक्शा चलाने वाला हर दूसरा पांडे-मिश्रा ना होता या खेती करने वाले पैदा ना होते इस वर्ण में| ऐसे ही जन्म आधार पर क्षत्रिय वर्ण में क्षत्रिय ही पैदा होते व् वैश्य व् शूद्र वर्णों में वैश्य व् शूद्र ही पैदा होते; यह वर्ण-क्रॉस कर क्षत्रियों में शूद्रमति वाला, शूद्रों में वैश्यमति वाला पैदा ना होता|

और ना ही यह कर्म आधारित व्यवहारिक है; ऐसा होता तो एक प्रोफेसर बने शूद्र को ब्राह्मण का सर्टिफिकेट मिलता व् एक रिक्शा चलाने वाले ब्राह्मण को शूद्र का|

मिलता है क्या ऐसा कुछ, कोई संस्था, कोई सिस्टम जो कर्म-के-आधार पर वर्ण बदलता हो? नहीं है, बल्कि जो जहाँ पैदा हो रखा वह ताउम्र वही लाभ-हानि-दंश झेलते-भोगते हुए जीता है; जीता है या नहीं?

तो है कोई व्यहारिकता इस कांसेप्ट में; खामखा गोबर-ज्ञान में टूटे रहते हो व् इसी को ढोते रहते हो|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Sunday, 7 August 2022

फसल-नस्ल-असल: जिस समुदाय के यह तीनों दुरुस्त हैं, वह संख्याबल में कम हो के भी सबसे पावरफुल है!

1) - फसल: कृषक है तो उसके लिए खेती की उपज उसकी फसल है, व्यापारी है तो उसका व्यापार उसकी फसल है, नौकर है तो उसकी नौकरी| 

2) - नस्ल: आपकी अगली-पिछली पीढ़ियों के जैनेटिक्स| 

3) - असल: आपके समुदाय की दार्शनिक विरासत यानि किनशिप| 


फसल व् नस्ल की दुरुस्ती का भी आधार है असल| अगर आपका असल नहीं है अथवा अस्त-व्यस्त बिखरा हुआ है तो आपकी फसल व् नस्ल को फंडी जीमता है, वह भी डंके की चोट पर| बिना असल का समुदाय ही दरिद्र है|


ऐसे ही उदारवादी जमींदारी समुदाय है उत्तर-पश्चिमी भारत में, जिसका असल हैं उसके खाप-खेड़े-खेत| इतिहास में झाँक के देखो जब-जब यह समुदाय अपने असल पर दुरुस्त रहा है तो समाज की इकॉनमी की धुर्री रहा है| इसलिए इस दार्शनिक विरासत को सबसे ज्यादा तन्मयता से लीड करने वाली जाति को "जी" व् "देवता"; इसकी दार्शनिकता पर ही गिद्द-दृष्टि रखने वालों द्वारा इसीलिए लिखा-कहा-गाया गया; क्योंकि इसी दार्शनिकता के चलते यह समाज के इकनॉमिक (आर्थिंक) पहिये की धुर्री बनते आए| परन्तु यह इस लिखत व् गाने से सुस्त होता चला गया, क्योंकि यह इसके अपनों ने नहीं लिखी थी व् दिग्भर्मित करने वाली बात थी, जिसके चलते यह उदारवादी से अति-उदारवादी होता गया| व् अति किसी भी चीज की बुरी होती ही है, तो इसके नतीजतन आज इनका असल अस्त-व्यस्त हालत में है और जिसकी वजह से यह 35 बनाम 1 झेल रहा है| और झेलता ही रहेगा जब तक अपने असल यानि अपनी दार्शनिक विरासत को अस्त-व्यस्त से व्यस्त नहीं करेगा| 


जय यौधेय! - फूल मलिक  

Wednesday, 3 August 2022

"ओए, तुझे ईगो प्रॉब्लम है क्या"? - आखिर क्या है यह बला?

