उद्घोषणा: इस पंक्ति को पढ़ के मुझे घोर जातिवादी बताने वाले इस पोस्ट से
दूर रहें, क्योंकि जब इस प्रथा की कमियों की बात आती है तो इसकी कमियां
बतलाने वाले इसको जाटों की प्रथा बता के कमियां गिनवाते हैं, और यह मुझे
जातिवादी कहने वाले उस वक्त बिलकुल नहीं बोलते कि यह तो हमारी भी प्रथा है;
तो फिर मैं इसकी खूबियां भी इसको मुख्यत: जाटों की बता के क्यों ना
गिनवाऊँ?
अब विषय की बात: अस्सी के दशक में एक हरयाणवी फिल्म आई थी "सांझी" जो "विधवा-पुनर्विवाह" को बाध्यता बना के दर्शाती है| जो इस फिल्म में दिखाया गया है वह मुश्किल से 5-7% मामलों में होता है, जबकि इस फिल्म ने जो 90-95% मामलों में होता है वह तो दिखाया ही नहीं था| वह आपको मैं बताता हूँ| लगे हाथों बता दूँ कि हरयाणा में "विधवा पुनर्विवाह" को "करेवा" या "लत्ता ओढ़ाना" भी बोलते हैं|
विधवा-पुनर्विवाह औरत की स्वेच्छा होती है बाध्यता नहीं: इसके 4 उदाहरण खुद मेरे परिवार-कुनबे के देता हूँ|
उदाहरण एक: काकी सम्भल (व्यक्तिगत प्राइवेसी के चलते बदला हुआ नाम) काका की बहु| काका गुजरे तो काकी की उम्र 35-40 वर्ष के बीच रही होगी| सिर्फ दो बेटियां थी| छोटा काका कुंवारा था, उसका लत्ता ओढ़ने का ऑफर हुआ| तो काकी ने छोटे काका के सामने कुछ टर्म्स एंड कंडीशन्स रखी| बात नहीं बन पाई तो काकी दिवंगत काका यानि अपने दिवंगत पति से (पति के बाद पत्नी उसकी चल-अचल सम्पत्ति की बाई-डिफ़ॉल्ट मालकिन होती है, वैसे होती तो जीते-जी भी है परन्तु वकीलों-रजिस्ट्रारों की मोटी फीसों व् खर्चों के चलते कागजी कार्यवाही कोई-कोई ही करवाता है) नियम के तहत अपनी दोनों बेटियों के साथ ख़ुशी से रहने लगी| थोड़े दिन बाद पीहर में जा बसी और आज दोनों बेटियां पढ़ा-लिखा के ब्याह दी|
उदाहरण दो: काकी सिद्धा (व्यक्तिगत प्राइवेसी के चलते बदला हुआ नाम) काका की बहु| काका गुजरे तो सिर्फ तीन बेटियां थी| विधवा होने के वक्त उम्र 30-35 वर्ष के बीच रही होगी| जेठ का लत्ता ओढाने का ऑफर हुआ, क्योंकि पति के सभी भाई ब्याहे जा चुके थे| काकी ने मना कर दिया और अपने दिवंगत पति की चल-अचल सम्पत्ति पे स्वाभिमान से मेहनत कर तीनों बेटियों को पढ़ाया लिखाया व् ब्याह दिया|
उदाहरण तीन: काकी सुजीत (व्यक्तिगत प्राइवेसी के चलते बदला हुआ नाम) काका की बहु| काका गुजरे तो सिर्फ दो बेटे थे, काकी की उम्र भी 30 साल से कम, M.A. पास| छोटा देवर कुंवारा था, परन्तु करेवा करवाने से मना कर दिया| अपने दोनों बच्चों को पढ़ा-लिखा रही है, working from home woman (वर्किंग फ्रॉम होम वीमेन) है| खेत भी सम्भालती है और प्राइवेट नौकरी भी करती है|
उदाहरण चार: सुदेश बुआ (व्यक्तिगत प्राइवेसी के चलते बदला हुआ नाम), 30 साल की उम्र में विधवा हो गई, सिर्फ दो बेटे थे| पीहर में रहती हैं, परन्तु एक बेटा दादा-दादी के पास छोड़ रखा है और एक खुद के पास| कोई चक-चक नहीं अपनी मर्जी से जीवन जीती है| दोनों लड़के कॉलेज गोइंग हो चुके हैं|
