Thursday, 30 June 2016

जब मुग़लों के आगे हताश राजपूत-शिरोमणि छत्रसाल बुंदेला की मदद को आगे आये सर्वखाप यौद्धेय दादावीर चूड़ामण जी महाराज!


सन 1720 में राजा छत्रसाल बुंदेला की रियासत कालपी पर मुग़ल सूबेदार ने अपने नायक दिलेर खाँ को भेज राजपूतों को पराजित कर कालपी समेत जबलपुर पर भी अधिकार कर लिया| राजा छत्रसाल ने बहुत से राजपूत राजाओ से सहायता माँगी परन्तु सब मुग़लों के भय से सहायता से मना कर गए| तब राजा ने दादावीर चूड़ामण से सहायता माँगी। दादावीर ने डट कर सहायता की और 800 मुस्लिम सैनिकों को मौत के घाट उत...ार दिया और दिलेर खाँ को भी मार दिया गया।

यह जाट-राजपूत के उन कई आपसी सहयोग के अमिट पन्नों में से एक पन्ना है जो हमें मिलजुल के संगठित रहने की प्रेरणा देता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 28 June 2016

2013 में मुज़फ्फरनगर में वही दोहराया गया जो सन 1435 में मोखरा, जिला रोहतक में दोहराया गया था!

आजतक टीवी के स्टिंग ऑपरेशन में कपिलदेव अग्रवाल का मुज़फ्फरनगर दंगों में मास्टरमाइंड पाया जाना मुझे "लाला बीहड़" के किस्से की याद दिलाता है| फर्क सिर्फ इतना है कि कपिलदेव ने हिन्दू को मुस्लिम से लड़वाया; और लाला बीहड़ ने जाट को राजपूतों से लड़वाया था|

और ऐसा लड़वाया था कि तमाम तरह के डूबाढाणी, खत्म-कहानी जैसे शब्द भी छोटे पड़ जाएँ|

जानिये गठवाला जाटों द्वारा राजपूतों को हराने, फिर राजपूतों द्वारा जाटों से राजीनामा कर उनको सामूहिक भोज पर आमंत्रित कर, राजीनामा संधि तोड़ते हुए (प्राण जाए पर वचन ना जाए की डींग हांकते ना थकने वालों ने) धोखे से सामूहिक रूप से अग्नि में जला देने और फिर वहाँ से लगभग उजड़ चुके मोखरा के गठवाला जाटों के पुनर-स्थापन का ऐतिहासिक, दर्दनाक एवं गौरवमयी किस्सा|

इस किस्से को सविस्तार इस लिंक से पढ़ सकते हैं: http://www.nidanaheights.net/scv-hn-mokhra.html

लेख में कहाँ जिक्र है इस किस्से का:
इस किस्से को पढ़ने के लिए इस लेख के बांये कॉलम के मध्य जा के "मम का मोखरा नींव रखने के बाद सवा दो सौ साल तक सुखचैन से बसता रहा|" वाले पैराग्राफ से पढ़ें|

यह किस्सा मेरे हृदय से इसलिए भी जुड़ा हुआ है क्योंकि मेरी जन्म-नगरी निडाना, जिला जींद भी हमारे पुरख दादा मंगोल जी महाराज ने सन 1600 में मोखरा से ही आकर बसाई थी| यानि मेरे पुरखों की भी जन्मस्थली है मेरा मोखरा|

मोखरा गाँव से जुडी एक रोचक बात यही भी है कि यही मोखरा सन 1620 में गठवाला खाप के निमंत्रण व् अगुवाई में रांगडों (मुस्लिम राजपूत) की रियासत का कोला तोड़ने की क्रांति का केंद्रबिंदु बना था और कलानौर की ईंट-से-ईंट बजा के पूरी रियासत को तहस-नहस कर दिया था|

लेखक: सर राजकिशन नैन जी
सामग्री उपलब्धकर्ता: सर रणबीर सिंह फोगाट जी (सर राजकिशन नैन जी की सहमति सहित)
वेब-संकलन/प्रस्तुति: फूल मलिक
जय यौद्धेय!

Sunday, 26 June 2016

ग्राउंड जीरो रिपोर्ट: गौ, आरएसएस और जाट का इमोशनल ब्रेनवाश!

दो-दो जाट आंदोलनों के बाद आरएसएस से नाराज जाटों को मनाने हेतु, आरएसएस गाय के कत्ल की वीडियो अपने एजेंटों के जरिए जाटों के मोबाइल, बैठक, चौपाल हर जगह पहुंचा रहा है; ताकि आपकी भावनाओं को उद्वेलित व् एक्सप्लॉइट किया जा सके|

ऐसे लोगों को मोबाइल, बैठक, चौपाल के जरिए यह सवाल भरे जवाब चिपका देवें:

1) सबसे 85% से ज्यादा गौ-कत्लखाने हिन्दू जाति के मंडी-फंडी वर्ग के लोगों के हैं| और मंडी-फंडी ही आरएसएस को पोषित व् संचालित करता है तो फिर जब अपराधी तुम्हारा, अपराध तुम्हारा, सरकार तुम्हारी, पुलिस-प्रशासन पर कंट्रोल तुम्हारा तो हमसे क्या चाहते हो; पकड़वा के डलवाते क्यों नहीं एक-एक को जेल के अंदर?

पहले उनको जेल में डलवाओ और फिर अगर उनके बनाये बूचड़खानों व् कतलखानों को तोड़ने-जलाने की बात आये तो बता देना, लठ समेत पहलवान भेज देंगे| परन्तु अगर इस कार्यवाही में किसी पहलवान को चोट लगी या कोई कानूनी पचड़ा पड़ा तो उसका बीमा पहले करके दोगे, उसके खानेपीने और आनेजाने का खर्च और दिन की दिहाड़ी के एवज में न्यूनतम 1000 (special dharmseva charges including) रूपये दोगे| दिहाड़ी और खर्चा इसलिए क्योंकि तुम दान-चन्दा लेते ही "धर्म-रक्षा के नाम का हो" तो फिर जब तुमसे रक्षा नहीं होती और हमारे वालों से करवानी है तो वो दान-चन्दा इधर धरो|

2) इनको बोलना कि जाट आंदोलन के दौरान जितने भी जाट बालक जेलों में बंद हैं, उन सबको पहले रिहा करवाओ| व् उन पर दर्ज तमाम झूठे और टोरचर करने के मुकदमे वापिस करवाओ|

3) सड़कों-गलियों-कुरडियों पर कागज-प्लास्टिक बीनती गायों को अपने-अपने घरों में बांधो|

4) किसान के घर पर बूढ़े हो चुके बैलों को पालने का खर्चा निकाल के आगे रखो|

5) जितने भी हिन्दू गौ-कत्लखाने चलाते हैं उनको धर्म से बाहर फेंको और उनका सार्वजनिक जुलूस निकालो, फिर वो चाहे कितने ही बड़े अरबों-खरबोंपति क्यों ना हों?

