Tuesday, 6 October 2015

हरयाणा में जिन्होनें अपने ही हाथों पंजाबी भाषा का गला घोंटा वही खुद को पंजाबी भी कहलाते हैं? आखिर यह कैसे पंजाबी हुए?

सार: 1957 में पंजाब के हिंदी भाषी क्षेत्र यानि आज के हरयाणा-हिमाचल के स्कूलों में "पंजाबी भाषा" लागु करने के खिलाफ ऐतिहासिक "हिंदी सत्याग्रह" खड़ा करने वाला स्वघोषित पंजाबी समुदाय आखिर किस मुंह से अपने आपको पंजाबी कहता है?

सनद रहे यह आंदोलन मुख्यमंत्री श्रीमान भीमसेन सच्चर द्वारा कभी "सच्चर फार्मूला" के तहत तब के पंजाबी भाषी क्षेत्रों यानी आज के पंजाब में आठवीं तक हिंदी और हिंदी भाषी क्षेत्रों यानि आज के हरयाणा-हिमाचल में आठवीं तक "पंजाबी" भाषा विषय लागू करने के खिलाफ सिर्फ इसलिए खड़ा किया गया था क्योंकि इनको एक सिख जाट मुख्यमंत्री सरदार प्रताप सिंह कैरों (छोटे छोटूराम) का मुख्यमंत्री बनना रास नहीं आया था|
वरना भीमसेन सच्चर से ले गोपीचंद भार्गव तक ने 1947-56 तक पंजाब में मुख्यमंत्री की, तब इनमें से किसी को इस फार्मूला के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने की नहीं सूझी| और यह पंजाब में ऐसे-ऐसे षड्यंत्र रचते थे इसीलिए 1984-86 में पंजाब के असली पंजाबियों ने इनको वहाँ से खदेड़ के हरयाणा की ओर धकेल इनकी असामाजिक करतूतों से पिंड छुड़वा लिया था|

भूमिका: बड़ा दुःख होता है जब मेरे जैसे सिर्फ धार्मिक ही नहीं अपितु जातीय सेक्युलर इंसान को यह गड़े-मुर्दे उखाड़ने पड़ रहे हैं| परन्तु जब हरयाणा के सीएम खटटर साहब हरयाणवियों को कंधे से ऊपर कमजोर कहते फिर रहे हैं तो उखाडूं भी नहीं तो और क्या करूँ? अपनी और आगे की जनरेशन को इन चीजों बारे बताना भूला हुआ था या कहो इसकी जरूरत महसूस नहीं की थी शायद इसीलिए यह सुनना पड़ा, परन्तु अब यह भूल नहीं करूँगा|

क्या है ना कि एक तो हरयाणवी, ऊपर से जाट वो भी लोकतान्त्रिक परम्परा की सबसे ऐतिहासिक धुर्री खाप गणतंत्र की धर्म-जाति से रहित थ्योरी को मानने वाला| इसलिए हम साम्प्रदायिक कचरे को दिमाग में जगह नहीं दिया करते, दिल में घुसते ही उसका ताबड़तोड़ हिसाब करके, मामले को कन्नी करके आगे बढ़ने वाले लोग हैं, परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि हमें कुछ पता नहीं होता| आखिर विश्व की सबसे प्राचीन सोशल इंजीनियरिंग थ्योरी खाप के ध्वज-वाहक हैं हम, कुछ पता ना होता या कंधे से ऊपर कमजोर होते तो इस थ्योरी को देश की गुलामी, गैरों और अपनों के जुल्मों के तमाम दौरों से सुरक्षित खिवा के यहां तक ना ला पाते|

"अगला शर्मांदा भीतर बड़ गया, बेशर्म जाने मेरे से डर गया!" कहावत की तर्ज पर समाज की समरसता को बनाये रखने के लालच में अगर हम समाज को तोड़ने की अधिकतर बातों पर शर्माते हुए धूल उड़ाते चलने की प्रवृति के हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि कोई हमें बेशर्म बनते हुए कंधे से ऊपर कमजोर कहेगा| अपितु हम देश में सबसे ज्यादा मात्रा में सच्चे धर्म-जाति-सम्प्रदाय से रहित मानवता आधारित समाज के प्रहरी हैं, इसलिए वो ऐसा कह गया|

