वो कैसे और किन-किन आइडियोलॉजी की जंग है यह? आईये देखते और समझते हैं|
क्योंकि जाट ने जातिवाद इतना ही बर्ता होता तो एक जाट ताऊ देवीलाल, हरयाणा में पहली दफा पाकिस्तानी मूल के भाजपा के दो लोगों (सुषमा स्वराज, पाकिस्तानी मूल की ब्राह्मण व् संघी मंगलसेन, पाकिस्तानी मूल के अरोरा/खत्री; कोई बताये यह तथ्य करनाल के एमपी अश्वनी चोपड़ा को) को अपनी सरकार में मंत्री ना बनाते| वही ताऊ देवीलाल लालू यादव को बिहार की कमांड ना सौंपते और मुलायम सिंह यादव को यूपी की कमांड ना सौंपते| खुद प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़, दो-दो राजपूतों वीपी सिंह व् चंद्रेशखर को प्रधानमंत्री बनाने की बजाये खुद प्रधानमंत्री बनते| भैरों सिंह शेखावत एक राजपूत को जाट की जगह राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाने की तरजीह ना देते| और ऐसे वह राष्ट्रीय ताऊ नहीं कहलाते|
यह तो इनेलो की बुद्धिजीवी सेल को ताऊ देवीलाल की परिभाषा में लुटेरे वर्ग ने हाईजैक कर रखा है, वर्ना 2014 के हरयाणा विधानसभा इलेक्शन के प्रचार में जब पीएम मोदी ने इनेलो के नाम पर यह कहा कि इस एक जाति डोमिनेंट की पार्टी से स्टेट को निजात दिलाओ तो जरूर कोई इनेलो का बुद्धिजीवी तुरन्त यह ऊपर बताये उदाहरण देते हुए मोदी का मुंह थोब देता यानि उसका मुंह बन्द कर देता|
क्योंकि जाट ने जातिवाद इतना बर्ता होता तो एक सर छोटूराम दलितों का दीनबंधु ना कहलाता| जब 1934 में अंग्रेजों ने सैनी-खाती (बढ़ई) व् धोबी जातियों को जमीनों की मलकियत देने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि तुम्हारे पास किसानी स्टेटस नहीं है तो तुम जमीनों के मालिक नहीं बन सकते, तो वह छोटूराम लाहौर विधानसभा का इमरजेंसी सेशन बुलवा इन जातियों के फेवर में "मनसुखी" बिल पास ना करवाता और ना ही उनकी पार्टी के 100% जाट एमएलसी उस बिल पर अपनी मोहर लगाते| और ना ही यह जातियां आज किसान कहलाती, जमीनों की मालिक होती|
क्योंकि जाट ने जातिवाद बरता होता तो चौधरी चरण सिंह दलित-पिछड़े को आरक्षण दिलवाने बारे सर्वप्रथम अपने प्रधानमंत्री काल के दौरान मंडल कमिशन गठित नहीं करते, वही मंडल कमिशन जिसकी रिपोर्ट के आधार पर भारत में आरक्षण लागु हुआ|
क्योंकि जाट ने जातिवाद बरता होता तो चौधरी अजित सिंह ने 1990 में जाट के साथ-साथ गुजर-यादव व् सैनी बिरादरी को ओबीसी में शामिल करने हेतु उस वक्त के प्रधानमंत्री को खत ना लिखा होता, वो सिर्फ जाट के लिए लिखते|
क्योंकि जाट ने जातिवाद बरता होता तो चौधरी सज्जन कुमार, शीला दीक्षित को दिल्ली की मुख्यमंत्री रिकमेंड नहीं करते|
तो फिर आखिर यह जाट बनाम नॉन-जाट की लड़ाई है किस बात की? यह लड़ाई है सीधी-सीधी उन दो आइडियोलोजियों की, जिसके एक सिरे पर जाट डोमिनेंट गणतांत्रिक प्रणाली रही है और दूसरी तरफ जातिवाद के रचयिताओं की सामंतवादी प्रणाली रही है|
तो प्रथम दृष्टया जाट इस बात को अच्छे से समझ लें और अपने आपको इस मानसिकता से उभारे रखें कि आप घोर जातिवादी हैं| हाँ कुछ जातिवादी आइडियोलॉजी को फॉलो करने वाले बेशक हो सकते हैं, परन्तु अधिकतर जाट जातिवादी नहीं है| और इस जाट बनाम नॉन-जाट की एंटी-जाट ताकतों द्वारा ड्राफ्ट व् थोंपी गई जंग को जातिवाद की जंग ना समझें; क्योंकि जातिवाद की यह जंग होती तो एंटी-जाट ताकतें इसको राजकुमार सैनी जैसों के जरिये ना लड़ रही होती; सीधा हमला करती| अत: यह जंग है दो आइडियॉलजियों की|
यह महाराजा सूरजमल की उस आइडियोलॉजी को हराने की जंग है जिसने सामंतवादी आइडियोलॉजी के पूना पेशवाओं को बिना खड्ग-तलवार उठाये, पानीपत के तीसरे युद्ध में बाकायदा फर्स्ट-एड कर वापिस महाराष्ट्र छुड़वा दिया था|
यह जाट समाज की उस गणतांत्रिक आइडियोलॉजी को हराने की जंग है जिससे प्रभावित हो कर एक ब्राह्मण दयानद ऋषि, जाट को उनकी अक्षत लेखनी की पूँजी 'सत्यार्थ प्रकाश' में "जाट जी" व् "जाट-देवता" कह कर स्तुति करते नहीं थकते|
यह सर छोटूराम की उस आइडियोलॉजी को हराने की जंग है जिसने जब कलम चलाई तो सूदखोरी करने वाली एक पूरी कौम को बिना आँख और माथे पर त्योड़ी लाये हरयाणा के गाँवों से गायब कर दिया था|
यानि सूदखोर रहा हो या सामंतवाद, जब जाट का गणत्रंत्र चला तो इसके आगे कोई नहीं डट सका और यही वो फड़का है जिसको यह लोग जाट बनाम नॉन-जाट के जरिये मिटा के सदा के लिए अपनी आइडियोलॉजी को हरयाणा वेस्ट यूपी में निष्कण्टक बनाने को उतारू हैं|
इसलिए "पगड़ी सम्भाल जट्टा, दुश्मन पहचान जट्टा!"
