Tuesday, 25 August 2015

जमीन उसी जाति/समुदाय की हो जिसने उसका सदुपयोग किया हो, देशहित के लिए अन्न-उत्पादन में अद्वितीय भूमिका निभाई हो!

अगर "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी" के फार्मूला से आरक्षण लागू करवाने का वक्त आ गया है तो इससे पहले यह अध्यन होना चाहिए कि 1934 में सर छोटूराम द्वारा लागू करवाये गए 'कर्जा मनसूखी' व् 'जमीनी मल्कियत' के तहत व् आज़ादी के बाद विभिन्न जन-कल्याण योजनाओं के तहत विभिन्न जातियों को दी गई जमीनों का किन-किन जातियों ने देश के कृषि उत्पादन हेतु उत्तम प्रयोग किया, किन-किन ने उसको बेच दिया (सरकारी व् पब्लिक प्रोजेक्टों के तहत भू-अधिग्रहण के अतिरिक्त)| 1934, 1947, 1980 और 2010 में किस जाति के पास कितने % जमीन की अदला-बदली हुई व् कितनी जमीन किसने किसको बेचीं व् किसने खरीदी| कब कितनी जमीनें किस-किस जाति को अलॉट हुई, उन्होंने उन जमीनों का क्या किया? आज किस जाति के पास कितनी जमीन है और क्या वह उसका देश के लिए अन्न-उत्पादन करने में अपेक्षित प्रयोग कर रही है कि नहीं|

ताकि इससे यह पता लगाया जा सके कि देश की सर्वोत्तम कृषक जाति कौनसी है? देश में जमीन को सबसे सजा-संवार के कौनसी जाति रखती है| और कौनसी ऐसी जातियां हैं जो इसको बेच के शहरों को पलायन कर चुकी हैं अथवा बेच के दूसरे कार्यों का रूख कर चुकी हैं|

क्योंकि मुझे पता है भारत में कुछ ऐसे हरामी जातियां और लोग बैठे हैं जो जब "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी" की बात आएगी तो परम्परागत कृषक जातियों को ऊँगली करने हेतु आवाज उठाएंगे कि फिर तो सबकी ऐसी ही हिस्सेदारी जमीन में भी होनी चाहिए (चाहे बाप-दादा ने हल चला के ना देखा हो कभी)| 75-80 साल पहले जब सर छोटूराम ने यह फार्मूला सुझाया था तब से ले के अब तक इसको किसी ने नहीं उठाया, परन्तु अब जो लोग राज कर रहे हैं लाजिमी है वो देश में बवाल खड़ा करने को और आरक्षण को एक कभी ना सुलझने वाली परिस्थिति बनाने हेतु इसको देर-सवेर जरूर उठावेंगे|

और ऐसी आवाज उठने की परिस्थिति में कृषक समाज को फिर मंदिर और फैक्टरियों की प्रॉपर्टी और खजाना भी जिसकी जितनी संख्या के हिसाब से बंटवाने की आवाज उठवाने को तैयार रहना होगा|

मतलब यह है कि दो-चार जो देश की खुराफाती जातियां हैं वो अब इस पूरे आरक्षण के गेम को "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी" के फार्मूला में उलझा के पूरा होच-पॉंच फैलाने वाली हैं|

विशेष: यह मेरी चेतना के अंदर की आवाज ने मुझे कहा है, यह सच होगा या नहीं होगा, कितना होगा और कितना नहीं होगा वो भविष्य के गर्भ में छिपा है| परन्तु इतना जरूर है कि अब अपनी योजनाएं इन हो सकने वाली परिस्थितियों को भी ध्यान में रख के बनावें| वैसे ऐसा हुआ तो परम्परागत कृषक जातियों का ही पलड़ा भारी रहने वाला है बशर्ते वो अपनी कूटनीति अच्छे से घड़ के चलें|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

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