जब सीएम की पोस्ट पे बैठे इंसान की तरफ से उसी प्रदेश की एथनिक आइडेंटिटी पे हमला होवे तो निसंदेह यह ऐसा कार्य करता है जैसे नींद से सोते हुए आदमी पे पानी का छब्का या बारिश में भीगे पंछी द्वारा शरीर में स्फूर्ति और गर्माइस लाने हेतु पंखों से बूंदों को झाड़ना| और धन्यवाद श्रीमान खट्टर साहेब और किसी हरयाणवी को आपके इस बयान ने झकझोरा हो या नहीं परन्तु मुझे तो निसंदेह भीतर तक थपेड़ा है|

अब मुद्दे की बात: 15 अगस्त 1947 से ले के 23 जनवरी 1956 तक गोपीचंद भार्गव और भीमसेन सच्चर उस वक्त के संयुक्त पंजाब (पंजाब, हरयाणा और हिमाचल) के 2-2 बार मुख्यमंत्री रहे| सच्चर साहब ने मुख्यमंत्री रहते हुए सयुंक्त पंजाब के सरकारी विभागों में भाषा की वजह से कर्मचारियों को आये दिन आने वाली समस्याओं के निदान हेतु "सच्चर फार्मूला" निकाला और संयुक्त पंजाब के हिंदी भाषी क्षेत्रों में आठवीं तक "पंजाबी" और पंजाबी भाषी क्षेत्रों में "हिंदी" विषय पढ़ाने शुरू करवाये| जब तक वह और भार्गव साहब मुख्यमंत्री रहे, हिन्दू अरोड़ा/खत्रियों के अख़बार उनकी भूरि-भूरि स्तुति करते रहे| परन्तु फिर आया छोटे छोटूराम के नाम से प्रख्यात हुए सरदार प्रताप सिंह कैरों एक जाट सिख का मुख्यमंत्री काल|

गए दिनों तक सच्चर फार्मूला की प्रशंसा में कसीदे घड़ने वाले अख़बारों और इनके अधिकतर हिन्दू खत्री/अरोड़ा मालिकों ने अब हिंदी भाषी पंजाब यानि हरयाणा में "आर्य प्रतिनिधि" सभा की शहरी इकाई को साथ ले के यह प्रचार करवाना शुरू करवा दिया कि कैरों तो हरयाणा में जबरदस्ती पंजाबी भाषा थोंप रहे हैं| जरा इनकी स्याणपत और पंजाबियत देखिये कि खुद को आज भी पंजाबी कहने वाला यह समुदाय ही हरयाणा में पंजाबी भाषा के पढ़ाये जाने के विरुद्ध काम कर रहा था| पंजाबी तो पंजाबी यह तो हिंदी के भी नहीं रहे थे क्योंकि ठीक इसी तरह पंजाब में यह प्रचार कर रहे थे कि कैरों साहब तो पंजाब में हिंदी लागु करके पंजाबी को खत्म करना चाहते हैं|

उस जमाने में इस समुदाय के श्री के. नरेंद्र दिल्ली से और श्री वीरेंद्र जालंधर से दैनिक उर्दू प्रताप और हिंदी वीर अर्जुन का सम्पादन करते थे| इसी प्रकार उर्दू मिलाप के जालंधर संस्करण का सम्पादन करते थे श्री यश और इसके दिल्ली संस्करण का सम्पादन करते थे श्री रणबीर| महाशय कृष्ण प्रताप समूह के मालिक और वीरेंदर और नरेंद्र के पिता थे| इसी प्रकार मिलाप समूह के मालिक श्री खुशहाल चंद ख़ुरशन्द (महात्मा आनंद स्वामी) थे और श्री रणबीर और यश (इनको कैरों साहब ने अपने मंत्रिमंडल में उपमंत्री भी बना रखा था) उनके पुत्र थे| दैनिक उर्दू हिन्द समाचार के मालिक थे लाला जगत नारायण, जो भीमसेन सच्चर के मंत्रिमंडल में शिक्षामंत्री रह खुद "सच्चर फार्मूला" को लागू करवाने वाले विभाग के कर्ताधर्ता रह चुके थे, वर्तमान करनाल सांसद अश्वनी चोपड़ा के पिता व् इन लोगों की कारिस्तानियों की वजह से जब पंजाब में आतंकवाद बढ़ा तो यह जनाब सिख आतंकियों के मुख्य शिकार भी बने थे| यह लोग शहरी आर्य प्रतिनिधि सभाओं के भी विभिन्न पदों पर आसीन थे|