राजकुमार सैनी जैसे मन्दबुद्धि में इतनी अक्ल होती कि उसके समाज को जमीनों के मालिक बनने में मदद करने वाली व् ओबीसी में उनका फेवर करने वाली जाट कौम के खिलाफ वो क्यों प्यादा बन रहा है तो आज यह लड़ाई परोक्ष ना हो के इन दोनों आइडियोलोजियों में सीधे-सीधे हो रही होती और इतिहास गवाह है कि जब-जब सामन्तवाद-सूदखोरवाद जाट के गणतंत्रवाद से सीधा आ टकराया है तब-तब मुंह की खाया है| इसलिए असली दुश्मन सैनी नहीं, सैनी के कन्धे पे तीर रख के चलाने वाले हैं| वो आइडियोलॉजी वाले हैं जो जाट की गणतांत्रिक आइडियोलॉजी को अपनी सामंतवादी व् सूदखोरी की आइडियोलॉजी से रिप्लेस करना चाहते हैं| इसलिए सबसे पहले हर जाट को चाहिए कि जाट बनाम नॉन-जाट के इस ड्रामे के पर्दे के पीछे छुपे इन सामन्तवादियों व् सूदखोरवादियों को समाज के सामने लावें| बस आप इनको सामने लाने का काम कर देवें, बाकी तो फिर जनता खुद ही धूल चटा देगी इनको|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
क्योंकि जाट ने जातिवाद इतना ही बर्ता होता तो एक जाट ताऊ देवीलाल, हरयाणा में पहली दफा पाकिस्तानी मूल के भाजपा के दो लोगों (सुषमा स्वराज, पाकिस्तानी मूल की ब्राह्मण व् संघी मंगलसेन, पाकिस्तानी मूल के अरोरा/खत्री; कोई बताये यह तथ्य करनाल के एमपी अश्वनी चोपड़ा को) को अपनी सरकार में मंत्री ना बनाते| वही ताऊ देवीलाल लालू यादव को बिहार की कमांड ना सौंपते और मुलायम सिंह यादव को यूपी की कमांड ना सौंपते| खुद प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़, दो-दो राजपूतों वीपी सिंह व् चंद्रेशखर को प्रधानमंत्री बनाने की बजाये खुद प्रधानमंत्री बनते| भैरों सिंह शेखावत एक राजपूत को जाट की जगह राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाने की तरजीह ना देते| और ऐसे वह राष्ट्रीय ताऊ नहीं कहलाते|
यह तो इनेलो की बुद्धिजीवी सेल को ताऊ देवीलाल की परिभाषा में लुटेरे वर्ग ने हाईजैक कर रखा है, वर्ना 2014 के हरयाणा विधानसभा इलेक्शन के प्रचार में जब पीएम मोदी ने इनेलो के नाम पर यह कहा कि इस एक जाति डोमिनेंट की पार्टी से स्टेट को निजात दिलाओ तो जरूर कोई इनेलो का बुद्धिजीवी तुरन्त यह ऊपर बताये उदाहरण देते हुए मोदी का मुंह थोब देता यानि उसका मुंह बन्द कर देता|
क्योंकि जाट ने जातिवाद इतना बर्ता होता तो एक सर छोटूराम दलितों का दीनबंधु ना कहलाता| जब 1934 में अंग्रेजों ने सैनी-खाती (बढ़ई) व् धोबी जातियों को जमीनों की मलकियत देने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि तुम्हारे पास किसानी स्टेटस नहीं है तो तुम जमीनों के मालिक नहीं बन सकते, तो वह छोटूराम लाहौर विधानसभा का इमरजेंसी सेशन बुलवा इन जातियों के फेवर में "मनसुखी" बिल पास ना करवाता और ना ही उनकी पार्टी के 100% जाट एमएलसी उस बिल पर अपनी मोहर लगाते| और ना ही यह जातियां आज किसान कहलाती, जमीनों की मालिक होती|
क्योंकि जाट ने जातिवाद बरता होता तो चौधरी चरण सिंह दलित-पिछड़े को आरक्षण दिलवाने बारे सर्वप्रथम अपने प्रधानमंत्री काल के दौरान मंडल कमिशन गठित नहीं करते, वही मंडल कमिशन जिसकी रिपोर्ट के आधार पर भारत में आरक्षण लागु हुआ|