बोलो, यह बातें करते हो तो अभी चलें, तुम्हारे साथ? नहीं, तो यु देख खाट की बाहइ पै धरया लठ, कहंदा हो तो ईबे की इब तेरी सारी धर्म की ठेकेदारी झाड़ दूँ?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"बोलना नहीं आता" जाट को चुप कराने/रखने का टैग मात्र है!

वर्ना ऐसा कुछ नहीं कि दुनिया की सबसे हंसोकडी भाषा "हरयाणवी" के सरदार को बोलना ना आता हो!
इसकी गम्भीरता इसी बात से समझ लीजिए कि "जाटों को बोलना नहीं आता है" की बात वही लोग कहते हैं जो जाट को शुद्र, चांडाल, लुटेरे, सोलह दूनी आठ और मोलड़ इत्यादि कहते/लिखते हैं|

असल में 'बोलना नहीं आता' इनका वो हथियार है जिससे यह जाट को चुप कराकर, जाट द्वारा उसकी आलोचना होने के सारे मार्ग बंद कर देते हैं और जाट बैठा रहता है इस सदमे में कि क्या मुझे वाकई बोलना नहीं आता?

और यह ऐसा करते भी इसलिए हैं क्योंकि यह जानते हैं कि जाट को भय या डर दिखा के चुप नहीं कराया जा सकता, वो तुम्हारी पोल-पट्टी खोलने पे लग गया तो फिर अंत तक जायेगा| इसलिए उसका दुष्प्रचार कर दो, उसके आगे बेचारे वाली मुद्रा में आ जाओ; परन्तु खुद को पीड़ित दिखाते हुए, लाचार कुत्ते की भांति कुंह-कुंह जरूर मचाओ|

हाँ, इतना जरूर कहता हूँ कि जाट इनकी भांति ऐसे अभद्र और जलील कर देने वाले शब्द इनके लिए सीधे प्रयोग ना करें; बल्कि डिप्लोमेटिक शब्दों का चयन करें| जानता हूँ जाट सीधे-सीधे जो शब्द प्रयोग करता है वो एक दम सत्य होते हैं, परन्तु उनसे यह बेचारे घबरा जाते हैं, कांपने लगते हैं और डरते हुए और अपने बचाव हेतु व् आपके सवाल का जवाब देने से बचते हुए इनकी भाषा वाले ब्रह्मास्त्र की भांति फिर यही सगुफा छोड़ देते हैं कि "जाट को तो बोलना ही नहीं आता!"

यानि दुश्मन वैसे मरता ना दिखे तो उसका दुष्प्रचार कर दो उसको मिथ्या ठहरवा दो| यह बहुत बड़ी विधा है जो इनकी जड़ है; जाट या तो इस विधा से ही इनका सामना करे अन्यथा डिप्लोमेटिक शब्दों का चयन करे| इल्जाम लगाने, आरोप-प्रत्यारोप लगाने की शैली से बचा जाए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 25 June 2016

आर.एस.एस. चला सर छोटूराम और चौधरी चरण सिंह की राजनीति की राह!

बस फर्क सिर्फ इतना है कि सर छोटूराम और चौधरी चरण सिंह वाकई में नेकदिल से धर्मनिरपेक्ष राजनीति करते थे, जबकि आरएसएस छुपे और दोहरे मुखौटे के साथ करती है| और इसका प्रमाण है दैनिक जागरण में छपी (देखें स्लंगीत कटाई) यह खबर जो कहती कि आर.एस.एस. आने वाली ईद पर मुस्लिमों के लिए 'इफ्तार पार्टी' करेगी|

तो भोलेभाले लोगो, यूनियनिस्ट मिशन और सर छोटूराम को कोसना और हम पर भड़कना छोड़ो; क्योंकि अब तो आपका आर.एस.एस. भी यूनियनिस्ट मिशन की राह पर ही चल के दिखा रहा है| परन्तु सावधान इनका चलना ठीक इस कहावत जैसा है कि "बगल में छुर्री, मुंह में राम-राम!" और युनियनिस्टों वाला चलना इतना गाढ़ा और नेकनीयत का है कि अंधभक्त हमें "पाकिस्तानी", "देशद्रोही", "समाज को तोड़ने वाले", "हिन्दू धर्म के दुश्मन" आदि-आदि बड़बड़ाने लग जाएँ|

आज मैं बहुत खुश हूँ यह जानकर कि अल्टीमेट राजनीति और भाईचारा तो सर छोटूराम और चौधरी चरण सिंह की विचारधारा ही रही है; और इसी पथ पर हम युनियनिस्ट अग्रसर हैं| आशा करता हूँ कि मेरे उन पत्रकार मित्रों को भी आज इस खबर से जवाब मिल गया होगा, जो मुझे अक्सर कहते-पूछते थे कि भाई सर छोटूराम तो एक सदी पहले हो के जा चुके, आज उनकी क्या व्यवहारिकता?

