Wednesday, 26 October 2022

हे जी कोए यौधेय सुणे भ्यर-भाण!

शीर्षक: " हे जी कोए यौधेय सुणे भ्यर-भाण"

 

खेड़्यां के जाएभूमियां के साएहे भईयाँ की यें पिछाण,

हे जी कोए यौधेय सुणे भ्यर-भाण!

 

भूरा-निंघाहिया जोड़ सर चाल्लेजा चढ़ें परस लजवाण!

हे जी कोए चौधरी सुणे भ्यर-भाण!

 

हाकम तोड़ेगौरे फोड़ेभोळी नैं काटे सत्रहा रंगरूटाण!

हे जी कोए यौधेया सुणी भ्यर-भाण!

 

खेती-करां की राड़ छयड़ीजय्ब थे औरंगजेब के राज!

हे जी कोए यौधेय सुणे भ्यर-भाण!

 

ताऊ माडू नैं ले गॉड गोकुला चढ़े, भंवरकौर खपा गई ज्यान!

हे जी कोए यौधेया सुणी भ्यर-भाण!

 

21 मौजिज गए सुलझेड़े नैंलिए रोक काळ की आण!

हे जी कोए चौधरी सुणे भ्यर-भाण!

 

तैमूर आयाचढ़या हड़खायादोआब के जंगळ काहन!

हे जी कोए यौधेय सुणे भ्यर-भाण!

 

हरवीर गुळीया नैं लिया धर खुळीयांलंगड़े का पाट्या पसाण!

हे जी कोए चौधरी सुणे भ्यर-भाण!

 

चुगताई आवैंजींद तळै टकरावैंभागो देवै पासणे पाड़!

हे जी कोए यौधेया सुणी भ्यर-भाण!

 

शाहमल बाबादिल्ली तैं दोआबागौरयां की भिचगी ज्यान!

हे जी कोए यौधेय सुणे भ्यर-भाण!

 

जाटवान दादा नैं कुतबु साध्यादई आधी सेना पसार!

हे जी कोए चौधरी सुणे भ्यर-भाण!

 

रायसाल खोखर नैं गौरी सा होंतरदिया मार म्हाल अफगान!

हे जी कोए यौधेय सुणे भ्यर-भाण!

 

खेड़्यां के जाएभूमियां के साएहे भईयाँ की यें पिछाण,

हे जी कोए चौधरी सुणे भ्यर-भाण!

 

फुल्ले जाट करै पुरख यादबीच बैठक उज़मा उज्यात!

हे जी कोए यौधेय सुणे भ्यर-भाण!

 

जय यौधेय!

Sunday, 23 October 2022

Happy Kolhu-Dhok, Happy Girdi-Dhok, Happy Diwali!

जैसे एक खाती-बड़ई-लुहार अपने औजारों की धोक हेतु "विश्वकर्मा" दिवस मनाता है| एक कुम्हार के चाक को तो सिर्फ कुम्हार ही नहीं बल्कि अन्य समाजों की लुगाई भी धोकने जाती हैं; व् इन सब में इनको गर्व ही महसूस होता है कोई शर्म या ऊंचा-नीचा स्टेटस नहीं! व् इस प्रक्रिया से आध्यात्मिक व् कारोबारी भावनाएं बराबर फलीभूत होती हैं; ऐसे ही मैं भी आज मेरे पुरखों द्वारा "आध्यात्मिक व् कारोबारी भावनाओं" दोनों को कायम रखने वाला त्यौहार यानि "कोल्हू-धोक" दिन मना रहा हूँ, बीते हुए कल "गिरड़ी-धोक" मनाया था! पुरखों का संदेश साफ़ था सीधा लक्ष्मी की बजाए, लक्ष्मी जिससे अर्जित होती हो उस साधन को धोकीए! अत: कोल्हू व् गिरड़ी दोनों को प्रणाम जिनकी वजह से जिस कौम व् किनशिप से मैं आता हूँ उसका आध्यात्म, कल्चर व् अर्थ तीनों आते व् बनते रहे हैं! यही म्हारा कॉपीराइट कल्चर रहा है! हाँ, साथ-साथ शेयर्ड-कल्चर दिवाली की भी सबको शुभकामनाएं!
Happy Kolhu-Dhok, Happy Girdi-Dhok, Happy Diwali!
जय यौधेय! - फूल मलिक






Saturday, 22 October 2022

कंधे से ऊपर की मजबूती के ताने ना सुन्ना चाहो तो लक्ष्मी के साथ-साथ अपनी "गिरड़ी-धोक" (आज का दिन) व् "कोल्हू-धोक" (तड़के का दिन) इनके भी दिए जलाओ!

धर्म और त्योहारों की अपनी पुरख-परिभाषाएं व् आइकॉन जिन्दा रखिए; अगर चाहते हैं कि इसकी आड़ में आपका सामाजिक स्थान व् एथनिसिटी जिन्दा रहे! अगर चाहते हो कि कोई उघाड़ा-उठाईगिरा आप पर "कंधे से नीचे मजबूत व् ऊपर कमजोर" के ताने ना मार जाए!