क्योंकि जाट ने जातिवाद बरता होता तो चौधरी अजित सिंह ने 1990 में जाट के साथ-साथ गुजर-यादव व् सैनी बिरादरी को ओबीसी में शामिल करने हेतु उस वक्त के प्रधानमंत्री को खत ना लिखा होता, वो सिर्फ जाट के लिए लिखते|
क्योंकि जाट ने जातिवाद बरता होता तो चौधरी सज्जन कुमार, शीला दीक्षित को दिल्ली की मुख्यमंत्री रिकमेंड नहीं करते|
तो फिर आखिर यह जाट बनाम नॉन-जाट की लड़ाई है किस बात की? यह लड़ाई है सीधी-सीधी उन दो आइडियोलोजियों की, जिसके एक सिरे पर जाट डोमिनेंट गणतांत्रिक प्रणाली रही है और दूसरी तरफ जातिवाद के रचयिताओं की सामंतवादी प्रणाली रही है|
तो प्रथम दृष्टया जाट इस बात को अच्छे से समझ लें और अपने आपको इस मानसिकता से उभारे रखें कि आप घोर जातिवादी हैं| हाँ कुछ जातिवादी आइडियोलॉजी को फॉलो करने वाले बेशक हो सकते हैं, परन्तु अधिकतर जाट जातिवादी नहीं है| और इस जाट बनाम नॉन-जाट की एंटी-जाट ताकतों द्वारा ड्राफ्ट व् थोंपी गई जंग को जातिवाद की जंग ना समझें; क्योंकि जातिवाद की यह जंग होती तो एंटी-जाट ताकतें इसको राजकुमार सैनी जैसों के जरिये ना लड़ रही होती; सीधा हमला करती| अत: यह जंग है दो आइडियॉलजियों की|
यह महाराजा सूरजमल की उस आइडियोलॉजी को हराने की जंग है जिसने सामंतवादी आइडियोलॉजी के पूना पेशवाओं को बिना खड्ग-तलवार उठाये, पानीपत के तीसरे युद्ध में बाकायदा फर्स्ट-एड कर वापिस महाराष्ट्र छुड़वा दिया था|
यह जाट समाज की उस गणतांत्रिक आइडियोलॉजी को हराने की जंग है जिससे प्रभावित हो कर एक ब्राह्मण दयानद ऋषि, जाट को उनकी अक्षत लेखनी की पूँजी 'सत्यार्थ प्रकाश' में "जाट जी" व् "जाट-देवता" कह कर स्तुति करते नहीं थकते|
यह सर छोटूराम की उस आइडियोलॉजी को हराने की जंग है जिसने जब कलम चलाई तो सूदखोरी करने वाली एक पूरी कौम को बिना आँख और माथे पर त्योड़ी लाये हरयाणा के गाँवों से गायब कर दिया था|
यानि सूदखोर रहा हो या सामंतवाद, जब जाट का गणत्रंत्र चला तो इसके आगे कोई नहीं डट सका और यही वो फड़का है जिसको यह लोग जाट बनाम नॉन-जाट के जरिये मिटा के सदा के लिए अपनी आइडियोलॉजी को हरयाणा वेस्ट यूपी में निष्कण्टक बनाने को उतारू हैं|
इसलिए "पगड़ी सम्भाल जट्टा, दुश्मन पहचान जट्टा!"
राजकुमार सैनी जैसे मन्दबुद्धि में इतनी अक्ल होती कि उसके समाज को जमीनों के मालिक बनने में मदद करने वाली व् ओबीसी में उनका फेवर करने वाली जाट कौम के खिलाफ वो क्यों प्यादा बन रहा है तो आज यह लड़ाई परोक्ष ना हो के इन दोनों आइडियोलोजियों में सीधे-सीधे हो रही होती और इतिहास गवाह है कि जब-जब सामन्तवाद-सूदखोरवाद जाट के गणतंत्रवाद से सीधा आ टकराया है तब-तब मुंह की खाया है| इसलिए असली दुश्मन सैनी नहीं, सैनी के कन्धे पे तीर रख के चलाने वाले हैं| वो आइडियोलॉजी वाले हैं जो जाट की गणतांत्रिक आइडियोलॉजी को अपनी सामंतवादी व् सूदखोरी की आइडियोलॉजी से रिप्लेस करना चाहते हैं| इसलिए सबसे पहले हर जाट को चाहिए कि जाट बनाम नॉन-जाट के इस ड्रामे के पर्दे के पीछे छुपे इन सामन्तवादियों व् सूदखोरवादियों को समाज के सामने लावें| बस आप इनको सामने लाने का काम कर देवें, बाकी तो फिर जनता खुद ही धूल चटा देगी इनको|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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