Tuesday, 13 December 2016

जो बिहार-बंगाल में पानी का गिलास भी खुद से उठाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं, वो हरयाणा में आ के मजदूरी तक करते हैं!

किस्सा मेरा आप-देखा है, इसलिए कहानी शत-प्रतिशत सच्ची लिख रहा हूँ; लेशमात्र भी बनावट या मिलावट नहीं है| बीच-बीच में हरयाणवी-बिहारी-बंगाली कल्चर का तड़का लगाते हुए कहानी आगे बढ़ेगी; इसलिए पढ़ने बैठो तो अंत तक पढ़ना|

बचपन में जब से होश संभाला, तब से हमारे खेतों में गेहूं कटाई और धान रोपाई के सीजनों पर बिहार-बंगाल-उड़ीसा-आसाम से वहाँ के सवर्णों के सताये दलित-महादलित-ओबीसी वर्गों के कभी 10 तो कभी 12 तो कभी 20 की मण्डली में दिहाड़ी-मजदूरी कर हमारे यहां रोजी कमाने आते देखा, आज भी आते हैं|

उधर बाहरवीं के एग्जाम खत्म हुए और इधर गेहूं कटाई-कढ़ाई का सीजन (हरयाणवी में लामणी) शुरू हो गया| पिता जी ने अबकी बार 14+1=15 बिहारी मजदूरों की आई टोली के साथ ट्रेक्टर-ट्राली-थ्रेसर की मशीनों, उनके खाने-पीने का अरेंजमेंट और देखभाल करने पर मेरी ड्यूटी लगाई थी| दिन-रात का कोई होश नहीं था, सोने-जागने का कोई वक्त नहीं था| सुबह 5 बजे निकल जाना, रातों को 12-1 बजे तक घर आना और कभी तो कई-कई रातें खेतों में ऊपर-की-ऊपर उतर जाना| रात को 1 बजे आओ या 2 बजे, सुबह के 5 बजे निकल जाना फिक्स था, वर्ना पिता जी का कहर झेलो| 45 एकड़ गेहूं की कढ़ाई और तूड़े की ढुलाई होनी थी, कम से कम 20 दिन लगने थे|

फोर्ड ट्रेक्टर के पीछे दो 4-4 पहियों वाली ट्रोलियां, उनके पीछे हिडिम्बा थ्रेशर की मशीन और फिर उसके पीछे थ्रेसर की पुलि में जुआ फँसा के उलझाए बुग्गी| बिहारी मजदूरों में कोई मेरे साथ ट्रेक्टर पर बैठा, कोई ट्रॉलियों में लेटा तो कोई बुग्गी पे ऊंघता; यूँ चला करता था मेरा लगभग 100 मीटर लम्बा काफिला|

जब तक हिडिम्बा गेहूं के गद्दों के लोड में रंभाती और फोर्ड की वो धुररर-धुररर की क्षितिज तक जाती प्रतीत होती धुंए की ये लम्बी-काली-घनी नागिन सी नाचती धार और आसमान को गुंजायमान कर देने वाली फोर्ड की रेंगती आवाजें कानों में नहीं गूंजती, नींद ही नहीं खुलती थी| आज भी जब यह दृश्य यादों के पट्टल पर गूंचे मारते हैं तो मन करता है अभी उड़ चलूँ, उन्हीं डोलों-गोहरों के गुलफाम में|

खैर, मुद्दे की बात पर आता हूँ| हुआ यूँ कि जो 14+1=15 बिहारी मजदूरों की टोली को मैनेज कर रहा था, उसमें एक उनका सरदार था और बाकी सब वर्कर| टोली के सरदार को वह आपस में ठेकेदार बुलाते थे| ठेकेदार का काम पूरी टोली का मेरे सहयोग और दिशानिर्देश से खाना-पीना, दवा-दारु और बही-खाता मैनेज और अरेंज करना होता था| उसकी टोली कब कितना काम करेगी यह निर्धारण करना उसका काम होता था; हमारे किसी भी प्रकार के प्रेशर से वो फ्री होते थे|

पर मेरे केस में मेरी मर्जी नहीं चलती थी, पिताजी के आदेशानुसार मुझे घेर में अपना सौ मीटर लम्बा काफिला कल्लेवार सूरज निकलने से पहले तेल-पानी फुल करके, खुद भी अध्-बिलोई लस्सी से फुल हो के, मुंह-अँधेरी खड़ा कर देना होता था| फिर चाहे वहाँ से मजदूर चलने में दो घण्टे लगाएं या एक। पर एक बात की मौज थी, जैसे ही मैंने मेरे फोर्ड, हिडिम्बा, दो ट्राली और बुग्गी का काफिला जोड़ के खड़ा किया, ठेकेदार भागा हुआ आता और कहता बाबु जी मजदूर रात को दो बजे ट्राली खाली करके सोये हैं, अभी थोड़ा वक्त लेंगे, आप एक काम करें आपके लिए वो खटिया बिछवा दी है, उस पर सुस्ता लें|