मुझे गर्व है कि मैं ऐसे पुण्यात्माओं, हुतात्माओं और राजनैतिक पुरोधाओं की पीढ़ियों में पैदा हुआ हूँ कि जिनकी राजनीति की राह को समाज में सबसे विभष्त व् विघटनकारी राजनीति करने वालों को भी "वक्त पड़े पे गधे को भी बाप बनाने वाली" तर्ज पर चलते हुए अंगीकार करना पड़ता है; "बेपैंदी के लौटों" की तरह डावांडोल होते हुए सर छोटूराम की राजनीति को सजदा करना पड़ता है|

धन्य है यूनियनिस्ट मिशन, कि उसकी अंकुरित अवस्था के तेज ने ही इनको इतना चौंधा दिया; जिस दिन वयस्क रूप में आएंगे उस दिन तो भारत में तारीख ही नई लिखी जाएगी|

विशेष: सर छोटूराम से होते हुए सरदार प्रताप सिंह कैरों के आगे चौधरी चरण सिंह से चलते हुए इस राजीनति की बैटन को ताऊ देवीलाल और उनके बाद बाबा महेंद्र सिंह टिकैत ने पोषित कर आगे बढ़ाया और अब यूनियनिस्ट इसको आगे बढ़ाएंगे| आज इस खबर को पढ़ के हर यूनियनिस्ट का हौंसला बुलंद होना चाहिए!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

 

मेरे पिता की पीढ़ी ने उनके पिता की पीढ़ी की परम्परा को आगे नहीं बढ़ाया, परन्तु अब हम अपने दादाओं की परम्परा को आगे बढ़ाएंगे!

"आपके इर्दगिर्द जो धर्म है, वो कोरा व्यापार है" की विवेचना करते हुए, इस लेख के असल मुद्दे पर लेख का अंत करूँगा|

1) एक तरफ कहेंगे कि मक्का में शिवलिंग है, अत: व्यंगत्मक्ता में फिर यह भी कहेंगे कि मुस्लिम शिवलिंग पूजते हैं| तो भाई फिर उनसे झगड़ा किस बात का, आपके क्लेम के हिसाब से पूज तो शिव को रहे हैं ना वो?

2) बुद्ध को विष्णु का नौवां अवतार बताएँगे, परन्तु बुद्धिज़्म को दिन-रात बिसराहेंगे| भाई जब विष्णु का अवतार मानते हो तो दुत्कारते क्यों हो?

3) वेटिकन सिटी का डिज़ाइन 'शिवलिंग' की शेप का होने से उसको अपना कांसेप्ट क्लेम करेंगे, परन्तु ईसाईयों और अंग्रेजों को दुश्मन नंबर एक बताएँगे?

तो फिर आखिर झगड़ा किस बात का है, जो अंधभक्त हर वक्त चिल्लाते रहते हैं कि यह तुम्हारा दुश्मन, वह तुम्हारा दुश्मन; इससे देश को बचाओ, इससे धर्म को बचाओ?

नहीं, कोई खतरा नहीं; सब कोरी बकवास, छलावा, बहकावा| खतरा है तो सिर्फ इनके बिज़नेस को|

मक्का-बुद्ध-वेटिकन, इन सबसे आज इनको चन्दा-चढ़ावा यानि बिज़नेस आना शुरू हो जाए, यह इनके भी गुण गाने शुरू कर देंगे| दिक्क्त यह है कि इनको मक्का-बुद्ध-वेटिकन वालों से चंदे-चढ़ावे के रूप में हफ्ता (बिज़नेस) नहीं मिलता; तो बस पड़ो इनके पीछे और कर दो बदनाम इनको|

अब हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट क्या है, यह लोग जाट को चैन से क्यों नहीं रहने देते? और आज से नहीं सदियों से? जवाब सीधा सा है जाट इनके बिज़नेस को जड़ों समेत समझ रखने वाले रहे हैं| जानते रहे हैं कि यह इनके लिए सिर्फ एक धंधा है| जाट से ही इनको सबसे कम चन्दा-चढ़ावा आता रहा है|

परन्तु इनके पेट का कोई अंत नहीं, आप चढ़ावा राशि बढ़ा के देख लो या इनकी चाटुकारी बढ़ा के देख लो| उदाहरण समेत समझा देता हूँ|

देखो, जींद के रानी तालाब का भूतेश्वर मंदिर जींद के जट्ट राजा सरदार रणजीत सिंह सन्धु ने बनवाया? परन्तु क्या उस मंदिर के कैंपस या एंट्री पे कहीं भी एक भी शिलालेख उस राजा को सम्मान देने हेतु लगवाया इन्होनें? नहीं लगवाया, बस उनसे मंदिर बनाया या बनवाया और भुला दिया|

पिछले दो-तीन दशक से जाटों ने अपनी जमीनें व् धन दान से चौपाल, गुरुकुल व् जाट कॉलेज/स्कूल नाम की शिक्षण संस्थाओं की जगह निरी मंदिर-धर्मशाला बनवाई; और देख लो बजाये जाटों को और ज्यादा इज्जत मिलने के; इसका उल्टा यानि जाट बनाम नॉन-जाट के दंश और अखाड़े झेलने पड़ रहे हैं?

तो इनका तो यह भी कोई हिसाब नहीं कि आप इनको इज्जत दो, तवज्जो दो तो यह आपको बदले में ज्यादा तो छोडो, उसके बराबर का भी वापिस कर दें? इनको इज्जत-तवज्जो-चढ़ावे का प्रैक्टिकल करके देख लिया ना; सिवाय दुत्कार और जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े के मिला कुछ? तो क्या अब हमें अपने पुरखों की स्थापित की गई परम्परा वापिस नहीं लौट आना चाहिए?

तो समझो और लौटो अपने बुजुर्गों की दी गुरुकुल और स्कूल-कॉलेज बनाने की परम्परा पर| दावे से कहता हूँ जिस दिन मंदिर-धर्मशाला बनवानी छोड़ के दो-तीन दशक से बंद स्कूल/कॉलेज/गुरुकुल/चौपाल बनवाने की अपने पुरुखों की राह दिखाई परम्परा पर वापिस लौटे, उस दिन समझ लेना यह जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े स्वत: अपनी मौत मर जायेंगे|

मैं 34 साल का हूँ, मेरे पिता की पीढ़ी ने उनके पिता की परम्परा को आगे नहीं बढ़ाया, परन्तु अब हम अपने दादाओं की परम्परा को वापिस आगे बढ़ाएंगे, मंदिर-धर्मशालाओं से पहले स्कूल/कॉलेज/गुरुकुल/चौपाल बनवाएंगे| या फिर फिक्की (Federation of Indian Chambers of Commerce & Industry) और डिक्की (Dalit Indian Chambers of Commerce & Industry) की तर्ज पर जिक्की (Jat Indian Chambers of Commerce & Industry) बनाएंगे| फिर इसके लिए चाहे जितने तो दंश झेलने पड़ें, और चाहे जितना कष्ट; परन्तु यही सही में उन्नति होगी, खोते जा रहे वैभव बनाए रखने की नीति होगी|

