1) सबसे बड़ा सवाल, इस मूवी में भारतीय कोर्ट प्रोसीडिंग्स में "सोशल जूरी"
का कांसेप्ट देखा| समझ नहीं आया कि अगर यह कांसेप्ट भारतीय कानून में
मौजूद है तो आज से पहले देखने सुनने को क्यों नहीं मिला? या फिर फिल्म को
विदेशों में हिट करवाने हेतु इस फार्मूला को एक "शो-ऑफ" की तरह प्रयोग किया
गया? वैसे भी जहां कानून में सोशल जूरी होती है वहाँ तीन करोड़ से ज्यादा
मुकदमे अदालतों में लटके हुए नहीं हो सकते, जैसे कि भारत की स्थिति है|
2) सिंधी और पारसी समुदायों में कट्टरता की हद तक नफरत यानि साम्प्रदायिकता यानि जातिवाद दिखाया गया है| अगर यह इन दोनों समुदायों में धरातल पर भी इसी स्तर का है तो फिर इस बिंदु को सामाजिक हिस्से की सामान्य बात के तौर पर स्वीकार क्यों नहीं किया जाता? क्यों कुछ चुनिंदा जातियों के लोग जब अपनी जाति पर गर्व करते हैं तो उनको फटाक से जातिवादी ठहरा दिया जाता है जबकि इस मूवी वाले केस में इसको बड़ी सहजता से सामान्य बात के तौर पर दिखाया गया है|
3) क्या मीडिया, क्या वकील, क्या रिश्तेदार, सब अपनी-पानी बिरादरी वाले की साइड ऐसे सपोर्ट में लग जाते हैं, जैसे यह पावरी बनाम मखीजा केस ना हो के पारसी बनाम सिंधी युद्ध चल रहा हो| अगर वाकई में इन समाजों में अपने समाज के बन्दे को बचाने हेतु इतनी कौमी-स्पिरिट होती है तो यह वाकई सीखने लायक चीज है|
4) क्या अल्ट्रा-मोडर्न दिखने वाली औरतें वास्तव में इतना बड़ा डिब्बा अक्ल होती हैं कि उनको थोड़ी सी पैसे की चकाचौंध दिखा के कोई भी उल्लू बना सकता है? हर समाज-वर्ग में एक टशन-अदा-सैटायर और स्वाभिमान होता है, जो इस फिल्म की नायिका में रत्ती-भर भी नहीं दिखा| बस ऐसे दिखती रही कि जैसे शो-पीस बना के दिखाने के ऐवज में उससे कोई कुछ भी करवा ले| आखिर इस औरत में इस बात का स्वाभिमान क्यों नहीं दिखाया गया कि वो इतने बड़े डेकोरेटेड नेवी अफसर की पत्नी है| शायद फिर फिल्म की स्क्रिप्ट ही आगे ना बढ़ पाती|
5) सबसे बड़ा लूप-होल लगा कि अक्षय कुमार को नेवी का इतना बड़ा डेकोरेटेड अफसर होते हुए भी मिनिस्ट्री को ट्रंक-कॉल करते हुए इस बात का पता ना होना कि उसकी कॉल रिकॉर्ड की जाएगी| शायद पटकथा को विस्तृत प्लाट व् ड्रामेटिक एंगल देने के लिए स्क्रिप्ट राइटर ने ही यह लूप-होल जानबूझकर डाला होगा|
बाकी कुल मिला के अक्षय पा जी की एक्टिंग छाई रहती है| अक्षय पा जी की पारसी कम्युनिटी वाले न्यूज़ पेपर एडिटर की कॉमेडी मस्त लगी| जज उसको हर बार जेल में डालता रहा और वो बाहर आकर फिर से न्यूज़ छापता रहा; ऐसा लगा कि जैसे उसको जेल प्यारी लगती थी|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
2) सिंधी और पारसी समुदायों में कट्टरता की हद तक नफरत यानि साम्प्रदायिकता यानि जातिवाद दिखाया गया है| अगर यह इन दोनों समुदायों में धरातल पर भी इसी स्तर का है तो फिर इस बिंदु को सामाजिक हिस्से की सामान्य बात के तौर पर स्वीकार क्यों नहीं किया जाता? क्यों कुछ चुनिंदा जातियों के लोग जब अपनी जाति पर गर्व करते हैं तो उनको फटाक से जातिवादी ठहरा दिया जाता है जबकि इस मूवी वाले केस में इसको बड़ी सहजता से सामान्य बात के तौर पर दिखाया गया है|
3) क्या मीडिया, क्या वकील, क्या रिश्तेदार, सब अपनी-पानी बिरादरी वाले की साइड ऐसे सपोर्ट में लग जाते हैं, जैसे यह पावरी बनाम मखीजा केस ना हो के पारसी बनाम सिंधी युद्ध चल रहा हो| अगर वाकई में इन समाजों में अपने समाज के बन्दे को बचाने हेतु इतनी कौमी-स्पिरिट होती है तो यह वाकई सीखने लायक चीज है|
4) क्या अल्ट्रा-मोडर्न दिखने वाली औरतें वास्तव में इतना बड़ा डिब्बा अक्ल होती हैं कि उनको थोड़ी सी पैसे की चकाचौंध दिखा के कोई भी उल्लू बना सकता है? हर समाज-वर्ग में एक टशन-अदा-सैटायर और स्वाभिमान होता है, जो इस फिल्म की नायिका में रत्ती-भर भी नहीं दिखा| बस ऐसे दिखती रही कि जैसे शो-पीस बना के दिखाने के ऐवज में उससे कोई कुछ भी करवा ले| आखिर इस औरत में इस बात का स्वाभिमान क्यों नहीं दिखाया गया कि वो इतने बड़े डेकोरेटेड नेवी अफसर की पत्नी है| शायद फिर फिल्म की स्क्रिप्ट ही आगे ना बढ़ पाती|
5) सबसे बड़ा लूप-होल लगा कि अक्षय कुमार को नेवी का इतना बड़ा डेकोरेटेड अफसर होते हुए भी मिनिस्ट्री को ट्रंक-कॉल करते हुए इस बात का पता ना होना कि उसकी कॉल रिकॉर्ड की जाएगी| शायद पटकथा को विस्तृत प्लाट व् ड्रामेटिक एंगल देने के लिए स्क्रिप्ट राइटर ने ही यह लूप-होल जानबूझकर डाला होगा|
बाकी कुल मिला के अक्षय पा जी की एक्टिंग छाई रहती है| अक्षय पा जी की पारसी कम्युनिटी वाले न्यूज़ पेपर एडिटर की कॉमेडी मस्त लगी| जज उसको हर बार जेल में डालता रहा और वो बाहर आकर फिर से न्यूज़ छापता रहा; ऐसा लगा कि जैसे उसको जेल प्यारी लगती थी|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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