मैं उनको बोलता की देखो अभी सवा-पांच हुए हैं, सात बजे से पहले-पहले यहां से उड़ लेना होगा, वर्ना बड़े बाबु जी (मेरे पिता जी) का खुंडी-रूंडी-मर्दो-रोजनी-बोली-बड्डी-लागड़-हरर्या-फुल्ली-सिंगलो-भिंडों-भिड़नी-मारनी-फड़कनी पूंछ से मख्खियां उड़ाती, मस्ती में जुगाली करती शेरनी की चाल में चलती हुई भैंसों का लंगार (काफिला) जोहड़ से आ गया तो खुद भी सुनोगे और मुझे भी हड़कवाओगे| हाँ तुम्हें सोना-सुलाना है तो खेतों में जा के जिसका मन हो वो सो-सुस्ता लेना; पर यहां इससे ज्यादा देरी नहीं| और ठेकेदार कहता कि आप फ़िक्र ना करो, अभी तैयार करता हूँ सबको| यहां बताता चलूं कि दोपहर को यह लोग दो से तीन घण्टे लंच के बाद खेतों में सो लिया करते थे, इसलिए देर रात तक काम करते थे| क्योंकि रात को गर्मी कम होती थी|

उन दिनों गाम वाला झोटा जो कि अपने ही घर का छोड़ा हुआ था, वो रातभर खेतों में घूम के सुबह-सुबह ठीक मेरी खाट जो किठेकेदार घेर के नीम के पेड़ तले लगवा देता था, उसके किनारे आन खड़ा होता और मेरे को लाड-भरी खैड़ (अपना सर और सींग) मार के, उसके लिए भिगो के रखा हुआ चाट (रेहड़ियों वाला छोले-भटूरे वाला चाट नहीं, हमारे यहां भैंस-झोटे जो भिगोया हुआ अनाज-खल-बिनोला खाते हैं, उसको भी चाट कहते हैं, तो वो वाला चाट) मांगने लगता| मैं उसको वो डाल के खिलाता, थोड़ी उस गाँव के देवता की सेवा करता (हरयाणवी कल्चर में गाँव के झोटे व् सांड को देवता माना जाता है) और उधर इतने में ठेकेदार अपनी टोली को तैयार कर ट्रेक्टर-ट्रॉलियों में बैठा देता|

गेहूं कढ़ाई शुरू हुए दो-तीन दिन हुए, मैंने एक अजीब बात नोट करी| खेतों में गेहूं-कढ़ाई के दौरान जो कोई भी थोड़ा सा बैठ के सुस्ताने लगे, यहां तक कि खैनी-गुटखा-बीड़ी के लिए भी रुके तो ठेकेदार उसपे झल्ला के पड़े कि बैठो मत, वर्ना दिहाड़ी काट लूंगा; सिर्फ एक हट्टे-कट्टे से को छोड़ के| मेरा कई बार मन हुआ कि ठेकेदार से पूछूँ कि इस मोटे पे इतनी रहमत क्यों, पर सोचा कहीं काम में दखल ना पड़े इसलिए नहीं टोका|

छटे दिन, तीन बजे के करीब गेहूं की ट्राली ला के पुराणी हवेली (जो कि पिछले कई दशकों से हमारा अनाज गोदाम है) के आगे रोक दी| जब से कढ़ाई का काम शुरू हुआ था, यह पहला दिन था जब हम दिन का सूरज गाँव में देख रहे थे| ठेकेदार मेरे को तीसरे दिन से ही कहने लगा था कि बाबू जी टोली को मच्छी खाना है, कुछ जुगाड़ करो| मैं कहा मखा मेरे दादा का डोगा गाँव-गुहांड की न्यार (पशुचारा) पाड़ने वालियों का भूत है; अगर पता लग जाए ना कि खेत में फतेह सिंह नम्बरदार आ लिया है तो अपनी दरांती-पल्लियाँ ऐसे छोड़ के भागती हैं जैसे कोई धाड़ पड़ गई हो; तो तू क्या चाहता है कि तू अपने साथ-साथ मेरा भी बक्कल उतरवायेगा? मखा हमारे यहां दूध-दही-घी का खाना चलता है, इन मॉस-मच्छियों को हम हाथ ना लगाते| पर वो जिद्द करने लगे तो मैंने बोल दिया कि करता हूँ कोई जुगाड़|

