Wednesday, 3 April 2013

गाँव की लड़की गाँव की 36 बिरादरी की बेटी

गाँव की लड़की गाँव की 36 बिरादरी की बेटी
"एक ऐसा विधान जो वासना और कामुकता पर नियन्त्रण करना सिखाता है"

आज के सन्दर्भ में इस तथ्य को शायद ही कोई समझे या मान्यता दे, क्योंकि मर्यादायें रही नहीं, स्वार्थ का स्वभाव बढ़ता जा रहा है और नैतिकता का पैमाना/दायरा सिकुड़ता जा रहा है| लेकिन हमारे बुजुर्गों नें जब यह सिद्धांत बनाया था तो इसकी अध्यात्मिक वजह थी युवक-युवती के ध्यान और मन की चंचलता की भटकन को न्यून कर उसको सम्पूर्ण शारीरिक एवं मानसिक विकास, स्थिरता और सुदृढ़ता के पथ पर एकाग्रित करवाना, ताकि वह वासना के वेग को सहना भी सीखे और संजोना भी| इसका दार्शनिक पहलू यह होता था कि इससे इंसान में सहनशक्ति एवं धैर्य का संचय होता था, जिसकी कि आज के युग में कमी बताई जा रही है| ऐतिहासिक पहलू यह था कि बाहरी शक्तियों से अपनी सिमता को बचाया जा सके और गाँव में सुख-शांति और हर्षोल्लास बना रहे; वही हर्षोल्लास जो आज के दिन हर गाँव-गली-नुक्कड़ से हर तीज-त्यौहार के मौके पर नदारद हो चुका है और हर हँसी-ख़ुशी की परिभाषा गली-नुक्कड़ से सिमट कर घरों की चारदीवारियों में कैद हो चुकी है और सामाजिक खुशियाँ बेरंग और बेनूर सी हो चुकी हैं|

इस स्वर्ण सभ्यता की कमी से समाज से जो हर्षोल्लास और रसता रिक्त हो गई उसको भरने को पता नहीं कब और कौनसा नया रिवाज या मान्यता चलन में आयेगी परन्तु उसके इंतज़ार में समाज इस खुशियों के बिखराव की राह पर इतना आगे ना निकल जाए कि हमारी सभ्यता एक बिना पते की चिठ्ठी ही ना बन जाये|

इन मान्यताओं को व्यक्तिगत आजादी की राह में रोड़ा मान, झील के ठहरे हुए पानी सा बताने वाले ये क्यों भूल जाते हैं कि जब पैर में कांटा चुभता है तो कांटे को निकाल के फेंका जाता है ना कि पूरा अंग या शरीर ही उस कांटे के दर्द से निजात पाने हेतु काट के फेंक दिया जाता हो?