विशेष: इन सबको वापिस हासिल करने में एक चीज सबसे जरूरी होगी और वो होगी अपने बुजुर्गों (दादा और पिता) दोनों पीढ़ियों से इन पहलुओं पर चर्चा करना| इन सब कार्यों के लिए उनका समर्थन, उनका आशीर्वाद और आशीष हासिल करके चलना| अत: खोलें अपने घरों-बैठकों में इन पहलुओं पर चर्चाओं-डिबेटों को और समझें और समझाएं इन हकीकतों से; ताकि सर छोटूराम का बताया दुश्मन देखने-समझने में एक समझ बने और हम वापिस अपनी इस आलीशान व् मानवता की सर्वोत्तम परम्परा को आगे बढ़ायें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 23 June 2016

फरवरी-जून के जाट आंदोलनों के बाद आर.एस.एस. के जाट-सम्मोहन के प्रयास!

जाट-सम्मोहन शब्द प्रयोग किया है तो इसका मतलब यह कतई नहीं कि आरएसएस पहले से जुड़े जाटों के अतिरिक्त नए जाट जोड़ने हेतु इस सम्मोहन को चलाये हुए है, नहीं; अपितु जो पहले से जुड़े हुओं में फरवरी-जून के जाट आंदोलनों के चलते शंकाएँ बन गई हैं, आरएसएस उन शंकाओं को खासतौर पर मिटाने में लगी हुई है। क्योंकि आरएसएस को इन जाटों का आरएसएस के प्रति मोह-भंग होने का भय सताने लगा है। और कुछ इस प्रकार के वशीकरण सोशल मीडिया समेत आमजन गलियारों से सुनने को आ रहे हैं, जो मैं हर बिंदु के दूसरे भाग में मेरे प्रतिउत्तर के साथ रखूँगा:

1) आरएसएस इसमें शामिल जाटों को कहती है, "देखो इन दोनों आंदोलनों से आरएसएस का कोई लेना-देना नहीं!", जबकि महम में तो खुद जाटों ने नरवाना से आरएसएस के भेजे गए गुर्गों को पीटा और इसीलिए महम में इतना भयंकर बवाल भी हुआ था। जाट एसडीएम लेडी वीणा हुड्डा की गाड़ी में आग लगाने वालों ने हाथों पर धागे और सर पर काले व् भगवा पट्टे बाँध रखे थे। और ऐसी ही हर दूसरे दंगाग्रस्त कस्बे-जिले से बहुत खबरें सामने आई थी।

2) जाटो, देखो आरएसएस जातिपाति से रहित संस्था है, इसमें जातिवाद के लिए कोई जगह नहीं। वाक्य सुनने को सम्मोहित करने वाला है परन्तु हकीकत नहीं। क्योंकि आरएसएस सिर्फ ब्राह्मण-राजपूत व् एक-दो और चुनिंदा जातियों की हस्तियों के जन्मोत्सव, बलिदान दिवस आदि मनाती है| या तो किसी का भी ना मनाये वर्ना महाराजा सूरजमल, गॉड गोकुला, राजा नाहर सिंह, सर छोटूराम, महाराजा रणजीत सिंह आदि जाट हस्तियों के भी मनाये? क्या सिर्फ कुछ चिन्हित जातियों के महापुरुषों के उत्सव मनाना और जाटों के नहीं मनाना, यह जातिवाद नहीं?

3) आरएसएस कहती है कि जाटो, हम महापुरुषों को जातिवाद के आधार पर नहीं देखते? गलत क्योंकि आरएसएस सिर्फ चुनिंदा जातियों के इतिहास-महापुरुषों पर पुस्तकें निकलवाती है, उन पर विचार-गोष्ठियां करवाती है; परन्तु जाट इतिहास पर इनसे कुछ पूछो तो इनके पास प्रमाणिकता से कहने को कुछ नहीं? आखिर ऐसा क्यों? क्या सिर्फ हम जातिवादी नहीं कहने भर से काम चल जायेगा और प्रैक्टिकल में शून्यता से अपनी दबी मंशाएं छुपा लेगी आरएसएस?

4) आरएसएस कहती है हम "हिन्दू धर्म की एकता और बराबरी" के लिए कार्य करते हैं? तो फिर यह स्टेट-सेंटर दोनों जगह आरएसएस की राजनैतिक इकाई बीजेपी की सरकार होने पर भी हरयाणा में "जाट बनाम नॉन-जाट" क्यों मचा हुआ है? मैं आरएसएस के जाटों से अपील करना चाहूंगा कि भाई एक बार मोहन भागवत जी से बयान जारी करवा दीजिये कि हरयाणा से "जाट बनाम नॉन-जाट" को खत्म किया जाए। ऐसा होता है तो मैं आपकी दलीलों से भी सहमत होऊंगा, और; मैं और मेरे जैसे भी आरएसएस ज्वाइन करने पर विचार करेंगे।

5) आरएसएस कहती है कि भारत में जहां-कहाँ भी दंगे-उत्पीड़न होता है हम वहाँ-वहाँ सहायता कैंप, मदद व् रशद मुहैया करवाते हैं। क्या किसी भाई ने देखी मुज़फ्फरनगर व् हरयाणा दंगों में जाटों की सहायता के लिए कहीं भी आरएसएस दौड़ती हुई? नहीं, बल्कि 'चोर की दाढ़ी में तिनका' की भांति अपनी शाखाओं से बाहर भी निकल के नहीं देखा कि कौन जिया, कौन मरा|

क्या इसके बाद भी मुझसे यही कहलवाना चाहोगे कि थ्योरी में खुद को जातिवाद से मुक्त बताने वाली आरएसएस, प्रैक्टिकल में भी जातिवाद से मुक्त है?