तो कुल मिला के एक ज़माने में "सच्चर फार्मूला" को अपने हाथों लागु करने वाले, इस पर अपने अखबारों में बड़े-बड़े कसीदे घड़ने वाले अब "हिंदी सत्याग्रह" चला के इसी के विरुद्ध सिर्फ इसलिए कार्य कर रहे थे ताकि जनता को भड़का के सरदार प्रताप सिंह कैरों एक जाट को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाया जा सके|

जनवरी 1956 में कैरों साहब के मुख्यमंत्री बनने से ले के अगस्त 1957 तक इन्होनें "हिंदी सत्याग्रह" को इतना बड़ा बना दिया कि जब सरदार प्रताप सिंह कैरों सोनीपत के सर छोटूराम आर्य कॉलेज पधारे तो "हिंदी सत्याग्रह" के नारों के साथ उपस्थित विधार्थी सैलाब ने उनका जबरदस्त विरोध किया, कैरों मुर्दाबाद के नारे लगे| परन्तु सर छोटूराम के सच्चे धोतक कैरों इससे घबराये नहीं और बोलने के लिए खड़े हुए और छात्रों से विनती कि उनको दो मिनट बोल लेने दिया जाए|

उन्होंने स्टेज के पीछे मुड़कर दैनिक उर्दू प्रताप, हिंदी दैनिक वीर अर्जुन और दैनिक उर्दू हिन्द समाचार की प्रतियां मंगवाई| और फिर इन प्रतियों को हाथ में लहराते हुए हिन्दू अरोड़ा/खत्री समाज के नुमाइंदों द्वारा चलाये गए इस पूरे षड्यंत्र की ऐसी बख्खियां उधेड़ते गए कि दो मिनट की जगह पूरा सवा घंटा बोले और साम्प्रदायिक जहर पर खड़े किये पूरे "हिंदी सत्याग्रह" की हवा निकाल के रख दी| शुरू में जो भीड़ उनको सुनने तक को तैयार नहीं थी उस भीड़ ने पिन-ड्राप साइलेंस करके उनको एकटक सुना| और इस तरह 31 दिसंबर 1957 आते-आते "हिंदी सत्याग्रह" आंदोलन अपनी मौत स्वत: ही मर गया और इन लोगों को मुंह की खा के इस आंदोलन को वापिस लेना पड़ा|

और इसके बाद शुरू हुआ एक जाट का रौद्र रूप, प्रताप सिंह कैरों अब इन स्वघोषित कंधों से ऊपर मजबूतों को ऐसे बख्सने वाले नहीं थे| उन्होंने संयुक्त पंजाब की तमाम आर्य प्रतिनिधि सभाओं और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटियों के कर्ताधर्ताओं की सूची मांगी| और पाया कि जबकि ग्रामीण समुदाय का वोट प्रतिशत ज्यादा आता है फिर भी इन दोनों संस्थाओं पर शहरी जातियों के लोग कब्ज़ा किये बैठे हैं| उन्होंने फिर ऐसी कंधे से ऊपर की राजनीति खेली कि अब तक जो ग्रामीण नेता बावजूद चुने हुए होने के परन्तु भोलेपन में इन शहरियों को नेतृत्व सौंप दिया करते थे, अब सीधा उनको नेतृत्व दिया और ऐसा दिया कि आजतक इन दोनों संस्थाओं में पंजाब हो या हरयाणा, मूल और असली पंजाबी व् हरयाणवियों की तूती बोलती है|