आगे बढ़ने से पहले एक तो यह जान लें कि इंडिया के जितने भी जानेमाने गुरु-प्रवचन देने वाले हुए हैं या हैं लगभग सभी छुपे रूप से जिनसे मनोविज्ञान का ज्ञान चुराते हैं, आईये सीधा उनमें से एक सिगमंड फ्रायड (Sigmund Freud) के मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत से समझते हैं कि क्या बला है ईगो। सिगमंड फ्रायड के सिद्धांत के अनुसार हर इंसान की तीन तरह की न्यूरोलॉजी यानि मानसिक अवस्था होती हैं, जिनमें ईगो आपको बीच में लटकाने वाली चीज है:


(1) आईडी/ID (इदम) न्यूरोलॉजी: जैसे आपकी बाह्य शक्ल-सूरत की एक सामाजिक आइडेंटिटी व् नाम होता है, ऐसे ही यह आपकी आंतरिक आइडेंटिटी होती है। आपकी आंतरिक आइडेंटिटी इच्छा / वासना / आकांक्षा / लालच / मूढ़ता से बनी होती है। आईडी व्यक्तित्व इंसान व् पशु दोनों में समान पाया जाने वाला एक पाशविक (पशु) हिस्सा है, जो कि ज्यादा यौन-क्रिया करने, जीवित रहने और पनपने मात्र तक की एक अचेत अवस्था है, जो बच्चे को दंभी अथवा दब्बू दोनों में से एक बना देती है। पशु इससे आगे विकसित नहीं हो पाते, परन्तु क्योंकि इंसान को प्रकृति ने इससे आगे विकसित होने का गुर बख्शा है तो वह अपने आपको इससे आगे विकसित कर सकता/ती है। जो ऐसा नहीं करता, वह खुद के शरीर को खुद खाने लगता है। सही समझ, देखभाल व् माहौल नहीं मिल पाने की वजह से शरीर के विकास का खुद ही दुश्मन बन बैठता है। और अगर यह दुश्मनी चिरस्थाई हो जाए तो ऐसा व्यक्ति "कस्तूरी वाले हिरण" की ज्यों कस्तूरी की तलाश में ही मर जाता/जाती है। इनको "भरी थाली को ठोकर मारने वाले भी कहा जाता है"। यह समस्या घर के भीतर-बाहर दोनों जगह से आपके बच्चे में आ सकती है। परिवार के भीतर बचपन में बच्चों को इस ट्रैक पर जानबूझकर भी धकेला जा सकता है व् जवानी या किशोरावस्था में वह खुद भी इसका शिकार हो सकता/सकती है। परन्तु अगर जन्म से 10 साल तक का वक्त बच्चे का सही देखभाल, निगरानी व् जिम्मेदारी से निकलवा दिया जाए तो किशोरावस्था में उसमें यह समस्या आने के आसार नगण्य होते हैं। घर से बाहर फंडी का गपोड़ ज्ञान व्  प्रवचन आपके बच्चे को इसी अवस्था तक रोकने हेतु फंडियों के साइकोलॉजिकल वॉर गेम का हिस्सा होता है, इसलिए अपने बच्चों को इनसे अवश्य बचाएं।  

(2) अहंकार/Ego (अहम) न्यूरोलॉजी: अहंकार वह जगह है जहां चेतन मन रहता है। यह एक यथार्थवादी और सामाजिक रूप से स्वीकार्य तरीके से आईडी/ID की जंगली इच्छाओं को पूरा करने के मुश्किल काम से भरा हुआ है। यह ID व् Super-Ego के मध्य की अवस्था है। यही वह स्टेज है जिसमें आपको लोगों से यह सुनने को मिलता है कि इसमें तो ईगो ही बहुत है। दरअसल यह अवस्था इस वजह से आती है क्योंकि आपने अभी तक अपनी नैतिकता व् विवेक को नहीं पहचाना होता है। हर आदर्श अभिभावक को अपने बच्चों को इस अवस्था से अगली अवस्था तक नहीं ले जाने तक उनकी जिम्मेदारी अधूरी रहती है। 

