आखिर नया लैंड बिल बना किसलिए है? ताकि एनसीआर में हर रोज अन्य राज्यों से
चले आ रहे लोगों को बसाने के लिए फैक्ट्री-मकान-इंफ्रा दिया जा सके? और
इससे जो स्थानीय यानी नेटिव एनसीआर निवासी हैं, उनपे जो
मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक असर पड़े रहे हैं, उसका क्या?
अब यह आवाज उठाई जानी चाहिए की एनसीआर में बहुत हो लिया विकास, इन विकास के आकाओं को कहा जाए कि यह सुदूर राज्यों में भी जा के फैक्टरियां लगावें, ताकि एनसीआर के लोगों को बे-मापे हुए, गैर जरूरी मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक दबाव व् तनाव से बचाया जा सके|
लैंड बिल का विरोध कर रहे तमाम संगठनों को इस विरोध को इस एंगल से उठाना चाहिए, यही सबसे कारगर रास्ता है इसका, ताकि इसके साथ-साथ स्थानीय आबादी के मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक मुद्दों की आवाज भी बुलंद की जा सके|
हम हरयाणवी तो अब हरयाणवी हो के भी हरयाणवी नहीं रहे| बाहर से आने वालों की चिंता बहुत हो ली और कर ली, बहुत मानवता और भाईचारा दिखा लिया| कहते हैं कि अति हर चीज की ना सिर्फ बुरी होती है, अपितु स्वघाती भी होती है और अब यह स्वघात वाले स्तर तक पहुँच चुकी है| 1947 में पाकिस्तान से पंजाबी आते हैं तो तीन पीढ़ियां गुजरने पर वो हरयाणवी नहीं (सांस्कृतिक ना सही जन्म के आधार पर भी खुद को हरयाणवी नहीं कहते, जबकि इस सच को तो भगवान भी नहीं झुठला सकता) बन पाये, 1984-86 में पंजाब के आतंकवाद से तंग हो कर यही पंजाबी लोग एक बार फिर हरयाणा में शरण लेते हैं तो नतीजा अभी ताजा-ताजा स्थानीय जातियों के अधिकारों की आवाज के विरुद्ध (जाट आरक्षण के विरुद्ध) वो भी इनका उससे कोई मतलब ना होते हुए आवाज उठाने में तब्दील हो जाता है; फिर हरयाणा के मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर मिलकर लड़ने की बात तो गई भांग के भाड़े|
अगर बाहर से आये लोग शांति से बसने की बजाये जाट बनाम नॉन-जाट का जहर फैलाएंगे तो फिर कैसे चलेगा? स्थानीय हरयाणवी में फूट पड़ेगी तो हमारे आर्थिक-मानसिक-संस्कृति मुद्दों पर कौन लड़ेगा? और अब जब से बिहारी-बंगाली-असामी यहां आया है, तब से उधर के जो भी लोग मीडिया या जेएनयू जैसी यूनिवर्सिटीज में बैठे हैं सब हरयाणा की संस्कृति पे जहर उगल रहे हैं| यानी हम अच्छे हैं या बुरे इसके एक तरफ़ा सर्टिफिकेट ना सिर्फ पूरे देश को वरन विश्व स्तर तक बाँट रहे हैं|
आखिर इस पलायन के स्थानीय समाज पर पड़ने वाले इस नकारात्मक पहलु पर कौन ध्यान देगा? इन लोगों के हमारे स्थानीय मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पहलुओं पर होने वालों हमलों से हमें कौन बचाएगा? मुंबई के मराठे गलत नहीं थे अगर उन्होंने वहाँ से उत्तर भारतियों को भगाया था तो; परन्तु हाँ उनका तरीका गलत था पर उनका कदम सही था|
अब हरयाणा व् एनसीआर में बैठी तमाम नेटिव जातियों को इस मुद्दे को कानूनी रूप से टैकल करवाना चाहिए और इनके यहां आने से हमें यानी नेटिव्स को जो मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक प्रताड़नाएं सहन करनी पड़ती हैं, इनका हिसाब सरकार से ले तमाम बुद्धिजीवी प्रकोष्ठों व् अन्य संबंधित विभागों से माँगना शुरू कर देना चाहिए|