तो उस दिन तीन बजे गाँव आ गए थे तो ठेकेदार बोला कि आज यह ट्राली अनलोड करने के बाद सब रेस्ट फरमाएंगे, और मच्छी-चावल की पार्टी करेंगे; सो आज आप इसका अरेंज कर दो| तो मैंने कहा कि चल ले-ले इनमें से एक बन्दे को साथ| तभी टोली से वो हट्टा-कट्टा मोटा आया और बोला बाबु जी मैं चलूंगा साथ| मैं उनको गाँव के नाई-वाले जोहड़ पर ले गया| हमारे एक जानकार ने उस जोहड़ में मच्छी-पालन का ठेका लिया था| मैंने उससे बात कर ली थी| वहाँ जा के उसको बोला कि निकाल लो जितनी की जरूरत है| वो मोटा जोहड़ में घुस के मच्छियां पकड़ने लगा| मैं ठेकेदार के साथ जोहड़ किनारे बैठ गया| तो तभी मुझे खेत वाली बात याद आई तो ठेकेदार से पूछा, वार्तालाप कुछ यूँ हुई:

मैं: तुम बाकियों को तो काम में थोड़ा सा ढीला पड़ते ही टोक देते हो और इस मोटे को कुछ नहीं कहते; जबकि यह काम के दौरान दो-दो घण्टे सोता भी रहता है?

ठेकेदार: वो क्या है बाबु जी, कि हम बाकी सब तो कोई दलित है, कोई महादलित, तो कोई ओबीसी परन्तु यह हमारे गाँव के ठाकुर हैं|

मैं (अचंबित होते हुए): हैयँ, गाँव का ठाकुर? तो फिर यह तुम्हारे साथ क्या करने आया है?

ठेकेदार: वो क्या है ना बाबु जी, यह आप लोगों की तरह मजदूरों के साथ खेतों में नहीं खटते| ना आपकी तरह मजदूर को सीरी-साझी यानी काम में पार्टनर मानते, बल्कि नौकर-मालिक की तरह व्यवहार करते हैं| जैसे मैं एक दलित होते हुए आपके बगल में बैठा हूँ, ऐसे हम हमारे बिहार में इनके बगल में बैठने की तो कल्पना भी नहीं कर सकते| यह सिर्फ खेत किनारे खड़े हो के हुक्म देना जानते हैं| खुद से पानी का गिलास उठा के पीना भी अपनी शान में गुस्ताखी समझते हैं| और इसीलिए इनके पास जमीनें होने पर भी यह अधिकतर कंगाल हो रखे हैं| दूसरा इनके सवर्णवादी रवैये और जाति-पाती के जहर के चलते, हम अधिकतर लोग इधर आपके यहां हरयाणा-पंजाब में इज्जत की मजदूरी करने चलते आते हैं; तो ऐसे में अब तो इनको खेतों के किनारे खड़ा हो के हुक्म देने को मजदूर भी नहीं बचे|

मैं: अच्छा तो, पर यह यहां तो औरों से कम बेशक परन्तु काम तो कर रहा है| अभी देख लो तुम दलित हो के मेरे साथ बैठे हो और यह ठाकुर हो के तुम्हारे लिए मच्छियां पकड़ने हेतु तालाब में उतरा हुआ है?

ठेकेदार: जनाब, यह इनकी मजबूरी है| वहाँ भूखे मरने की हालत है तो यहां साथ चले आये| और यह मछलियां तो इसलिए पकड़ रहा है, क्योंकि इसको वहाँ ट्राली अनलोड करने पे छोड़ के आते तो दो-दो मंजिल पर गेहूं के कट्टे चढ़ाना भारी हो जाता है| इसको उस काम से यह मच्छी पकड़ना आसान लगा| तो चुपके से मौका लपक लिया| अब यह ठहरा ठाकुर, तो इसके आगे बाकी की टोली वाले यह भी नहीं कह सके कि हम जायेंगे|

मैं: तो जब इनको खेतों में काम करना है तो यहां आ के करने की बजाये बिहार में अपने खेतों में क्यों नहीं करते?
ठेकेदार: झूठी आन और शान की वजह से|

मैं: तो फिर वहाँ तुम्हारे गांव में जब पता चलेगा कि यह यहां मजदूरी कर रहा है, उससे शान में कमी नहीं आएगी?