(3) सुपर अहंकार / Super-Ego (परम-अहम) न्यूरोलॉजी: सुपर-ईगो व्यक्तित्व का नैतिक घटक है और उसे उसके नैतिक मानकों को प्रदान करता है जिसके द्वारा अहंकार यानि Ego को संचालित किया जाना होता है। सुपर-ईगो द्वारा की गई आलोचनाएं, निषेध और अवरोध एक व्यक्ति के विवेक का निर्माण करते हैं, और इसकी सकारात्मक आकांक्षाएं और आदर्श व्यक्ति की आदर्श आत्म-छवि, या "अहंकार आदर्श" का प्रतिनिधित्व करते हैं। मूलरूप से कहा जाए तो आपके नैतिक मूल्य आपकी सुपर-ईगो हैं। इन तक पहुंचा हुआ व्यक्ति ही ईगो व् आईडी को कण्ट्रोल कर सकता है| इसलिए सुनिश्चित कीजिए कि आप या आपके बच्चे सुपर-ईगो तक विकसित किए गए हों|


और इन्हीं को हमारे महारथियों ने इनसे कॉपी मार तामसिक, राजसिक, सात्विक की व्याख्याएं घड़ रखी हैं; बिना इनको क्रेडिट दिए| यही काम है इन फंडियों का|


जय यौधेय! - फूल मलिक




Thursday, 28 July 2022

23 ₹ किलो की लागत आती है देसी घी बनाने में!

सावधान: चमड़े से बनता है, व् मंदिरों के भंडारों में यही प्रयोग होता है! वह कैसे विस्तार से नीचे पढ़ें!


चमड़ा सिटी के नाम से मशहूर कानपुर में जाजमऊ से गंगा जी के किनारे किनारे 10 -12 किलोमीटर के दायरे में आप घूमने जाओ
तो आपको नाक बंद करनी पड़ेगी,
यहाँ सैंकड़ों की तादात में गंगा किनारे भट्टियां धधक रही होती हैं,
इन भट्टियों में जानवरों को काटने के बाद निकली चर्बी को गलाया जाता है,
इस चर्बी से मुख्यतः 3 चीजे बनती हैं।
1- एनामिल पेंट (जिसे हम अपने घरों की दीवारों पर लगाते हैं)
2- ग्लू (फेविकोल इत्यादि, जिन्हें हम कागज, लकड़ी जोड़ने के काम में लेते हैं)
3- और तीसरी जो सबसे महत्वपूर्ण चीज बनती है वो है "शुध्द देशी घी"
जी हाँ " शुध्द देशी घी"
यही देशी घी यहाँ थोक मंडियों में 120 से 150 रूपए किलो तक भरपूर बिकता है,
इसे बोलचाल की भाषा में "पूजा वाला घी" बोला जाता है,
इसका सबसे ज़्यादा प्रयोग भंडारे कराने वाले करते हैं। लोग 15 किलो वाला टीन खरीद कर मंदिरों में दान करके पूण्य कमा रहे हैं।
इस "शुध्द देशी घी" को आप बिलकुल नही पहचान सकते
बढ़िया रवे दार दिखने वाला ये ज़हर सुगंध में भी एसेंस की मदद से बेजोड़ होता है,
औधोगिक क्षेत्र में कोने कोने में फैली वनस्पति घी बनाने वाली फैक्टरियां भी इस ज़हर को बहुतायत में खरीदती हैं, गांव देहात में लोग इसी वनस्पति घी से बने लड्डू विवाह शादियों में मजे से खाते हैं। शादियों पार्टियों में इसी से सब्जी का तड़का लगता है। जो लोग जाने अनजाने खुद को शाकाहारी समझते हैं। जीवन भर मांस अंडा छूते भी नहीं। क्या जाने वो जिस शादी में चटपटी सब्जी का लुत्फ उठा रहे हैं उसमें आपके किसी पड़ोसी पशुपालक के कटड़े / बछड़े की ही चर्बी वाया कानपुर आपकी सब्जी तक आ पहुंची हो। शाकाहारी व व्रत करने वाले जीवन में कितना बच पाते होंगे अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
अब आप स्वयं सोच लो आप जो वनस्पति घी आदि खाते हो उसमे क्या मिलता होगा।
कोई बड़ी बात नही कि देशी घी बेंचने का दावा करने वाली कम्पनियाँ भी इसे प्रयोग करके अपनी जेब भर रही हैं।
इसलिए ये बहस बेमानी है कि कौन घी को कितने में बेच रहा है,
अगर शुध्द घी ही खाना है तो अपने घर में भैंस / गाय पाल कर ही आप शुध्द खा सकते हो, या किसी गाय भैंस वाले के घर का घी लेकर खाएँ, यही बेहतर होगा ||
आगे जैसे आपकी इच्छा.....

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Wednesday, 27 July 2022

वास्तव में धर्म क्या है?

लेख का निचोड़: आपकी दुर्गति धर्म ने नहीं की है, अपितु धर्म की गलत चॉइस ने की हुई है; आपका DNA किसी और दार्शनिकता का है व आप ढो उसके विपरीत को रहे हैं| 

 

धर्म वह उच्च स्तरीय राजनीति है जिसको मनी पॉलिटिक्स कण्ट्रोल करती है व् जो सत्तात्मक राजनीति व् सामाजिक राजनीति को कण्ट्रोल करता है; वह धर्म है| यानि दुनिया में 4 प्रकार की राजनीति हैं:

1 - आर्थिक राजनीति (इसको आर्थिक संसाधन कब्जाने की राजनीति कहते हैं)

2 - धार्मिक राजनीति (इसको मानसिक संसाधन कब्जाने की राजनीति कहते हैं)

3 - सत्तात्मक राजनीति (इसको किसी देश-राज्य का सिस्टम कब्जाने की राजनीति कहते हैं)

4 - सामाजिक राजनीति (यानि सोशल इंजीनियरिंग, इसको समाज में प्रभाव कायम रखना कहते हैं)


इन चारों में धर्म 1 के नीचे है व् 2 के ऊपर| 


दरअसल वास्तविक धर्म क्या है?: कम्युनिटी मैनेजमेंट की वह प्रणाली जो अपने व्यक्ति को मन की शांति, सम्मानजनक अस्तित्व का आत्म-साक्षात्कार, सामाजिक सुरक्षा-न्याय-समानता और सामाजिक आर्थिक स्वतंत्रता की भावना प्रदान करती है। इसके विपरीत जो है वह सब फंडी-प्रणाली है| 


धर्म का नाम दे कर फंडी कैसे फलता-फूलता है?: व्यक्ति में 2 दिमाग होते हैं, एक छोटा व् एक बड़ा| छोटा दिमाग हमेशा अर्ध-सुसुप्त अवस्था में होता है, जिसमें हमारे जीवन के अनसुलझे, अतृप्त खट्टे-मीठे, डरावने-दुखद-सुखद, पहलु पड़े रहते हैं| इन पहलुओं में वह पहलु भी होते हैं जो आपकी जिंदगी के फॉर्मेट के हिसाब से जीवन की प्राथमिकताओं के चलते सुलझाए या खुद को समझाये नहीं गए होते, जिसमें लालसाएं-महत्वाकांक्षाएं-पीड़ाएं भी होती हैं| अधिक स्याणे लोग या कहो फंडी लोग इन अनसुलझे पहलुओं को पकड़ते हैं व् आपको इन सबके सोलूशन्स देने के दावे करके धर्म के नाम पर नचाते हैं व् आर्थिक-मानसिक रूप से लूटते व् गुलाम बनाते हैं| जबकि असली धर्म का काम निस्वार्थ हो इनके हल देने का होता है| जो ऐसा नहीं करता, वह फंड है पाखंड है धर्म नहीं| इसलिए फंड व् फंडी दोनों से बचो व् अपने लोगों को बचाओ| 


तो पहले तो जरूरी है कि अपनों से सरजोड़ो व् अपने मूल-स्वभाव को समझो व् उसकी मूलता के अनुरूप पुरखों ने जो सिद्धांत स्थापित किये जिसको कि "दार्शनिक विरासत यानि KINSHIP" बोलते हैं उसको जानो; तब समझ आएगा कि आपका असली धर्म क्या है व् किनशिप की अनुपस्तिथि में आप धर्म के नाम पर क्या बवाल ढो रहे हो| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

Monday, 25 July 2022

जब पेरिस में साउथ-इंडियंस, हरयाणवी गाणों पे झूम के नचा दिए थे:!

मेरी आपबीती है:


वीकेंड पार्टी थी, 24 जणे हम इकट्ठे हो रखे थे (17 लड़के 7 लड़कियां) व्, हरयाणा-यूपी के हम 3 ही थे, एक मैं निडाना का जाट, एक फतेहाबाद का अरोड़ा/खत्री व् एक बिजनौर का शर्मा; बाकी सब गुजराती-मराठी या साउथ इंडियन| खाना-पीना, नाच-गीत-संगीत सब था| राउंड चल रहा था कि अपनी-अपनी स्टेट के लोक-कल्चर के गानों के सिर्फ मुखड़े यूट्यूब पे लगाएंगे व् बाकी सब उनपे डांस करेंगे| हरयाणा का नंबर आया तो फतेहाबाद वाले ने एक थर्ड-ग्रेड हरयाणवी रागणी, जिसमें गायक ने शराब पी रखी व् गाते-गाते नीचे गिर रहा, वह लगा दी व् तंज सा कसता हुआ बोला कि यही है जी हरयाणा में तो लोकगीतों व् कल्चर के नाम पे| यूपी वाला शर्मा भी सुर-में-सुर मिला बैठा| 


मुझे बहुत महसूस हुई, मखा यह कैसे लोग, जो हरयाणवी को अपनी बता भी रहे व् उसका बेस्ट दिखाने की बजाए, सबसे घटिया दिखा रहे| मैं मेरा जूस का गिलास ऊठा के बालकनी में आ गया| पीछे-पीछे वह अरोड़ा व् शर्मा भी आ गए| और मेरे को लगे उपदेश देने कि जब तुम्हारे यहाँ है ही यह सब तो हम क्या करें? मैंने कहा, "हरयाणवी ही गानों पे अगर यह पूरी पार्टी नचा दी तो क्या इस बालकनी से कूद के मरोगे?" बोले, भूल जाओ तुम घोड़ुओं की चीजों को कोई पसंद करेगा व् वो भी यह कॉर्पोरेट व् यूनिवर्सिटियों में काम करने वाली क्लास तो कतई भी नहीं| मखा, मैं तो उम्मीद करूँ था कि तुम अपनी हरकत पे शर्मिंदा होवोगे परन्तु अब तुम इस बालकनी से कूदने की तैयारी कर लो, क्योंकि ईब हरयाणवी गाणों पे गुजरातन-मराठण व् साउथ इंडियन नाचेंगी और तुम खड़े देखोगे| 