तो यह है जाट समाज में पाई जाने वाली "विधवा-पुनर्विवाह" की प्रथा|
इस प्रथा की कमियां: कई बार जमीन-जायदाद के लालच में, औरत को अपने काबू में रखने के चक्कर में, विधवा के पुनर्विवाह के वक्त उसकी मर्जी नहीं पूछी जाती| ऐसे 5-7% मामले हैं; परन्तु उन समाजों के सिस्टम से तो लाख गुना बेहतर सिस्टम है यह, जहां औरत को विधवा होते ही उसकी उम्र देखे बिना, उसको उसके दिवंगत पति की चल-अचल सम्पत्ति से बेदखल कर, आजीवन विधवा आश्रमों में सड़ने व् गैर-मर्दों की वासनापूर्ति का साधन बनने हेतु फेंक दी जाती हैं| यह विधवा-आश्रम सिस्टम गंगा के घाटों पर खासकर पाया जाता है| इस अमानवता व् पाप का एक बड़ा अड्डा वृन्दावन के विधवा-आश्रम भी हैं|
जाटों में इस प्रथा के होने को राजस्थान के कुछ स्वघोषित उच्च समाज इसको जाटों का पिछड़ापन व् नीचता मानते हैं और इसको जाटों से नफरत करने के मुख्य कारणों में एक गिनते हैं (अब इसके कारण किसी की नफरत के पात्र जाट बनें तो फिर इस प्रथा की अच्छाइयों का श्रेय जाट अपने सर क्यों न धरें?)| पता नहीं यह कैसे उच्च हैं जो नारी को सम्मान का जीवन देने को भी नीचता कहते हैं|
चलते-चलते बता दूँ कि हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी-दिल्ली में सिर्फ जाट ही नहीं वरन यहां की सम्पूर्ण जातियां इस प्रथा को गर्व से फॉलो करती हैं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
अब विषय की बात: अस्सी के दशक में एक हरयाणवी फिल्म आई थी "सांझी" जो "विधवा-पुनर्विवाह" को बाध्यता बना के दर्शाती है| जो इस फिल्म में दिखाया गया है वह मुश्किल से 5-7% मामलों में होता है, जबकि इस फिल्म ने जो 90-95% मामलों में होता है वह तो दिखाया ही नहीं था| वह आपको मैं बताता हूँ| लगे हाथों बता दूँ कि हरयाणा में "विधवा पुनर्विवाह" को "करेवा" या "लत्ता ओढ़ाना" भी बोलते हैं|
विधवा-पुनर्विवाह औरत की स्वेच्छा होती है बाध्यता नहीं: इसके 4 उदाहरण खुद मेरे परिवार-कुनबे के देता हूँ|
उदाहरण एक: काकी सम्भल (व्यक्तिगत प्राइवेसी के चलते बदला हुआ नाम) काका की बहु| काका गुजरे तो काकी की उम्र 35-40 वर्ष के बीच रही होगी| सिर्फ दो बेटियां थी| छोटा काका कुंवारा था, उसका लत्ता ओढ़ने का ऑफर हुआ| तो काकी ने छोटे काका के सामने कुछ टर्म्स एंड कंडीशन्स रखी| बात नहीं बन पाई तो काकी दिवंगत काका यानि अपने दिवंगत पति से (पति के बाद पत्नी उसकी चल-अचल सम्पत्ति की बाई-डिफ़ॉल्ट मालकिन होती है, वैसे होती तो जीते-जी भी है परन्तु वकीलों-रजिस्ट्रारों की मोटी फीसों व् खर्चों के चलते कागजी कार्यवाही कोई-कोई ही करवाता है) नियम के तहत अपनी दोनों बेटियों के साथ ख़ुशी से रहने लगी| थोड़े दिन बाद पीहर में जा बसी और आज दोनों बेटियां पढ़ा-लिखा के ब्याह दी|