जय योद्धेय! - फूल मलिक
अब यह आवाज उठाई जानी चाहिए की एनसीआर में बहुत हो लिया विकास, इन विकास के आकाओं को कहा जाए कि यह सुदूर राज्यों में भी जा के फैक्टरियां लगावें, ताकि एनसीआर के लोगों को बे-मापे हुए, गैर जरूरी मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक दबाव व् तनाव से बचाया जा सके|
लैंड बिल का विरोध कर रहे तमाम संगठनों को इस विरोध को इस एंगल से उठाना चाहिए, यही सबसे कारगर रास्ता है इसका, ताकि इसके साथ-साथ स्थानीय आबादी के मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक मुद्दों की आवाज भी बुलंद की जा सके|
हम हरयाणवी तो अब हरयाणवी हो के भी हरयाणवी नहीं रहे| बाहर से आने वालों की चिंता बहुत हो ली और कर ली, बहुत मानवता और भाईचारा दिखा लिया| कहते हैं कि अति हर चीज की ना सिर्फ बुरी होती है, अपितु स्वघाती भी होती है और अब यह स्वघात वाले स्तर तक पहुँच चुकी है| 1947 में पाकिस्तान से पंजाबी आते हैं तो तीन पीढ़ियां गुजरने पर वो हरयाणवी नहीं (सांस्कृतिक ना सही जन्म के आधार पर भी खुद को हरयाणवी नहीं कहते, जबकि इस सच को तो भगवान भी नहीं झुठला सकता) बन पाये, 1984-86 में पंजाब के आतंकवाद से तंग हो कर यही पंजाबी लोग एक बार फिर हरयाणा में शरण लेते हैं तो नतीजा अभी ताजा-ताजा स्थानीय जातियों के अधिकारों की आवाज के विरुद्ध (जाट आरक्षण के विरुद्ध) वो भी इनका उससे कोई मतलब ना होते हुए आवाज उठाने में तब्दील हो जाता है; फिर हरयाणा के मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर मिलकर लड़ने की बात तो गई भांग के भाड़े|
अगर बाहर से आये लोग शांति से बसने की बजाये जाट बनाम नॉन-जाट का जहर फैलाएंगे तो फिर कैसे चलेगा? स्थानीय हरयाणवी में फूट पड़ेगी तो हमारे आर्थिक-मानसिक-संस्कृति मुद्दों पर कौन लड़ेगा? और अब जब से बिहारी-बंगाली-असामी यहां आया है, तब से उधर के जो भी लोग मीडिया या जेएनयू जैसी यूनिवर्सिटीज में बैठे हैं सब हरयाणा की संस्कृति पे जहर उगल रहे हैं| यानी हम अच्छे हैं या बुरे इसके एक तरफ़ा सर्टिफिकेट ना सिर्फ पूरे देश को वरन विश्व स्तर तक बाँट रहे हैं|
आखिर इस पलायन के स्थानीय समाज पर पड़ने वाले इस नकारात्मक पहलु पर कौन ध्यान देगा? इन लोगों के हमारे स्थानीय मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पहलुओं पर होने वालों हमलों से हमें कौन बचाएगा? मुंबई के मराठे गलत नहीं थे अगर उन्होंने वहाँ से उत्तर भारतियों को भगाया था तो; परन्तु हाँ उनका तरीका गलत था पर उनका कदम सही था|
अब हरयाणा व् एनसीआर में बैठी तमाम नेटिव जातियों को इस मुद्दे को कानूनी रूप से टैकल करवाना चाहिए और इनके यहां आने से हमें यानी नेटिव्स को जो मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक प्रताड़नाएं सहन करनी पड़ती हैं, इनका हिसाब सरकार से ले तमाम बुद्धिजीवी प्रकोष्ठों व् अन्य संबंधित विभागों से माँगना शुरू कर देना चाहिए|
जय योद्धेय! - फूल मलिक
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