जो हुआ था औरंगजेब की धर्मान्धता के विरुद्ध ‘गॉड गोकुला’ की सरपरस्ती में,
जाट, मेव, मीणा, अहीर, गुज्जर, नरुका, पंवारों से सजी सर्वखाप की हस्ती में|
हल्दी
घाटी के युद्ध का निर्णय कुछ ही घंटों में हो गया था,
पानीपत के तीनों युद्ध
एक-एक दिन में ही समाप्त हो गए थे,
परन्तु तिलपत
(तब मथुरा में, आज के दिन फरीदाबाद में) का युद्ध तीन दिन चला था|
राणा प्रताप से लड़ने अकबर स्वयं नहीं गया था, परन्त "गॉड-गोकुला“ से लड़ने औरंगजेब को स्वयं आना पड़ा था।
उन्हींसमरवीर प्रथम हिन्दू धर्मरक्षक अमरज्योति गॉड-गोकुला जी महाराज के 345वें
(01/01/1670) बलिदान दिवस पर गौरवपूर्ण नमन!
तब के वो हालत जिनके चलते God Gokula
ने विद्रोह का बिगुल फूंका:
सम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार, गिद्ध, चील उड़ते दिखाई देते थे|
हर तरफ धुंए के बादल और धधकती
लपलपाती ज्वालायें चढ़ती थी|
राजे-रजवाड़े भी जब झुक चुके थे; फरसों के दम तक भी दुबक चुके थे|
ब्रह्माण्ड के ब्रह्मज्ञानियों के ज्ञान और कूटनीतियाँ कुंध हो चली थी|
चारों
ओर त्राहिमाम-2 का क्रंदन था, ना धर्म था ना धर्म के रक्षक थे|
उस उमस के तपते शोलों से तब प्रकट हुआ था वो महाकाल का यौद्धेय|
समरवीर प्रथम हिन्दू धर्मरक्षक अमरज्योति गॉड-गोकुला जी महाराज|
खाप वीरांगनाओं के पराक्रम की साक्षी तिलपत की
रणभूमि:
घनघोर तुमुल संग्राम छिडा, गोलियाँ झमक झन्ना निकली,
तलवार चमक चम-चम लहरा, लप-लप लेती फटका निकली।
चौधराणियों के पराक्रम देख, हर सांस सपाटा ले निकलै,
क्या अहिरणी, क्या गुज्जरी, मेवणियों संग पँवारणी निकलै|
चेतनाशून्य में रक्तसंचारित करती, खाप की एक-2 वीरा चलै,
वो बन्दूक चलावें, यें गोली भरें, वो भाले फेंकें तो ये धार धरैं|
God Gokula के शौर्य, संघर्ष, चुनौती, वीरता और विजय की टार और टंकार राणा प्रताप से ले शिवाजी
महाराज और गुरु गोबिंद सिंह से ले पानीपत के युद्धों से भी कई गुणा भयंकर हुई| जब God Gokula के पास औरंगजेब का
संधि प्रस्ताव आया तो उन्होंने कहलवा दिया था कि, "बेटी दे जा और संधि (समधाणा) ले जा|" उनके इस शौर्य भरे उत्तर
को पढ़कर घबराये औरंगजेब का सजीव चित्रण कवि बलवीर सिंह ने कुछ यूँ किया है:
पढ कर उत्तर भीतर-भीतर
औरंगजेब दहका धधका,
हर गिरा-गिरा में टीस उठी
धमनी धमीन में दर्द बढा।
जब कोई भी मुग़ल सेनापति God Gokula को परास्त नहीं कर
सका तो औरंगजेब को विशाल सेना लेकर God
Gokula द्वारा चेतनाशून्य जनमानस में उठाये गए
जन-विद्रोह को दमन करने हेतु खुद मैदान में उतरना पड़ा| गॉड-गोकुला के नेतृत्व में चले
इस विद्रोह का सिलसिला May 1669 से लेकर December
1669 तक 7
महीने चला और अंतिम निर्णायक युद्ध तिलपत में तीन दिन चला| आज भारतीय संस्कृति व् धर्म
की रक्षा का तथा तात्कालिक शोषण, अत्याचार और राजकीय मनमानी की दिशा मोड़ने का यदि किसी को