परन्तु यह कब बाज आने वाले थे, सरदार प्रताप सिंह कैरों को दबाने के लिए ऐसे षड्यंत्र रचे की पूरा पंजाब आतंकवाद की आग में धू-धू करके जल उठा और जब सिखों और मूल पंजाबियों को पता लगा कि सारे पंजाब में आतंकवाद की मूल जड़ यह हिन्दू अरोड़ा/खत्री समाज है तो 1984-86 में जब सिख दंगे भड़के तो यही सबसे पहले निशाने पर आये और पंजाब से मार-मार के खदेड़े गए| और हम हरयाणवियों ने फिर भी जिंदादिली दिखाते हुए 1947 के बाद एक बार फिर इनको हमारे हरयाणा के अम्बाला-दिल्ली जीटी रोड पर बसने में मदद की| और अब यहां इनको थोड़ा सुख-चैन क्या मिला, सीएम की कुर्सी तक पर सहर्ष क्या स्वीकार कर लिए कि लगे हरयाणवियों को ही कंधे से ऊपर कमजोर बताने|

निष्कर्ष: मतलब "वही ढाक के तीन पात, चौथा होने को ना जाने को|" अपने इसी असामाजिक प्रवृति और व्यवहार के कारण पाकिस्तान में हिन्दुओं में सबसे पहले मुस्लिमों के निशाने पे यही आये और वहाँ से खदेड़े गए| वह तो दो देशों की सीमाओं का बंटवारा था तो लगा कि नहीं यह तो वक्त और राजनीति का तकाजा था इसलिए और धर्म की खातिर वहाँ से विस्थापित हो के इधर आना पड़ा, इसलिए लोगों ने दिलों में भी जगह दी और अपने घर-जमीनों में भी| परन्तु 1984-86 में पंजाब में जब तमाम हिन्दू समाज में से पंजाब आतंकवाद के चलते सिर्फ इनको ही वहाँ से खदेड़ने का यह एपिसोड दोबारा हुआ तो कुछ-कुछ बात समझ में आने लगी| और अब जब हरयाणा में हरयाणवियों द्वारा दिए गए किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिक दुर्भावना से रहित माहौल में बिना किसी हरयाणवी के विरोध के हमने इनके समाज के व्यक्ति को मुख्यमंत्री तक स्वीकार कर लिया तो लगे वही रंग दिखाने और हरयाणवियों को कंधे से ऊपर कमजोर बताने|

मेरे इस समाज से कुछ सवाल और अनुरोध:

सवाल 1) जैसा कि ऊपर पढ़ा हरयाणा में आपने अपने ही हाथों "हिंदी सत्याग्रह" चला के पंजाबी भाषा का गला घोंटा तो फिर भी आप अपने आपको पंजाबी किस मुंह से कहते हैं?
सवाल 2) आपने तो डेड स्याना बनते हुए पंजाब में "हिंदी भाषा" का गला घोंटा तो आप अपने आपको हिन्दू भी किस मुंह से कहते हैं?