ठेकेदार: नहीं बाबु जी, क्योंकि वहाँ यह, यह बोल के आया है कि हम पिकनिक पे जा रहे हैं|

मैं: ओह, मखा यह खूब रही; साला इस म्हारे हरयाणे की माट्टी में ही कुछ चमत्कार है जो इसपे आ के लोगों को मजदूरी भी पिकनिक लगने लगती है| खैर, तू यह और बता कि जब तू औरों को टोक देता है और इसको नहीं टोकता तो बाकी टोली वाले तेरे इस पक्षपात का विरोध नहीं करते?

ठेकेदार: नहीं बाबु जी, क्योंकि हमें वापिस तो वहीँ जाना है ना| यहां जो इनके आराम करने पे आवाज उठाएगा, बिहार वापिस जाने पे ठाकुर और भूमिहार ब्राह्मणों को बोल के यह हमारा हुक्का-पानी बन्द करवा देगा; जो कुछ यहां से कमा के ले जायेंगे, वो तक छिनवा देगा|

मैं: ओह तेरी| ठाकुर के कहर का आतंक यहाँ भी चला आया|

इतने में उधर ठाकुर साहब ने तालाब से टोली की जरूरत के हिसाब से मच्छियां पकड़ ली|

अब मैंने ठेकेदार से कहा देख, तुम लोगों का बहुत मन था सो मच्छियां दिलवा दी हैं; परन्तु पकाने की जगह और वक्त ऐसा चुनना जब दादा जी घेर की तरफ ना हों; वर्ना इतना समझ लेना, ले डोगगें, दे डोगगें दादा थारा तो सूड़ सा ठा ए देगा; गेल्याँ बक्कल सा मेरा भी उतारा जागा| पहले बता दिया है कहीं बाद में फिर कहे|

ठेकेदार बोला, अरे चिंता ना करो बाबु जी, रात को बनाएंगे; वीसीआर पर सिनेमा देखते हुए|

मैं, ओह तो मतलब अब तुम्हारा वीसीआर का और जुगाड़ करना है|

इसके बाद, ठेकेदार ने ठाकुर साहब को मच्छियों की पोटली उठवा के घेर की तरफ रवाना किया और हम दोनों चले वीसीआर वाले की दूकान पे; उनके रात के सिनेमा का जुगाड़ करने|

माफ़ करना दोस्तों, कहानी थोड़ी लम्बी हो गई; परन्तु मुझे लगा कि इसमें साथ-साथ हरयाणवी-बिहारी कल्चर का तड़का लगा के, इसको पढ़ने वाले नॉन-हरयाणवीयों को हरयाणवी कल्चर का परिचय भी करवाता चलूं| तो कुल मिलाकर बात यह थी कि जो बिहार में पानी का गिलास भी खुद से उठाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं, वो हरयाणा में आ के मजदूरी तक करते हैं| बता दो यह बात टीवी के डब्बों में बैठे नॉन-हरयाणवी मुँहफटों को कि इज्जत करनी सीख लो कुछ इस हरयाणा की पावन धरा और कल्चर की|

मैंने, एम.बी.ए. एक नेशनल स्तर के ऐसे टॉप बिज़नस स्कूल से करी है जिसमें भारत की 24 स्टेटों के स्टूडेंट्स पढ़ते थे, परन्तु वहाँ कभी भी यह ऊपर वर्णित गौरव और अहम नहीं दिखाया; जो कि किसी भी अच्छे-से-अच्छे के तेवर ढीले कर दे| परन्तु जब मेरी ऐसी सुन्दर-विस्तृत-गहरी-गरिमामयी कल्चर पे इन्हीं राज्यों की तरफ के कुछ बेअक्ले भोंकते हैं तो यह पन्ने यूँ खोलने पड़ते हैं|

अगले भाग में एक ऐसी ही कहानी, दादा-दादी के जमाने में भारत विभाजन के वक्त पाकिस्तान से आये परिवारों की ले के आ रहा हूँ; जो मैंने मेरी दादी के कर-कमलों और दरियादिली से होती देखी थी| उसको पढ़ के सहज अंदाजा लगा लोगे कि जब लोग जाटों के बारे यह बोलते हैं कि हरयाणा में जाटों को गैर-जाट सी.एम. हजम नहीं हो रहा तो यह सुनके क्यों मेरा भीतर उबल पड़ता है|

अनुरोध: हर आत्मसम्मानी हरयाणवी युवा-युवती से अनुरोध है कि अपने-अपने जीवन के ऐसे किस्सों की सोशल-मीडिया पर ऐसी बाढ़ ला दो कि यह हरयाणा-हरयाणवी-हरयाणत की आलोचना-चुगली करने वालों की चोंच चूं तक ना कर पाए| You know 'लेखन-क्रांति ऑफ़ लिटरेचर', बस वही मचा दो|

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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