मेरा आरएसएस से जुड़े जाट भाईयों से इतना अनुग्रह है कि ब्राह्मण से कुछ सीखना है तो यह सीखो कि वह कैसे कांग्रेस-बीजेपी-लेफ्ट यहाँ तक कि बीएसपी में भी मिश्रा जैसे ब्राह्मणों को शिखर की पोस्ट पर घुसा के अपनी पैठ रखते हैं और अपनी बातें और सरोकार मनवाते हैं। मैं इस लेख के जरिए आपको आरएसएस से विमुख नहीं करना चाहता; वह तो आप खुद अपने विवेक से निर्धारित कर लेवें; परन्तु जब तक इनके साथ हैं तो इनसे इन ऊपर लिखित बिंदुओं पर भी तो कुछ करवाएं? वर्ना यूँ सिर्फ हांजी-हांजी करते हुए इनकी दरियां बिछानी हैं तो भाई, इससे अच्छा तो अपने किसान भाईयों के खेत-खलिहानों में खरड-तरपाल-पल्ली बिछ्वाओगे (और नहीं तो कारसेवा के तौर पर ही सही) तो बेहतर आत्मिक संतुष्टि और आत्मबल मिलेगा।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 21 June 2016

ग्रन्थ-शास्त्रों की क्रियान्वयन में लाने वाली एक ही बात तर्कसंगत है बस, "वसुधैव कुटुंबकम"!

संस्कृत सीखना, परन्तु इसके इस श्लोक को सबसे ऊपर रखना, "वसुधैव कुटुंबकम" यानि पूरी धरती आपका घर है, आपका परिवार है| इसलिए सिर्फ संस्कृत पढ़के शास्त्री टीचर इत्यादि लगने तक संतुष्ट मत रहना, अपितु आगे बढ़के ऐसे कोर्स और पढाई पढ़ना जो आपको पूरी दुनिया में अपनी जड़ों से जुड़े रहते हुए कहीं भी रहने, कार्य करने लायक बनाये|

वैसे मैं खुद 10 साल तक (पहली से दसवीं कक्षा) आर.एस.एस. के स्कूल में पढ़ा हूँ, रामायण-महाभारत-गीता सबको को रट्टा मारा है, परन्तु इनमें रोजगार नहीं है ना ही भविष्य सिवाय पुजारी-फेरे करवाने वाले पंडित और शास्त्री अध्यापक की पोस्टों को छोड़ के| और इन पोस्टों पर भी 99% एक विशेष वर्ग का आरक्षण है|

खुद मैंने छटी से आठवीं तक तीन साल संस्कृत पढ़ी, हर साल 100 में से 95 से ऊपर नंबर लिए; परन्तु संस्कृत मुझे खुद से कभी नहीं जोड़ पाई| क्योंकि समाज में जब रोजगार हेतु संस्कृत विद्वानों की हालत देखता था तो स्वत: विमुख हो जाता था|

दूसरी बात इनको पढ़ने से डरें भी नहीं, क्योंकि मैं आज इनके ऊपर इतना बेबाकी से लिख-बोल पाता हूँ तो सिर्फ यही वजह है कि मैंने इनको पढ़ा और जाना और पाया कि यह महज इंसान की काल्पनिक शक्ति की रचना से ज्यादा कुछ नहीं| व्यवहारिकता से इनका कोई लेना देना नहीं| इनको पढ़ पाया तो आज मुझे कोई भी बाबा व् तथाकथित गॉडमैन फद्दु नहीं खींच सकता|

तीसरी बात इन रचनाओं का मानव की कल्पना शक्ति के तौर पर आदर करें, ताकि आप आपकी कल्पना शक्ति का सदुपयोग कर सकें| इनसे नफरत ना करें, क्योंकि उससे आपकी जिंदगी और रचनात्मकता इनसे नफरत करने में ही निकल जाएगी और आप ना ही तो इनके मर्म को जान पाएंगे और ना अपने आध्यात्म को परख पाएंगे|

चौथा इन सबमें से घूम फिर के अंत में सवाल और निचोड़ यही निकलेगा कि, "जब पुराण महात्मा बुद्ध को हिन्दू धर्म का नौवां अवतार बताते हैं तो उस अवतार की उपासना क्यों नहीं करने देते?" यह सवाल मैंने अंतहीन शास्त्रार्थियों से किया, परन्तु किसी के पास जवाब नहीं| परन्तु बुद्ध तक पहुँचने और उस पर स्थिरता से जमने के लिए इन लोगों के इन काल्पनिक शक्ति से रचित ग्रंथों से निकलना जरूरी है| अन्यथा यह आपमें संशय बनाये रखने से बाज नहीं आएंगे और आप इन्हीं में आध्यात्म तलाशते-तलाशते मर जायेंगे, बुद्ध को तो छू भी नहीं पाएंगे| छोटी उम्र में निकल लीजिए, ताकि बड़ी उम्र में फिर वो कर सको जो मानवता के लिए सबसे सर्वोत्तम होता है|

और मेरे ख्याल से अब जो भाजपा और आरएसएस की सरकार है यह कार्य करके बड़ा बढ़िया कर रही है| हरयाणा सरकार इस बात के लिए बधाई की पात्र है कि एक ज़माने और पुरातन काल में शुद्र-दलित-ओबीसी के लिए प्रतिबंधित यह पुस्तकें अब सिलेबस में डाली जा रही हैं| इनको पढ़ें, आपको इनमें रोजगार का मौका मिले तो करें, अन्यथा अपने रोजगार संबंधी विषय पर केंद्रित जरूर रहें| क्योंकि एक विशेष वर्ग के अलावा अगर कल को इनको पढ़ के धर्म-गुरु भी बनना चाहोगे तो जैसे अभी हाल ही में एक शहर में स्वर्ण पुजारियों द्वारा दलितों को पुजारी बनने का विरोध किया गया, ऐसे ही पाबंदियों में डाल दिए जाओगे|

यह लोग आलोचना के मामले में बड़े डरपोक होते हैं, तर्क-वितर्क में शून्य होते हैं, इनकी सहनशक्ति तो हमेशा विस्फोटक मोड में रहती है; किसी ने इन चीजों की थोड़ी सी भी आलोचना करी नहीं कि यह थर-थर कांपने लग जाते हैं| वैसे आशाराम, रविशंकर, मुरारी बापू आदि-आदि का भी फूफा बनने का टैलेंट अपने में भी जन्मजात है| पर इनके रास्ते चल के किसान-दलित-पिछड़े का भला नहीं हो सकता, इसलिए यह राह नहीं चुनी| कल को इनके जैसी कोई राह चुननी भी पड़ी तो बुद्ध या यौद्धेयों वाली चुनेंगे|

अंत का सार यही है कि इन रचनाओं को ही आपको यह कह के "कुँए का मेंढक" बनाने की कोशिशें की जाएँगी कि यही संसार है, यह जीवन का सार है| नहीं संस्कृत मात्र और यह रचनाएँ मात्र संसार नहीं; संसार है "वसुधैव कुटुंबकम"। इनको भी पढ़ें परन्तु उसको तो शर्तिया पढ़ें जो आपको दुनियां में कहीं भी रहने लायक और रोजगार करने लायक बनाता हो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 20 June 2016

वेश्या और मूल हरयाणवी समाज!