बस यह कह के मैं गया भीतर और यूट्यूब पे गाने चलाने की यह कहते हुए कमांड ली कि अभी आपने हरयाणवी का वर्स्ट देखा, अब बेस्ट दिखाता हूँ| उन दोनों का खून फूंकने को पहला ही गाणा, "मैं सूरज तू चंद्रावल, म्हारा जोड़ा ठाठ का" का मुखड़ा बजा के; "जीज्जा तू काला, मैं गोरी घणी" लगा दिया| दो जणियों ने कही की यह होता है म्यूजिक| और फिर तो सारे चंद्रावल के, लाडोबसंती, पनघट, पाणी आळी से ले गिटपिट और उस वक्त की फेमस एलबम्स से लगभग 20 गाणे एक-के बाद एक बजा छोड़े| उस ग्रुप को यह पता था कि यह अगर अड़ के बैठ गया तो इसको जिद्द पे लगा देने वालों के "मानसिक उत्पीड़न" करके छोड़ता है ये; इसलिए बाकी सब को जहाँ अपनी स्टेट के एक बार में अधिकतम 5 गानों के मुखड़ों पे नचवाना था, मैंने लगातार 20 पे नचवा दिए| 


वो दोनों कभी कोने झांके, कभी टुकर-टुकर देखें| 


बिजनौर वाला तो ऐसा डरा उस दिन के बाद, एक दिन कोर्ट में वीजा के काम से मिल गया; मेरे से 5 नंबर आगे खड़ा था| देखते ही जैसे सहम सा गया हो; फॉर्मल सी हाय-हेलो हुई| मेरा ध्यान 2 मिनट काउंटर वाली से अपने पेपर्स चेक करवाने में ही लगा था कि मुड़ के देखा तो वह गायब था| यानि जा चुका था वहां से| मखा, ले भाई आज सेधेगा; एक तो वीजा की मुश्किल से अपॉइंटमेंट्स मिलती हैं और आज वाली इसकी मेरी वजह से खाली गई; बेरा ना के श्राप दे के मुझे मारता हुआ गया होगा| 


मैंने भी करी, "मखा न्यू जाट मरैगा तो जाट नैं जिवा भी देगा कौन"| यह निडरता मेरे दादाओं की उस सीख से आती है मेरे में जो वो कूट-कूट के भर गए मेरे में कि, "पोता, जिस जाट के आगे कोई वर्णवादी फंडी ज्ञान झाड़ जा, उस जाट नैं मरे बराबर मान लिए"| 


इसलिए खेत में खड़े हो, या कॉर्पोरेट में; अपने पुरखों की अणख निभा के रखो| वरना यह ऐसे परजीवी हैं इनको पोहंचा दोगे, सीधे सर पे मूतते पावैंगे| पुरखों की अणख निभाने को, अपमान झेलना हो तो झेलो, कोई छोटा दिखावै तो दिखाने दो; पर कभी उसकी उड्डंदता को स्वीकार मत करो| पुरखों की अणख तुम्हें अपने आप साहम देगी, इतना विश्वास हमेशा रखना उनमें| 


उद्घोषणा: इस पोस्ट में जिस किसी को जातिवाद दीखता हो, दीखता रहे; जो किसी कल्चर का सम्मान नहीं जानता, वो मेरा क्या ही सम्मान करेगा; उसको उसी रूप में सबके सामने नहीं रखेंगे तो लोग बुद्धू व् दब्बू समझने लगते हैं तुम्हें| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 


 

Sunday, 24 July 2022

कह रहे हैं कि MSP नहीं देंगे, और किसान को Carbon Credit व् टोल व् रोड टैक्स कलेक्शन में हर गाम का जो हिस्सा बनता है वो भी नहीं दे रहे!

किसानों व् गामों के बाळक इस पोस्ट को जरूर पढ़ें!