मेरा आपसे अनुरोध: हम हरयाणवियों का शरणार्थी और विस्थापितों को ना सिर्फ अपनी जमीन अपितु अपने दिल-विचार में भी स्थान दे के आगे बढ़ने का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि सिकंदर का भारत पे हमला| पूरे भारत में मानवता को हम हरयाणवियों से अच्छा कोई नहीं पाल सकता| दादा-दादी और माँ-बाप ने बचपन से जो बातें सिखाई उनमें उनकी सबसे बड़ी शिक्षा रहती थी कि कभी किसी शरणार्थी-रिफूजी-विस्थापित भाई या समुदाय से कोई द्वेष पाल के मत चलना, उनको कोई तंज मत कसना अपितु जो ऐसा करता हुआ मिले उसको भी ऐसा ना करने की शिक्षा देना और तमाम विद्यार्थी जीवन में उतनी ही तन्मयता से यह किया भी|
और ऐसी ही शिक्षाओं का असर है कि हमने कभी सिकंदर के वक्त से ले के 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में हारने के बाद महाराष्ट्र के जो मराठा भाई (हरयाणा का आज का रोड समुदाय) यहाँ रह गए थे ना ही कभी उनके साथ (क्योंकि वो हरयाणवी संस्कृति का इतना अभिन्न अंग बन गए हैं कि खुद हरयाणवियों से ज्यादा वो हरयाणवी लगते हैं), इनके बाद 1947 में पाकिस्तान से विस्थापित होकर और 1984-86 में आपके असामाजिक व्यवहार के कारण पंजाब से असली पंजाबियों द्वारा जूते खाकर, दो बार हरयाणा में आन बसने वाले आज के आप स्वघोषित पंजाबी यानी हिन्दू अरोड़ा/खत्री हों या 1990 के दशक से और अब तक आ रहे बिहार-बंगाल-असम के विस्थापित भाई हों; हमने किसी के भी साथ हरयाणा में कभी कोई ऐसा वाकया नहीं बनाया जैसा कि बाल ठाकरे से ले राज ठाकरे कभी दक्षिण भारतीय तो कभी उत्तर-पूर्वी भारतीय के नाम पर इन क्षेत्रों के भाईयों को वहाँ मुंबई की सड़कों पे दौड़ा-दौड़ा कर पीट के पेश करते रहे हैं|

और जहां तक मैंने पाया है आजतक हम हरयाणवियों से इन भाइयों को भी कोई शिकायत नहीं आई है सिवाय आपके समाज को छोड़ के| तो महानुभाव क्या बताओगे कि जब बाकी किसी भी शरणार्थी भाई को स्थानीय हरयाणवियों से कोई शिकायत नहीं तो एक अकेले आप लोगों को क्यों हैं? क्यों सीएम साहेब को हरयाणवियों के ऊपर "कंधे से ऊपर कमजोर" होने का तंज मारना पड़ा और वो भी बावजूद सारे हरयाणवी समाज द्वारा बिना किसी विरोध के उनको अपना मुख्यमंत्री स्वीकार कर लेने के?

देखो! अब जिस खाप थ्योरी की विचारधारा और शिक्षा के प्रभाव से हम हरयाणवी ऐसे हैं उसको तो हम त्यागेंगे नहीं, फिर चाहें आप जितना मीडिया, फिल्मों और अपनी तथाकथित पंजाबी सभाओं के जरिये खाप और हरयाणवी को क्रॉस-रोड्स पर उतार लो| यह खाप सोशल थ्योरी और हरयाणत अगर ऐसे ही झोंकों से खत्म हो जाती तो आज विश्व की प्राचीनतम व् जिन्दा सोशल इंजीनियरिंग थ्योरी ना कहलाती| भान रहे यह जिन्दा थी, जिन्दा है और जिन्दा रहेगी| हम हरयाणवियों को अपना अस्तित्व खत्म करने की हद या उसमें आपकी संस्कृति और चाल-चलन को समाहित करने तक के लाड़ लड़ाने आते हैं तो हमें इसको कैसे बनाये रखना है यह भी बहुत अच्छे से आता है|

इसलिए हरयाणवियों ने इतिहास में आप लोगों के लिए जो किया है उसको ध्यान में रखते हुए आपकी बिरादरी के सीएम श्री मनोहर लाल खट्टर को "हरयाणवियों को कंधे से ऊपर कमजोर कहने के बयान पर अपने शब्द वापिस लेने का उनसे आग्रह करें|" हमने आपको हरयाणा में एक होम-स्टेट वाली फील दी है, जो आप पंजाब में भी नहीं ले पाये, जिसके टैग को प्रयोग करके आप खुद को "पंजाबी" कहते हो, जबकि हकीकत में आप ना कभी पंजाब के हो सके और ना ही पंजाबी के| और वो कैसे उसका चिठ्ठा-पठ्ठा ऊपर खोल के रख दिया है, पढ़ते रहिये और अंतर्मन में झांक के पूछते रहिये कि क्या आप वाकई में पंजाबी हो?

धन्यवाद सहित!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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