उदाहरण दो: काकी सिद्धा (व्यक्तिगत प्राइवेसी के चलते बदला हुआ नाम) काका की बहु| काका गुजरे तो सिर्फ तीन बेटियां थी| विधवा होने के वक्त उम्र 30-35 वर्ष के बीच रही होगी| जेठ का लत्ता ओढाने का ऑफर हुआ, क्योंकि पति के सभी भाई ब्याहे जा चुके थे| काकी ने मना कर दिया और अपने दिवंगत पति की चल-अचल सम्पत्ति पे स्वाभिमान से मेहनत कर तीनों बेटियों को पढ़ाया लिखाया व् ब्याह दिया|
उदाहरण तीन: काकी सुजीत (व्यक्तिगत प्राइवेसी के चलते बदला हुआ नाम) काका की बहु| काका गुजरे तो सिर्फ दो बेटे थे, काकी की उम्र भी 30 साल से कम, M.A. पास| छोटा देवर कुंवारा था, परन्तु करेवा करवाने से मना कर दिया| अपने दोनों बच्चों को पढ़ा-लिखा रही है, working from home woman (वर्किंग फ्रॉम होम वीमेन) है| खेत भी सम्भालती है और प्राइवेट नौकरी भी करती है|
उदाहरण चार: सुदेश बुआ (व्यक्तिगत प्राइवेसी के चलते बदला हुआ नाम), 30 साल की उम्र में विधवा हो गई, सिर्फ दो बेटे थे| पीहर में रहती हैं, परन्तु एक बेटा दादा-दादी के पास छोड़ रखा है और एक खुद के पास| कोई चक-चक नहीं अपनी मर्जी से जीवन जीती है| दोनों लड़के कॉलेज गोइंग हो चुके हैं|
तो यह है जाट समाज में पाई जाने वाली "विधवा-पुनर्विवाह" की प्रथा|
इस प्रथा की कमियां: कई बार जमीन-जायदाद के लालच में, औरत को अपने काबू में रखने के चक्कर में, विधवा के पुनर्विवाह के वक्त उसकी मर्जी नहीं पूछी जाती| ऐसे 5-7% मामले हैं; परन्तु उन समाजों के सिस्टम से तो लाख गुना बेहतर सिस्टम है यह, जहां औरत को विधवा होते ही उसकी उम्र देखे बिना, उसको उसके दिवंगत पति की चल-अचल सम्पत्ति से बेदखल कर, आजीवन विधवा आश्रमों में सड़ने व् गैर-मर्दों की वासनापूर्ति का साधन बनने हेतु फेंक दी जाती हैं| यह विधवा-आश्रम सिस्टम गंगा के घाटों पर खासकर पाया जाता है| इस अमानवता व् पाप का एक बड़ा अड्डा वृन्दावन के विधवा-आश्रम भी हैं|
जाटों में इस प्रथा के होने को राजस्थान के कुछ स्वघोषित उच्च समाज इसको जाटों का पिछड़ापन व् नीचता मानते हैं और इसको जाटों से नफरत करने के मुख्य कारणों में एक गिनते हैं (अब इसके कारण किसी की नफरत के पात्र जाट बनें तो फिर इस प्रथा की अच्छाइयों का श्रेय जाट अपने सर क्यों न धरें?)| पता नहीं यह कैसे उच्च हैं जो नारी को सम्मान का जीवन देने को भी नीचता कहते हैं|
चलते-चलते बता दूँ कि हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी-दिल्ली में सिर्फ जाट ही नहीं वरन यहां की सम्पूर्ण जातियां इस प्रथा को गर्व से फॉलो करती हैं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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