वेश्या को भी एक समाज जो सहजता से लेता हो, उसके लिए अलग बस्ती-सड़क या रोड़ जो ना बनाता हो, वेश्या दलित के घर की हो या स्वर्ण घर की, सब बनती भी अपनी मर्जी से हैं, वेश्या बनने के लिए किसी पे देवदासी बन मंदिरों में बैठने या विधवा हुई तो विधवा-आश्रम में बैठने जैसी कोई कंडीशन नहीं, वेश्या हुई तो उसको अछूत या गिरी हुई जो समाज ना दिखाता हो, वेश्या हुई तो उसको कोई समाज बिलकुल सहजता से लेता हो, वेश्या हुई तो कोई समाज उसको अपने में ही घुलामिला के रखता हो; हाँ, बस शरीफ परिवार उससे दूरी जरूर रखते हैं, अपने बच्चों-मर्दों को उससे दूर रखते हैं, पंरतु रहते एक ही गाँव-नगरी में हैं; ऐसी धरती है मेरे हरयाणा की| और यह मैं कोई एलियंस की भांति दूसरे गृह-राज्य-संस्कृति का प्राणी नहीं, अपितु उसी संस्कृति से जन्मा-पला-बढ़ा हुआ कहता हूँ|

और लोग बोलते हैं कि यहां सबसे मेल-डोमिनेंट सोसाइटीज रहती हैं, यहां औरत को सम्मान नहीं; स्थान नहीं| मैंने मेरे गाँव में दलित से ले के स्वर्ण महिला तक अपनी मर्जी से वेश्यावृति करती देखी हैं; परन्तु उनके प्रति कोई घृणित या मलिन मन नहीं रखता; उनको भी अन्य औरतों की भांति चाची-काकी-दादी कह के ही बोला जाता है| असल में हम हरयाणवी तो उनको सीधे-मुंह तो वेश्या कहने तक से कतराते हैं; क्योंकि हम उनके लिए सामान्य समाज में वापिस लौट आने का ऑप्शन खुला रखते हैं| यह है उस धरती की संस्कृति जिसको हरयाणा के साथ-साथ जाटलैंड और खापलैंड भी बोला जाता है|

इतनी बेबाकी से इस पहलु को रखने पर बेशक बहुत से लोग मुझसे खफा हों परन्तु मैं ऐसे जाहिल-गंवारों की संस्कृति से तो बेहतर संस्कृति रखता हूँ, जो औरत को अपने श्लोकों में "ढोल, गंवार, शुद्र, नारी, यह सब ताड़न के अधिकारी" लिखते हैं और समाज में दर्शनशास्त्र और समाजशास्त्र के स्वघोषित पुरोधा प्रचारित किये जाते हैं| और यह उन वजहों में से एक सबसे बड़ी वजह है कि क्यों हरयाणा की धरती को धर्मसंगत नहीं बोला जाता| यकीन नहीं हो तो कभी आजमा के देख लेना, किसी कितने ही खुद में स्वघोषित और स्वप्रमाणित धर्मधीस से बहस कर लेना, उसको गुस्सा दिलाना चुटकियों का खेल है|

और क्यों इस धरती पर आकर ही धर्म वालों के फैसले भी युद्ध के जरिए ही होते हैं| क्योंकि यहां आकर इनके उलजुलूल तर्क धरासायी होते रहे हैं और जब धर्म वाले के तर्क धरासायी हो जाते हैं तो उसको क्रोध उठता है और वो क्रोध में लड़ने लग जाता है| इसीलिए तो इनके सारे देवी-देवता भी अस्त्रों से लैश होते हैं; दूर से इशारा होता है कि या तो हमारी बात मान जाना वर्ना कलह-कलेश को तैयार रहना| सिर्फ बुद्ध, नानक और महावीर हुए हैं; जो अस्त्रों से और जानवर की सवारी से लैश नहीं थे| उनको भी इन्होनें तड़ीपार कर दिया| यही कड़वी सच्चाई है, आपको भगवान कहलाना है तो आपको अस्त्रों से लैश होना और किसी जानवर की पद्दी (पीठ) पे बैठना पहली शर्त है|

खैर, इससे पहले कि शीर्षक से भटक कर ज्यादा दूर निकल जाऊं; लेख को यहीं समेटता हूँ और इतना ही कहता हूँ कि हरयाणवियो अपनी संस्कृति के खुलेपन को पहचानो और इसको सामने रखना शुरू करो| वर्ना वो लोग तो आगे बढ़ते ही जा रहे हैं जो आपको हरयाणा की धरती पर हरयाणवी होने और कहलाने के भी चोर बना देंगे|

विशेष: हरयाणा-हरयाणवी यानि वर्तमान हरयाणा, दिल्ली, वेस्ट यूपी, उत्तराखंड, उत्तरी राजस्थान|

बहुत करी "विद्रोह-क्रांति", बहुत करी "हरित-क्रांति", बहुत करी "श्वेत-क्रांति", अब हो जाये एक "लेखन-क्रांति"!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 17 June 2016

पलायन, कौतूहल और हल!