श्रेय है तो वह केवल 'गॉड-गोकुला' को है। 'गॉड-गोकुला‘ का न राज्य ही किसी ने छीना लिया था, न कोई पेंशन बंद कर दी थी, बल्कि उनके सामने तो अपूर्व
शक्तिशाली मुग़ल-सत्ता, दीनतापूर्वक, संधी करने की तमन्ना लेकर गिड़-गिड़ाई थी।
Kindly refer to this
article for in detailed highlighted facts of this timeless legend and his
revolution: http://www.nidanaheights.net/choupalhn-dada-gokula-ji-maharaj.html
हर धर्म के खाप विचारधारा (सिख
धर्म में मिशल इसका समरूप हैं) को मानने वाले समुदाय के लिए: हिन्दू धर्म
द्वारा बौद्ध धर्म के ह्रास के बाद से एक लम्बे काल तक सुसुप्त चली खाप थ्योरी
ने महाराजा हर्षवर्धन के बाद से राज-सत्ता से दूरी बना ली थी (हालाँकि जब-जब पानी सर से
ऊपर गुजरा तो ग़ज़नी से सोमनाथ की लूट को छीनने, पृथ्वीराज के कातिल
गौरी को मारने, कुतबुद्दीन ऐबक का विद्रोह करने, तैमूरलंग को हराकर
भारत से भगाने, राणा सांगा की मदद करने हेतु खाप समाज अपनी नैतिकता निभाता
रहा)| जो शक्तियां आज खाप थ्योरी
के समाज पर हावी होना चाह रही हैं, तब इनकी इसी तरह की चक-चक से तंग आकर राजसत्ता इनके भरोसे छोड़, खुद कृषि व् संबंधित
व्यापारिक कार्य संभाल लिए थे| परन्तु यह शक्तियां कभी भारत को स्वछंद व् स्वतंत्र नहीं रख
सकी| और ऐसे में 1669 में जब खाप थ्योरी का समाज "गॉड-गोकुला" के नेतृत्व
में फिर से उठा तो ऐसा उठा कि अल्पकाल में ही भरतपुर और लाहौर जैसी अजेय शौर्य की
अप्रितम रियासतें खड़ी कर दी| ऐसे उदाहरण हमें आश्वस्त करते हैं कि खाप विचारधारा में वो
तप, ताकत और गट्स हैं जिनका अनुपालन मात्र करते रहने से हम सदा इतने सक्षम बने
रहते हैं कि देश के किसी भी विषम हालात को मोड़ने हेतु जब चाहें तब अजेय विजेता की
भांति शिखर पर जा के बैठ सकते हैं|
विशेष: हर्ष होता है जब कोई हिंदूवादी या राष्ट्रवादी संगठन राणा
प्रताप, शिवाजी महाराज व् गुरु गोबिंद सिंह जी के जन्म या शहादत दिवस पर शुभकामनाओं का
आदान-प्रदान करते हैं| परन्तु जब यही लोग "गॉड गोकुला" जैसे अवतारों को (वो
भी हिन्दू होते हुए) याद तक नहीं करते, तब इनकी राष्ट्रभक्ति थोथी लगती है और इनकी इस
पक्षपातपूर्ण सोच पर दया व् सहानुभूति महसूस होती है| दुर्भाग्य की बात है कि
भारत की इन वीरांगनाओं और सच्चे सपूतों का कोई उल्लेख दरबारी टुकडों पर पलने वाले
तथाकथित इतिहासकारों ने नहीं किया। हमें इनकी जानकारी मनूची नामक यूरोपीय यात्री
के वृतान्तों से होती है। अब ऐसे में आजकल भारत के इतिहास को फिर से लिखने की कहने
वालों की मान के चलने लगे और विदेशी लेखकों को छोड़ सिर्फ इनको पढ़ने लगे तो मिल लिए
हमें हमारे इतिहास के यह सुनहरी पन्ने|
खैर इन पन्नों को यह लिखें या ना लिखें (हम
इनसे इसकी शिकायत ही क्यों करें), परन्तु अब हम खुद इन अध्यायों को आगे लावेंगे| और यह प्रस्तुति उसी अभियान का एक हिस्सा है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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