आज "गिरड़ी-धोक" व् तड़के (कल यानि) "कोल्हू-धोक" के त्योहारों के मौके पर "आज गिरड़ी, तकड़ै दिवाळी; हिड़ो-रै-हिड़ो" की कहावत पर विशेष!
हर बात हर बार सिर्फ इससे भी नहीं चल सकती कि भाईचारा व् अपनापन दिखाने के चक्कर में अपने कॉपीराइट कल्चर आधारित त्योहारों को या तो साइड कर दो या उन पर कोई और लेप इस हद तक चढ़ाते जाओ कि 2-4 पीढ़ियों बाद वह त्यौहार ही ना रहे| इस बात पर चलने की आवश्यकता इसलिए भी है कि दुनिया में हर धर्म व् त्यौहार आपकी आर्थिक आज़ादी व् कल्चरल बुद्धिमत्ता से भी जुड़ा है| और जो यह नहीं करते उनको उघाड़े व् उठाईगिरे किस्म के लोग भी "कंधे से नीचे मजबूत व् ऊपर कमजोर" के ताने दे जाया करते हैं|
यह बात संतुलन में रखते हुए चलना भी इतना आसान नहीं होता, खासकर तब जब आपके इर्दगिर्द आपको "शेयर्ड-कल्चर" वालों की भावनाओं को भी ध्यान में रख के चलना होता है, वरना आप पर बाल ठाकरे टाइप का होने के इल्जाम भी लग सकते हैं| तो शेयर्ड-कल्चर के धर्म-त्यौहार व् इनके पहलुओं की गरिमा को कायम रखते हुए हम बात करेंगे:
खापलैंड के आज के दिन "गिरड़ी-धोक" व् कल यानि तड़के के दिन "कोल्हू-धोक" त्यौहारों की; और यह भला क्यों? क्योंकि क्या किसी भी पेशे-पिछोके के मिस्त्रियों ने अपने औजार धोकने बंद कर दिए? या मात्र व्यापारियों (मात्र इसलिए क्योंकि व्यापारी किसान भी होता है) ने धर्म के नाम पर बाज़ार सजाने बंद कर दिए? जवाब यही पाओगे कि नहीं?
हमारा बचपन कात्यक की काळी चौदस व् मौस के दिनों यह कहावत "आज गिरड़ी, तकड़ै दिवाळी; हिड़ो-रै-हिड़ो" गाते हुए बीता है| फंडियों के स्कूल से पहली से दसवीं की है मैंने (बड़ा हो के पता चला, तब पता चल जाता तो झांकता भी नहीं ऐसे मेरे त्यौहार व् कल्चर की हत्या करने वाले स्कूलों में); तो वहां गिरड़ी के दिन छोटी दिवाळी बोला व् बुलवाया जाता था! आज किधर है वह "गिरड़ी" शब्द? क्या आज की पीढ़ी को इस शब्द के त्यौहार बारे पता भी है? जो इन पहलुओं पर नहीं सोचते वही कंधे से ऊपर कमजोर होने के ताने सुनते हैं|
जैसे इन 2-3 दशकों में 'गिरड़ी' शब्द व् त्यौहार थारी जुबान से हटा दिया गया, ऐसे ही इससे पहले के दो-तीन दशकों में "कोल्हू-धोक" हटाई गई होगी; नहीं? और तुम्हें पता लगी? कब समझोगे यह खेल? दिवाली मनानी है बिल्कुल मनाओ (मैं भी मनाता हूँ शेयर्ड-कल्चर के त्यौहार के तौर पर) परन्तु अपने कॉपीराइट त्यौहारों का भी ख्याल रखो! एक दिया लक्ष्मी का लगाने लगे हो तो उसके लिए वह दिया बुझाने की क्या जरूरत है जो "कोल्हू" के नाम का लगता था? क्या बदला है उस कोल्हू के कांसेप्ट का; उसकी जगह शुगरमिल आ गई ना; तो उसके नाम का लगा लो? हमारे पुरखे यह दिए उन चीजों के नाम के लगाते थे जहाँ से उनको अर्थ अर्जन होता था; तुम कर रहे हो ऐसा? जहाँ कोल्हू है वहां उसका लगाओ व् जहाँ वह नहीं है वहां शुगरमिल का लगा लो, सरसों के तेल निकालने की मशीन का लगा लो; क्योंकि कोल्हू तो तेल निकालने वाले यंत्र को भी कहा जाता था?
सबसे बड़ी बात, "गिरड़ी-धोक" व् "कोल्हू-धोक" मनाने में सम्मान था; होड़ नहीं! तुम्हें मार्किट व् फंडी वर्ग ने धोक मारनी छोड़ धर्म के नाम पर होड़ व् मरोड़ करनी सीखा दिया है| और वह तुमसे यह करवा जाते हैं, इसलिए तुम्हें कंधे से ऊपर कमजोर कह जाते हैं|
कंधे से ऊपर की मजबूती चाहो तो दिवाळी के साथ-साथ अपनी "गिरड़ी-धोक" (आज का दिन) व् "कोल्हू-धोक" (तड़के का दिन) इनके भी दिए जलाओ! यूँ ही निरंतरता से जलाते जाओ व् पीढ़ियों से जलवाते जाओ जैसे म्हारे पुरखे जलाते थे| वह ऐसा करते थे इसलिए ब्राह्मणों से जाट जी व् जाट देवता कहलवाते व् लिखवा लेते थे (सत्यार्थ प्रकाश सम्मुल्लास 11 तो पढ़े होंगे?); तुम क्या पा रहे हो 35 बनाम 1 के षड्यंत्र?
जय यौधेय! - फूल मलिक

Monday, 17 October 2022

Uncertainties living in your unconscious and/or semi-conscious mind is the field of religion!