आज के दिन मेरी जन्मनगरी निडाना (हिंदी में गाँव) में एक भी बनिया परिवार नहीं है, सब रोजगार की प्राथमिकताओं के चलते छत्तीसगढ़ से ले के जींद-दिल्ली तक पलायन कर चुके हैं| आज से करीब 20 साल पहले तक 10 के करीब बनिया परिवार रहते थे नगरी में| और लगभग यही कहानी हर हरयाणवी नगरी की है| बनिया तो बनिया, बनिए से ज्यादा तो हर नगरी से जाट, ओबीसी यहां तक कि नौकरी पेशा तो एससी-एसटी तक ने पैतृक नगरियां छोड़ के पास-पड़ोस शहरों में कोठियां बना के वहाँ पलायन कर लिया है|

अब जिस तरीके से यह गंवार *(नीचे नोट देखें) "कैराना" का मामला उठा रहे हैं; उसको देखते हुए तो लगता है कि यह हरयाणा में अगला झगड़े-फसाद का मुद्दा यही उठाने वाले हैं| और क्योंकि 70% हरयाणा की नगरियां (हिंदी में गाँव) जाट बाहुल्य हैं; तो जाट रहो तैयार एक और इल्जाम भुगतने को कि इनके आतंक के चलते यह सब पलायन हुए हैं| वाह बैठे-बिठाए क्या नायाब फार्मूला हाथ लगा है फुस्स हो चुके "जाट बनाम नॉन-जाट" यानि 35 बनाम 1 के फसाद को फिर से हवा देने का|

तोड़ की कह दूँ भाई, "यें लातों के भूत हैं, बातों से नहीं लठ खा के पैंडा छोड़ेंगे!"; तो जो अगर अबकी बार इन्होनें ऐसा कोई बेहूदा राग अलापा, इनके तसल्ली से टाकणे छांग दो|

और बिहार-बंगाल-आसाम के जितने भी लोग एनसीआर-हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी में नौकरी करते हैं, तैयार रहें; क्योंकि अब यह लोग आपके पलायन का भी हल करेंगे; आपको आपके गृह-राज्यों में ही रोजगार उपलब्ध करवा के, आपकी गृह-राज्य वापसी अभियान चलवा के|

*नोट = गंवार ही कहूंगा इनको क्योंकि यह जो अब मुद्दा उठाया है यह मेरे हरयाणा में "ठाली न्यान काटडे मूंदें" वाली तर्ज पर "चूचियों में हाड ढूँढ़ने वाले" निठ्ठले-नाकारा लोग उठाया करते हैं| इनके लच्छन देख के तो लगता ही नहीं कि जनता ने कोई सरकार चुनी है, ऐसा प्रतीत होता है कि गुंडे-लफंगों को देश की ऐसी-तैसी करने का लाइसेंस थमा बैठे हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"लेखन-क्रांति" ही 'आइडेंटिटी-क्राइसिस‘ से मुक्ति!

ज्यादा पीछे से नहीं उठाऊंगा,
गॉड-गोकुला के काल से आगे की बतलाऊँगा!
1669, 1748, 1764, 1805, 1837, 1857, 1914, 1939, 1944
यह वो कुछ तारीखें हैं जब तुमने शौर्य व् युद्ध-कौशल का डंका बजाया,
परन्तु इतिहास में यथोचित स्थान फिर भी ना पाया,
क्योंकि कलम का सरमाया किसी और को था हुआ बनाया!
आज़ादी के बाद अपनी हल की क्षमता से सबको जनवाया,
देश का हर गोदाम "हरित-क्रांति" के अनाजों से भर बतलाया!
फिर "श्वेत-क्रांति" से पूरे हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी को दूध-दही की धरती गुंजवाया।
परन्तु क्या सरकार-साहित्य-इतिहास-संस्कृति की लेखनी में अब भी उचित सम्मान पाया?
नहीं, क्योंकि कलम का सरमाया अभी भी किसी और को ही है हुआ बनाया।
"युद्ध-क्रांति", "हरित-क्रांति", "श्वेत-क्रांति" के बाद बारी है "लेखन-क्रांति" की,
ऐ दुर्दांत! कलम उठा ले, अपनी "आइडेंटिटी" का सरमाया खुद को बना ले।
यह ऐसा हथियार है जो हथिया लिया तो सूदखोर-पाखंडियों का मिट जायेगा अपवाद!
सब स्वत: मर जायेंगे, जब सामने होगा तेरी अपनी लेखनी का वाद!
इतना समझ लो यह इंग्लैण्ड नहीं, जहां अलिखित सविंधान-संस्कृति से ही खुद को जनवा लोगे,
कदम-कदम पर कलम के सौदागर हैं, इनकी सौदागरी सूखा दो; स्वत: ही स्व को विश्व में गवा लोगे।
इतना जान लो, इतना समझ लो, जब तक नहीं घुसोगे सवैंधानिक तंत्र में राष्ट्रवादियों की तरह,
रहोगे इनके मुंह ताकते, और खुद ही खुद को काटते बेबस आदिवासियों की तरह।
हर गाम-खेड़ा तुम्हारा तुम्हारी संस्कृति-सभ्यता-इतिहास का अनूठा और नायाब गणतांत्रिक ठिकाना है,
बस ठान लो इतना कि अब हर बार छुट्टियों में कहीं और नहीं, अपने गाम का लेखा-जोखा लिखने जाना है।
लिख डालनी है अपने खेड़े की हर आध्यात्मिक-सांस्कृतिक-ऐतिहासिक झाँकी,
और फिर परखी जाए "analogy" पर विश्व की इसकी सर्वश्रेष्ठता की फाकी।
कुछ लगेगा ना तुम्हारा जेब से, क्योंकि इंटरनेट-स्मार्टफोन-लैपटॉप-कलम के खाली-समय प्रयोग की दिशा भर मोड़नी है।
डाल लो आदत में इसको अगर अनुचित लेखन के बरगद की जड़ चुपचाप कुरेद के एक झटके बिना फटके उखाड़नी है।


जय यौद्धेय! - फूल मलिक

विशेष: 1669 (God Gokula Revolt), 1748 {One sided win of Suraj Sujan (Badan Singh & Ishwari Singh alliance) over Rajputs, Maratha, Holkars & Mughals all on opposite front}, 1764 (Delhi win of Bhartendu Jawahar Singh), 1805 (Bharatpur win over British), 1837 (Maharaja Ranjit Singh win over Afghans), 1857 (Raja Nahar Singh win over Britishers and Sarvkhap Haryana revolt), 1914 (WW1), 1939 (WW2), 1944 (Azad Hind Fauj)

 

Thursday, 16 June 2016

धर्म के नाम पर हमें नहीं जरूरत ऐसे डरपोकों और कामचोरों की!