1) UNO से इंडिया को किसानों के नाम पर सालाना 1.5 लाख करोड़ रुपया Carbon Credit के नाम का मिलता है; और इस पूरे को सरकार ढकारती है या अपने अजीजों को जिमवाती है|
2) आपके गाम की जमीन पर से गुजरने वाले तमाम रोड़ों (स्टेट या नेशनल हाईवे) पर जो भी रोड टैक्स या टोल टैक्स कलेक्शन होता है, उसमें हर एक गाम का एक निर्धारित परसेंटेज टैक्स का हिस्सा उस गाम की हाईवे में जमीन की लम्बाई के अनुपात में सरकार को उस गाम की पंचायत को देना होता है| परन्तु नहीं दे रहे|
आईये पहले जानते हैं कि Carbon Credit क्या है: किसानी-खेती द्वारा जो हरयाली बनती है उससे सिर्फ फसल उत्पादन ही नहीं अपितु वातावरण में ऑक्सीजन जोड़ने का भी योगदान होता है जिससे कार्बोनडाइऑक्सइड कम होती है; इस प्रक्रिया को कार्बन क्रेडिट कहते हैं, यानि आपकी प्रोडक्शन ने वायु से कार्बन घटाने में कितना योगदान दिया, वह आपका कार्बन क्रेडिट होता है|
इस कार्बन क्रेडिट के लिए इंडिया को UNO की इससे संबंधित यूनिट से सालाना 1.5 लाख करोड़ रुपया मिलता है| और यह सारा का सारा रुपया सरकारें खुद जीमती हैं या अपने चहेतों को जिमाती हैं; किसानों को इससे एक दवन्नी भी नहीं दी जाती|
अत: किसान यूनियनों, खापों व् तमाम अन्य संगठनों को चाहिए कि इन दोनों बिंदुओं पर भी आवाज उठानी शुरू करें| ताकि सरकार को और भड़क हो व् उसको समझ आए कि MSP दे दो| सालाना डेड करोड़ कार्बन क्रेडिट का किसान को मिल जाए तो उल्टा सरकारें कर्जदार होंगी किसान की|
और हर ग्राम पंचायत से अनुरोध है, अभी की हैं या अभी जो नई चुनी जाने वाली हैं कि वह इन हाइवेज के टोल व् रोड़ टैक्स कलेक्शंस के क्लॉजो का अध्ययन करें अच्छे से व् टोल कंपनियों व् सरकारों को कानूनी हक से कहें कि हमारे गाम का टैक्स का हिस्सा हमें दिया जाए, ताकि गाम के विकास कार्यों में प्रयोग किया जा सके|
जय यौधेय! - फूल मलिक
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हरयाणा से अबकी बार लगभग 50% कम कावड़ लेने गए हैं लोग!

शामली-बुढ़ाना-कैराला-कांधला रूटों पर मौजूद हमारे सूत्रों (दुकानदार व् कावड़ यात्रा सुरक्षा कर्मचारी) की रिपोर्ट के आधार पर यह बात निकल कर आई है कि अबकी बार हरयाणा से 50% से भी कम भीड़ आई है| 

साथ ही मुजफ्ररनगर-मेरठ-बागपत-बड़ौत के स्थानीय जाट लगभग नगण्य ही कावड़ लेने गए हैं| 

इसकी दो वजहें बताई जा रही हैं: एक तो किसान आंदोलन की पीड़ा, टीस व् इनकी किसान के प्रति तथाकथित अपनेपन के थोथेपन बारे किसान बालकों में आई  जागरूकता व् दूसरा ढोंग-पाखंड के खिलाफ चल रहे विभिन्न मिशनों-पंचायतों-संगठनों की जागरूकता का असर| 

एक नया बदलाव जो इस साल देखने को मिला है वह यह कि एक तो "जय भीम" व् नीले झंडों की कावड़ ज्यादा आ रही हैं| और दूसरी बात सबसे ज्यादा भीड़ ग़ाज़ियाबाद व् मेरठ के मध्य रुट पर रहने वाले व् दिल्ली में रहने वाली लेबर क्लास ज्यादा ला रही है जो कि अधिकत बिहारी या बंगाली दिख रहे हैं| 

जय यौधेय! - फूल मलिक