Religion has no outside/aerial existence/source rather "a psychological ambit made by specifc people of the society over your unconscious mind is fascinated as religion". If it is made up for human welfare with equal eyes on its followers then nothing is better than it. But if it is made-up to brainwash its followers, then nothing is worse and disastrous than it. And Fandi (propagandists) go with its both aspects humanity for self-group while brainwashing on its followers. Thus one’s society must have a dedicated psychological and philosophical wing to outlaw the possibilities of fandi propaganda on it. - Phool Kumar

Sunday, 9 October 2022

हरयाणवी गाम 'बर्राह' व् 'खरक' के हरयाणवी भाषा में अर्थ!

बर्राह गाम, जिला जिंद (जींद): मेरा गुहांड है जिसका नाम है "बर्राह", छोटी-बड्डी दो बर्राह हैं, जो कि हरयाणवी शब्द "बर्रा" से बना है, जिसका हरयाणवी में अर्थ होता है "गाम की बसासत के चारों ओर मिटटी से बनी वह किलानुमी ऊंची पाळ, जिस पर से वाहन तक चलने का रास्ता होता है"| इस पर से वाहन चल सकें जितना चौड़ा रास्ता इसलिए बनाया जाता है ताकि बर्रे की थोथ साथ-साथ दबती रहें व् जहाँ से कोई थोथ उभरे तो उनको साथ-की-साथ मरम्मत कर दी जाए व् अकस्मात आई बाढ़ के वक्त भी बर्रा मजबूत का मबजूत रहे| इसे भारी-से-भारी बाढ़ में भी बसासत को बाढ़ से मुक्त बनाये रखने का हमारे पुरखों का बंदोबस्त कहते हैं, इंजिनीरिंग कहते हैं| यह बर्रा खापलैंड के लगभग हर गाम के चारों ओर मिलता है|

खरक नाम के गाम, जो कि खापलैंड के लगभग हर जिले में मिलते हैं: खरक हरयाणवी भाषा के दो शब्दों से निकला हुआ है, एक है "खुराक" व् दूसरा है "खुरक"; यह नाम खुरक के ज्यादा नजदीक लगता है| खुरक का मतलब होता है "मरोड़" या कहिये "मसताई" यानि मस्ताना या सही दूसरा हरयाणवी पर्यायवाची शब्द इसका कहूं तो "हंगाई"| अक्सर ज्यादा मस्ती करने वाले बालक को हरयाणवी में कहते देते हैं कि, "रै के खुरक सै तेरै"|
अपनी हरयाणवी भाषा के इन शब्दों को सहेज के अगली पीढ़ी को पास करें, वरना नाम बदलने वाले ताक में बैठे हैं व् आपने यह जानकारियां पास नहीं की तो कौन क्या नाम बदल जाएगा या क्या कांसेप्ट जोड़ जाएगा आपके गाम के नाम के साथ आपको समझ नहीं आनी|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Thursday, 6 October 2022

उज़मा बैठक "सांझी की सांझ अंतर्राष्ट्रीय मेळा अर मुक़ाबला 2022 - नतीजे अर न्याम!

थम सबनैं जय दादा नगर खेड़े/भैये/भूमिए की!


26 सितंबर तैं लाग 5 अक्टूबर ताहिं मुकाबले म्ह कुल-जमा 94 टीमा नैं हइस्सा लिया, जिनके कुल-जमा सदस्य बणे 687 ! 86 टीम क्वालीफाई करी, इणमें तैं 42 ईनामी कम्पटीशन लड़ी, जिनके नतीजे न्यू रहे:
रपिये 5100 का पहला न्याम जीत्या: बुनियाद शिक्षा निकेतन रोहतग ने
रपिये 3100 का दूजा न्याम दोयां का टाई रह्या: सुदेश नैन टीम, गुहाणा, सुनपत अर सन्नी बेलरखां टीम, जिंद
रपिये 2100 का तीज्जा न्याम दोयां का टाई रह्या: पूनम गिल नेहरा, टोरंटो कनाडा अर सुषमा बेलरखां टीम, जिंद
रपिये 1100 के 3 तैं ले 10 लंबर लग 8 न्याम जीते:
लंबर 4: कमलेश सिवाच, स्याम्मण रोहतग
लंबर 5: सुखविंद्र कौर, रोहतग शहर
लंबर 6: सरोज भाल्ली, रोहतग
लंबर 7: पिंकी समचाणा, रोहतग
लंबर 8: निम्मी ढिल्लों, लंदन इंग्लैंड
लंबर 9: अनीता चौधरी, मेरठ
लंबर 10 पै दोयां का टाई रह्या: टाइम्स इंटरनेशनल स्कूल रोहतग अर HPS स्कूल पोंकरी खेड़ी, जिंद

बाकी जो बचगी 86 क्वालिफाइड टीमा म्ह उन हरेक नैं रपिये 500 सादर दिए जांगे!
इस की गेल सारी टीमा के प्रिंटेड सर्टिफिकेट दिए जांगे, कुल 687 हइस्सा लेणीयां म्ह 452 (ऊपर-नीचे हो सकै सै) 25 साल तैं कम उम्र के सारे बाळक-टाबरां नैं खस्माने सर्टिफिकेट दिए जांगे!
टीमां के अलावा डेली की एंकर्स म्ह पहली बै एंकरिंग ताहिं उज़मा ट्रॉफी अर एंकरिंग का सर्टिफिकेट दिया जागा, जिन्नें पहल्यां ट्रॉफी मिल ली उन ताहिं सर्टिफिकेट दिए जांगे!
मेन-डे पै जिन मानजोग एंकर अर जूरी नैं प्रोग्राम चलाया उन सबमें पहली बर आयां नैं उज़मा की बड्डी ट्रॉफी अर सर्टिफिकेट; जिन्नें ट्रॉफी पहल्यां मिल ली उन्नें श्याल कै लोई अर सर्टिफिकेट!

अर और एक सबतैं ख़ास न्यामी घोषणा: इस साल के उज़मा बैठक विशिष्ट सम्मानां बारै:
1 - इस बर का "चौधरी कबूल सिंह बाल्याण हरयाणवी इतिहास, साहित्य एवं शोध सम्मान" गया सै डॉ. रामफळ चहल जी ताहीं
2 - इस बर का "दादा मेहर सिंह फौजी हरयाणवी थिएटर एवं फिल्म सम्मान" गया सै डॉ. अनूप लाठर जी ताहीं
3 - इस बर का "महाराजा हर्षवर्धन बैंस सर्वखाप सम्मान" गया सै म्हारे तीन खाप-चौधरियां ताहीं:
अ - दादा चौ. सूरजमल सिंह पंवार जी, प्रधान बत्तीसा खाप, शामली - उत्तर प्रदेश
ब - दादा चौ. सुरेंद्र सिंह तोमर जी, प्रधान देश खाप, बाग़पत - उत्तर प्रदेश
स - दादा चौ. ओमप्रकाश धनखड़ जी, प्रधान धनखड़ खाप, झज्जर - हरयाणा
4 - इस बर का " महाराणी किशोरी किनशिप सम्मान" गया सै दादीराणी कुलवंती राठी जी ताहीं
इन सब सम्मानजोग दादी-दादियां-हस्तियां ताहीं दी जागी इनके सम्मान लयखी बड्डी ट्रॉफी अर सर्टिफिकेट!

नोट करियो: सबके मान सम्मान कै तो रोहतग बला कैं दिए जांगे कै कूरियर तैं खंदाये जांगे! जो म्हारे खाप चौधरी अर विशिष्ट सम्मान सैं यें कै तो उनके घरां जा कैं दिए जांगे कै उन्नें ख़ास आमंत्रण व् सत्कार करकें दिए जांगे!

जय प्रकृति, परमात्मा अर पुरख यौधेय!

इस नोट के जारीकर्ता: इस सांझी कम्पटीशन की इवेंट लीडर्स अर एडमिन टीम!

Monday, 26 September 2022

जब आडवाणी को धकेल मोदी पीएम फेस बन गए थे तब से ही जैनी/बनिया बनाम ब्राह्मण लड़ाई शुरू हो गई थी!

जिसका अंत मोदी से कदम-दर-कदम मात खाता संघ, मोहन भागवत के रूप में मस्जिद में सजदा करने तक पर आन डटा है, जो कि संघ के 97 साल के हो चले इतिहास में कभी नहीं हुआ!

संघ में छुपे रूप से जैनी रहते हैं, यह सबको विदित है! जैनी, ब्राह्मणों से कहीं बेहतर रणनीतिकार व् दूरदर्शी हैं!
भारत के भीतर की बात की जाए तो संघ में मोदी, जैन एजेंट रहे हैं व् अटल के बाद आडवाणी ब्राह्मण लॉबी के राजनैतिक चेहरे!
पीएम बनते ही आडवणी/जोशी को साइड करना, ब्राह्मणों के अहम् को अगला बड़ा झटका दिया था मोदी ने! परन्तु तब उसको झेल गए क्योंकि बीजेपी पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ नई-नई सत्ता में आई थी! वह साइड करने का सिलसिला बढ़ता-बढ़ता जब गड़करी को भी निगल गया यानि संसदीय बोर्ड से बाहर किया तो संघी ब्राह्मणों को समझ आया कि पिछले आठ साल से तुम्हारे साथ कितना बड़ा खेला हो रहा है!
सूत्र बताते हैं कि इधर जैनियों के साथ बनिया लॉबी भी मिली और पक्ष-विपक्ष पूरा जैनी व् बनियों का करने का प्लान बना और इसी के तहत केजरीवाल को राष्ट्रीय चेहरा बनाने का प्लान उभरा!
बोले तो, मुंह पर पट्टी बांधे, चुपचाप से जैन समाज ने बीजेपी तो हाईजैक करी ही करी; संघ वालों को उनकी बुद्धि भी नपवा दी! कायल हूँ मैं जैन समाज का, जो इतना चुपके से खेलते हैं कि ब्राह्मणों के साथ "चोरों पे मोर" वाली कब बन जाती है; इनको तब समझ आती है जब 8 साल बाद गड़करी जैसा इनका अगला पीएम कैंडिडेट तैयार किया मोहरा, मोदी पल में "दूध में से मक्खी की भांति, निकाल बाहर फेंक देते हैं"!
इतना मजबूर वह भी इतना बड़ा आदमी यानि मोहन भागवत हुआ है, तो अंदर बहुत गहरे दर्द, बेबसी व् मायूसी छाई होगी, तभी गया है मस्जिद! हम तो यह मानते थे कि संघ के स्वयंसेवक तो संघ के लिए जान भी दे देंगे, परन्तु अब वही टिपिकल भारतीय राजनीति के लक्षण दिखने लगे जिनके चलते कोई तिलक ब्राह्मण, ग़ज़नवी के लिए सोमनाथ के दरवाजे खोल देता था, तो कोई राघव चेतन ब्राह्मण, खिलजी को चित्तोड़ बुला लाता था; अपने अपमान का बदला लेने को! लगता है मोहन भागवत को, मोदी से ऐसा ही अपमान महसूस करवाया है, वरना यह और मुस्लिम के दर पे चढ़ें, जमा नहीं! हम जैसे जाट तो फिर भी मुस्लिम भाईयों से मिलजुल के भी रह लें, सर छोटूराम की "धर्म से ऊपर खून" की राजनैतिक आइडियोलॉजी पे चलें; परन्तु यह लोग अगर ऐसा करते हैं तो समझो अंतिम ऑप्शन के तहत करते हैं! ब्राह्मण नाराज तो गहराई तक है मोदी से, जिसको हम जैसे भांप रहे हैं, बड़ी नजदीक से भांप रहे हैं!
सूत्र बताते हैं कि संघ का अगला भय, जैन धर्म के बड़े प्लान के तहत भारत में जैन धर्म के फैलाव का है; जो कि मोदी तीसरी बार आये तो जरूर से जरूर होगा! व् लोग जैन धर्म में ख़ुशी-ख़ुशी चले भी जायेंगे क्योंकि वहां स्वर्ण-शूद्र वाली अति नश्लवादी, अलगाववादी व् अपने धर्म का कह के अपमानित करने की जलील व् नीच सोच नहीं है; सब बराबर हैं!
तुम किसान-ओबीसी-एससी-एसटी वालो भारतीय राजनीति में आगे निकलना है तो एक तो ख़ामोशी से काम किया करो व् दूसरा जैन पॉलिटिक्स से नीचे कुछ मत पढ़ो! जैन को पढ़ लिया, समझो ब्राह्मण-बनिया-पारसी-यहूदी-वोहरा सबके ऊपर राजनैतिक कमांड वाली समझ पा ली!
विशेष: लेखक सभी जाति-बिरादरियों का आदर करता है, यहाँ इन सबका जिक्र भारतीय सामाजिक व् राजनैतिक पहलुओं को ज्यों-का-त्यों रखने मात्र से है!
जय यौधेय!

Saturday, 24 September 2022

सांझी से संबंधित जानने योग्य कुछ पहलू!

सांझी एक रंगोली है: सांझी एक रंगोली है कोई अवतार या माया नहीं! प्राचीन काल से उदारवादी जमींदारी सभ्यता में 'सांझी की रंगोली बनाना' नई पीढ़ी को ब्याह के शुरुवाती 10 दिनों की जानकारी व् तमाम गहनों-परिधानों की जानकारी स्थानान्तरित करने की एक कल्चरल विरासत यानि पुरख-किनशिप की प्रैक्टिकल वर्कशॉप होती है| इसके जरिए किनशिप का यह अध्याय अगली पीढ़ियों को पास किया जाता है| खापलैंड के परिपेक्ष्य में यह तथ्य "सांझी" बारे तमाम अन्य अवधारणों के बीच सबसे उपयुक्त उभरता है जो कि सांझी के साथ गाहे-बगाहे जुड़ी हुई हैं| और यह अवधारणा कहें या मान्यता सबसे सशक्त व् उपयुक्त क्यों है, उसके वाजिब कारण आगे पढ़ें|


सांझी नाम का उद्गम: इसका उद्गम हरयाणवी कहावत "गाम की बेटी, 36 बिरादरी की सांझी / साझली बेटी हो सै" से है| यानि यह शब्द हरयाणवी व् पंजाबी सभ्यता में हर बेटी का प्रतीक है|

आसुज के महीने में क्यों मनती है?: क्योंकि लोग खेती-बाड़ी की खरीफ की फसलों से लगभग निबट चुके होते हैं, फसल की आवक शुरू होने से (अधिकतर इस वक्त तक आवक पूरी हो लेती है) खुशियां छाई होती हैं और मौसम में बदलाव भी आ रहा होता है जो कि मंद-मंद सर्दी में बदल रहा होता है, व् मनुष्य चेतन आध्यात्मिक होने लगता है इसलिए इस वक्त सांझी मनाने का सबसे उपयुक्त समय पुरखों ने माना| खाप-खेड़ा दर्शन में सामण व् आधा बाधवा 'विरह' के चेतन का होता है व् दूसरा आधा बाधवा व् कात्यक 'आध्यात्म' के चेतन का होता है|

इसको मनाने के तरीके वास्तविक खाप-खेड़ा रीति-रिवाजों से हूबहू मेळ खाते हैं: जैसे ज्यादा पुरानी बात नहीं बहुतेरी जगह आज भी व् एक-दो दशक पहले तो खापलैंड पर हर जगह ही, ब्याह के बाद पहली बार खुद से ससुराल से बहन-बुआ को लाने भाई-भतीजे आठवें दिन जाते हैं/थे व् वहां दो दिन रुक कर बहन की ससुराल व् ससुरालजनों में क्या कितनी स्वीकार्यता, स्थान, घुलना-मिलना व् आदर-मान हुआ यह सब देख-परखते थे व् दसवें दिन बहन-बुआ को साथ ले कर घर आते थे व् माँ-बाप, दादा-दादी को इस बारे सारी रिपोर्ट देते थे|

सांझी को बनाने की विधि:
• पर्यावरण की स्वच्छता व् सुरक्षा हमारे पुरखों के सबसे बड़े सिद्धांत "प्रकृति-परमात्मा-पुरख" से निर्धारित है; इसलिए इसको बनाने में सारा सामान ऐसा होना चाहिए, जो कि पानी-मिटटी में मिलते ही न्यूनतम समय में गल जाए|
• यह 10 दिन की वर्कशॉप होती है, जिसमें रोजाना सांझी के अलग-अलग भाग डाले जाते हैं| जैसा कि ऊपर भी बताया 8वें दिन सांझी का भाई उसको ठीक वैसे ही लेने आता है जैसे वास्तविक हरयाणवी विधानों के अनुसार नवविवाहिता को उसकी ससुराल से प्रथमव्या लिवाने वह 8वें दिन जाता होता है| व् 2 दिन रुक कर 10वें दिन बहन के साथ अपने घर आता है| 2 दिन रुक कर वह ससुराल में उसकी बहन के साथ ससुरालियों का व्यवहार-घुलना-मिलना देखता है ताकि वापिस आ कर माँ-बाप को रिपोर्ट करे कि बहन की ससुराल में बहन की क्या जगह बनी है व् कैसे उसको रखा जा रहा है|
• गाम के जोहड़ में फिरनी के भीतर क्यों बहाई जाती है, किसी नहर या रजवाहे में क्यों नहीं?: क्योंकि जब सांझी को उसका भाई ले के चलता है तो औरतें उसको अधिकतम फिरनी तक ही छोड़ने आती हैं| दूसरा फिरनी के भीतर ही सांझी को रोकने की रश्म पूरी की जाती है; जो करने को गाम के जोहड़ सबसे उपयुक्त होते हैं| जोहड़ में बहाने के पीछे दूसरी वजह यह भी है कि वह ठहरे हुए पानी में गिर के जल्द-से-जल्द गल जाए ताकि पर्यावरण पर उसका अन्यथा असर ना पड़े| इस रोकने को उसके प्रति ससुरालियों के स्नेह के रूप में भी देखा जाता है|

सांझी क्या नहीं है?:
• यह किसी भी प्रकार का कोई अवतार या माया नहीं है|
• जैसा कि ऊपर बताया, यह एक वास्तविक रिवाजों के आधार पर बनी रंगोली वर्कशॉप है; यह कोई मिथक आधारित कथा आदि नहीं है|
• इसका नाम सांझी, हरयाणवी कल्चर की कहावत से निकला है (जैसा कि ऊपर बताया), अत: इसके साथ कोई अन्य नाम या प्रारूप जोड़ता है तो वह इसके वास्तविक स्वरूप से खिलवाड़ मात्र है, भरमाना मात्र है|
• हम इसके वास्तविक रूप को मनाने से सरोकार रखते हैं; इसके जरिए किसी भी अन्य मान-मान्यता को कमतर बताना-आंकना या उससे अलग चलना कुछ भी नहीं है|
• आप जैसे औरों के ऐसे मौकों-त्योहारों पर खुले दिल से जाते हैं, शामिल होते हैं; ऐसे ही उनको भी इसमें शामिल करें|

लड़कों का रोल: इसमें लड़के खुलिया-लाठी के साथ कल्लर-गोरों पर चांदनी शाम में गींड खेलते हैं| अपनी बहन-बुआओं के लिए सांझी बनाने का सामान जुटाते/जुटवाते हैं| जो कि सांझी के ही इस लोकगीत से झलकता भी है कि, "सांझी री मांगै दामण-चूंदड़ी, कित तैं ल्याऊं री दामण-चूंदड़ी! म्हारे रे दर्जी के तैं, ल्याइए रे बीरा दामण-चूंदड़ी"| बीरा, भाई को कहते हैं| और भाई की इस कद्र इस वर्कशॉप में मौजूदगी, इसके समकक्ष किसी भी अन्य त्यौहार में नहीं है| लड़के, सांझी को बहाने वाले दिन, जोहड़ों पर उसको जोहड़ में रोकने हेतु आगे तैयार मिलते हैं| यह भी एक ऐसा पहलु है जो इसको माया या अवतार या मिथक कहने के विपरीत है|

चाँद-सूरज-सितारे व् पशु-पखेरू उकेरने का कारण: आसुज महीने के चढ़ते दिनों में चाँद भी जल्दी निकल आता है व् सूरज-चाँद-सितारे एक साथ आस्मां में होते हैं, गोधूलि का वक्त होता है, धीरे-धीरे दिन छिप रहा होता है| पशु-पखेरू घरों को लौट रहे होते हैं| इस कृषि व् प्रकृति आधारित विहंगम दृश्य के मध्य सांझी को दर्शाना, हरयाणत की सम्पूर्णता को दर्शाना होता है| जो कि हमारे बच्चों की क्रिएटिविटी को भी उभारना कहा जाता है|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Thursday, 15 September 2022

हिंदी पढ़ो-पढ़ाओ या और कोई भाषा पढ़ो-पढ़ाओ, परन्तु अंग्रेजी सबसे पहले पढ़ाओ अपने बच्चों को!

यह जो हिंदी मध्यम से बच्चों को पढ़वाने का सगूफा फंडी अभी छोड़ रहे हैं, यह ऐसा ही है जैसे एक सदी पहले तमाम गुरुकुलों में संस्कृत लादी परन्तु उसी विचारधारा पर बने DAVs में इंग्लिश मीडियम पढ़ाया!


यह ढकोसला मंजूर करने से पहले, ना सिर्फ नेताओं अपितु धार्मिक प्रतिनिधियों तक के बच्चे, वो धार्मिक प्रतिनिधि जो तुम्हें दिनरात हिंदी व् संस्कृत से पकाते हैं; इन सबके बच्चे इंग्लिश मीडियम के वो भी बोर्डिंग व् पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं!

इसलिए, हिंदी हो ना हो, परन्तु इंग्लिश जरूर रखवाओ अपने नजदीक के तमाम सरकारी व् प्राइवेट हर तरह के स्कूलों में! चुप ना रहें, वरना यह फंडी तो तुम उत्तर भारत वालों को भी महाराष्ट्र में पेशवाओं द्वारा दलित-ओबीसी वालों की कमर में झाड़ू व् गले में थूकने की हांडी लटकाने तक ला के छोड़ेंगे! इनमें तुम्हारे बारे जो सोच है, वह कल भी ऐसी ही थी, आज भी व् आने वाले कल में भी ऐसी ही रहनी है! इसलिए सब कुछ बर्बाद करने की सोच तुम्हारे बीच फैलाने वालों के भरोसे मत छोडो!

और ग्रेटर हरयाणा वाले तो अब हरयाणवी भाषा लागू करने की मांग पे आओ, अगर अपने पुरखों व् किनशिप की बुलंदी चाहो तो!

जय यौधेय! - फूल मलिक

Saturday, 20 August 2022

विषय: जाटों व् उसकी मित्र जातियों में विधवा विवाह, वर्णवादियों द्वारा उसके बारे फैलाये नकारात्मक पहलु व् इस विवाह के विधान अनुसार इसके सकारात्मक पहलू!

विधवा विवाह का मूल अर्थ

1) विधवा महिला, एकल या एकल मां का जीवन या पुनर्विवाह के जीवन के बीच चयन करने के लिए हमेशा स्वतंत्र रही है!
2) उसके दिवंगत पति की संपत्ति नैसर्गिक रूप से बराबरी से उसकी भी होती है, जो पति के मरने के बाद उसको व् उससे उसकी औलादों को स्थान्तरित होती आई है!
वर्णवादी फंडी, इसके विरोध में कहते हैं कि
1) जाट (यहाँ वह बाकी मित्र जातियों को छोड़ के, सिर्फ जाट पे निशाना धरते हैं) लोग अपनी पारिवारिक संपत्ति की सुरक्षा के लिए ऐसा करते हैं! - हाँ, जैसे जाट तो बिहार-बंगाल के सामंतों व् स्वघोषित सवर्णों की भांति, विधवा को मनहूस घोषित कर या तो काल-कोठरियों में डाल देते हैं, या उनको हरद्वार से हुगली तक गंगा घाटों के विधवा आश्रमों में फिंकवा देते हैं, वह भी सर के बाल मुंडवा के, या उनको सफेद ड्रेस कोड दे देते हैं व् ब्याह-शादी में खड़ा होने तक पे भी पाबंदी लगा देते हैं|
2) जाट चाहते हैं कि उनकी महिला हमेशा उनके नियंत्रण में रहे, इसलिए वह ऐसा करते हैं! - हाँ, जैसे जाट तो अपनी माँ की हॉनर किलिंग करने वाले को भगवान बना के पूजते हैं|
3) फंडी अपने ग्रंथों में जाटों की विधवा-विवाह जैसी मानवताओं से जलते-भुनते जाटों को शूद्र व् मलिन ठहराने हेतु, इनके यहाँ विधवा विवाह किये जाने को भी एक वजह बताते होते हैं| - हाँ, जिन्होनें तमाम ग्रंथों में स्त्री को ही शूद्र लिखा हो, तो इनके अनुसार औरत की भलाई के लिए सोचने वाले तो शूद्र होंगे ही|
खैर, अब आते हैं विधवा विवाह के सकारात्मक पहलुओं पर:
1) विधवा विवाह स्वैच्छिक है, बाध्यकारी नहीं: खापलैंड व् मिसललैंड के हर गाम के कुनबों-ठोलों में ऐसी विधवाएं मिलेंगी जिनको विधवा विवाह ऑफर हुआ परन्तु उन्होंने मना कर दिया व् अपने दिवंगत पति की सम्पदा पर आजीवन बसती हैं| माँ हैं तो एकल माँ के तौर पर अपने बच्चों को बड़ा करती हैं व् समाज की हर सुख-सुविधा एक ब्याहता के बराबर ही भोगती हैं| खुद लेखक के ठोले में लेखक की 6 काकी-ताइयां हैं, जिन्होनें विधवा विवाह से मना किया व् एकल माँ का जीवन जीती हैं| हाँ, कहीं 100 में कोई 2-4 केस जोर-जबरदस्ती के हो जाते हैं, जो चाँद में दाग के समान दुनिया के हर पहलु में पाए जाने स्वाभाविक हैं और फंडी लोग सिर्फ इन्हीं 2-4% पे पूरी कहानी पाथ के फैलाने लगते हैं| ऐसा है फंडियों, बाज आ जाओ इन हरकतों से; वरना जिस दिन जाट इन चीजों को ले तुम्हारे पीछे पड़ गए तो हिन्द महासागर डूबें पैंडा छूटैगा थारा|
2) एक ही परिवार या कुल के पुरुष को पिछले पति से बच्चों के उचित पालन-पोषण को ध्यान में रखते हुए चुना जाता है। इन बच्चों की लगातार और स्वस्थ निष्पक्ष परवरिश सुनिश्चित करने के लिए उन्हें एक ही परिवार की देखभाल में रखना सबसे आवश्यक है। - हरियाणवी और बॉलीवुड अभिनेत्री सुमित्रा हुड्डा पेडनेकर जी का यह कथन है
3) महिला के लिए भी, नए परिवार में जाने की तुलना में एक ही परिवार में स्थापित रखना या समायोजन करना हमेशा आसान होता है। इस तरह उसकी बंदोबस्त अवधि, जद्दोजहद और ऊर्जा सब बच जाती है।
4) विधवा को द्विंगत पति की प्रॉपर्टी से तभी अलग किया जाता है अगर वह पीहर में बसने की कह दे अथवा उसका विवाह कहीं और गाम में होवे। वह भी उसकी स्वेच्छा से, बाध्यता इसमें भी नहीं है। मेरे गाम में कई बुआएँ ऐसी हैं जो विधवा हुई या पति को छोड़ के आ गई व् दूसरा ब्याह नहीं किया तो भी मायके में भाईयों के बराबर के हक में रहती हैं।
तो ऐसे चपडगंजु, जाटों व् उनकी मित्र जातियों को महिला सम्मान व् जेंडर सेंसिटविटी ना सिखावें, जो विधवा की परछाई से भी डरते हों, उसके दर्शन मनहूस मानते हों। होंगी हमारे यहाँ भी समस्याएं इससे संबंधित परन्तु तुम जितने गए-गुजरे गंवार-राक्षस तो फिर भी नहीं। हम चुप रहते हैं व् समाजों में ऐसी नुक्ताचिनियां नहीं निकालते तो इसका मतलब यह नहीं कि तुम सभ्याचार व् जेंडर सेन्सिटिवटी के संदेशवाहक बनोगे, वह भी जाटों व् इसकी मित्र जातियों के बीच।
जय यौधेय! - फूल मलिक

Friday, 19 August 2022

ठीक-ठीक लगा यार; क्यों पुरखों के कल्चर का बेखळखाना बनाने पे तुले हो?

अभी दो दिन पहले राखी मना के हटे हो, और आज उन्हीं बच्चों को रासलीला वाली ड्रेसेज पहना के BF-GF बना के मटकियां फुड़वा भी रहे हो? चाहते क्या हो अपने कौम-कल्चर से आप ऐसे लोग?

कृष्ण, ने उसकी बहन सुभद्रा, उसकी बुआ (जाटों में बुआ सगी हो या मुंहबोली, बरतेवा दोनों अवस्थाओं में सगी वाला करते हो या नहीं?) कुंती के लड़के अर्जुन के साथ भगाई थी; क्या चाहते हो कल को आपकी बहन-बेटियां भी आपको अपनी बुआ-बाहणों के लड़कों के साथ भगाणी हैं क्या?
जाटों में ऐसे उल्टे काम जो भी कर दे, जाट समाज उसको या तो समाज से बाहर कर देता है या उसको उसके हालातों पे छोड़ देता है; ऐसे लोगों को जाट सभ्यता आदर्श नहीं बनाती, ना मानती| अगर यह किसी अपने का ही पुरखा भी रहा है तो भी इसको इसके हाल पे छोड़ देने लायक है, सर पे धरने लायक नहीं| यह सिस्टम फंडियों में चलता है कि माँ की हॉनर किलिंग करने वाले को भगवान बना के रखते हों, म्हारे नहीं| म्हारे हॉनर किलिंग करने वाला हो या अपनी बहन को अपनी बुआ के लड़के के साथ भगाने वाला; वह समाज से या तो गिराया जाता है अथवा उसके हालात पे छोड़ दिया जाता है|
ठीक-ठीक लगा यार; क्यों पुरखों के कल्चर का बेखळखाना बना दिया या बनाने पे तुले हो? जाट वाली अणख बिलकुल मर ली क्या, यह फंडी ही रह गए क्या कि यह जो भी उल्टा-सुल्टा बोलेंगे; वही करते जाओगे? क्यों धक्के से शुद्रमती हुए जाते हो!
जय यौधेय! - फूल मलिक

भाभियों को बहन कहना व् देवर-जेठों को भाई साहब कहना; अति-मर्दवादी समाजों का कल्चर है हमारा नहीं!

ऐसे मर्दवादी समाज, जो माँ की हॉनर किलिंग करने वाले को भी भगवान मानते हैं; यह उन समाजों का कल्चर है| हॉनर किलिंग करने वाला जहाँ भगवान हो, वहां औरत कितनी दबा के रखी जाती है, इसी से अंदाजा लगा लो| 


यह लोग बेहद वासनाकृत लोग हैं, इनके यहाँ सगी बेटियों को देख संखलित हो जाने वाले उदाहरण होते हैं; इनके चलते इनकी औरतें बहुत शर्म व् डर महसूस करती यहीं| और उनमें इनके प्रति कुंठा भर जाती है| 


यह कुंठा फूट के कहीं बाहर ना निकल पड़े; इसलिए देवर-जेठ को "भाई साहब" बोल के उस कुंठा को कुछ हद तक शांत रखवाने के चोंचले हैं यह इन अति-मर्दवादी समाजों के| 


जाटों में, देवर-जेठ मतलब देवर-जेठ व् भाई-बहन मतलब भाई-बहन| 


हमारे यहाँ ना तो हॉनर किलिंग करने वाले को भगवान बनाते, ना बेटियों को देख संखलित होने वालों को व् ना ही अपनी बहन को अपनी बुआ के लड़के के साथ भगाने वाले को| कोई ऐसा हो भी जाता है हमारे समाजों में तो उसको या तो समाज से निष्काषित करते हैं या उसके हाल पे छोड़ देते हैं| 


कोई मेल ही नहीं है जी सोच से ले अचार-व्यवहार किसी का भी| 


जय यौधेय! - फूल मलिक