क्या जब एक सैनिक बॉर्डर पर देश की रक्षा करता है तो वो सिविलियन्स को सहायता के लिए पुकारता है? - नहीं बिलकुल नहीं|

क्या जब एक किसान खेतों में कड़ी सर्दी-गर्मी-लू-तूफान-ठंड-रात-दिन में खट के देश के लिए अनाज पैदा करता है तो वो किसी सिविलियन को पुकारता है? - नहीं बिलकुल नहीं|

तो फिर इन धर्म वालों को जब-जब यह लगता है या समाज को यह लगवाना होता है कि धर्म संकट में है तो यह क्यों हर बार सिविलयंश को पुकारते हैं?

और वो भी बावजूद धर्म-रक्षा के नाम पर दुनिया जहान की फलानि सेना, धकडी सेना साथ रखने के? वो भी बावजूद सिविलयंस से फुल्ल दान-चढ़ावा-चंदा के रूप में फाइनेंस तक पाने के?

क्या धर्म के नाम पर सिविलियन इनको दान-चंदा-चढ़ावा देकर अपना फर्ज पूरा नहीं कर देता, ठीक वैसे ही जैसे सिविलयन के टैक्स से फ़ौज के लिए पैसा देने से उसका देश की रक्षा का फर्ज पूरा हो जाता है?

किसान और जवान तो बिना किसी दान-चढ़ावा-चंदा के भी अपने दम पर देश-धर्म-समाज के लिए अपना फर्क पूरा करते हैं| तो फिर यह धर्म के ठेकेदार चुपचाप अपना काम करने की बजाये क्यों समाज को हर दूसरे दिन डंडा किये रहते हैं?

और अगर अपना काम ढंग से नहीं कर सकते तो छोड़ें हर धर्मकेंद्र व् धर्मस्थल को, करें सिविलियन के हवाले| हमें नहीं जरूरत ऐसे डरपोकों और कामचोरों की जिनको जब दान-चढ़ावा-चंदा ढकारना हो तो खुद, और जब धर्म की रक्षा का सवाल उठे तो व्यर्थ का हाहाकार और सविलियंश को डंडा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 15 June 2016

लेखन-जगत में परम्परागत ताकतों को पीछे धकेलना है तो करनी होगी, इस प्रकार की "लेखन-क्रांति"!


छटा बिंदु खासतौर पर पढ़ें!

1) कोई भी पोलिटिकल पार्टी या आरएसएस जैसा संगठन क्या कर रहा है, इनकी आलोचना मात्र से ध्यान हटाया जाए, और उस अकाट्य राह पर मंथन किया जाए जो हमें इनसे पार पा के सर छोटूराम की हकीकत वाली राजनीति और उस राजनीति स्वरूप उनके बनाये समाज को फिर से बनाने की और अग्रसर करे|
2) हमें कुछ उदासीनताएं तोड़नी होंगी, कुछ छोड़नी होंगी; और लेलिन, कार्ल मार्क्स, से गुएरा का इंडियन वर्जन सर छोटूराम को इनके बराबर रख के पढ़ना होगा| मानता हूँ यह सारे लेफ्टिस्ट थे परन्तु लेफ्ट के भारतीय स्वरूप को मनुवाद ने हाईजैक कर रखा है| और इसीलिए भारतीय लेफ्ट ने आज-तलक भी हरयाणा-पंजाब में सर छोटूराम को नहीं उठाया| वर्ना जो समाजवाद का प्रैक्टिकल सर छोटूराम भारत के यूनाइटेड-पंजाब में करके चले गए वो तो यह अंतर्राष्ट्रीय हस्तियां ही कर पाई थी |
3) हमें हर हालत-हालात में सर छोटूराम के हर पहलु को पढ़ना होगा, खोजना होगा और उनकी सोच और विधा पर यूनियनिस्ट शोध प्रयोगशाला बनानी होगी|
4) इसके साथ ही बाबा साहेब आंबेडकर, सरदार प्रताप सिंह कैरों, सरदार भगत सिंह, महाराजा सूरजमल, महाराजा रणजीत सिंह आदि-आदि के राजनीतिशास्त्र व् दर्शनशास्त्र भी इस प्रयोगशाला में शामिल करने होंगे|
5) हमें यह बात उठानी होगी कि सिर्फ अक्षरी ज्ञान ना होने की वजह से किसान अनपढ़ नहीं होता| जो इंसान धरती का सीना चीर, समाज का पेट भरने का दैवीय ज्ञान रखता हो; वह अक्षरी तौर पर अनपढ़ होते हुए भी अनपढ़ नहीं होता| अनपढ़ तो बाबे-मोडडे-अफसर-मैनेजर होते हैं जो हर प्रकार के पोथे-ग्रन्थ-मैनेजमेंट सिलेबस आदि पढ़ के भी अपने लिए दो दाने अनाज के पैदा नहीं कर सकते| और यही वो इनकी अनपढ़ता कहो या असमर्थता, इसको छुपाते हैं इन बातों के पीछे, जब यह किसान को जाहिल-गंवार-अनपढ़ कहते हैं| यानि कृतज्ञ होने की तमीज की बजाये कृतघ्नता दिखाते हैं यह किसान को| अत: आज की किसान की औलादों को अपने स्वाभिमान को ऊँचा बनाये रखने हेतु और इन परजीवी क्लासों को बेवजह किसान के सर पे बैठें देने से रोकने हेतु, इनको यह बातें याद दिलाये रखनी होंगी|
6) अपने-अपने गाम-खेड़े का पूरा इतिहास अपने-अपने गाँव के बुजुर्गों (मर्द-महिला दोनों) के पास बैठ के उनकी क्वोटेसन समेत लिखना होगा| हर यूनियनिस्ट इसको अपनी छुट्टियों की जॉब बना ले| विद्यार्थी हो, नौकरीपेशा हो; छुट्टियों में लैपटॉप-नोटबुक या कॉपी-पेन के साथ अपने-अपने गाम-खेड़ों में जाओ और बुजुर्गों के साथ बैठो और लिखो अपने-अपने गाँव का हर पहलु| किसान-दलित-पिछड़ा समाज को आज के दिन इस "लेखन-क्रांति" की जरूरत है; यह खड़ी कर ली; समझो लेखन जगत से परम्परागत ताकतों को पीछे धकेल दिया| और इस समूचे काम को एक जगह ऑनलाइन लाने के लिए मैं एक वेबसाइट पर काम कर रहा हूँ जो उत्तरी-भारत का अनाज का कटोरा कहे जाने वाले क्षेत्र को तो कम-से-कम कवर करेगी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक